Friday, 23 November 2018

विकल्पहीनता का दंभ और सच / विजय शंकर सिंह

एक हत्या का साजिशकर्ता और हत्या के आरोप में संदेहास्पद व्यक्ति ही जिस दल का अध्यक्ष हो तो सच में, उस दल में विकल्पहीनता की स्थिति आ ही जाती है ! उस दल के सभी शिष्ट, मेधावी और प्रबुद्ध राजनेता अगर हाशिये पर खुद को पा रहे हैं तो उसका एक बड़ा कारण यह है कि शरीफ व्यक्ति वैसे भी गुंडों, और माफिया से नहीं उलझना चाहता है और वह बस समय बिताता है। परिस्थितियों के बदलने की प्रतीक्षा करता रहता है। यह मेरा पेशेवरराना अनुभव है। आप का अनुभव मुझसे अलग हो सकता है।

माफिया और अपराधों के प्रभावशाली साजिशकर्ता मुश्किल से कानून के गिरफ्त में आते हैं। सज़ा दिलाना तो और भी कठिन हो जाता है। वह सबसे पहले राजनीति की मांद में घुसते हैं । अपनी धार्मिक आस्था को खुल कर प्रदर्शित करते हैं। खुद को मासूम दिखाने की हर समय कोशिश करते है। सार्वजनिक रूप से सदैव सत्य बोलने की कसम और सद्विचार पर दर्शन झड़ते मिल जाएंगे। पुलिस के साथ विनम्रता से पेश आते हैं क्योंकि कानून का विरोधी होते हुए भी उन्हें कानून की ताकत का अहसास रहता है। सत्ता में आते ही सबसे पहले वे पुलिस को ही अपने चंगुल में करना चाहते हैं क्योंकि पुलिस ही इनके अवचेतन में बराबर रहती हैं। मनचाहे अफसर की तैनाती कराना और पुलिस को भी जाति धर्म सम्प्रदाय क्षेत्र के आधार पर बांट कर एक अधोषित गिरोह का रूप दे देना इनकी आदत में शुमार होता है। इनका सरोकार न राजनीति से, न दल से, न दल की राजनैतिक विचारधारा से रहता है बल्कि जहां इनका आपराधिक स्वार्थ सधे वहीं वह घुसते हैं।

एक गुंडा, हत्यारा और अपराधी यदि किसी राजनीतिक दल में महत्वपूर्ण स्थान पर आ भी जाय तो अपनी गुंडई, माफिया और गिरोहबंदी मानसिकता नहीं छोड़ सकता है। वह लोकतंत्र में सहज हो ही नहीं सकता है। अपराध की मानसिकता ही लोगों को दबाने, उनपर अपनी बात थोपने और अपने प्रभुत्व को दिखाने की होती है। जब कि लोकतंत्र सभी विचारों चाहे उससे सहमति हो या न हो, को समान भाव से देखने, तर्क और बहस कर के राह ढूंढने, सबको साथ लेकर चलने की प्रणाली है।  आपराधिक मानसिकता का व्यक्ति अक्सर लोकतंत्र, कानून, विधिसम्मत प्राविधानों से खुद को असहज पाता है। वह इन प्रक्रियागत वैधानिक मार्गो के बजाय हिंसा और दबंगई की राह पर बरबस जाना चाहता है। उसे लोकमुखरता भी असहज करती है। वह अपने मन्तव्य और आदेश को ही ब्रह्म वाक्य मानते हुए देखना चाहता है। उसके लिये राज व्यवस्था एक लोकरंजक कृत्य नहीं बल्कि शासन करने और वह भी एकराट मनोवृत्ति से शासन करने की एक दमित महत्वाकांक्षा का अवसर होता है। उनके मन मे कानून, व्यवस्था, तँत्र और लोक के प्रति कभी आस्था नहीं रहती है। ऐसे तत्व लोकतंत्र के लिये ही नहीं बल्कि समाज के लिये भी घातक होते हैं। राजनीति में अगर ऐसे लोग आ भी गये हैं तो हम सबका दायित्व है कि हम उनकी हैसियत को महिमा मंडित करने के बजाय उन्हें हतोत्साहित करें। 

माफिया और अपराधी टाइप के लोग जब नेता बनते हैं तो वे चुनाव कम ही हारते हैं। मैंने यूपी में किसी भी माफिया को आज तक चुनाव हारते कम ही देखा है। यह भी लोकतंत्र की एक विडंबना है। पर लोकतंत्र से बेहतर कोई और शासन प्रणाली भी तो अभी तक ईजाद नहीं हुयी है ! आप की राजनीतिक और अर्थिक विचारधारा जो भी हो, वामपंथ हो या दक्षिणपंथ हो, पर एक बात पर सहमत होइये कि अपराधी मानसिकता के लोग उस हैसियत में कभी न आ पाए कि वह कानून बनाने लगे। हमे इसी तँत्र में ही बेहतर और जनोन्मुख सत्ता की राह ढूंढना है।
चरैवेति चरैवेति !!

© विजय शंकर सिंह

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