ग़ालिब - 102.
कब वो सुनता है कहानी मेरी,
और फिर वो भी ज़ुबानी मेरी !!
Kab wo sunataa hai, kahaanii merii,
Aur fir wo bhii zubaanii merii !!
- Ghalib
पहले तो मेरी कहानी ही सुनने को कोई तैयार नहीं होगा, और अगर तैयार भी हो जाय तो मेरी ज़ुबानी नहीं सुनेगा।
ग़ालिब का यह शेर उनकी इश्क़ ए हक़ीक़ी, ईश्वरीय प्रेम और इश्क़ ए मजाज़ी दुनियावी प्रेम या दैहिक प्रेम दोनों ही स्थितियों को बयां करता है। यह ईश्वर के लिये भी है कि वह कब मेरी कहानी, मेरी बातें सुनता है, यानी वह तो कभी मेरी बात नहीं सुनता है और कभी कभार मेरी बात, मेरा हाल जानने और सुनने की बात उसके दिमाग मे आ भी गयी तो तो मेरी ज़ुबान से तो वह सुनने से रहा। साफ तौर पर ग़ालिब कहते हैं कि उनकी बात तो उसे सुननी ही नहीं है।
अब इसे दुनियावी प्रेम या प्रेमिका के साथ रख कर देखते हैं तो, उसे तो मेरी बात सुननी ही नहीं है। मैं जो भी कहता हूं, उसके सामने वह अनसुना ही रहता है। में अपनी बात और अपना हाल उसके सामने कह भी नहीं पाता हूँ। और मेरी मुंहजबानी तो मेरी बात सुनने का तो कोई सवाल ही नहीं है। पर औरों के मुंह से हाल भले ही वह सुन लें पर मेरी जुबां से तो कदापि नहीं।
इस शेर की ऐतिहासिक व्याख्या भी की गयी है। ग़ालिब बहादुर शाह जफर के दरबार मे थे पर दरबार के प्रमुख शायर ज़ौक़ थे। ज़ौक़ और ग़ालिब में अक्सर नोकझोंक चलती रहती थी। ग़ालिब प्रतिभाशाली तो थे ही पर आत्मसम्मान का भाव उनमें बहुत था। ज़ौक़ का वे अक्सर अपनी शेर ओ अदा से खिल्ली भी उड़ाते रहते थे । कुछ उनकी आदतें भी शराबखोरी और जुआ खेलने की थी, तो उनकी बदनामी दरबार तक आम हो गयी थी। जब गालिब की पत्नी ने उनसे कहा कि वे दरबार मे बादशाह से अपनी सफाई दे दें तो उन्होंने यह शेर कहा कि उनकी बात बादशाह भला कब सुनते हैं और सुनते भी हैं तो दूसरों की जुबानी ही उनके किस्से सुनते हैं। यह दरबार की चुगलखोरी की प्रवित्ति जो अक्सर एक सामान्य दरबारी मनोवृत्ति होती है की ओर उनका संकेत भी था।
© विजय शंकर सिंह
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