आज दोपहर 2 बजे से किसानों और सरकार के बीच पिछले तीन हफ्ते से रुकी हुई बातचीत शुरू होने जा रही है। पिछली बातचीत में अब तक सरकार कुछ संशोधन के लिये तो तैयार है पर किसानों का कहना है कि, यह पूरा कृषिकानून ही गलत इरादे से कुछ चहेते कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिये बनाया गया है और इससे किसानों का कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि उन्हें इन कानूनों से नुकसान ही होगा। नुकसान किसानों का कितना होगा यह तो किसान अंदाज़ा लगा रहे हैं पर किसान आंदोलन के खिलाफ खड़े कुछ लोग यह नही सोच पा रहे हैं कि इससे सबसे अधिक नुकसान में वे रहेंगे जो खाद्यान्न खरीद कर खाते हैं। उन्हें खाने पीने की चीजें महंगी और बराबर महंगी ही मिलती रहेंगी। इसका असर अन्य उपभोग की वस्तुओं पर भी पड़ेगा। क्योंकि हमारी पूरी आर्थिकी कृषि पर आधारित है। आज भी एक बेहतर मानसून, बजट ड्राफ्ट करने वालों हलवे की लज्जत बढ़ा देता है ।
कृषि उपज की बढ़ी कीमतों के बारे में एक कटु सत्य यह भी है कि उन चीजों की बढ़ी हुयी कीमत न तो किसानों के घर जाएगी और न ही उसे उपजाने वालें मेहनतकश लोगों के पास, बल्कि वह जाएगी कॉरपोरेट और उन कंपनियों की बैलेंस शीट पर जिनके यानी केवल जिनके लिये यह कृषिकानून बनाये गए हैं।
आज की बातचीत के लिये किसानों से सरकार ने एजेंडे मांगे थे। किसान संगठन ने जो एजेंडे दिए हैं वे इस प्रकार हैं।
● तीनो कृषि कानूनों के वापस लेने की मोडेलिटी क्या हो, इस पर चर्चा।
● एमएसपी, न्यूनतम समर्थन मूल्य जो वैधानिक आधार प्रदान करने के लिये कानून बनाना।
● प्रस्तावित बिजली अधिनियम 2020 जो देश की विजली व्यवस्था जो पूरी तरह से निजी क्षेत्र में ला देगा को वापस लिया जाय।
आज तक की खबर है कि सिंघू, चिल्ला, टिकारी, शाहजहांपुर, आदि सीमा पर लाखों की संख्या में किसान 26 नवम्बर 2020 से डटे है। वे शांतिपूर्ण धरने पर बैठे हैं। दिल्ली उन्होंने नहीं घेरी है बल्कि उन्हें दिल्ली के अंदर प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा है। बैरिकेड्स लगा कर उन्हें रोका गया है। अन्य जगहों पर भी उन्हें दिल्ली जाने से हतोत्साहित किया जा रहा है। पर उनका धैर्य, साहस, विपरीत मौसम और मुखालिफ निज़ाम के संवेदनहीन रवैय्ये के बावजूद भी प्रशंसनीय है।
आज तक लगभग 40 से 45 किसान शीत लहर के काऱण धरनास्थल पर अपनी जान गंवा चुके हैं। पर ठस और निर्मम सरकार ने उनको याद भी नही किया। मोर और तेंदुए के बीच अपने हक़ के लिये धरने पर बैठे इंसान भुला दिए गए। एक शब्द भी न तो प्रधानमंत्री ने कहा औऱ न ही टीवी चैनलो ने। इतनी निष्ठुरता और निर्ममता लोकतंत्र में जब दिखने लगे तो समझ लीजिए कि लोकतंत्र का चरित्र और तासीर बदल रही है।
शांतिपूर्ण तरीके से धरना और अपनी बात कहने के लिये राजधानी जाना कोई अपराध नहीं है और न ही इस प्रकार का आंदोलन, देश और दुनिया मे पहली बार हो रहा है। पर यह ज़रूर देश मे पहली बार हो रहा है कि, सरकार के हर कदम का आंख मूंद कर समर्थन करने वाले सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा के सनर्थक, देश के जनांदोलन को विभाजनकारी शब्दावली से नवाजते हैं, मज़ाक़ उड़ाते हैं और जनहित के मुद्दों के विपरीत सोचते हैं।
'रोटी नहीं है तो केक क्यों नहीं खाते हैं' कि मानसिकता से संक्रमित लोग आज भी हैं। पर 'रोटी नहीं है तो केक क्यों नहीं खाते' वाली सोच के लोग नष्ट होते हैं और वक़्त बदलता है तो वे फिर कहीं दिखाई नहीं देते हैं। वे दफन हो जाते हैं इतिहास के पन्नो में और जब याद भी किये जाते हैं तो अपने बुरे स्टैंड के लिये जो उन्होंने उस वक़्त जनता के विरोध में लिए थे। जनता के लिये, जनता द्वारा, चुनी सरकार जब जनहित का काम छोड़ कर चंद चहेते पूंजीपतियों के नक्शेकदम पर चलती हुयी दिखती है तो, तो जनतांत्रिक आंदोलनों का आगाज़ होता ही है। आज यही हो रहा है।
आज दिन में 2 बजे शुरू होने वाले सरकार और किसान संगठनों की प्रस्तावित वार्ता किन निष्कर्षों पर पहुंचती है, यह तो जब वार्ता का विवरण सामने आए तो ज्ञात होगा। पर इस वार्ता के प्रारंभ में यदि सरकार और किसानों के नुमाइंदे, धरनास्थल पर दिवंगत हुए किसानों की समृति में दो मिनट का औपचारिक मौन रख कर बातचीत शुरू करते हैं तो यह एक स्वागतयोग्य कदम होगा।
सरकार को अब इस आंदोलन की मांगे मान कर, तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने पर सहमत होना चाहिए। 'हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे' जैसे सरकार के शब्द और भाव दुश्मन से युद्ध करते हुए कहे जाते हैं न कि अपने ही देश की जनता से, उसकी समस्याओं को अनसुना कर के केवल एक मिथ्याभिमान के उन्माद में ग्रस्त होकर कहा जाता है।
सरकार को एक कमेटी का गठन करना चाहिए। जो सारी समस्याओं के बारे में विचार कर यदि कृषि सुधार के लिये कानून बनाना जरूरी हो तो, वह एक ड्राफ्ट तैयार करे। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी कमेटी के गठन का सुझाव दिया भी है। हो सकता है जब सर्दियों की छुट्टी के बाद, सुप्रीम कोर्ट इस मुकदमे को सुने तो वह ऐसी एक कमेटी का गठन भी कर दे। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यह भी पूछा है कि, क्या इन कानूनों को होल्ड पर रखा जा सकता है ? इस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि वे इसे सरकार से पूछ कर ही बता पाएंगे। अब सरकार से उन्होंने पूछ लिया है या नहीं यह तो अदालत जब बैठे और सुनवाई करे और सरकार की बात सामने आए तो पता लगे।
हम सब उम्मीद करें कि आज जब सरकार किसानों के सामने बातचीत के लिये उपस्थित होगी तो वह दिल्ली के पास हो रहे इस जन आंदोलन के साथ साथ देश भर में हो रहे जगह जगह किसान आंदोलनों की गम्भीरता को भी समझेगी और किसानों से सरकार की बातचीत सार्थक दिशा और ट्रैक पर जाएगी और किसानों का यह शांतिपूर्ण धरना कोई अप्रिय मोड़ नहीं लेने पायेगा। शांतिपूर्ण धरना बना रहे, यह धरना के नेताओ की जिम्मेदारी तो होती ही है पर वह शांति और धैर्य सरकार की असंवेदनशीलता, तिकड़म, शांति व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर दमनात्मक कदमों पर भी कम निर्भर नहीं करता है। अक्सर शांतिपूर्ण और जायज मांगो के लिये होने वाले आंदोलन, सरकार की मिस हैंडलिंग से हिंसक और अपने पथ से विचलित भी हो जाते हैं, जिसका परिणाम, सरकार और समाज दोनो के लिये घातक होता है औऱ लंबे समय तक भुगतना पड़ता है। उम्मीद है ऐसी स्थिति नहीं आएगी औऱ सरकार अपनी हठधर्मिता छोड़ कर किसानों की बात सुनेगी और समस्या का जनता और किसान हित मे समाधान निकलेगी ।
( विजय शंकर सिंह )
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