Friday, 2 November 2018

मेरे गांव की कहानी / विजय शंकर सिंह

कहते हैं चंदौली जिले के रामगढ़ नामक गाँव मे अकबर सिंह का एक क्षत्रिय परिवार रहता था। अकबर सिंह के ही घर मे एक संत जन्मे थे जो बाद में अघोरेश्वर के रूप में विख्यात हुये। वे थे बाबा कीनाराम। बाबा कीनाराम की एक चाची थीं जो विधवा थीं और उनके एक पुत्र था जो अभी बालक था। परिवार में उस चाची का सम्मान कम था। बाबा कीनाराम जब कभी अपने घर आते थे तो उन्हें यह सब देख कर अच्छा नहीं लगता था। रामगढ़ से कीनाराम टांडा घाट पर अक्सर गंगा स्नान के लिये जाते थे और वहीं उनका एक छोटा सा मठ भी था। वह मठ आज भी है। उन्होंने अपने चाची से कहा कि चलिये आप को मैं वही गंगा के पास ले चलूंगा आप का यहां आप का बहुत अपमान होता है। बाबा अपनी चाची और उनके बेटे को लेकर अपने मठ से कुछ दूर एक ऊंची जगह देख कर बसा दिए। वहां चारों तरफ कटीले झाड़ थे जिसे धाँध कहा जाता था। वहीं से मेरे गांव की कहानी शुरू होती है। उक्त चाची का नाम मुझे नहीं पता पर उस बालक का नाम नाथू सिंह था। उसी बालक के नाम पर उस गांव का नाम पड़ा नाथुपुर। यह गांव काफी दिनों तक धाँधी के गांव के रूप में पुकारा जाता रहा है। धाँध को भटकटैया भो कहते हैं। जो बालक अपने माँ के साथ आया था उसी का नाम नाथू था और उसी के नाम पर इस गांव का नाम पड़ा। हम सब उसी के वंश बेल है। अघोरेश्वर बाबा कीनाराम हमारे पूर्वज हैं।

यह गांव वाराणसी से ग़ाज़ीपुर जाने वाली सड़क पर बनारस से 25 किमी दूर स्थित गांव कैथी के ठीक उस पार गंगा से आधा किलोमीटर दूर है। नाथूपुर राजस्व अभिलेखों में कोई दर्ज गांव नहीं है। यह गांव टांडा का मजरा है। टांडा एक बड़ा गांव है और बिल्कुल गंगा के किनारे ऊंचाई पर है। मेरा गांव छोटा और केवल ठाकुरों का ही गांव है। सभी एक ही परिवार जो परिवार बाबा कीनाराम का था उसी के अंश हैं। कुल तीस चालीस घर हैं। गैर ठाकुर जातियों में दो घर यादवों और दो घर गोंड़ जाति के हैं, कहते हैं इन्हें हमी लोगों ने बसाया है। गांव सम्पन्न है और शांतिपूर्ण है। विवाद या झगड़े तो थोड़ा बहुत हर घर मे होते हैं, यहां भी हैं पर वह सब एक सामान्य सी बात है। अधिकतर घर पक्के मकान के हैं। सम्पन्नता दिखती है। पर संपन्नता का कारण खेती या नौकरी उतनी नहीं थी, जितना कि लोग जीवनयापन के लिये देश के बाहर गए थे। उस समय गांव के बहुत से लोग सिंगापुर चले जाते हैं और वहीं छोटामोटा काम करते थे। मेरे घर से ही कोई सिंगापुर नहीं गया। कारण शिक्षा थी। मेरे बड़े पिताजी 1929 के इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से एलएलबी करने के बाद बनारस में वकालत शुरू किये और उनकी वजह से परिवार का शैक्षणिक वातावरण बना और अब तक बना हुआ है।

हमारा गांव और आसपास के इलाके बहुत समय से विकसित हैं। 1969 में मेरे गाँव मे बिजली आ गयी थी। घरों में बल्ब तो थे पर पंखों का चलन नहीं था। पंखे बाद में आये। बिजली का आना एक बड़ी घटना थी। मुझे याद है मेरे बचपन मे लालटेन का शीशा हमलोग राख से रगड़ कर साफ करते थे। गांव में घर दो हिस्सों में होता है। एक को घर कहते हैं दूसरे को दुआर। घर को जनानखाना भी आप कह सकते हैं। घर मे महिलाओं के आवास रसोई और अन्य तामझाम थे जब कि दुआर जिसे कहीं कहीं बैठका भी बोला जाता है पुरुषों के रहने के लिये होता है। दुआर अक्सर खुला हुआ और एक कैम्पस में होता है पर घर बन्द और उसके दरवाज़े छोटे और खिड़कियां पहली मंजिल के कमरों में ही होती थी। खिड़कियां छोटी होती हैं और खुलती भी कम ही हैं। इसका कारण निजता होती है। रोशनी का प्रबंध घर के भीतर के बड़े आंगन से होता है। आंगन जो चारो तरफ एक बरामदे जिसे ओसारा भी कहते हैं से घिरा रहता है और फिर उस बरामदे में कमरे के दरवाजे खुलते है। यह विवरण मेरे गांव के घर का है पर अब यह न तो उतना व्यवस्थित है और न ही उतना सम्पन्न। कारण परिवार के सभी सदस्यों का बनारस शहर में शिफ्ट हो जाना है।

गांव की तस्वीर भी अब पहले जैसे नहीं रही। दिन में गांव जाने पर या तो कुछ बच्चे मिलते हैं या बूढ़े। किशोर और युवा वर्ग पढ़ाई लिखाई और रोज़ी रोजगार के लिये शहरों की ओर पलायित कर गया है। यह पलायन सत्तर के दशक में शुरू हुआ। पहले भी कलकत्ता लोग कमाने जाते थे पर वे अकेले जाते थे और साल में एक माह की छुट्टी के लिये अपने गांव आते थे। लेकिन उनके परिवार, पत्नी और बच्चे सभी गांव में ही रहते थे। कलकत्ता और कलकत्ता की जाने वाली रेल भोजपुरी विरह गीतों में अपना प्रमुख स्थान रखती है। बार बार रेल को बैरी कहा गया है। उसे प्रियतम को दूर ले जाने वाले खलनायक के रूप में चित्रित किया गया है। लेकिन बाद में जब लोगों ने शिक्षा का महत्व समझा तो बनारस जो पहले से ही शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है की ओर आकर्षित हुए। अब यह हालत है कि जिसे थोड़ी भी संपन्नता आई उसने बनारस में अपना ठिकाना कर लिया। पहले लोग किराए के मकान में आये फिर जैसे जैसे हैसियत बढ़ी लोगों ने अपने घर बना लिये।

हालांकि मेरे गांव में बहुत पहले से ही प्रायमरी स्कूल और जूनियर हाई स्कूल था। 1950 के बाद हाई स्कूल खुला और इंटर कॉलेज भी वह हुआ। अब तो वह इंटर कॉलेज जिसका नाम सरस्वती इंटर कॉलेज टांकेडा है काफी समृद्ध हो गया है। पर बनारस के करीब होने के कारण अधिकतर परिवार के बच्चे बनारस में ही पढ़ते हैं। गांव में शिक्षा का प्रसार बहुत है। लोग पढ़े लिखे हैं। देश दुनिया की खबरों से जुड़े हुए हैं और सामुहिक चर्चा भी खूब करते हैं। पर गांव के सामाजिक परिवेश में बहुत तेज़ी से परिवर्तन हुआ है। खेती की ज़मीने बहुत अधिक नहीं हैं।  सामान्य जोत के किसान हैं। लोगों के परिवार बढ़े तो लोग गांव के बाहर निकल गए। गांव के घर भी अब पहले जैसे गुलज़ार नहीं रहे। शादी विवाह में जहां पहले पूरा कुनबा जुटता था, शादी की हर रस्म लम्बी और कई कई दिन तक भोज भात चलता था अब बदलते वक्त ने और लोगों की व्यस्तता ने उसे एक औपचारिकता में बदल कर रख दिया है। लोगों ने गांव छोड़ा तो शादी विवाह भी अब शहरों से होने लगे। जहां तीन दिन बरातें और बारात के लौटने पर दो दिन का जश्न होता था अब शादियां बस एक दिन में या यूं कहें एक रात में सिमटने लगीं। इसका कारण अर्थाभाव नहीं है बल्कि समयाभाव और शहरों की सुविधाजीविता भी है।  मेरे गांव में एक और व्याधि बहुत सामान्य हो गयी है। वह है नशे का चलन। यह गांव के बेरोजगार लड़कों में  बहुत तेज़ी से फैल रहा है। इस पर कोई नियंत्रण भी नहीं है। 

समय और ज़रूरतों के अनुसार गांव का रहन सहन भी बदल रहा है। अब शादी व्याह भोज भात में शहरी संस्कृति की झलक मिलने लगी है। घर घर जहां कभी सायकिल हुआ करती थी, वहां मोटर बाइक हो गयी है। कुछ के यहां कार भी है। पहले जहाँ कैथी से नाव द्वारा गंगा पार कर जाना पड़ता था, वहीं अब बलुआ और चौबेपुर के बीच गंगा पर पक्का पुल बन गया है। कैथी का मार्ग आज भी है पर उधर से जाना कम ही होता है। नौकरी में रहने के कारण,  मेरा भी गांव आना जाना कम ही होता था। अब भी बहुत नहीं है।  अगर गांव में कोई शादी व्याह हो तो जाना होता है। और वह भी महज एक दिन या अधिकतर एक रात के लिये। गांव पक्की सड़क से जुड़ा है, बिजली है, मोबाइल टावर हैं, आने जाने के साधन हैं, पर गांव जाने पर लगता है जो कभी पहले हुआ करता था बहुत कुछ वह अब कहीं खो गया है। क्या पता वह मेरा अतीत मोह है या समय के साथ कदम मिला कर न चल पाने की आदत।


© विजय शंकर सिंह )

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