सच कहें तो हम आंखों पर बात नहीं करना चाहते। जो लोग आंखें चुराते रहे हैं, वे इसे पसंद नहीं करेंगे। हम किसी को नाराज नहीं करना चाहते। चाहते हैं वे भी अपनी झेंप मिटाकर,आमने सामने होकर कुछ कह और कुछ सुन सकें, समझना बाद की बात। रोशनी की बात करना चाहते हैं। और न चाहते हुए पानी की बात करना चाहते हैं जो आंखों में भर जाता है तो कुछ दिखाई नहीं देता, और जो मर जाए तो हम कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह जाते।
आँख अकेली ऐसी चीज है जिसका आना भी बुरा है, जाना भी। उठना भी बुरा है, और बैठना भी. लगना बुरा है और बदलना भी, दिखाना बुरा है और बचाना भी, तानना भी और झुकाना भी, सूखना भी बुरा है और तर होना, भर जाना, उमड़ना भी, तानना भी और झुकाना भी, और जो लोग आँख मिलाने को इसका विकल्प मानते हैं वे जानते ही नहीं कि उसके बाद क्या होता है। न चैन से रहती है न रहने देती हैं, पलकों से ढक दो तो सपने देखने लगती हैं।
आपको पता होगा कि तमिऴ में आंख को कण् कहते हैं। कन्नम् का अर्थ ‘गाल’ होता है। प्रयोग अटपटा तो है ही गंड - कनकटी के लिए सं. शब्द जिसकी चर्चा मतवाले मकुना (> मुकुंद) की चढ़ती जवानी और बहते मद के संदर्भ में ही आती है, और इसे गालों के लिए चुन लिया गया। बड़ा विचित्र लुकाछिपी है हमारी भाषाओं के बीच एक का कान दूसरे का गाल हो जाता है, कान के लिए त. कादु से काम चलाया जाता है, ऊँचा सुनने को ‘कादुमंदम्’ कहते हैं। हिन्दी में मुँह बाना - कुछ पाने की आतुरता के लिए अवज्ञापूर्ण प्रयोग है। बाना का शाब्दिक अर्थ है खोलना, परन्तु इसका प्रयोग केवल मुँह के संदर्भ में होता है, अन्यत्र कहीं नहीं। जानते हैं क्यों? तमिल में मुख के लिए ‘वाय’ प्रचलित है और यह प्रयोग उसी प्रभाव का परिणाम है।
माना यह जाता है कि कान संस्कृत के कर्ण का तद्भव है। पूरबी में न ‘ण’ था, न असवर्ण संयोग, क्या कुरुक्षेत्र में पहुँचने से पहले कान भी नहीं थे, या कान पकड़ने के लिए थे, नाम उचारने के लिए नहीं। लगता तो उल्टा है, कर्ण कान का संस्कृतीकरण हो और संभव है बोलचाल में इसका रूप ‘कन्न’ भी चलता रही हो। भो. का अकनना - मंद ध्वनि या नाद को बहुत ध्यान से कान और अनुमान दोनों के सहारे सुनना इसी की देन है। सं. में आकर्णन गढ़ लीजिए पर बात बनेगी नहीं। भो. में बरसात में पेड़ की डाल पर उगे फफूँद के सूखे चट्टे का कनचट कहते हैं।
यहाँ तक तो ठीक है पर आदमी एक आँख से विकलांग हो तो उसे काना क्याें कहते हैं, समस्या वहाँ खड़ी होती है कि सायणाचार्य जिनका संपादकमंडल दाक्षिणात्य था उन्होंने भी कण्व का एक स्थल पर काणा अर्थ किया जब कि होना विचक्षण चाहिए।
काल्डवेल ने संस्कृत से पृथकता दिखाने के लिए तमिल और संस्कृत के कुछ शब्दों की तालिका दी है. उसमें त. कण् है तो सं. का अक्षि।
आंख को संस्कृत के जानने वाले अक्षि का तद्भव मानेंगे। इसी का हड़पपाकालीन बोलचाल की भाषा में अधिक व्यवहार होता था, क्योंकि इसी का प्रसार भारोपीय भूभाग में हुआ या अधिक हुआ।
फारसी में यह अक्स - प्रतिबिंब, छाया, प्रतिरूप हो गया और संभवतः इसी के प्रभाव से नख-शिख ने नक्श का रूप लिया जो इसके अर्थ ‘रूपाकार’, ‘बनावट’ और चित्राकृति का सूचक बना और जिससे ‘नक्शा’- मानचित्र के लिए शब्द मिला है। फारसी से ही हमें पता चलता है कि अक्षि का एक प्रतिरूप 'चक्षु' भी प्रचलन में था, जिसका सजात फारसी का ‘चश्म’ है।
जो शुद्धतावादी लोग लोकप्रिय फारसी शब्दों तक के अटपटे सं. रूप गढ़ कर अपना काम भी मुश्किल बनाते हैं और भाषा की संचार क्षमता को भी पंगु बनाते हैं, वे यदि समझ सकें कि फारसी शब्द संस्कृत शब्दों के अपभ्रंश हैं और जिस सहज भाव से हम अपनी बोलियों में उनकी ध्वनि व्यवस्था में अनुकूलित शब्दों का प्रयोग करते हैं उसी तरह उनका भी किया जाना चाहिए, तो हिंदी की अक्कड-बक्कड़ तनावग्रस्तता को कम करके इसे अधिक प्रवाही भाषा बनाया जा सकता है। यह समझ नई भी नहीं है। विलियम जोन्स ने ही इस तथ्य को कुछ जोखम उठाते हुए भी स्वीकार कर लिया था।
परंतु हमारी व्याख्या में अर्थ का पक्ष गौण महत्व रखता है, और उसे वह अर्थ और रूप किस नाद के अनुकरण के फल-स्वरूप मिला है और वह किस उपादान या स्रोत से मिला है, यह अधिक प्रधान है। क्रिया का निर्धारण हम अधिकांश मामलों में नहीं कर सकते या अर्थ की सहायता से ही कर सकते हैं, क्योंकि उसकी यात्रा कठिन होगी पर हर मामले में लोगों के संपर्क और प्रचलन के रूप का पता नहीं चल सकता। हमारी सामान्य स्थापना (1. ऐसी सभी वस्तुओं का नामकरण जिनसे स्वतः कोई ध्वनि नहीं पैदा होती उनका नामकरण अपने से किसी रूप में संबंधित ऐसी वस्तु से मिला है जिससे नाद पैदा होता है, और इसी के अनुसार; 2. सभी पादपों और ओषधियों का नामकरण जल और उसकी ध्वनि पर आधारित है) हमारे लिए अधिक उपयोगी है। अब हम कुछ ऐसे नाम ले सकते हैं जो अर्थ निर्धारण में सहायक हों : अकवन/ आक - मदार का पौधा जिससे दूधिया रस निकलता है,; अकरा, अकरी- काफी छेटे दाने की मटर, अकोल/ अकोल्ह- एक जंगली पेड; पानी के आशय मे अक्-षर (अक्षर - जल ‘तेन क्षरति अक्षरम्) और अं. का एकुआ/ ला. (aqua - पानी)। यह रहा अक्षि का अनुनादी स्रोत जिससे जुड़ा है आर्थी आधार।
जल के अनेक गुणों में एक है इसका मुकुर पक्ष। दर्पण के आविष्कार का प्रेरक और प्रकृति का दर्पण स्थिर निस्तरंग जल है यद्यपि तरंगित जल में भी बिगड़े शीशे जैसा प्रतिबिंब तो दिखाई देता ही है। इस चमक के कारण ही एक ओर तो आग के लिए प्रायः वे ही शब्द प्रयोग में आते दिखाई देते हैं जिनका अर्थ जल है (जल>ज्वाला; जर - ज्वर); दूसरे यह कल्पना की गई कि आग जल का नाती है - अपां नपात - जल का पुत्र बादल और बादल की संतान आग जो बादलों की कौंध में दिखाई देता है और बिजली गिरने के साथ इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी हो ही जाता है; तीसरे आदिम चरण पर यह कल्पना की गई कि सूर्य रात को जल में सो जाता है, इसीलिए प्रातःकाल में उसमें गर्मी नहीं होती, अग्नि का निवास जल है इसलिए अँधेरे में भी जल चमकता है। इस चमक और प्रकाश के गुण के कारण जल के किसी पर्याय से आँख के लिए शब्द निकलना सर्वथा स्वाभाविक था।
अब रहा इसका रूपगत आधार । यह एक छिद्र मे रूप में माना गया जिससे प्रकाश का भीतर प्रवेश होता है इसलिए जिसमें भी छिद्राकृति हो उस तक इसका अर्थविस्तार हुआ - आखा - छानने का उपकरण जिसमें छेद बने होते है; गवाक्ष बाहर देखने के लिए गोलाकार खिड़की; जिसकी बनावट आँख के कोये जैसी हो - अक्ष- हारीतकी की गुठली जिससे जुआ खोला जाता था; रुद्राक्ष - गोलाकार पर देखने में भयंकर आदि।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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