सच तो यह है कि कोश तो जितनी बार मैं स्वयं देखता हूँ कि उसे मानदंड बनाएँ तो डी.एच. लॉरेंस से बडा लेखक सिद्ध हो सकता हूँ। लॉरेंस ने अपने एक पत्र में लिखा था कि यदि उन्हें इस बात की सही समझ होती कि किस वर्ण के बाद कौन सा पड़ता है तो डिक्शनरी देखने रहने में उनका जितना समय लगा उसमें जिंदगी के साल दो साल बच गए होते।
लॉरेंस को सिर्फ अंग्रेजी का कोश देखना पड़ता था, मैं जिस बवाल को सिर ले बैठा हूँ उसमें मुझे कई भाषाओं के कोश देखने होते हैं। इसके बाद भी यदि कहता हूँ कि कोश पर भरोसा न करें तो महाभारत की एक सीख, ‘अविश्वसनीय पर तो भरोसा करें ही नहीं, जो विश्वसनीय हो उस पर भी आँख मूँद कर भरोसा न करें (न विश्वसेत अविश्वस्ते विश्वस्ते नाति विश्वसेत), और अपने अनुभव के कारण। कोश में मिलेगा चिह्न जब कि सही शब्द है चिन्ह (चिन/सिन-जल>चिन-आग>चिनगारी>चीन्हा/ चिन्ह)। खास कर के जहाँ लोक व्यवहार और कोश में मतभेद दिखाई दे वहाँ लोक व्यवहार कोश से अधिक भरोसे का होता है।
हमने पीछे लोढ़ने का अर्थ फूल तोड़ना किया जो कुछ परुष लगता है। फूल के संदर्भ मे यह प्रयोग केवल स्त्रियों की भाषा और उनके ही गीतों में आता था। अब लोकगीतों का स्थान फिल्मी गीतों ने ले लिया है इसलिए संभव है आज इसका प्रयोग कहीं न हो रहा हो। पुरुषों की भाषा में लोढ़ने के लिए तोड़ना या चिनना और कभी-कभी उतारना भी चलता था। कोश में लोढ़ने का अर्थ ओटना और ‘साफ करना’ भी दिया है जिसका प्रचलित शब्द तुनना - रेशों को तानना इस क्रम में उसके बीज, धूल-गर्द हटाते हुए उनके गुंजलक को सीधा करना सभी आता है। लोढ़ना धुनाई के बाद पूनी बनाने के लिए (लुंठन, भो. लूँडी - रस्सी और सूत का गोलक बनाना जिससे उपयोग के समय तार/रस्सी उलझे न) अधिक उपयुक्त है। तुनाई में, रेशे जितनी आसानी से खिंच कर अलग हो जाते है, उसी तरह मामूली से मामूली बात पर उखड़ जाने वाले के लिए फा. तुनुकजिजाज, खींच-तान के लिए तना-तनी, जैसी निर्मितियों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि व्याकरणिक लिंग भेद और घालमेल में इसकी भूमिका रही लगती है (under 'ideas' are included emotions and attitudes, Boas)। जो भी हो, हमें मानना होगा कि अर्थभ्रम के कारण कहीं तुनने को भी लोढ़ना कहा जाता रहा होगा। कोश का कोई आधार तो होगा ही। ज्ञानपीठ कोश में लोढ़ना का अर्थ है - ओटना, साफ करना, *फूल तोड़ना।
ओत बुनकरों का ताना या लंबाई में फैलाये जाने वाले धागों का संकुल है। संभवतः इसी के आधार पर सूत कात का उसकी लच्छी बनाने के लिए जिस पटरे पर उसे लपेटा जाता है उसे *ओतेरन (अटेरन) कहते हैं ओट (ओत) का पुराना अर्थ ताना- और उसमें किसी तरह के उतार-चढ़ाव न होने देना तारतम्य । क्या फारसी का तरमीम - नीचे ऊपर हुए धागों को सही करने से संबंध है? हमने इस पर विचार न किया। ओत के लिए ऊप/ऊह का भी प्रयोग होता था। ऊहा - कल्पना का विस्तार, भो. का बेंवत (आपूर्ति की हैसियत) और युद्ध की (वि-ऊह) व्यूह-रचना (चक्र-व्यूह) का जिसे घेरा डालना और क्रमशः इसका दायरा कम करते हुए आदमियों-जानवरों का शिकार करना मंगोलों के युद्ध कौशल की विशेषता रही है। इसका महाभारत के चक्रव्यूह से कालक्रम की दृष्टि से क्या संबंध है इसकी कभी जाँच न की, न यह जरूरी है। ऊहा-पोह में ताने और बाने का स्थान तर्क (ताना)- विचार-सूत्र और वितर्क(बाना) ने ले लिया है। पोहने का प्रयोग हिंदी मे गूँथने-पिरोने के (सप्त सप्त पुनि पोहिए) को लिए और अपोहन - निवारण, उघाड़ना, खंडन के लिए होता रहा है। (तर्क, वितर्क, कुतर्क, तर्कु, तकला>तक्र, संतति/संतान, आदि शब्द भी बुनकरी से निकले हुए शब्द का है इसलिए रुई तुनने, उसके तिनके और बीज अलग करने के लिए भी प्रयोग में आने लगा, संभव है आज से चार-पांच हजार साल पहले भी तुनने के अर्थ में प्रयोग में आता रहा हो, जब से ओत का प्रयोग होता था। ओटने में बीच की दन्त्य ध्वनि केवल मूर्धन्य हो गई है। मूर्धन्यप्रेमी समुदाय ‘ओत’ न बोल कर ‘ओट’ ही बोलता रहा होगा। ओट के साथ अर्थविकास भी हो जाता है और यह परदे, (*ओटने) ओढ़ने को भी अभिहित करता है। ऊह के रास्ते ऊँघने, भो, ओंहाने को भी इसी से नाम मिला हो तो क्या कहेंगे। बुनकरी हमारे समाज की सबसे पुरानी कला है और अंग्रेजी के वूफ (woof - thread of a weft, texture), वीभ (weave - to make by crossing threads, tp move to and fro), वार्प (warp- to twist out of shape) का तो जनक है ही, संतान की संतान - पोता का भी जनक है। यज्ञविधान के सहायकों में पोत्र का जनक भी यही है या नहीो इसपर कभी विचोर नहीं किया।
मुहावरे में ही सही - आए थे हरिभजन को (काम की बात करने) ओटन लगे कपास (फिजूल की बातों में लग गए) का प्रयोग आपने भी किया होगा पर इस बात पर ध्यान न दिया होगा कि कपास ओतने में गड़बड़ी क्या है कि इसे इतनी पब्लिसिटी दे दी गई। गड़बड़ी दो तरह की है। ओतना फैलाना और विषय से हट कर, मूलविषय से हट कर फालतू बातों में उलझ जाना। इस भाव से तो प्रयोग करते समय आप भी परिचित रहे होंगे, पर दूसरी पर आपका ध्यान शायद न गया हो। ताना या ओहन तो धागे का होता है जो कपास से धागा बनाने के बाद ही उसकाे ताना जा सकता है। आप सीधे कपास को ही तानने लगेंगे को क्या होगा? इसी आशय से उर्दू शायरों का कच्चे ( सूत तो तान लिया पर ऐंठन देना रह गया।) अर्थात जोर की जरूरत ही न पड़ेगी। इरादा भाप कर ही आदेश का पालन हो जाएगा।
असल बुनाई तो तब होती है जब तने हुए धागों को नीचे, ऊपर उठा कर धागे पिरोये जाते हैं। यही वयन है। ताने तो बया (ूमंअमत इपतक) जाने कहां कहां से उठा लाती है, बाने पिरो कर उस आश्चर्य को पैदा करती है जिससे प्रकृति का तन्मय हो कर अवलोकन करने वालों ने यह सीखा कि, छोटे छोटे खंडों को मिला जोड़ कर आवरण बनाए जा सकते हेंकर - क्योंकि बया की कला का लाभ वह चटाई, वल्कल आदि बनाने तक उठा चुका था। परंतु बुनाई को उसने पक्षियों ‘वी’ से प्रेरित मान कर, बुनकरों को वाय कह कर, अपनी कृतज्ञता तो जताई, यद्यपि इस डर से कि कहीं वाय और वया के सायुज्य से बुनकर की मर्यादा न कम हो जाए, इससे पहले वस्त्र का पर्याय लगा दिया। वासोवाय।
बाने ने बनाने, बनने ‘सजने’, बुनने, बान- बार बार एक ही काम करना, अर्थात आदत; बाना - वेश-विन्यास,, बानक - सज-धज (यहि बानक मो मन बसो ) के लिए कितने शब्द दिए हैं। बनियान का नाम लेते समय यह अक्सर नहीं सूझता कि यहाँ सीधे बुनाई से तैयार की गई होजरी उत्पाद का आशय है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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