Thursday, 15 November 2018

एक कविता - दस्तक / विजय शंकर सिंह

बंद और जाले भरे दरवाजे,
दरार से कभी छन कर,
आती हुयी एक टुकड़ा धूप,
तो कभी गर्द ओ गुबार भरी हवा,
जैसे सदियों से न कोई आया,
न गया, न झांका ।

बाहरी दुनिया से अनजान,
हलचलों से नावाकिफ,
अंदर ही उमड़ते घुमड़ते,
तूफान से बावस्ता,
खामोशी ओढ़े,
दस्तक की आस में बैठा हूँ।

दस्तक एक सुकून है,
मेरे लिये,
एहसास भी, उम्मीद भी,
सहर का आगाज़ भी,
वक़्त की आवाज़ भी।

यादों का कहकशाँ
उतर आता है अक्सर,
भुला देता है,
रात की तारीकी,
थम जाता है,
गमों का सैलाब ।

पल भर के लिये ही थमे
तो भी, दे जाता है,
ज़िंदगी को एक ज़िंदगी।

गुजरना जब भी इस राह से,
बंद, धूल से अटे,
जालों से भरे
इस भारी दरवाजे को
बस थपथपा देना।

© विजय शंकर सिंह

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