Tuesday 27 November 2018

कविता - उम्मीद की धूप / विजय शंकर सिंह

लोग जुटते हैं अक्सर,
अयोध्या में जैसे,
सर्वत्र घट घट में बसने वाले,
राम के लिये,
एक अदद आशियाने
की ईंट दर ईंट जोड़ने,
के वादे पर।

काश, कभी ऐसा भी हो,
कि लोग जुटें
दिल्ली और लखनऊ में भी,
उम्मीद की भीड़ लिये,
वहां के चमचमाते,
प्रशस्त राजमार्गो पर।
जहां विराजती है ताकत,
फटा पड़ता है ऐश्वर्य ।

अपनी सूखी त्वचा,
भूख से पीड़ित पेट,
पीठ पर बंधे बस्ते में,
अपनी डिग्रियां,
सूखे और पपड़ियाये होंठ,
और आंखों में बेबसी के कतरे,
रोजी और उम्मीद में,
कतार दर कतार उमड़ते हुये,
हुजूम लोगों का।

फ़्लैश होते हुये कैमरे,
आभिजात्य समाज की चौंकती
संवेदना से जिनका दूर दूर तक,
कोई ताल्लुक न हो,
ऐसी सजी धजी आंखों के बीच,
पंक्तियों दर पंक्तियों तक
चुपचाप उमड़ते लोग।

और तब सत्ता,
पत्थर के ठस और
बेदिल सौध की,
राजसी सीढ़ियों से उतर कर,
अधरों पर दुःख भुला देने वाली,
दृढ मुस्कान लिये,
उन्हें इत्मीनान और उम्मीद बंधाती आंखों से,
दिलासा देती,
उनकी बातें सुनती ।

और सत्ता बाहें फैला,
उनके बेबस और बेहिस चेहरे,
नम आंखों की लरजती,
मोतियों का हाल पूछती,
सहानुभूति के दो शब्द बोलती,
अपना होने का एहसास दिलाती,
अचानक कंपकंपाती सर्दी मैं,
उम्मीद की गरमाहट भरी,
एक धूप पसर जाती!
तो कैसा होता दोस्त !!

© विजय शंकर सिंह

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