आजकल शब्द और नाम जेरे बहस हैं। अस्मिता अब हम शब्दों में ढूंढ रहे हैं। लगता है कि अमुक शब्द के बिना हमारी अस्मिता आहत हो रही है। पर शब्द कैसे किसी की अस्मिता से जुड़ सकते हैं यह मेरी समझ मे नहीं आ रहा है। शब्द अक्षरों से बनते है। अक्षर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, उनका क्षरण नहीँ होता है। अक्षर को कहीं पर ब्रह्म भी कहा गया है। अक्षर, शब्द, लिपि आज सभी मिल कर भाषा बनते हैं। भाषाएं किसी वर्ग जाति नस्ल से नहीं बल्कि क्षेत्र से जुड़ी होती हैं। लोग जब इधर से उधर यात्रा करते हैं लोगों से मिलते हैं, संस्कृतियों का समागम होता है तो शब्द भी इस समागम में यात्रा करते हैं। लोग अपनी बात कहने के लिये अपनी भाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। भाषाएं बोलियों से उपजती हैं और बोलियां, कदम कदम पर बदलती हैं। कहते हैं, चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी। बानी यानी बोली। कभी कभी जो हम बोलते हैं, वे शब्द भाषानुरूप न होते हुये भी सटीक भाव व्यंजना कर देते हैं। और वह शब्द धीरे धीरे उक्त भाषा मे भी शामिल हो जाता है। ये शब्द उक्त भाषा को समृद्ध ही करते हैं। भाषा की लोकप्रियता उसकी उदारता में ही निहित है । जो भाषाएं अन्य भाषाओं के शब्दो को ग्रहण करने से परहेज कर भाषा की शुचिता की झंडाबरदार बनी रहती हैं वे एक स्थिर जलकुंड सी हो जाती हैं जिसका विकास अवरुद्ध हो जाता है। पर जो भाषाएं ऋग्वेद की प्रसिद्ध ऋचा, आ नो भद्रा कृतवो यन्तु विश्वतः ( विश्व के समस्त सद्विचारों को मेरे मस्तिष्क का आमंत्रण है, ) के समान अन्य भाषाओं से भी शब्द ग्रहण कर अपना भांडार समृद्ध करती रहती हैं वे एक सदानीरा सरिता की तरह होती हैं जो निरंतर प्रवाहमान और उन्मुक्त बनी रहती है। अंग्रेजी भाषा के शब्दकोश में हर साल सैकडों शब्द दीगर भाषाओं के जुड़ते रहते हैं। उन्होंने दुनिया की हर भाषा से उपयुक्त और लोकप्रिय शब्द निःसंकोच भाव से ग्रहण किया है। विश्वभाषा होने की सबसे पहली शर्त ही यह है कि वह भाषा शब्द ग्रहण और भाव व्यंजना में उदार हो, सर्वकालिक और सार्वदेशिक रूप से खुद को ढाल ले और सदा प्रवाहित रहती हो।
देश मे कुछ शहरों के नाम बदले गये हैं। तभी यह बात उठी कि शाह शब्द फारसी का शब्द है। यह शब्द भी भारतीय संस्कृति का नही है इसे भी बदला जाए। बजाय इस साझी संस्कृति की सराहना करने के कुछ इस शब्द को फारसी मूल से आयातित न मानते हुए, इसे जैन मंत्र णमो मंत्र में कहे गए शब्द साहु शब्द से उद्भूत सिद्ध करने लगे। साध्वी मीनू जैन के फेसबुक पर एक लेख के अनुसार यह शब्द णमो मंत्र से उद्भूत नहीं है। उनके अनुसार,
" फेसबुक पर मौजूद कतिपय अति उत्साही भक्तजन अमित शाह के सरनेम को शुद्ध भारतीय ठहराने की अज्ञानतापूर्ण कोशिश करते हुए इसकी व्युत्पत्ति जैनधर्म के बीजमंत्र ' णमोकार मंत्र ' की अंतिम पंक्ति से बता रहे हैं ।
मंत्र की अंतिम पंक्ति इस प्रकार है-
'' णमो लोए सव्व साहूणं "
अर्थात लोक ( संसार ) के सभी साधुओं को नमस्कार !
प्राकृत में साहू
संस्कृत में साधु हो जाता है ।
मंत्र की अंतिम पंक्ति इस प्रकार है-
'' णमो लोए सव्व साहूणं "
अर्थात लोक ( संसार ) के सभी साधुओं को नमस्कार !
प्राकृत में साहू
संस्कृत में साधु हो जाता है ।
यह मंत्र प्राकृत भाषा में लिखा हुआ है।
जैन दर्शन में वीतरागी मुनियों व साधुओं की गणना ‘पंच परमेष्टी‘ में की गई है.
जो परम पद पर स्थित है, वह परमेष्ठी कहलाते हैं.
तदनुरूप अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को पंच परमेष्ठी की संज्ञा दी गई है ।
इसका अभिप्राय यह है कि जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों के बाद पदानुक्रम में वीतरागी साधुओं का स्थान आता है. प्रत्येक श्रावक (जैन गृहस्थ) अपने दिन की शुरुआत णमोकार मन्त्र के माध्यम से पंच परमेष्ठी को नमस्कार करके करता है.
अतः वीतरागी साधुओं के साथ वाणिज्यिक वृत्ति वाले ' शाह ' समुदाय की तुलना करके अपनी मूढमति का परिचय न दें । "
जैन दर्शन में वीतरागी मुनियों व साधुओं की गणना ‘पंच परमेष्टी‘ में की गई है.
जो परम पद पर स्थित है, वह परमेष्ठी कहलाते हैं.
तदनुरूप अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को पंच परमेष्ठी की संज्ञा दी गई है ।
इसका अभिप्राय यह है कि जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों के बाद पदानुक्रम में वीतरागी साधुओं का स्थान आता है. प्रत्येक श्रावक (जैन गृहस्थ) अपने दिन की शुरुआत णमोकार मन्त्र के माध्यम से पंच परमेष्ठी को नमस्कार करके करता है.
अतः वीतरागी साधुओं के साथ वाणिज्यिक वृत्ति वाले ' शाह ' समुदाय की तुलना करके अपनी मूढमति का परिचय न दें । "
सच तो यही है कि शाह शब्द फारसी से ही उद्भूत है। जिसका अर्थ राजा होता है। कुछ मित्र अशोक के एक शिलालेख में शाह शब्द से इस शब्द को भारतीय साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह शब्द मुस्लिम मूल का नहीं है। पर वे भूल जाते हैं कि भारत का फारस, यूनान, अरब से समागम इस्लाम के जन्म के पहले से ही होता रहा है। अशोक के शिलालेख पाली भाषा में है । भाषाएं, बोलियां किसी देश की सीमा से बंधी नहीं रहती है। यही नहीं आज हिंदुत्व के नाम पर गर्व करने वाले लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि हिन्दू, हिंदी, शब्द भी विदेशी मूल का है। सिंधु से हिंदु में परिवर्तित यह शब्द सनातन धर्म, ब्राह्मण धर्म, आर्य धर्म के लिये कब लोकप्रिय और रूढ़ हो गया, इस लंबी और रोचक शब्द यात्रा में पता ही नहीं चला। यही नहीं कुछ बेहद सामान्य प्रयोग में आने वाले शब्द भी विदेशी भाषाओं के ही हैं। यह सूची मुकेश नेमा के एक लेख से साभार ले रहा हूँ। उदाहरण के लिये,
आराम, अफसोस, किनारा, हफ्ता ,जवान, दरोगा, मुजरिम, मुल्ज़िम, गिरफ्तार, नमक, बहादुर,आवारा, काश,खूबसूरत, मुफ्त, जहर आदि आदि शब्द फारसी से ही हमारे यहां आए हैं।
इसी प्रकार अरबी से आने वाले कुछ शब्द देखें, शराब ,अमीर ,औरत ,इज्जत असर, किस्मत, खयाल, दुकान, जहाज, मतलब, तारीख, कीमत, इलाज, वकील, किताब, कालीन, मालिक, गरीब, मौत ,मदद आदि आदि।
इन दो ही भाषाओं से नहीं बल्कि तुर्की से भी बहुत से लोकप्रिय शब्द हमने अपना लिये हैं जैसे, आगा, आका, उजबक, उर्दू, कालीन, काबू, कैंची, कुली, कुर्की, चिक, चेचक, चमचा, चुगुल, चकमक, जाजिम, तमगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर, मुगल, लफंगा, लाश, सौगात, सुराग ।
आप और हम दैनंदिन जीवन मे अंग्रेज़ी के कितने शब्द प्रयोग करते हैं कभी ध्यान दीजियेगा तो शब्द यात्रा के इस मुक्त प्रवाह को समझ जाइयेगा।
आराम, अफसोस, किनारा, हफ्ता ,जवान, दरोगा, मुजरिम, मुल्ज़िम, गिरफ्तार, नमक, बहादुर,आवारा, काश,खूबसूरत, मुफ्त, जहर आदि आदि शब्द फारसी से ही हमारे यहां आए हैं।
इसी प्रकार अरबी से आने वाले कुछ शब्द देखें, शराब ,अमीर ,औरत ,इज्जत असर, किस्मत, खयाल, दुकान, जहाज, मतलब, तारीख, कीमत, इलाज, वकील, किताब, कालीन, मालिक, गरीब, मौत ,मदद आदि आदि।
इन दो ही भाषाओं से नहीं बल्कि तुर्की से भी बहुत से लोकप्रिय शब्द हमने अपना लिये हैं जैसे, आगा, आका, उजबक, उर्दू, कालीन, काबू, कैंची, कुली, कुर्की, चिक, चेचक, चमचा, चुगुल, चकमक, जाजिम, तमगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर, मुगल, लफंगा, लाश, सौगात, सुराग ।
आप और हम दैनंदिन जीवन मे अंग्रेज़ी के कितने शब्द प्रयोग करते हैं कभी ध्यान दीजियेगा तो शब्द यात्रा के इस मुक्त प्रवाह को समझ जाइयेगा।
फारसी से आया हुआ शाह शब्द, शब्द यात्रा का ही एक उदाहरण है। अगर यह फारसी से आकर भी हिंदी में समाहित हो भी गया है तो इसमें आपत्ति क्या है ? वैसे भी भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार फारसी संस्कृत की सहोदर भाषा है। दोनों ही भाषाओं में अद्भुत समता है। दोनों भाषाएं भाषाविज्ञान के अनुसार एक ही भाषा परिवार की भाषा है। अक्सर हम अरबी और फारसी को एक साथ प्रयोग करते हुये कहते हैं, पर फारसी अरबी के नहीं संस्कृत के निकट है। अरबी सेमेटिक भाषा है जब कि फारसी का मूल आर्य भाषा परिवार है। आवेस्ता जो अग्नि पूजक पारसी धर्म के प्रवर्तक जरशुष्ट्र की वाणी है के शब्द और संदर्भ वैदिक साहित्य से बहुत मिलते हैं। फारस और भारत के बीच हज़ारों साल के आवागमन ने दोनों भाषाओं में शब्दों के समागम को निरंतर बनाये रखा । यह भाषायी शब्द समागम हजारों साल की व्यापारिक और सार्थवाह यात्रा के साथ साथ सैन्य अभियानों से भी होता रहा है।
अब आप मनोरमा सिंह के लेख का यह अंश पढ़ें। यह लेखांश मोदी शब्द की उतपत्ति को बताता है। हर शब्द कहीं न कहीं से उद्भूत होता है। संस्कृत जो व्याकरण परम्परा से अत्यंत समृद्ध भाषा है में हर शब्द की उतपत्ति धातु यानी किसी न किसी आधार अक्षर से होती है, माना जाता है। मनोरमा की फेसबुक पोस्ट नीचे उद्धरित कर रहा हूँ।
" शब्दों के सफ़र वाले अजित वडनेरकर जी के यहां से पता चलता है मोदी शब्द सेमेटिक धातु मीम-दाल-दाल (م د د ) यानी m-d-d या मद्द (=आपूर्ति, सहायता) पर आधारित है। अरबी में बहीखाते के कालम को मद्द कहते हैं, जिससे हिन्दी का मद बना। अतः बही खाता रखने वाले ही मोदी हुए। इस तरह वडनेकर जी का मानना है कि मोदी शब्द हिन्दी में मध्यकालीन मुस्लिम दौर में सैन्य शब्दावली से आया
फिर मोदी जैकेट भी नेहरू जैकेट रहा है जो मुगलों के समय के अमीर कुलीनों के चोंगे से शेरवानी, अचकन, बंदगला और बंडी के रूप में बदलते बदलते मोदी जी के वार्डरोब में आ गया. उफ़्फ़!! ये फ़ारसी-मुगली, बाबर अक़बर कैसे कैसे घुसे हुए हैं हिंदुत्व में ! "
फिर मोदी जैकेट भी नेहरू जैकेट रहा है जो मुगलों के समय के अमीर कुलीनों के चोंगे से शेरवानी, अचकन, बंदगला और बंडी के रूप में बदलते बदलते मोदी जी के वार्डरोब में आ गया. उफ़्फ़!! ये फ़ारसी-मुगली, बाबर अक़बर कैसे कैसे घुसे हुए हैं हिंदुत्व में ! "
यह पोस्ट लंबे समय से हो रहे संस्कृति भाषा सभ्यता, रीति रिवाज और शब्दो के समागम को ही बताती है। कहीं से शब्द, कहीं से लिपि, कहीं से व्याकरण, कहीं से अभिव्यक्ति की अदा के समागम से बनी उर्दू भाषा सांझी विरासत का एक अनुपम उदाहरण है। जो संस्कृति, सभ्यता, भाषा, समाज, नस्ल और जाति प्रवाहमान नहीं रहती है वह धीरे धीरे मृतप्राय होते लगती है। अपनी सारी समृद्धि के बावजूद वह अतीत का स्वर्णकाल तो बनी रहती है पर जीवंत नहीं रह पाती है। जीवंतता प्रवाह में है। प्रगति की अग्रगामी धारा को प्रतिगामी करने से न केवल हम एक जल कुंड में बदल कर दादुर हो जाएंगे बल्कि विकास की स्वाभाविक यात्रा से भी कट जाएंगे। इसी लिये उपनिषदों में हमारे महान दार्शनिकों ने निरन्तर प्रवाहमान रहने का मंत्र दिया है, चरैवेति चरैवेति । अतः चलते रहिए बढ़ते रहिये। यह संसार ही एक अनन्त यात्रा है।
© विजय शंकर सिंह
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