अमृत
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अमृत का मूल अर्थ पानी है। सच कहें तो अमृत त. तन्नी (तण्+नीर)= पानी-पानी = ठंढा पानी, पानी, की तरह अम् +ऋत - पानी + पानी के योग से शीतल जल, तृप्तिदायक जल के लिए प्रयोग में आता रहा, और फिर प्यास से विकल व्यक्ति के प्राणरक्षक पेय के रूप में और इस तरह मृत्यु से रक्षा करने वाले, अमरता प्रदान करने वाले एक काल्पनिक पेय के रूप में लोकप्रिय हुआ- पानी मे ही अमृत है, पानी में ही भेषज है (अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्)। अं. का एंब्रोशिया (ambrosia) अमृत से ही व्युत्पन्न है, ऐसा अं. कोश मेे मिलता है, परंतु यह अम्बरीष - अंबर +इष = दिव्य जल, का प्रतिरूप प्रतीत होता है जो हमारे साहित्य में भी एक पौराणिक नाम के रूप मे ही बचा है। ऋग्वेद के रचना काल तक मृत्यु-निवारक पेय बनने की यह यात्रा लगभग पूरी हो चुकी थी। इक्के दुक्के प्रयोग ही ऐसे हैं जिन्हें सामान्य जल के लिए ग्रहण किया जा सके (वृष्टिं वां राधो अमृतत्वं ईमहे) ।
अम से ही आम/आम्र (रसाल),अम्ब[1], अंबु, (अम्मा?) की उत्पत्ति हुई है। नदी नामों मे अकेली आमी का नाम याद आता है। अमृत की तरह ही अम और ऋत भी ऋग्वेद के समय तक नए आशयों में प्रयोग में आने लगे थे, परंतु आर्त - प्यास से विकल, दीन, याचक; आर्तव -ऋतुकाल, मासिक स्राव, रेतस्, री/ऋ- गति सूचक, रीति - मार्ग, परंपरा आदि में रित/ऋत का पुराना भाव बना रह गया। ऐसा लगता है कि पहले बरसात के लिए ही रितु/ऋतु का प्रयोग होता था, फिर वृष- दिव्य जल, रेतस् के लिए प्रयोग में आने लगा, तो ऋतु के स्थान पर वर्षा ऋतु पड़ा और ऋतु का तीन मौसमों और फिर छह और अधिमास को लेकर सात षड्-ऋतुओं और सप्त ऋतुओं के लिए प्रयोग होने लगा।
वर्षा के लिए किया जाने वाला यज्ञ भी सही समय पर वर्षा न होने पर इस मौसम में ही कराया जाता था जो ऋत्विज (ऋतु+इज=यज्ञ) में बाद में भी बचा रहा। अंबर का अर्थ आकाश नहीं, बादल है - जल बरसाने वाला - है और इसलिए वस्त्र के लिए और अं. Umbra छाया, umbrage छाया, umbrella छतरी में इसका प्रयोग सर्वथा समीचीन है। ऋग्वेद में अम - बल (आशु अश्वा अमवद् वहन्त), प्रवाह ( अमश्चरति रोरुवत् - प्रवाह गर्जना करता हुआ चलता है), अमा - घर > (भो. अमाइल, समाइल), आम- कच्चा आदि आशयों में प्रयोग में आया है। भो. का अम्मत - खट्टा अमृत की देन है या कच्चे आम की खटास से निकला है, यह विचारणीय है , पर आम स्वयं अम से निकला है, इस विषय में कोई संदेह नहीं। ऋ. में अमति के प्रसंगानुसार कई अर्थ हैं - 1. रूप, 2. प्रकाश, 3. अभाव, 4. बुद्धहीनता, 5. तृप्ति. पानी के अभाव में, किसी धातु के सहारे इन आशयों तक नहीं पहुँचा जा सकता।
पीयूष
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पीयूष का सीधा अर्थ जल है और इस दृष्टि से यह पीतु का सजात और समानार्थी है। प, पा, पी सभी का अर्थ पानी है, पीन/पीवर - पानी से फूला हुआ, मोटा; पीत - पिए हुआ आदि को देखते हुए लगता है पीयूष में भी पी-जल, उश - जल, कामना (उशना; उशती - जायेव पत्य उशती सुवासा), का योग है। इसका पहला अर्थोत्कर्ष हुआ तो इसका अर्थ दूध हुआ और दूसरे के साथ यह अमृत का पर्याय बन गया।
रस
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रस - पानी (रसो वै सः), जिसके साथ माधुर्य का भाव जुड़ गया तो अर्थ हो गया स्वादु > मीठा ( रसना- रसास्वादन करने वाली इन्द्रिय); रसाल - आम। आगे चल कर यह रस - रसायन, (chemical; chemistry), भावगम्य आस्वाद, आनंद (साहित्य का रस या वाणी द्वारा प्राप्य मग्नता या तन्मयता, जिसे समाधि के आनंद के रूप में पहचाना गया (इमां त इन्द्र सुष्टुतिं विप्र इयर्ति धीतिभिः; तयोरिद् घृतवत् पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः ।
गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ) और आज यह पानी से लेकर अन्य सभी आशयों में संदर्भ के अनुसार प्रयोग में आता है।
मधु
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रस की तरह अनेक दूसरे शब्द हैं जो पहले जल के द्योतक थे, बाद में मधुरता आदि के लिए व्यवहार में आने लगे। मधु का प्रयोग कब से शहद के लिए होता आ रहा है, यह हमें पता नहीं। ऋग्वेद के समय तक इसका एक सीधा अर्थ किया जा सकता था - तृप्तिकर, प्रीतिकर। इसका प्रयोग ( 1) पानी (दुहान ऊधः दिव्यं मधु प्रियं), (2). महुआ (मधूक) मधुबन, (महुआनी), (3) शहद (माक्षिक मधु), (4) सोमरस और उसके विपाक (सृजामि सोम्यं मधु), (5) अनुद्वेगकर (मधु वाता ऋतायत - वायु मंद गति से प्रवाहित हो’; मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता। रात और दिन, धरा धाम और पालक द्युलोक अनुकूल रहें ) (6) सुस्वाद (माध्वीः नः सन्तु ओषधीः अन्नादि सुस्वाद हों ); (7) दूध (इन्द्रो मधु संभृतमुस्रियायां- इंद्र ने गायों को मधुपूरित किया)। मधु मत् (*मथ, मद, मध, मन, मह संवर्ग) से निकला है - जिनमें प्रत्येक का अर्थ जल है। माहुर उसी तरह मधुर का प्रतिलोम है जैसे अम्मत अमृत का।
मूत
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मूत का प्रयोग (मूत्र) के लिए होता है। कुछ लोग मानेंगे कि मूत मूत्र का अपभ्रंश है। सच यह है कि अपने शुद्ध रूप में यह मूत था जो जीमूत - जीवनदायी जल में बचा रह गया है। संस्कृतीकरण के क्रम में इसका रूपगत और अर्थगत ह्रास हुआ। सच यह है कि पा, पी, पू, पे की तरह म (मकर), मा(मास), मी(मीन), मू (मूत) का अर्थ पानी था। मू-त्र(तर) संभव है जलपरक शब्दों का युग्म हो।
विष
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विष (इष/ विष) का पुराना अर्थ जल था। इसका मूल वही है जो विष्णु, विषुव - फैलने वाला, फैला हुआ - में देखने में आता है। अंतर केवल यह है कि विष्णु में यह आग का प्रसार है और इसलिए आग, यज्ञ, सूर्य के लिए इसका प्रयोग मिलता है, विष के मामले में यह प्रसार जल के फैलाव या बहाव का है। ऋग्वेद के समय तक इसका प्रयोग मुख्यतः हलाहल (यहाँ भी जल परक हल की आवर्तिता है) के लिए होने लगा था। केवल एक दो बार जल के लिए देखने में आता है। हम नहीं जानते कि इसे विकृत (सड़े या सड़ाँध वाले) इष या जल के औचित्य से बदबूदार और प्राणघाती द्रव्य से संबद्ध किया गया या नहीं। यह अवश्य जानते हैं कि विष्ठा के लिए भी इसी से संज्ञा निकली। इसके बाद भी पूरबी में तटीय स्थानों के कतिपय नाम - बिसवनिया, बिस्टौली, बिसुनपुर के समानान्तर मिलते हैं। बिष्ट उपाधि के साथ विष्णु वाले तेजस्विता का हाथ दिखाई देता है।
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[1] अंबा, अंबे (द्वि.व.), अंबालिका (*बहु.व.), तीनों अर्थ उसी तरह नदी है जैसे सनक, सनातन, सनन्दन तीनों का अर्थ काल। भीष्मपितामह के गंगा से उत्पत्ति की ऐतिहासिकता की तरह उनके अपहरण की कथा भी काल्पनिक लगती है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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