लुढ़कने के साथ लढ़ा और लढ़िया - गाड़ी, का स्मरण होना स्वाभाविक है। इन्हें आप अधिकार सहित रढ़ा और रढिया भी कह सकते हैं। जिस बोली में र-कार न था, उन्होंने इसे अपनाया तो, पर ऐसे शब्दों का उच्चारण करने में कठिनाई अनुभव करते रहे जिनमें शब्द के आदि में र-कार था। इसके लिए उन्होंने दो तरीके अपनाए । एक था, रकार से पहले अ या इ जोड़ देना। तमिल में राजा से पहले अ-कार जोड़ कर अरसन बनाया गया। इसी प्रभाव में रजत अर्जंटम् बन कर यूरोप तक पहुँचा। दूसरा था, उसे इससे निकट पड़ने वाली ध्वनि में बदल देना। मागधी [1] में यह ध्वनि ‘ल’ थी और इसमें राजा को ‘लाजा’ बनाया गया जिसकी जानकारी हमें अशोक के शिलालेखों की पाली में (*राजेन> लाजिना) मिलती है। [2]
मागधी प्रभाव के कारण र-कार ल-कार में बदल गया और आद्य ‘र-’ ‘ल’ हो गया (रघु>लघु, रेखन> लेखन, रीछ >सं. ऋक्ष > लिच्छ/निच्छ> लिच्छवि/निच्छवि)) । आद्य र-कार वाले रूप बने रहे (रढ़ा, रेढ़ा, रेढ़ू, अं. रडर, रोट, रोटेशन, रोड)पर उनका प्रचलन कुछ मामलों में जहाँ कम हो गया वहाँ उनकी औकात कम हो गई।
लढ़िया को समझने के लिए हमें *रढ़िया तक लौटना होगा। रढ़ का पुराना रूप रोढ़ था, या रढ़ के उच्चारण में कठिनाई के कारण अकार ओकार में बदला, यह तय करना कठिन है, पर रोड़ में अन्त्य वर्ण के महाप्राणन का लोप देख कर लगता है रढ़, रिढ़, रेढ़ अधिक पुराने हैं।
क्या आपने कभी किसी को ‘तुमने तो मेरी रेढ़ मार दी’ मुहावरे का प्रयोग करते सुना है? यदि सुना है तो अनुमान से यह भी समझा होगा कि यहाँ भारी नुकसान पहुँचाने की बात की जा रही है। रेढ़ का अर्थ क्या है, यह पता न चला होगा। रेढ़ का सजात प्रतीत होने वाला एक ही शब्द याद होगा, रेढ़ा या ठेला। यह रेढ़ा भी आपको नरोत्तमदास की अमर रचना के ‘जातहिं दैंहै लदाइ लढ़ा भरि’ पढ़ते समय शायद ही याद आया हो। पर इनके सहारे रेढ़ का अर्थ समझने में न आया होगा। दुखी होने की बात नहीं। रेढ़ का मतलब उस आदमी की समझ में भी नहीं आया था, जो इसका प्रयोग कर बैठा था। यदि उसने रीढ़ मार दी कहा होता तो बात कहने से पहले उसके भी पल्ले पड़ गई होती कि मारना का अर्थ तोड़ना है। आशय वह ‘कमर तोड़ने’ जैसा ही है, चोट कुछ ऊपर की गई लगती है। रीढ़ का अर्थ आप जानते ही हैं, किसी की समझ में न आए तो ‘मेरु दंड’ कह कर समझा सकते हैं।
पर सचाई यह है कि आप रीढ़ का अर्थ भी नहीं जानते हैं न ही मेरु का अर्थ जानते हैं और इस सिलसिले को कमर तक ले जाएँ तो कहा जा सकता है कमर का भी मतलब नहीं जानते। केवल यह जानते हैं कि यह टैग किस चीज के साथ नत्थी है। इसके बाद भी यदि कहूँ आप हिंदी नहीं जानते और इसमें उन लोगों को भी शामिल कर लूँ जिन्होंने भाषा पर काम किया है और नाम कमाया है, भाषा और साहित्य के आचार्य रहे हैं, अच्छी हिंदी बुरी हिंदी का फर्क समझाते रहे हैं, तो इस सच को बयान करने के बाद दुश्मन बनाने की जरूरत न रहेगी, साथ खड़ा होने वाला कोई न मिलेगा।
झेंप मिटाने के लिए यह जान लेना काफी होगा कि केवल हिंदी के लोग ही नहीं दुनिया की किसी भाषा के लेखक, वक्ता, कोशों के रचयिता अपनी भाषा को नहीं जानते, क्योंकि हमें अपनी भाषाओं का ज्ञान उल्टे सिरे से कराया जाता रहा है। हमारा अपनी भाषाओं की जड़ों से वही संबंध रहने दिया गया जो किसी अंधड़ में उखड़ कर गिरे पेड़ का जिसकी उस दिशा की जिधर वह लुढ़का है, एक आध जड़ें बची रह गई हैं जिससे उसकी कुछ डालियाँ टहनियाँ फिर भी हरी रह गई हैं और उनके जीवित होने का भ्रम बनाए रही हैं। यह अंधड़ आभिजात्य का अंधड़ था जो पांडित्य बन कर आया और अपनी ही जड़ें उखाड़ बैठा। इस अंधड़ से पहले या इससे बेअसर बोलियों के लोग - खास कर महिलाएँ - भाषा की पंडितों से अधिक गहरी समझ रखते/रखती हैं।
रीढ़ का अर्थ है पत्थर। मेरु का अर्थ भी पत्थर। मेरु गिरि का - पथरीला पहाड़। बहुमूल्य खनिज, रत्न बलुए पत्थरों (सेडिमेंटरी रॉक्स) में नहीं पुरानी पथरीली चट्टानो में ही मिलता हैं। रीढ़/रेढ़ - नदियों के कटाव और धारा की रगड़ से चिकने और वर्तुल बनी बटिकाओं के लिए प्रयोग में आता था। यही रीढ़/रेढ़ > रोढ़>लोढ़ का पूर्वरूप है जिसने पहिए के आविष्कार की प्रेरणा दी। पत्थर का आशय इससे जुड़ा रहा। रोड़ा, रोड़ी इन्हीं के बदले रूप हैं, पर बजरी नहीं। वह वज्र= पत्थर से निकला है।
आपका कंकाल शब्द से परिचय है। कंक का अर्थ है पत्थर। कंकर/कंकड़ में जो -अर/-आर -अड़ (>अळ> -अल/-आल प्रत्यय=वाला आया है उसे हटाने से काम चल जाएगा। कंकाल का अर्थ था पत्थर का ढाँचा। हमारी हड्डियों की कल्पना पत्थर के रूप में की गई थी। यही रीढ़ की संज्ञा का रहस्य है।
लढ़िया लढ़-इ-या के योग से बना है। लढ़-वर्तुल, लुढ़कने वाला। जैसे रढ़ से रेढ़, रोढ़, रीढ़, रेड़, रोड़ की उत्पत्ति हुई उसी तरह लेंढ़ा - कटहल का बतिया जिसमें अधिकांश कमजोर होने के कारण गिर जाते है, लोढ़ा जो वर्तुल होता था और इसे सिल (शिला) पर लुढ़काते हुए भुने धाना का चूरन (सत्तू बनाया जाता रहा, फिर सोम रस निकालने में काम आता रहा और कालांतर में मसाला पीसने से लेकर भाँग घोंटने के काम आने लगा। लोढ़ा के तीन अर्थ हैं। एक उपादान के कारण, अर्थात् पत्थर का। दूसरा बनावट पर आधारित, अर्थात् लुढ़कने वाला और तीसरा कर्म पर आधारित, अर्थात् तोड़ने वाला। भो. में फूल तोड़ने के लिए फूल लोढ़ना में यही आशय है। लढ़िया का अर्थ हुआ लुढ़कने वाला यंत्र अर्थात् पहिया लगा यंत्र। लढ़िया शब्द भी प्रयोग से बाहर जा रहा है, क्योंकि अब लढ़िया के लिए गाड़ी का ही प्रयोग हमारी बोली में भी सामान्य हो चला है, चाहे वह बैल गाड़ी हो, या मोटर गाड़ी, या रेलगाड़ी।
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[1]मागधी कहना ठीक नहीं है क्योंकि इसके विस्तार क्षेत्र में अनगिनत बोलियाँ स्वायत्त बनी रहीं पर कुछ समानताएँ जो पूरे क्षेत्र में समान हैं जिनके पीछे एक की अग्रता, जिसमें मगध की भाषा के प्रभाव का अशोककालीन पालि के प्रचार को मानना होगा, ये ऊपरी समानताएँ नीचे भी रिस कर आईं, मागधी का प्रयोग सुविधाजनक है।
[2]अब आप लाज>लज्जा की व्युत्पत्ति समझ सकते हैं जो विराजना, (विराजति) में सुरक्षित है। अपरिचित ध्वनियों के उच्चारण में यह तरीका आज तक अपनाया जाता है। ऐसी ही एक ध्वनि दंत्य स है जिसकाे कौरवी प्रभाव में आदि स्थान में (आद्य) स्वरमु्क्त (हल ) रूप में कुछ शब्दों के आदि में जोड़ा गया (भो. था (थान, थाल, थाली) > स्था (स्थान, स्थल, स्थाली), आद्य ‘स’ की ध्वनि से फारसी में जो समस्या पैदा हुई इसे हम सिंधु के हिंदु में बदलने में पाते है और आद्य ‘ह’ के कारण ग्रीक में जो समस्या पैदा हुई उस हिंद के इंद में बदलने में लक्ष्य कर सकते हैं। परहेज ‘ध’ के महाप्राणन से भी है इसकी पुष्टि दोनों से होती है। आज भी आद्य ’स्’ का हाल यह है कि अं. में स्टेट दो रूपों में लिखा जाता है - इस्टेट (estate) और स्टेट(state) - एक उच्चारण की सुविधा को देखते हुए, दूसरा शब्द की शुद्धता के लिए। यही हाल स्पेशल का है - इस्पेशल (especial), स्पेशल (special) । पंजाब मे ‘स्’ में स्वर जोड़ लेते हैं (स्टेशन> सटेशन) भो. में ‘स्’ को गोल कर जाते हैं, या इ-कार जोड़ लेते हैं(टेसन/टीसन, इस्टेसन)।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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