Sunday, 18 November 2018

Ghalib - Kab se huun, kyaa bataaun jahaan e kharaab mein - कब से हूं क्या बताऊँ जहान ए खराब में - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 103.

कब से हूं, क्या बताऊँ जहान ए खराब में,
शबहाये हिज्र को रखूं, गर हिसाब में !!

Kab se huun, kyaa bataaun jahaan e kharaab mein,
Shab'haaye hijra ko bhii rakhuun, gar hisaab mein !!
- Ghalib

यदि मैं अपनी विरह के रातों को भी जोड़ लूँ तो, कष्ट और पाप से भरे संसार मे कब से हूं, बता नहीं पाऊंगा।

ग़ालिब के इस शेर में उनकी बेबसी झलकती है। वे इस संसार मे खराब या पाप युक्त समझते हैं। वे क्या बताएं इस जहान ए खराब में कब से है। कोई दुख के दिन गिन पाया है। वक़्त अगर बुरा है तो वह अनंत की तरह खोह में जाती हुए अंधेरे मार्ग के समान दिखता है। ग़ालिब के अनुसार वे क्या बताएं कि उन्होंने कितनी रातें और दिन काटें हैं। फिर अगर उन्हें ढूंढ ढाँढ कर याद कर भी लें और उसमें अपने विरह के दिन जोड़ दें तो यह समय इतना अधिक हो जाएगा वे याद ही नहीं कर पाएंगे । यह बेबसी उन्हें अक्सर बेखुदी में पहुंचा देती है।

इसी तर्ज पर ग़ालिब से सदियों पहले पैदा हुए कबीर भी कुछ इसी प्रकार कह गए हैं। कबीर संत थे, फक्कड़ थे,मसि कागद से अनछुए और वीतरागी थे, पर ग़ालिब एक सुसंस्कृत, सुरुचिपूर्ण खानदान, उत्कृष्ट कोटि के शायर और दिल्ली के बादशाह के दरबार के एक रत्न थे। यहां दोनों की कोई तुलना नहीं है। पर कभी कभी एक ही चीज दोनों में मिलती है दोनों का सूफियाना मिजाज।

कबीर का यह दोहा पढ़े,
बहुत दिननि की जीवनी बाट तुम्हारी राम,
बिन तरसे तुम मिलन कूं, मन नाहीं विश्राम !!

मैं बहुत दिन से हे राम तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ, तुझसे मिलने को मेरा हृदय मचल रहा है और मन को चैन नहीं है ।

कबीर और ग़ालिब के उपरोक्त शेर में एक समता तभी ढूंढी जा सकती है जब कबीर के दोहे और ग़ालिब के शेर को सूफियाना दर्शन से देखें । कबीर भी संसार से मुक्त होना चाहते हैं, बेचैन हैं और ग़ालिब को भी यह संसार बुरा पाप युक्त लगता है और वे इसे निराश भाव से देखते हैं। ग़ालिब को जब विरह के दुःख याद आते हैं तो संसार और दुःखमय और लंबा लगने लगता है।

© विजय शंकर सिंह

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