Saturday 17 November 2018

लोकतंत्र को अक्षुण रहने के लिये प्रेस की स्वतंत्रता को बनाये रखना होगा / विजय शंकर सिंह

16 नवम्बर 2018 को अमेरिकी अदालत ने सीएनएन के व्हाइट हाउस संवाददाता का प्रेस पास जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा रद्द कर दिया गया था उसे बहाल कर दिया है।  सीएनएन के पत्रकार अकोस्ता का व्हाइट हाउस का पास ट्रम्प ने क्यों रद्द कर दिया था, उसे हमने वीडियो और प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ साफ देखा था । और भी मित्रों ने उसे देखा होगा।  जिस अभद्रता और अहंकार से अमेरिकी राष्ट्रपति वहां स्थित पत्रकारों से रूबरू हो रहे थे और उनके सवालों का जवाब देने के बजाय उनका मज़ाक़ उड़ा रहे थे यह सब एक लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य के निर्वाचित राष्ट्रपति के लिये आपत्तिजनक लग रहा था। महिलाओं और अश्वेत पत्रकारों के प्रति उनकी हिकारत साफ दिख रही थी। उसी प्रेस वार्ता में,  सीएनएन के पत्रकार अकोस्टा के कुछ सवालों से ट्रंप असहल हुये और चिढ़ भी गये। उनकी चिढ साफ साफ दिखी भी। उन्होंने अकोस्टा को रूड ( Rude ) कहा और व्हाइट हाउस का प्रेस पास रद्द कर दिया। अमेरिका के सभी प्रेस और पत्रकारों ने चाहे वे सत्ता की विचारधारा से प्रभावित हों या विपक्ष की विचारधारा से, खुल कर सीएनएन का साथ दिया और अपना प्रबल विरोध दर्ज कराया। यह मामला अदालत में भी गया और अदालत ने इसे बहाल कर दिया।

सभी सरकारों का एक साझा उद्देश्य होता है कि वे प्रेस को अपने हित चिंतक के रूप में अपने अनुसार रखे। इसी उद्देश्य के लिये सभी सरकारी और कॉरपोरेट भी कुछ हद तक अपने अपने जन सम्पर्क विभाग का गठन करते हैं ताकि वे अपने अपने विभाग से जुड़ी सार्थक और सकारात्मक खबरें मीडिया में फैलातें रहें। इसी लिये जन सम्पर्क अधिकारी और प्रेस लाइजन अधिकारी भी रखे जाते हैं। मीडिया प्रबंधन भी एक विषय बन गया है। सरकारोँ द्वारा प्रेस वार्ताएं आयोजित की जाती हैं और अनेक दृश्य श्रव्य कार्यक्रम भी चलाये जाते हैं। यह जन सम्पर्क का एक प्रचारात्मक पक्ष है जो दुनियाभर में प्रचलित है।

सत्ता का एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि सरकार नहीं चाहती कि असहज करने वाली खबरें और आंकड़े मीडिया तक नहीं पहुंचे और अगर पहुंच भी गये हों तो वे खबरें कम से कम नकारात्मकता के साथ जनता के बीच प्रसारित हों। सरकार इसे अपने सूचना और प्रसार मंत्रालय के द्वारा प्रबंधित करती है। अब यह दायित्व मीडिया का है कि वह सरकार के धुन पर ही गुनगुनाता है या वह सरकार के आंकड़ों और खबर की तह में जाकर उन आंकड़ों की पड़ताल कर के जनता के सामने रखता है। सरकार तो अपने नकारात्मक पक्ष और कमियों को तो छुपायेगी ही, यह एक मानवीय और स्वाभाविक संस्थागत कमज़ोरी भी है। पर प्रेस का दायित्व है कि वह सच जनता के सामने लाये। जनता सच जानने के लिये ही सुबह सुबह व्याकुल रहती है। उस सच मे वह अपनी हैसियत और जगह देखती और ढूंढती है।

2014 के बाद मीडिया में चरित्रगत बदलाव आया है। क्या, क्यों, कैसे, कब, किसलिये आदि असहज करने वाले अंकुश की तरह प्रश्नचिह्न सत्ता को जब असहज करने लगे तो उन्होंने इन अंकुशों को सीधी रेखा के रूप में ढालने की कवायद की बात सोचा। जब कभी मीडिया का जन्म हुआ होगा तो यह एक सूचना औए संचार का माध्यम बना होगा। बाद में जब इसकी ताकत का अंदाज़ा लगा तो यह न केवल वैचारिक और सामाजिक क्रांति का वाहक बन गया बल्कि इसने दुनिया को बदल देने की हैसियत पा ली। भारत का पहला अखबार हिक्स बंगाल गजट था जो फोर्ट बिलियम से 1780 में प्रकाशित हुआ था। 1782 में जब इस अखबार ने तत्कालीन गवर्नर जेनेरल वारेन हेस्टिंग्स की कुछ मामलों में आलोचना की तो इसे बंद कर दिया गया। सत्ता अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करती हैं।

सत्ता का मूल भाव ही भय का होता है। जो सत्ता जितनी ही निरंकुश और स्वेच्छाचारी होती है वह उतनी ही अंदर से खोखली और डरी हुयी होती है। यह भय ही संचार माध्यमों को अपने चंगुल में रखने का प्रेरक भाव बनता है। यह सत्ता और मीडिया के बीच युद्ध जैसी एक स्थिति होती है। एक कुछ छुपाना चाहता है तो दूसरा उसे कुरेदने पर आमादा रहता है। 2014 के बाद मीडिया की धार विविध कारणों से कुंद होती गयी और मीडिया का एक वर्ग सरकार का मुखापेक्षी हो गया है। मीडिया के कुछ उपक्रमों में तो यह सत्तोन्मुखी भाव इतना व्यापक हो गया कि जब उनसे झुकने के लिये कहा गया तो वे रेंगने लगे। पर इस रासो और जी जहांपनाह काल मे भी कम ही सही पर कुछ लोग और कुछ संस्थाएं पत्रकारिता के पावन उद्देश्य के साथ खड़ी हैं, तो उनका हौसला बढाना और बनाये रखना ज़रूरी है।

सरकार ने प्रत्यक्षतः तो कोई कानूनी और दंडात्मक दबाव मीडिया की आज़ादी कम करने के उद्देश्य से नहीं बनाये पर उदारवादी अर्थ व्यवस्था के फलस्वरूप प्रेस में पूंजीवादी प्रवेश से मीडिया को सरकार ने अपने पक्ष में करने का खुल कर प्रयास किया। यह मीडिया को जी जहाँपनाह मोड में लाने का एक नया तरीका है। पत्रकारिता जो कभी मिधन हुआ करती थी अब वह एक व्यवसाय है। अब व्यवसाय को तो व्यवसाय की तरह चलाना ही पड़ेगा।  बहुत कम मीडिया संस्थान ऐसे हैं जो मीडिया की जनोन्मुखी क्षवि को बरकरार रखते हुये जनवादी मूल्यों की पैरवी करते रहते हैं। मिडिया, अपने पूंजीपति मालिकों के हित के लिये एक प्रेशर ग्रुप में भी बदलता जा रहा है। ऐसे समय जनपक्ष का स्टैंड लेने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रबुद्ध वर्ग और उन पत्रकारों पर है जो इसे गिरोहबंद पूंजीवाद या क्रोनी कैपिटलिज़्म के स्वार्थी हितलाभ से बचाते हुए जनता की आवाज़ बनाये रखें। यह काम आसान नहीं है, पर दुनिया मे जीना भी आसान कहां है।

2010 के बाद दुनिया भर में सोशल मीडिया के रूप में फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प, खबरी वेबसाइट्स, यूट्यूब आदि संचार माध्यम बेहद लोकप्रिय हुए हैं। इंटरनेट की सुगमता, उनके सस्ते होने, के कारण अभी की खबरें अभी और वह भी असंपादित रूप से तत्काल मिलने लगी है। अखबार की तलब, एक आदत की तरह तो  रहती ही है पर हथेली में पड़ा स्मार्टफोन अखबार और न्यूज़ चैनलों को आने वाले समय मे अप्रासंगिक कर सकता है। दुनियाभर में कहीं भी कहीं की भी सूचना,दृश्य श्रव्य माध्यमों से तत्काल और सर्वत्र सुलभ हो गयी है। हर आदमी एक चलता फिरता अखबार बनता जा रहा है। लोगों को खबर ही नहीं उन खबरों के पीछे का सच जानने की भी उत्कंठा बढ़ती जा रही है। लोग सच कुरेद कर जानना और देखना चाहते हैं और परंपरागत मिडिया को पहली नज़र में कभी कभी अविश्वसनीय भी मानने लगे हैं। सच का छुपाना, उसका विकृत करना अब आने वाले दिनों में परंपरागत मीडिया और अखबारों के लिये दिनोदिन कठिन होता जाएगा। वे मीडिया से बाहर अप्रासंगिक तो नहीं होंगे पर उन्हें सोशल मीडिया से मिल रही चुनौती के कारण खुद को सत्यता के नज़दीक रखते हुए, सोशल मीडिया से मिल रही प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ेगा। जनता के लिये यह शुभ संकेत है।

सत्ता जब अहंकारी हो जाती है तो वह पटरी से उतरने लगती है। वह बेअन्दाज हो जाती है। पत्रकार और प्रेस की सबसे बड़ी भूमिका और महत्व तभी समझ मे आता है जब देश, समाज और जनता एक अहंकारी और स्वार्थी शासन से पीड़ित हो। उम्मीद है हम भी एक आज़ाद, स्वस्थ सार्थक और जनोन्मुख प्रेस के साथ लोकतंत्र की राह के हमसफ़र होंगे। 16 नवम्बर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस भी मनाया जाता है।  इसी तिथि को हिंदी के अमर पत्रकार, बाबूराव विष्णु पराड़कर का जन्म भी हुआ था। प्रेस के सभी मित्रों को बधाई और उनसे आग्रह और अनुरोध है  कि वे जनहित, समाजहित और देशहित में अभिव्यक्ति की आज़ादी की अलख जलाए रखें।
निदा फ़ाज़ली का यह खूबसूरत शेर पढें।

जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये. !

© विजय शंकर सिंह

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