अंधकार
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अकेला यह शब्द है जिस पर कुछ भरोसा किया जा सकता था, परंतु यह भी अँधेरे के लिए रूढ़ है। इसका अर्थ अँधेरा नहीं होता। अंध/ अंधस का अर्थ है रस, सोमरस। ऋग्वेद में अंध शब्द का इस आशय में 24 बार प्रयोग हुआ है:
इन्द्रो यद्वृत्रमवधीत् नदीवृतं उब्जन् अर्णांसि जर्हृषाणो अन्धसा ।। 1.52.2 (इन्द्र ने अंधस् की मस्ती में आकर जलप्रवाह को अवरुद्ध करने वाले वृत्र का वध करके जल धाराओं को मुक्त किया
सीदता बर्हि: उरु वो सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः ।। 1.85.6 ( मरुद्गण, आपके आसन के लिए चटाई बिछा दी गई है आप उस पर विराजमान हों और सोमरस के पान से मस्त हों।)
पिबतं मध्वो अन्धसः पूर्वपेयं हि वां हितम् । इन्द्र त्वा वृषभं वयं सुते सोमे हवामहे । 1.135.4
(सोमपान पर तुम्हारा प्रथम अधिकार है, वृष्टिकारी इन्द्र तुझे हम अपने आसवित सोम के पान के लिए बुला रहे हैं) , आदि।
परंतु ऐसा नहीं है कि उस समय अंधे को अंधा नहीं कहा जाता रहा हो। आपसी सहयोग से अंधे और लंगड़े के पहाड़ पार करने की कहानी, जिसे आपने बचपन में कई बार सुना और बच्चों को यदा-कदा सुनाया होगा, वह ऋग्वेद के समय में भी सुनी सुनाई जाती थी, यह दूसरी बात है कि इसे आपसी सूझ का परिणाम न मान कर देव कृपा से प्रेरित बताया जाता था:
याभिः शचीभिः वृषणा परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः । 1.112.8 जिस दूरदर्शिता से दूर देश में गए असहाय अंधे और लंगड़े को यात्रा में समर्थ बनाया था।'
दो बार और दोहराया गया है।
नीचा सन्तमुदनयः परावृजं प्रान्धं श्रोणं श्रवयन् त्सास्युक्थ्यः ।। 2.13.12
प्रान्धं श्रोणं च तारिषद्विवक्षसे ।।10.25.11
अश्विनी कुमार अपनी चिकित्सा से अंधे की आँखों की रोशनी लौटा देते है, क्षीणकाय को हृष्टपुष्ट कर देते हैं,टूटी हड्डी जोड़ सकते हैं (अन्धस्य चिन्नासत्या कृशस्य चिद्युवामिदाहुर्भिषजा रुतस्य चित्, ऋ. 10.39.3)। वैदिक जन मनाते हैं कि उनके शत्रुओं को कुछ दिखाई न दे और उनकी अपनी रातें भी जगमग रहें (अन्धेनामित्रास्तमसा सचन्तां सुज्योतिषः अक्तवः तान् अभि ष्युः, 10.89.15) अंधेरी से प्रकाश की ओर ले चलने की चिंता करने वाले अंधेरे का अर्थ न जानते हों, यह संभव है ही नहीं। अंतर केवल यह कि उन्हें भूला नहीं है कि अंध का अर्थ पानी हुआ करता था, रस/सोमरस हो सकता है, और अंधकार तो है ही।
अंध उसी समूह में आता है जिसमें अत/ अद, इत/इद, उत/उद, अंत/अंद, इंत/ इंद, उंद, अंध, इंध, ऊध आदि। इन सबका एक अर्थ जल है, पर इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें अनेक से व्याकरणिक पद बने हैं। अत/ अतर -पानी, अतरौली, अतरौली, अतरौलिया - तटीय स्थान नाम (यद्यप् अलीगढ़ में स्थित अतरौली गंगा की वर्तमान धारा से काफी दूर है) अत/ आत- उसके आगे/बाद; अतः - इसलिए, अत/अद् -पीना/खाना, अत्रि- खानेवाले, अद्य-खाद्य, अत्र (त्र< तर- 1.जल, 2. स्थान, 3. तुलनात्मक प्रत्यय (सं., फा. -तर, अं. अर), 4. स्थानवाचक - यहाँ, और 5. अन्द> अन्ध> अन्न), आदि- आरंभ, इत्यादि - इति-अंत+आदि= समस्त > आदि=इत्यादि), अंत - निकट, भीतर (अंतर/ अन्तः>अंदर)[1]।
हम इसकी विस्तृत समीक्षा में नहीं जाएंगे क्योंकि यह संस्कृत के विकास में जिस संक्रमण का सूचक है, उस पर जितनी गंभीर चर्चा जरूरी है वह फेसबुक के मंच के संभव नहीं है जहां लोग मैत्री के आधार पर सहमति या मौन असहमति जताते हैं, कितनों ने धैर्यपूर्वक कई बार पढ़ कर साझा और ग्रहण किया यह पता नहीं चल पाता।
हम अंधकार के पर्याय बात करते हुए जिस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं, वह यह कि जल की किसी ध्वनि के वाचिक अनुवाद से ही अंधकार को संज्ञा मिली। यहां यह अवश्य स्मरण कराना चाहते हैं कि तमिल में अंद का प्रयोग स्थानवाची विशेषण के लिए होता है जिसका बोलचाल में 'अ'-कार ही रह जाता है - अन्दम् ( अ-) - वह. इसे अंतम, अंधम् कुछ भी पढ़ा जा सकता है। इसलिए संस्कृत के अंधे के लिए एक अलग शब्द ‘अन्धन् -चलता है।
रात/रात्रि
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रात के साथ रत, रत्न- चमकीले पत्थर, रातना - लाल होना, रतनार - ललौंहा, रत्ती - गुंजा, (लाल रंग का एक छोटा सा फल जिसे इसी नाम के बाट के भार की समानता के कारण संज्ञा दी गई) के साथ रख कर समझें। यह समझने में कठिनाई न होगी कि इस नामकरण का आधार अँधेरा नहीं अपितु रात के आसमान की जगमगाहट है। ऋग्वेद में रात की जगमगाहट का एक बहुत मनोरम चित्रण है-
पितरों ने जैसे किसी काली घोड़ी को मोतियों से सजा दिया हो
(अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् । )
रात के नामकरण के पीछे यही जगमगाहट है। परंतु हमारी समस्या तो रात को जलपरक सिद्ध करने की है।यह री- टपकना, बहना, उफनना (रीयते) से संबंध रखता है जिसमें गति और प्रवाह भी आते हैं, रीति, रति, रा (राति- दान), रात समाहित हैं।
अन्तरिक्षे पथिभि- ईयमानो न नि विशते कतमच्चनाहः । अपां सखा प्रथमजाः ऋतावा क्व स्विज्जातो कुत आबभूव, 10.168.3
(वायुदेव अंतरिक्ष के मार्ग से प्रवाहित होते है, कभी एक दिन के लिए भी कहीं ठहरते नहीं हैं, जल के मित्र हैं, अपने व्रत से अडिग हैं, सर्व-प्रथम उत्पन्न हुए, वे कहां से पैदा हुए, किधर से आए?)[2]।
रजनी
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रजनी के विषय में किसी संदेह की आवश्यकता नहीं कि यह रज-जल, रज्जु (तुलना करें, रस>रश्मि>रसरी>रस्सी से), राज, रजत से और फिर रात की जगमगाहट की याद दिलाता है। जब इस शब्द का अर्थ समझ में आ जाएगा, तब अं, ला, रायल और इनके लातिन पूर्वरूपों का भी अर्आथ समझ में आ जाएगा।
नक्त
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नक- जल (नक्र- जलचर), नक्श - नख-शिख, रूप, नक्शा, नक्षत्र, E. night, Ger. nacht, L. nox, G. nyx को एक साथ रखकर देखें, किसी व्याख्या की आवश्यकता न पड़ेगी। यहाँ तक कि यह समझ में आ जाने के बाद कि र और ल ही में अभेद नहीं है, न और ल में भी अभेद है, भाषा की कई पहेलियाँ सुलझ जाएँगी। तभी आप नाइट की जगमगाहट और लाइट, डिलाइट ब्लाइट और साइट के और सं. नक्ष, लक्ष, लख, बिलख, लाक्षा (लाख) की आपसी कडी को समझ सकेंगे।
मसि
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मसि का अर्थ है स्याही - कालिमा युक्त। इसका दूसरा नाम है रोशनाई, प्रकाशित करने वाली। हिंदी में जिसके लिए लिपि का प्रयोग होता है, उसके लिए एक और शब्द का प्रयोग होता था, ‘दिपि’’ - प्रदर्शित करने वाला। इसी तर्क से ऋग्वेद में लिखित वाणी को सूर्या या सू्र्य की दुहिता कहा गया, परंतु उसमें उलझने का यह सही स्थान नहीं है। ङाँ यह याद दिलाने का सही समय तो है ही कि जब हम दाढी-मूँछ आने के लिए मसें भींगने का मुहावरा प्रयोग में लाते हैं, तो मस के साथ मास/माह<> मस/मह= चंद्रमा की याद रहती है या नहीं। मह, मघ, मेह, मेघ और जल के संबंधों को समझने के लिए जाहिर है, कुछ अध्ययन जरूरी हो सकता है। मह का अर्थ जल है और जब आप किसी को महान कहते हैं तो उसे जलवान अर्थात् द्रव्यवान भी कहते हैं, इसका आप को पता न रहा हो तो अब हो जाना चाहिए।
डार्क (dark)/ ब्लैक (black)/ ग्लूम (gloom)
यदि हम अंधकार के अंग्रेजी पर्यायों पर विचार करें तो वहां पर भी वही तर्क लागू होता दिखाई देगा। सं. द्र>द्रु>द्रप्स > ड्रा (draw), ड्राप(drop), ड्रिंक (drink), ड्राइव (drive), के बीच के संबंधों को समझने का प्रयत्न करें, ब्लीक (bleak) >< ब्लीच (bleech) , ब्लैक (black)<ब्लैंक (blank), फ्लो (flow)/ब्लो (blow, - ब्लॉट blot, को और ग्लूम (gloom) को ग्लो (glow), ब्लूम (bloom) को ब्लो (blow)/फ्लो (flow), सैड (sad) को सैट- (satisfaction) से मिलाकर समझें तो पता चलेगा यह तर्क भारतीय बोलियों से आरंभ हो कर यूरोप तक काम करता रहा।
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[1] यह भाषा के में एक बहुत निर्णायक मोड़ को दर्शाता है। पहले यहाँ के लिए ई का, समीप और निम्न के ईं/इत/इंत/इत्र का बीच और ऊपर के लिए ऊ/ऊँ/ऊत्र और दूरस्थ के लिए अ/आ/आँत/अत्र का प्रयोग होता था। इसकी हल्का आभास ऋग्वेद से और द्रविड़ मानी जाने वाली बोली कुऱुख में मिलता है। सं. भी इससे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई। ऋ. में ईं/ईम् - भो. ई, हिं इ(-स/-धर), कु. इतरम्- यहाँ में, सं. इतःततः> इतस्ततः के इतः में में इसे लक्ष्य किया जा सकता है। होना इसे भी इतःअतः चाहिए था, जैसा कु. के अतरम् में अं के अदर में मिलता है। परंतु इस संक्रमण के कारण ‘ई’ का स्थान ‘अ’ ने ले लिया। अ का स्थान कुछ समय के लिए ई ने ग्रहण किया( फा. इंतहा, इन्तकाल) फिर ‘त’ ने (सं. तत, ततः, अं. दैट that, there) में देखा जा सकता है। इत्र-अत्र अब अत्र-तत्र हो गया। अंत का भो. अन्ते, हि. सं. अन्त में ‘अ’ की दूरता बनी रही। वैदिक अन्त- निकट, अन्तेवासी आदि में निकटता का सूचक बन गया।
[2] इस ऋचा को नासदीय सूक्त के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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