दिल्ली की सिंघू सीमा पर जन आंदोलनों के इतिहास का एक सुनहरा अध्याय लिखा जा रहा है। 26 नवम्बर 2020 को जब किसानों के कई जत्थे सरकार द्वारा बनाये गए तीन कृषि कानूनो के खिलाफ सरकार को अपनी व्यथा से अवगत कराने के लिये चल पड़े थे तो शायद ही किसी ने यह सोचा होगा कि यह जनसमूह दुनिया के इतिहास में एक बड़े जन आंदोलन के रूप में दर्ज हो जाएगा। सरकार समर्थक मित्र, जिन्हे 2014 के बाद होने वाले हर जन प्रतिरोध को विभाजनकारी, पाकिस्तानी, आईएसआई प्रायोजित, चीन समर्थित, अर्बन नक्सल, वामपंथी कहने की आदत सी पड़ चुकी है, ने इस आंदोलन को भी इसी नजरिये से देखा और इस आंदोलन को खालिस्तानी आंदोलन से प्रभावित बताना शुरू कर दिया। पर इन तमाम आक्षेप, औऱ सत्ता समर्थक मीडिया के एक वर्ग द्वारा आंदोलन विरोधी खबरों को प्रचारित करने के बावजूद, किसानों का जनसमूह उमड़ता रहा और, पानी की बौछारों, सड़को पर जेसीबी से पटके गए बोल्डरों, खुदी सड़कों और पुलिस के भारी बंदोबस्त को पार करता हुआ दिल्ली की सीमा पर आकर जम गया। आंदोलन की गुरुता और गम्भीरता का या तो सरकार अंदाज़ नहीं लगा पाई या उन्होंने इस आंदोलन का भी विभाजनकारी एजेंडे से ही मुकाबला करने की रणजीति बनाई, सत्यता जो भी हो, सरकार इस आंदोलन के समक्ष बेबस नज़र आयी। सरकार की इस आंदोलन से निपटने की चाहे जो भी रणनीति हो, सरकार अब तक सफल नही हुयी और अब लगभग किंकर्तव्यविमूढता की स्थिति में आ गयी है।
आंदोलन के 26 दिन बीत गए हैं। बेहद ठंड पड़ रही है। 24 किसान जो धरना स्थल पर बैठे थे की मृत्यु हो गयी है। 20 दिसम्बर उनकी शहादत दिवस के रूप में मनाया गया। आंदोलन अब भी जारी है। जत्थे पर जत्थे आ रहे हैं। पंजाब के किसानों के साथ हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान के किसान भी दिल्ली की सीमा पर आ गए हैं। दिल्ली घेरे में है। सरकार कानून पर सफाई दर सफाई दे रही है। सात बार किसानों की सरकार से बात हो चुकी है, जिंसमे से एक बार गृहमंत्री भी बात में शामिल हुए, पर इन 26 दिनों में सरकार कृषि कानूनो का लाभ क्या होगा, यह किसानों को समझा नहीं पायी। अब बातचीत बंद है। सरकार ने अपनी रणनीति बदली है और किसान दृढ़तर संकल्प के साथ अपने आंदोलन का विस्तार कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने मध्यप्रदेश के किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि, उनकी सरकार ने स्वामीनाथन कमेटी की महत्वपूर्ण संस्तुतियों को लागू कर दिया है, जिंसमे लागत के दूने के बराबर एमएसपी देने की बात कही गयी है। इसे कृषि अर्थशास्त्र की शब्दावली में, सी-2+50% कहा जाता है। लेकिन सरकार का यह कथन भी एक मिथ्यावाचन ही सिद्ध हो रहा है। यही बात, सरकार पहले भी कह चुकी है पर किसान नेताओ को वह अब तक यह नहीं समझा पायी है। वर्ष 2014-15 और 2020-21 के बीच सरकार ने 7.43 लाख करोड़ रुपये गेहूं और धान की खरीद के लिये किसानों को दिए। यदि यही खरीद सरकार ने स्वामीनाथन कमेटी के एमएसपी फॉर्मूले के आधार पर की होती तो किसानों को कुल 9.36 लाख करोड़ रुपये मिले होते। इस प्रकार किसानों को 1.93 लाख करोड़ का सीधा नुकसान हुआ । सरकार भले ही यह बात बार बार कहे कि उसने स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू कर दिया है पर सत्यता यह है कि एमएसपी अभी भी पुराने दर पर ही किसानों को मिल रही है और अब नए कानून में तो उस पर भी खतरा आ गया है।
जिन आंकड़ो का मैं उल्लेख कर रहा हूँ, वे आंकड़े कमीशन ऑन एग्रीकल्चर कॉस्ट्स एंड प्राइसेस ( सीएसीपी ) जो कृषि मंत्रालय के अंतर्गत आता है की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। सीएसीपी, प्रत्येक वर्ष खरीफ और रबी की फसलों की कीमत, व्यापार और उनके स्टॉक आदि के बारे में अध्ययन कर के आंकड़े एकत्र करता रहता है। फसल की खरीद इन्ही आंकड़ों के आधार पर सरकार करती है। फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी सरकार इसी विभाग के अध्ययन और संस्तुति पर निर्धारित करती है। यहां पर आप को हर फसल की लागत का विवरण भी मिल जाएगा। यहां यह भी विवरण मिल जाएगा कि सरकार ने फसल की कितनी खरीद की है। सरकार की खरीद, सरकार द्वारा तय की गयी एमएसपी पर ही होती है। इस प्रकार, आंकड़ो के अध्ययन से यह निकाला जा सकता है कि सरकार एमएसपी की दर के बारे में कह क्या रही है और धरातल पर क्या है। सरकार स्वामीनाथन कमेटी की संस्तुति के आधार पर एमएसपी दे भी रही है या नहीं इसकी भी गणना की जा सकती है।
एक उदाहरण देखिये। 2020 - 21 में कुल 389.9 लाख मीट्रिक टन गेहूं की खरीद की गयी, जिसकी एमएसपी ₹ 1925 प्रति क्विंटल थी। सरकार ने ₹ 75061.5 करोड़ इसकी खरीद पर दिया। लेकिन अगर यही खरीद, स्वामीनाथन कमेटी द्वारा संस्तुत एमएसपी के अनुसार, तय की गयी होती तो, गेहूं की एमएसपी ₹ 2137.5 होती। इस प्रकार स्वामीनाथन कमेटी के अनुसार सरकार को ₹ 83,347.5 करोड़ किसानों को देना पड़ता। इस प्रकार 2014 - 15 से लेकर 2020 - 21 तक के आंकड़े देखे तो, 2014-15 में ₹ 1400, 2015-16 में ₹ 1450, 2016-17 में ₹ 1525, 2017-18 में ₹ 1625, 2018-19 में ₹ 1735, 2019-20 में ₹ 1840, और 2020-21 में ₹ 1925, एमएसपी की दर रही है। इन्ही सालों के फसल लागत के आंकड़े भी सीएसीपी की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं जिन्हें स्वामीनाथन कमेटी के अनुसार कैलकुलेट कर के यह आसानी से पता किया जा सकता है कि, एमएसपी स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा के अनुसार है या नहीं। अब अगर यही एमएसपी स्वामीनाथन कमेटी के अनुसार तय की गयी होती तो, 2014-15 से 2020-21 तक एमएसपी की दर क्रमशः, ₹ 1708.5, ₹1786.5, ₹1818, ₹1804.5, ₹1884, ₹2008.5, ₹2137.5 होती। आज सरकार जो भी कहे, लेकिन तथ्य यह है कि एमएसपी अब भी स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा के अनुसार नहीं दी जा रही है। यह आंकड़े 20 दिसंबर को न्यूज़क्लिक में प्रकाशित एक अध्ययन जो सुबोध वर्मा द्वारा किया गया है पर आधारित है।
अब अगर 2014-15 से लेकर 2019-20 तक धान और इसी अवधि में गेहूं की खरीद और उनकी एमएसपी के आंकड़ो को देखे तो इस अवधि में धान की खरीद में, ₹ 3,77,960 करोड़ और गेहूं की खरीद में, ₹ 3,65,038 करोड़ सरकार ने व्यय किये हैं। अगर यही खरीद स्वामीनाथन कमेटी के फॉर्मूले पर घोषित एमएसपी के अनुसार हुयी होती तो किसानों को इसी अवधि में, धान की खरीद में, ₹ 5,21,221.2 करोड़ और गेहूं की खरीद में ₹ 4,64,466.6 करोड़ की धनराशि मिलती। इसी अंतर को दूर करने के लिये किसान संगठन, स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश के अनुसार, एमएसपी तय करने की मांग लंबे समय से कर रहे हैं। इस मांग को पूरा करने का वादा भी भाजपा कर चुकी है, पर आज तक यह मांग सरकार ने पूरी नहीं की। आज अगर प्रधानमंत्री जी यह कह रहे हैं कि, स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू कर दिया गया है तो इस गलतबयानी पर हैरानी होती है।
ऊपर केवल गेहूं और धान के बारे में तथ्य दिए गए हैं, क्योंकि यह दोनो मुख्य फसलें हैं। जबकि 21 अन्य फसलें हैं जिनपर सरकार एमएसपी घोषित करती है, जिंसमे दलहन, मक्का, तिलहन आदि की अलग अलग फसलें आती हैं। उनकी भी एमएसपी सरकार द्वारा स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार तय की जानी चाहिए। यदि आप स्वामीनाथन कमेटी मॉडल एमएसपी औऱ प्रचलित एमएसपी मॉडल की दर की उपरोक्त गणनानुसार गणना करेंगे तो धान औऱ गेहूं में जो अंतर खरीद की कीमतों में आप को दिख रहा है, उससे कहीं बहुत अधिक अंतर आप को इन अनाजों में भी दिखेगा। इससे स्पष्ट है कि फसलों का जो न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की प्रक्रिया है वह किसानों के लिये आर्थिक रूप से हानिकारक है। धान और गेहूं की खरीद की तुलना में तो अन्य अनाजों की खरीद उतनी होती भी नही है जितनी धान और गेहूं की होती है। आज सरकार खुद ही कहती है कि केवल 6% सरकारी खरीद होती है। किसान को नुकसान उन 6% में भी इसलिए है कि एमएसपी की दर कम धनराशि पर घोषित होती है, और शेष जहां मंडियां नहीं हैं या बहुत कम हैं, वहां तो उन्हें बहुत ही अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। आप पंजाब और बिहार का आंकड़ा देख सकते हैं। सरकार को चाहिए कि, वह किसानों को हो रहे इस नुकसान को कैसे दूर करे, इस पर विचार करे न कि कॉरपोरेट के सामने, एक हरे चारे के रूप में देश के किसानों को झोंक दे।
सरकार का कहना है कि 2022 तक वह किसानों की आय दुगुना कर देगी। कैसे करेगी, यह सरकार नहीं बताती है। पूरे भारत मे किसानी की औसत आय, 2013 के आंकड़े के अनुसार, ₹77,124 वार्षिक और अगर इसे मासिक आय में बदल दें तो यह ₹6,427 होती है। पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, केरल, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु और राजस्थान इस औसत आय से ऊपर और मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल औऱ बिहार राष्ट्रीय औसत आय से नीचे हैं। सबसे अधिक आय, ₹2,16,708 पंजाब के किसानों की है, और सबसे कम, ₹42,684 बिहार के किसानों की है। 2013 के बाद का आंकड़ा मुझे नही मिला है। अब यह सवाल उठता है कि पंजाब और बिहार की औसत आय में इतना बड़ा अंतर क्यों है ? इसका सबसे बड़ा कारण है, सरकारी मंडी का पंजाब में जाल बिछा होना और बिहार में वर्ष 2006 से ही मंडी व्यवस्था का खत्म हो जाना। हरियाणा में भी मंडी व्यवस्था बहुत मजबूत है और औसत आय ₹1,73,208 के आंकड़े पर हरियाणा दूसरे स्थान पर है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आय भी हरियाणा से कम नहीं होगी, चूंकि उसके अलग से आंकड़े उपलब्ध नही है इसलिए इस पर कुछ नही कहा जा सकता है। वैसे उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय औसत में, ₹58,944 पर है। आज जब यह सवाल बार बार उठ रहा है कि पंजाब और हरियाणा के किसान इस आंदोलन में क्यो सबसे अधिक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, तो यह हमें समझ लेना चाहिए कि कॉरपोरेट के निशाने पर अपनी इसी सम्पन्नता के काऱण वे सबसे अधिक निशाने पर हैं। अगर सरकारी मंडियां खत्म हुयी या कॉरपोरेट के सामने वे प्रतियोगिता में नहीं टिकी तो पंजाब और हरियाणा के किसानों की समृद्धि पर सबसे अधिक असर पड़ेगा। यह असर न केवल वहां की कृषि संस्कृति पर पड़ेगा बल्कि इसका असर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति औऱ सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ेगा। यह आंदोलन केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य के फॉर्मूले को बदलने के उद्देश्य से ही नहीं चल रहा है, बल्कि यह कृषि पर आधारित समाज के अस्तित्व की लड़ाई है।
इन तीन कृषि कानूनो में किसानों के लिये सबसे अधिक चिंता का विषय न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली पर अनिश्चितता का होना है। हालांकि सरकार यह बात, बार बार कह रही है कि वह एमएसपी खत्म नहीं करने जा रही है लेकिन वह इसे किसी कानूनी प्राविधान में बांधने की भी बात नहीं कर रही है। जून में अचानक लाये अध्यादेश और फिर सितंबर में संदेहास्पद तरीके से संसद में पारित किए गए तीनों कृषि कानूनों ने देशभर के किसान संगठनो को उद्वेलित कर दिया है। किसानों की सबसे बड़ी आशंका है सरकारी मंडियों के समानांतर कॉरपोरेट या निजी क्षेत्र की मंडियों को कानूनन अस्तित्व में लाने से धीरे धीरे सरकारी मंडियां अप्रासंगिक होने लगेगी और तब फसल की कीमत, जो कम से कम एक न्यूनतम मूल्य पर बिकती है, वह बिल्कुल कॉरपोरेट के रहमोकरम पर निर्भर हो जाएगी। एपीएमसी की व्यवस्था, कागज़ पर तो रहेगी पर व्यवहारिक रूप से वह मृतप्राय हो जाएगी। किसानों को इसी बात का भय है कि कॉरपोरेट हो सकता है पहले कुछ सालों तक, उन्हें, उनकी फसलों की अच्छी कीमत दें, पर बाद में जब कॉरपोरेट का एकाधिकार हो जाय तो वे, फसल की कीमत खुद ही तय करने लगे। आवश्यक वस्तु अधिनियम, ईसी एक्ट की समाप्ति के बाद फसल की खरीद, भंडारण और बिक्री पर कॉरपोरेट का धीरे धीरे एकाधिकार होने लगेगा। यह आशंका अगर तीनों कृषि कानूनो का एक साथ अध्ययन किया जाय तो निर्मूल नहीं है। इसीलिए किसान एमएसपी को एक कानूनी अधिकार दिए जाने की मांग कर रहे हैं ताकि एमएसपी जब घोषित हो तो कोई भी निजी व्यक्ति या कॉरपोरेट उक्त एमएसपी से कम कीमत पर फसल न खरीद सकें और अगर वह एमएसपी से कम कीमत पर खरीदे तो, उसके खिलाफ किसान कानूनी कार्यवाही कर सकें। अब अगर सरकार यह बार बार कह रही है कि, वह एमएसपी की प्रथा और प्रक्रिया को सुनिश्चित करेगी तो उसे यह एक कानूनी रूप क्यों नहीं दे देती ?
अब जो स्थितियां बन रही हैं, उनके अनुसार सरकार और किसान संगठनों ने भी अपने तेवर कड़े कर लिये हैं। सरकार ने यह तय किया है कि वह देश भर में पंचायत करेगी और इन कानूनों से किसानों का हित कैसे होता है इसे स्प्ष्ट करेगी। कृषि मंत्री ने भी किसानों की सर्वोच्च संस्था को 20 विन्दुओ का एक पत्र लिखा है जिसे संयुक्त संघर्ष समिति ने खारिज कर दिया है और सरकार को यह बता दिया है कि जब तक यह तीनों कानून रद्द नहीं होते तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा। सरकार यह बात भी किसानों के सामने रखेगी कि, कैसे हर साल मोदी सरकार ने एमएसपी की दर में वृद्धि की। हालांकि यह कोई मुद्दा ही नहीं है, क्योंकि एमएसपी तो हर सरकार के कार्यकाल में हर साल बढ़ती रही है। जब एमएसपी की दर और सरकार के फॉर्मूले पर किसानों को असंतोष हुआ तो उसके निराकरण के लिये एमएस स्वामीनाथन कमेटी का गठन हुआ और सी2+50% का फॉर्मूला अस्तित्व में आया। लेकिन इस फॉर्मूले को न तो यूपीए सरकार ने लागू किया और न ही एनडीए सरकार ने। वादा दोनो ने किया। लागू मोदी सरकार ने भी नहीं किया हालांकि वह इसे लागू करने की झूठी बात हांथ जोड़ कर और नतशिर हो मध्यप्रदेश के किसान सम्मेलन में कुछ ही दिन पहले कह चुके हैं। लेकिन अब आज का किसान, नेट युग मे है, अंग्रेजी पढ़ा लिखा है, सभी सरकारी आंकड़े वह सरकारी वेबसाइट से ढूंढ लेने में सक्षम है, कृषि अर्थशास्त्रियो के वह नियमित लेख पढ़ता रहता है, कॉरपोरेट के कृषि में घुसने के दुष्परिणामों से वह अनभिज्ञ नहीं है, साथ ही वह एक वैश्विक हो चुकी दुनिया मे रह रहा है तो उसे यह पता है कि सरकार सच क्या कह रही है और जो कह रही है उसमें झूठ कितना है।
ऐसा भी नही है इन कानूनों का विरोध केवल किसान संगठन ही कर रहे हैं, पर इनका विरोध अर्थशास्त्र के विद्वान भी कर रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार, विभिन्न संस्थानों के दस वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों ने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को एक पत्र लिखकर, इन विवादास्पद तीन नए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की है। इन अर्थशास्त्रियों का दावा है कि तीनों कानून देश की अर्थव्यवस्था के लिये मौलिक रूप से हानिकारक हैं। पत्र में अंकित यह अंश पढ़े,
"हमें लगता है कि भारत सरकार को तीनों कानूनों को वापस लेना चाहिए, जो कि देश के छोटे और सीमांत किसान के हित में नहीं हैं और जिनके खिलाफ किसान संगठनों के बड़े धड़े ने आपत्ति जताई है । "
इन अर्थशास्त्रियों में डी नरसिम्हा रेड्डी, कमल नयन काबरा, केएन हरिलाल, रंजीत सिंह घूमन, सुरिंदर कुमार, अरुण कुमार, राजिंदर चौधरी, आर रामकुमार, विकास रावल और हिमांशु के नाम सम्मिलित हैं। इन अर्थशास्त्रियों ने इन कानून को लेकर कुछ प्रमुख चिंता भी ज़ाहिर की है और सुझाव भी दिए हैं ।
● यह कानून कृषि बाजार को नियमित करने में राज्य सरकारों की भूमिका को कम या नगण्य कर देंगे, क्योंकि स्थानीय हकीकतों को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकारों की मशीनरी किसानों के अधिक संपर्क में होती है और उनकी जवाबदेही भी रहती है।
● कानून से कृषि में दो बाजार बन जाएंगे, एक रेगुलेटेड एपीएमसी और दूसरा अनरेगुलेटेड निजी क्षेत्र या कॉरपोरेट का। दोनों के नियम और दृष्टिकोण अलग अलग होंगे। फसल की कीमत तय करने की प्रक्रिया में एमएसपी को कानूनी संरक्षण न मिलने के कारण, किसानों का उत्पीड़न बढ़ जाएगा। जमाखोरी को वैधानिक बनाने के काऱण, मिलीभगत और बाजार को प्रभावित करने का खतरा रेगुलेटे और अनरेगुलेटेड दोनों ही बाजार में बढ़ जाएगा और अनरेगुलेटेड कॉरपोरेट क्षेत्र में, इस समस्या के समाधान की भी कोई प्रक्रिया नहीं होगी।
● बिहार की एक केस स्टडी का हवाला देते हुए अर्थशास्त्रियों ने कहा कि 2006 में एपीएमसी कानून हटने के बाद किसानों के लिए मोलभाव करने और विकल्पों में कमी आई है और इससे दूसरे राज्यों के मुकाबले कम दाम पर फसल बिक रही है।
● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में असमान खिलाड़ियों की मौजूदगी किसानों के हित का बचाव नहीं कर सकेगी। किसान कॉरपोरेट के बंधुआ बन कर रह जाएंगे।
● अर्थशास्त्रियों ने बड़े कृषि-व्यापारों के प्रभुत्व पर चिंता जताते हुए कहा कि छोटे किसान बाजार से बाहर हो जाएंगे।
हम जिस राह पर बढ़ रहे हैं, वह एक ऐसी राह है कि बड़े कॉरपोरेट, जिंसमे ग्लोबल कॉरपोरेट भी शामिल हैं, सरकार, संविधान, देश इन सबको अप्रासंगिक कर देंगे। शुरुआत में तो यह कॉरपोरेट एक बिचौलिए की तरह नज़र आएंगे पर अंत मे सरकार इनकी ही बिचौलिया और मार्केटिंग एजेंट बन कर रह जायेगी। यह खतरा केवल हमारे यहां ही नहीं है बल्कि वैश्विक है। यही वह खतरा है जो न्यू वर्ल्ड ऑर्डर कह कर महिमामण्डित किया जा रहा है। आज किसानों का आंदोलन, इस घातक न्यू वर्ल्ड ऑर्डर के खिलाफ एक बड़ी चुनौती के रूप में डटा हुआ है। इसके साथ खड़े होइए, और न केवल इन तीन कृषि कानूनो का विरोध कीजिये, बल्कि नए श्रम कानूनों, रोजगार नीति, शिक्षा नीति और आर्थिक सुधारों के नाम पर थोपे जा रहे उन्मादित और अतार्किक निजीकरण जो वास्तव में देश की संपदा का चहेते कॉरपोरेट को औने पौने दामों में बेच देना ही है का भी विरोध कीजिए। कृषि सुधार के सम्बंध में इन वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों ने सरकार को यह सुझाव दिया है कि
" किसानों को बेहतर व्यवस्था चाहिए जिसमें उनके पास मोलभाव की ज्यादा गुंजाइश हो। सरकार से कानूनों को वापस लेने की अपील करते हुए अर्थशास्त्रियों ने कहा कि 'सच में लोकतांत्रिक काम' कीजिए और किसान संगठनों की चिंताओं को सुनिए।"
( विजय शंकर सिंह )
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