Wednesday, 31 August 2022

मुझे आश्चर्य है कि वे प्रधानमंत्री कैसे बन गए - ओशो

जीवन में पहली बार मैं हैरान रह गया। क्योंकि मैं तो एक राजनीतिज्ञ से मिलने गया था। और जिसे मैं मिला वह राजनीतिज्ञ नहीं वरन कवि था। जवाहर लाल राजनीतिज्ञ नहीं थे। अफसोस है कि वह अपने सपनों को साकार नहीं कर सके। किंतु चाहे कोई खेद प्रकट करे, चाहे कोई वाह-वाह कहे, कवि सदा असफल ही रहता है यहां तक कि अपनी कविता में भी वह असफल होता है। असफल होना ही उसकी नियति है। क्यों कि वह तारों को पाने की इच्छा करता है। वह क्षुद्र चीजों से संतुष्ट् नहीं हो सकता। वह समूचे आकाश को अपने हाथों में लेना चाहता है।…

एक क्षण के लिए हमने एक दूसरे की आंखों में देखा। आँख से आँख मिली और हम दोनों हंस पड़े। और उनकी हंसी किसी बूढ़े आदमी की हंसी नहीं थी। वह एक बच्चे की हंसी थी। वे अत्यंत सुदंर थे, और मैं जो कह रहा हूं वही इसका तात्पर्य है। मैंने हजारों सुंदर लोगो को देखा है किंतु बिना किसी झिझक के मैं यह कह सकता हूं कि वह उनमें से सबसे अधिक सुंदर थे। केवल शरीर ही सुंदर नहीं था उनका।

अभी भी मैं विश्वास नहीं कर सकता कि एक प्रधानमंत्री उस तरह से बातचीत कर सकते है। वे सिर्फ ध्यान से सुन रहे थे और बीच-बीच में प्रश्न पूछ कर उस चर्चा को और आगे बढा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे चर्चा को सदा के लिए जारी रखना चाहते थे। कई बार प्रधानमंत्री के सैक्रेटरी ने दरवाजा खोल कर अंदर झाँका। परंतु जवाहरलाल समझदार व्यक्ति थे। उन्होंने जानबूझ कर दरवाजे की ओर पीठ की हुई थी। सैक्रेटरी को केवल उनकी पीठ ही दिखाई पड़ती थी। परंतु उस समय जवाहरलाल को किसी की भी परवाह नहीं थी। उस समय तो वे केवल विपस्यना ध्यान के बारे में जानना चाहते थे।…

जवाहरलाल तो इतने हंसे कि उनकी आंखों में आंसू आ गए। सच्चे कवि का यही गुण है। साधारण कवि ऐसा नहीं होता। साधारण कवियों को तो आसानी से खरीदा जा सकता है। शायद पश्चिम में इनकी कीमत अधिक हो अन्यथा एक डालर में एक दर्जन मिल जाते है। जवाहरलाल इस प्रकार के कवि नहीं थे— एक डालर में एक दर्जन, वे तो सच में उन दुर्लभ आत्माओं में से एक थे जिनको बुद्ध ने बोधिसत्वत कहा है। मैं उन्हें बोधिसत्वत कहूंगा।

मुझे आश्चर्य था और आज भी है कि वे प्रधानमंत्री कैसे बन गए। भारत का यह प्रथम प्रधानमंत्री बाद के प्रधानमंत्रियों से बिलकुल ही अलग था। वे लोगों की भीड़ द्वारा निर्वाचित नहीं किए गए थे, वे निर्वाचित उम्मीदवार नहीं थे — उन्हें महात्मा गांधी ने चुना था। वे महात्मा गांधी की पंसद थे।

और इस प्रकार एक कवि प्रधानमंत्री बन गया। नहीं तो एक कवि का प्रधानमंत्री बनना असंभव है। परंतु एक प्रधानमंत्री का कवि बनना भी संभव है जब वह पागल हो जाए। किंतु यह वही बात नहीं है। तो मैं ने सोचा था कि जवाहरलाल तो केवल राजनीति के बारे में ही बात करेंगे, किंतु वे तो चर्चा कर रहे थे काव्य की और काव्यात्मक अनुभूति की।…

(ओशो)

आज अमृता प्रीतम का जन्मदिन है / विजय शंकर सिंह

अमृता प्रीतम (1919-2005) पंजाबी की सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब के गुजराँवाला, जो अब पाकिस्तान मे है, में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था। 

अमृता प्रीतम का बचपन लाहौर में बीता और उनकी शिक्षा भी वहीं हुई। उन्होंने किशोरावस्था से ही, लिखना शुरू कर दिया था। 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, 1988 में बल्गारिया वैरोव अंतराष्ट्रीय पुरस्कार; और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार माने जाने वाले, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें अपनी पंजाबी कविता 'अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ' के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी।

उनकी एक कविता पढ़ें, 
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वह कहता था,वह सुनती थी,
जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था ‘कहो’
एक में लिखा था ' सुनो '

अब यह नियति थी या महज़ संयोग?
उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’।

वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह जानती थी,
'कहना-सुनना' नहीं हैं केवल क्रियाएं।

राजा ने कहा, :ज़हर पियो'
वह मीरा हो गई।

ऋषि ने कहा, 'पत्थर बनो'
वह अहिल्या हो गई।

प्रभु ने कहा, 'निकल जाओ'
वह सीता हो गई।

चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
वह सती हो गई।

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द, सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।
उसके हाथ कभी नहीं लगी वह पर्ची,
जिस पर लिखा था, ‘कहो'' ।
~ अमृता प्रीतम

(विजय शंकर सिंह)




Tuesday, 30 August 2022

मिखाइल गोर्बाचेव का निधन / विजय शंकर सिंह

मिखाईल गोर्बाचोव, वह व्यक्ति थे, जिन्हे, जिन्हे पश्चिमी यानी अमेरिकी ब्लॉक ने सिर्फ इसलिए महिमामंडित किया था, कि, उन्होंने सोवियत रूस को विखंडित कर दिया था, और दो ध्रुवीय दुनिया अचानक एक ध्रुवीय हो गई। उनके बाद, मार्क्सवाद या समाजवादी व्यवस्था पर पूंजीवादी खेमे की तरफ से तरह तरह के सवाल उठाए गए और समाजवाद के खात्मे की बात भी कही गई। पर मार्क्सवाद, जिन समस्याओं के उपचार या निदान की बात करता है, जब तक वे समस्याएं, समाज और जनता में व्याप्त रहेंगी, तब तक मार्क्सवाद कभी भी अप्रासंगिक नहीं होगा, और पूंजीवाद, उन समस्याओं का स्वाभाविक कारक है। इसे पूंजीवाद भी जानता और समझता है। 

अमेरिका के किसी शहर के पिज्जा हट में, स्वादिष्ट पिज्जा का लुत्फ लेते हुए मिखाईल गोर्बाचोव की यह तस्वीर 1997 की है, जब रूस में बेतहाशा खाने पीने की दिक्कत हो गई थी, अमेरिकी ब्लॉक के षड्यंत्रों से सोवियत रूस की आर्थिकी बेहद संकट में थी। इसे "शॉक थेरेपी" भी तब कहा गया था। शीत युद्ध खत्म हो चुका था और अमेरिका दुनिया का दारोगा बन चुका था। पूंजीवाद का वह एक सुनहरा काल था। जहां तक मैं देखता हूं, वहां तक मेरा ही साम्राज्य है का भाव, अमेरिका पर तारी था। पर उसे भी लंबे समय तक ऐसे ही निर्द्वंद्व और चुनौतीविहीन नहीं रहना था और अब वह भी चुनौतियां झेल रहा है। अब वह दरकने भी लग गया है। 
 
गोर्बाचोव का आकलन करते हुए, चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, देंग शियाओपिंग से कभी कहा था, 
"यह आदमी स्मार्ट लग सकता है, लेकिन वास्तव में बेवकूफ है।"

सोवियत रूस के विखंडन में मिखाईल गोर्बाचोव की क्या भूमिका थी, क्या वे सीआईए द्वारा प्लांट किए गए थे, क्या ग्लासनोस्ट समय की जरूरत थी, क्या रूस का लम्बे समय से शीत युद्ध में फंसे रहना, भी इसका एक कारण है, क्या सोवियत रूस ने अमेरिकी प्रतिस्पर्धा में लोककल्याण के विभिन्न जरूरी कार्यों की तुलना में अपने संसाधनों का गलत दिशा में उपयोग किया, या मार्क्सवाद की वह वैचारिक विफलता थी, आदि आदि सवाल, गोर्बाचोव और सोवियत विखंडन के संदर्भ में उठते रहेंगे। इनपर लेख किताबें लिखी गई हैं। आगे भी लिखी जाती रहेंगी। मत मतांतर भी होंगे। 

इतिहास, छोड़ता किसी को भी नहीं है। सबका मूल्यांकन करता रहता है और यह एक सतत प्रक्रिया है। पर आज सिर्फ इतना ही। मृत्यु चरम सत्य है। उन्हे शांति मिले। श्रद्धांजलि। 

(विजय शंकर सिंह)

कनक तिवारी / उदार गांधी की नज़र में सावरकर-कथा (2)

(6) केन्द्रीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की उपस्थिति में हिन्दुत्व के जमावड़े की रक्षा करते दरअसल उन पर ही सर्जिकल स्ट्राइक कर ली है। यह कह दिया कि महात्मा गांधी के कहने से सावरकर ने (सावरकर बंधु भी कहा जा सकता है) माफीनामा लिखा था। संघ परिवार और भाजपा झूठ बोलने के सिद्धहस्त महारथी हैं। बेचारा झूठ खुद उनसे पनाह मांगता रहता है। टेलीविजन के चैनल ‘आज तक‘ पर बापू के प्रपौत्र और मेरे मित्र तुषार गांधी और सावरकर के पौत्र रंजीत सावरकर की बहस सु्रप्रसिद्ध एंकरानी अंजना ओमकश्यप संचालित कर रही थीं। दोनों वंशज अपने अपने पूर्वजों की ही शैली में कहते प्रतीत हो रहे थे। पक्षपाती एंकर को जोश नहीं आया क्योंकि तुषार गांधी ने लगातार अपने कथनों और अपनी पुस्तकों में गांधी को जीवित रखा है। साथ ही गांधी का प्रपौत्र होते सावरकर की चरित्र हत्या भी नहीं की। 

(7) दरअसल दिसंबर 1919 में अंगरेजी शाही आदेश लन्दन से निकला था। अंगरेज ने अपनी चतुर और कुटिल रणनीति के चलते सभी तरह के बंदियों को रिहा करने के अपने इरादे का ऐलान किया था। उसके कई कारण रहे होंगे। जेलों का खर्च बढ़ रहा था। कई अपराधियों की तो सजा खत्म हो चली थी। कई अपराधियों को स्वामिभक्त बनाने का भी चस्का रहा होगा। यह भी जांचना चाहते रहे होंगे कि जेल यातना के कारण कितने वतनपरस्त आगे वतनपरस्ती में टिक पाएंगे, या सियासत और आजादी की लड़ाई से बेरुख होकर गुलाम रियाया में तब्दील हो जाएंगे। अंगरेजी में जारी यह राजाज्ञा सरकारी हिन्दी अनुवाद में अंगरेज की बदनीयती को साथ ठीक ठीक पकड़ नहीं पाती। अंगरेजी भाषा में हिन्दी व्याकरण के श्लेष, यमक, अन्योक्ति, वक्रोक्ति, ब्याजनिन्दा, ब्याजस्तुति अलंकारों वगैरह का इतना चुस्त, कुटिल और फसीह भी प्रयोग होता है कि माना जाता है ये सब अलंकार उनकी ही कोख के हैं। उस राजाज्ञा का सही हिन्दी में अनुवाद करने में कठिनाई है। कई लोग मतिभ्रम में पड़ सकते हैं। उसे जस का तस पढ़ना मुुनासिब होगा। 

(8) आपकी सुविधा के लिए वह राॅयल प्रोक्लेमेशन इस तरह है It is my earnest desire at this time that so far as possible any trace of bitterness between people and those who are responsible for My Government should be obliterated. Let those who in their eagerness for political progress had broken the law in the past respect it in the future. Let it become possible for those who are charged with the maintenance of peaceful and orderly Government to forget the extravagances which they have had to curb. A new era is opening. Let it begin with a common determination among My people and officers to work together for a common purpose. I therefore direct My Viceroy to exercise in My name and on My behalf My Royal clemency to political offenders in the fullest measure which in his judgement is compatible with the public safety. I desire him to extend it on this condition to persons who for offences against the State or under any special or emergency legislation, are suffering imprisonement or restriction upon their liberty. I trust that this leniency will be justified by the future conduct of those whom it benefits and that all My subjects will so demean themselves as to render it unnecessary to force the laws for such offences hereinafter.-The Royal Proclamation. 

(9) गांधी ने ‘यंग इंडिया‘ 26 मई 1920 में लिखा ‘‘मैं भारत सरकार और प्रदेश सरकारों का भी शुक्रिया अदा करता हूं जिनके कारण कई लोगों को इस सार्वजनिक क्षमादान का लाभ मिला है। लेकिन कई विख्यात राजनीतिक अपराधी हैं, जो अभी छूटे नहीं हैं। उनमें मैं सावरकर बंधुओं को शामिल करता हूं। ये राजनीतिक अपराधी उसी तरह हैं जिस तरह कुछ लोग पंजाब में छोड़ दिए गए हैं। इसके बावजूद दोनों भाइयों को आज़ादी नहीं मिली है। हालांकि राजाज्ञा हुए पांच महीने का वक्त बीत गया है। सावरकर को 24 दिसंबर 1910 में उसी तरह सजा मिली जिस तरह उनके भाई को 9 जून 1909 को मिली थी। सावरकर के आरोप पत्र में हत्या के लिए उकसाए जाने का अपराध भी शामिल किया गया। हालांकि उनके खिलाफ यह अपराध सिद्ध नहीं हुआ।‘‘ 

(10) गांधी ने आगे लिखा ‘‘दोनों भाइयों ने अपने राजनीतिक विचारों का खुलासा कर दिया है। दोनों ने कहा है उनके मन में किसी प्रकार के क्रान्तिकारी मन्सूबे नहीं हैं। अगर उन्हें छोड़ दिया गया तो वे 1919 के रिफाॅम्र्स आदेशों के तहत काम करना पसन्द करेंगे। उनका खयाल है इस रिफाॅर्म (गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट 1919) के तहत लोगों को भारत के लिए राजनीतिक जिम्मेदारियां मिल जाती हैं। दोनों ने बिना शर्त कह दिया है कि वे ब्रिटेन से आजादी नहीं चाहते। इसके बरक्स उन्हें लगता है कि भारत की तकदीर ब्रिटेन के साथ रहकर ही बेहतर गढ़ी जा सकती है। किसी ने भी उनकी बयानों या ईमानदारी पर शक नहीं किया है। मेरा ख्याल है कि उन्होंने जो इरादे सार्वजनिक किए हैं, उन पर ज्यों का त्यों भरोसा कर लेना चाहिए। मेरे ख्याल से जो बात इससे भी बड़ी है। वह यह है कि आज बेखटके कहा जा सकता है कि इस समय भारत में हिंसावादी विचारधारा के मानने वालों की संख्या बहुत कम है।‘‘

 इसकी सूक्ष्म उपपत्ति राजनाथ सिंह और रंजीत सावरकर ने सिर के ऊपर से इसलिए गुजार दी क्योंकि जानबूझकर हंगामा ही खड़ा करना उनका मकसद रहा है। कुछ चुनाव होने वाले हैं। वहां वे हर घटना से अपने वोट बैंक के लिए फायदा ज़रूर उठाना चाहेंगे। 

(11) सत्य के आधुनिक मसीहा गांधी पर झूठ का लबादा ओढ़ाने की अजीब घिनौनी कोशिश है! जिस गांधी ने अपने अवमानना का मुकदमा चलने पर अंगरेज जज से माफी नहीं मांगी, जबकि वह उनको छोड़ना चाहता था। गांधी ने यही कहा कि मैं सत्य का उपासक हूं। मैं सच कह रहा हूं। मेरे मन में आपके लिए कोई अवमानना नहीं है। बेचारे जज ने उन्हें छोड़ तो दिया लेकिन अपनी नौकरी बचाने के नाम पर चेतावनी भर दे दी। मरणासन्न कस्तूरबा तक को अपने सिद्धांतों और कार्यक्रम को चलाते रहने के इरादे से गांधी ने माफी नहीं मांगने का अपना दुख भी व्यक्त किया। लेकिन यही कहा कि मुझे डटे रहना चाहिए का समर्थन तुम भी करोगी। 1931 में भगतसिंह के लिए भी माफी देने को गांधी ने अंगरेज को तो नहीं लिखा क्योंकि गांधी और भगतसिंह दोनों जानते थे कि हत्या के आरोपी को माफ करने का कोई अंगरेज विधान नहीं है। इसके अलावा किसी भी कीमत पर भगतसिंह ने मौत को गले लगाना तय कर रखा था। उन्हें छुड़ाने की को​शिश को सुनकर अपने पिता और परिवार को भी झिड़की दी थी। सावरकर को तो मर जाने का कोई खतरा नहीं था। तब भी माफी मांग ली? राजनाथ सिंह ने संघ परिवार के प्रवक्ता बनते तोहमत गांधी पर मढ़ दी।

कनक तिवारी
(Kanak Tiwari) 

उदार गांधी की नज़र में सावरकर-कथा (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/1_29.html 


गुजरात दंगे से जुड़ी सभी याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने आज, 30 अगस्त को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा दायर याचिका सहित दस याचिकाओं का निपटारा कर दिया, जिसमें 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हिंसा के मामलों में उचित जांच की मांग की गई थी। इन दस मामलों में, एनएचआरसी द्वारा दायर स्थानांतरण याचिकाएं, दंगा पीड़ितों द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिकाएं और 2003-2004 के दौरान एनजीओ सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस द्वारा दायर रिट याचिका शामिल थी, जिसमें हिंसा के मामलों में गुजरात पुलिस से सीबीआई को जांच स्थानांतरित करने की मांग की गई थी। 

सीजेआई यूयू ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने सुनवाई के बाद इन मामलों को निराधार बताया कि अदालत ने दंगों से संबंधित नौ मामलों की जांच और अभियोजन के लिए एक विशेष जांच दल का गठन किया था।  इनमें से आठ मामलों में सुनवाई पूरी हो चुकी है।  एसआईटी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने पीठ को बताया कि नरोदा गांव क्षेत्र से संबंधित केवल एक मामले (नौ मामलों में से) की सुनवाई अभी लंबित है और अंतिम बहस के चरण में है।  अन्य मामलों में, परीक्षण पूरे हो गए हैं और मामले उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपीलीय स्तर पर हैं।

पीठ ने यह भी कहा कि, "याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश अधिवक्ता अपर्णा भट, एजाज मकबूल और अमित शर्मा ने एसआईटी के बयान को निष्पक्ष रूप से स्वीकार किया।"

पीठ ने आदेश में कहा, 
"चूंकि सभी मामले अब निष्फल हो गए हैं, इस अदालत का विचार है कि इस न्यायालय को अब इन याचिकाओं पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए मामलों को निष्फल होने के रूप में निपटाया जाता है।"

पीठ ने आगे निर्देश दिया,
"हालांकि यह निर्देश दिया जाता है कि नरोदा गांव के संबंध में मुकदमे को कानून के अनुसार निष्कर्ष निकाला जाए और उस हद तक इस अदालत द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल निश्चित रूप से कानून के अनुसार उचित कदम उठाने का हकदार होगा।"

अधिवक्ता अपर्णा भट ने पीठ को बताया कि,
" सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, जिनके एनजीओ सिटीजन फॉर पीस एंड जस्टिस ने दंगों के मामलों में उचित जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में आवेदन दायर किया था, की सुरक्षा की मांग करने वाली एक याचिका लंबित है।  उस मामले में,  सीतलवाड़ से कोई निर्देश नहीं मिल सका है, क्योंकि वह इस समय गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज एक नए मामले में हिरासत में है।"

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने सीतलवाड़ को राहत के लिए संबंधित प्राधिकरण के समक्ष आवेदन करने की छूट दी और कहा, 
"जहां तक ​​सुश्री सीतलवाड़ द्वारा प्रार्थना की गई सुरक्षा का संबंध है, उन्हें उचित प्रार्थना करने और संबंधित प्राधिकारी को आवेदन करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। जब भी ऐसा आवेदन किया जाता है, तो इसे कानून के अनुसार निपटाया जाएगा।"

(विजय शंकर सिंह)

Monday, 29 August 2022

कनक तिवारी / उदार गांधी की नज़र में सावरकर-कथा (1)



(1) विनायक दामोदर सावरकर ने साफ कहा था कि हिन्दू वह है जो सिंधु नदी से लेकर सिंधु अर्थात समुद्र तक फैले भू भाग को अपनी पितृभूमि मानता है और उनके रक्त का वंशज है। जो उस जाति या समुदाय की भाषा संस्कृत का उत्तराधिकारी है और अपनी धरती को पुण्य भूमि समझता है। जहां उसके पूर्वज, दार्शनिक, विचारक, ऋषि और गुरु पैदा हुए हैं। हिन्दुत्व के प्रमुख लक्षण हैं एक जाति और एक संस्कृति। 

गोलवलकर ने तो अपनी पुस्तक ‘‘वीः अवर नेशनहुड डिफाइंड‘‘ में यहां तक कहा कि हमारा एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र के जीवन को उच्चता और उज्जवलता के शिखर पर बैठाना है। वे ही राष्ट्रवादी हैं, देशभक्त हैं जो हिन्दू जाति को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से अपनी गतिविधियों में संलग्न हैं। बाकी सब लोग दगाबाज़ और राष्ट्र के शत्रु हैं। इस दृष्टि से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा स्वीकार करनी होगी। उन्हें हिन्दू धर्म के प्रति सश्रद्ध होना होगा। उन्हें और किसी आदर्श को नहीं अपनाना है लेकिन वे इस देश में हिन्दू राष्ट्र के मातहत बिना कोई मांग या सुविधा के साथ रह सकते हैं। उन्हें किसी तरह की प्राथमिकता यहां तक कि नागरिक के भी अधिकार नहीं मिलेंगे।                आश्चर्यजनक रूप से एक मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने भी हिन्दुत्व की परिभाषा स्थिर करने में इस पूरी पृष्ठभूमि का खुलासा नहीं किया जिसमें यहां तक कहा गया था कि पहला हिन्दू राज्य महाराष्ट्र में स्थापित होगा। 

(2) विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न देने का मौजूदा केन्द्र सरकार का इरादा बहुमत के कारण तो कभी भी लागू हो सकता है। बशर्ते उसका वोट बैंक बढ़े। जो शिवसेना के कारण महाराष्ट्र में चुनाव के वक्त नहीं हो पाया। सावरकर ने ही हिन्दू धर्म की अपनी ढपली, अपना राग जैसे ‘हिंदुत्व‘ शब्द का आविष्कार किया। युवावस्था में ही मिली तकलीफदेह जेल यातनाओं के भी कारण बर्बर गोरी हुकूमत को लगातार माफीनामे लिखते लिखते कैद से बरी तो हो गए। लेकिन आज़ादी के कई बरस बाद तक बर्तानवी हुकूमत को दिए गए लिखित वायदे के कारण उसके खिलाफ मुंह तक नहीं खोला। ऐसा करते तो माफीनामे का कलंक धुलता तो नहीं लेकिन धुंधला हो सकता था। यही आरोप भी उन पर लगाया जाता है।              विवादों की पृष्ठभूमि से अलग हटकर राष्ट्रपिता की सयानी गरिमामय बुद्धि की नज़र से सावरकर की भूमिका और उनके विचारों के असर को तटस्थ भाषा में समझना मुनासिब होगा। गांधी की हत्या को लेकर सावरकर पर लगा आरोप सबूतों के अभाव में तकनीकी साक्ष्य संहिता के कारण भले ही सिद्ध नहीं हो पाया हो। 

(3) श्यामजीकृष्ण वर्मा और सावरकर सहित कई हिंसा समर्थक भारतीयों से एक सभा में लन्दन में हिंदुओं के आराध्य राम के जीवन के मूल संदेश को खोजने लम्बी बहस हुई। फकत राक्षसों की हिंसा तक सीमित नहीं कर उसके बनिस्बत लोकतंत्र के आदर्श आयामों के आधार पर रामराज्य स्थापित करने की बात गांधी ने सावरकर की सम्मान सभा में कही। सभा की अध्यक्षता करने वहां और कोई तैयार नहीं हुआ था। अंगरेज हुक्कामों से भी बहस मुबाहिसे में गांधी को नाउम्मीदी मिली थी। खिन्न और निराश गांधी ने अंतर में अकुलाते कड़वे पराजित अवसाद को बुद्धिजीविता की रचनाशीलता में मुखर किया। 

दक्षिण अफ्रीका लौटते 13 नवंबर से 22 नवंबर, 1909 तक ‘एस0एस0 किल्डोनन कैसल‘ नामक पानी के जहाज पर गुजराती में ‘हिन्द स्वराज्य‘ बीजग्रंथ बारी बारी से दोनों हाथों से लिख डाला। भारत सहित पूरी दुनिया के लिए राजनीतिक फलसफा के फलक को वह पुस्तिका नायाब, मौलिक, अनोखी और विचारोत्तेजक देन हुई। 

(4) सावरकर द्वारा आश्वस्त कर दिए जाने पर लगभग हमउम्र युवा मदनलाल धींगरा ने अंगरेज अधिकारी सर कर्जन वाइली की लंदन में सरेआम हत्या कर दी। सावरकर पर कुछ और हिंसक कारनामों के लिए फ्रांस से जुगाड़कर हथियार भेजने का आरोप भी लगा था। 

इस पर खुद गांधी का लिखा विवरण पढ़ना बेहतर है ‘‘वे काफी समय तक लन्दन में रहे। यहां उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक आन्दोलन चलाया। वह एक वक्त में ऐसी हालत में पहुंच गया कि सावरकर पेरिस से भारत को बन्दूकें आदि भेजने लग गए थे। पुलिस की निगरानी से भाग निकलने की उनकी सनसनी फैला देने वाली कोशिश और जहाज के झरोखे से उनका फ्रांसीसी समुद्र में कूद पड़ना भी हुआ। नासिक के कलेक्टर श्री ए.एम. टी. जैक्सन की हत्या के सिलसिले में उन पर यह आरोप लगाया गया था कि जिस पिस्तौल से जैक्सन की हत्या की गई, वह सावरकर द्वारा लन्दन से भेजी गई पिस्तौलों में से एक थी।......सन् 1857 के सिपाही विद्रोह पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी, जो जब्त कर ली गई है। सन् 1910 में उन पर मुकदमा चलाया गया और 24 सितम्बर, 1910 को उन्हें वही सजा दी गई जो उनके भाई को दी गई थी। सन् 1911 में उन पर लोगों को हत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया। लेकिन इनके विरुद्ध भी किसी प्रकार की हिंसा का आरोप सिद्ध नहीं हो पाया।‘‘ 

(5) यह अलग बात है कि इसके बाद सावरकर ने लगातार ताबड़तोड़ माफीनामे लिखकर अंगरेज सल्तनत से अपनी रिहाई मांगी। उन्हें अंततः अन्दमान की कठिन जेल सजा से 1921 और 1924 में निजात भी मिली। राजनीतिक घटनाएं जनयुद्ध के योद्धा गांधी की माइक्रोस्कोपिक और टेलेस्कोपिक नज़रों से ओझल नहीं होती थीं। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे गांधी 1920 में तिलक के निधन के बाद कांग्रेस के सर्वमान्य नेता हो गए। कभी कभार पार्टी की सदस्यता और पद पर नहीं रहकर भी कांग्रेस के सलाहकार की भूमिका में सक्रिय रहते गांधी का फैसला संगठन को अमूमन कुबूल होता था।
(जारी )

कनक तिवारी
(Kanak Tiwari) 


Sunday, 28 August 2022

रेहान फ़ज़ल / मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की गिरफ़्तारी की कहानी

1857 में जब अंग्रेज़ों का दिल्ली पर फिर कब्ज़ा हो गया तो कैप्टन विलियम हॉडसन क़रीब 100 सैनिकों के साथ बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को पकड़ने शहर से बाहर निकले. जब हॉडसन ने हुमायूं के मकबरे का रुख़ किया तो उनके दल पर अभी भी दिल्ली की सड़कों पर मौजूद विद्रोहियों में से किसी ने फ़ायर नहीं किया. हॉडसन को ज़रूर इस बात की फ़िक्र थी कि पता नहीं हुमायूं के मकबरे पर मौजूद लोग उनके साथ कैसा सलूक करें, इसलिए उन्होंने अपने आप को पहले मकबरे के पास मौजूद खंडहरों में छिपा लिया. हाल ही में 1857 के विद्रोह पर किताब 'द सीज ऑफ़ डेल्ही' लिखने वाले और इस समय लंदन में रह रहे अमरपाल सिंह बताते हैं, 'हॉडसन ने मकबरे के मुख्यद्वार से महारानी ज़ीनत महल से मिलने और बादशाह को आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार करने के लिए अपने दो नुमाइंदों मौलवी रजब अली और मिर्ज़ा इलाही बख़्श को भेजा. बादशाह ज़फ़र अभी तक हथियार डालने के बारे में मन नहीं बना पाए थे. दो घंटों तक कुछ भी नहीं हुआ. हॉडसन यहाँ तक सोचने लगे थे कि शायद उनके नुमाएंदों की मकबरे के अंदर हत्या कर दी गई है लेकिन तभी हॉडसन के नुमाइंदे इस संदेश के साथ बाहर आए कि ज़फ़र सिर्फ़ हॉडसन के सामने ही आत्मसमर्पण करेंगे और वो भी तब जब हॉडसन खुद जनरल आर्चडेल विल्सन द्वारा दिए गए वादे को उनके सामने दोहराएंगे कि उनके जीवन को बख़्श दिया जाएगा.'

बादशाह ने पहले पुराने क़िले में शरण ली ~ 

अंग्रेज़ी ख़ेमे में इस बात पर शुरू से उलझन थी कि किसने और कब बहादुरशाह ज़फ़र को उनकी ज़िदगी बख़्श देने का वादा किया था? इस बारे में गवर्नर जनरल के आदेश शुरू से ही साफ़ थे कि विद्रोही चाहे कितने ही बड़े या छोटे हों, अगर वो आत्मसमर्पण करना चाह रहे हों तो उनके सामने कोई शर्त या सीमा नहीं रखी जाए. शुरू में जब अंग्रेज़ दिल्ली में घुसे तो बादशाह ने किले के अंदर अपने महल में ही रहने का फ़ैसला किया. 16 सितंबर, 1857 को ख़बर आई कि अंग्रेज़ सेना ने किले से कुछ सौ गज़ दूर विद्रोही ठिकाने पर कब्ज़ा कर लिया है और वो सिर्फ़ इसलिए किले में प्रवेश नहीं कर रहे रहे हैं क्योंकि उनके पास बहुत कम संख्या में सैनिक हैं.  19 सिंतंबर को बादशाह ने अपने पूरे परिवार और अमले के साथ महल छोड़कर अज़मेरी गेट के रास्ते पुराने क़िले जाने का फ़ैसला किया. 20 सितंबर को अंग्रेज़ों को ख़ुफ़िया सूत्रों से ख़बर मिली कि ज़फ़र पुराना क़िला छोड़ कर हुमायूं के मकबरे में पहुँच गए हैं. मैंने अमरपाल सिंह से पूछा कि एक तरफ़ तो अंग्रेज़ विद्रोहियों को बेरहमी से सरेआम फाँसी पर चढ़ा रहे थे, लेकिन वो बादशाह की ज़िंदगी बख़्शने के लिए तैयार थे. इसकी क्या वजह थी तो उनका जवाब था, 'एक तो बहादुरशाह बहुत बुज़ुर्ग थे और वो इस विद्रोह के सिर्फ़ नाममात्र के नेता थे. दूसरे अंग्रेज़ दिल्ली में दोबारा घुसने में सफल ज़रूर हो गए थे लेकिन उत्तरी भारत के दूसरे हिस्सों में लड़ाई अब भी जारी थी और अंग्रेज़ो को कहीं न कहीं डर था कि अगर बादशाह की जान ली गई तो विद्रोहियों की भावनाएं भड़क सकती हैं. इसलिए विल्सन इस बात पर राज़ी हो गए कि अगर बादशाह आत्मसमर्पण कर दें तो उनकी जान बख़्शी जा सकती है.'

बहादुरशाह ज़फ़र ने अपने हथियार हॉडसन को सौंपे ~

विलियम हॉडसन ने अपनी किताब 'ट्वेल्व इयर्स ऑफ़ द सोलजर्स लाइफ़ इन इंडिया' में एक प्रत्यक्षदर्शी ब्रिटिश अफ़सर द्वारा उनके भाई को लिखे पत्र के हवाले से लिखा, 'मकबरे से बाहर आने वालों में सबसे आगे थीं महारानी ज़ीनत महल. उसके बाद पालकी में बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र चल रहे थे." हॉडसन ने आगे बढ़कर बादशाह से हथियार डालने के लिए कहा. ज़फ़र ने उनसे पूछा, क्या आप ही हॉडसन बहादुर हैं? क्या आप मुझसे किए गए वादे को मेरे सामने दोहराएंगे? कैप्टेन हॉडसन ने जवाब दिया कि 'जी हाँ. सरकार को आपको ये बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि अगर आपने हथियार डाल दिए तो आप, ज़ीनत महल और उनके बेटे के जीवन को बख़्श दिया जाएगा. लेकिन अगर आपको बचाने की कोशिश की गई तो मैं इसी जगह आपको कुत्ते की तरह गोली से उड़ा दूँगा.' तब बुज़र्ग बादशाह ने अपने हथियार हॉडसन को सौंपे, जिसे उसने अपने अर्दली को थमा दिया.'

बहादुरशाह ज़फ़र की नज़रें ज़मीन पर गड़ी थीं ~

शहर में घुसने के बाद बादशाह ज़फ़र को पहले बेगम समरू के घर में रखा गया और HM 61st के 50 जवानों को उनकी निगरानी के लिए चुना गया. कैप्टेन चार्ल्स ग्रिफ़िथ उन अफ़सरों में थे जिन्हें बहादुर शाह ज़फ़र की निगरानी की ज़िम्मेदारी दी गई थी. बाद में उन्होंने अपनी किताब 'द नरेटिव ऑफ़ द सीज ऑफ़ डेल्ही' में लिखा, 'मुग़ल राजवंश का आख़िरी प्रतिनिधि एक बरामदे में एक साधारण चारपाई पर बिछाए गए गद्दे पर पालथी मार कर बैठा हुआ था. उनके रूप में कुछ भी भव्य नहीं था सिवाए उनकी सफ़ेद दाढ़ी के जो उनके कमरबंद तक पहुंच रही थी. मध्यम कद और 80 की उम्र पार कर चुके बादशाह सफ़ेद रंग की पोशाक पहने हुए थे और उसी कपड़े की एक पगड़ी उनके सिर पर थी. उनके पीछे उनके दो सेवक मोर के पंखों से बनाए गए पंखे से उन पर हवा कर रहे थे. उनके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था. उनकी नज़रें ज़मीन पर गड़ी हुई थीं. उनसे तीन फ़िट की दूरी पर एक दूसरी पलंग पर एक अंग्रेज़ अफ़सर बैठा हुआ था. उसके दोनों ओर संगीन लिए दो अंग्रेज़ सैनिक खड़े हुए थे. अफ़सर को निर्देश थे कि अगर बादशाह को बचाने की कोशिश होती है तो वो अपने हाथों से बादशाह को वहीं गोली से उड़ा दे.' 

हॉडसन शहज़ादों की पहचान के लिए शाही परिवार के सदस्यों को ले गए ~

उधर बादशाह को पकड़े जाने के एक दिन बाद 22 सितंबर तक जनरल आर्चडेल विल्सन ये तय नहीं कर पाए थे कि उस समय तक जीवित शहज़ादों का क्या किया जाए जो अभी भी हुमांयू के मक़बरे के अंदर मौजूद थे. कैप्टेन हॉडसन का मानना था कि इससे पहले कि वो भागने की कोशिश करें उन्हें हिरासत में ले लिया जाए. इन शहज़ादों में शामिल थे विद्रोही सेना के प्रमुख मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्ज़ा ख़िज़्र सुल्तान और मिर्ज़ा मुग़ल के बेटे मिर्ज़ा अबूबक्र.
जनरल विल्सन की सहमति से हॉडसन ने 100 सैनिकों का एक गिरफ़्तारी दल बनाया जिसमें उनकी मदद कर रहे थे लेफ़्टिनेंट मेकडॉवल. ये पूरा दल घोड़ों पर धीरे धीरे चलते हुए हुमायूं के मक़बरे के लिए रवाना हुआ. हॉडसन ने अपने साथ शाही परिवार के एक सदस्य और बादशाह के भतीजे को ले जाने की एहतियात बरती थी. उससे वादा किया गया था कि अगर वो उनके प्रतिनिधि के तौर पर काम करे और शहज़ादों को हथियार डालने के लिए राज़ी करवा ले तो उसकी जान बख़्श दी जाएगी. उसको शहज़ादों को पहचानने का काम भी दिया गया था क्योंकि हॉडसन ख़ुद किसी शहज़ादे को पहचानते नहीं थे.

काफ़ी मशक्कत के बाद शहज़ादे हथियार डालने के लिए हुए राज़ी ~

हॉडसन मकबरे से आधा मील पहले ही रुक गए. उन्होंने बादशाह के भतीजे और अपने मुख्य ख़ुफ़िया अधिकारी रजब अली को इस संदेश के साथ शहज़ादों के पास भेजा कि वो बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दें वरना परिणाम झेलने के लिए तैयार रहें. हॉडसन अपनी किताब में लिखते हैं कि उनके नुमाइंदो को शहज़ादों को हथियार डालने के लिए मनाने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. आधे घंटे बाद शहज़ादों ने हॉडसन को संदेश भेजकर पूछा कि क्या वो उन्हें न मारने का वादा करते हैं? हॉडसन ने इस तरह का कोई वादा करने से इनकार कर दिया और उनके बिना शर्त आत्मसमर्पण करने की बात दोहराई. इसके बाद हॉडसन ने शहज़ादों को उन तक लाने के लिए दस सैनिकों का एक दल भेजा. बाद में लेफ़्टिनेंट मेक्डॉवेल ने लिखा, 'थोड़ी देर बाद तीनों शहज़ादे बैलों द्वारा खींचे जा रहे एक छोटे रथ पर सवार हो कर बाहर आए. उनके दोनों तरफ़ पाँच सैनिक चल रहे थे. उनके ठीक पीछे दो से तीन हज़ार लोगों का हुजूम था.
उन्हें देखते ही मैं और हॉडसन अपने सैनिकों को पीछे छोड़ कर उनसे मिलने अपने घोड़ों पर आगे बढ़े. उन्होंने हॉडसन के सामने सिर झुकाया. हॉडसन ने भी सिर झुका कर जवाब दिया और रथ चालकों से कहा कि वो आगे बढ़ते चले आएं. उनके पीछे भीड़ ने भी आने की कोशिश की लेकिन हॉडसन ने अपना हाथ दिखा कर उन्हें रोक दिया. मैंने अपने सैनिकों की तरफ़ इशारा किया और क्षण भर में उन्होंने भीड़ और रथ के बीच पोज़ीशन ले ली.' 

हॉडसन ने सिगरेट पीकर बेफ़िक्र होने का दिया आभास ~

शहज़ादों के साथ उनके हथियार और बादशाह के हाथी, घोड़े और वाहन भी बाहर लाए गए जो पिछले दिन बाहर नहीं आ पाए थे. शहज़ादों ने एक बार फिर पूछा कि क्या उन्हें जीवनदान दिया जा रहा है? हॉडसन लिखते हैं, 'मैंने इसका जवाब दिया 'बिल्कुल नहीं' और उन्हें अपने सैनिकों की निगरानी में शहर की तरफ़ रवाना कर दिया. मैंने सोचा कि जब शहज़ादों ने आत्मसमर्पण कर ही दिया है तो क्यों न मकबरे की तलाशी ली जाए. वहाँ हमें छिपाई गईं करीब 500 तलवारें मिलीं. इसके अलावा वहाँ कई बंदूकें, घोड़े, बैल और रथ भी थे. मेक्डॉवेल ने कहा कि उनका वहाँ रुकना अब ख़तरे से ख़ाली नहीं है. फिर भी हम वहाँ करीब दो घंटे रुके. इस बीच मैं लगातार सिगरेट पीता रहा ताकि उन लोगों को आभास मिले कि मैं ज़रा भी परेशान नहीं हूँ.' थोड़ी देर में हॉडसन और मेक्डॉवेल अपने उन सैनिकों से जा मिले जो शहज़ादों को अपनी निगरानी में शहर की तरफ़ ले जा रहे थे.

हॉडसन ने तीनों शहज़ादों को दो-दो गोलियाँ मारीं ~

बाद में हॉडसन और मेक्डॉवेल दोनों ने लिखा कि जब वो शहर की तरफ़ लौट रहे थे तो उन्हें ख़तरा महसूस हुआ.
अमरपाल सिंह कहते हैं 'जब वो दिल्ली से पाँच मील दूर थे हॉडसन ने मेक्डॉवेल से पूछा, इन शहज़ादों का क्या किया जाए? मेक्डॉवेल ने जवाब दिया 'मैं समझता हूँ, हमें उन्हें यहीं मार देना चाहिए.' हॉडसन ने उन रथों को वहीं रोकने का आदेश दिया. हॉडसन ने उन तीनों शहज़ादों को रथ से उतरने और अपने बाहरी कपड़े उतारने के लिए कहा. कपड़े उतारने के बाद उन्हें फिर से रथ पर चढ़ा दिया गया. उनसे उनके ज़ेवर, अंगूठियाँ, बाज़ूबंद और रत्नों से जड़ी तलवारें भी ले ली गईं. हॉडसन ने रथ के दोनों तरफ़ पाँच पाँच सैनिक तैनात कर दिए. तभी हॉडसन अपने घोड़े से उतरे और अपनी कोल्ट रिवॉल्वर से हर शहज़ादे को दो दो गोलियाँ मारीं. उन सब की वहीं मौत हो गई.'

शहज़ादों के शवों को सार्वजनिक जगह पर लिटाया गया ~

जब शहज़ादों से रथ से नीचे उतरने के लिए कहा गया तो वो बहुत आत्मविश्वास के साथ नीचे उतरे थे. उन्हें ये गुमान था कि हॉडसन सिर्फ़ अपने बल पर उन्हें मारने की जुर्रत नहीं कर सकते. इसके लिए उन्हें जनरल विल्सन से अनुमति लेनी होगी. उन्होंने अपने कपड़े भी ये सोचते हुए उतारे कि शायद अंग्रेज़ दिल्ली की सड़कों पर बिना कपड़ों के घुमा कर उनकी बेइज़्ज़ती करना चाहते हैं. थोड़ी देर बाद बादशाह के एक किन्नर और एक दूसरे शख़्स ने जिस पर कई लोगों की हत्या का आरोप था, वहाँ से भागने की कोशिश की लेकिन मेक्डॉवेल और उनके घुड़सवारों ने उनका पीछा कर उन्हें मौत की नींद सुला दिया. बाद में मेक्डॉवेल ने लिखा, 'तब तक 4 बज चुके थे. हॉडसन इन शहज़ादों के शवों को रथ में रखे हुए शहर में घुसे. उन्हें एक सार्वजनिक जगह पर ले जा कर एक चबूतरे पर लिटा दिया गया ताकि आम लोग उनका हश्र देख सकें. उनके शरीर पर कोई कपड़े नहीं थे. सिर्फ़ कुछ चीथड़ों से उनके गुप्ताँगों को छिपा दिया गया था. उनके शव वहाँ पर 24 सितंबर तक पड़े रहे. चार महीने पहले इसी जगह पर उन्होंने हमारी महिलाओं की हत्या की थी.'

हॉडसन ने पत्र लिख कर स्वीकारा कि उन्होंने ही शहज़ादों की हत्या की ~

बाद में हॉडसन ने अपने भाई को पत्र लिख कर बताया, 'मैंने भीड़ से कहा कि ये वही लोग हैं जिन्होंने हमारी मजबूर महिलाओं और बच्चों की हत्या की थी. सरकार ने उन्हें उनके काम की सज़ा दी है. मैंने खुद एक के बाद एक उनको गोली मारी और आदेश दिया कि उनके शवों को चाँदनी चौक में कोतवाली के सामने के चबूतरे पर फेंक दिया जाए. मैं निर्दयी नहीं हूँ लेकिन मैं मानता हूँ कि मुझे इन लोगों को जान से मारने में बहुत आनंद आया.' बाद में रेवेरेंड जॉन रॉटेन ने अपनी किताब 'द चैपलेन्स नेरेटिव ऑफ़ द सीज ऑफ़ डेल्ही' में लिखा, 'सबसे बड़े शहज़ादे की कदकाठी काफ़ी मज़बूत थी. दूसरा उससे उम्र में कुछ ही छोटा था. तीसरे शहज़ादे की उम्र बीस साल से अधिक नहीं रही होगी. कोक राइफ़ल के एक गार्ड को उनके शवों की निगरानी के लिए लगाया गया था. उनके शव कोतवाली के बाहर तीन दिनों तक पड़े रहे. फिर उन्हें बहुत असम्मानजनक तरीके से कब्रिस्तान में दफ़ना दिया गया. शायद इसका कारण बदला रहा हो क्योंकि तीन महीने पहले विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों के शवों को भी उसी जगह पर इन्हीं हालात में रखा था ताकि दिल्ली के लोग उन्हें देख सकें.'

बाकी शहज़ादे भी पकड़े गए ~

27 सितंबर को ब्रिगेडियर शॉवर्स को दलबल के साथ बाकी ज़िंदा बचे शहज़ादों को पकड़ने के लिए भेजा गया.
उस दिन शॉवर्स ने तीन और शहज़ादों मिर्ज़ा बख़्तावर शाह, मिर्ज़ा मेंडू और मिर्ज़ा जवान बख़्त को हिरासत में लिया.अक्तूबर के शुरू में बादशाह के दो और बेटों को पकड़ कर गोली से उड़ा दिया गया. उन दोनों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोहियों की सेना का नेतृत्व किया था और उनपर अंग्रेज़ों का कत्लेआम करने के आरोप थे. इस बीच एक अजीब सी घटना हुई. जब इन शहज़ादों को फ़ायरिंग स्कवाड द्वारा गोली मारी जा रही थी तो 60 राइफ़ल के जवानों और कुछ गोरखा सैनिकों की चलाई गई गोलियाँ इन शहज़ादों को या तो लगीं नहीं या सिर्फ़ उन्हें घायल भर कर पाईं. लेकिन इसके बाद एक प्रोवोस्ट सार्जेंट ने इन शहज़ादों के सिर में गोली मार कर उनकी प्राणलीला समाप्त कर दी.

लेकिन कर्नल ई एल ओमनी ने अपनी डायरी में लिखा कि 'गोरखा सैनिकों ने जानबूझ कर शहज़ादों के शरीर के निचले हिस्से में गोली चलाई ताकि उन्हें और तकलीफ़ हो और वो दर्दनाक मौत मरें.' उस समय उन्हें गंदे कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया गया था लेकिन उन्होंने अपनी मौत का सामना बहादुरी से किया.

दो शहज़ादों को सिख रिसालदार ने बचाया ~

लेकिन बहादुर शाह ज़फ़र के दो बेटे मिर्ज़ा अब्दुल्लाह और मिर्ज़ा क्वैश अंग्रेज़ों के चंगुल से भाग निकलने में कामयाब हो गए. दिल्ली की मौखिक कहानियों को जिन्हें उर्दू लेखक अर्श तैमूरी ने बीसवीं सदी के आरंभ में अपनी किताब 'किला ए मुअल्ला की झलकियों' में रिकॉर्ड किया था, में बताया गया था कि 'दोनों मुग़ल शहज़ादों को एक सिख रिसालदार की देखरेख में हुमांयु के मकबरे में रखा गया था. उस रिसालदार को इन शहज़ादों पर रहम आ गया. उसने उनसे पूछा कि तुम यहाँ क्यों खड़े हो? उन्होंने जवाब दिया कि साहिब ने हमें वहाँ खड़े होने के लिए कहा है. उस सिख ने उन्हें घूरते हुए कहा अपनी ज़िदगी पर रहम खाओ. जब वो अंग्रेज़ लौटेगा तो तुम्हें पक्का मार डालेगा. तुम जिस दिशा में भाग सकते हो भागो और साँस लेने के लिए भी न रुको. ये कहकर उस रिसालदार ने अपनी पीठ उनकी तरफ़ कर ली. दोनों शहज़ादे अलग अलग दिशाओं में दौड़ पड़े.' बाद में मीर क्वाएश किसी तरह फ़कीर के भेष में उदयपुर पहुंचने में सफल हो गए जहाँ के महाराजा ने उन्हें संरक्षण देते हुए दो रुपए रोज़ के वेतन पर अपने यहाँ रख लिया. हॉडसन ने क्वाएश को ढ़ूढ़ने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया लेकिन उसे सफलता नहीं मिल सकी.

बहादुर शाह ज़फ़र का दूसरा बेटा अब्दुल्ला भी अंग्रेज़ों के हाथ नहीं लगा और उसने अत्यंत ग़रीबी में अपनी पूरी ज़िदगी टोंक रियासत में बिताई. बहादुर शाह के बाकी बेटों को या तो फाँसी दे दी गई या काला पानी में लंबी सज़ा काटने के लिए भेज दिया गया. कुछ शहज़ादों को आगरा. कानपुर और इलाहाबाद की जेलों में बहुत कठिन परिस्थितियों में रखा गया जहाँ दो वर्ष के भीतर ही इनमें से अधिक्तर की मौत हो गई. अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह ज़फ़र को न मारने के अपने वादे को पूरा किया. उन्हें दिल्ली से बहुत दूर बर्मा भेज दिया गया जहाँ 7 नवंबर, 1862 की सुबह 5 बजे उन्होंने अंतिम साँस ली.

© रेहान फ़ज़ल,
Rehan Fazal, BBC News हिन्दी 


शंकराचार्यों का चरण स्पर्श वर्जित है / विजय शंकर सिंह

पुरी के शंकराचार्य के साथ, राम निवास कठेरिया की एक फोटो सोशल मीडिया पर घूम रही है, जिसमे यह दिख रहा है कि, कठेरिया जी उनका चरण स्पर्श करने जा रहे थे और उन्होंने ऐसा नहीं करने दिया। कठेरिया जी दलित समाज से आते हैं तो, यह कहा गया कि, एक दलित होने के नाते, उन्हे शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने चरण स्पर्श नहीं करने दिया और इसी भाव पर केंद्रित, विभिन्न लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आई और अब भी आ रही है। पर, सच तो यह है कि शंकराचार्य का चरण स्पर्श चाहे वह ब्राह्मण हो या दलित,किसी के भी द्वारा नहीं किया जा सकता है। यह  शंकर परंपरा के अनुसार, वर्जित है। एक प्रसंग मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है, जिसे मैं आप सब से साझा कर रहा हूं। 

1997 में मैं कानपुर के एसपी ट्रैफिक था और कांची कामकोटि के शंकराचार्य, जयेंद्र सरस्वती, उन दिनों कानपुर में प्रवास पर थे। शंकराचार्य, का प्रोटोकॉल होता है और उनके स्वागत, सम्मान, यात्रा आदि सबके बारे में शासकीय प्रबंध होते हैं और उसी के अनुसार पुलिस आदि की व्यवस्था होती है। शंकराचार्य,जयेंद्र सरस्वती, तब प्रयाग में थे और वे वहां से, कानपुर फर्रुखाबाद होते हुए दिल्ली की ओर जा रहे थे। उसी यात्रा क्रम में वे कानपुर में कुछ दिन के लिए रुके थे। कानपुर में वे कमला नगर, जेके मंदिर के पास, जेके ग्रुप का एक अतिथिगृह था, उसी में रुके थे और उनके आतिथ्य की सारी व्यवस्था जेके ग्रुप के चेयरमैन, गौर हरि सिंहानिया जी के जिम्मे थी। 

शंकराचार्य निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आ गए थे और उसकी सूचना मुझे थाना नजीराबाद, जिस थाना क्षेत्र में वे रुके थे, द्वारा मिल गई थी। दूसरे दिन सुबह लगभग 10 बजे मैं जेके अतिथिगृह के गया, वहां पर शहर के गणमान्य लोग और गौर हरि सिघानिया जी सपत्नी उपस्थित थे। चूंकि मैं 1986 से 1992 तक कानपुर में ही डीएसपी के रूप में जिले और बिजली बोर्ड में रह चुका हूं तो वे मुझे बहुत अच्छी तरह जानते थे। वे मुझे अंदर ले गए और ड्राइंग रूम में बैठा दिया। फिर उन्होंने धीरे से कहा, शंकराचार्य जी अभी कुछ लोगो से मिल रहे हैं, थोड़ी देर में अकेले होते हैं तो, आप उनके दर्शन कर लीजिए। 

थोड़ी देर के बाद, अंदर से एक सन्यासी, बाहर आए और उनके साथ, वे लोग भी जो अंदर शंकराचार्य के दर्शनार्थ गए थे। अब गौर बाबू ने कहा सीओ साहब अब आप अंदर जाएं। वे मुझे सीओ साहब ही कहते थे, क्योंकि मेरा परिचय उनसे तभी का था, जब मैं उनके इलाके का सीओ था। मैं अंदर गया। एक ऊंचे भव्य आसान पर आचार्य विराजमान थे और उनके पांव के नीचे एक चौकी रखी थी। उसी के आगे एक और छोटा सा पीढ़ा रखा था। वहीं नीचे उनके एक शिष्य बैठे थे। कमरे में कालीन बिछी थी और कोई कुर्सी नहीं थी। मैने जूता, बेल्ट, कैप आदि बाहर ही उतार दिया था। और जब उनके आसान के नजदीक आया और प्रणाम की मुद्रा में झुका तो उनके शिष्य ने मुझे रोक दिया और कहा कि, चरणस्पर्श न करें। आचार्य का चरण स्पर्श नहीं किया जाता है। मैं रुक गया और प्रणाम कर के वही बैठ गया, तभी गौर हरि सिघानिया जी भी आ गए और उन्होंने शंकराचार्य जी को मेरा परिचय दिया। शंकराचार्य जी ने मुस्कुराते हुए आशीष की मुद्रा में अपना हाथ उठा दिया। दस मिनट तक हम वहां बैठे फिर उनके शिष्य से यह पूछ कर कि, प्रस्थान का प्रोग्राम जब हो तो, बता दीजियेगा। उन्होंने कहा एक दिन बाद। शंकराचार्य मुझे देखते रहे और मंद मंद मुस्कुराते रहे, पर न उन्होंने, मुझसे कुछ पूछा और न ही मैने कुछ कहा। 

दस मिनट के बाद, उनके एक शिष्य, मुझे बाहर छोड़ने आए और कहा कि प्रसाद लेकर जाइयेगा। उनके शिष्य से मैने पूछा कि, शंकराचार्य का चरण स्पर्श क्यों नहीं किया जाता तो, उन्होंने कहा कि, "राजा और शंकराचार्यों का देह स्पर्श वर्जित है। जो श्रद्धालु उनका चरण स्पर्श करना चाहे, उनके चरण के आगे रखे लकड़ी के पीढ़े को स्पर्श कर लें, यही परंपरा है। यह व्यवस्था जाति निरपेक्ष है, चाहे वह ब्राह्मण हो या दलित, किसी को भी शंकराचार्यों के चरण स्पर्श की अनुमति नहीं है।"

शंकराचार्यों का प्रोटोकॉल, सिर्फ उन्ही पीठों के शंकराचार्यों के लिए है, जिनकी स्थापना, आदि शंकर ने की थी। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठ इस प्रकार हैं। वे पीठ हैं, बद्री केदार, पुरी, द्वारिका और कांची कामकोटि है। श्रृंगेरी बाद में स्थापित हुआ और जबकि कांची कामकोटि, आदि शंकर द्वारा स्थापित पीठ है। पर इस समय केवल तीन शंकराचार्य हैं। बद्री केदार के एक ही शंकराचार्य है, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, जगन्नाथ पुरी के स्वामी निश्चलानंद, जिनपर यह विवाद चल रहा है और कांची कामकोटि के स्वामी विजयेंद्र सरस्वती हैं। श्रीगेरी पीठ के स्वामी भारती तीर्थ भी एक अन्य शंकराचार्य हैं। इसके अतिरिक्त अन्य साधु जो, समय समय पर, खुद को शंकराचार्य घोषित करते हैं, वे शंकर परंपरा के शंकराचार्य नही हैं और न ही, उन्हे शंकराचार्य का प्रोटोकॉल और राजकीय मान्यता मिलती है। शंकराचार्यों का क्षेत्र भी बंटा होता है और उन्हे राजा के समकक्ष रख कर देखे जाने की परंपरा है। 
आदि शंकर ने जब दशनामी अखाड़े और शंकराचार्यों की परंपरा स्थापित की तो, उन्हे विनियमित करने के लिए एक नियमावली भी बनाई, जिसे, मठाम्नाय (मठ+आम्नाय) महानुशासन (महा+अनुशासन) कहा जाता है। आदि शंकराचार्य द्वारा लिखे गए इस में उन्होंने, अपने द्वारा स्थापित चार मठों की व्यवस्था से सम्बन्धित विधान और सिद्धान्त दिये। यह एक प्रकार से सन्यास धर्म की गाइडलाइन है। इस छोटी सी पुस्तिका में कुल 73  श्लोक हैं। 'आम्नाय' का जो अर्थ इस नियमावली में जो बताया गया है, वह है
1. पवित्र प्रथा या रीति
2. वेदों आदि का अध्ययन, अभ्यास और पाठ
3. वेद
4. अध्ययन के उद्देश्य से किया जाने वाला अभ्यास।
इस ग्रन्थ में यह स्पष्ट किया गया है कि, शंकराचार्य पद का अधिकारी, कौन सन्यासी हो सकता है और अयोग्य व्यक्ति के लिए क्या व्यवहार होना चाहिए।

महानुशासन में दशनामी संन्यासी को संसार में रहते हुए भी उसमें लिप्त न हो जाने का निर्देश दिया गया है। महानुशासन में यह कहा गया है कि,  
“मठों को संपत्ति का संयम करना चाहिए, इतना अन्न होना चाहिए कि असहाय, पीड़ित और दरिद्रजनों को आश्रय दिया जा सके। मठों में दरिद्रता का नाम भी न दिखाई दे। आचार्य और संन्यासी उस वैभव का उपयोग धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए करें, स्वयं निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही ग्रहण करें।”

उसी ग्रंथ से निम्न उद्धरण हैं, 
"महानुशासन में आगे की धर्माज्ञाएं हैं - मठपति अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए व धर्म-प्रतिष्ठा के लिए आलस्य त्यागकर परिश्रम करें। वे अपने-अपने शासन प्रदेश में सदैव भ्रमण कर लोगों को वर्णाश्रम के कर्त्तव्यों का उपदेश दें, सदाचार बढ़ाएं। एक मठपति दूसरे मठपति के अधिकार क्षेत्र में न जाए। सर्व मठपति बीच-बीच में एकत्रित होकर धर्म-चर्चा करें व देश में धार्मिक सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करें; वैदिक धर्म प्रगतिशील व अखंडित रहे, इसके लिए वे दक्ष रहें।" 
आचार्य के मतानुसार,
"विद्वान लोग ही धर्म के प्रति नियामक हो सकते हैं। वे इन धर्म-पीठों पर ध्यान रखें, समय-समय पर मठपतियों के आचरण को परखें। विद्वान, चरित्रवान, कर्त्तव्यदक्ष, सद्गुणी,दशनामी संन्यासी को ही पीठाधिष्ठित बनाएं। वह पीठाध्यक्ष कर्त्तव्यच्युत साबित हो, तो विद्वान उसे पीठ से पदच्युत कर दें।"

पुरी के शंकराचार्य के साथ हुआ यह विवाद कोई नया नहीं है। वे अक्सर ऐसे बयान देते रहते हैं जिससे तरह तरह के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। उसी विवादो की कड़ी में, यह भी एक नया विवाद है। दलितों के साथ हिंदू धर्म में भेदभाव कोई आज से नहीं है बल्कि यह पहले से  चला आ रहा है। समाज सुधारक इस भेदभाव के खिलाफ समय समय पर आवाज भी उठाते रहे हैं। पूरे भारत में, इस घृणित और अमानवीय कुप्रथा के खिलाफ आंदोलन भी हुए हैं, और अब भी हो रहे हैं। दलितों का मंदिर प्रवेश भी, वर्जित था और मंदिर प्रवेश के लिए कई महत्वपूर्ण और प्रभावी आंदोलन भी हुए हैं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने, साल 1917 के अधिवेशन में, एक प्रस्ताव पास कर जनता से अपील की थी कि, "ऐसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करें, जिनके कारण पिछड़े और दलित वर्गों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनके साथ अन्याय किया जाता है।" इसके बाद छुआछूत खत्म करने की गांधी जी की प्राथमिकता के आधार पर 1923 में कांग्रेस ने ठोस कदम उठाने का प्रयास किया। 

उस समय के छुआछूत के खिलाफ आंदोलनों के रूप में केरल की दो घटनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। जिनका उल्लेख कर रहा हूं। 

वायकोम सत्याग्रह – 
केरल में एझवा और पुलैया नामक अछूत जातियों को सवर्णों से क्रमशः 16 व 32 फुट की दूरी रखनी पड़ती थी। त्रावणकोर के एक गाँव वायकोम में एक मंदिर से जुड़ी सड़क को इस्तेमाल करने की अनुमति अवर्ण या दलित वर्ग को नहीं थी। केरल कांग्रेस समिति ने इस छुआछूत के खिलाफ सत्याग्रह करने का निर्णय लिया। कई सवर्ण संगठनों जैसे- नायर समाजम, केरल हिंदू सभा, सर्वोच्च ब्राह्मण जाति नंबूदरियों की योगक्षेम सभा आदि ने न केवल सत्याग्रह का समर्थन किया, बल्कि अछूतों के मंदिर प्रवेश की भी वकालत की। आंदोलन चलता रहा, सन्1925 में गांधी जी ने केरल का दौरा किया तथा त्रावणकोर की महारानी से एक समझौता किया जिसमें अछूतों को मंदिर की सड़क का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी गई थी। अब भी अछूतों को मंदिर प्रवेश की अनुमति न मिलने के विरोध में गांधी जी ने अपने दौरे में केरल के किसी भी मंदिर में प्रवेश नहीं किया। ई. वी. रामास्वामी नायकर इस आंदोलन से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे।

गुरुवयूर सत्याग्रह- 
स्थानीय नेता के.केलप्पण की अपील पर केरल कांग्रेस समिति ने 1931 में मंदिर प्रवेश का मुद्दा फिर से उठाया। समिति ने गुरुवयूर में मंदिर प्रवेश सत्याग्रह छेड़ने का निर्णय लिया। इस सत्याग्रह में भी दलितों से लेकर ऊँची जाति नंबूदरी तक के लोग शामिल थे। 1932 में केलप्पण अनशन पर बैठ गए। गांधी जी द्वारा स्वयं आंदोलन का नेतृत्त्व करने के आश्वासन के बाद ही केलप्पण ने अनशन तोड़ा। सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। उस समय तो मंदिर प्रवेश की अनुमति नहीं मिली, परंतु इस आंदोलन को मिले ज़बरदस्त समर्थन ने उस समय एक सामाजिक जागृति ला दी थी। 

उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में जातिगत भेदभाव अधिक रहा है। हालांकि, अब चीजें काफी कुछ बदल भी गई है, फिर भी ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं जिनसे यह पता चलता है कि यह बीमारी अभी कहीं न कहीं समाज में शेष है, जिसका उन्मूलन एक विषमताहीन समाज के लिए जरूरी है। 

(विजय शंकर सिंह)

Friday, 26 August 2022

सबसे बड़ा सवाल: पेगासस किसने खरीदा और सरकार ने जांच में क्यों नहीं किया सहयोग / विजय शंकर सिंह

पेगासस जासूसी के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जस्टिस रवीन्द्रन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में दे दी है। पर पूरी रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक डोमेन में नहीं आवी है। जांच कैसे की गई, किन किन सुबूतों की पड़ताल की गई, यह सब अभी विस्तार से ज्ञात नहीं है। बस यह पता है कि, 29 उपकरणों में से 5 उपकरणों में मालवेयर पाए गए हैं। वे पेगासस के हैं, या किसी अन्य स्पाइवेयर के, यह भी स्पष्ट नहीं है। रिपोर्ट में जासूसी रोकने के उपाय भी सुझाए  गए हैं और निजता के हनन को रोकने की बात भी की गई है। 

अब इस विंदु पर आते हैं कि, यह मामला उठा कैसे और किस खुलासे के बाद, सरकार, जासूसी के आरोपों के घेरे में आई। हुआ यह कि, न्यूयार्क टाइम्स के रॉनेन बर्गमन और मार्क मज़ेटी की एक रिपोर्ट ने देश और सरकार के अलोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार विरोधी चेहरे को उजागर कर दिया है। इन खोजी पत्रकारों ने, पेगासस स्पाइवेयर पर एक रिपोर्ट तैयार की है जिंसमे कहा गया है कि, 
"मेक्सिको और पनामा के अलावा भारत ने भी पेगासस जासूसी उपकरण ख़रीदा है। इज़रायल ने इस सॉफ़्टवेयर को बेच कर दुनिया में अपने कूटनीतिक प्रभाव का विस्तार किया है। जिन देशों ने इज़रायल से पेगासस ख़रीदा है वो अब इसके हाथ ब्लैकमेल हो रहे हैं।"
न्यूयार्क टाइम्स आगे लिखता है,
"नरेंद्र मोदी 2017 में इजरायल गए थे, और उसी यात्रा के दौरान पेगासस ख़रीदने का सौदा हुआ। जिसका इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं, पत्रकारों के फ़ोन से डेटा उड़ाने और बातचीत रिकार्ड करने में हुआ।"

हालांकि, रक्षा मंत्रालय पहले ही इस बात से इनकार कर चुका है कि कि रक्षा मंत्रालय और एनएसओ के बीच कोई सौदा नहीं हुआ है। न्यूयार्क टाइम्स के  अनुसार, पेगासस रक्षा सौदे का हिस्सा था। सरकार के लाख ना नुकुर के बाद एक साल पहले यह स्पष्ट हो गया था कि, भारत सरकार ने रक्षा उपकरणों के रूप में पेगासस स्पाइवेयर की खरीद की थी और उसका उपयोग सुप्रीम कोर्ट के जजों, निर्वाचन आयुक्त सहित विपक्ष के नेताओ और पत्रकारों सहित अनेक लोगों की जासूसी करने में प्रयोग के आरोप लगे थे। 

पेगासस जासूसी प्रकरण के इस खुलासे के बाद दुनियाभर में तहलका मच गया और इजरायली कंपनी ने इस पर लगातार अपनी सफाई दी। पेगासस स्पाइवेयर बनाने वाली इजराइली कम्पनी, एनएसओ ने तब इन खुलासों का खंडन तो किया पर जो प्रबलता उनके खंडन में होनी थी, उसका, उनके खंडन वक्तव्य में अभाव था। एक बात तो तय है कि, इस स्पाइवेयर का दुरुपयोग दुनियाभर मे हुआ है। दुनिया के इतिहास में फोन टैपिंग या जासूसी काई नया काम नहीं है और न ही सरकारों के लिये वर्जित रहा है। निजी जासूसी संस्थाओं से लेकर सभी सरकारों के खुफिया विभाग इसे अंजाम देते रहते हैं, और वे अपने अपने टारगेट तय करके अपने उद्देश्य और जिज्ञासाओं के अनुसार, तरह तरह से निगरानी करते रहते हैं। गुप्तचरी, शासन प्रबन्धन का एक अनिवार्य पक्ष है। रहा सवाल खुफिया उपकरणों का तो, जैसे जैसे वैज्ञानिक तरक़्क़ी होती जाती है, उसी के अनुपात में उन्नत खुफिया उपकरणो का प्रयोग होता जाता है। पर पेगासस स्पाइवेयर या सॉफ्टवेयर कोई सामान्य निगरानी डिवाइस नहीं है बल्कि यह बेहद उन्नत और सॉफिस्टिकेटेड साइबर निगरानी उपकरण है, जो कीमत में भी महंगा है और साथ ही इसे एक हथियार का दर्जा भी प्राप्त है। 

इजराइल की कम्पनी एनएसओ की बात मानें तो, उन्होंने इस सॉफ्टवेयर का अनुसंधान और विकास दुनियाभर में फैल रहे आतंकी संगठनों की जासूसी और उनपर निगरानी करने के लिए किया है और जैसा कि वे दावा करते हैं, इसे किसी निजी व्यक्ति को बेचने की भी, उन्होने अनुमति नहीं दी है। कंपनी के अनुसार, इस सॉफ्टवेयर को सरकारी एजेंसी ही खरीद सकती है लेकिन, वह भी इसका इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों  के संबंध में ही करेगी। पर, जब द गार्जियन, वाशिंगटन पोस्ट, द वायर जैसे अनेक वेबसाइट और अखबारों ने, इसका खुलासा एक साल पहले किया और यह दावा किया गया कि, इस स्पाइवेयर का इस्तेमाल भारत मे विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, जजों, आदि महत्वपूर्ण लोगों की निगरानी करने के लिये किया गया है, तब इस खुलासे पर देश भर से सवाल उठने शुरू हो गए थे। उसी कड़ी में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर हुई और जांच के लिए अदालत ने एक न्यायिक कमेटी का गठन किया, जिसकी रिपोर्ट अदालत में प्रस्तुत कर दी गई है, जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है।

पेगासस खुलासे की पहली कड़ी में दावा किया गया था, कि भारत सरकार पत्रकारों की जासूसी करा रही है। जिन नामो का खुलासा हुआ है, उनमें पत्रकार, कानूनविद और विपक्षी नेता आदि शामिल हैं। खुलासे की जारी रिपोर्ट के अनुसार पेगासस ने भारत के लगभग, 300 बुद्धिजीवियों, वकीलों, मानवाधिकार एक्टिविस्ट, पत्रकारों और विरोधी दल के नेताओ के मोबाइल फोन की जानकारी को हैक किया है। वर्ष 2019 में भी एक बार, इजराइल द्वारा तैयार किये गये स्पाईवेयर पेगासस का नाम सुर्खियों में आया था, जब व्हाट्सएप कम्पनी ने कहा था कि 
"वह इजराइल की इस कंपनी के खिलाफ केस करने जा  रहे हैं, क्योंकि इसी स्पाइवेयर के द्वारा, लगभग 1400 लोगों के व्हाट्सएप चैट और फोन आदि की जानकारी उनके फोन से हैक की गई थी।"
व्हाट्सएप, चूंकि अपने ग्राहकों को किसी अन्य के द्वारा न पढ़े और न सुने जा सकने वाले चैट और वार्तालाप की आश्वस्ति देता है, अतः यह उसके लिये बेहद गम्भीर बात थी कि उसके ग्राहकों की निजता में किसी अवांछित की सेंध पड़ रही है। 

अब एक नज़र भारत मे फोन टेपिंग के इतिहास पर डालते हैं। भारत में फोन टैपिंग की शुरूआत आज़ादी के बाद से ही हो गयी थी। कुछ उदाहरण देखें, 
● 1949 में, संचार मंत्री रफी अहमद किदवई ने अपनी फोन टैपिंग का आरोप लगाया था, जिसकी पुष्टि नहीं हो पायी थी।
● तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल केएस थिमाया ने 1959 में अपने और आर्मी ऑफिस के फोन टैप होने का आरोप लगाया था। 
● नेहरू सरकार के ही एक और मंत्री टीटी कृष्णामाचारी ने 1962 में फोन टैप होने का आरोप लगाया था। 
● 1988 में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के कार्यकाल में भी फोन टैपिंग का बड़ा मामला सामने आया था. विपक्ष का आरोप था कि हेगड़े ने विपक्षी नेताओं के फोन टेप के आदेश देकर उनकी निजता में सेंध लगाई है। रामकृष्ण हेगड़े को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। 
● आज तक चैनल की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जून 2004 से मार्च 2006 के बीच सरकार की एजेंसियों ने 40 हजार से ज्यादा फोन टैप किए थे.
● 2006 में अमर सिंह ने यूपीए सरकार पर अपनी फोन टैपिंग का आरोप लगाया था और यह दावा किया था कि इंटेलीजेंस ब्यूरो (IB) उनका फोन टैप कर रही है।  अमर सिंह ने केंद्र की यूपीए सरकार और सोनिया गांधी पर फोन टैपिंग का आरोप लगाया था. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय तक चला। 2011 में अमर सिंह ने केंद्र सरकार पर लगाए आरोपों को वापस ले लिया है।  बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अमर सिंह के फोन टेप को मीडिया में दिखाने या छापने पर लगी रोक भी हटा ली थी। 
● अक्टूबर 2007 में यूपीए सरकार पर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के फोन टेप करवाए जाने के आरोप लगे थे, जब नीतीश कुमार अपने एक सहयोगी से बात कर रहे थे कि कैसे बिहार के लिए केंद्र से ज्यादा पैसा मांगा जाए। 
● देश के बड़े उद्योगपतियों रतन टाटा और मुकेश अंबानी की कंपनियों के लिए पीआर का काम कर चुकी नीरा राडिया के फोन टैप का मामला सामने आने के बाद देश में राजनीतिक भूचाल आ गया था। नीरा राडिया की विभिन्न उद्योगपतियों, राजनीतिज्ञों, अधिकारियों और पत्रकारों से फोन पर हुई बातचीत के ब्यौरे मीडिया में प्रकाशित हुए थे।  'आउटलुक' मैग्जीन ने अपनी वेबसाइट पर प्रमुखता से प्रकाशित एक खबर में कहा था कि उसे नीरा राडिया की बातचीत के 800 नए टेप मिले हैं. इस बातचीत के बाद से ही 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में नीरा राडिया की भूमिका पर सवाल उठने लगे थे। 
● आउटलुक पत्रिका ने अप्रैल 2010 में दावा किया था कि तत्कालीन यूपीए सरकार ने देश के कुछ शीर्ष नेताओं के फोन टैप करवाए हैं, जिनमें तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार, कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सीपीएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात का नाम सामने आया था। 
● फरवरी 2013 में अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे. उस समय उनके फोन टैपिंग मामले में करीब दस लोगों को गिरफ्तार किया गया था।  यह मामला जनवरी में उस समय सामने आया था, जब विपक्ष ने सरकार पर जेटली का फोन टैप कराने का आरोप लगाया था। अरुण जेटली की जासूसी के आरोप में दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने सहायक उपनिरीक्षक गोपाल, हेड कांस्टेबल हरीश, जासूस आलोक गुप्ता, सैफी और पुनीत के अलावा एक अन्य कांस्टेबल को गिरफ्तार किया गया था। 
● कर्नाटक सांसद सुमनलता अंबरीश ने दावा किया कि 2018-19 में राज्य में कांग्रेस-जेडीएस (JDS) सरकार के कार्यकाल के दौरान उनका टेलीफोन टैप किया गया था। 
● महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ने कुछ ही दिन पहले विधानसभा में आरोप लगाया था कि साल 2016-17 में जब वो बीजेपी के सांसद थे तब उनका फोन टैप किया जा रहा था। 
● राजस्थान में पिछले महीने फोन टैप का मामला गरमाया था. यहां आरोप है कि गहलोत सरकार विधायकों के फोन टैप करवा रही है.

पेगासस जासुसी के मामला, जो एक साल पहले, लीक हुए आंकड़ों के आधार पर की गई, एक वैश्विक मीडिया संघ की जांच के बाद सामने आया है, के अनुसार, जांच में, इस बात के सबूत मिले हैं कि इजराइल स्थित कंपनी 'एनएसओ ग्रुप के सैन्य दर्जे के मालवेयर का इस्तेमाल पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और राजनीतिक असंतुष्टों की जासूसी करने के लिए किया जा रहा है। द वायर के अनुसार, पत्रकारिता संबंधी पेरिस स्थित गैर-लाभकारी संस्था 'फॉरबिडन स्टोरीज एवं मानवाधिकार समूह 'एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा हासिल की गई और 16 समाचार संगठनों के साथ साझा की गई 50,000 से अधिक सेलफोन नंबरों की सूची से पत्रकारों ने 50 देशों में 1,000 से अधिक ऐसे व्यक्तियों की पहचान की है, जिन्हें एनएसओ के ग्राहकों ने संभावित निगरानी के लिए कथित तौर पर चुना था। वैश्विक मीडिया संघ के सदस्य 'द वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार, जिन लोगों को संभावित निगरानी के लिए चुना गया, उनमें 189 पत्रकार, 600 से अधिक नेता एवं सरकारी अधिकारी, कम से कम 65 व्यावसायिक अधिकारी, 85 मानवाधिकार कार्यकर्ता और कई राष्ट्राध्यक्ष शामिल हैं। ये पत्रकार 'द एसोसिएटेड प्रेस (एपी), 'रॉयटर, 'सीएनएन, 'द वॉल स्ट्रीट जर्नल, 'ले मांद और 'द फाइनेंशियल टाइम्स जैसे संगठनों के लिए काम करते हैं। एनएसओ ग्रुप के स्पाइवेयर को मुख्य रूप से पश्चिम एशिया और मैक्सिको में 
 तयशुदा टारगेट की निगरानी के लिए इस्तेमाल किए जाने के आरोप हैं। सऊदी अरब को एनएसओ के ग्राहकों में से एक बताया जाता है। इसके अलावा सूची में फ्रांस, हंगरी, भारत, अजरबैजान, कजाकिस्तान और पाकिस्तान सहित कई देशों के लोगों के भी फोन नम्बर हैं। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार, इस सूची में मैक्सिको के नागरिकों के सर्वाधिक फोन नंबर है, जिनकी संख्या 15,000 है।

अखबारों के अनुसार, भारत मे जिनके नाम इस जासूसी में आ रहे हैं, उनमे से, कांग्रेस नेता राहुल गांधी, भाजपा के मंत्रियों अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद सिंह पटेल, पूर्व निर्वाचन आयुक्त अशोक लवासा और चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के नाम हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे तथा तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सांसद अभिषेक बनर्जी और भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई पर अप्रैल 2019 में यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली उच्चतम न्यायालय की महिला कर्मचारी और उसके रिश्तेदारों से जुड़े 11 फोन नंबर हैकरों के निशाने पर थे। राहुल गांधी और केंद्रीय मंत्रियों वैष्णव और प्रहलाद सिंह पटेल के अलावा जिन लोगों के फोन नंबरों को निशाना बनाने के लिये सूचीबद्ध किया गया उनमें चुनाव पर नजर रखने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक जगदीप छोकर और शीर्ष वायरोलॉजिस्ट गगनदीप कांग शामिल हैं। रिपोर्ट के अनुसार सूची में राजस्थान की मुख्यमंत्री रहते वसुंधरा राजे सिंधिया के निजी सचिव और संजय काचरू का नाम शामिल था, जो 2014 से 2019 के दौरान केन्द्रीय मंत्री के रूप में स्मृति ईरानी के पहले कार्यकाल के दौरान उनके विशेष कार्याधिकारी (ओएसडी) थे। इस सूची में भारतीय जनता पार्टी से जुड़े अन्य जूनियर नेताओं और विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया का फोन नंबर भी शामिल थे। 

‘द गार्डियन’ की ओर से जारी इस बहुस्तरीय जांच की पहली किस्त में दावा किया गया है कि 40 भारतीय पत्रकारों सहित दुनियाभर के 180 संवाददाताओं के फोन हैक किए गए। इनमें ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ और ‘मिंट’ के तीन पत्रकारों के अलावा ‘फाइनैंशियल टाइम्स’ की संपादक रौला खलाफ तथा इंडिया टुडे, नेटवर्क-18, द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस, द वॉल स्ट्रीट जर्नल, सीएनएन, द न्यूयॉर्क टाइम्स व ले माँद के वरिष्ठ संवाददाताओं के फोन शामिल हैं। जांच में दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक पूर्व प्रोफेसर और जून 2018 से अक्तूबर 2020 के बीच एल्गार परिषद मामले में गिरफ्तार आठ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के फोन हैक किए जाने का भी दावा किया गया है। यह जांच एमनेस्टी इंटरनेशनल और फॉरबिडेन स्टोरीज को प्राप्त लगभग 50 हजार नामों और नंबरों पर आधारित है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इनमें से 67 फोन की फॉरेन्सिक जांच की है। इस दौरान 23 फोन हैक किये गए मिले, जबकि 14 अन्य में सेंधमारी की कोशिश करने की पुष्टि हुई। ‘द वायर’ ने खुलासा किया कि भारत में भी दस फोन की फॉरेन्सिक जांच करवाई गई। ये सभी या तो हैक हुए थे, या फिर इनकी हैकिंग का प्रयास किया गया था।

जासूसी के आरोपों के बीच, एक साल पहले, नेशनल सिक्युरिटी काउंसिल के बजट में की गई, अप्रत्याशित बढोत्तरी पर भी  सवाल उठने लगे थे। यह सवाल भाजपा सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उठाया था। डॉ स्वामी से ट्वीट किया है कि, उन्होंने राज्य सभा के पुस्तकालय से नेशनल सिक्युरिटी काउंसिल ( NSS ) के बजट के विवरण के बारे में पूछा तो पता चला कि,  वर्ष 2015 - 16 में ₹ 44 करोड़ और वर्ष 2016 - 17 में ₹ 33 करोड़ था। यही बजट अप्रत्याशित रूप से बढ़ कर, 2017 - 18 में, ₹ 333 करोड़ का हो गया। यह बजट बढोत्तरी क्यों हुयी। अमूमन हर साल का बजट अपने पिछले साल के बजट की तुलना में कुछ न कुछ बढ़ता ही रहता है, इसका काऱण मुद्रास्फीति, बाजार की महंगाई का असर  आदि होता है। कभी कभी जब कोई नई योजनाएं आती हैं तब भी बजट में उल्लेखनीय वृद्धि हो जाती है। यहीं, यह सवाल स्वाभाविक रूप से उपजता है कि , ₹ 33 करोड़ की तुलना में ₹ 333 करोड़ की, की गयी अचानक वृद्धि किन खर्चो को पूरा करने के लिये की गई थी। स्वामी, एक आशंका यह भी जताते हैं कि कहीं बजट की  यह अप्रत्याशित बढोत्तरी पेगासस स्पाइवेयर के लिये आवश्यक संसाधन जुटाने, उसके लिये रिसर्च और डेवलपमेंट जैसे मूलभूत इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिये तो नही किया गया था। हालांकि सरकार इस मामले पर मौन है और पेगासस स्पाइवेयर खरीदे जाने या न खरीदे जाने के बारे में सरकार का अभी तक कोई अधिकृत वक्तव्य नहीं आया है। 

एनएसओ जिसने पेगासस स्पाइवेयर डेवलप किया है और बेचा है ने कहा है कि उसे निगरानी के लिये क्रेता के यहां एक इंस्टालेशन और सपोर्ट सिस्टम लगाना पड़ता है। बड़े पैमाने पर हुयी निगरानी की इस घटना को बिना देश मे कहीं एक बेस बनाये अंजाम नहीं दिया जा सकता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि एनएसओ का दिल्ली या आसपास कहीं न कहीं कोई कार्यालय या उसके सपोर्ट सिस्टम का आधार होगा, जहां से यह निगरानी की जाती रही है। अगर सरकार ने यह निगरानी नहीं कराई है तो, फिर यह और अधिक गम्भीर बात है कि कोई देश मे घुस कर, अपना सर्विलांस सिस्टम इंस्टाल कर के देश के पत्रकारों, जजों, विपक्ष के नेताओ, उद्योगपतियों तक की लम्बे समय से निगरानी कर रहा है और सरकार को इसकी भनक तक नहीं लग सकी ! और आज जब यह सब मायाजाल खुला और सरकार से यह सवाल पूछा जाने लगा कि यह जासूसी कौन करा रहा था तो सरकार यह तो कह रही है कि, उसने यह सब कुछ नहीं किया, पर वह यह भी नहीं बता पा रही है कि, आखिर फिर यह सब किया किसने ?

यदि सरकार यह जासूसी कराती तो, इस पर जो सवाल उठते, वे निजता के अधिकार के उल्लंघन और सरकार द्वारा निहित स्वार्थपूर्ण ताकझांक के सम्बंध में ही उठते, और वह देश का आंतरिक मामला होता है। पर यदि यह जासूसी, सरकार की जानकारी के बिना, जैसा कि  फिलहाल सरकार का स्टैंड है, की गई है तो यह एक प्रकार का साइबर हमला है और इस साइबर हमले पर चीनी घुसपैठ की नीति कि, न तो कोई घुसा था, न घुसा है के अनुरूप आचरण करना देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये घातक होगा। आज जब कोई भी आकर यह निगरानी कर ले जा रहा है तो, क्या वह देश के सेना प्रमुखों, पीएमओ या अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों की निगरानी नहीं कर सकता है ? सरकार ने, निश्चित ही अपने संस्थानों की सुरक्षा के सभी जरूरी और आधुनिकतम बंदोबस्त कर रखे होंगे और वह सतर्क भी होगी, फिर भी किसी अन्य  के द्वारा घुसकर इस प्रकार के महंगे स्पाइवेयर से सीजेआई के ऊपर महिला उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला अधिकारी तक की जासूसी कर जाय और सरकार इस पर जांच तक कराने को राजी नहीं हो रही है तो, या तो यह सरकार की अक्षमता है या उसकी संलिप्तता। दोनो ही स्थितियों में यह एक चिंताजनक स्थिति है। जांच में सहयोग न करने से सरकार की नीयत पर संदेह उठना स्वाभाविक है। अब सुप्रीम कोर्ट के अगले कदम का इंतजार है। मुकदमा अभी लंबित है। 

( विजय शंकर सिंह )

Thursday, 25 August 2022

पेगासस जासूसी मामले में, सुप्रीम कोर्ट की जाँच कमिटी ने आज अदालत में कहा है, केंद्र सरकार जाँच में सहयोग नहीं कर रही है.

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को पेगासस स्पाइवेयर का उपयोग करके अवैध निगरानी के आरोपों की जांच कर रही स्वतंत्र समिति द्वारा प्रस्तुत सीलबंद रिपोर्ट को रिकॉर्ड पर रख लिया है। पेगसस जासूसी मामले में, सुप्रीम कोर्ट की जाँच कमिटी ने आज अदालत में कहा है,
1. 5 फोन में मालवेयर मिला है।
2. केंद्र सरकार जाँच में सहयोग नहीं कर रही है। 
आखिरकार, 
1. मालवेयर क्यों और किसने डाला? यह तो पता चलना चाहिए
2. मोदी सरकार, पेगासस मामले में सहयोग क्यों नहीं कर रही है?

सीजेआई, एनवी रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि, 
"भारत सरकार ने समिति के साथ, जांच में, सहयोग नहीं किया और सरकार ने उसी प्रकार का रुख दिखाया जो उसने न्यायालय के समक्ष, सुनवाई के समय, दिखाया था, जब, उसने इस बात का कोई स्पष्ट उत्तर देने से इनकार कर दिया था कि, स्पाइवेयर खरीदा गया था या नहीं।"
CJI रमना ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा,
"एक बात समिति ने कहा है, भारत सरकार ने सहयोग नहीं किया है। आपने यहां जो स्टैंड लिया, वही आपने वहां रखा है।"
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है।

पीठ ने यह भी कहा कि 
"तकनीकी समिति ने 29 में से 5 उपकरणों, मोबाइल फोन में मैलवेयर पाया है, जो उनके पास जांच के लिए जमा किए गए थे।  हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि, पाया गया मैलवेयर वास्तव में पेगासस था या कुछ और। इसके अलावा, जिन सदस्यों ने अपने फोन जमा किए थे, उन्होंने रिपोर्ट जारी नहीं करने का भी अनुरोध किया था। इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट को सार्वजनिक डोमेन में लाने के लिए अपनी अनिच्छा व्यक्त की है और कहा है कि वह इस पर विचार करेगा कि क्या एक संशोधित संस्करण उपलब्ध कराया जा सकता है।"

पीठ ने हालांकि कहा कि वह पर्यवेक्षण न्यायाधीश, न्यायमूर्ति आरवी रवींद्रन द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के उस अंश को प्रकाशित करेगी, जिनमें, नागरिकों की सुरक्षा, भविष्य की कार्रवाई, जवाबदेही, गोपनीयता संरक्षण में सुधार के लिए कानून में संशोधन, शिकायत निवारण तंत्र आदि पर सुझाव प्रस्तुत किए।
सीजेआई रमना ने कहा, 
"यह एक बड़ी रिपोर्ट है, देखते हैं कि हम कौन से हिस्से सार्वजनिक कर सकते हैं... यह सब तकनीकी मुद्दे हैं। जहां तक ​​रवींद्रन की रिपोर्ट है, हम वेबसाइट पर अपलोड करेंगे।"

तकनीकी समिति ने 3 भागों में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।  इसमें मैलवेयर, सार्वजनिक शोध सामग्री, निजी मोबाइल उपकरणों से निकाली गई सामग्री जिसमें गोपनीय जानकारी हो सकती है आदि के बारे में जानकारी शामिल है। इस प्रकार, समिति ने आगाह किया है कि रिपोर्ट गोपनीय है और सार्वजनिक वितरण के लिए नहीं है। समिति के प्रश्नों पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं वाली एक फाइल भी न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई थी।

सुप्रीम कोर्ट की पीठ इजरायली स्पाईवेयर पेगासस का उपयोग कर पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और राजनेताओं की लक्षित निगरानी के आरोपों की स्वतंत्र जांच की मांग करने वाली याचिकाओं के एक बैच पर विचार कर रही थी। अक्टूबर 2021 में, कोर्ट ने मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आरवी रवींद्रन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया था। न्यायालय ने प्रथम दृष्टया यह पता लगाने के बाद जांच समिति का गठन किया कि याचिकाकर्ताओं ने एक मामला स्थापित किया है और केंद्र सरकार, उस मामले में स्पष्ट पक्ष रखने में विफल रही है।

"हवा में लाठी भांजने से, कोई मसला हल नहीं होगा।" 
पेगासस मामले में केंद्र से सुप्रीम कोर्ट ने कहा। स्वतंत्र भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व पर जोर देते हुए और अनधिकृत निगरानी के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए, सीजेआई, एनवी रमना के नेतृत्व वाली पीठ ने कहा कि राज्य द्वारा उठाए गए राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार, न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से बाहर और खारिज नहीं कर सकते हैं।

केंद्र सरकार ने यह बताते हुए कि क्या यह एक राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दा था, पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल किया गया था, यह खुलासा करने से इनकार कर दिया था।  केंद्र के बचाव को खारिज करते हुए, कोर्ट ने कहा कि केवल राष्ट्रीय सुरक्षा का आह्वान करने से राज्य को कुछ भी करने की आजादी नहीं मिल जाती। कोर्ट ने केंद्र के इस प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया कि, वह यह कहकर तकनीकी समिति बना सकती है कि निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए एक स्वतंत्र समिति की जरूरत है।

पेगासस विवाद, 18 जुलाई को द वायर और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों द्वारा मोबाइल नंबरों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित करने के बाद शुरू हुआ, जो भारत सहित विभिन्न सरकारों को एनएसओ कंपनी द्वारा दी गई, स्पाइवेयर सेवा के संभावित लक्ष्य थे।  द वायर के अनुसार, 40 भारतीय पत्रकार, राहुल गांधी जैसे राजनीतिक नेता, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर, ईसीआई के पूर्व सदस्य अशोक लवासा आदि को निगरानी टारगेट की सूची में बताया गया है। 
खबर का स्रोत, लाइव लॉ। 

(विजय शंकर सिंह)


Wednesday, 24 August 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / मृच्छकटिकम्‌ के बीहड़ ख़ज़ाने से (9)

कुछ चरित्र,  कुछ प्रसंग, कुछ चित्र—IV
षष्ठ अंक--तृतीय दृश्य (पूर्व से क्रमागत) 

(नेपथ्य में): 

अरे पहरेदारों, अपनी-अपनी चौकियों पर सावधान हो जाओ। ग्वाल-पुत्र आर्यक कारागार भेदकर,  संतरी की हत्या कर, बेड़ी तोड़कर, भाग रहा है। उसे पकड़ो, पकड़ो।

(बिना पर्दा गिराये आर्यक का प्रवेश। उसके एक पैर में बेड़ी लटक रही है। कपड़े से सारी देह ढकी हुई है। वह घबराया-सा घूम रहा है।)

(शकार का गाड़ीवान) स्थावरक—(स्वगत) शहर में तो बड़ी अफरा-तफरी मच गई है। तो गाड़ी (जिसमें वसंतसेना अनजाने सवार हो गई है) को जल्दी-जल्दी हाँकता हूँ। (निकल जाता है‌) [आगे का घटित बाद में]  

आर्यक—राजा की क़ैद में बंद होने की महान विपत्ति के विशाल सागर को पारकर, बंधन तोड़कर भागे हुए हाथी की तरह मैं एक पैर में बेड़ी लटकाए विचर रहा हूँ। किसी त्रिकालदर्शी सिद्ध ने कह दिया कि आर्यक राजा होगा। इस भविष्यवाणी से डरकर राजा पालक ने मुझे घर से घसीटकर, कालकोठरी में डालकर, बेड़ी से जकड़ दिया। मेरे मित्र शर्विलक ने उस कालकोठरी से आज ही मुझे मुक्त कराया है। 

(कृतज्ञता के आवेग से निकलते हुए आँसू पोंछकर):

यदि मेरे भाग्य में यही लिखा है कि राजा बनूँगा तो इसमें मेरा क्या क़ुसूर? फिर भी राजा पालक ने जंगली हाथी की तरह मुझे पकड़कर क़ैद में डाल दिया। भाग्य में जो लिखा है वह तो होकर रहेगा। और राजा तो सबके लिए मान्य है, ऐसे बलवान राजा से कौन विरोध करना चाहेगा? 

हाय, मैं अभागा कहाँ जाऊँ? (सामने देखकर) किसी भले आदमी का घर मालूम पड़ता है। इसका बग़ल का द्वार भी खुला हुआ है। घर बहुत पुराना लगता है। दीवारों के जोड़ टूट गए हैं। किवाड़ों में सिटकिनी तक नहीं है। लगता है, इस घर का मालिक भी मेरी तरह अभागा है और दरिद्रता की मार से इस दशा को प्राप्त हो गया है। 

इसी (चारुदत्त के) घर में घुसकर शरण लेता हूँ।

(नेपथ्य में) बढ़े चलो बैलों, बढ़े चलो।

आर्यक (सुनकर) अरे यह बैलगाड़ी तो इधर ही आ रही है। बिल्कुल शांत है, इसलिए किसी असामाजिक व्यक्ति को तो नहीं ले जा रही होगी। हो सकता है, किसी नवोढा या किसी श्रेष्ठ व्यक्ति को कहीं ले जाने के लिए आ रही हो। या, हो सकता है, भाग्य से मुझे नगर से बाहर निकालने के लिए ही आ रही हो। 

वर्धमानक—लो, मैं गाड़ी का बिछौना लेकर लौट आया। रदनिके, आर्या वसंतसेना से कह दो, गाड़ी तैयार है। वे अब पुष्पकरंडक जीर्णोद्यान चल सकती हैं। 

आर्यक—(सुनकर) तो यह किसी गणिका की गाड़ी है जो कहीं बाहर जा रही है। (चुपके से) इसी में बैठ जाता हूँ। (धीरे से बैलगाड़ी के पास जाता है।)

वर्धमानक—(सुनकर,स्वगत) पायल (वस्तुत: बेड़ी) की आवाज़ सुनाई पड़ रही है। तो आर्या आ गईं। (प्रकट) नाथे हुए बैल चलने को उतावले हो रहे हैं। इसलिए आर्या पीछे से चढें। 

(आर्यक पीछे की ओर से चढ़ जाता है।)

वर्धमानक—पैर उठाकर गाड़ी पर चढ़ते समय पायल की आवाज़ बंद हो गई। गाड़ी भी भारी हो गई। आर्या अब गाड़ी पर बैठ गई होंगी। तो अब चलता हूँ। चलो बैलों।

[षष्ठ अंक का चतुर्थ दृश्य: आगे नाका पड़ता है जहाँ वीरक और चंदनक नाम के दो सेनानायक अपनी-अपनी कुमुक के साथ आर्यक को पकड़ने के लक्ष्य से निगरानी के लिए मौजूद हैं। उनमें से वीरक आर्यक का पुराना दुश्मन है और चंदनक पुराना मित्र। चंदनक शर्विलक का भी घनिष्ठ मित्र है जो आर्यक का मित्र और कारागार से उसके निकल भागने में मुख्य सहायक है। 

गाड़ी रोककर पूछताछ होती है। गाड़ीवान वर्धमानक ने (जानकारी के अनुरूप सच) बता दिया कि गाड़ी आर्य चारुदत्त की है और इस पर आर्या वसंतसेना मनोविनोद के लिए पुष्पकरंपडक उद्यान जा रही है। इस पर चंदनक गाड़ी बिना जाँच के जाने देना चाहता है। वह चारुदत्त और वसंतसेना की कीर्ति से परिचित है और उनका सम्मान करता है। वीरक दोनों को जानता तो है किंतु उन्हें कोई महत्व नहीं देता। वीरक का रवैया उसी के शब्दों में--राजकाज में मैं अपने पिता को भी नहीं जानता। आख़िर चंदनक को परदा उठाकर गाड़ी के भीतर जाँच के लिए जाना पड़ता है। शस्त्रविहीन आर्यक उसका शरणागत होकर रक्षा की याचना करता है और चंदनक शरणागत को अभयदान दे देता है। उसकी यह जानकारी भी काम करती है कि आर्यक निर्दोष है। किंतु बाहर आकर घबराहट में उसके मुँह से निकल जाता है--मैंने ‘आर्य’ को देख लिया। वह तुरंत बात को सुधारकर कहता है—नहीं, आर्या वसंतसेना को देख लिया। इससे वीरक को शक हो जाता है। उसके अविश्वास को चंदनक यह कहकर दूर करना चाहता है कि हम दाक्षिणात्य लोग कई शब्द अशुद्ध बोलते हैं, जैसे दृष्टो को दृष्टा और आर्य: को आर्या। वीरक को विश्वास नहीं होता। इसे लेकर दोनों में कहासुनी हो जाती है और एक-दूसरे को निम्न जाति का बताकर अपमानित करने का दौर चलता है। आख़िर वीरक भी गाड़ी में घुसकर जाँचने का निश्चय करता है। किंतु जैसे ही वह गाड़ी पर चढ़ने लगता है, चंदनक बाल से उसे खींचकर ज़मीन पर गिरा देता है और पद-प्रहार से पिटाई भी कर देता है। वीरक उसे राजा के सामने पेशकर चतुरंग दंड (शिर-मुंडन, कोड़े लगाना, धन-हरण, देश-निकाला) दिलाने की धमकी देता है किंतु चंदनक ‘देख लूँगा’ कहकर टाल जाता है। वह गाड़ीवान को जाने की अनुमति देते हुए कहता है-- रास्ते में कोई पूछे तो बोल देना कि चंदनक और वीरक ने गाड़ी देख ली है। यही नहीं, वह नि:शस्त्र आर्यक को यह कहते हुए अपनी तलवार भी दे देता है कि आर्ये वसंतसेने, मेरा यह चिह्न अपने पास रख लीजिए। 

गाड़ी के नाके से बाहर निकलते ही शर्विलक को गाड़ी का अनुसरण करते देखकर चंदनक भी, पिटे हुए वीरक के प्रतिकार से आशंकित, सपरिवार आर्यक के पक्ष में चलने को उद्यत हो जाता है।] 

षष्ठ अंक का पटाक्षेप।

सप्तम अंक

पुष्पकरण्ड जीर्णोद्यान। चारुदत्त और विदूषक। दो श्लोकों में उद्यान की छटा का वर्णन करने के बाद, विदूषक के कहने पर, चारुदत्त एक साफ़-सुथरी शिला पर बैठ जाता है। 

चारुदत्त—मित्र, पता नहीं, वर्धमानक इतना विलम्ब क्यों कर रहा है! कहीं उसकी गाड़ी के आगे धीमी चाल से चलनेवाली कोई मरियल गाड़ी तो नहीं है जिससे आगे बढ़ने का रास्ता खोज रहा है? या उसकी गाड़ी का कोई पहिया टूट गया? या बैलों को नाधने की रस्सी टूट गई? या किसी ने लकड़ी काटकर, बीच मार्ग पर डालकर उसे अवरुद्ध कर दिया और वह किसी अन्य रास्ते से आने पर विचार कर रहा है? या ख़ुद बैलों को धीमे-धीमे हाँकता, आराम से आ रहा है?

(उधर वर्धमानक-नीत गाड़ी में बैठा) आर्यक—राजकीय रक्षकों को देखकर डरा हुआ, एक पैर में बेड़ी लटकी होने से भागने में असमर्थ, सज्जन चारुदत्त की गाड़ी में बैठकर, मैं उसी तरह सुरक्षित हूँ जैसे कौवे के घोसले में उसके बिना जाने पल रहे कोयल के बच्चे।

अब तो मैं शहर से दूर निकल आया हूँ। तो चुपके से गाड़ी से उतरकर घने पेड़ों की ओट में छिप जाऊँ? या, इस गाड़ी के मालिक से ही क्यों न मिल लूँ? सुना है, आर्य चारुदत्त शरणागतवत्सल हैं। उस भले आदमी को मुझे विपत्तिरूपी सागर से उबरा देखकर निश्चय ही सुख मिलेगा, क्योंकि इस संकट में पड़ी मेरी देह उसी के गुणों के चलते अब तक सुरक्षित है‌।

तब तक गाड़ी उद्यान पहुँच जाती है।

विदूषक को देखकर वर्धमानक उसके पास लाकर गाड़ी खड़ी कर देता है।

वर्धमानक—आर्य मैत्रेय!  

विदूषक—मित्र तुम्हारे लिए ख़ुशख़बरी है। वर्धमानक बुला रहा है। वसंतसेना आ गई होगी। 

चारुदत्त—निश्चय ही हमारे लिए बड़ी ख़ुशख़बरी है।

विदूषक-- (चारुदत्त के साथ गाड़ी के पास पहुँचकर) अरे दासीपुत्र, तुमने इतनी देर क्यों कर दी? 

वर्धमानक—कुपित न हों आर्य। मैं गाड़ी का बिछावन भूल गया था। वही लाने के लिए जाने-आने में देर लग गई।

चारुदत्त—वर्धमानक, गाड़ी घुमाओ। मैत्रेय, वसंतसेना को उतारो। 

विदूषक—क्या इनके पैर में ‘बेड़ी पड़ी’ है जो ख़ुद नहीं उतर सकतीं? (विदूषक गाड़ी का पर्दा खोलता है।) अरे मित्र, यह तो वसंतसेना नहीं, कोई वसंतसेन है। 

चारुदत्त—क्यों परिहास करते हो। प्रेम विलम्ब नहीं चाहता। अथवा मैं स्वयं ही उतार लेता हूँ। (उठता है।)

आर्यक--(चारुदत्त को देखकर) तो ये हैं गाड़ी के मालिक। ये तो सुनने में ही नहीं, देखने में भी रमणीय हैं। अब निश्चित मेरी रक्षा हो जाएगी।  

[और वही होता है। आर्यक के शरणागत के रूप में अपना परिचय देते ही चारुदत्त उसे आश्वस्त करता है--मैं अपनी जान देकर भी तुम्हारी रक्षा करूंगा। फिर तो वसंतसेना की चिंता भूलकर वह आर्यक की रक्षा में ही लग जाता है। गाड़ीवान वर्धमानक से उसके पैर की बेड़ी कटवाकर एक पुराने कुँए में फिंकवा देता है। आर्यक को सावधान करता है कि राजा पालक तुम्हें पकड़ने की हर संभव कोशिश कर रहा है, इसलिए यहाँ से शीघ्र निकल जाओ। इसके बाद, उसकी बाईं आँख फड़कने पर ही उसे वसंतसेना की याद आती है और उसको लेकर व्याकुल हो जाता है।]

सप्तम अंक का पटाक्षेप।

ध्यातव्य यह है कि गाड़ी की अदला-बदली के जिस संयोग से वसंतसेना के प्राणों का संकट खड़ा होता है और उसकी हत्या के आरोप में चारुदत्त आसन्न मृत्युदंड तक पहुँच जाता है, उसी से आर्यक की जीवन-रक्षा भी होती है। और इसी जीवन रक्षा से, ऐन वक़्त पर उसके राजा बन जाने के कारण न केवल चारुदत्त के प्राणों की रक्षा होती है, उसे कुशावती नगरी का राज्य भी मिल जाता है। और नया राजा आर्यक वसंतसेना के लिए ‘वधू’ शब्द का प्रयोग कर उससे चारुदत्त के सम्मानजनक सामाजिक सम्बध का मार्ग प्रशस्त करता है।

दुनिया में दुर्भाग्य और सौभाग्य के बीच की दूरी बहुत फिसलन भरी है।       
(समाप्त) 

कमलकांत त्रिपाठी
(Kamlakant Tripathi) 

मृच्छकटिकम् (8) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/8.html 

मुख्यमंत्री यूपी के खिलाफ मुकदमा वापसी पर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुरक्षित / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने 24 अगस्त को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर 2007 में अभद्र भाषा का आरोप लगाने वाले एक मामले में मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से इनकार करने वाली याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया है  इस मामले की सुनवाई सीजेआई एन.वी. रमना की पीठ जिसमे,  जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सी.टी.  रवि कुमार हैं ने की। 

याचिकाकर्ता परवेज परवाज़ ने आरोप लगाया कि योगी आदित्यनाथ ने 27 जनवरी, 2007 को गोरखपुर में आयोजित एक बैठक में "हिंदू युवा वाहिनी" कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए मुस्लिम विरोधी अभद्र टिप्पणी की थी। उन्होंने 3 मई, 2017 को यूपी सरकार द्वारा, मुक़दमा वापसी के निर्णय को चुनौती दी थी।  मामले में आरोपी पर मुकदमा चलाने और मामले में दायर क्लोजर रिपोर्ट को भी मंजूरी देने से इंकार कर दिया गया था।  उन्होंने पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसने 22 फरवरी, 2018 को याचिका खारिज कर दी थी। उसके बाद, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की थी।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए एडवोकेट फुजैल अय्यूबी ने इस मुद्दे को रेखांकित करते हुए अपनी पहली दलील प्रस्तुत की,  

"क्या राज्य सीआरपीसी की धारा 196 के तहत आदेश पारित कर सकता है ? एक आपराधिक मामले में, प्रस्तावित आरोपी के संबंध में, जो इस बीच मुख्यमंत्री के रूप में निर्वाचित हो जाता है और, भारत के संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत कार्यकारी प्रमुख है।"
उन्होंने कहा कि, 
"इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 22 फरवरी, 2018 के अपने आदेश में इस मुद्दे को निपटाया नहीं था। इस प्रकार यह सवाल उठा कि क्या मुख्यमंत्री, कार्यकारी प्रमुख के रूप में, मंजूरी प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं?"
उन्होंने उच्च न्यायालय के समक्ष उठाए गए अन्य मुद्दों पर प्रकाश डाला और कहा कि, 
"पहला मुद्दा यह था कि, जांच ने विश्वास का ध्यान नहीं दिया और इसलिए इसे पारदर्शी होने की आवश्यकता है।"  

सीजेआई ने पूछा,
"मामले में एक बार क्लोजर रिपोर्ट दर्ज हो जाने के बाद, मंजूरी का सवाल कहां है? यह एक अकादमिक सवाल है ... अगर कोई मामला नहीं है, तो मंजूरी का सवाल कहां आएगा?"

इस पर, याचिकाकर्ता ने कहा कि,
"एक मामला था, क्योंकि एक अभद्र भाषा थी, एक डीवीडी मिली थी, एक एफएसएल रिपोर्ट आई थी और एक मसौदा अंतिम रिपोर्ट (डीएफआर) तैयार की गई थी। प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया था और इस प्रकार एक मंजूरी मांगी गई थी जिसे कानून विभाग और गृह विभाग के बीच अस्वीकार कर दिया गया था। इस प्रकार, विभाग ने स्वयं निर्णय लिया और इस मुद्दे को अस्वीकार कर दिया।"

उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने कहा कि, 
"मामले में कुछ भी नहीं बचा था, क्योंकि सीएसएफएल ने कहा था कि जिस सीडी पर आपत्तिजनक भाषण की रिकॉर्डिंग थी, वह छेड़छाड़ और नकली थी। इस संबंध में क्लोजर रिपोर्ट भी थी, जिसे स्वीकार कर लिया गया। मामला सीएम के पास जाने का नहीं था क्योंकि जब कानून विभाग और गृह विभाग के बीच विवाद हुआ था, तब सीएम ही अंतिम मध्यस्थ थे। हालांकि, मौजूदा मामले में कानून विभाग की राय थी कि अगर सीडी से छेड़छाड़ और फर्जीवाड़ा किया गया तो किसी तरह की मंजूरी का सवाल ही नहीं उठता और गृह विभाग ने इस पर सहमति जताई थी।"

अधिवक्ता अय्युबी ने कहा कि, 
"जहां तक ​​डीएफआर का संबंध है, जांच एजेंसी ने स्पष्ट रूप से संकेत दिया था कि अपराध शाखा ने धारा 143, 153, 153 ए, 295 ए और 505 आईपीसी के तहत अपराध पाए हैं। अपराध का पता लगा लिया गया है और पांचों आरोपियों को नामजद कर दिया गया है।"
इसे विधि विभाग द्वारा अस्वीकार किया जा रहा था।

CJI रमना ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता द्वारा उठाया गया मुद्दा अकादमिक था।  उन्होंने कहा कि-
"आप जो मुद्दा उठा रहे हैं वह अकादमिक मुद्दा है ... मंजूरी कब आएगी? जब एक आपराधिक कार्यवाही चल रही है। अगर कोई आपराधिक कार्यवाही नहीं है, तो मंजूरी कैसे होगी? ... गुणों पर पहले ही चर्चा की जा चुकी है।  कि अगर कोई सीडी टूटी हुई है, तो उसे फोरेंसिक जांच के लिए नहीं भेजा जा सकता है।"

अधिवक्ता अय्यूबी ने कहा कि, 
"उच्च न्यायालय के अनुसार, जब उन्होंने धारा 156(3) के तहत मामला दायर किया, तो उन्होंने एक सीडी दी जो टूट गई थी और बाद में एक सीडी थी जो उन्होंने कहा कि उन्होंने धारा 161 के तहत दी थी। उन्होंने कहा कि  सार्वजनिक डोमेन में, सारे बयान हैं और आदित्यनाथ ने एक टेलीविजन साक्षात्कार में भाषण देना स्वीकार किया था, जो एक अतिरिक्त न्यायिक स्वीकारोक्ति होगी।  इसलिए, यह कोई मायने नहीं रखता कि सीडी को तोड़ा गया या छेड़छाड़ की गई।"

अधिवक्ता अय्युबी, के तर्कों का विरोध करते हुए, रोहतगी ने कहा कि, 
"याचिकाकर्ता ने 2008 में एक सीडी जमा की थी जो टूट गई थी और 5 साल बाद याचिकाकर्ता ने एक और सीडी दी जो छेड़छाड़ की गई थी।  बाद में रोहतगी के अनुसार याचिकाकर्ता ने तीसरी सीडी दी।  उन्होंने कहा कि मुद्दा यह था कि सीडी से या तो छेड़छाड़ की गई या तोड़ दी गई।  सीएफएसएल रिपोर्ट का अभाव था जिसे बाद में विधि विभाग ने तलब किया, जिसके बाद विधि विभाग ने एक निर्णय लिया, जिस पर गृह विभाग ने सहमति व्यक्त की। रोहतगी ने दोहराया कि नियमों के अनुसार, केवल उन मामलों में जहां कानून विभाग और गृह विभाग के बीच विवाद मौजूद था, क्या मामला अंतिम प्राधिकरण यानी मुख्यमंत्री के पास गया।  चूंकि वर्तमान मामले में ऐसा कोई विवाद नहीं था, उन्होंने कहा कि मामला मुख्यमंत्री को नहीं भेजा जाना है।"

वरिष्ठ अधिवक्ता  रोहतगी ने कहा कि, 
"आप 15 साल बाद एक मरे हुए घोड़े को पीटते नहीं रह सकते... सिर्फ इसलिए कि वह आदमी आज मुख्यमंत्री बन जाता है... अगर यह संस्था की स्थिति है, तो क्या यह आत्मविश्वास को प्रेरित करता है? अगर कोई सामग्री नहीं है,  प्रतिबंध नहीं हो सकते। मेरा निवेदन है कि आपके आधिपत्य को लागत के साथ इसे अस्वीकार कर देना चाहिए।"

इस संदर्भ में, अधिवक्ता अय्यूबी ने मध्य प्रदेश विशेष पुलिस बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (2004) के मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि-
"निस्संदेह, राज्यपाल पर मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी देने के मामले में आमतौर पर मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करने की आवश्यकता होती है, न कि अपने विवेक से। हालांकि, अनुमति पर विचार करते समय एक अपवाद उत्पन्न हो सकता है।  एक मुख्यमंत्री या एक मंत्री पर मुकदमा चलाने की मंजूरी जहां राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करना पड़ सकता है। ऐसी ही स्थिति होगी यदि मंत्रिपरिषद स्वयं को अक्षम कर देती है या खुद को अक्षम कर देती है।"

 "ठीक है, हम आदेश पारित करेंगे", CJI ने सुनवाई बंद करते हुए कहा।
इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। लाइव लॉ के अनुसार। 
(विजय शंकर सिंह)

कमलाकांत त्रिपाठी / मृच्छकटिकम्‌ के बीहड़ ख़ज़ाने से (8)

कुछ चरित्र,  कुछ प्रसंग, कुछ चित्र—III

भास के पूर्वोक्त प्राचीन नाटक दरिद्र चारुदत्त: से वसंतसेना—चारुदत्त प्रेमप्रसंग को लेकर उसे  सत्ता-परिवर्तन की राजनीतिक प्रतिबद्धता से जोड़ने की उद्भावना मृच्छकटिकम्‌ का मौलिक योगदान है। और इसका यह नया नामकरण इस उद्भावना का बीजविंदु। इस नाम की व्यंजना वसंतसेना के चरित्र की धवलता को एक नई दीप्ति भी प्रदान करती है।

षष्ठ अंक--प्रथम दृश्य
वसंतसेना और धूता   

[संवादों (भावानुवाद) से ही पात्रों का चरित्र पर्त-दर-पर्त खुलता जाएगा।]

चारुदत्त का घर। घर की एक सेविका मंच पर प्रकट होती है।

सेविका—क्या अभी तक आर्या वसंतसेना सोई हुई हैं ? चलकर उन्हें जगाती हूँ। (मंच पर घूमती है)    

वसंतसेना चादर से देह ढककर सोती दिखाई पड़ती है।

सेविका—आर्ये, उठें-उठें, भोर हो गया।     

वसंतसेना—(जगकर) क्या रात ही भोर हो गई? 

सेविका—हम लोगों के लिए तो भोर हो गयी, आर्या के लिए अभी रात ही होगी।

वसंतसेना—अरे, तुम्हारे जुआरी जी कहाँ चले गए? 

सेविका—वर्धमानक (भृत्य) को ज़रूरी हिदायत देकर पुष्पकरण्डक नाम के पुराने उद्यान। 

वसंतसेना—उससे क्या कहकर गए हैं? 

सेविका—रात में ही गाड़ी जोड़ लो। आर्या वसंतसेना उसी से जाएँगी। 

वसंतसेना—मुझे कहाँ जाना है? 

सेविका—जहाँ आर्य चारुदत्त गए हैं। 

वसंतसेना--(ख़ुशी से सेविका को गले लगाकर) यह तो बहुत प्रिय बात हुई। क्या है कि रात में मैं उन्हें ठीक से देख नहीं पाई। अब दिन में अच्छी तरह देखूँगी...सखी, यह बताओ, क्या मैं इस घर के अंत:पुर में प्रविष्ट हूँ? 

सेविका—केवल अंत:पुर में नहीं, आप तो हम सब के हृदय में भी समा गई हैं।

वसंतसेना—क्या चारुदत्त के परिवारवाले मेरे यहाँ आने से दु:खी हैं? 

सेविका—हैं नहीं, पर हो जाएँगे। 

वसंतसेना—कब? 

सेविका--जब आर्या यहाँ से जाएँगी। 

वसंतसेना—तब तो पहले मुझे ही दु:खी होना चाहिए। (अनुनय के साथ) सखी, यह रत्नहार लो और जाकर मेरी बहन आर्या धूता को दे आओ। उनसे कह देना—‘मैं आर्य चारुदत्त के गुणों से अभिभूत, उनकी दासी हूँ, इसलिए आपकी भी दासी हूँ, इसलिए यह रत्नहार आपके ही गले की शोभा बनने लायक है।

सेविका—लेकिन इससे तो आर्य चारुदत्त आर्या धूता पर रुष्ट हो जाएँगे। 

वसंतसेना—जाओ तो। बिल्कुल रुष्ट नहीं होंगे। 

सेविका—(हार लेकर) जैसी आपकी आज्ञा। (बाहर निकल जाती है। किंतु थोड़ी ही देर में हार लिए-लिए वापस आ जाती है।) आर्या धूता ने आपके लिए कहा—‘आर्यपुत्र ने आप पर प्रसन्न होकर यह हार दिया था। इसलिए इसे वापस लेना मेरे लिए उचित नहीं।‘ आपके लिए उन्होंने आगे  कहा—‘आपको जानना चाहिए कि आर्यपुत्र ही मेरे सबसे उत्तम आभूषण हैं।‘

[धूता की बात से उसकी जो भी मनोदशा व्यंजित हुई हो और वसंतसेना ने उसका जो भी अर्थ लगाया हो, बात वहीं ख़त्म हो गई‌। धूता को मायके से मिला रत्नहार वसंतसेना के पास ही रह गया।]

षष्ठ अंक—द्वितीय दृश्य: वसंतसेना और रोहसेन: नाटक के नामकरण का कारुणिक प्रसंग  

(चारुदत्त की सेविका रदनिका बालक (रोहसेन) के साथ मंच पर प्रवेश करती है।)     

रदनिका—आओ बेटे, हम इस गाड़ी से खेलें। 

बालक--(रुआसा होकर) मुझे यह मिट्टी की गाड़ी नहीं चाहिए, वही सोने वाली चाहिए। 

रदनिका (लम्बी साँस लेकर, बहुत दु:ख के साथ) बेटा, हमारे घर में सोने का प्रयोग कहाँ होता है! तुम्हारे पिता पर जब पुन: लक्ष्मी की कृपा होगी, तब सोने की गाड़ी से खेलना। (स्वगत) इस बालक को और कैसे बहलाऊँ? आर्या वसंतसेना के पास ही ले चलती हूँ। (वसंतसेना के पास आकर) आर्ये, प्रणाम करती हूँ।

वसंतसेना—आओ रदनिके। अच्छा हुआ, आ गई...यह बालक किसका है? बिना किसी अलंकरण के भी चाँद-से मुखड़ेवाला यह बच्चा मेरे हृदय को आनंद से सराबोर कर रहा है। 

रदनिका—यह आर्य चारुदत्त का पुत्र है। इसका नाम है रोहसेन।          

वसंतसेना—(बाहें फैलाकर) मेरे बेटे, आओ, गले लग जाओ। (गोद में लेकर) इसने ठीक अपने पिता का रूप पाया है। 

रदनिका—रूप ही नहीं, मुझे तो लगता है, उन्हीं का स्वभाव भी पाया है। आर्य चारुदत्त इसी से अपना मनोविनोद करते हैं।

वसंतसेना—लेकिन यह रो क्यों रहा है? 

रदनिका—पड़ोसी सेठ के बेटे की सोने की गाड़ी से खेल रहा था। वह अपनी गाड़ी लेकर चला गया। यह फिर वही गाड़ी माँगने लगा, तो मैंने मिट्टी की गाड़ी बनाकर दे दी। यह कहता है, मुझे मिट्टी की गाड़ी नहीं चाहिए। वैसी ही सोने की गाड़ी लाकर दो। 

वसंतसेना--हाय, यह भी दूसरे की संपत्ति से संतप्त है। हे ईश्वर, कमल के पत्ते पर गिरी जल की बूँदों की तरह मनुष्य के भाग्य से क्यों खेलतो हो! (भावुक होकर) बेटे, मत रो, तुम भी सोने की गाड़ी से खेलोगे।

बालक—रदनिके, ये कौन हैं? 

वसंतसेना—तुम्हारे पिता के गुणों से वशीभूत एक दासी।

रदनिका—बेटे, आर्या तुम्हारी माँ लगती हैं। [पितृभोग्यत्वेन मातृस्थानीया—पिता की भोग्या का स्थान भी माँ का होता है।]

बालक—रदनिके, तुम झूठ बोलती हो। यदि ये मेरी माँ होतीं तो इतने आभूषण क्यों पहनतीं?

वसंतसेना—बेटे ऐसे मोहक मुँह से इतनी कारुणिक बात क्यों बोलते हो? (अपने सारे आभूषण उतारकर रो पड़ती है।) लो, अब तो तुम्हारी माँ बन गई? इन आभूषणों को ले जाओ और इन्हीं से सोने की गाड़ी बनवा लो। 

बालक—नहीं, मैं नहीं लूँगा, तुम रोती क्यों हो?

वसंतसेना—(आँसू पोंछकर) बेटे, अब नहीं रोऊँगी। जाओ, खेलो। (मिट्टी की गाड़ी को अपने आभूषणों से भर देती है।) इनसे सोने की गाड़ी बनवा लेना। 

(बालक को लेकर रदनिका बाहर निकल जाती है।) 

(बैलगाड़ी लाकर खड़ी करने के बाद चारुदत्त के भृत्य वर्धमानक का प्रवेश) 

वर्धमानक—रदनिके, आर्या वसंतसेना को सूचित कर दो, बग़ल के दरवाज़े पर उनके लिए पर्दा लगी गाड़ी खड़ी है।

रदनिका—(भीतर जाकर वसंतसेना से) आर्ये, वर्धमानक गाड़ी लेकर आ गया है।

वसंतसेना—उससे कहो, थोड़ी देर रुके। तब तक मैं तैयार हो जाती हूँ। 
         
रदनिका—(बाहर निकलकर) वर्धमानक, थोड़ी देर रुको। आर्या वसंतसेना तैयार हो रही हैं।

वर्धमानक—मैं भी गाड़ी का बिछौना भूल आया हूँ। जब तक वे तैयार होती हैं, जाकर मैं उसे ले आता हूँ। (गाड़ी लेकर चला जाता है।) 

वसंतसेना—सखी, मेरी प्रसाधन-सामग्री तो ला दो।

षष्ठ अंक—तृतीय दृश्य: घोर त्रासदी का बीजारोपण 
 
दृश्य बदलता है। खलनायक शकार (संस्थानक) का गाड़ीवान स्थावरक रास्ते पर गाड़ी हाँकता दिखाई पड़ता है।

स्थावरक—राजा के साले संस्थानक महोदय ने गाड़ी लेकर शीघ्र पुराने उद्यान पुष्पकरण्डक पहुँचने का आदेश दिया है। बैलों, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो। (कुछ दूर जाकर) आज तो गाँवों की गाड़ियों से यह रास्ता ही जाम हो गया है। अब क्या करूँ? (घमंड से) अरे वो गाड़ीवानों, हटो, रास्ता छोड़ो। (गाड़ीवानों की बात सुनकर) क्या कहा, यह किसकी गाड़ी है? राजा के साले संस्थानक महोदय  की है। अरे गँवारो, हटो, रास्ता दो। क्या कहा, पल भर रुको, ज़रा पहिए में सहारा लगा दो।  तुम्हें पता है, मैं कौन हूँ? राजा के साले संस्थानक का बहादुर गाड़ीवान हूँ। भला मैं अपनी गड़ी घुमाकर तुम्हारी गाड़ी के लिए रास्ता दूँगा! लेकिन हाय, यह बेचारा तो अकेला है, पहिए में सहारा लगाने को कह रहा है। मुझे गाड़ी घुमा लेनी चाहिए। तो घुमाकर आर्य चारुदत्त के बगीचे में खड़ी कर देता हूँ। (गाड़ी घुमाकर, चारुदत्त के घर के सामने खड़ीकर, उससे उतरता है और रास्ते से फँसी गाड़ियाँ हटाने में मदद करने चला जाता है।) 

सेविका--(वसंतसेना से) आर्ये, बैलगाड़ी की धुरी की आवाज़ सुनाई पड़ रही है। शायद गाड़ी आ गई।             

वसंतसेना‌--मेरा भी चित्त चंचल हो रहा है। चलो, दरवाज़े का रास्ता दिखाओ। 

[दरवाज़े तक आकर, खड़ी हुई बैलगाड़ी देखकर, सेविका को आराम करने के लिए कहकर, वापस भेज देती है। वसंतसेना ने वर्धमानक को देखा नहीं है। वह अभी बिछावन लेकर लौटा नहीं है। तो (स्थावरक की) जो गाड़ी सामने दिखती है, उसी पर वह पीछे से बैठ जाती है।]  

वसंतसेना—(गाड़ी पर बैठते ही दाहिनी आँख फड़कती है।) यह क्यों फड़क रही है? कोई अनिष्ट? जो भी हो, चारुदत्त के दर्शन से निवारण हो जाएगा।

स्थावरक—(लौटकर, स्वगत) मैंने गाड़ियों को हटा दिया। अब चलूँ। (गाड़ी पर बैठता है और बैलों को हाँककर गाड़ी आगे बढ़ाता है।) क्या बात है, गाड़ी भारी लग रही है! हो सकता है, रास्ते से गाड़ियाँ हटाने के कारण मेरे थक जाने से, यह गाड़ी भी मुझे भारी लग रही हो। तो चलें। (प्रकट) चलो बैलों, आगे बढ़ो। 

इस तरह वसंतसेना, अनजाने ही, पुष्पकरंडक उद्यान में उसका इंतज़ार कर रहे चारुदत्त के पास जाने के बजाय, वह संस्थानक (शकार) के पास चल पड़ती है जहाँ उसके जीवन की सर्वाधिक भयंकर त्रासदी उसकी प्रतीक्षा में है। 
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
(Kamlakant Tripathi) 

मृच्छकटिकम् (7) 
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