आज से ठीक दो साल पहले, नवंबर 8, 2016. को ठीक 8 बजे, जब टीवी चैनलों ने यह घोषणा की कि प्रधानमंत्री जी एक ज़रूरी संदेश देंगे तो हम भी करोड़ो मित्रों की तरह टीवी की तरफ खिसक कर बैठ गए और उसका वॉल्यूम तेज़ कर दिया। 8 बजने के चंद सेकेंड्स पहले पीएम टीवी स्क्रीन पर सेनाध्यक्षों से मिलते नज़र आये तो हमें लगा कि कुछ सीमा पर हो गया क्या। खैर सीमा पर तो कुछ नहीं हुआ। फिर प्रधानमंत्री जी ने अपना वक्तव्य शुरू किया और जब उनका यह वाक्य गूंजा कि आज रात 12 बजे से 1000 और 500 रुपये के नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे तो पहले तो समझ मे नहीं आया। फिर यह वाक्य कई बार दुहराया गया तो बात समझ में आयी। नोटबंदी की घोषणा हो चुकी थी।
दूसरे दिन कानपुर के व्यापारी मित्रों से बात हुई तो उन्होंने कहा कि अभी क्या कहा जाय, बैंक वालों से बात हुई तो वे भी भ्रम में थे। फिर 31 दिसंबर तक पुराने नोट जमा करने की बात हुयी। जो अफरा तफरी मची उसे पूरे देश ने देखा। लोगों को लगा कि सरकार का यह कदम मास्टरस्ट्रोक है। पर जब लोगों को नोट बदलने में और नए नोट मिलने में दिक्कत होने लगी तो यह मास्टरस्ट्रोक उल्टा पड़ने लगा। वित्त मंत्री टीवी पर आए और नोटबंदी के तीन उद्देश्य उन्होंने बताए। एक तो काला धन, दूसरे आतंकवाद का खात्मा तीसरे नक़ली नोटों का चलन रोकना । पर इन तीनों ही लक्ष्य प्राप्त करने में सरकार असफल रही। प्रधानमंत्री जी को दिसंबर में ही यह आभास हो गया था कि यह दांव गलत पड़ गया है। जापान में जिस व्यंग्यात्मक और हांथ नचाते हुए उपहासास्पद मुद्रा में उन्होंने कहा था कि, " घर मे शादी है पर पैसे नहीं है । " वह वीडियो क्लिपिंग और उसका भी यह अकेला वाक्य तथा देहभाषा सरकार की संवेदनहीनता को उघाड़ कर रख देता है। इस नशे का हैंगओवर जल्दी ही गुजरात मे उतर गया जब उन्होंने कहा कि लोग मुझे मार डालेंगे, बस, बस 50 दिन मुझे दे दीजिए, नहीं तो चौराहे पर मेरे साथ जो मन हो कीजिएगा। ये वाक्य पूरे देश के भाइयों बहनों को याद होगा।
अंदर से खोखला हो चुका चौथा खम्भा तो रासो परम्परा में था ही। यह परंपरा असामान्य काल के लिये होती है न कि हर समय के लिये। पर यह राग दरबारी तो राग भैरवी के समय भी बज रहा है और राग मालकौंस के समय भी। खूब प्रचार हुआ कि देश की अर्थ व्यवस्था अब सुधर जाएगी और यह सत्तर साल के मवाद का ऑपरेशन है। पर धीरे धीरे मुलम्मा उतरने लगा। प्रधानमंत्री जी को यह अनुमान था कि देश की अर्थव्यवस्था इस कदम से दुलकी छोड़ सरपट भागने लगेगी पर यह तो थउसने लगी । ठकुरसुहाती के इस स्वर्णिम काल मे कुछ पत्रकार और गंभीर अर्थवेत्ता जब इसकी तह में गये तो उन्हें लगा कि यह तो आत्मघाती कदम उठा लिया गया। रिज़र्व बैंक जो कि मौद्रिक नीति और मौद्रिक अनुशासन का जिम्मेदार है वह भी तब जी जहांपनाह की मुद्रा में साष्ठांग था। हर आदमी सवाल पूछ रहा है कि यह किसका फैसला था। और सरकार का आदमी खामोश था । तब आरबीआई का स्वाभिमान और स्वायत्तता बोध जाग्रत नहीं हुआ था। अब तो वे भी बोलने लगे हैं। कब तक वह भी आत्महनन करते रहते। राम की कृपा है मूकं करोति वाचलम, समय भी तो बदलता है।
जनता की तो हालत खराब थी ही। 150 लोग इस नोटबंदी के कारण या तो लाइनों में लग कर मर गए या आत्म हत्या करके। लोगों के परिवार की शादियां टल गयीं। नकदी की कमी का आलम यह था कि एसबीआई मोतीझील शाखा कनपुर में जहां मेरा खाता है वहां की मैनेजर साहिबा ने जब दो दो हज़ार के दो नए नोट बिना लाइन में लगे मेरे ही खाते से दिए तो लगा कि सच मे यह लक्ष्मी हैं। पर यह कदम भी उनके लिये किसी विशेष संकट का कारण नहीं बन पाया जो हर माहौल में जुगाड़ से अपना काम साध लेते हैं। समर्थ और भरपूर पुराने नोट रखे लोग आरबीआई और अन्य बैंकों से मिल कर कुछ सुविधा शुल्क देकर बदलवा रहे थे। वैसे ही थोड़े कहा गया है कि कानून तो केवल गरीबों के लिये है। धीरे धीरे सतह पर तो सब सामान्य दिख रहा था पर अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हो गया था उसका असर दिखने लगा था। सरकार भी भ्रम में थी। वह शाखा मृग की तरह कभी इस डाल से उस डाल तो कभी उस डाल से इस डाल तक कूद रही थी। नोटबंदी के उद्देश्य और गोलपोस्ट रोज़ बदले जा रहे थे। वित्त सचिव से लेकर आरबीआई के गवर्नर तक को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या कहा जाय। कभी वे कहते यह कदम कैशलेस अर्थ व्यवस्था की ओर एक कदम है तो कभी इसे लेसकैश कहा जाता था कभी कहते यह पूरी तरह से होमवर्क करने के बाद ही लागू किया गया है तो कभी कहा जाता है इतने बड़े देश मे इतने बड़े कदम से कुछ तो दांत निकलने का दर्द सहना ही होगा। आदि आदि सूक्तियां परम्परागत मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक मे तैर रही थीं। यह सरकार ने सोचा भी नहीं देश की कुल मुद्रा का 86 % भाग अगर चलन से बाहर हो जाएगा तो बिना तैयारी के अव्यवस्था तो फेल हो ही जाएगी। परिणामस्वरूप ग्रामीण और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। यह सरकार की बिना सोची समझी रणनीति का एक परिणाम था।
परिणामस्वरूप जीडीपी गिरने लगी। सरकार को आंकड़ों में हेराफेरी करनी पड़ी। तमाशे के साथ खुलवाए गये जनधन योजना के अंतर्गत बैंकों के खाते कालेधन की अवैध पार्किंग बन गए। अब आज की खबर है कि आधे खोले गए खाते बंद हो गए। 12 दिसंबर 2016 तक बैंकों के आंकड़ों ने यह संकेत दे दिया था कि रद्द हुए नोटों में से 15 लाख बैंकिंग सिस्टम में आ जाएंगे। यह अनुमान सरकार की रणनीति विफल कर गया। अंत मे नोटबंदी के साढ़े आठ महीने के बाद जब आरबीआई ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट 2016 - 17 जारी की तो पता लगा 15.28 करोड़ की राशि जमा हो चुकी है। 2017 - 18 ,की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 99.2 % रद्द हुए नोट पुनः बैंकिंग तंत्र में वापस आ गए हैं। यह नोटबंदी की दारुण विफलता है। आरबीआई ने संसदीय समिति को जो अपनी रिपोर्ट दी है उसके अनुसार, ₹ 500 के 8,582 लाख करोड़ और ₹ 1000 के 6.858 लाख करोड़ यानी 15.44 लाख करोड़ के नोट चलन में थे। लगभग सभी वापस लौट आये। जो भी काला धन था वह सफेद हो गया। अभी भी जानकारों का कहना है कि नेपाल, भूटान आदि कुछ देशों और अप्रवासी भारतीयों के पास भी काफी संख्या में पुराने नोट बचे हैं।
सरकार ने नोटबंदी के पहले सोचा था कि कुल 11 या 12 लाख करोड़ के ही रद्द नोट वापस आएंगे और 3.5 लाख करोड़ नोट जो नहीं वापस नहीं आएंगे वे ही उपलब्धि माने जाएंगे। सरकार का यह भी अनुमान था कि जो भारी संख्या में नकली नोट बाज़ार में हैं, वे बैंक में नहीं आएंगे जिससे वे समाप्त हो जाएंगे। पर सरकार ने भारतीय सांख्यिकी संस्थान कोलकाता की उस रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया गया जिसके अनुसार केवल 400 करोड़ रुपये के नकली नोट ही चलन में हैं। यह राशि विशाल मौद्रिक व्यवस्था को देखते हुये बहुत कम थी। सरकार ने अपने ही संस्थान की रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ करके नक़ली नोटों की संख्या का अतिश्योक्तिपूर्ण अनुमान लगा लिया। 2017 - 18 की आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2016 - 17 में कुल 58.3 करोड़ की नकली मुद्रा थी, जो रद्द हुए नोटों का केवल 0.0034 % था। नकली नोटों के पकड़े जाने की बात जो सरकार ने की थी, वह भी एक मिथ्यावाचन सिद्ध हुआ। जहां तक नक़ली नोटों के पकड़ने का प्रश्न है बिना किसी विशेष अभियान के ही हर साल 70 करोड़ की नकली मुद्रा रूटीन तरीके से पकड़ी जाती है। फिर इसके लिये पूरे देश की अच्छी खासी चलती हुई अर्थव्यवस्था में पलीता लगाने की क्या ज़रूरत थी ?
अब जब 2000 ₹ के नए नोट बाज़ार में आये तो उनके सुरक्षा फीचर के बारे में बड़ी बड़ी बातें की गयी। मीडिया ने उनमें जीपीएस चिप लगाने की बात प्रचारित की। लेकिन यह दावे झूठे निकले । अब तक 4.2 करोड़ के नकली नोट इस साल पकड़े गए। नोटबंदी अपने उन सभी उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रही जो सरकार ने पहले बताए थे। वे उद्देश्य थे, आतंकवाद का खात्मा, नक़ली नोटों का चलन रोकना और काले धन का पता लगाना। जब कि हुआ इसका विपरीत। 99.2 % धन जिसमें काला धन भी था पुनः सफेद होकर सिस्टम में आ गया।
जब ये सारे उद्देश्य आतंकवाद, नक़ली नोट और कालाधन, प्राप्त नहीं किये जा सके तो हड़बड़ाई और बदहवास सरकार ने तुरन्त कैशलेस , लेसकैश और डिजिटल अर्थव्यवस्था की बात छेड़ दी। लेकिन आरबीआई ने इस सम्बंध में जो डेटा जारी किया है वह भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा । शुरू में ज़रूर दुकानों पर स्वाइप मशीन और ई - वालेट बाज़ार में आये पर वे जनता का डेटा बटोर कर अब उतने प्रचलन में नहीं है जितने नोटबंदी के तत्काल बाद प्रचलन में थे। जैसे ही नकदी की कमी दूर हुयी पुनः लोग नकदी लेनदेन करने लगे। 10 अक्टूबर 2018 की आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, 19.688 लाख करोड़ की मुद्रा चलन में थी जिसमें से नोटबंदी के तत्काल बाद विभिन्न एटीएम से 1.711 लाख करोड़ मुद्रा लोगों द्वारा निकाल ली गयी। नोटबंदी के बाद लगभग 6 महीने तक नकदी की समस्या थी। एक आंकड़े के अनुसार, अगस्त 2018 में विभिन्न एटीएम से 2.76 लाख करोड़ की राशि नक़द निकाली गयी थी, जब कि अगस्त 2016 में यह रकम 2.20 लाख करोड़ थी। 2017 - 18 में जीडीपी और मुद्रा का अनुपात जहां 10.9 % रहा वहीं पिछले साल यह अनुपात 8.8 % था। यह संकेत बताता है कि जनता डिजिटल लेनदेन के बजाय अब भी नकदी लेनदेन अधिक पसंद करती है।
रिज़र्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट 2017 - 18 जिसमे रद्द हुयी मुद्रा के वापसी का उल्लेख है के आने के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने फेसबुक पेज पर आयकरदाताओं की संख्या और कर दायरे के बढ़ने की बात कही और इसे भी नोटबंदी का एक परिणाम बताया। उनके ब्लॉग के अनुसार,
* मार्च 2014 में कुल 3.8 करोड़ आयकर रिटर्न दाखिल हुए थे जो 2013 - 14 वित्तीय वर्ष के थे।
2017 - 18 में आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या 6.86 तक बढ़ गयी।
* 2013 -14 में आयकर से सरकार को ₹ 6.38 लाख करोड़ मिला जब कि 2017 - 18 में यह धन राशि ₹ 10.02 लाख करोड़ थी।
• नोटबंदी के पहले आयकर से प्राप्त होने वाली आयवृद्धि की दर जहां 6.6 % थी वहीं नोटबंदी के बाद यह दर 15 % और 18 % तक बढ़ गयी।
अरुण जेटली के इस ब्लॉग को नोटबंदी की एक महती सफलता के रूप में मीडिया में प्रचारित किया गया। यह भी कहा गया कि इस कदम से लोग कर चुकाने की मानसिकता की ओर बढ़े हैं और हम एक करदाता समाज बनने की ओर अग्रसर हैं। अब इस उपलब्धि की भी पड़ताल करने पर निम्न तथ्य सामने आए। सीबीडीटी केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, 2013 - 14 में आयकरदाताओं की संख्या 3.8 करोड़ से बढ़ कर 2017 - 18 में 6.85 करोड़ हो गयी है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या जिस गति से रिटर्न भरने वालों की संख्या बढ़ी है तो, उसी गति से आयकर संग्रह की राशि भी बढ़ी है ?
अब सीबीडीटी के आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में इस पर एक नज़र डालते हैं कि वास्तविक आयकरदाताओं और राशि की नोटबंदी के पहले और बाद में क्या स्थिति है। सीबीडीटी के आंकड़ों के अनुसार, नोटबंदी के पहले 2013 - 14 में 11.6 % की दर से आयकरदाताओं में वृद्धि हो रही थी। फिर यह दर, 2014 - 15 में 8.3 % और 2015 - 16 में 7.5 % दर से हुयी जो नोटबंदी पूर्व की स्थिति से कम है। लेकिन 2016 - 17 में यह दर 12.7 % की दर से बढ़ गयी। जबकि 2017 - 18 में यह दर फिर गिर कर 6.9 % हो गयी। जहां तक आयकर से प्राप्त धनराशि का प्रश्न है 2013 - 14 में कुल ₹ 6.38 लाख करोड़ और 2017 - 18 में ₹ 10.02 लाख करोड़ आयकर से प्राप्त हुआ है। यह राशि कर संग्रह के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति है। लेकिन यह प्रगति नोटबंदी के पहले भी होती रही है। सांख्यिकीय आंकड़ो का अध्ययन समग्रता में हीं किया जाना चाहिये अन्यथा ये प्रसिद्ध उक्ति कि ' झूठ, महाझूठ और सांख्यिकी ' को ही चरितार्थ करने लगते हैं। अब यूपीए और एनडीए सरकार के कार्यकाल में कर संग्रह और जीडीपी के अनुपात के आंकड़ों पर एक नज़र डालें। यूपीए के शासनकाल ( 2004 - 14 ) में प्रत्यक्ष कर संग्रह की राशि दस सालों में औसतन 20.2 % जब कि एनडीए के शासनकाल ( 2014 - 18 ) चार सालों में यह औसतन 12 % रही। यह अनुपात प्रत्यक्ष कर संग्रह और जीडीपी का है।
यह समीक्षा आरबीआई और सरकार के ही संस्थानों द्वारा प्रदत्त आंकड़ों पर ही निर्भर है। इन आंकड़ों को अगर दरकिनार भी कर दे तो सरकार स्वयं नोटबंदी के निर्णय से अपराध बोध से ग्रस्त है। हर छोटी मोटी उपलब्धि पर अखबारों में इश्तहार देने, ट्वीट करने और सत्तारूढ़ दल तथा सरकार के मंत्रियों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करने वाले लोग आज इस मौके पर जिसे आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे बड़ा आर्थिक सुधार प्रचारित किया जा रहा था, चुप्पी ओढ़े हैं तो यह उनका वैराग्य बोध नहीं अपराध बोध ही है। नोटबंदी की इस घटना ने आरबीआई की स्वायत्तता को भी शरारतन नज़रअंदाज़ किया है। आरबीआई जिसके पास देश की मौद्रिक नीति और मौद्रिक अनुशासन बनाये रखने का संवैधानिक दायित्व है उसे भी इस निर्णय की सूचना दी गयी। यही कारण है कि 8 नवंबर 2016 से 31 दिसंबर 2016 तक आरबीआई ने दो सौ से अधिक दिशा निर्देश जारी किये। सुबह कुछ और शाम को कुछ जारी होने वाले आदेश प्रशासन की अपरिपक्वता और बदहवासी ही बताते हैं। सरकार की नोटबंदी की बरसी पर यह खामोशी ही यह बताती है कि सरकार का यह फैसला बिना समझे बूझे और सोचे समझे लिया गया था।
© विजय शंकर सिंह
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