यह कम रोचक नहीं है कि जल के जिस नाद का अनुवाचन अक्षर रूप में किया गया, अक्ष का भी उसी से संबंध है। अक्षमाल जो मनके या रोजरी का सबसे पुराना रूप है, उसी मूल से संबंधित है। मनुष्य अपना हिसाब जिन आदिम विधियों से करता था, उनमें एक था किसी डंडे पर कटाव करना या निशान बनाना जो आगे चलकर लंबाई नापने के पैमाने (measuring rod) के काम आया।
दूसरा था किसी लता या रस्सी में गांठ लगाना और इसी का अगला चरण था किसी धागे में छेद बने ऐसे बीज जिनमें घुन न लग सके,(जैसे पतजीव, इमली का चिंआ, या गुंजाफल) गूँथते या कम करते जाना। बाद में इनका स्थान मूंगों, मनकों, कौड़ियों और सुगंधित काठ, कांसे, चांदी या सोने के तराशे या ढाले हुए दानों ने ले लिया। गणित का विकास इसी विधि से हुआ।
जीवन में स्थायित्व आने के बाद इसमें रोड़ियों से भी मदद ली जाने लगी। और फिर दीवारों पर चिन्ह या बार।
लेखन का आदिम संकेतन भित्ति चित्रों से या कहें चित्र कथाओं से आरंभ हुआ, जिसके प्रमाण शैलाश्रयों, गुफाओं और कंदराओं में मिलते हैं। संभवतः इन्हें अमूर्तन के बाद अक्षर कहा जाने लगा। वह जिसे मिटाया नहीं जा सकता, जिसमें अंकित होने के बाद किसी वस्तु या घटना को विस्मृत नहीं किया जा सकता। हम यहां यह निवेदन कर रहे हैं की अक्षर वाणी के चिन्हित रेखांकन के, या आंखों से देखे जा सकने वाले (अक्षिगम्य) चिन्हों के लिए प्रयोग हुआ। प्रमाण मान्य सिद्धांत नहीं; साक्ष्यों पर आधारित अनुमान मात्र है।
गणना के लिए अंक या आंक, आंकना - मूल्यांकन करना; शब्दचित्र के लिए आखर, पौधे की आंख से निकलने वाले कुछ मुड़े हुए करचे के लिए अँखुआ ><अंकुर > अंकुश/ अंकुशी और फिर पिंड या काया से अंकुर की तरह निकले भागों के लिए अंग और फिर कार्य में सहायक अंगों और उसके बाद में ज्ञानेन्द्रियों के लिए और इसके बाद किसी संरचना के घटकों के लिए इसका अर्थविस्तार होता गया। आश्चर्य तब होता है जब क्रोड >गोद (कोला>भो. कोराँ) के लिए इसका प्रयोग होते पाते हैं, परन्तु होता उन्हें ही है जो फूले हुए पेट को अंक समझ बैठें। इसकी मूल संकल्पना उदर विवर/कोटर के रूप में की गई।
बोएज भाषा संरचना के इस तर्क तक पहुँचते हैं, पर इसके मर्म तक इसलिए नहीं पहुँच पाते क्योंकि जिन अमेरिकी आदिम जनों की बोलियों को समझने के प्रयत्न में वह अपने निष्कर्ष तक पहुँचे थे, उनसे उनका आंतरिक लगाव नहीं था, जो संकल्पनाओं और संवेदनाओं की बुनावट को समझने के लिए जरूरी है। रिचर्ड्स ने (द मीनिंग ऑफ मीनिंग) में उनके द्वारा भाषा विषयक वस्तुपरक चर्चा में विचारणीय जिन तीन बिंदुओं पर ध्यान देने का सुझाव दिया गया है वे निम्न प्रकार हैं : 1. भाषा की ध्वनि संपदा: 2. उस ध्वनिसंपदा द्वारा व्यक्त विचार-संपदा; और (3) ध्वनि गुंफों को मिलाने और ढालने की युक्ति(याँ)।[1] हम किन विचारणीय पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी मानते हैं इसका उल्लेख हम कर आए हैं और वह किसी न किसी रूप में पूरी लेखमाला में उदाहृत मिलेगा।
अब हम आँख के लिए प्रयुक्त ‘कण्’ को ले सकते हैं जिसे काल्डवेल ने द्रविड़ का माना है और यह लगता भी द्रविड़ का है। परन्तु इसकी जैसी व्याप्ति सं., हिं., और भो. में देखने में आती है वह बहुत प्राचीन स्तर की साझेदारी को प्रकट करती है। सबसे बड़ी बात यह कि जिस जलवाची शब्द कन् से चमक, प्रकाश और फिर आँख की संज्ञा मिली है वह तमिल में मेरे देखने में नहीं आई। भो. कनइल, नकइल में प्रयुक्त कन् और नक का अर्थ जल है, कनई - कीचड़ है। नदी या जलाशय के किनारे बसे स्थान नामों में कन् - कनखल, कानपुर, कनौज, कन्नानूर में आया कन्- जलवाचक है। नक/ मक - का अर्थ भी जल है और नक्र कहें या मक्र (मगर) का अर्थ पानी का जंतु है। मक्कड़जाल और मगरमच्छ के आँसू मगर और बंदर की कहानी के बाद गढ़े गए शब्द हैं। कंज का अर्थ जलज है। कहें कण् का पुराना रूप कन रहा लगता है, कम से कम संस्कृत में इसको कण् कौरवी प्रभाव कह सकते हैं। मूल कन था यह कंज, कनक -1. अनाज( गेहूँ[, 2. सोना [2], कन् का आद्यक्षर जब तालव्य हो जाता है तो चन- जल, चणक - चना, और कन्+चन् दोनों के योग से कंचन - सोना, काँच>काच - शीशा, कांस्य / काँसा।
जो भी हो, यद्यपि कण आँख के अर्थ में सं- में नहीं मिलता, पर भो. में नीलाक्ष व्यक्ति के लिए कँड़जाह प्रचलित है जो या तो अपने कौरवी प्रतिरूप का अपभ्रंश है या इस क्षेत्र में छिट-फुट बसी उस बोली से आया है जिसकी तमिल से निकटता थी। देखने के लिए भी भो.हिं. या संस्कृत में कण् से कोई शब्द नहीं निकला है, पर भेंगी आँख वाले के लिए कनढेबर शब्द का चलन है। पर इसमें आए कन का आँख से नहीं कोण या तिरछेपन से संबंध है। ढेबर प्रकाश या दृष्टि के लिए आया है। एक पुराने नेता यू. एन. ढेबर के नाम में यही सुदर्शन या द्र्ष्टा वाला भाव है। अभी तक ढिबरी को उसके नाम और काम से जानते रहे हैं पर इसका अर्थ समझ में नहीं आता रहा है तो अब समझ में आ जाना चाहिए।
यही बात तमिल के लिए भी कही जा सकती है। उसमें देखने के लिए पार् और नोड का प्रयोग होता है। नोडु अं. नोट, नोटिस और नोड - गाँठ की निकटता चौंकाती है, पर हम इस पर अधिकार के साथ कुछ कह नहीं सकते, यद्यपि होने को तो कुछ दूर का नाता नॉड का भी हो सकता है। भो. हिं. में कनखी मारने का प्रयोग कण् के अधिक निकट है। कनीनिका - आँख की पुतली और काना- एकाक्ष।
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[1] Boas ...formulates as the three points to be considered in the objective discussion of languages.
First, the constituent phonetic elements of the language;
Second, the groups of ideas expressed by phonetic groups;
Third, the method of combining and modifying phonetic groups.
"All speech," says Dr Boas explicitly, 'is intended to serve for the communication of ideas." Ideas, however, are only remotely accessible to outside inquirers, and we need a theory which connects words with things through the ideas, if any, which they symbolize.
[2] सभी खाद्य और पेय - द्रव और आर्द्र पदार्थों को, तथा चमकदार द्रव्यों को उनका नाम जबवाची शब्दों से मिला है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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