नए कृषि कानूनो को लेकर 26 नवम्बर से किसानों का आंदोलन चल रहा है और तब से किसान दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर हज़ारो की संख्या में इस सर्दी में बैठे हैं। लोग उन कानूनो पर बहस भी कर रहे है और सरकार की किसानों से बातचीत भी चल रही है । पर इन कानूनों में कुछ ऐसे कानूनी प्राविधान हैं जिन्हें लेकर कानूनी क्षेत्र में बहस छिड़ गयी है। सबसे हैरान करने वाला कानून है, जमाखोरी को वैध बनाने का और कांट्रेक्ट में विवाद होने पर अदालत जाने के अधिकार से जनता को वंचित कर देने का। इस विचित्र कानून और प्राविधान पर न सिर्फ विधि विशेषज्ञ आपत्ति जता रहे हैं बल्कि इसे असंवैधानिक भी बता रहे हैं। सबसे आश्चर्यजनक कदम, सरकार द्वारा जमाखोरी को वैध बनाने का कानून है। यह बात किसी के भी समझ से परे है कि, आखिर, जमाखोरी को कानूनी रूप से वैध बना देने से किस किसान का भला होगा। यह एक सामान्य सी बात है कि, जमाखोरी से बाजार में कृत्रिम कमी पैदा की जाती है और फिर दाम बढ़ने घटने के मूल आर्थिक सिद्धांत के अनुसार, चीजों की कीमतें बढ़ने लगती हैं। फिर जैसे ही बाजार में जमा की हुयी चीजें झोंक दी जाती हैं तो, फिर कीमत गिरने लगती है। यह एक प्रकार से बाजार को नियंत्रित करने का पूंजीवादी और ज़ख़ीरेबाज़ी तरीका है। पहले ईसी एक्ट या आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत सरकार को यह शक्ति मिली हुयी थी कि वह कृत्रिम रूप से बाजार में बनाये जा रहे चीजों की कमी और अधिकता को नियंत्रित कर सके और बाजार की महंगाई को नियंत्रित कर सके। जैसे ही ईसी एक्ट के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों के अनुसार जमाखोरों पर कार्यवाही होने लगती थी, चीजों के दाम सामान्य होने लगते थे। पर अब न तो यह कानून रहा और न ही जमाखोरी कोई अपराध। अब पूरा बाजार, उपभोक्ता और किसान, सभी इन्ही जमाखोरों के रहमो करम पर डाल दिये गए हैं। यह कानून खत्म कर के सरकार ने खुद को ही महंगाई के घटने बढ़ने के इल्जाम और दायित्व से अलग कर लिया है।
सरकार ने, नये तीन कृषि कानूनों द्वारा, उन कृषि उत्पादों को भी, जो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें हैं, को आवश्यक वस्तु की सूची से ही नही निकाल दिया गया है, बल्कि जो कानून इन आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी को अपराध घोषित करता था उसे ही सरकार ने खत्म कर दिया है। यानी अब जो चाहे,जितना चाहे और जब तक चाहे, उन आनाज फसल, कृषि उत्पादों का असीमित भंडारण कर सकता है, जो पहले आवश्यक वस्तुओं की कोटि में आती थीं । इस जमाखोरी से बाजार में मांग और पूर्ति का संतुलन बिगाड़ सकता है। यदि दैवी आपदाओं के समय अकाल जैसी स्थिति हुयी तो सरकार के पास जनता को आवश्यक वस्तु की महंगाई रोकने और उनकी निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये न तो कोई कानूनी प्राविधान शेष रहेगा और न ही कोई मेकेनिज़्म । 1941 42 के समय बंगाल का अकाल ऐसे ही जमाखोरों की करतूत का परिणाम था, जिसके ऊपर ब्रिटिश सरकार का वरदहस्त था।
कल्पना कीजिए, अगर जमाखोरों का एक सिंडिकेट बन जाय और देश भर के कृषि उत्पाद के खरीद, विक्रय और भंडारण को नियंत्रित करने लगे तब सरकार के पास आज ऐसा कौन सा कानून है जो उसके अंतर्गत जमाखोरों के खिलाफ वह कोई कानूनी कार्यवाही कर सकती है ? यह आंदोलन किसानों के लिये कितना लाभकारी है और कितना हानिकारक, इसका अध्ययन किसान संगठन और कृषि अर्थशास्त्री कर ही रहे हैं, पर यह कानून, सबको प्रभावित करेगा। बिचौलियों को खत्म करने के नाम पर लाया गया यह कानून, अंततः जमाखोरों और मुनाफाखोरों के लिए एक पनाहगाह के रूप में ही बन कर रह जायेगा। न केवल जनता बल्कि सरकार खुद ही अपने पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम सरकारी राशन प्रणाली, खाद्य सुरक्षा कानून आदि के क्रियान्वयन के लिये इन्ही जमाखोरों के सिंडिकेट पर निर्भर हो जाएगी।
हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हैं, पर 12 अक्टूबर, 2020 को जारी किए गए ‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक’ में शामिल 117 देशों में भारत को 94 वां स्थान प्राप्त हुआ है। हम अपने पड़ोसी देशों में नेपाल, बांग्लादेश एवं पाकिस्तान से ही बेहतर स्थिति में हैं। सरकार ने खुद ही 80 करोड़ लोगों को गेहूं चना तथा अन्य खाद्यान्न अभी दिया है। ऐसी स्थिति में जब 80 करोड़ लोग सरकार प्रदत्त खाद्यान्न सुविधा पर निर्भर हैं तो सरकार द्वारा आवश्यक वस्तु अधिनियम को खत्म कर के जमाखोरी को वैध बना देने का कानून मेरी समझ से बाहर है। भूख की पूर्ति मनुष्य की प्रथम आवश्यकता है, पर सरकार इस समस्या के प्रति भी असंवेदनशील बनी हुयी है। यह निंदनीय है और शर्मनाक भी।
31 मार्च 2020 तक, जब कोरोना ने अपनी हाज़िरी दर्ज भी नहीं कराई थी, तब तक जीडीपी गिर कर, अपने निम्नतम स्तर पर आ चुकी थी। आरबीआई से उसका रिज़र्व लिया जा चुका था। तीन बैंक, यस बैंक, पंजाब कोऑपरेटिव बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक बैठ गए थे, बैंकिंग सेक्टर को बचाने के लिये कुछ बैंकों को एक दूसरे में विलीन करना पड़ा। हम जीडीपी में बांग्लादेश से भी पीछे हैं। बेरोजगारी चरम पर है। 2016 के बाद सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े देना बंद कर दिये हैं। मैन्युफैक्चरिंग इंडेक्स गिरने लगा और इतना गिरा कि शून्य से नीचे आ गया। आयात निर्यात में कमी आयी। भुखमरी इंडेक्स में हम 107 देशों में 94 नम्बर पर आ गए । 'प्रसन्न वदनं' के देश मे खुशहाली इंडेक्स में हम 144 वे स्थान पर रौनक अफरोज हैं। जीडीपी यानी विकास दर ही नहीं गिर रही है, बल्कि जीडीपी संकुचन की ओर बढ़ रही है।
एक बात स्प्ष्ट है, यदि आर्थिक सुधारों के एजेंडे के केंद्र में जनता, जनसरोकार, लोककल्याणकारी राज्य के उद्देश्य और जनहित के कार्यक्रम नहीं हैं तो वह और जो कुछ भी हो, सुधार जैसी कोई चीज नहीं है। लोग व्यथित हों, पीड़ित हों, खुद को बर्बाद होते देख रहे हों, और जब वे अपनी बात, अपनी सरकार से कहने के लिए एकजुट होने लगें तो थिंकटैंक को इसमे टू मच डेमोक्रेसी नज़र आने लगी ! इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि इन सब आर्थिक सुधारों की कवायद के केंद्र में, जनता के बजाय कोई और है। और जो है, वह अब अयाँ है।
अगर आप को लगता है कि नया कृषि कानून केवल किसानों का ही अहित करेगा तो यह आप का भ्रम है। कृषि और किसानों के विषय पर नियमित अध्ययन और लेखन करने वाले पत्रकार, पी साईंनाथ ने द वायर में एक विस्तृत लेख लिख कर इन कानूनों में व्याप्त विधिक विरोधाभासों को उजागर किया है। अब कृषि कानून में जो कानूनी विरोधाभास है, उसकी चर्चा करते हैं।
तीन कृषि कानूनो में से एक, द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स ( प्रोमोशन एंड फैसिलिटेशन ) एक्ट 2020 की धारा 13 को पढ़े,
" कोई भी वाद, या अभियोजन, या अन्य कोई भी विधिक कार्यवाही, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार, या केंद्रीय सरकार के किसी अधिकारी या राज्य सरकार के किसी अधिकारी या किसी भी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध, जिसने कोई भी कार्य यदि बद इरादे या बद इरादे के उद्देश्य से नहीं किया है तो, उसके विरुद्ध नहीं की जा सकेगी। "
यह तीन कृषि कानूनो में से वह एक महत्वपूर्ण कानून है जो, निजी मंडी या किसी को भी, जो पैन कार्ड धारक है, कृषि उत्पाद खरीदने की शक्ति और अधिकार प्रदान करता है।
हालांकि, देश मे और भी ऐसे कानून और प्राविधान हैं जो, सरकारी अफसरों को, कर्तव्य पालन के दौरान, उनके द्वारा किये गए कतिपय कार्यो को, जो नेकनीयती से किये गए हैं, के संबंध में, अभियोजन के खिलाफ रक्षा कवच के रूप में बनाये गए हैं। पर यह कानून, इस प्रकार के संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनो में सबसे अलग प्रकृति का है। लोकसेवकों को ही नहीं, ऐसे संरक्षण, इन कानूनों के इतर, उन सबको दिया जाना चाहिए, जो कोई भी कार्य बद इरादे या बिना मेंसेरिया के करते हैं। अपराध का मूल ही मेंसेरिया से शुरू होता है। लेकिन वे जो कर रहे हैं वह नेक इरादे से ही कर रहे हैं, यह एक अस्पष्ट और धुंधली व्याख्या है। वह कर क्या रहे हैं यह भी, नेक और बद इरादे की तरह, उससे कम महत्वपूर्ण नहीं बात नहीं है।
अब इसी अधिनियम की धारा 15 को देखें,
" इस अधिनियम के अंतर्गत या इस अधिनियम के अंतर्गत बने किसी भी नियमावली के सम्बंध में, किसी भी सिविल यानी दीवानी न्यायालय को कोई भी वाद सुनने या संज्ञान लेने, या अन्य किसी भी प्रकार की सुनवाई करने का अधिकार नही होगा।"
अब सवाल उठता है कि धारा 13 के अंतर्गत केंद्र सरकार और राज्य सरकार तथा इनके अधिकारियों को इस प्रकार का विधिक संरक्षण तो दिया ही गया है पर इन सबके साथ यह भी लिखा गया है कि कोई अन्य व्यक्ति, तो यह कोई अन्य व्यक्ति, जो न सरकार है और न ही लोकसेवक, तो वह कौन है, जिसे इस प्रकार का सुरक्षा कवच प्रदान किया गया है ? क्या यह सुरक्षा कवच, बड़े या बहुत बड़े व्यापारियों, कम्पनियों और कॉरपोरेट के लिये तो नहीं इस कानून में बनाया गया है ? यह प्राविधान, इसे उन कानूनो से अलग करता है जहां लोकसेवकों को पहले से ही इस प्रकार की लीगल इम्युनिटी प्राप्त है।
धारा 15 का शुरुआती वाक्य कि 'कोई भी वाद, अभियोजन या विधिक कार्यवाही नही चलाई जा सकेगी' न केवल किसानों को ही ऐसा करने के लिये प्रतिबन्धित करता है बल्कि इस प्रकार के सभी न्यायिक रास्ते बंद कर देता है जो किसी भी व्यक्ति को विधिक विकल्प पाने का एक मौलिक अधिकार देता है। यह अधिकार, किसी किसान संगठन को भी दीवानी न्यायालय में जाने के अधिकार से वंचित करता है।
हमारा संविधान हर नागरिक को न्यायालय जाने और वाद दायर करने का मौलिक अधिकार देता है, पर यह कानून, उक्त अधिकार को प्रतिबंधित करता है। इस प्रकार का विधिक सुरक्षा कवच या लीगल इम्युनिटी अनेक संदेहों को जन्म देता है। यह 1975 - 77 के आपातकाल की भी याद दिलाता है जब सरकार ने नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए थे। साथ ही यह एक स्वेच्छाचारी कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी भी है। इसे यदि लागू किया गया तो नौकरशाही का एक सामान्य अधिकारी भी न्यायपालिका के रूप में बदल जाएगा और वह, जज भी होगा, अभियोजक भी और फैसले को लागू कराने वाला एक्जीक्यूटिव भी। यह संविधान की मूल अवधारणा चेक और बैलेंस तथा शक्ति पृथक्करण के विरुद्ध है। केवल किसानों से जुड़ा यह कानून एक सामान्य किसान को सर्वशक्ति सम्पन्न कॉरपोरेट के समक्ष एक भोज्य की तरह लाकर रख देता है।
इस कानूनो के इन विधिक विरोधाभासों पर दिल्ली बार काउंसिल ने भी, अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। दिल्ली बार काउंसिल ने प्रधानमंत्री जी को जो चिट्ठी भेजी है, में यह लिखा है कि,
" कैसे एक दीवानी प्रकृति का वाद, सुनवाई करने और निपटाने के लिये ऐसे प्रशासनिक तंत्र को दिया जा सकता है जो न्यायपालिका का अंग ही न हो और वह सीधे कार्यपालिका के अंतर्गत आत्व हो ? "
इस प्रशासनिक तंत्र में एसडीएम और जिलाधिकारी आते हैं। वे न्यायपालिका के अंग नही है अतः वे न्यायिक स्वतंत्रता की श्रेणी में भी नहीं आते हैं। कार्यपालिका का यह तबका अपने कार्यप्रणाली में किस प्रकार सरकार के निर्णयों और इरादे से आज़ाद ख्याल है यह किसी से छुपा नहीं है। ऐसे में वही फैसले आएंगे जो सरकार के मनमाफिक होंगे। सरकार किस तरफ रहेगी यह बताने की आवश्यकता नही है क्योंकि, आज यह पूरा कानून और इस व्यापक जन आंदोलन को देख कर यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि सरकार किसकी तरफ है, कॉरपोरेट या बड़ी कम्पनियों की तरफ या किसानों की तरफ।
बार काउंसिल का यह भी कहना है कि,
" कार्यपालिका को न्यायपालिका की शक्तियां इस प्रकार हस्तांतरित कर देना एक खतरनाक संकेत और बडी भूल होगी। "
पत्र में अंग्रेजी के शब्द डैंजरस और ब्लंडर लिखे गए हैं। बार काउंसिल को यह भी आशंका है कि इसका असर वकालत के पेशे पर भी पड़ेगा। इससे दीवानी और जिला न्यायालयों के अधिकारों पर भी असर पड़ेगा।
अब इन्ही कृषि कानूनो के एक और कानून, द फार्मर्स ( इम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन ) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंश एंड फार्म सर्विसेज एक्ट 2020 को भी देखें। इस अधिनियम की धारा 18 भी बार बार नेक इरादे से किये गए कर्तव्यों की बात करती है। धारा 19 के अनुसार,
" इस कानून के या इस कानून के अनुसार बनाये गए नियमो के अंतर्गत, दी गयी शक्तियों और अधिकार से सम्पन्न किसी भी सब डिविजनल अधिकारी ( एसडीएम ) या अपीली अधिकारी द्वारा जारी किए गए किसी भी आदेश के बारे में, कोई भी वाद किसी भी सिविल न्यायालय में न तो दायर किया जा सकेगा और न ही उसे ( सिविल न्यायालय को ) उक्त आदेश को स्थगित ( स्टे ) करने, या उस पर सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार रहेगा। "
अब इसी के साथ संविधान का अनुच्छेद 19 भी पढ़ लें, जो हर नागरिक को अभिव्यक्ति और बोलने की आज़ादी, शांतिपूर्ण ढंग से एकत्र होने, सभा करने, जुलूस निकालने और संगठन बनाने का मौलिक अधिकार देता है। जब कि इस कृषि कानून की यह धारा 19, व्यक्ति के न्यायालय जाने तक के अधिकार को छीन ले रही है। इस अधिनियम की धारा 19 न केवल संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करती है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 32, जो हर नागरिक को न्यायालय में जाने और न्यायिक राहत पाने का मौलिक अधिकार देती है, को भी बाधित करती है। संविधान का अनुच्छेद 32, संविधान के मूल ढांचे का एक भाग है और संविधान के मूल ढांचे के साथ छेड़छाड़ करने का अधिकार संसद को भी नहीं है।
इन कानूनों में कानून बनाने की स्थापित परंपराओं का भी पालन नही किया गया है। यह कहना है, सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकील व बीजेपी के नेता अश्विनी उपाध्याय का। अश्विनी उपाध्याय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक पत्र में कहा है कि
" कानून बनाने से पहले उसके ड्राफ्ट को पब्लिक डोमेन में डालना जरूरी है और तभी लोग सुझाव देंगे और फिर जो कानून बनेगा उसमें खामियों की संभावना कम रहेगी। कृषि कानून के बारे में भी पहले ड्राफ्ट जनता के सामने नहीं आया। ऐसे में आपसे आग्रह है कि कोई भी नया कानून जब बनाना है तो ड्राफ्ट 60 दिनों पहले वेबसाइट पर डाला जाए ताकि लोगों का सुझाव आ सके।"
उपाध्याय जी का यह तर्क इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आज जिन तीन कृषि कानूनो को सरकार बार बार किसान हितैषी बता रही है, उनके बारे में पहले ही दिन से किसान संगठन यह सवाल सरकार से पूछ रहे हैं कि यह कानून किस किसान या किसान संगठन की मांग या अनुरोध पर लाये गए हैं ? यहीं यह सवाल उठता है कि क्या यह कानून विश्व बैंक और कॉरपोरेट को खेती सेक्टर में जबरन घुसा कर देश की कृषि आर्थिकि को तो बर्बाद करने के लिये नहीं लाये गए हैं ?
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय आगे अपने पत्र में कहते हैं कि,
" कानून बनाने के लिए जो मौजूदा प्रक्रिया अपनाई गई है वह सवैधानिक नहीं है। उन्होंने कहा कि मौजूदा प्रक्रिया में सेक्रेटरी कानून का ड्राफ्ट तैयार करता है और कैबिनेट उसे पास करता है और फिर जब सदन के सामने उसे पेश किया जाता है तो जनता को उस बारे में थोड़ी सी जानकारी मिल पाती है।"
लेकिन इन कानूनो के अध्यादेश भी लॉक डाउन के समय चुपके से लाये गए और जब इन्हें संसद में पेश किया गया तो, इन पर खुल कर बहस भी नहीं हुयी। राज्यसभा में तो उपसभापति हरिवंश जी ने माइक म्यूट करा कर बेहद अलोकतांत्रिक और शर्मनाक तरीके से इन कानूनों को पारित करा दिया। हरिवंश जी का आचरण देश के संसदीय इतिहास में एक काले धब्बे की तरह याद रखा जाएगा।
अश्विनी उपाध्याय कुछ सुझाव भी देते हैं। वे लिखते हैं,
" कानून बनाने की प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है। राष्ट्रीय सुरक्षा को छोड़ अन्य विषय पर जब भी कानून बनाना हो तो दो महीने पहले उसका ड्राफ्ट सरकार के संबंधित मिनिस्ट्री के वेबसाइट पर आना चाहिए ताकि पब्लिक उसे देख सके। इससे ड्राफ्ट कानून पर चर्चा होगी और एक्सपर्ट की ओपिनयिन आएगी। साथ ही उस कानून के बारे में सांसद और विधायक अपने इलाके में चर्चा करेंगे। इससे आम लोगों के बीच कानून के बारे में पहले ही चर्चा हो चुकी रहेगी और इससे संबंधित तमाम सुझाव मिलेंगे। फिर ड्राफ्ट में जरूरी संशोधन कर नया ड्राफ्ट बनाया जा सकेगा और फिर कैबिनेट के सुझाव भी इसमें शामिल होंगे और फिर संसद के सामने कानून पेश किया जा सकेगा और बहस के बाद कानून बनेगा और इस दौरान सदस्यों के सुझाव भी शामिल होंगे तो फिर गलती का अंदेशा नहीं होगा।"
सच कहिये तो इस कानून को संसदीय समिति के पास परीक्षण के लिये भेजा जाना चाहिए था। यदि संसदीय समिति के पास परीक्षण के लिये भेजा गया होता तो हो सकता है कानून में ऐसी विसंगतियां नहीं होती। इस कानून की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की खबर भी है। अदालत का क्या दृष्टिकोण होता है वह एक अलग बिंदु है। पर किसानों को अपनी मांगों के साथ अपनी समस्याओं के बारे में शांतिपूर्ण ढंग से धरना, प्रदर्शन और आंदोलन करने का अधिकार है और वे अपनी बात मजबूती से रख भी रहे हैं। उनका सरकार के साथ संवाद भी जारी है। सरकार को चाहिए कि वह या तो इन कानूनो को वापस ले ले या इनका कार्यान्वयन स्थगित कर दे और किसान संगठनों के साथ कृषि सुधार कार्यक्रम पर आगे बढ़े।
( विजय शंकर सिंह )
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