Monday, 19 November 2018

नेहरू आज फिर प्रासंगिक हो गए हैं / विजय शंकर सिंह

नवम्बर 14 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन था। मैंने इतनी गर्मजोशी से उन्हें स्मरण करते हुये लोगों को पिछले कई सालों में नहीं देखा है। सोशल मीडिया उनसे जुड़े लेखों, चित्रों, संस्मरणों और उनसे जुड़ी कहानियों से भरा पड़ा है। कभी तीनमूर्ति संग्रहालय में जन्मदिवस के औपचारिक सामारोह और सुबह सुबह शांतिवन में जाकर कुछ लोगों द्वारा पुष्पांजलि अर्पित करने के अतिरिक्त और कोई समारोह कम ही होता था। पर इस साल लगा जैसे नेहरू नींद से जाग गए हों। उनकी जरूरत देश को आन पड़ी हो। घर की दीवार पर बदरंग टँगी उनकी फोटो अचानक मुस्कुरा उठी हो, और उनके मूल्य, सिद्धांत,  भाषण, और योगदान अचानक प्रासंगिक हो उठे हो। वे अब महज औपचारिकता ही नहीं रहे एक ज़रूरत बन गए हों । नेहरू लोकप्रिय थे। बेहद लोकप्रिय। पर उनकी आलोचना भी कम नहीं हुयी।उनके प्रखर आलोचक डॉ लोहिया ने एक भी अवसर नेहरू की आलोचना का नहीं छोड़ा पर दोनों ने ही लोकतांत्रिक गरिमा का सदैव खयाल रखा।

वर्ष 2012 से देश के राजनीतिक विचारधारा के इतिहास क्रम में एक बदलाव आया है । यह बदलाव गैर कांग्रेस के वैचारिक विरोध या यूं कहें यह कांग्रेस से अधिक नेहरू के वैचारिक विरोध के काल के रूप में प्रारंभ हुआ है । भाजपा ने नेहरू को कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं पटेल, सुभाष से अलग कर के नेहरू पर ही वैचारिक हमले क्यों किये यह आप इसी लेख में आगे पढ़ेंगे। पर ज़रा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी समझ लें।  साल 2012 में सेकुलरिज्म के सवाल पर उभय विचारधाराओं में टकराव को साफ देखा जा सकता है । भाजपा का एक बड़ा धड़ा जो संघ से आया हुआ है ने जानबूझकर कर देश के सेकुलर चरित्र और संविधान के सेकुलर स्वरूप के खिलाफ खुलकर बोलना शुरू किया। यह प्रवित्ति अटल सरकार के समय नहीं आयी थी। तब भी यह धड़ा सेकुलरिज्म के विरोध में तो था, पर उतनी मुखरता और आक्रामकता नहीं थी जितनी 2014 के चुनाव के बाद आयी है। सेकुलरिज्म के खिलाफ सबसे पहले छद्म धर्मनिरपेक्षता शब्द भाजपा ने ही राम मंदिर आंदोलन के समय गढा था। पर सोशल मीडिया के अभाव के कारण एक अभियान के रूप में धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध कोई प्रोपैगैंडा तब लोकप्रिय नहीं हो सकता था।  2012 से लेकर 2014 तक धर्मनिरपेक्षता का विरोध और सेकुलर ताकतों को हतोत्साहित करने का एक तयशुदा एजेंडा मीडिया में पहली बार डाला गया । आप मीडिया डिबेट की प्राथमिकता का अध्ययन करेंगे तो समझ जाएंगे। यूपीए 2 की सरकार जो अनेक घोटालों में घिरी थी, के विरुद्ध अन्ना हज़ारे का आंदोलन चल रहा था और मनमोहन सिंह की सरकार के विरुद्ध जनमानस बन भी रहा था। वैसे भी भ्रष्टाचार देश में सबसे लोकप्रिय और भीड़खींचू मुद्दा बन जाता है । इसी मुद्दे को कैमोफ्लाज कर धर्मनिरपेक्षता विरोधी संगठन सामने आए। पहली बार धर्मनिरपेक्षता के औचित्य और उसके प्रासंगिकता पर खुल कर सवाल उठने लगे। संविधान के मूल ढांचे पर भी सवाल कुछ ने उठाये। सेकुलर के लिये सिकुलर जैसे मजाकिया शब्द गढ़े गये। सोशल मीडिया पर संगठित रूप से धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध उसे बदनाम करने का एक संगठित अभियान चला। यह संघ का मूल एजेंडा था जो इसके जन्मकाल से पोशीदा था, पर 2012 के बाद सोशल मीडिया की सक्रियता के कारण अचानक बेनकाब हो गया।

धर्मनिरपेक्षता पर हमले के लिये सबसे पहले लक्ष्य जवाहरलाल नेहरू चुने गए। वे न केवल संविधान के निर्माताओं में से एक थे बल्कि सेकुलरिज्म के प्रबल समर्थक भी थे। जब बंटवारे की बात चल रही थी तो मुस्लिम लीग के नेता एमए जिन्ना और हिन्दू महासभा के डीवी सावरकर दोनों ही अंग्रेज़ों के साथ थे। कांग्रेस के सभी बड़े नेता भारत छोड़ो आंदोलन के बाद जेलों में बंद कर दिए गए थे।  जिन्ना का मक़सद था पाकिस्तान, इस्लाम पर आधारित राष्ट्र की स्थापना करना और सावरकर का भी यही उद्देश्य था कि वे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करें। पर जिन्ना जितना मुस्लिमों में लोकप्रिय थे सावरकर हिंदुओं में उतने लोकप्रिय बिल्कुल नहीं थे। जैसे ही द्वीतीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ, और अंग्रेज़ों ने यह तय कर लिया कि उन्हें यह देश छोड़ कर जाना है तो आज़ादी की औपचारिक बातचीत के लिये गांधी समेत सभी बड़े नेता जेलों से छोड़ दिये गए। उधर जिन्ना तो द्विराष्ट्रवाद के आधार पर मुसलमानों के लिये पाकिस्तान की मांग पर अड़े रहे पर कांग्रेस ने अलग होने के बाद एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का अपना लक्ष्य पहले ही घोषित कर रखा था। सावरकर जिस हिन्दू राष्ट्र की बात 1937 के हिन्दू महासभा के सम्मेलन में घोषित कर चुके थे अब उसका कोई नामलेवा भी शेष नहीं बचा रहा। 1947 में जब देश बंटा तो धर्म के आधार पर पाकिस्तान बना जब कि भारत धर्मनिरपेक्षता के आधार पर अस्तित्व में आया। हमने अपने संविधान को इसी विचारधारा के आधार पर अंगीकार किया है।

30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या कर दी गयी। हत्या करने वाले गोडसे जो पहले आरएसएस से जुड़ा था उस समय हिन्दू महासभा का सदस्य था। नेहरू, पटेल, आज़ाद, डॉ राजेन्द्र प्रसाद आदि नेता सेकुलरिज्म के प्रति समर्पित थे। पटेल 1950 में दिवंगत हो गए। नेहरू 1964 तक सर्वमान्य नेता के रूप में बने रहे। देश के इस शैशव काल मे सेकुलरिज्म, सोशलिज्म, उदारवाद, आदि मूल्य मजबूती से स्थापित हुए और धर्मनिरपेक्ष विरोधी ताकतें संविधान के सेकुलर मूल्यों के विरोध में होते हुए भी, कभी खुल कर धर्मनिरपेक्षता का विरोध नहीं कर पायी। यहां तक 1998 से 2004 तक  जब बीजेपी सत्ता में थी तब भी सेकुलरिज्म के विरोध की बात खुल कर कहने का साहस किसी मे नहीं था। अटल जी खुद को तो सेकुलरिज्म के पक्ष में कहते थे। पर संघ का कोर ग्रुप संविधान के इस स्वरूप से खुश नहीं था और न आज है । वह अभी भी 1937 के हिन्दू राष्ट्र के हैंगओवर में है। अगर नेहरू जैसा लोकप्रिय और उदार मूल्यों में आस्था रखने वाला तपातपाया नेता लंबे समय तक सत्ता में नहीं रहता तो धर्मनिरपेक्ष विरोधी ताकतें निश्चय ही सक्रिय हुयी होतीं पर नेहरू ने न केवल इनका खेल बिगाड़ दिया बल्कि उन्होंने ऐसी नींव डाली कि सेकुलरिज्म के खिलाफ ये कुछ भी न कर सके। नेहरू को इन मूल्यों की स्थापना में संघ समर्थकों को छोड़ कर सभी प्रगतिशील ताकतों का समर्थन प्राप्त था।

स्थिति बदली 2014 में जब बीजेपी अपने दम पर पूर्ण बहुमत में आयी और इस बहुमत के लिये सोशल मीडिया का अभियान काफी हद तक जिम्मेदार रहा। 2014 के बाद जब भाजपा पूर्ण बहुमत में आयी तो संघ परिवार का अपना एजेंडा जो उन्होंने, 1937 में घोषित किया था, अचानक सतह पर आ गया। सबका साथ सबका विकास और संकल्पपत्र के वायदे आलमारी में बंद कर दिए गए क्यों कि उनकी भूमिका सरकार बनते ही समाप्त हो चुकी थी। अचानक नए मुद्दे और प्रतीक सामने आने लगे। पहले घरवापसी, फिर लव जिहाद, फिर गौमांस, फिर गौरक्षा आदि  मुद्दे उभरे जिनका कोई उल्लेख ही संकल्पपत्र में नहीं था। परिणामस्वरूप देश मे विशेषकर उत्तर  भारत मे साम्प्रदायिक विभाजन करने की पुरजोर कोशिश की गयी। शहरों और गांवों में यह खेल खुल कर खेला गया और आभासी दुनिया यानी साइबर संसार मे तो एक और खतरनाक खेल की भूमिका बहुत पहले से बन गयी थी उसे अब अंजाम दिया गया। बाकायदे ट्रॉल्स की भर्ती की गयी। उन्हें एक तयशुदा एजेंडे पर काम करने के लिये मिथ्या खबरें, फोटोशॉप की गयी तस्वीरें दी गयीं और गोएबेल की कुख्यात नसीहत कि एक झूठ सौ बार बोलो लोग उसे सच मान बैठते हैं भी दी गयी । गोएबेलिज़्म प्रोपेगैंडा का यह एक प्रकार से भारतीय संस्करण बना।

नेहरू 1964 में दिवंगत हो चुके थे। उनकी जयंती के अतिरिक्त और कोई उत्सव मनाया भी नहीं जाता था। वक़्त ने उनकी स्मृति को भुलाना शुरू कर दिया था। उनके मृत्यु के बाद पैदा हुयी पीढ़ी प्रौढ़ होने लगी थी। तभी उनके जीवन, माता पिता, पत्नी, पुत्री, पुरखों आदि बारे में, विकिपीडिया, गूगल, फेसबुक, व्हाट्सअप, तथा अन्य सोशल मीडिया पर ऐसी ऐसी दुष्प्रचरात्मक जानकारियां साझा की जाने लगीं कि इंटरनेट पर भ्रामक खबरों की भरमार हो गयी।  एक अभियान के अनुसार, नेहरू के पुरखों को अफगानिस्तान का मुस्लिम, उन्हें अय्याश और फिजूलखर्ची से भरा हुआ एक गैर जिम्मेदार नेता के रूप में प्रचारित किया गया। गूगल और विकिपीडिया कोई शोध ग्रन्थ नहीं हैं। वे एक खुले पुस्तकालय की तरह हैं। कोई भी कुछ भी लिखकर सायबर संसार मे डाल सकता है। वहां की मूल सामग्री को एडिट करके कुछ भी बढ़ा घटा सकता है। अक्सर लोग ऐसी सामग्रियों की पुष्टि नहीं करते हैं । इसका कारण, कुछ तो लोगों की तथ्यों के तह में जाने की ज़रूरत नहीं होती है और कुछ में ऐसी रुचि का अभाव भी होता है तो अधिकांश लोग, ऐसी खबरों को सरसरी नज़र से पढ़ कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन अवचेतन में पैठा यह अपशिष्ट नेहरू के प्रति एक विपरीत विचार बनाता और गढ़ता रहता है।  नेहरू की विपरीत क्षवि बनाने का एक ही कारण था कि नेहरू को ही इस बात के लिये पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया जा सके कि अकेले उन्हीं के कारण देश की सारी कथित दुर्गति हुयी है। अकेले नेहरू और गांधी के कारण देश का बंटवारा हुआ और उनकी ही ज़िद के कारण, देश हिन्दू राष्ट्र होते होते रह गया। गांधी को वे मार चुके थे,  पटेल 1950 में दिवंगत हो गए थे, सुभाष तो 1945 में ही लापता हो गए थे केवल नेहरू ही अकेले थे जो कांग्रेस में एक मज़बूत स्तम्भ थे। इसी लिये कभी पटेल तो कभी सुभाष दोनों को ही गांधी नेहरू द्वारा उपेक्षित और अपमानित किये जाने की कहानियां गढ़ी गयीं और उनका खूब दुष्प्रचार भी किया गया। जबकि ये सभी नेता जिन्हें भाजपा अपने नायक के रूप में अक्सर हाईजैक कर के प्रस्तुत करती है, अपने जीवनकाल में साम्प्रदायिक ताकतों के विरुद्ध खुल कर खड़े और लड़े थे । देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान के वे साझे निर्माता थे। वे सभी बंटवारे के समय इस बात पर दृढ और एकमत थे कि आज़ाद भारत धर्मनिरपेक्ष, उदार और लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही अपनाएगा। धीरे धीरे वे सभी नेता जो नेहरू से उम्र और कद में बड़े थे, दिवंगत हो गये या संवैधानिक पदों पर आ गए थे। नेहरू के कंधे पर न केवल देश की आर्थिक प्रगति का भार आ गया बल्कि उनपर संविधान के अनुसार संविधान के मूल्यों को संजोए रखने का भी दायित्व आ पड़ा। था। नेहरू ने यह दायित्व बेहद कुशलता से अपनी मृत्यु तक निभाया।

सरकार और सत्तारूढ़ दल के सोचे समझे एजेंडे के अंतर्गत जब नेहरू विरोधी वातावरण बनाने की कोशिश की गयी तो लोगों ने नेहरू पर उपलब्ध साहित्य पढ़ना शुरू किया। गांधी नेहरू पटेल सुभाष आज़ाद आदि से जुड़े पत्राचार, स्वाधीनता संग्राम के दस्तावेज, नेहरू की लिखी किताबों की तरफ लोगों की रुचि जागी। विवादित विषय, व्यक्ति और प्रकरण स्वभावतः लोगों को खींचते भी हैं।  फिर से नेहरू को जानने और समझने का दौर लौटआया। यह एक प्रकार से नेहरू के पुनर्मूल्यांकन और उनसे जुड़े साहित्य, दस्तावेजों और इतिहास के पुनर्पाठ का दौर बन गया है।  नेहरू के इर्दगिर्द उनके निजी जीवन, विवाहेतर सम्बंध, महिलाओं के साथ विभिन्न मुद्राओं में फोटोशॉप किये या मिथ्या संदर्भो के साथ फ़ोटो के द्वारा जो इंद्रजाल रचा जा रहा था वह बिखरने लगा। यह मायाजाल प्रदूषण के स्मॉग की तरह था। तस्वीर साफ होने लगी। नेहरू अचानक प्रासंगिक हो उठे। पटेल, सुभाष जिन्हें नेहरू विरोध में मिथ्या नायक के रूप में हाईजैक कर के नेहरू को बदनाम करने की जो साज़िश रची गयी वह खुद ब खुद बेनकाब होने लगी। पटेल और सुभाष से जुड़े दस्तावेजों के अध्ययन से संघ और हिन्दू महासभा से जुड़े ऐसे ऐसे तथ्य सामने आए कि यह सारा अभियान ही बैकफायर हो गया। लोग सच समझने लगे। साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा संविधान के मूल्यों पर जो सुनियोजित हमले किये जा रहे थे उनके खिलाफ लोग एकजुट होने लगे। 2014 के किये वादे तो पूरे हुए नहीं, अलबत्ता ऐसी समस्याएं सत्तारूढ़ दल ने जानबूझकर कर पैदा कर दीं, जिससे देश और समाज मे विभाजनवाद की मानसिकता विकसित होने लगी। नेहरू जो कल इन साम्प्रदायिक और फासिस्ट ताकतों को असहज करते थे, वे आज भी इनके गले की हड्डी बन गए हैं । कभी नेहरू को पटेल से लड़ाने तो कभी सुभाष की उपेक्षा आदि की कहानियां झूठ के पुलिंदे साबित हुए।

आज़ादी के बाद नेहरू की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने एक प्रगतिशील और आधुनिक भारत का सपना देखा और देश को उसी दिशा में ले गए। विकास उनके लिये सत्तासीन होने का सोपान नहीं था बल्कि देश को जो एक लंबी गुलामी के बाद जगा था को सभ्य, आधुनिक और वैज्ञानिक सोच की ओर ले जाने का एक अवसर था। आर्थिक नीति में निजी और सरकारी दोनों ही क्षेत्रों को मिला कर मिश्रित अर्थव्यवस्था के स्वरूप को उन्होंने चुना। इंजीनियरिंग, मेडिकल, विज्ञान, अंतरिक्ष आदि से जुड़े कार्यक्रम शुरू किये शिक्षा को आधुनिक बनाया और इन सबको निर्धारित समय पर पूरा करने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं चलाई। आज़ाद खयाली और अपनी आलोचना को उन्होंने कभी भी हतोत्साहित नहीं किया। अपार बहुमत के बाद भी नेहरू सरकार पहली सरकार थी, जिसने 1963 में डॉ लोहिया द्वारा पेश किये गए अविश्वास प्रस्ताव का लोकतांत्रिक मर्यादा और परम्परा के साथ सामना किया। ऐसा भी नहीं कि नेहरू की नीतियों में गलतियां नहीं थी। कश्मीर और 1962 की चीन के हांथों मिली हार उनके विपरीत पक्ष हैं। इन दो मुद्दों पर उनकी बहुत आलोचना होती है और होती भी रहेगी। पर जिस विचारधारा और समतामूलक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा की ओर वे बढ़े थे उसे वे अपने मृत्यु तक इतना पुख्ता कर गए कि इन मूल्यों के खिलाफ खड़े होने वालों को पराजय ही झेलनी पड़ी ।

आज सरकार का एजेंडा बदला बदला सा है। पाश्चात्य और प्रगतिशील वैज्ञानिक शोधों की तुलना में सिर्फ धर्म को प्रासंगिक बना कर 1937 के मरे हुए द्विराष्ट्रवाद को स्थापित करने के लिये वेदों से विज्ञान को जोड़ने और अतीत के कानन में भटकाने की कोशिश की जा रही है और सरकार के मंत्रियों का न केवल इस कार्य मे पूरा समर्थन है बल्कि वे येन केन प्रकारेण ऐसी मूर्खतापूर्ण बयानबाज़ी करते हैं कि न केवल उनका मजाक उड़ता है बल्कि दुनिया भर के अकादमिक संस्थानों में हमारी खिल्ली उड़ायी जाती है। गाय के प्रति पागलपन भरा अनुराग दरअसल गोवंश के प्रति श्रद्धाभाव से उतना प्रेरित नहीं है जितना साम्प्रदायिक घृणा के कारण है। यूजीसी, आईआईटी, आईआईएम, बड़े वैज्ञानिक शोध केंद्रों के न केवल बजट कम कर दिए गए बल्कि उन्हें प्रतिगामी बनने के लिये बाध्य किया जा रहा है। प्रगतिशील विचारधारा वैचारिक चर्चा तथा प्रबुद्ध बहस को हतोत्साहित किया गया। एक ऐसी पीढ़ी पैदा करने का षडयंत्र किया जा रहा है जो भावुक, अतीतजीवी, तर्कशून्य, और शिक्षा से हीन हो। उद्देश्य एक ही है कि 1947 में जो जिन्ना पा गये थे वह हम अब तो कम से कम पा जांय। पर यह वे नहीं देखेंगे कि जिन्ना ने जो पाया था वह ज़हर आज इतना बढ़ चुका है कि आज पाकिस्तान किस गति को प्राप्त हो रहा है। अजीब विडंबना है, वे पाकिस्तान से चिढ़ते भी हैं और पाकिस्तान की तर्ज़ पर धर्म आधारित राष्ट्र भी चाहते है !

ऐसी परिस्थिति में आज फिर नेहरू प्रासंगिक हो गए हैं। नेहरू ही नहीं बल्कि वह पूरी पीढ़ी और उनके विचार, जो उस समय एक उदार, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और आर्थिक समानता के उद्देश्य से  आज़ादी के बाद देश के कायाकल्प जुटे थे, आज फिर प्रासंगिक हो गये है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रतिगामी और कट्टरपंथी ताकतों को हतोत्साहित किया जाय, ताकि भारत सामाजिक सद्भाव के साथ अपने सामने खड़ी असली चुनौतियों से पार पा सके और एक समृद्ध, विकसित और तर्क तथा वैज्ञानिक मेधा युक्त देश बने।

© विजय शंकर सिंह

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