Thursday, 10 December 2020

शब्दवेध (34) मुड़ मुड़ कर भी देख

हम पहले की एक छोटी कड़ी से बात आरंभ करना चाहते हैं।  भारतीय भाषाओं में  भाषा के लिए  कोई  ऐसा शब्द नहीं है  जो सीधे जिह्वा से जुड़ा हो, जबकि पश्चिमी भाषाओं में, लगभग सभी में, सबसे प्रचलित नाम  जिह्वा पर आधारित है - टंग, लैंग्वेज।  मेरी जानकारी की भारतीय भाषाओं में  भाषा के लिए जो शब्द हैं वे  इतने अलग-अलग  स्रोतों से आए हुए हैं कि  अनेक  तो जिह्वा  और होंठ   ही नहीं,  मुख तक से भी संबंधित नहीं किए जा सकते।  हम उनके अर्थ से उनकी संज्ञा पर पहुंचते हैं,  अधिकांश का भाव  प्रकाशन,   विश्लेषण,  आघात,  और ज्ञान है।  यहां हम  इनकी विस्तृत व्याख्या में नहीं जा सकते।   

ध्यान दो तथ्यों की ओर दिलाना चाहते हैं,  पहला यह  कि मनुष्य  दसियों हजार साल  से  बोलता चला आया था परंतु  बोलने की क्रिया  और  भाव को भी कोई नाम दिया जा सकता है इसकी ओर उसका ध्यान बहुत विलंब से ही गया -  तब, जब  उसे  अभिव्यक्ति की भूमिका का पता चल चुका था और वही नामकरण के समय चेतना में सर्वोपरि था।  

इसके बाद भी जैसा कि हम देख आए हैं भाषा के लिए कुछ शब्द हमारे  उच्चारण तंत्रों पर आधारित हैं।  संभव है  भारोपीय भाषा [1] ईरान में पहुंची उससे पहले से  वहां भाषा के लिए जिह्वा की सक्रियता और  निर्णयकारी भूमिका को देखते हुए जबान  का प्रयोग चलन में आ चुका रहा हो।  जिह्वा की  जिस भूमिका की और ध्यान प्रमुख रूप में  हमारे विचार-केंद्र था, वह था इसका स्वादग्राही  पक्ष  - रसना, यद्यपि उच्चारण में इसकी भूमिका के विषय में जितनी बारीक जानकारी भारतीय वैयाकरणों को थी वह दूसरे देशों से बहुत आगे थी।  परंतु यह जानकारी  उच्चारण स्थानों  के जिह्वा द्वारा स्पर्श तक सीमित थी, उच्चारण उन स्थानों की  भूमिका से संभव हो पाता था।,  

इसके जिस दूसरे  गुण की ओर उनका ध्यान गया  वह थी  इसकी वक्रता,  या मुड़ने की क्षमता जो  उच्चारण में ‘जिह्वा’ के  सबसे निकट पड़ने वाले  ‘जिह्म’  शब्द से ध्वनित होता है।  और रिह, लिह, लेलिह्यमान से  जो प्रकट है, वह भी  चखने, चाटने,  निगलने  से संबंध रखता है।  अजीब बात है,  चखना, चक्षण- देखना, (स्वाद) जानना  का ओर ध्यान गया, तो भी बोलने की तरफ नहीं।   तमिल में  जिह्वा का जो पर्याय  हैं वह भी स्वाद लेने से ही संबंधित है।  यह सभी  बनावटी नाम है,  और शब्द गढने वालों  की अपनी  सीमाओं को प्रकट करते हैं।   जो भी हो  आर्थी   स्रोत पर ध्यान देने पर हम पाते हैं कि उर्दू का जबान शब्द  यूरोप तक भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ।

यही स्थिति  शब्दों के अर्थ के मामले में पाई जाती है।   भारतीय भाषाओं में  अर्थ के लिए  मन से  जुड़ा कोई शब्द नहीं है,  निचोड़ने (अर्थ, निष्कर्ष,आशय ) सार तत्व (सारांश), हृदय को प्रभावित करने वाला भाव (मर्म) से जुड़े शब्द हैं,   और  धारणा  या स्थापना (मान्यता, मन्तव्य)  अवश्य देखने में आते हैं।   ईरानी क्षेत्र में  ‘मानी’, या मान्यता को ही अर्थ का द्योतक  माना गया।  यही यूरोप तक पहुंचा  जिसमें हम अंग्रेजी में मीनिंग शब्द को प्रयोग में आते देखते हैं।

शब्दों का एक विशेष दिशा में प्रभाव और उसके पीछे के हिस्से में उसका अभाव किस बात का  द्योतक है ?  मैक्समुलर ने  ऐसे शब्दों का संकलन किया था जो भारत में नहीं पाए जाते परंतु आगे यूरोप तक पाए जाते हैं।   इन्हीं के आधार पर उसने यह दावा किया था  मेरे पास इस बात के निर्णायक प्रमाण हैं कि  भाषा भारत से  ईरान में पहुंची थी  न कि इसके विपरीत। उनके अपने ही ठोस प्रमाण के आधार पर यह सिद्ध होता था भारोपीय भाषा भारत से निकलकर यूरोप तक फैली है।   

मैक्स मूलर ने  भारोपीय के स्थान पर,  शब्द की  संक्षिप्तता को देखते हुए  इस भाषा के लिए “ आर्य भाषा”  के प्रयोग का  सुझाव दिया था,   और  उसमें भी  यह दिखाया था की आर्य शब्द  का प्रसार आयरलैंड तक है,   परंतु ज्यों ज्यों हम पश्चिम की ओर बढ़ते जाते हैं,  प्रयोग विरल होता जाता है।  

सत्य किसी अंग में नहीं होता,   अपने  पूरे पिंड में समाया होता है, और   पाश्चात्य अध्येताओं ने  जब भी इसके किसी  को्ण को ईमानदारी से परखने का प्रयत्न किया तो उनके नतीजे ठीक वही आते थे जो मैंक्स मुलर के ऊपर के कथन में मूर्त है।   परंतु   बेईमानी  की हद यह कि  स्वयं  मैक्स मूलर   अपने खोए हुए सच का  सामना नहीं कर सके। उपनिवेशिक तकाजों और नस्लवादी पूर्वाग्रहों से  उन्हें लीपापोती करते हुए मूल निवास को मध्य एशिया में स्थापित करने की, और यूरोप के अलग-अलग जत्थों को अलग अलग होकर वहीं से भेजने की  कवायद करनी पड़ी।

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[1] हम पीछे कह आए हैं कि  संस्कृत अथवा  वैदिक भाषा की तुलना में  भारोपीय शब्द  आज का  गढ़ा हुआ  होने के बाद भी,  इस दृष्टि से अधिक उपयुक्त है कि  यह संस्कृत नहीं थी,  वैदिक कालीन बोलचाल की भाषा थी जो संस्कृत के निकट थी परंतु  इसके चरित्र को निर्धारित करने वाले वे सभी लोग थे जो विदेश व्यापार में किसी ना किसी भूमिका में सक्रिय थे।और जो  अपने दायरे में घर से लेकर बाहर तक अपनी बोली नहीं बात करते थे। भारोपीय संकल्पना में यह तथ्य सम्मिलित नहीं है परंतु  उसका चरित्र ही निर्धारित नहीं है  इसलिए उसमें इन सभी को शामिल किया जा सकता है और उसे नए सिरे से परिभाषित किया जा सकता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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