Sunday, 25 November 2018

अब राम मंदिर कुंभकर्ण बनाएगा क्या ? / विजय शंकर सिंह

शिवसेना प्रमुख रिलायंस के विमान से अयोध्या आये और कहा कि कुंभकर्ण को जगाने आये हैं। अब यह कुंभकर्ण तो राम द्वारा मारा गया है। उससे राम, राम मंदिर और अयोध्या से क्या मतलब। अयोध्या जमावड़ा में शामिल सभी लोगों को कम से कम राम चरित मानस और वाल्मीकि रामायण की एक एक प्रति भेंट कर देनी चाहिये थी। यह काम जनता द्वारा लिये गये चंदे से विश्व हिंदू परिषद कर सकती है। वाल्मीकि कृत रामायण, संस्कृत में सब पढ़ पाएं यह भी संभव नहीं है ।  खुद मैं भी संस्कृत पढ़ और समझ  नहीं पाता हूँ तो कम से कम मानस का गुटका संस्करण तो दे ही दिया जाना चाहिये। पर मन मे दंगा और पागलपन भरा हो तो भला तुलसी सूझेंगे ? वह भी खलु वंदना कर के आगे बढ़ जाएंगे। उन्होंने ने भी मानस लिखते समय, गुंडो का कम झटका थोड़े ही सहा है।  पर रामायण और मानस के बजाय  वीएचपी को तो बस त्रिशूल बांटना ही सूझेगा । 1989  में वीएचपी ने सिखों के पंचककार में से एक कृपाण की तरह त्रिशूल बांटने का अभियान भी चलाया था। पर विरोध होते ही यह अभियान वापस ले लिया गया। मानस और रामायण यह दोनों ही ग्रँथ, गीता प्रेस सस्ता छापता भी है। लोगों को मानस मिलता तो लोग पढ़ते और लोगों को राम कथा का ज्ञान भी होता और साहित्य का आनन्द भी मिलता। फादर कामिल बुल्के ने भारत मे उपलब्ध सभी रामकथा की पुस्तकों पर एक शोध किया है। उसी पर उन्हें डॉक्टरेट भी मिली है। उसे भी इच्छुक मित्र पढ़ सकते हैं।

रामायण में ही प्रमाद से लक्ष्य भूलने का एक सुंदर उदाहरण है और वह है सुग्रीव का। जब राम ने बालि को मार कर सुग्रीव को किष्किंधा का राज सौंपा तो सुग्रीव तारा को पा , प्रमाद में लिप्त हो गया। अब राज सुख और वह भी अंतःपुर का,  मादक तो होता ही है। बाली को हटा कर सुग्रीव को राज्य दिलाने का मक़सद राम का एक कूटनीतिक कदम था। सुग्रीव ने वानर सेना को सीता की खोज के लिये उपलब्ध कराने का आश्वासन राम को दिया था। जो बाली के ज़ीवित रहते संभव नहीं था। बाली, रावण का परम प्रिय मित्र भी था। अब जब बाली मारा गया तो सुग्रीव वहां का शासक बन गया। लेकिन एक माह तक सुग्रीव अंतःपुर में ही विलास में रत रहा। खीज कर तब लक्ष्मण सुग्रीव के प्रासाद में जाते हैं और जब वे सुग्रीव को हड़काते हैं तो सुग्रीव की तन्द्रा टूटती है और तब वे बानर दल को चारों दिशाओं में भेजते हैं।  यह रोचक विवरण वाल्मीकि रामायण में है। यह प्रतीक शायद उद्धव को स्मरण न हो या हो सकता हो, उन्होंने पढ़ा न हो।

उद्धव अगर सुग्रीव को जगाने या हड़काने का प्रतीकात्मक उदाहरण दिए होते तो अधिक उपयुक्त होता। कुंभकर्ण को तो रावण ने जगाया था, राम को मारने के लिये। उद्धव ने रामायण सीरियल भले ही देखा हो, पर मुझे संदेह है कि उन्होंने राम चरित मानस या रामायण पढ़ी होगी। रामकथा मराठी में भी अनूदित होगी ही पर मुझे उसकी जानकारी नहीं है। उन्हें राम कथा पढ़नी चाहिये। 17 मिनट में उनके उन्मादी लड़के इमारत ज़मीदोज़ कर सकते हैं तो 17 दिन या 17 हफ्ते में ही रामायण ही पढ़ लेते । राम चरित मानस में नवाह पाठ और मासिक पाठ का सिलेबस भी अलग अलग बना है। यह सिलेबस विभाजन तुलसी के बहुत बाद ही किसी कथाप्रेमी ने किया होगा।  रामकथा तो उद्धव को ही क्यों हर किसी को पढ़ना चाहिये। कम से कम लोगों को यह पता तो चले राम थे क्या और आज राम को राजनीति और सत्ता लोभ ने किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस राजनीतिक प्रदूषण का जिम्मेदार कौन है।

सच तो यह है यह मुद्दा अपने जन्म के समय से ही, राम के प्रति आस्था का कम, सत्ता प्राप्ति के जुगाड़ का अधिक रहा है। अब तनातनी शिवसेना और भाजपा में है कि राम मंदिर के प्रति सबसे अधिक आस्थावान कौन है। जुमले पर जुमले फेंके जा रहे हैं, बहाने दर बहाने ढूंढे जा रहे हैं। आज जो अयोध्या पर वाद विवाद छिड़ा है, उस बारे में राज्य वर्धन की यह रोचक कविता पढें,
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"जुमलेबाज़"

वह झूठ को
इस क़दर पेश करता है कि
सच प्रतीत होता है
और फिर उस झूठ को
इतनी बार दोहराता कि
सच झूठ से विस्थापित हो जाता है।

जनता अब
झूठ का सच जान गई है
अब वह जब सच बोलेगा
तो कोई नहीं पतियायेगा।

गडेरिये के लड़के की तरह
ईशप की कहानी का शेर
उसे खा जायेगा
तब गाँव से बचाने
कोई नहीं आयेगा।

(राज्यवर्धन)
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अयोध्या की यह धर्म संसद वीएचपी, संघ, भाजपा आदि मंदिर निर्माण से जुड़े लोगों की एक वार्मिंग अप एक्सरसाइज थी । यह इनका टेस्ट लेने का तरीका है। ऐसे अभ्यास संघ करता रहता है। गणेश द्वारा दूध पीने की घटना भी अफवाह फैलाने का एक अभ्यास थी। अब  चुनाव नज़दीक है, और जनता से जुड़े असल मुद्दों पर सरकार ने कुछ  खास किया भी नहीं। कुछ हुआ भी तो नोटबंदी और जीएसटी की बदइंतजामी ने उसे नेपथ्य में पहुंचा दिया। फिर ऐसी दशा में तो कुछ न कुछ ऐसा करना ही था, जिससे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो और लोग इसी धार्मिक मुद्दे की पिनक में रहे। चुनाव तो लड़ना ही है और जीतने की उम्मीद भी रखनी है।

© विजय शंकर सिंह

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