यह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के आपबीती की तीसरी और अंतिम किश्त है।
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हमारे शायरों को हमेशा यह शिकायत रही है कि ज़माने ने उनकी क़द्र नहीं की। ... हमें इससे उलट शिकायत यह है कि हम पे लुत्फ़ो-इनायात की इस क़दर बारिश रही है; अपने दोस्तों की तरफ़ से, अपने मिलनेवालों की तरफ़ से और उनकी जानिब से भी जिनको हम जानते भी नहीं क़ि अक्सर दिल में हिचक महसूस होती है कि इतनी तारीफ़ और वाहवाही पाने का हक़दार होने के लिए जो थोड़ा-बहुत काम हमने किया है, उससे बहुत ज़ियादा हमें करना चाहिए था।
यह कोई आज की बात नहीं है। बचपन ही से इस क़िस्म का असर औरों पर रहा है। जब हम बहुत छोटे थे, स्कूल में पढ़ते थे, तो स्कूल के लड़कों के साथ भी कुछ इसी क़िस्म के तअल्लुक़ात क़ायम हो गये थे। ख़ाहमख़ाह उन्होंने हमें अपना लीडर मान लिया था, हालांकि लीडरी के गुन हमें नहीं थे। या तो आदमी बहुत लट्ठबाज़ हो कि दूसरे उनका रौब मानें, या वह सबसे बड़ा विद्वान हो। हम पढ़ने-लिखने में ठीक थे, खेल भी लेते थे, लेकिन पढ़ाई में हमने कोई ऐसा कमाल पैदा नहीं किया था कि लोग हमारी तरफ़ ज़रूर ध्यान दें।
बचपन का मैं सोचता हूं तो एक यह बात ख़ास तौर से याद आती है कि हमारे घर में औरतों का एक हुजूम था। हम जो तीन भाई थे उनमें हमारे छोटे भाई (इनायत) और बड़े भाई (तुफ़ैल) घर की औरतों से बाग़ी होकर खेलकूद में जुटे रहते थे। हम अकेले उन ख़वातीन के हाथ आ गये। इसका कुछ नुक़सान भी हुआ और कुछ फ़ायदा भी। फ़ायदा तो यह हुआ कि उन महिलाओं ने हमको इंतिहाई शरीफ़ाना ज़िंदगी बसर करने पर मजबूर किया; जिसकी वजह से कोई असभ्य या उजड्ड क़िस्म की बात उस ज़माने में हमारे मुंह से नहीं निकलती थी। अब भी नहीं निकलती। नुक़सान यह हुआ, जिसका मुझे अक्सर अफ़सोस होता है,कि बचपन के खिलंदड़ेपन या एक तरह की मौजी ज़िंदगी गुज़ारने से हम कटे रहे। मसलन यह कि गली में कोई पतंग उड़ा रहा है, कोई गोलियां खेल रहा है, कोई लट्टू चला रहा है; हम सब खेलकूद देखते रहे थे, अकेले बैठकर। 'होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे' वाला मामला। हम उन तमाशों के सिर्फ़ तमाशाई बने रहते, और उनमें शरीक होने की हिम्मत इसलिए नहीं होती थी कि उसे शरीफ़ाना शग़ूल या शरीफ़ाना काम नहीं समझते थे।
उस्ताद भी हम पर मेहरबान रहे। आजकल की मैं नहीं जानता, हमारे ज़माने में तो स्कूल में सख्त पिटाई होती थी। हमारे वक्तों के उस्ताद तो निहायत ही जल्लाद क़िस्म के लोग थे। सिर्फ़ यही नहीं कि उनमें से किसी ने हमको हाथ नहीं लगाया बल्कि हर क्लास में मॉनिटर बनाते थे :बल्कि (साथी लड़कों को) सज़ा देने का मंसब भी हमारे हवाले करते थे, यानी-फ़लां को चांटा लगाओ, फ़लां को थप्पड़ मारो। इस काम से हमें बहुत-कोफ्त होती थी, और हम कोशिश करते थे कि जिस क़दर भी मुमकिन हो यों सज़ा दें कि हमारे शिकार को वह सज़ा महसूस न हो। तमाचे की बजाय गाल थपथपा दिया, या कान आहिस्ता से खींचा, वगैरह। कभी हम पकड़े जाते तो उस्ताद कहते 'यह क्या कर रहे हो! ज़ोर से चांटा मारो!'
इसके दो प्रभाव बहुत गहरे पड़े। एक तो यह कि बच्चों की जो दिलचस्पियां होती हैं उनसे वंचित रहे। दूसरे यह कि अपने दोस्तों,क्लासवालों और उस्तादों से हमें बेहद स्नेह आशीष, खुलापन और अपनाव मिला; जो बाद के ज़माने के दोस्तों और समकालीनों से मिला, और आज भी मिल रहा है।
सुबह हम अपने अब्बा के साथ फ़ज्र की नमाज़ पढ़ने मस्जिद जाया करते थे। मामूल (नियम) यह था कि अज़ान के साथ हम उठ बैठे, अब्बा के साथ मस्जिद गये,नमाज़ अदा की;और घंटा-डेढ़ घंटा मौलवी इब्राहीम मीर सियालकोटी से, जो अपने वक्त क़े बड़े फ़ाजिल (विद्वान) थे, क़ुरान-शरीफ़ का पाठ पढ़ा-समझा; अब्बा के साथ डेढ़-दो घंटों की सैर के लिये गये; फिर स्कूल। रात को अब्बा बुला लिया करते, ख़त लिखने के लिए। उस ज़माने में उन्हें ख़त लिखने में कुछ दिक्क़त होती थी। हम उनके सेक्रेटरी का काम अंजाम देते थे। उन्हें अख़बार भी पढ़कर सुनाते थे। इन कई कामों में लगे रहने की वजह से हमें बचपन में बहुत फ़ायदा हुआ। उर्दू-अंग्रेज़ी अख़बारात पढ़ने और ख़त लिखने की वजह से हमारी जानकारी काफ़ी बढ़ी।
एक और याद ताज़ा हुई। हमारे घर से मिली हुई एक दुकान थी, जहां किताबें किराये पर मिलती थीं। एक किताब का किराया दो पैसे होता। वहां एक साहब हुआ करते थे जिन्हें सब 'भाई साहब' कहते थे। भाई साहब की दुकान में उर्दू साहित्य का बहुत बड़ा भंडार था। हमारी छठी-सातवीं जमात के विद्यार्थी-युग में जिन किताबों का रिवाज था, वह आजकल क़रीब-क़रीब नापैद हो चुकी हैं, जैसे तिलिस्मे-होशरुबा, फ़सानए-आज़ाद, अब्दुल हलीम शरर के नॉवेल, वग़ैरह। ये सब किताबें पढ़ डालीं इसके बाद शायरों का कलाम पढ़ना शुरू किया। दाग़ का कलाम पढ़ा। मीर का कलाम पढ़ा। ग़ालिब तो उस वक्त बहुत ज़ियादा हमारी समझ में नहीं आया। दूसरों का कलाम भी आधा समझ में आता था, और आधा नहीं आता था। लेकिन उनका दिल पर असर कुछ अजब क़िस्म का होता था। यों, शेर से लगाव पैदा हुआ, और साहित्य में दिलचस्पी होने लगी।
हमारे अब्बा के मुंशी घर के एक तरह के मैनेजर भी थे। हमारा उनसे किसी बात पर मतभेद हो गया तो उन्होंने कहा'अच्छा, आज हम तुम्हारी शिकायत करेंगे कि तुम नॉवेल पढ़ते हो; स्कूल की किताबें पढ़ने की बजाय छुपकर अंट-शंट किताबें पढ़ते हो।' हमें इस बात से बहुत डर लगा, और हमने उनकी बहुत मिन्नत की कि शिकायत न करें; मगर वह न माने और अब्बा से शिकायत कर ही दी। अब्बा ने हमें बुलाया और कहा'मैंने सुना है, तुम नॉवेल पढ़ते हो।' मैंने कहा 'ज़ी हां।' कहने लगे 'नॉवेल ही पढ़ना है तो अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ो, उर्दू के नॉवेल अच्छे नहीं होते। शहर के क़िले में जो लायब्रेरी है, वहां से नॉवेल लाकर पढ़ा करो।'
हमने अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ना शुरू किये। डिकेंस, हार्डी, और न जाने क्या-क्या पढ़ डाला। वह भी आधा समझ में आता था और आधा पल्ले न पड़ता था। मगर इस पढ़ने की वजह से हमारी अंग्रेज़ी बेहतर हो गयी। दसवीं जमात में पहुंचने तक महसूस हुआ कि बाज़ उस्ताद पढ़ाने में ग़लतियां कर जाते हैं। हम उनकी अंग्रेज़ी दुरुस्त करने लगे। इस पर हमारी पिटाई तो न हुई; अलबत्ता वो उस्ताद कभी ख़फ़ा हो जाते और कहते 'अगर तुम्हें हमसे अच्छी अंग्रेज़ी आती है तो फिर तुम ही पढ़ाया करो, हमसे क्यों पढ़ते हो!'
उस ज़माने में कभी-कभी मुझ पर एक ख़ास क़िस्म का भाव छा जाता था। जैसे, यकायक आस्मान का रंग बदल गया है बाज़ चीज़ें क़हीं दूर चली गयी हैं.... धूप का रंग अचानक मेंहदी का-सा हो गया है... पहले जो देखने में आता था, उसकी सूरत बिल्कुल बदल गयी है। दुनिया एक तरह की पर्दए-तस्वीर के क़िस्म की चीज़ महसूस होने लगती थी। इस कैफ़ीयत (भावना) का बाद में भी कभी-कभी एहसास हुआ है, मगर अब नहीं होता। मुशायरे भी हुआ करते थे। हमारे घर से मिली हुई एक हवेली थी जहां सर्दियों के ज़माने में मुशायरे किये जाते थे। सियालकोट में पंडित राजनारायन 'अरमान' हुआ करते थे, जो इन मुशायरों के इंतिज़ामात किया करते थे। एक बुज़ुर्ग मुंशी सिराजदीन मरहूम थे अल्लामा इक़बाल के दोस्त, श्रीनगर में महाराजा कश्मीर के मीर मुंशी, वह सदारत किया करते थे। जब दसवीं जमात में पहुंचे तो हमने भी तुकबंदी शुरू कर दी, और एक-दो मुशायरों में शेर पढ़ दिये। मुंशी सिराजदीन ने हमसे कहा 'मियां, ठीक है, तुम बहुत तलाश से (परिश्रम से) शेर कहते हो, मगर यह काम छोड़ दो। अभी तो तुम पढ़ो-लिखो, और जब तुम्हारे दिलो-दिमाग़ में पुख्तगी आ जाये तब यह काम करना। इस वक्त यह महज़ वक्त क़ी बर्बादी है।' हमने शेर कहना बंद कर दिया।
अब हम मरे कालेज सियालकोट में दाख़िल हुए, और वहां प्रोफ़ेसर यूसुफ़ सलीम चिश्ती उर्दू पढ़ाने आये, जो इक़बाल के मुफ़स्सिर (भाष्यकार) भी हैं। तो उन्होंने मुशायरे की तरह डाली। और कहा 'तरह' पर शेर कहो! हमने कुछ शेर कहे, और हमें बहुत दाद मिली। चिश्ती साहब ने मुंशी सिराजदीन से बिल्कुल उलटा मशविरा दिया और कहा फ़ौरन इस तरफ़ तवज्जुह करो, शायद तुम किसी दिन शायर हो जाओ!
गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर चले गये। जहां बहुत ही फ़ाज़िल और मुश्फ़िक़ (विद्वान और स्नेही) उस्तादों से नियाज़मंदी हुई। पतरस बुख़ारी थे; इस्लामिया कालेज में डॉक्टर तासीर थे; बाद में सूफ़ी तबस्सुम साहब आ गये। इनके अलावा शहर के जो बड़े साहित्यकार थे इम्तियाज़ अली ताज थे; चिराग़हसन हसरत, हफ़ीज़ जालंधारी साहब थे; अख्तर शीरानी थे उन सबसे निजी राह-रस्म हो गयी। उन दिनों पढ़ानेवालों और लिखनेवालों का रिश्ता अदब (साहित्य) के साथ-साथ कुछ दोस्ती का-सा भी होता था। कॉलेज की क्लासों में तो शायद हमने कुछ ज़ियादा नहीं पढ़ा; लेकिन उन बुज़ुगों की सुह्बत और मुहब्बत से बहुत-कुछ सीखा। उनकी महफ़िलों में हम पर शफ़क़त होती थी, और हम वहां से बहुत-कुछ हासिल करके उठते थे।
हमने अपने दोस्तों से भी बहुत सीखा। जब शेर कहते तो सबसे पहले ख़ास दोस्तों ही को सुनाते थे। उनसे दाद मिलती तो मुशायरों में पढ़ते। अगर कोई शेर ख़ुद पसंद न आया, या दोस्तों ने कहा, निकाल दो, तो उसे काट देते। एम.ए. में पहुंचने तक बाक़ायदा लिखना शुरू कर दिया था।
हमारे एक दोस्त हैं ख्वाजा ख़ुर्शीद अनवर। उनकी वजह से हमें संगीत में दिलचस्पी पैदा हुई। ख़ुर्शीद अनवर पहले तो दहशतपसंद (क्रांतिकारी) थे, भगतसिंह ग्रुप में शामिल। उन्हें सज़ा भी हुई, जो बाद में माफ़ कर दी गयी। दहशतपसंदी तर्क करके वह संगीत की तरफ़ आ गये। हम दिन में कॉलेज जाते और शाम को ख़ुर्शीद अनवर के वालिद ख्वाजा फ़िरोज़ुद्दीन मरहूम की बैठक में बड़े-बड़े उस्तादों का गाना सुनते। यहां उस ज़माने के सब ही उस्ताद आया करते थे; उस्ताद तवक्कुल हुसैन ख़ां, उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां, उस्ताद आशिक़ अली ख़ां, और छोटे गुलाम अली ख़ां, वग़ैरह। इन उस्तादों के साथ के और हमारे दोस्त रफ़ीक़ ग़ज़नवी मरहूम से भी सुह्बत होती थी। रफ़ीक़ ला-कॉलेज में पढ़ते थे। पढ़ते तो ख़ाक थे, बस रस्मी तौर पर कॉलेज में दाख़िला ले रक्खा था। कभी ख़ुर्शीद अनवर के कमरे में और कभी रफ़ीक़ के कमरे में बैठक हो जाती थी। ग़रज़ इस तरह हमें इस फ़न्ने-तलीफ़ (ललित-कला) से आनंद का काफ़ी मौक़ा मिला।
जब हमारे वालिद गुज़र गये तो पता चला कि घर में खाने तक को कुछ नहीं है। कई साल तक दर-ब-दर फिरे और फ़ाक़ामस्ती की। इसमें भी लुत्फ़ आया, इसलिए कि इसकी वजह से 'तमाशाए-अहले-करम' देखने का बहुत मौक़ा मिला, ख़ास तौर से अपने दोस्तों से। कॉलेज में एक छोटा-सा हल्क़ा (मंडली) बन गया था। कोयटा के हमारे दोस्त थे, एहतिशामुद्दीन और शेख़ अहमद हुसैन, डॉ. हमीदुद्दीन भी इस हल्क़े में शामिल थे। इनके साथ शाम को महफ़िल रहा करती। जवानी के दिनों में जो दूसरे वाक़िआत होते हैं वह भी हुए, और हर किसी के साथ होते हैं।
गर्मियों में कॉलेज बंद होते, तो हम कभी ख़ुर्शीद अनवर और भाई तुफ़ैल के साथ श्रीनगर चले जाया करते, और कभी अपनी बहन के पास लायलपुर पहुंच जाते। लायलपुर में बारी अलीग और उनके गिरोह के दूसरे लोगों से मुलाक़ात रहती। कभी अपनी सबसे बड़ी बहन के यहां धर्मशाला चले जाते, जहां पहाड़ की सीनरी देखने का मौक़ा मिलता, और दिल पर एक ख़ास क़िस्म का नक्श (गहरा प्रभाव) होता। हमें इन्सानों से जितना लगाव रहा, उतना कुदरत के मनाज़िर (सीन-सीनरी) और नेचर के हुस्न को देखने-परखने का नहीं रहा। फिर भी उन दिनों मैंने महसूस किया कि शहर के जो गली-मुहल्ले हैं, उनमें भी अपना एक हुस्न है जो दरिया और सहरा, कोहसार या सर्व-ओ-समन से कम नहीं। अलबत्ता उसको देखने के लिए बिल्कुल दूसरी तरह की नज़र चाहिए।
मुझे याद है, हम मस्ती दरवाज़े के अंदर रहते थे। हमारा घर ऊंची सतह पर था। नीचे नाला बहता था। छोटा-सा एक चमन भी था। चार-तरफ़ बाग़ात थे। एक रात चांद निकला हुआ था। चांदनी नाले और इर्द-गिर्द के कूड़े-करकट के ढेर पर पड़ रही थी। चांदनी और साये, ये सब मिलकर कुछ अजब भेद-भरा-सा मंज़र बन गये थे। चांद की इनायत से उस सीन पर भद्दा पहलू छुप गया था और कुछ अजीब ही क़िस्म का हुस्न पैदा हो गया था; जिसे मैंने लिखने की कोशिश भी की है। एकाध नज्म में यह मंज़र खेंचा है जब शहर की गलियों, मुहल्लों और कटरों में कभी दोपहर के वक्त क़ुछ इसी क़िस्म का रूप आ जाता है जैसे मालूम हो कोई परिस्तान है। 'नीम-शब', 'चांद', 'ख़ुदफ़रामोशी', 'बाम्-ओ-दर ख़ामुशी के बोझ से चूर', वगैरह उसी ज़माने से संबंध रखती हैं। एम.ए. में पहुंचे तो कभी क्लास में जाने की ज़रूरत महसूस हुई, कभी बिल्कुल जी न चाहा। दूसरी किताबें जो कोर्स में नहीं थीं, पढ़ते रहे। इसलिए इम्तिहान में कोई ख़ास पोज़ीशन हासिल नहीं की। लेकिन मुझे मालूम था कि जो लोग अव्वल-दोअम आते हैं, हम उनसे ज़ियादा जानते हैं, चाहे हमारे नंबर उनसे कम ही क्यों न हों। यह बात हमारे उस्ताद लोग भी जानते थे। जब किसी उस्ताद का, जैसे प्रोफ़ेसर डिकिन्सन या प्रोफ़्रेसर कटपालिया थे, लेक्चर देने को जी न चाहता तो हमसे कहते हमारी बजाय तुम लेक्चर दो; एक ही बात है! अलबत्ता प्रोफ़ेसर बुख़ारी बड़े क़ायदे के प्रोफ़ेसर थे। वह ऐसा नहीं करते थे। प्रोफ़ेसर डिकिन्सन के ज़िम्मे उन्नीसवीं सदी का नस्री अदब (गद्य साहित्य) था; मगर उन्हें उससे दरअस्ल कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए हमसे कहा दो-तीन लेक्चर तैयार कर लो! दूसरे जो दो-तीन लायक़ लड़के हमारे साथ थे, उनसे भी कहा दो-दो तीन-तीन लेक्चर तुम लोग भी तैयार कर दो! किताबों वग़ैरह के बारे में कुछ पूछना हो तो आके हमसे पूछ लेना। चुनांचे, नीमउस्ताद हम उसी ज़माने में हो गये थे।
शुरू-शुरू में शायरी के दौरान में, या कॉलेज के ज़माने में हमें कोई ख़याल ही न गुज़रा कि हम शायर बनेंगे। सियासत वग़ैरह तो उस वक्त ज़ेहन में बिल्कुल ही न थी। अगरचे उस वक्त क़ी तहरीकों (आंदोलनों) मसल्न कांग्रेस तहरीक, ख़िलाफ़त तहरीक, या भगतसिंह की दहशतपसंद तहरीक के असर तो जेहन में थे, मगर हम ख़ुद इनमें से किसी क़िस्से में शरीक नहीं थे।
शुरू में ख़याल हुआ कि हम कोई बड़े क्रिकेटर बन जायें, क्योंकि लड़कपन से क्रिकेट का शौक़ था और बहुत खेल चुके थे। फिर जी चाहा, उस्ताद बनना चाहिए; रिसर्च करने का शौक़ था। इनमें से कोई बात भी न बनी। हम क्रिकेटर बने न आलोचक; और न रिसर्च किया, अलबत्ता उस्ताद (प्राध्यापक) होकर अमृतसर चले गये।
हमारी ज़िंदगी का शायद सबसे ख़ुशगवार ज़माना अमृतसर ही का था; और कई एतिबार से। एक तो कई इस वजह से, कि जब हमें पहली दफ़ा पढ़ाने का मौक़ा मिला तो बहुत लुत्फ़ आया। अपने विद्यार्थियों से दोस्ती का लुत्फ़; उनसे मिलने और रोज़मर्रा की रस्मो-राह का लुत्फ़; उनसे कुछ सीखने, और उन्हें पढ़ाने का लुत्फ़। उन लोगों से दोस्ती अब तक क़ायम है। दूसरे यह कि, उस ज़माने में कुछ संज़ीदगी से शेर लिखना शुरू किया। तीसरे यह कि, अमृतसर ही में पहली बार सियासत में थोड़ी-बहुत सूझ-बूझ अपने कुछ साथियों की वजह से पैदा हुई; जिनमें महमूदुज्ज़फ़र थे, डॉक्टर रशीद जहां थीं, बाद में डॉक्टर तासीर आ गये थे। यह एक नयी दुनिया साबित हुई। मज़दूरों में काम शुरू किया। सिविल लिबर्टीज़ की एक अंजुमन (संस्था) बनी, तो उसमें काम किया, तरक्क़ीपसंद तहरीक शुरू हुई तो उसके संगठन में काम किया। इन सबसे जेहनी तस्कीन (मानसिक-बौध्दिक संतोष) का एक बिल्कुल नया मैदान हाथ आया।
तरक्क़ीपसंद अदब के बारे में बहसें शुरू हुई, और उनमें हिस्सा लिया। 'अदबे-लतीफ़' के संपादन की पेशकश हुई तो दो-तीन बरस उसका काम किया। उस ज़माने में लिखनेवालों के दो बड़े गिरोह थे; एक अदब-बराय-अदब ('साहित्य साहित्य के लिए') वाले, दूसरे तरक्क़ी-पसंद थे। कई बरस तक इन दोनों के दरमियान बहसें चलती रहीं; जिसकी वजह से काफ़ी मसरूफ़ियत रही ज़ो, अपनी जगह ख़ुद एक बहुत ही दिलचस्प और तस्कीनदेह तजुर्बा था। पहली बार उपमहाद्वीप में रेडियो शुरू हुआ। रेडियो में हमारे दोस्त थे। एक सैयद रशीद अहमद थे, जो रेडियो पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल (महाधीक्षक) हुए। दूसरे, सोमनाथ चिब थे, जो आजकल हिंदुस्तान में पर्यटन विभाग के अध्यक्ष हैं। दोनों बारी-बारी से लाहौर के स्टेशन डायरेक्टर मुक़र्रर हुए। हम और हमारे साथ शहर के दो-चार और अदीब (साहित्यकार) डॉक्टर तासीर, हसरत, सूफ़ी साहब और हरिचंद 'अख्तर' वगैरह रेडियो आने-जाने लगे। उस ज़माने में रेडियो का प्रोग्राम डायरेक्टर ऑफ़ प्रोग्राम्ज़ नहीं बनाता था, हम लोग मिलकर बनाया करते थे। नयी-नयी बातें सोचते थे और उनसे प्रोग्राम का ख़ाका तैयार करते थे। उन दिनों हमने ड्रामे लिखे, फ़ीचर लिखे, दो-चार कहानियां लिखीं। यह सब एक बंधा हुआ काम था। रशीद जब दिल्ली चले गये, तो हम देहली जाने लगे। वहां नये-नये लोगों से मुलाक़ात हुईं। देहली और लखनऊ के लिखनेवाले गिरोहों से जान-पहचान हुई। मजाज़, सरदार जाफ़री, जॉनिसार अख्तर, जज्बी और मख़दूम मरहूम से रेडियो के वास्ते से राबिता (संपर्क) पैदा हुआ; जिससे दोस्ती के अलावा समझ और सूझ-बूझ में तरह-तरह के इज़ाफ़े हुए। वह सारा ज़माना मसरूफ़ियत (व्यस्तता) का भी था, और एक तरह से बेफ़िक्री का भी।
प्रस्तुति : मिर्जा ज़फ़रुल हसन
उर्दू से अनुवाद : शमशेर बहादुर सिंह
( जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नयापथ के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ विशषांक से साभार)
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इस शृंखला के भाग 1, और 2, निम्न लिंक में पढ़ सकते हैं।
फ़ैज़ की कहानी, फ़ैज़ की जुबानी - 1 / विजय शंकर सिंह https://vssraghuvanshi.blogspot.com/2018/11/1.html
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फ़ैज़ की कहानी, फ़ैज़ की जुबानी - 2 / विजय शंकर सिंह https://vssraghuvanshi.blogspot.com/2018/11/2.html
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© विजय शंकर सिंह