ग़ालिब - 116.
क्यों बोते हो तुम्बे,
गर बाग ग़द्दाये मय नहीं है !!
Kyun bote ho tumbe,
Gar baag gaddaye may nahin hai !!
- Ghalib
यदि उद्यान और बेल, शराब के भिखारी नही हैं तो, इन बागों और खेतों में तुम्बे क्यों बोए जाते !
तुम्बा एक गोल कद्दू होता है जिसके अंदर का गूदा निकाल कर उसे सुखा कर एक पात्र का रूप दिया जाता है। ग़ालिब का इशारा इसी पात्र की ओर है जो उनके लिये मय यानी मदिरा का चषक बन जाता है। यह तुम्बे भी मधुपात्र के रूप में मय के तलबगार हैं।
ग़ालिब का शेर, सुनने में थोड़ा मजाकिया भले ही लगे, पर यह भी उनके द्वारा कम शब्दों में अभिव्यक्त एक दर्शन है। ग़ालिब का जीवन दर्शन आनंदवाद पर आधारित है। हालांकि उनके जीवन मे बेहद दुःख भरे पल भी आये और उनका निजी जीवन कष्ट और अभाव से भरा रहा। कुछ तो अपनी बुरी आदतों के कारण तो कुछ अपने स्वाभिमान भरे स्वभाव के काऱण वे निरन्तर अर्थाभाव में भी रहे। पर इन सबके बावजूद ग़ालिब, अपने घर की टूटी और उखड़े पलस्तर की दीवारों के बीच उगे झाड़ झंखाड़ में भी वसंत यानी बहार की आमद ढूंढ लेते हैं।
ग़ालिब का आनंदवाद यानी आलमे मस्ती, दैहिक आनन्द के बजाय एक सूफियाना आत्मिक आनन्द के रुप मे उनकी शायरी और खतों में बिखरा पड़ा है। यह सूफीवाद का तसव्वफ है जो मन को बाह्य संसार से दूर हटा कर खुद में ही खुद की तलाश की ओर ले जाने की बात करता है। यही दर्शन, रहस्यवाद का है और सूफी परंपरा का भी है। यह दर्शन एकेश्वरवाद की पराकाष्ठा है और यही वेदांत का अद्वैतवाद है। फुटहि कुंभ, जल जलहिं समाना !
इस छोटे से शेर में वे उस तुम्बे को भी मदिरा जो यहां आनंद या ईश्वर के आशीष का प्रतीक है के रूप में देखते हैं और कहते हैं उक्त मस्ती या आनन्द के तलबगार या भिखारी या गदाई तो यह सारा उद्यान और बेलें हैं। सारी प्रकृति उस आनंद मदिरा, मय की खोज में है तभी तो प्रकृति ने यह तुम्बे जो एक प्रकृति प्रदत्त पात्र हैं, उपजाए हैं। इन्हें बोने वाले लोग भी प्रकृति के इस संदेश को समझते हैं तभी तो वे इसे बोते हैं।
( विजय शंकर सिंह )
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