अब एक नया तर्क गढ़ा जा रहा है कि इन किसानों को भड़काया जा रहा है। यह भड़काने का काम कांग्रेस कर रही है। कांग्रेस एक विपक्षी दल है और इन कृषि कानूनो को चूंकि सरकार जो भाजपा की है, पारित किया है, तो यह इल्ज़ाम आसानी से कांग्रेस के माथे पर चिपक जाता है। भाजपा को लम्बे समय तक विपक्षी दल रहने का अनुभव प्राप्त है और जब वह विपक्ष में थी तो उसने भी बढ़ती कीमतों, आतंकवाद, भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर, आंदोलन किये हैं तो क्या यह मान लिया जाय कि जब वह विपक्ष में रहती है तो वह भी जनता को सरकार के खिलाफ भड़काती रहती थी। अगर यह तर्क सही है तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि जो भी दल जब भी विपक्ष में रहेगा, वह जनता को सरकार के विरोध हेतु भड़काता रहेगा ? फिर तो हर वह आंदोलन जो सरकार की नीतियों के खिलाफ कभी भी हुआ है या आगे होगा, वह नेताओ द्वारा भड़काया ही गया होगा, चाहे वह 1857 का विप्लव रहा हो या 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन या 1975 का जेपी आंदोलन या 1990 का रामजन्मभूमि आंदोलन या 2013 का अन्ना आंदोलन या अब यह आंदोलन जो किसानों द्वारा तीन कृषि कानून के खिलाफ किया जा रहा है।
दुनिया मे कोई भी आंदोलन जो स्वयंस्फूर्त उठता है वह तार्किक परिणति पर नही पहुंच पाता है, वह अपने लक्ष्य पर पहुंचने के पहले ही विफल हो जाता है। क्योंकि स्वयंस्फूर्तता बिना किसी योजना के और आगा पीछा सोचे बगैर उत्पन्न होती है और ऐसे आंदोलन अक्सर नेतृत्व विहीन हो जाते है। यह अलग बात है कि बाद में आंदोलन के दौरान कोई नेतृत्व उपज जाता है, और अगर वह सक्षम हुआ तो, आंदोलन अपने लक्ष्य तक पहुंचता है अन्यथा वह बीच मे ही असफल होकर भटक जाता है। ऐसे आंदोलनों के भटकने का एक बड़ा कारण, आंदोलन के पीछे किसी स्पष्ट वैचारिकी का अभाव और आंदोलन की सफलता के बाद की क्या कार्य योजना होगी, उसकी अनिश्चितता होती है।
अब बात मौजूदा किसान आंदोलन की, की जाय। यह आंदोलन स्वयंस्फूर्त नही है बल्कि इसके पीछे अनेक किसान संगठनों की एकजुटता और भूमिका है। विपक्षी दल अगर इस आंदोलन के साथ नही है तो वे फिर सरकार के ही साथ है यह अलग बात है कि वे चोला विपक्ष का ओढ़े हैं। विपक्ष के नेताओ को और किसान कानूनो के जानकारों को इस समय आगे आ कर इन किसान कानूनों के बारे में जनता और किसानों को जाग्रत करना चाहिए। जनता को सरकार की नीतियों के बारे में बताना, उसकी कमियों और खूबियों पर चर्चा करना, क्या परिणाम और क्या दुष्परिणाम होंगे इस पर लोगो को संतुष्ट और आश्वस्त करना, भड़काना नही होता है बल्कि यह एक प्रकार का जनजागरण है। सरकार भी अपने द्वारा बनाये कानून के बारे में लोगो को समझा सकती है और जनता को यह आश्वस्त कर सकती है कि, बनाये गए तीनो कृषिकानून, किसानों के व्यापक हित मे हैं और इससे उनकी आय बढ़ेगी।
देश का सरकार सनर्थक तबका, जिंसमे पढ़े लिखे मिडिल क्लास के लोग भी हैं आज जिस मोहनिद्रा में लीन है, वह न केवल अपने लिये बल्कि आने वाली अपनी पीढ़ियों के लिये भी अनायास ही एक ऐसी राह पर चल पड़े हैं जो प्रतिगामी है और लंबे दौर में यह दृष्टिकोण, देश, समाज और आने वाली पीढ़ी के लिये घातक होगा। मिडिल क्लास के लिये मैं कुछ तथ्य रखते हुए अपनी बात कहता हूं।
आप किसान नहीं है इसलिए आप किसानों के इस आंदोलन को फर्जी, देशद्रोह और खालिस्तानी कह कर इसकी निंदा कर रहे हैं।
आप एक प्रवासी मज़दूर भी नही है, इसलिए आप जब हज़ारो किमी सड़को पर प्रवासी मजदूर घिसटते हुए अपने घरों की ओर जा रहे थे, तो न तो आहत हुए और न ही आप ने सरकार से इनकी व्यथा के बारे में कोई सवाल पूछा।
आप फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूर भी नहीं हैं जो श्रम कानूनों में मज़दूर विरोधी बदलाव के खिलाफ खड़े हों और सरकार से कम से कम यह तो पूछें कि इन कानूनों में इस समय बदलाव की ज़रूरत क्या है और कैसे यह बदलाव श्रमिक हित मे होंगे।
आप के सामने देखते देखते, मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, अन्य तकनीकी शिक्षा की फीस कई गुना बढ़ गयी। लाखो रुपये अस्पताल में इलाज पर खर्च कर के, इस महामारी में, लोग अपने घर या तो स्वस्थ हो कर आये या मर गए। पर सरकार की कितनी जिम्मेदारी है इस महामारी में जनता को सुलभ इलाज देने की, इस पर एक भी सवाल सरकार से नहीं पूछा गया। आप इससे सीधे प्रभावित होते हुए भी मौन बने रहे। एक शब्द भी विरोध का नहीं कहा और न ही सरकार से पूछा कि ऐसा क्यों किया जा रहा है ?
आप के सामने देखते देखते लाभकारी सार्वजनिक कम्पनियों को, सरकार निजी क्षेत्रो को अनाप शनाप दामो पर बेच रही है, पर आप इस लूट की तरफ से आंख मूंदते जा रहे है और सरकार से एक छोटा सा सवाल भी नहीं पूछ पा रहे हैं कि आखिर इन छह सालों में ऐसा क्या हो गया कि घर के बर्तन भाडे बिकने की कगार पर आ गए ?
सरकार ने नोटबन्दी में देश की आर्थिकि गति को अवरुद्ध कर दिया। जो उद्देश्य थे , उनमे से एक भी पूरे नहीं हुए। प्रधानमंत्री ने सब ठीक करने के लिये 50 दिन का समय रिरियाते हुए मांगे थे। न जाने कितने 50 दिन बीत गए, आप ने सरकार से तब भी नहीं पूछा कि आखिर नोटबन्दी की ज़रूरत क्या थी और इसका लाभ मिला किसे ?
बाजार की महंगाई से आप अनजान भी नही है। आटे दाल का भाव भी आप को पता है। आप उस महंगाई से पीड़ित भी है, दुःखी भी, और यह सब भोगते हुए भी, आप सरकार के सामने, जिसे आपने ही सत्ता में बैठाया है, कुछ कह नहीं पा रहे हैं। जो कुछ कह, पूछ और आपत्ति कर रहा है, उसे आप देशविरोधी कह दे रहे है। क्योंकि आप के दिमाग मे यह ग्रँथि विकसित कर दी गयी है कि, सरकार से पूछना ईशनिंदा की तरह है। जब आप जैसी जनता होगी तो कोई भी शासक, तानाशाह बन ही जायेगा ।
बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, बैंकिंग सेक्टर से एक एक कर के निराशाजनक खबरें आ रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य जो सरकार का मूल दायित्व है से सरकार जानबूझकर पीछा छुड़ा रही है। पर द ग्रेट मिडिल क्लास अफीम की पिनक में मदहोश है।
यह एक नए तरह का अफीम युद्ध है। यह एक नया वर्ल्ड आर्डर है जो असमानता की इतनी चौड़ी और गहरी खाई खोद देगा कि विपन्नता के सागर में समृद्घि के जो द्वीप बन जाएंगे उनमे द ग्रेट मिडिल क्लास को भी जगह नहीं मिलेगी वह भी उसी विपन्नता के सागर में ऊभ चूभ करने लगेगा।
किसानों ने एक बड़ा मौलिक सवाल सरकार से पूछा है कि,
● यह तीन कृषिकानून किन किसानों के हित के लिये लाये गए है ?
● किस किसान संगठन ने इन्हें लाने के लिये सरकार से मांग की थी ?
● इनसे किसानों का हित कैसे होगा ?
आज तक खुद को जागरूक, अधुनातन और नयी रोशनी में जीने वाले द ग्रेट मिडिल क्लास का कुछ तबका यह ऐसा ही सवाल, नोटबन्दी, जीएसटी, लॉक डाउन, घटती जीडीपी, आरबीआई से लिये गए कर्ज, बैंकों के बढ़ते एनपीए आदि आदि आर्थिक मुद्दों पर सरकार से पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सका।
और तो और 20 सैनिकों की दुःखद शहादत के बाद भी प्रधानमंत्री के चीनी घुसपैठ के जुड़े इस निर्लज्ज बयान कि, न तो कोई घुसा था, और न कोई घुसा है, पर भी कुछ को कोई कुलबुलाहट नहीं हुयी वे अफीम की पिनक में ही रहे।
और जो सवाल पूछ रहे हैं, वे या तो देशद्रोही हैं, या आईएसआई एजेंट, अलगाववादी, अब तो खालिस्तानी भी हो गए, वामपंथी, तो वे घोषित ही है। पर आप क्या है। हल्का सा भी हैंगओवर उतरे तो ज़रा सोचिएगा।
इसका कारण, है थोड़ा बहुत भी द ग्रेट मिडिल क्लास के पास खोने के लिये, जो शेष है, वही आप के पांवों में बेडियां बनकर जकड़े हुए है। जब खोने के लिये वह भी शेष नहीं रहेगा तब आप भी जगेंगे, और इस पंक से कीचड़ झाड़ते हुए उठेंगे, पर उठेंगे ज़रूर। पर तब तक बहुत कुछ खो चुका होगा। बहुत पीछे हम जा चुके होंगे।
इस में आप शब्द किसी व्यक्ति विशेष को लेकर नहीं प्रयुक्त हुआ है। इस आप मे, आप सब भी हैं, मैं भी हूँ, हम सब हैं, फ़ैज़ के शब्दों में कहूँ तो, 'मैं भी हूँ औऱ तू भी है' जो इस द मिडिल क्लास की विशालकाय अट्टालिका में एक साथ रहते हुए भी अलग अलग कंपार्टमेंट जैसे अपार्टमेंट में खुद को महफूज समझने के भ्रम में मुब्तिला हैं।
जनता, सरकार विरोधी हो सकती है, उसे सरकार विरोधी होना भी चाहिए, क्योंकि उसने सरकार को, उसके वादों के आधार पर ही चुना है और जब सरकार वह वादे पूरा न करने लगे तो जनता का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि, वह सरकार के संवैधानिक दायित्व को याद दिलाये।सरकार का विरोध देश का विरोध नहीं है बल्कि इतिहास में ऐसे क्षण भी आये हैं, जब सरकार ने खुद ही अपने लोगों के स्वार्थ में वशीभूत हो कर संविधान के विरुद्ध आचरण किया है।
तब जनता का यह दायित्व और कर्त्तव्य है कि वह सरकार को संवैधानिक पटरी पर लाने के लिये सरकार का विरोध, सवैधानिक तरह से करे। सविधान के समस्त मौलिक अधिकार, इसी लिये जनता को शक्ति सम्पन्न भी करते हैं।
लेकिन सरकार जनविरोधी नहीं हो सकती है। क्योंकि वह जनता द्वारा ही अस्तित्व में लायी गयी है। संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करता है, व्यक्तिगत अस्मिता की बात है, हर व्यक्ति को अपनी बात कहने और सरकार से निदान पाने का अधिकार है।
अब जब यह कहा जा रहा है कि पंजाब के किसान ही क्यों सड़को पर हैं तो यह बात, सरकार को उन्ही से पूछनी चाहिए कि, वे क्यों सड़कों पर हैं और उनकी समस्या का निदान सरकार को ढूंढना चाहिए। जिसे कष्ट होगा, वही तो अपनी बात कहने सड़को पर उतरेगा।
आज जिस खालिस्तान, पाकिस्तान औऱ हिंदू राष्ट्र की बात की जा रही है, वह मुर्दा द्विराष्ट्रवाद का एक बिजूका है बस। निर्जीव पुतला। खालिस्तान की अवधारणा भी उसी मानसिकता की देन है जिसने 1947 में पाकिस्तान बनवाया था और 1937 में हिंदू राष्ट्र का राग अलापा था। अगर आप धर्म आधारित राष्ट्र, जो आजकल एक नए मोड में हिंदू राष्ट्र कह कर बहुप्रचारित किया जा है के समर्थन में हैं तो, खालिस्तान की अवधारणा के विरोध का कोई आधार आप के पास नहीं है। प्रकारांतर से हिंदू राष्ट्र के पैरोकार, धर्म आधारित एक और राष्ट्र खालिस्तान के विचारों का ही पोषण करते हैं। 1947 में देश ने धर्म आधारित राष्ट्र की अवधारणा को ठुकरा कर एक पंथनिरपेक्ष संविधान को अंगीकार किया है। पाकिस्तान, खालिस्तान और हिंदू राष्ट्र की अवधारणा एक विभाजनकारी अवधारणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस मृत हो चुके द्विराष्ट्रवाद को एक बिजूके की तरह खड़ा करने की कोशिश की जा रही है, उसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। खालिस्तान की अवधारणा को खुद सिक्खों ने ही खारिज़ कर दिया है। यह अब कहीं नही है। और अगर है भी तो यह केवल उन्ही के दिमाग मे है, जो 'धर्म ही राष्ट्र है' की थियरी की शव साधना यदा कदा करते रहते हैं। हम धर्म आधारित किसी भी राष्ट्र की चाहे वह पाकिस्तान हो, खालिस्तान हो या हिंदू राष्ट्र की अवधारणा हो, के खिलाफ थे, हैं और आगे भी रहेंगे।
( विजय शंकर सिंह )
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