भारत एक कृषि प्रधान देश है । भारत माता ग्रामवासिनी, धूल भरा मैला सा आँचल । अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे ! आदि आदि। यह सब पंक्तियां जब बचपन के किसान और ग्रामीण जीवन पर निबंध लिखने के लिये कहा जाता था तो बरबस याद आ जाती थीं। आज फिर याद आ रही हैं। यह हम सब बचपन से सुनते आए हैं कि किसान अन्नदाता है। अनाज उपजाता है। खुद भूखा रह जीवन हमको देता है। हम उसके ऋणी हैं। सुंदर शब्द अगर लालित्य से भर जांय तो तरंगायित हो कविता लगने लगते हैं। आदर्शवाद का यह चेहरा यथार्थ की धरातल पर आते ही कैसा विद्रूप हो जाता है, कभी गांव देहात में जाइये तो आभास हो।
काल्पनिक जगत से हट कर अब कुछ यथार्थ की चर्चा हो जाय । सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जेएस केहर की अध्यक्षता में तीन जजों वाली एक बेंच जो सिटिजन रिसोर्स एंड एक्शन इनीशिएटिव की तरफ से दायर की गई एक याचिका, जो किसानों की स्थिति और उसमें सुधार की कोशिशों से सम्बंधित थी की सुनवायी कर रही थी। अदालत ने सरकार से किसानों की आत्महत्या के बारे में आंकड़े मांगे। सरकार के अनुसार, हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में, सरकार ने बताया कि, देश में साल 2014 से 2016 तक, तीन वर्षो के दौरान ऋण, दिवालियापन एवं अन्य कारणों से करीब 36 हजार किसानों एवं कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की है। कृषि मंत्री ने 2014, 2015 के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े तथा वर्ष 2016 के अनंतिम आंकड़ों के हवाले से लोकसभा में यह जानकारी दी।
गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ‘भारत में दुर्घटना मृत्यु तथा आत्महत्याएं’ नामक प्रकाशन में आत्महत्याओं से जुड़ी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 में 12360 किसानों एवं कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की । जबकि वर्ष 2015 में यह आंकड़ा 12602 था । वर्ष 2016 के लिये राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनंतिम आंकड़ों के मुताबिक 11370 किसान एवं कृषि श्रमिकों के आत्महत्या की बात सामने आई है। कृषि मंत्रालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्ष 2015 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में दिवालियापन या ऋण के कारण 8007 किसानों और 4595 कृषि और कृषि मज़दूरों ने अपनी जान दी।
कितना अंतर है रूमानी आदर्शवाद और इस तल्ख हक़ीक़त में। देश के प्रमुख पत्रकार और किसानों की दशा और दिशा पर नियमित अध्ययन करने वाले मैग्सेसे पुरस्कार विजेता, पी. साईनाथ ने एक अध्ययन में बताया कि " 1991 से 2011 के बीच लगभग 2000 किसानों ने रोज खेती छोड़ी। इस अवधि में, खेती से कुल 1 करोड़ 49 लाख किसान कृषि कार्य से दूर हुए। " उन्होंने किसान और सीमांत किसान के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए बताया कि वर्ष में 180 दिन से ज्यादा खेती करने वाला व्यक्ति जनगणना के अनुसार किसान है और 180 दिन से कम खेती से जुड़ा व्यक्ति सीमांत किसान है। उन्होंने बताया कि सीमांत किसानों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। वे आगे कहते हैं कि " खेती पर 1997 से ही संकट के बादल मंडराने लगे थे । लेकिन न तो मीडिया ने और न ही जनप्रतिनिधियों ने इस विपदा के बारे में कोई उत्सुकता दिखायी। 2000 ई के बाद ही अखबारों में इस विषय पर कुछ चर्चा करनी शुरू की।
किसानों की आत्महत्या के आंकड़े इकट्ठा करने में सरकारें घालमेल कर रही है। अब वे ऐसे आंकड़े भी नहीं इकट्ठा कर रहे हैं। 12 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों ने घोषित कर दिया है कि उनके राज्यों में किसान आत्महत्या का कोई मामला सामने नहीं आया । कर्नाटक राज्य में किसानों की आत्महत्या 46 फीसदी कम हुई लेकिन अतिरिक्त आत्महत्याएं 235 फीसदी बढ़ गई। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारें किसानों की आत्महत्या के आंकड़े दिखाने में कितना गड़बड़झाला कर रही है। महिला किसानों की दयनीय स्थिति की ओर ध्यान खींचते हुए साईनाथ एक लेख में लिखते हैं कि " 60 प्रतिशत से अधिक खेतीबाड़ी का काम महिलाएं करती है। फिर भी महिलाओं का नाम किसान के तौर पर सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नहीं होता है। " किसान सूखे की समस्या से नहीं बल्कि जबरदस्त पानी के संकट से जूझ रहे है। यह संकट लगातार दस अच्छे मानसून आयें तो भी कम नहीं हो सकेगा।
किसानों की सबसे बड़ी समस्या फसल का उचित मूल्य न मिलना है। पानी, मौसम, श्रम आदि की अनुकूलता के बावजूद अगर फसल हो भी जाय तो उसके उत्पाद का क्या किया जाय। लागत न मिलना किसानों की सबसे बड़ी त्रासदी रही है। अक्सर फसल अधिक है और खरीददार कम तो किसान के लिये अच्छी फसल भी आफत बन जाती है। 2014 में भाजपा ने वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आते हैं तो स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को लागू करेंगे। इस रिपोर्ट के अनुसार उपज की कीमतों को तय करते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि किसानों को फसल की लागत पर 50 फीसदी का मुनाफा मिले। इसे लेकर 2014 से अब तक महाराष्ट्र, राजस्थान, एमपी में अनेक किसान आन्दोलन खड़े हुए। मंदसौर में तो किसानों के मार्च पर गोलियां चलायीं गयीं और कुछ किसान मरे भी। पर राजनीतिक खींचतान और स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा की व्याख्या पर ही यह मामला उलझ गया।
एक तरफ फसल की लागत के अनुपात में किसान को उसकी कीमत नहीं मिल रही है, दूसरी तरफ खेती के काम में आने वाले उर्वरकों, कीटनाशकों और बीजों के दाम बढ़ते जा रहे हैं और सरकार भी इन्ही कम्पनियों की मूल्य वृद्धि की नीति के साथ खड़ी दिखती है । उसने निजी कम्पनियों को कीमत बढ़ाने की खुली छूट दे रखी है। परिणामस्वरूप, पिछले 25 वर्षों में खेती की लागत में दो गुनी से चार गुनी तक बढ़ोतरी हो चुकी है. जबकि इस दौरान किसानों को मिलने वाली उपज की कीमतों में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। कृषि अर्थशास्त्रियों के अनुसार, कृषि लागत की परिभाषा का पुनरीक्षण करने की आवश्यकता है। अभी तक लागत में केवल, खाद, बीज, श्रम आदि चीजों को ही आधार माना जाता है जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य पर होने वाला व्यय बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। जबकि सरकारी और निजी क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा के भत्ते भी दिए जाते हैं। किसानों द्वारा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरी सेवाओं पर किए जाने वाले खर्चों को भी लागत में शामिल किये जाने पर विचार करना चाहिये।
विकास, सभी चुनावों में सभी राजनीतिक दलों का एक पसंदीदा मुद्दा रहता है। पर विकास के मुद्दे में कहीं किसान और कृषि है भी यह आमतौर पर नहीं दिखता है। विकास का अर्थ सड़कें, पुल, रेलवे, उद्योग, आयात निर्यात आदि समझा जाता है और इन्हीं विषयों पर बात भी होती है पर किसान और कृषि पर न तो संसद कभी गम्भीरता से विचार करती है और न ही मीडिया के लिये यह कोई प्रमुख विषय बनता है। कभी भी संसद ने कृषि संकट की पड़ताल और उसके समाधान के लिये विशेष चर्चा नहीं की है। उद्योगपतियों के हित के लिये जितनी गर्मजोशी से कैबिनेट की बैठक बुलायी जाती है, उसकी तुलना में किसानों की समस्या पर ऐसी तेजी कम ही दिखती है। सरकारें तभी जगती हैं जब किसानों ने घेराव या बड़ा आंदोलन कर रखा है और सरकार कानून व्यवस्था बिगड़ने के भय से बैकफुट पर आ गयी हो। कृषि संकट पर गंभीर चर्चा के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाना चाहिए।. जिसमें एक दिन स्वामीनाथन रिपोर्ट पर विस्तार से चर्चा हो। उसी में किसानों की आत्महत्या और फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य, कीमतों के निर्धारण पर भी गंभीर चर्चा होनी चाहिये। अगर स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा, समय के साथ साथ अव्यवहारिक हो गयी हो तो उस पर पुनर्विचार भी किया जा सकता है। पर यह वादा करने के बाद कि स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा मानी जायेगी, और बाद में, यह कहना कि वह अव्यवहारिक है किसानों की समस्या को टरकाना ही है। यह राजनीतिक दल का गैरजिम्मेदाराना आचरण है।
किसानों के कर्जे माफ होंगे यह सबसे आसान वादा है। पर क्या किसानों के कर्ज़ माफ होने से उन्हें वाकई में कोई लाभ मिलता है या मिला है। इस विंदु पर शोध करने वाले कृषि अर्थ शास्त्रियों का मानना है कि, "अधिकतर जरूरतमंद किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है। यूपीए के समय दिए गए कर्जमाफी के दौरान यह पाया गया कि कई किसानों के पास बैंक खाते भी नहीं होते हैं। ऐसे किसानों को कर्जमाफी का लाभ नहीं मिल पाया । " इस विषय पर महाराष्ट्र के किसानों का अध्ययन करने वाले एक समूह के अनुसार, " कर्जमाफी के लिए कृषि जोत की सीमा निर्धारित कर देने से भी कई किसानों को कर्जमाफी नहीं मिली। पश्चिम महाराष्ट्र में 2 एकड़ खेत रखने वाला किसान विदर्भ में 5 एकड़ खेत रखने वाले किसान से अधिक बेहतर हालात में है लेकिन कर्जमाफी के लिए जोत की सीमा तय कर देने से विदर्भ के ऐसे किसानों को कर्जमाफी नहीं मिली। " लेकिन कर्जमाफी का वादा किसानों के हित मे है। कॉरपोरेट जगत का जितना कर्ज़, एनपीए हो कर राइट ऑफ कर दिया जाता है उनकी तुलना में किसानों को दिया गया कर्ज कुछ भी नहीं है। हालांकि साईनाथ के एक लेख के अनुसार, " किसानों के लिए अभी तक जितनी भी कर्जमाफी की घोषणा की गई है उसका लाभ छोटे कर्जदार किसानों को नहीं मिला है और न ऐसे मानक और मापदंडों से मिलने की संभावना है। "
बीच मे फसलों की उत्पादकता और अधिक बढाने के लिये जीएम फसलों को विकसित करने की बात भी की गई। अब संक्षेप में इसके बारे में भी जान लें। जीएम ऑर्गेनिज्म (पौंधे, जानवर, माइक्रोऑर्गेनिज्म) में डीएनए को इस तरह बदला जाता है जो प्राकृतिक तरीके से होने वाली प्रजनन प्रक्रिया में नहीं होता है। जीएम टेक्नोलॉजी के तहत एक प्राणी या वनस्पति के जीन को निकालकर दूसरे असंबंधित प्राणी/वनस्पति में डाला जाता है. इसके तहत हाइब्रिड बनाने के लिए किसी माइक्रोऑर्गेनिज्म में नपुंसकता पैदा की जाती है। इसका उद्देश्य यह है कि जीएम फसलों की उत्पादकता और प्रतिरोधकता अधिक होती है जिसके माध्यम से प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने वाली पौध नस्लें तैयार की जा सके। लेकिन इस तकनीक की उपयोगिता पर ही कृषि वैज्ञानिकों में विवाद हुआ और यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। इसके खतरे जब सामने आये तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जीएम फसलों पर वैज्ञानिकों की टीम गठित की गयी है जिसने अध्ययन के बाद, जीएम फसलों को दिए रहे प्रोत्साहन को हानिकारक बताया है। कुछ कृषि वैज्ञानिकों की राय थी इससे किसानों को नहीं बल्कि जीएम बीज उत्पादक कम्पनियों को अधिक लाभ होता।
खेती के सामने एक और बड़ी समस्या उत्पन्न हो रही है, वह है खेती करने वाले किसानों का अभाव। शहरीकरण और खेती को आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी होते जाने के कारण, किसानों की संख्या में कमी आयी है। यह कमी ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में क्रमशः घटती और बढ़ती आबादी के कारण, 2011 के जनगणना आंकड़ो से देखी जा सकती है। किसानों की वास्तविक जनसंख्या में हो रही यह कमी चिंताजनक है। इस पर एक कार्यदल द्वारा किये गए अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार, " पिछले साल खेती करने वालों की संख्या में 50 लाख की कमी आई है यानी हर दिन खेती करने वाले लोगों की संख्या में 2000 की कमी आ रही है। इस बात पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि इन किसानों की जमीन कहां जा रही है और ये किसान कहां जा रहे हैं । " पिछले 20 सालों में हर दिन दो हज़ार किसान खेती छोड़ रहे हैं। ऐसे किसानों की संख्या लगातार घट रही है जिनकी अपनी खेतीहर ज़मीन हुआ करती थी और ऐसे किसानों की संख्या बढ़ रही है जो किराये पर ज़मीन लेकर खेती कर रहे हैं. इन किरायेदार किसानों में से 80 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबे हुए हैं.। किसान धीरे-धीरे कॉरपोरेट घरानों के हाथों अपनी खेती गंवाते जा रहे हैं। किसान तो कम हो रहे हैं और, वे बेहतर और लाभकारी आजीविका की तलाश में शहरों की ओर तो पलायन भी कर रहे हैं, पर उनकी ज़मीने कहां जा रही है ? इस पर अध्ययन किया गया तो ज्ञात हुआ कि उनकी ज़मीनें पूंजीपतियों को उद्योग स्थापना की प्रत्याशा में सरकार द्वारा या तो दे दी जा रही हैं या वे खुद ही खरीद ले रहे हैं। किसानों का मज़दूरों के रूप में एक प्रकार का यह गुपचुप प्रत्यावर्तन हो रहा है। यह बदलाव खेती किसानी के लिये भविष्य में घातक हो सकता है।
सरकार ने बड़े ही गाजे बाजे के साथ फसल बीमा की योजना लागू की। लेकिन यह योजना किसानों के हित के लिये कम बीमा कम्पनियों के लिये अधिक लाभकारी सिद्ध हुयी। महाराष्ट्र के एक जिले परभणी का अध्ययन करके साईनाथ ने एक रिपोर्ट तैयार की है। उस रिपोर्ट के अनुसार, करीब 2.80 लाख किसानों ने अपने खेतों में सोयाबीन उगाया था। किसानों ने उक्त सोया की फसल के बीमा के लिये कुल 19.2 करोड़ रुपये का प्रीमियम बीमा कंपनी को अदा किया, और केंद्र और राज्य सरकार की ओर से उसी फसल के बीमा के लिये, 77-77 करोड़ रुपये यानी कुल 173 करोड़ रुपये बीमा कंपनी, को दिए गये । किसानों की पूरी फसल के मौसम की मार से बर्बाद हो जाने पर बीमा कंपनी ने किसानों को बीमित राशि का भुगतान किया । यह भुगतान एक ज़िले में केवल 30 करोड़ रुपये का था, जब कि कुल प्रीमियम 193 करोड़ रुपये का बीमा कंपनी को दिया गया। बीमा कंपनी को कुल 143 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ मिला। यह आंकड़ा केवल एक जिले का है। अब इस हिसाब से हर ज़िले को किए गए भुगतान और कंपनी को हुए लाभ का अनुमान लगाया जा सकता है.। यह बीमा कंपनी रिलायंस इंश्योरेंस की है। सरकार का हर कदम उठता तो किसान हित के नाम पर है पर लाभ पहुंचता है पूंजीपतियों को। किसानों की यही नियति है।
8 नवंबर 2016 को नोटबंदी, की घोषणा हुई ।जिसका असर उद्योग जगत पर तो पड़ा ही, खेती किसानी भी कम प्रभावित नहीं हुयी। कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि " नोटबंदी ऐसे समय पर की गई जब किसान अपनी खरीफ फसलों की बिक्री और रबी फसलों की बुवाई में लगे हुए थे ।. इन दोनों कामों के लिए भारी मात्रा में कैश की जरूरत थी । लेकिन नोटबंदी की वजह से सारा कैश बाजार से खत्म हो गया था। भारत के 26.3 करोड़ किसान ज्यादातर कैश आधारित अर्थव्यवस्था पर आश्रित हैं। इसकी वजह से रबी फसलों के लिए लाखों किसान बीज और खाद नहीं खरीद पाए थे ।. यहां तक कि बड़े जमींदारों को भी किसानों को मजदूरी देने और खेती के लिए चीजें खरीदने में समस्याओं का सामना करना पड़ा था.। " नकदी की कमी से राष्ट्रीय बीज निगम भी लगभग 1.38 लाख क्विंटल गेंहू के बीज नहीं बेच पाया था ।. ये स्थिति तब भी नहीं सुधर पाई जब सरकार ने कहा था कि 500 और 1000 के पुराने नोट गेंहू के बीज खरीदने और बेचने के लिए इस्तेमाल किये जा सकते हैं। कैश की अनुपलब्धता का खेती पर जो असर पड़ा उसका दुष्परिणाम सभी अनौपचारिक सेक्टर्स पर भी पड़ा है।
इधर किसानों के अनेक आंदोलन हुए हैं। महाराष्ट्र में दो बड़े किसान मार्च आयोजित हुए। मंदसौर में किसान आंदोलन अचानक हिंसक हो उठा और पुलिस को गोली चलानी पड़ी। राजस्थान में किसान सभा का ज़बरदस्त आंदोलन हुआ। अभी हाल ही में, दिल्ली घेरो आंदोलन उत्तरप्रदेश के किसानों का हुआ था । गन्ना भुगतान की समस्या को लेकर यूपी के किसानों का आंदोलन और जागरण चलते ही रहते हैं। आज किसान जागृत हैं, आंदोलित है, और अब संगठित भी हो रहे हैं। इसी 29 और 30 नवंबर को किसानों का संसद मार्च आयोजित हैं। किसानों की मांग है, कि, स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए कम से कम तीन दिन तक संसद में बहस हो। विकास के नाम पर उद्योगों के साथ सरकार का पक्षपात पूर्ण रवैया बंद होना चाहिये। आज भी भारत अपने विशाल कलेवर , प्राकृतिक संसाधनों, जैव और वनस्पति की विविधता, उर्वर शस्य श्यामला मिट्टी , सदानीरा सरिताओं के बाहुल्य, प्रचुर जलराशि और प्रकृति की विलक्षण देन मानसून के कारण, अनाज, फल और सब्जियों का भण्डार बन सकता है, बशर्ते, सरकार किसानों की समस्याओं का उचित और तर्कपूर्ण समाधान निकाले और उनके साथ सौतेला व्यवहार न करे।
( विजय शंकर सिंह )
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