साँस और श्वास में कितनी दूरी है?
उतनी ही जितनी पूरबी और कौरवी में ?
श्वास और नि-श्वास में, नि-श्वास और उत्-श्वास (उछ्वास > उसाँस)/ प्र-श्वास में, श्वास और वि-श्वास में, श्वास और *आ-श्वास> आ-श्वास-न में, कितनी दूरी है?
उतनी ही जितनी प्राकृत भाषा और कृत्रिम भाषा में। कृत्रिम जीवन के साथ हमारी नैसर्गिक क्षमताएँ घटती जाती हैं, और जो सहज था वह लंबी शिक्षा के बाद भी उतना स्वाभाविक नहीं रह जाता जितना कृत्रिमता अभाव में। इसका सबसे अच्छा उदाहरण मनुष्य की तैरने की निसर्गजात क्षमता (इंस्टिंक्ट) का लोप और उसे अर्जित करने के लिए अपेक्षित अभ्यास है। हम यह तक भूल जाते हैं कि किसी प्राचीन चरण पर यह क्षमता हममें विद्यमान थी। ऊपर के शब्दों का प्रयोग करते समय हममें से कितनों को याद रहता है कि ये शब्द हमारे साँस लेने से उत्पन्न ध्वनि के अनुवाचन (वाणी से उसके उच्चार हैं।
एक और अंतर आता है। अपने (उपसर्जित) उपसर्गों की सहायता से वाले, स्व-नियंत्रित शब्दों को वह किसी आशय से जोड़ सकता है। शब्द और अर्थ की वह अभेद्यता समाप्त हो जाती हो जिसे कालिदास ने वागर्थाविव संपृक्तौ या तुलसी ने गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न कहा है। यही वह कारण है जिससे उपसर्जित शब्दों में अप्रत्याशित या अनियमित अर्थ का आरोपण हो जाता है जिसे “उपर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते” में सूत्रबद्ध किया गया है। ध्यान रहे कि ऐसा प्रत्ययों के साथ नहीं होता क्योंकि प्रत्यय का प्रयोग नैसर्गिक भाषा से आया हुआ है।
रोचक बात यह है कि आग्रहमुक्त भाव से जिसने भी भाषा पर विचार किया है वह इस सचाई के निकट पहुँचा है। उदाहरण के लिए हर्बर्ट स्पेंसर के निम्न कथन को लिया जा सकता है:
In Primitive thought the name and object named are associated in such wise thai the one is regarded as a part of the other The imperfect separation of words from things characterizes Greek peculation in general" -HERBERT SPENCER
और मिलते जुलते विचार
The omission of all separate treatment of the ways in which speech, besides conveying ideas, also expresses attitudes, desires and intentions, is another point at which the work of this active school is at present defective. Dr Boas
तथा
language is defined as "a purely human and non-instinctive method of communicating ideas, emotions and desires by means of a system of voluntarily produced symbols" ( E Sapir, Chief of the Anthropological Section, Geological Survey of Canada,Language, 1922, p 7) But so little is the emotive element considered that in a discussion of grammatical form, as shown by the great variation of word order in Latin. we find it stated that the change from 'hominem femina videt'
ये सभी मनीषी समस्या के काफी निकट पहुँच कर उन शास्त्रीय मान्यताओं के दबाव में यह समझते समझते रह जाते हैं कि भाषाएँ अपने प्राथमिक चरण पर नैसर्गिक, यांत्रिक और सवायत्त नादों के (एकास्टिक स्पंद) या ध्वनि तरंगों के अनुश्रवण, जिसके अनगिनत रूप हो सकते हैे, को वाग्तंत्र से उच्चरित नाद व्यवस्था में ढाल कर दूसरों तक संचारित करने के विधान हैं।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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