Friday, 18 December 2020

शब्दवेध (39) मग-डग

यह उपशीर्षक अटपटा लग रहा होगा, जब कि मग और डग दोनों सार्थक शब्द हैं, क्योंकि हम सोच कर बोलते हैं तब भी जो कुछ जिस रूप में सुना और जाना है उसी रूप में, उसी क्रम से सुनने पर उनका शाब्दिक और पदीय आशय खुलता है, अन्यथा विचित्रता की छाप छोड़ कर रह जाता है।  

बचपन में जब परंपरागत घरेलू उपकरणों का  स्थान कारखानों में उत्पादित सामानों ने नहीं लिया था और उन पेशों से जुड़े लोग सर्वहारा बन तो गए पर सर्वहारा नहीं माने जाते क्योंकि उनको संगठित करने में श्रम और समय की जरूरत होती,  जब कि कम्युनिज्म को पवित्र मुहावरे वाले जुए के खेल के रूप में कल्पित किया और अमल में लाया गया, इसलिए वे देखते देखते भिखारियों की दशा को पहुँच गए,  धरिकार (बँसफोड़) का एक जरूरी पेशा होता था। वे बाँस की तीलियों और पट्टियों से बेना, छींटा, दउरा, दउरी, सुपोली, सरकंडों की सींक से सूप बनाया करते थे।  इन्हीं में से दउरी/दौरी को बैठी होते हुए दौड़ की बाजी मारते, और लोगों को खेल के नियम का उल्लंंघन देख कर भी चुप लगाए देख कर कबीर साहब को इतना गुस्सा आया था कि वह पूरी दुनिया को पागल करार दे बैठे थे। उनकी नजर उस खास उपकरण पर नहीं पड़ी थी जिसे डगरा कहा जाता था। यह   एक बिल्कुल समतल और गोलाकार और आकार में छींटे जैसा होता था। किनारे एक मेढ़र (रिम) लगी होती। उसका उपयोग संभवतः अनाज को डगरा कर एक किस्म के दानाो को दूसरों से अलग करने के लिए किया जाता था।  लुढ़काने पर वह चक्कर खाता दूर तक चला जाता था।  

सात आठ साल का होने पर एक नया खिलौना देखने को मिला। यह लोहे की पतली सरिया का बना एक गोल छल्ला था जिसे एक पतले डंडे से जिसके सिरे पर बेड़ी अंकुशी लगी होती दौड़ाया जाता था। इसे डग्गा कहते थे। खेल-कूद में भोंदू होते हुए भी मैंने उसे कई बार दूर तक दौड़ाया था, पर  मैं सोचता इसे डग्गा क्यों कहा जाता है? [1]   कारण मेरी समझ में नहीं आता था। 

मैं डगरने, डगराने से परिचित था, चलते समय डग से, चलने से बनी रेखा या डगर से परिचित था, इसके बाद भी डग्गा का अर्थ समझने में मुझे कई साल लगे। इसलिए कबीर साहब ने, मेरी पाठ-पोथी के एक पन्ने से अपने टेढ़े अंदाज में सवाल दागा कि दौरी तो जहाँ रख दो वहीं पड़ी रहती है इसे दौरी क्यों बोलता है तो मैं भी चक्कर खा गया। यह न सूझा कि गोलाकार होने के कारण यह दौड़ सकती है, इसके आधार पर यह नाम रखा गया है।

हमारे बहुत सारे सवालों के जवाब उस क्षेत्र की हमारी जानकारी की परिधि में होते हैं पर हम उनको जोड़ कर देख नहीं पाते और ठीक मौके पर गच्चा खा जाते हैं। पर यहाँ एक समस्या भी थी। चलते तो हम पाँव उठा कर, बीच की दूरी को छोड़ते हुए हैं, दौड़ते भी इसी तरह हैं, फिर लुढ़कने, डगरने से उसका अभेद कैसे हो गया जिसमें आगे बढ़ने वाली चीज का धरती से लगातार संपर्क बना रहता है।  

लंबे सोच-विचार के बाद लगा हो सकता है कि गति का कोई रूप हो जो सभी के लिए प्रयोग में आता हो और, जिसका नाता जल के प्रवाह से जुड़ जाता हो। चलने के लिए भो. का एक और शब्द है, टघरल (टघरना)  जिसे कौरवी ने टहलना कर दिया है। जो भाव टहलना में नहीं आ पाया है वह यह कि किसी जमी हुई चीज (घी, मोम, राँगा, लाख) के ताप से पिघलने को भी टघरना कहा जाता है। आगे कैसे बढ़ा जा रहा है यह गौण है।  डग, डग्गा, डगर।  डंगर/ डाँगर- ढोर; ढंग - चलन, चलने का तरीका, किसी काम का तरीका, शऊर;  बेढंगा,   दौर(दौड़), दौरा, दौड़ी>दउरी सभी का संबंध एक ही कुनबे से है। पानी से इसका क्या संबंध है यह द्रव>द्रवः> द्रवर (सत्यो द्रवो द्रवरः पतंगरः ।के रूप में ऋ.4.40.2 में पाया जाता)। गोरखपुर में एक तटीय स्थान नाम है डँवरपार।

गड में डग के अक्षर का फेर (वर्णविपर्यय) है पर अर्थ की निकटता है। गड़ <गळ<गल<जल में मात्र बोलियों के अनुसार उच्चारण की मामूली भिन्नता है। गड़-चलना, गोड़-चलनेवाला, पैर। गोड़> गोळ> गोल - लुढ़कने वाला, गोली, गोला -गोलाकार; के उच्चारभेद पर ध्यान दें।  

गड़>गळ>जल पर ध्यान दें तो समस्या समस्या न रह जाएगी। यह ध्वनि-नियम से ऐतिहासिक क्रम में  घटित परिवर्तन नहीं हैं। भाषाई समुदायों की अपनी बोली के कारण है जिनकाे आज भी लक्ष्य किया जा सकता है। मराठी मे धवल धवळ है, राजस्थानी, हरयाणवी में रानी > राणी। गड़ पहले गोलाकार वटिका (वर्तिका- लुढ़कनेवाली)   पहिए के लिए चलन में आया फिर गड़ी/गाड़ी  पहिए से चलने वाली के लिए। ऋ. में गाड़ी के लिए एक शब्द है ‘गर्त’ जिसे सुन कर आप को अं. कार्ट की याद आ जाएगी। गर्त का गाड़ी से सीधा संबंध है या नहीं, इस पर विचार नहीं किया पर अर्थ उसका भी (गरति- चलति) चलने वाली ही (स्तुहि श्रुतं गर्तसदं युवानं मृगं न भीममुपहत्नुमुग्रम् (विख्यात, गर्त पर सवार, सिंह की तरह प्रचंड शत्रुदलन, युवा (इंद्र) का स्तवन करो) ; आ रोहथो वरुण मित्र गर्तम्, (वरुण और मित्र दोनों गर्त पर सवार हों )। संभव है इसका प्रयोग बड़े पहिए वाले रथ (बग्गी) के लिए होता रहा हो (बृहन्तं गर्तमाशाते )।
 
कुछ समय पहले तक हमें यह लगता था कि गड़- चलना खुर वाले जानवरों के खुर की आवाज का अनुकरण है, और मनुष्य के पाँव के लिए उसका प्रयोग चलने वाले अंग के साम्य पर आधारित है। तब तक हमारा ध्यान इस प्रसंग में जल की ओर न गया था।  
 
गोलबंद होना- संगठित होना; गोल- (1) वर्तुल; (2) (दल), गोल करना- गायब करना,  का अर्थ  खोदना, पर गोल-दल, समूह।  गढ़ - 1)पत्थर (गढ़वाल), 2) पहाड़ जैसा दृढ़, किला, 3) विशाल गर्त (रामगढ़), 4) वटिका (वर्तिका-लुढ़कनेवाली)    गढ़ना- (1) छीलना, काटना, (2) बनाना;  गड़ना - भीतर घुसना,  धँसना;  गड़हा/गड्ढा > सं. गर्त - (1) गाड़ी, (2) गड्ढा।  पानी की धार ये सभी क्रियाएँ करती है, कगारों को काटने के कारण वार्त्रघ्न और ढाल पर गहरे गड्ढे, यमकातर, बनाने के स्वाभाविक नियम से। अपने प्रकोप से यह किसी चीज को नष्ट कर सकता है। आपो वै वज्र। त्सुनामी के बाद संदेह करने का कोई कारण नहीं रह जाता।  
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[1] यह प्रवृत्ति शैशव में अपने साथ होने वाले व्यवहार से पैदा हुआ था और आजीवन रहा और इसी ने मुझे उन प्रश्नों का उत्तर तलाशने और पाने को प्रेरित क्या जिसे अनेक क्षेत्रों के धुरंधर पंडित दरकिनार करके अनर्गल मान्यताओं को स्वीकार कर लेते हैं। संभव है सुख सुविधा में पले बच्चों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति मन्द पड़ जाती हो।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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