Thursday, 10 December 2020

शब्दवेध (35) ज्ञान शब्द की व्याख्या.

“Know exactly what you know.” Hardayal
आज हम  ज्ञान  की चर्चा करेंगे, जो हमारे पास इतना अधिक है कि जितना है उससे अधिक कुछ पाना ही नहीं चाहते।  समस्त ज्ञान की  कसौटी  अपनी ज्ञान सीमा को बनाना चाहते हैं।  यदि वह हमारे उपयोग का  सिद्ध हुआ तो  उसे सही,  नहीं हुआ तो मूर्खता और यदि मूर्खता सिद्ध न की जा सके तो उसे  नीयत की खोट सिद्ध करके  अपनी  ज्ञान सीमा की पवित्रता बनाए रखना चाहते हैं।  आगे बढ़ने से पहले  ज्ञान शब्द की व्याख्या दो कारणों से जरूरी लगी।  एक तो इसलिए कि हम भाषा की विकास प्रक्रिया में जिस बिंदु पर पहुँचे थे उसमें आँख के पर्याय ‘कण्’ पर चर्चा चल रही थी, जिससे इस शब्द की उत्पत्ति हुई है; दूसरे जो अपने  को ज्ञानी मानते हैं वे यह भी नहीं जानते कि इसका मूल अर्थ क्या है। 

ज्ञान का अर्थ है आँख। विश्वसनीय का अर्थ, आँखों देखा। अविश्वसनीय का, कानों सुना, या ‘सुना-सुनाया’।  ज्ञान की ये दो ही इंद्रियाँ है। शेष तीन अवर्णनीय हैे, इसलिए वेदन की इन्द्रियाँ हैं, यद्यपि वेद में ज्ञात और अनुभूत और कल्पनीय सभी का समावेश है।  आँख की यह महिमा सभी समाजों और भाषाओं में दुहराई गई है।  आंखें खोलो,  मतलब, 1-  नींद से जागो, 2.  होश में आओ, 3.  सोचो।  इससे उल्टा मुहावरा है, आंखें मूंदे रहो और आँखें बंद हो जाना तो मौत का पर्याय है।  तमिल की एक कहावत है, एण्णुम् एऴुत्तुम् कण्णं नत्तगुम् -  गणना और  अक्षरज्ञान दोनों हमारी दो आंखें है। 

ज्ञान शब्द आँख के जिस पर्याय से निकला है, वह है कण>< कन।  अंग्रेजी का एक शब्द है ken, जिसका  मतलब है समस्त ज्ञान और बोध व्यवस्था, one's range of knowledge or understanding.अंग्रेजी का एक दूसरा शब्द है जिससे हम बहुत अच्छी तरह परिचित हैं know, जिसे कहने को तो लातिन ‘ग्नॉस’ जो ऐग्नॉस्टिक - संशयवादी में मिलेगा, पर है यह भी ‘क्न’ का परवर्ती।  हमारी भाषाओं का अ-कार  अंग्रेजी में प्रायः  ए-कार में बदल जाता है (बनारस > Benaras), कभी-कभी  उ-कार/ इ-कार/ओ-कार में, पद (foot), बन्ध (bind/ bond).  इसी तरीके से कण् एक ओर तो ken  बना है  तो दूसरी ओर स्वरलोप से क्न ( know, knowledge)।  यह स्वरलोप  यूरोप में नहीं हुआ, कौरवी प्रभाव से भारत में ही संपन्न हो चुका था।   संभवतः  कन पूर्वी से  कौरवी भाषा में पहुंचा तो इसके दो रूप हुए,  एक  स्वरलोप से कन् का क्न,   दूसरा क्न के  न-कार का  र-कार में बदलना- क्र,  और तीसरा क्न के दंत्य वर्ण का तालव्य  हो जाना और सावर्ण्य के नियम से न का ञ मेे बदल कर ‘ज्ञ’ हो जाना (कन>क्नान>ज्ञान)। एक अन्य परिवर्तन कण्  की अघोष ध्वनि का घोषित होना था  जो संभवत बहुत पहले पूर्वी में घटित हो चुका था (कन- गन,  गनल)। 

आज तक इन परिवर्तनों को जिस तर्क से समझा जाता रहा है,  उससे हमारी समझ  आरंभ से ही अलग है अतः हम इन परिवर्तनों को संस्कृत की विकास-प्रक्रिया में  योगदान करने वाली भारतीय बोलियों  की भूमिका का हाथ मानते हैं, जिनकी ध्वनि संपदा  परस्पर कुछ भिन्न थी। तमिल की  इस समस्या को समझने में सबसे बड़ी भूमिका हम यह मानते हैं  कि  उसको सामने रखकर ही हम यह समझ सकते हैं अधिकांश दूसरी बोलियों की ध्वनि संख्या उससे मिलती-जुलती थी।  यदि  एक सिरे पर  तमिल थी,  दूसरे सिरे पर भोजपुरी  जिसमें  सघोष महाप्राण ध्वनियों के लिए  विशेष आग्रह देखने में आता है। अनेक ऐसी बोलियाँ थीं जो  इन दोनों अतियों के बीच पड़ती थीं और  उन्हीं शब्दों को  ग्रहण करते हुए अपनी ध्वनि सीमा में  ढाल लिया करती थीं। काल-क्रम में इन बोलियों का मेल हो गया। इस सामाजिक और भाषिक रचाव को नस्लवादी आग्रहों के कारण समझने से इन्कार करते हुए जिन परिवर्तनों को  ध्वनि नियमों के अनुसार,  अथवा ऐतिहासिक  क्रम  में घटित  परिवर्तन माना जाता रहा।  परंपरावादी भारतीय और आधुनिक पाश्चात्य भाषाविद दोनों नस्लवादी आग्रहोंं से ग्रस्त थे। सज कहें तो ऐतिहासिक कारणों से होने वाले परिवर्तन भी सामाजिक भागीदारी में आए परिवर्तन के परिणाम हैं इसे हम पहले भी स्पष्ट कर आए हैं। भाषा में घटित बदलाव में कुछ हाथ मनुष्य की कौतुकी प्रकृति का रहा है, जिसमें वह जानता भी नहीं कि प्रचलित शब्द का अपने आत्मीय के लिए परिवर्तित करने के साथ जो प्रयोग कर रहा है, वह अर्थ को संवेद्य बनाते हुए भाषा की प्रकृति को भी प्रभावित कर रहा है।[1]

हम पाते हैं कि ज्ञानी के लिए सं. में क्न/क्नु प्रचलित था जो वचक्नु = वाग्विद, वाचक्नवी - वाग्विदा (गार्गी) में बचा रह गया है।  हिं. का जाना सं. की गम् धातु से और जानना ज्ञा धातु से नहीं निकले हैं जाना अधिक पुराना रूप है जिसे समेटने के लिए गम् के कौरवी रूप ग्म का प्रयोग हुआ पर चल नहीं पाया,  तो ज्म रूप कल्पित किया गया पर जम/यम - यमति/ जमति, याति/जाति रूप चलन में रहे। इसी तरह जानना ज्ञान से अधिक पुराना है जो रूपावली में, जानाति, जानन्ति, जानतां  साफ दिखाई देता है।  ऋ. में ज्ञ का उत्पादन, जनन जिसने सर्वकल्याणी धरती और आकाश को पैदा किया)  (यो जजान  रोदसी विश्वशंभुवा; जिसने पत्थर के भीतर आग पैदा की, यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान..;  जिसने सूर्य को और उषाओं को पैदा किया (यो सूर्यं यो उषसः जजान; अपनी महिमा से श्वेत और अरुणाभ रंगों को पैदा किया (श्वेतं जज्ञानमरुषं महित्वा ।
 
और कभी कभी जाति और परिवार जन, कुनबे के सभी लोग सो जाएँ (ससन्तु सर्वे ज्ञातयः)  आशयों में हुआ है। ज्ञान के आशय में दो तीन बार ही प्रयोग हुआ है,   अज्ञात, अपरिचित दुराग्रही और निकृष्ट शत्रु हमें परास्त न करें (मा नो अज्ञाता वृजना दुराध्यो माशिवासो अव क्रमुः); वे अपने निवास को जानते हैं,  ( ते जानत स्वमोक्यं), स्वर्गोपम प्रथम ऋत को जानते हुए (जानन्नृतं प्रथमं यत्स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतुः)।

हमारे लिए रोचक बात यह है कि कन्  जल,  उत्पादन,  और  दर्शन  तीनों भाव लिए हुए  प्रयोग में आता रहा ओर यह  भी केवल भारत तक सीमित नहीं रहा। अंग्रेजी के कीन (keen - eager, acute of mind), किन ( kin- a person of the same family, relatives); किथ (knowledge, native land) शब्दों के कोश में दिए अर्थ से भी इसका आभास होता है, पर केंडल (candle. L. candela from candere ‘to glow’)   candour - whiteness purity, from L. candere - to shine) के विषय में कोई दुविधा नहीं रह जाती कि ‘कन’ से इनका सीधा संबंध है।
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[1]कृष्ण कान्ह, कन्नन, कन्न, कनु बनने के बाद भी कृष्ण ही रहता है परंतु इस कौतुक में कान्हा या कन्हैया बन कर कनवाह या कर्णधार से अभिन्न हो जाने के कारण संसार को भवसागर के रूप में बीच में लाकर उससे पार लगाने की भूमिका में भी पहुँचा देता है जो दुलार से बदली गई ध्वनि में कल्पना में भी नहीं था।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )

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