मीडिया से मेरा पुराना नाता है। यह मैं आप को सुबह सुबह आह्लादित करने के लिये नहीं कर रहा हूँ। इसी फेसबुक पर मेरी मित्र सूची में बहुत से नामचीन पत्रकार मित्र हैं जो मेरी बात की पुष्टि करेंगे कि मीडिया से मेरा पुराना नाता रहा है और अब भी बरकरार है। मैं अपनी पुलिस सेवा के दौरान, डीजी यूपी का एसपी, जन संपर्क भी 1995 और 96 में रह चुका हूं। तब से प्रेस से मित्रता काफी बढ़ी और नाता बनता गया जो आज भी बना हुआ है।
कल 25 नवंबर को अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन था। वही जुनून, वही सज धज, वही नारे, वही एजेंडा, वही तमाशा दिखा जो 1990, 91 और 92 में वहां दिखा था। लेकिन एक अंतर भी था। 1991, 92 में जहां भीड़ बहुत अधिक थी, वहीं भीड़ कल कम थी। बेहद कम। यह भीड़ यह बताती है कि आयोजकों पर लोगों की आस्था कम हो रही है। अब आम लोग जैसे राम काज के लिये चल पड़ते थे वैसे नहीं निकल रहे हैं। अब यह आंदोलन नहीं तमाशा बन गया है।
यह संघ की वार्मिंग अप एक्सरसाइज है। जब कभी मुख्य कसरत या स्पोर्ट्स के पहले थोड़ा हम हाँथ पांव तेज़ी से मारते हैं थोड़ा बदन में गरमाहट लाते हैं ताकि जब मुख्य कसरत हो तो मांस पेशियां खिंचे नहीं तो उसे वार्मिंग अप अभ्यास कहते हैं। यह भी एक वार्मिंग अप ही था। यह एक टेस्ट की तरह से है जिससे जनता की मूर्खता और उन्माद का लेवेल जांचा जा सके। संघ ऐसे टेस्ट लेता रहता है। 1995 में गणेश जी के दूध पीने की घटना अफवाह फैलाने की क्षमता का एक टेस्ट था। तब गजानन ने जो एक बार दूध पीया फिर तो उन्होंने दूध की ओर देखा भी नहीं।
अयोध्या में लोग कल आये भी और गये भी। पर फसाना अभी खत्म नहीं हुआ है। लेकिन अयोध्या जमावड़ा से हासिल क्या हुआ है यह अभी पता नहीं है। पर एक बात जो सोशल मीडिया के हवाले से पता चल रही है कि यह अब ज़रूर लोगो को अहसास हो गया है कि राम मंदिर अब आस्था का कम राजनीतिक एजेंडे का मुद्दा अधिक बन गया है। राम भी अकेले अकेले तंबू में पड़े पड़े ऊब गये थे, भीड़ देखी होगी तो उन्होंने सोचा होगा कि, यह आखिरी सर्दी होगी तंबू में। संघ के एक बड़े नेता कह भी आये थे यह उनका राम का आखिरी दर्शन है जो टेंट में वे कर रहे हैं। अज्ञानी मानव यह समझ ही नहीं पाया कि जिसका दर्शन वह कर रहा है वह तो नश्वर है, उसकी न शुरुआत है न अंत। राम ने वही नारे में सुने, पुराने मंदिर वहीं बनायेगे। राम ने क्या सोचा होगा राम जानें। रामलला का लघु विग्रह टेंट में है ही और एक विशाल मूर्ति और बनने जा रही है । पर सारी समस्याओ की तरह यह मंदिर समस्या भी दिल्ली में ही है, अयोध्या में नहीं है।
अयोध्या में शांति बनी रही। देश मे भी कुछ नहीं हुआ। लोग समझदार हो गए हैं। राम ने उजड़ कर लोगों को विवेकवान भी बना दिया। पर जो तनाव ड्राइंग रूम की अनिवार्य बुराई बन चुके बुद्धू बक्से में दिखा वह सतह पर नहीं था। मीडिया ने अपने आका के निर्देश पर माहौल बनाये रखा। कहीं से मुल्ला पकड़ लाये कहीं से ' धर्माचार्य ' फिर अपने ग्रीन रूम में पोतपात के बैठा दिया। फिर एंकर के साथ सभी बहस में लग गए। बहस, राम के जन्मस्थान के लेबर रूम से लेकर पुरातत्व की खुदाई से होते हुए, सुप्रीम कोर्ट तक होती रही। पर पीएम ने तो गज़ब ही ढा दिया जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस मंदिर नहीं बनने दे रही है, और उसने सुप्रीम कोर्ट को डरा कर मुक़दमा ही टलवा दिया। मतलब पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद भी सरकार जब कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं तो ऐसा बेबस और बेहिस नेतृत्व किस काम का ? सिर्फ पर्यटन घूम घूम कर दुनियाभर के नेताओं का आलिंगन करने के लिये तो सरकार को चुना नहीं गया है !
आज संविधान दिवस है। संघ के अवचेतन में संविधान के प्रति अवज्ञा का भाव बहुत गहरे पैठा हुआ है। वे यह संविधान तब भी नहीं चाहते थे अब भी नहीं चाहते हैं। पर करें क्या ? जनता भी उन्हें तब भी नहीँ चाहती थी और चाहती अब भी नहीं है। यह तो राम की आड़ है। अब राम भी ऊब चुके हब। 6 दिसम्बर 92 की तारीख भी उन्होंने चुनी तो, उस दिन संविधान के ड्राफ्ट कमेटी के मुखिया डॉ आंबेडकर का जन्मदिन था, और कल 25 नवम्बर 2018 की तिथि भी जब चुनी तो वह संविधान दिवस की पूर्व संध्या थी। यह किताब बहुत मोटी है और यह मोटी किताब इन्हें बहुत असहज करती है। मीडिया को इस किताब ने जबरदस्त ताकत और आज़ादी दी है। पर यह ताकत और आज़ादी इसलिए दी गई है कि संविधान की आत्मा सुरक्षित रहे। पर अफसोस मीडिया का एक बड़ा तबका, सत्ता की विरुदावली में लिप्त है।
अयोध्या जमावड़ा ने एक बात फिर प्रमाणित कर दी मीडिया का एक बड़ा भाग सनसनी चाहता है, उन्माद चाहता है, आग लगाऊ खबरे चाहता है। उसे शांति और सद्भाव की खबरें पसंद नहीं आती है। सच ज़रूरी है पर ऐसा सच जो समाज मे आग लगा दे, उससे परहेज किया जाना चाहिये। समाज हित व्यक्ति के हित से ऊपर है। राजनीतिक प्रतिबद्धता सबकी होती है। होनी भी चाहिये। हम सब किसी न किसी विचारधारा की ओर खुद को पाते हैं। मीडिया की भी प्रतिबद्धिताएँ होगी। पर यह सारी प्रतिबद्धताएं संविधान की मूल भावना, एकता, अखंडता, और सामाजिक समरसता के विरुद्ध तो नहीं ही होनी चाहिये।
© विजय शंकर सिंह
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