ग़ालिब - 117.
करते किस मुंह से हो, गुरबत की शिकायत ग़ालिब,
तुम को बे-महरीये याराने वतन याद नहीं !!
Karte kis munh se ho, gurbat kii shikayat Ghalib
Tum ko be-mahriiye yaraane watan yaad nahin !!
- Ghalib
तुम किस मुंह से विदेशियों की शिकायत करते हो, क्या तुम्हें अपने देशवासियों की निष्ठुरता याद नहीं है।
ग़ालिब परदेस में है। तब परदेश का अर्थ भारत के बाहर नहीं बल्कि अपने शहर, के बाहर जाने, को भी परदेस ही कहते थे। जब कोई उनसे कहता है कि परदेस में लोगों ने उनके साथ निष्ठुरता की तो वे अपने ही देस, शहर, गांव के लोगों की उपेक्षा और निष्ठुरता की याद दिलाते हैं। वे कहते हैं कि इन्ही निष्ठुरता और उपेक्षा के कारण ही उन्हें तो देश छोड़ना पड़ा। यदि देशवासियों या अपने वतन के ही लोगों ने अपनापन जताते हुए कोई उचित कामकाज और आश्रय प्रदान कर दिया होता, तब दर - दर की खाक छानने की क्या ज़रूरत ही क्या थी। अपनो की बेदर्दी और उपेक्षा ने ही तो, घर, शहर छोड़ने को बाध्य किया है। परदेस में तो वहां के लोगों ने अपनी उदारता दिखाकर, अपने यहां शरण और अवसर दिया, यह बात तो किसी को भूलनी नहीं चाहिए । कम-से-कम इस बात के लिए तो हम सबको उनका ( परदेस वालों का ) ऋणी होना चाहिए। यदि परदेस में किसी ने कोई अशोभनीय और अनुचित बर्ताव कर भी दिया, तो उनकी अन्य कृपा और सहायता को देखते हुए उनसे किसी प्रकार की गंभीर शिकायत तो नहीं ही होनी चाहिए। ऐसी किसी शिकायत से पहले अपने देशवासियों की निष्ठुरता और उपेक्षा को ध्यान में रखना चाहिए, जिन्होंने देस छोड़ने और परदेस की शरण लेने को विवश कर दिया है।
( विजय शंकर सिंह )
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