Friday, 25 December 2020

शब्दवेध (44) अंधेरे के लिए कोई शब्द नहीं

काला
------- 
काला उस शब्द समूह का हिस्सा है जिसमें  कल - जल > कलश- जलपात्र, कलेवा- जलपान; > (cool, cold, OE.col Ger- kuul)   कल (>क्ल), - पत्थर, ला. क्लैक्स; कलन- गणना (calculate -to count or reckon,< L.calx-stone), कल->सं. क्ल- जल,  स. क्लेद> अ. clay;   कला (calligraphy- a fine penmanship<Gk. callos- beauty), काल - चलने वाला, बीतने वाला (calk/ calque- < L. calcare- to tread,  calx- heel); - समय (calendar- Old F. calendier, L. calendarium - an accountbook ?),  काल > कलिया ( - kil, calamity)) काला (caligo- obscure, dim, dark;  L. caligo- fog) ,कोइला, (coal, charcoal, O.Narv. kol, Ger. Kohle) कल्हारल - भूनना, (kiln- oven आँवा, भट्ठा;  कृशानु ( Gr. kalein- to burn),  कळ/ /कड़- पत्थर,  निर्मम, ( callous - hardened, cruel, <L. callosus/ callus - hard skin),  कलाई/ कल्ला - गट्टा- जोड़;  कलन- निर्माण (caliology - science of birds  G. kalla/ kella- a nest :  कुल/कुलक; कल्मष (calumny - a false accusation)।

पहला प्रश्न यही उपस्थित होगा कि  इन सभी शब्दों में ध्वनि साम्य तो है,  परंतु अर्थ की इतनी विभिन्नता है   फिर   इन सभी को क्या एक मूल से जोड़ा,  या व्युत्पत्ति की दृष्टि से  एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। इन सभी की व्याख्या के लिए अनेक धातुओं की कल्पना की गई है, यद्यपि उसका कोई तार्किक आधार धातु में न तो मिलता है न हम उसकी अपेक्षा कर सकते हैं। उसकी शर्त है ध्वनि और अर्थ में समानता, पर जहाँ एक ही मूल से विविध अर्थ वाले शब्दों से पाला पड़ता वहाँ वह निरुत्तर हो जाती है।

हमने यह सुझाया है कि दूसरी वस्तुओं के नामकरण के पीछे उनके बीच का संबंध था।  परंतु अब लगता है कि  सृष्टि की कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसका संबंध जल प्रकाश और ताप से न जोड़ा जा सके।  प्रकाश और ताप के लिए भी संज्ञा  उनकी ध्वनि हीनता के कारण जल से ही मिली है, इसलिए कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका संबंध जल से न जुड़ जाए।  जो भी हो संबंध  सूत्र की ओर संकेत करते हुए आगे बढ़ना अधिक वांछनीय है। 

ऊपर हमने यूरोपीय भाषाओं के  प्रतिशब्दों  के संदर्भ में यह पाया कि ग्रीक, लातिन, जर्मन, फ्रेंच, सभी   में कुछ ही सजात शब्द पाए जाते हैं, और सभी को मिला लिया जाए तो भी वे भारतीय भाषाओं में पाए जाने वाले प्रतिपदों  की तुलना में  बहुत कम पड़ेंगे। 

जो लोग मूल देश की तलाश में लुकाछिपी का खेल खेलते रहे हैं,  उनको उनके ही सिद्धांतों की याद दिला कर सही निष्कर्ष पर पहुंचने की सलाह देते भी तो भी उसकी अनसुनी कर देते। इतने लंबे समय में इतने परिश्रम से उन्होंने जो सांस्कृतिक आधिपत्य कायम किया है उसको छोड़ने से पहले वे एक-एक इन्च पर लड़ाई लड़ते हुए पीछे हटते हैं और इस जंग और वापसी में अपने बनाए हुए सारे  कानून-कायदे भूल जाते हैं। 

हम जिस बात की याद दिलाना चाहते हैं वह यह कि यूरोप तक जिसका प्रसार हुआ वह भाषा नहीं थी, बोली या बोलियाँ थी जिनमें स्वामिवर्ग द्वारा बोली जाने वाली बोली का प्रभुत्व था। भाषा इतनी विशद, बहु-आयामी और रहस्यमय उपस्थिति है जो अपने भौतिक परिवेश से बाहर जा ही नहीं सकती। भाषा और बोली में फर्क करते हुए सस्युर कहते हैं:
"What is la langue? For us, it is not to be confounded with speech (le langage); it is only a determinate part of this, an essential part, it is true. It is at once a social product of the faculty, of speech, and a collection of necessary conventions adopted by the social body to allow the exercise of this faculty by individuals. It is a whole in itself and a principle of classification. As soon as we give it the first place among the facts of speech we introduce a natural order in a whole which does not lend itself to any other classification." La langue is further "the sum of the verbal images stored up in all the individuals, a treasure deposited by the practice of speaking in the members of a given community; a grammatical system, virtually existing in each brain, or more exactly in the brains of a body of individuals; for la langue is not complete in any one of them, it exists in perfection only in the mass."

इससे मिलती-जुलती बात  वाइटहेड्  भी करते हैं,  परंतु  सीधी और दो टूक होते हुए भी C. K. Ogden ' I. A. Richards को यह विचार फैंटेस्टिक लगता है।  (द मीनिंग ऑफ मीनिंग, 1923, 5).  भाषाक्षेत्र से दूर रह कर, बोलियों की  सीमाओं के कारण इस विराट सत्य का साक्षात्कार करना भी कठिन है, यद्यपि एक तथ्य के रूप में इसे विलियम जोंस से लेकर आज तक दर्जनों भाषाशास्त्रियों ने स्वीकार किया था।

हम  रूपगत  अर्थगत विकास की ओर लौटें:
कल- जल जिसका एक गुण प्रवाह है इसलिए काल - जो चलता है;( त. काल् -पाँव, काल - समय और क्रिया के त्रिकाल,  समय के प्रभाव और विनाश से परे कुछ नहीं इसलिए कालन् - कालदेव), काल और समय का का एक पक्ष इसके उबलने या जलाने का है जिसने खौलने की अवस्था का हाथ है,(त. समै- पकाना)।   जलाने के सटीक अर्थ में कोई शब्द मेरे ध्यान में नहीं आ रहा है, पर कोयला-कोल, चारकोल , कोह्ल(kohl -सुरमा) ।  आदि से स्पष्ट है कि ऐसा कोई शब्द किसी बोली में है  । पानी जम जाय तो पत्थर (उपल - पत्थर, उपला - कंडा, गोबर का सूखा पिंड,  उपल- ओला. हिमखंड) अतः त. कल् हिं. कड़ - पत्थर (जिससे कड़ा, कड़ाके की {सर्दीः}, कऱका - ओला, कड़ाई, भो. कड़ेर,कड़ियल/अड़ियल आदि की उत्पत्ति है।  कड़ा/ कड़ी के कड़वा/कड़वी  में बदलाव को भी इसी से समझा जा सकता है )।      

इस तरह हम पाते हैं कि उन सभी संज्ञाओं और संकल्पनाओं के पानी से व्युत्पादन का एक तर्कसंगत आधार है। पर साथ ही यह भी पाते हैं कि इस कछुआ चाल से हम अपने लक्ष्य तक पहुँच ही न पाएँगे, अतः कल से छोटा रास्ता अपनाना होगा।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )

No comments:

Post a Comment