सुप्रीम कोर्ट के इस कथन के बाद कि अयोध्या के ज़मीन संबंधी टाइटल सूट के मुक़दमे की सुनवाई हेतु बेंच 2019 की जनवरी में गठित की जाएगी, यह मामला अचानक सुर्खियों में आ गया। कुछ लोगों ने इसे हिन्दू अस्मिता से जोड़ कर देखा तो कुछ इसमें अदालत का षडयंत्र ढूंढ रहे हैं। अदालत में क्या मामला है और अदालत के बाहर इस विवाद की क्या सम्भावनायें हैं इसके पूर्व कोई भी बात करने के पहले इस पूरे मामले के अदालती इतिहास पर एक नज़र आवश्यक है।
कहा जाता है कि 1528 में बाबर ने यहां एक मस्जिद का निर्माण कराया जिसे बाबरी मस्जिद कहते हैं। लेकिन इस कथन का कोई भी उल्लेख न तो बाबरनामा में मिलता है और न ही अन्य किसी समकालीन संदर्भ में। यह भी कहा जाता है कि यहां एक मंदिर था जिसे तोड़ कर मीर बाकी ने एक मस्जिद का निर्माण कराया। उसी को बाबर के समकालीन होने के कारण बाबरी मस्ज़िद कहा गया। अकबर के समय राम जन्मभूमि की बात उठी तो उसने दोनों पक्षों में समझौता कराया और मस्जिद के बाहर एक चबूतरे तक हिंदुओं को आने और पूजा पाठ करने की अनुमति दी, जिसे राम चबूतरा कहा गया। लंबे समय तक किसी उल्लेखनीय घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। 1853 में इस मुद्दे पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पहली बार हिंसक झड़प हुयी। तब अवध में नवाबों का राज था।
अवध में 1857 के व्यापक विप्लव के बाद, 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी के हांथों से निकल कर ब्रिटिश भारत का सर्वाधिकार ब्रिटिश क्राउन के पास चला गया। 1859 के समय यह मुद्दा फिर उठा और तब ब्रिटिश सरकार ने इस स्थान को तारों की एक बाड़ खड़ी करके विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिदुओं को अलग-अलग नमाज और पूजा की इजाजत दे दी। हिंदुओं को जो इजाज़त दी गयी थी वह अकबर के समय के चबूतरे तक आने और पूजा की अनुमति के अनुरूप ही थी।
1885 में महंत रघुवर दास ने पहली बार अदालत में मस्ज़िद के पास ही उसी चबूतरे के पास राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए एक बाद दायर किया। वह बाद लंबित रहा और यथास्थिति बनी रही। 22 / 23 दिसंबर 1949 की रात में करीब 50 हिन्दू साधुओं और अन्य ने अभिराम दास, महंत रामचंद्र दास के साथ मस्जिद के अंदर घुस कर रामलला की एक मूर्ति रख दी और यह बात सुबह तक प्रचारित कर दी कि राम यहां प्रगट हुए हैं। उस मस्ज़िद में नमाज़ 1936 से नहीं पढ़ी जाती थी पर कुछ का कहना है कि केवल जुमा की नमाज़ पढ़ी जाती थी।
इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुयी और यह मामला भारत सरकार तक गया। तब सरकार ने मूर्ति हटाने का आदेश तत्कालीन जिला मैजिस्ट्रेट केकेके नायर को दिया और सिटी मैजिस्ट्रेट को उक्त मूर्ति को हटवाने के लिये भेजा गया। पर कानून व्यवस्था को देखते हुए मूर्ति हटवाया जाना आसान नहीं था। अतः यथास्थिति बनाये रखते हुए मंदिर के अंदर लोगों के जाने पर रोक लगा दी गयी । वहां आर्म्ड पुलिस गार्ड लगा दी गयी।
5 दिसंबर 1950 को महंत परमहंस रामचंद्र दास ने हिंदू प्रार्थनाएं जारी रखने और बाबरी मस्जिद में राममूर्ति को रखने के लिए मुकदमा दायर किया। अदालत ने एक पुजारी को पूजा करने की अनुमति दी और राम चबूतरे तक भजन कीर्तन करने की, जो अनुमति पहले से ही थी, दी उसे जारी रखा। सुरक्षा हेतु आर्म्ड गार्ड लगा दिया गया। बाहर से ही लोगों को दर्शन की अनुमति दी गयी।
16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने एक अपील दायर कर के फैजाबाद अदालत में रामलला की विशेष अष्टयाम पूजा अर्चना की इजाजत देने की मांग की। मामला लंबित रहा।
अब एक नया मुकदमा 17 दिसंबर 1959 को अदालत में निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल खुद को हस्तांतरित करने के लिए दायर किया। उसका कहना था कि यह भूमि उसकी है। भूमि का यह पहला मुकदमा था।
निर्मोही अखाड़े के भूमि संबंधी मुक़दमे के दायर करने के बाद, 18 दिसंबर 1961 उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर कर दिया। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड का कहना है कि मस्जिदें वक़्फ़ की ज़मीन पर होती हैं अतः सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को यह ज़मीन दी जाय। अब भूमि के मालिकाना हक के दो दावेदार हो गए, एक निर्मोही अखाड़ा दूसरा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड।
विश्व हिंदू परिषद जिसकी स्थापना, 1964 में एमएस गोलवलकर ने किया था अचानक इस विवाद में खुलकर सक्रिय हो गया। 1964 से 84 तक का इसका इतिहास बहुत सक्रियता का नहीं रहा है पर 1984 में यह अचानक सक्रिय हो जाती है। 1984 में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने और राम जन्म स्थान को मुक्त कराने व एक विशाल मंदिर के निर्माण के लिए अभियान का प्रारंभ और इस हेतु एक समिति का गठन किया।
1 फरवरी 1986 फैजाबाद जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिदुओं को पूजा की इजाजत दी । और ताले खोल दिए गए। इन ताले का भी एक रोचक इतिहास है। जब एसएसपी फैज़ाबाद से यह पूछा गया कि वहां ताला किसके आदेश से लगाया गया था ? तो इसकी खोज शुरू हुई। यह घटना 1950 की थी। और तभी विवाद होने पर वहां आर्म्ड पुलिस लगा दी गयी थी। आर्म्ड पुलिस तो पुलिस लाइन की लगी थी। उसका उल्लेख तो मिला पर ताला लगाने का कोई उल्लेख नहीं मिला। ताले के बारे में मुझे वहां के एक रिटायर्ड हेड कॉन्स्टेबल ने मज़ेदार किस्सा बताया है। उनके अनुसार जब यहां आर्म्ड गार्ड लग गयी तो गार्ड ने दरवाज़े में अतिरिक्त सुरक्षा के लिये एक ताला लगा दिया और वही ताला बराबर लगा रहा। कहते हैं कि पुजारी के आने जाने के बाद वे ताला बंद कर देते थे ताकि दर्शन करने वाले लोग जिनकी संख्या कम ही होती थी अंदर न जा सकें और बाहर से ही दर्शन करें। अदालत ने जब ताले का कोई अभिलेखीय उल्लेख नहीं पाया तो उसने ताला यह कहते हुए कि जब उस ताले लगाने का आदेश ही नहीं था तो उसे हटा दिया जाय। इस प्रकार ताला खुला और दर्शनथियों के साथ साथ सियासतदां भी मंदिर में प्रवेश कर गए।
इसकी तुरन्त प्रतिक्रिया भी हुयी। नाराज मुस्लिमों ने विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया और इस मामले में एक नया पक्ष आ गया।
जून 1989 में जब राम मंदिर और अयोध्या की चर्चा देश विदेश में फैली और ताला खुलने और खुलवाने का श्रेय तत्कालीन कांग्रेस ने लेना शुरू कर दिया तो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने वीएचपी को औपचारिक समर्थन देना शुरू करके मंदिर आंदोलन को अपना मुद्दा बना लिया। कांग्रेस के ऊपर शाहबानों मामले में तुष्टिकरण का आरोप लग ही रहा था तो उन्होंने राम मंदिर के ताला खुलवाने का श्रेय लेकर अपने को मुस्लिम तुष्टिकरण से दूर दिखने की कोशिश की। 1989 में चुनाव प्रचार की शुरुआत राजीव गांधी ने अयोध्या से ही की थी।
अब तक अयोध्या मामले में रामचन्द्र परमहंस, गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के चार मुक़दमे तो चल ही रहे थे कि, तभी 1 जुलाई 1989 को भगवान रामलला विराजमान नाम से पांचवा मुकदमा जस्टिस लोढ़ा ने दाखिल किया गया। अब रामलला भी अपने वकील के माध्यम से इस अदालती लड़ाई में कूद पड़े। किसी देवता के अदालती मुक़दमे में कूदने की यह पहली घटना नहीं है। पहले भी ऐसी घटनायें हो चुकी हैं।
9 नवंबर 1989 तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने बाबरी मस्जिद के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दी। इसे भी लेकर एक विवाद खड़ा हुआ। वीएचपी यह चाहती थी कि शिलान्यास उक्त विवादित परिसर के अंदर हो पर यथास्थिति के अदालती आदेशों के अनुसार यह संभव ही नहीं था। फिर परिसर से दूर एक स्थान पर एक बड़ा सा गड्ढा खोदा गया और शिलान्यास की औपचारिकता पूरी की गयी। इस अवसर मैं भी था। उस समय मेरी ड्यूटी वहां गर्भगृह प्रभारी के रूप में थी।
अब दिल्ली में वीपी सिंह की सरकार आ गयी थी। उन्होंने देवीलाल से विवाद के चलते मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। भाजपा ने 25 सितंबर 1990 को अपने अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक की रथ यात्रा निकाली, और नवंबर 1990 में एलके आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर बीजेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इस घटना के बाद अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने बाबरी मस्जिद के आस-पास की 2.77 एकड़ भूमि को अपने अधिकार में ले लिया।
6 दिसंबर 1992 के पहले अचानक अयोध्या गरमा गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कारसेवा की अनुमति तो दी पर उसने यह भी कहा कि यथास्थिति बनी रहनी चाहिये और उत्तर प्रदेश सरकार से यह आश्वासन चाहा कि सरकार यथास्थिति बनाये रखी जाएगी। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को हजारों की संख्या में उग्र और उन्मादित कार सेवकों ने अयोध्या पहुंचकर विवादित ढांचा जो प्रत्यक्षतः तब एक मंदिर ही था, उसे ढहा दिया। इसके बाद यूपी सरकार बर्खास्त हो गयी। रामलला को फिर एक टेंट में अस्थायी रूप से प्रतिष्ठित किया गया। 16 दिसंबर 1992 को इस ध्वस्तीकरण के लिये जस्टिस लिब्राहन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन हुआ जिसने अपने गठन के 17 साल बाद जुलाई 2009 में अपनी रिपोर्ट दी।
अप्रैल 2002 में अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक टाइटिल सूट को लेकर उच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरू की और विवादित परिसर की पुरातात्विक जांच कराने का आदेश भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को दिया। एएसआई ने मार्च से अगस्त 2003 तक इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्देशों पर अयोध्या में खुदाई की और मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष होने के कुछ प्रमाण मिलने की पुष्टि की। इसी बीच सितंबर 2003 को एक अदालत ने मस्जिद के विध्वंस को उकसाने वाले वीएचपी के सात नेताओं को सुनवाई के लिये सम्मन किया। एक मुकदमा सर्वोच्च न्यायलय में भी इस आशय का दायर किया गया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय जिस टाइटिल सूट की सुनवाई कर रहा है उसे अपना फैसला देने से रोक दिया जाय। लेकिन 28 सितंबर 2010 को सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहबाद उच्च न्यायालय को विवादित मामले में फैसला देने से रोकने वाली याचिका खारिज करते हुए फैसले का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने 30 सितंबर 2010 अपना बहु प्रतीक्षित फैसला सुनाया जिसके अनुसार,अदालत ने विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया जिसमें एक हिस्सा रामलला विराजमान को, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और तीसरा निर्मोही अखाड़े को दे दिया। इस फैसले को लेकर व्यापक शांतिभंग की आशंका की गयी थी, पर पूरी तरह से शांति बनी रही। लेकिन इस फैसले का क्रियान्वयन कैसे किया जाय इस पर बहस चल ही रही थी सभी पक्षों ने इसे अमान्य कर दिया और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की बात की। अपीलें दायर हुयीं और 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी और तभी से यह मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अब जनवरी 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट बेंच का गठन करेगा तब जाकर इस मुक़दमे की नियमित सुनवायी होगी। इन मुकदमों के दोनों प्रमुख पक्षकार महंत रामचन्द्र परमहंस और हाशिम अंसारी का निधन हो चुका है। यह एक संक्षिप्त इतिहास है रामजन्मभूमि के संबंध में हो रहे मुकदमेबाजी का।
इस मामले के समाधान का अब दो ही उपाय है या तो अदालत के फैसले की प्रतीक्षा की जाय और जब भी निर्णय आये तो उसे सभी पक्ष स्वीकार करें या आपसी बातचीत से इसका समाधान सभी पक्ष ढूंढे। दीवानी के मुकदमों के बारे में शायर और जज अकबर इलाहाबादी एक रोचक बात कह गए हैं कि दीवानी के मामले में जो जीता वह हारा और जो हारा वह मरा। दीवानी के मुक़दमे लंबे चलते भी हैं। यह धीमापन कानूनी प्रक्रियाओं की जटिलता के कारण है या इसका कोई अन्य कारण है, बता नहीं पाऊंगा। अदालत को इस जटिल मुक़दमे के फैसले के होने वाली क्रिया प्रतिक्रिया का भलीभांति अनुमान है। इसीलिए 21 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने आपसी सहमति से इस विवाद को सुलझाने की बात कही।
आपसी सहमति से सुलझाने के लिये सबसे पहली कोशिश चंद्रशेखर जी के प्रधानमंत्री काल मे दोनों पक्षों के धार्मिक नेताओं द्वारा एक सामुहिक बैठक करके की गयी थी। पर वह बैठक एक प्राथमिक प्रयास था। यह केवल दोनों पक्ष के लोगों और धर्माचार्यों का गेट टुगेदर बन कर रह गया। तब तक यह विवादित ढांचा ध्वस्त भी नहीं हुआ था। लेकिन वीएचपी की सक्रियता काफी बढ़ गयी थी। अदालत के बाहर इस समस्या के समाधान हेतु जनवरी 2002 अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल मे पीएमओ में एक अयोध्या विभाग गठित हुआ जिसने कुछ संवाद दोनोँ पक्षों में शुरू भी किया, पर यह अयोध्या विभाग की भी कोई बहुत उपलब्धि नहीं रही। यह प्रयास सार्वजनिक नहीं किया गया। इन दीवानी वादों और टाइटल सूट के अतिरिक्त विवादित ढांचा गिराए जाने के आपराधिक कृत्य के लिये 19 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती सहित बीजेपी और आरएसएस के कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक केस चलाने का आदेश दिया है जो अभी भी चल रहा है ।
यह आस्था का प्रश्न है या अस्मिता का, 6 दिसम्बर शर्म की बात है या शौर्य का प्रदर्शन, यह सब अलग अलग दृष्टिकोण से सोचने और अभिव्यक्त करने का एक तरीका है। पर अदालत न तो आस्था से चलती है और न ही अस्मिता से न तो मुक़दमे की सुनवाई के दौरान वह शर्म को तवज़्ज़ह देती है और न ही शौर्य से फैसले को प्रभावित होने देती है। वह केवल उन सूबूतों और तर्कों के आधार पर अपने निर्णय और निष्कर्ष पर पहुंचती है जो उसके सामने प्रस्तुत किये गए हैं। अदालत को इन भावुक शब्दों और भावों द्वारा इस मुक़दमे की सुनवायी और फैसले के दौरान अतिक्रमित होने की संभावना थी तभी अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसके सामने केवल भूमि का टाइटिल सूट ही सुनवायी के लिये है ।
© विजय शंकर सिंह
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