Sunday, 27 December 2020

शब्दवेध (47) रंगों के लिए है शब्द ?

रंगों के लिये शब्द है तो, पर नहीं भी है, क्योंकि रंगों के इतने भेद हैं कि सभी के लिए सही संज्ञा का प्रयोग किया जाए तो एक अलग कोश बन जाए, इसलिए अपनी मुश्किल को आसान बनाने के लिए मनुष्य विविध रंगीन वस्तुओ और फूलों के नाम जोड़ कर बहुत प्राचीन काल से रंगो के लिए संज्ञाएँ गढ़ता आया है - रुपहला, सुनहला, तामई, लोहित, मटमैला, धूमिल, केसरी,  गेरुआ,  हल्दिया (हरित/हारिद्र),  गुलाबी, धानी (+ रंग) और ऐसे सभी नामों के विषय में यह कहा जा सकता है कि ये जल की ध्वनि पर आधारित नही हैं।   

परंतु जिनके रंग को संज्ञा बनाया गया है उनसे स्वयं भी  कोई ध्वनि पैदा नहीं होती।  हमारे सुझाए गए नियम के अनुसार वे अपनी संज्ञा  के लिए जल की  किसी ध्वनि पर आधारित होने को बाध्य है।  गुलाब (गुल + आब) का नाम तो ऐसा कि हम इसे पानी का फूल कह सकते हैं।  धान, धन, (धान्य, धन्य),  तन (तने - धनाय, सा.)  का पानी से क्या संबंध है इसे इसी बात से समझा जा सकता है जल को धनों का धन ( धनंधनम्), और वृष्टिदाता इन्द्र को महाधन कहा गया है। आप-जल >अप्न धन। 

अनाजों में धान धन का पर्याय इसलिए हो गया कि देवों ने धान की खेती से कृषि आरंभ की थी। पलाश - पत्तों वाला, के आदि में आया पल>प्ल, अं. पूल (pool) जलवाची है। उसे यह संज्ञा संभवतः उसकी पत्तियों की उपयोगिता समझ में आने के बाद मिली। पर रंग के लिए पलाश का प्रयोग नहीं होता। उसके फूल का अलग नाम टेसू है, पर अभी इससे मिलता-जुलता जलवाची नाम नहीं सूझ रहा। धातुओं में सभी का नाम जलपरक है। 

सभी धातुओं में चमक होती है, सभी एक निश्चित तापमान पर पिघल कर पानी हो सकती हैं, कारण कुछ भी हो पर अर्थ, द्रव, सु-अर्ण, रज-त, लहू-लोह, तम - पानी, >तामा/ताँबा/ताम्र, कन्-पानी+चन-पानी=कंचन, काच, कांस्य, रंगों के लिए जो पुराने नाम :  नीर-जल >नील> नीड(नेस्ट) छाया;   पीतु-जल> पीत>पीतल, पीला,  अर/अरु-जल >अरुण, अरुष; सर/हर/सरि/हरि- जल, नदी > हरा,  हरित (पीला, हरा, भूरा); बभ्रु वर्ण के विकास के कई चरण हैं - पूः >पूर/पुर/प्रू (आपप्रुषी)> पूर्ण के समानान्तर महाप्राण प्रेमी बोलियाें में फुर> फुल्ल, full/ fill, फ्रू >fruit, भर/भुर/भूरि,भ्र, भृशं,आदि।  इसी क्रम में भ्रूभ्रू> बभ्रु का और इसके अधिक पुराने रूप से भूरा का नामकरण हुआ लगता है। काला, कृष्ण पर हम पहले चर्चा कर आए हैं।   
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प्रकाश के लिए शब्द
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पाणिनि  के धातु पाठ की  कुछ  धातुएँ हमारे  लिए बहुत उपयोगी हैं, ‘चंचु गत्यर्थाः, 190. ३००, चक तृप्तौ, 783. ३०१, चक तृप्तौ प्रतिघाते च, 93. ३०२, चकाशृ दीप्तौ, 1074.   इसका बोलियों के अनुरूप पाठ करें ताे इसमें चंचल के लिए चंचु, छक कर खाने पीने के लिए चक, छकने,  छकाने और छक्का छुड़ाने के लिए एक अलग चक की और  देखने (चक्षु/ चक्षण), चकराने, चकित होने के लिए एक अन्य चक धातु की कल्पना की गई है जो  वर्णविपर्यय के कच>कश>काच/काश का रूप ले सकती थी। 

उनकी समस्या लिखित या मानक भाषा में उपलब्ध समान मूल और अर्थ वाले घटकों का निर्धारण था। ध्वनियों की स्वायत्तता की ओर उनका ध्यान गया ही न था।  हमारे लिए अंतिम सूत्र का महत्व यह है कि काश का अर्थ वही है जो प्र- उपसर्ग के बिना समझ में न आता, पर पहले व्यवहार में था, यह ला.   cos-metic और cos-mos, सजावट और जगमगाहट से प्रकट है ।   मूल कस/ करस > कर्स जलवाची पद के पीछे वही तर्क था जो सरकर, सरकना, शर्करा, अं.शर्क (shirk) के पीछे ।  इससे बोलियों का कसना, कसौटी, कसक फा. कश -*जल> कश्ती, कशमकश, कशिश, कोशिश, कशीदा आदि व्युत्पन्न हैं। करस >कर्ष> कष (निकष), कृशानु>कृष >कृष्ण का रूप लेता है।  कश/ काश जलर्थक से प्रकाश का रूप लेता है, पर यह हैरान करने वाली बात है कि उपसर्ग के बिना अनेक शब्दों का प्रयोग ही नहीं होता (भा, वदन्ती, तीक आदि भी इन्हीं में आते हैं)। 
  
भा 
वर्गीय ध्वनियों  में अंतर प्राय: अर्थभेदक नहीं है।इसका कारण यह है  कि आरंभ में एक ही शब्द को अलग-अलग बोलियों के लोग  पारस्परिक संपर्क में आने के बाद प्रायः अपनी सीमा में सुनते और बोलते थे, यह हम पहले भी कह आए हैं। लंबे समय के बाद जब दूसरों की ध्वनियों को अधिक सटीक रूप में बोलने का अभ्यास उन्हें हो गया और उनकी ध्वनि माला विस्तृत हो गई तो उसके बाद जो शब्द  गढ़े गए  उनमें अर्थ भेदकता दिखाई देती ।  इसलिए सघोष महाप्राण ध्वनियों वाले शब्दों का  अघोष अल्पप्राण  प्रतिरूप मिलता है तो वह अलग शब्द नहीं है,  एक अलग बोली बोलने वालों के द्वारा उच्चरित वही शब्द है।

जो बात भा, भी, भू से स्पष्ट नहीं होती  वह पा, पी पू से  समझ में आ सकती है। पा - पानी, पाला - तुहिन, त. पाल्, ते. पालु - दूध, हिं. पालन, पालि, पालना; त. पार्- देख, भो. कान पारना [1], पावस-बरसात, भो, पलानी - छानी/छप्पर, झोंपड़ी। अब हम भा- *पानी, > भाप, भो. भास- दलदल, भासना- दलदल में धँसना, भाँति- प्रतिबिंब, प्रतिरूप, भा- प्रकाश, भानु- सूर्य, भान प्रतीति, (आ-/प्र-/स- भा), भाषा आदि पर दृष्टिपात कर सकते हैं।

ज्योति
जोति/ जोत[2], ज्योति में विशेष अंतर नहीं है। जोत और जोति अधिक नियमित और अधिक पुराने हैं। जैस जूर्णि - लपट, जार, जरा, जराना - जिनकाे सं. ज्वाला ज्वलन  बना लेती है।  भो. पूर्वरूप ही जल, ज्वाला और ज्योति> की विकासरेखा को अधिक स्पष्ट करती है। भो. जूरल - उपलब्ध होना,(जो जुटना, जुड़ना, जोड़ना में कुछ धुँधला रह जाता। भो. जुड़ाइल - ठंढा होना, जूड़ी, जाड़ा इस शब्द समूह के जल से संबंध को प्रकट करता वहीं इसको जलाने, सुखाने, निर्जीव करने के लिए झूर, *झु/झू-आग, (झोंसल, झुँझलाइल, झुराइल) कौरवी प्रभाव में महाप्राणन खो कर जू, जरा, जार, जूर्णि बना। द्युति के प्रभाव में जोति ने ज्योति का रूप लिया।

द्युति
द्युति का कहानी भिन्न है। यह ती - जल से व्युत्पन्न है। ती, तर, तिर, तृ के जलवाची होने पर कोई संदेह नही। यह ते. तिय्यन - मीठा, भो. तेवना - भोजन को सुस्वाद बनाने के लिए कोई खाद्य या पेय में भी लक्ष्य किया जा सकता है। त. में तिकऴ़ - चमक, द्युति, तिट्टम् - सटीकता, समतलता; तिट्टि - खिड़की; ती - आग, ताप, बुराई । यह  ती, दी, धी, तेव (तेवर), देव और संस्कृतीकरण से द्यु, द्यौस, (>धौंस), (प्र)तीक, तिथि, टीक, टिकोरा, सटीक, टीका, ठीक, ठेका आदि की एक विशाल शब्दावली का जनन करता है और इसकी कुछ शब्दावली पूरे भारोपीय क्षेत्र में फैलती है, इस झमेले में न पड़ेंगे। य़हाँ तक कि यह भी तय करना नहीं चाहेंगे कि मूल तमिल का 'ती' है या भो. का 'धी', धिकवल - गर्म करना, पर यह याद दिला सकते हैे कि धिक्कार का मतलब ‘आग लगे’, ‘भाड़ में जा’ है।        

दूसरे सभी पर्यायों का भी यही हाल है।_
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[1] इसमें त. कान< कन/कण् और पार-देखना  का भो. में समावेश के बाद एक नया रूप, जिसका प्रयोग तो होता है पर बिंब नहीं उभर पाता।
[2] हम अपनी व्याख्या में उन मामलों में जिनमें यह निश्चित है कि कुरुक्षेत्र में आने वाले उन वस्तुओं/ संकल्पनाओं से अनभिज्ञ नहीं रहे होंगे भोजपुरी के पूर्व रूपों को  अधिक भरोसे का मानते हैं। जोति, जोन्ही, जोहल, जूरल, झुराइल, झूर, चान, अँजोर, अँजोरिया, अन्हरिया, उज्जर, उजियार उजास। जैसे ऋग्वेद के हवाले जहाँ सुलभ हुए वहाँ नाम लेकर इसलिए देते हैं कि वह प्राचीनतम कृति है और उसमें हमें लिखित शब्दों के प्राचीनतम ही नहीं अपितु कभी कभी संक्रमणकालीन रूप भी मिल जाते हैं, उसी तरह भो. का विशेष उल्लेख इसलिए महत्व रखता है कि भारोपीय का आद्य रूप उसी में संरक्षित है। भाषा के इतिहास की तलाश करने वाला इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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