Monday, 19 November 2018

इंदिरा गांधी के उतार चढ़ाव भरे राजनीतिक जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है / विजय शंकर सिंह

स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी एक विलक्षण व्यक्तित्व की राजनेता थी। वे भारत के प्रधानमंत्री के पद पर 1966 से लेकर 1977 और फिर 1980 से लेकर 1984 तक आसीन रहीं। इसी अवधि में पाकिस्तान का तीसरा हमला भारत पर हुआ, और उस हमले में पाकिस्तान को न केवल गम्भीर शिकस्त झेलनी पड़ी, बल्कि पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गये और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। अंतराष्ट्रीय और कूटनीतिक चुनौतियों का उन्होंने दृढ़ता पूर्वक सामना किया। न डरीं न झुकीं और न टूटीं।

आज 19 नवम्बर को उन्हीं पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का जन्मदिन है। आज उनकी जन्म शताब्दी भी है। वे अगर जीवित होतीं तो 101 साल की होतीं। पर इतना लंबा जीवन मिलता ही किनको हैं। पर वे स्वाभाविक मृत्यु को भी तो प्राप्त नहीं हुयी। अपने राजकीय आवास पर ही वे अपने ही सुरक्षा गार्ड द्वारा मार दी गयीं। 31 अक्टूबर को होने वाली घटना अचानक ही तो हुयी थी। अपने कार्यकाल के मूल्यांकन के समय,  इंदिरा जितनी सराही गयी उतनी ही इन्होंने आलोचना भी झेली। कांग्रेस सिंडिकेट ने गूंगी गुड़िया को कठपुतली की तरह अपने इशारे पर काम करने के लिये 1967 में प्रधानमंत्री मनोनीत कराया था। जब इंदिरा गांधी देश के पीएम के पद पर स्थापित हुयीं तो कांग्रेस के प्रखर और मुखर विरोधी डॉ राममनोहर लोहिया ने पत्रकारों द्वारा यह पूछने पर कि अब कांग्रेस का शासन कैसा चलेगा और  आप क्या परिवर्तन देखते हैं। तब डॉ लोहिया ने मुस्कुरा कर कहा कि, " एक परिवर्तन तो यही कल से दिखेगा कि अखबारों पर रोज़ एक सुंदर और मुस्कुराहट भरा चेहरा देखने को मिलेगा। " लोहिया का यह बयान इंदिरा के प्रति आशावाद बिल्कुल भी नहीं दिखाता है। नेहरू जी पर पर परिवारवाद का आरोप बहुत लगता है पर एक तथ्य लोग विस्मृत कर जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू के जीवनकाल में इंदिरा जी को उन्होंने न लोकसभा में भेजा और न ही राज्यसभा में। इंदिरा गांधी पहली बार लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में राज्यसभा का सदस्य बनीं और ताशकंद में शास्त्री जी के दुःखद निधन के बाद कांग्रेस ने उन्हें प्रधानमंत्री के लिये मनोनीत किया।

1969 तक आते आते, कांग्रेस सिंडिकेट, जिसमे के कामराज, अतुल्य घोष, नीलम संजीव रेड्डी, राम सुभग सिंह, मोरारजी देसाई आदि वरिष्ठ और धुरंधर नेता थे द्वारा मनोनीत यह गूंगी गुड़िया इतनी मुखर हो गयी कि कांग्रेस के पुराने महारथी अपने लंबे अनुभव और अपनी सांगठनिक क्षमता की थाती लिए दिए ढह गये। कांग्रेस में एक नए स्वरूप का जन्म हुआ। तब हेमवती नंदन बहुगुणा ने कहा था, इंदिरा गांधी आयी हैं, नयी रोशनी लायीं है। यह नयी रोशनी, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के रूप में थी । यह कांग्रेस के अर्थनीति में बदलाव के काल के रूप में देखा गया। तब कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई और सीपीएम दोनों ही इंदिरा के साथ थीं। डॉ लोहिया 1967 में दिवंगत हो चुके थे। वे जीवित रहते तो, इंदिरा गांधी के इन प्रगतिशील कदमों पर उनकी क्या प्रतिक्रिया रहती यह देखना दिलचस्प रहता। समाजवादी पार्टियां तब भी गैरकांग्रेसवाद के सिद्धांत के साथ थी। कांग्रेस से टूट कर बनी नयी पार्टी, पहले तो इंदिरा कांग्रेस या कांग्रेस आई,  कहलाई पर धीरे धीरे वह लोकप्रिय होती गयी और  पुरानी कांग्रेस संगठन कांग्रेस के नाम से धीरे क्षीण होते होते 1977 में जनता पार्टी में विलीन होकर फिर  समाप्त हो गयी और इंदिरा कांग्रेस ही मूल कांग्रेस के रूप में स्थापित हो गयी। यह कांग्रेस का पुनर्जीवन था।

1971 में पाक हमले में उनके स्टैंड लेने से उनके नेतृत्व की वास्तविक पहचान हुयी। किसी के भी नेतृत्व की परख, संकटकाल में ही होती है। जब सब कुछ ठीक चल रहा होता है तो लोगों का दिमाग नेतृत्व के गुण अवगुण पर कम ही जाता है। पर संकट काल मे, नेतृत्व उस संकट से कैसे, देश या संस्था को निकालता है , इसकी परख तो तभी होती है। 1971 में पाकिस्तान का भारत पर हमला, अमेरिका का पाकिस्तान को हर प्रकार का समर्थन, यह इंदिरा गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती बन कर आया। अमेरिका पाकिस्तान के साथ तन मन धन से साथ था। उसने पाकिस्तान की सैनिक मदद के लिये अपना सातवां बेड़ा भी बंगाल की खाड़ी में भेजा पर इंदिरा अपने स्टैंड से बिल्कुल ही टस से मस नहीं हुयीं।।वे सफल रहीं और भारत जीता। न सिर्फ हमें विजय मिली बल्कि हमारी सेना ने सैन्य इतिहास में 90,000 पाकिस्तानी सैनिक का आत्मसमर्पण करा कर एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ दिया।  बांग्लादेश का निर्माण, पाकिस्तान की करारी हार, अमेरिका को जबरदस्त जवाब दे कर उन्होंने भारत की अंदरूनी राजनीति में अपनी धाक जमा ली और वे देश की निर्विवाद रूप से समर्थ नेता बन गयीं। कूटनीति के क्षेत्र में भी रूस से बीस साला सैन्य मित्रता करके उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा।

पर इतनी सारी उपलब्धियां, बहादुरी के किस्से, सब 1975 आते आते भुला दिए गए, जब 26 जून को इमरजेंसी लगी तो । जनता भूलती भी बहुत जल्दी है और भुलाती भी जल्दी है। यह इंदिरा का अधिनायकवादी रूप था। प्रेस पर सेंसर लगा। पूरा विपक्ष जेल में डाल दिया गया। कारण बस एक ही था वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपने चुनाव की याचिका हार चुकी थी। संविधान और नैतिकता के आधार पर उन्हें त्यागपत्र दे देना चाहिये था। पर उन्होंने यह कदम नहीं उठाया। वे सत्ता से चिपकी रहीं। उधर 1974 से देश मे बदलाव हेतु सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हो चुका था। जेपी की हैसियत बहुत बड़ी थी । 26 जून 1976 में सारी संवैधानिक मान्यताओं और परम्पराओं को ताख पर रख कर, उन्होंने अचानक आपातकाल की घोषणा कर दी। आपातकाल लागू होते ही मीसा जैसे दमनकारी कानून लागू हो गए। उस समय वे चाटुकारों से घिर गई थी। इंदिरा इंडिया हैं और इंडिया इंदिरा कही जाने लगी थी। यह वाक्य तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कहे थे।। पर कभी दुर्गा और 1971 क़ी नायक क्षवि से सराही गयी इंदिरा गांधी को जनता ने 1977 के आम चुनाव में बुरी तरह नकार दिया और कांग्रेस 1977 में विपक्ष में आ गई। यहां तक कि वे खुद अपना चुनाव हार गयीं। 1977 के चुनाव में यूपी बिहार में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। जनता की नब्ज नेताओ को पहचाननी चाहिये। राजनीति में न कोई अपरिहार्य होता है और न ही विकल्पहीनता जैसी कोई चीज होती है। शून्य यहां नहीं होता है। कोई न कोई उभर कर आ ही जाता है। इंदिरा 1977 से 1980 तक विपक्ष में थीं।

1980 में वे फिर लौटीं। पर 1984 में उनकी हत्या कर दी गयी। प्रधानमंत्री काल का उनका इतिहास बेहद उतार चढ़ाव भरा रहा। वे जिद्दी, तानाशाही के इंस्टिक्ट से संक्रमित, लग सकती हैं और वे थीं भी । पर देश के बेहद कठिन क्षणों में उन्होंने अपने नेतृत्व के शानदार पक्ष का प्रदर्शन किया। जब वे सर्वेसर्वा थी और भारत की राजनीति में विपक्ष में प्रतिभावान और दिग्गज नेताओं के होते हुए भी सब पर भारी रहीं तो बीबीसी के पत्रकार और उनके स्वर्ण मंदिर कांड पर एक चर्चित पुस्तक अमृतसर द लास्ट बैटल ऑफ इंदिरा गांधी, लिखने वाले मार्क टुली ने मज़ाक़ मज़ाक़ में ही लेकिन सच बात कह दी थी कि,
" पूरे कैबिनेट में वे अकेली मर्द थी। "
मर्द से उनका तात्पर्य यहां पौरुष से है। इतिहास निर्मम होता है। वह किसी को नहीं छोड़ता। सबका मूल्यांकन करता रहता है।

इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के विविध आयामों के अध्ययन से हम यह सीख सकते हैं राजनीति में सफल से सफल व्यक्ति के पतन के पीछे सबसे बड़ा कारण उसके इर्दगिर्द घिरी चाटुकारों की मंडली होती हैं। साथी जब सहकर्मी या कॉमरेड न रह कर दरबारी हो जाते हैं तो यह अतिशयोक्तिवादी चाटुकार मंडली अंततः नेता के पतन का कारण बनती हैं। ऐसे तत्व हर वक़्त यह कोशिश करते हैं कि नेता बस उन्ही की नज़रों से देखें और उन्ही के कानों से सुने। वे प्रभामण्डल का ऐसा ऐन्द्रजालिक प्रकाश पुंज रचते हैं कि उस चुंधियाये माहौल में सिवाय इन चाटुकारों के कुछ दिखता ही नहीं है। राजनीति में जब नेता खुद को अपरिहार्य और विकल्पहीन समझ बैठता है तो उसका पतन प्रारंभ हो जाता है। 1975 में ही इंदिरा के पतन की स्क्रिप्ट तैयार होना शुरू हो गयी थी। राजनेता उनके इस अधिनायकवादी  काल के अध्ययन और तदजन्य परिणामों से सबक ले सकते हैं।

आज 19 नवंबर को उनकी जन्मतिथि और शताब्दी है। इस अवसर पर उनका विनम्र स्मरण।

© विजय शंकर सिंह.

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