Wednesday 14 July 2021

अवधेश पांडेय - कस्तूरबा जानती थीं कि वे साधारण से दिखने वाले एक असाधारण महामानव की धर्मपत्नी हैं

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की धर्मपत्नी कस्तूरबा गाँधी का जन्म 11 अप्रैल सन 1869 को काठियावाड़ के पोरबंदर नगर में हुआ था। अगर हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो हमारे मस्तिष्क में अनेकों महिलाओं का नाम प्रतिबिंबित होते हैं, पर वो महिला जिनका नाम ही स्वतंत्रता का पर्याय बन गया है वो हैं ‘कस्तूरबा गाँधी’। ‘बा’ के नाम से विख्यात कस्तूरबा गाँधी अपनी अंतिम सांस तक  राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के साथ कदमताल करती हुईं  एक साये की तरह उनके साथ रहीं उन्होंने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में  महत्वपूर्ण योगदान दिया। निरक्षर होने के बावजूद कस्तूरबा के अन्दर एक व्यापक दृष्टि थी। उन्होंने ताउम्र बुराई का डटकर सामना किया और कई मौकों पर तो गांधीजी को चेतावनी देने से भी नहीं चूकीं। बकौल महात्मा गाँधी, “जो लोग मेरे और बा के निकट संपर्क में आए हैं, उनमें अधिक संख्या तो ऐसे लोगों की है, जो मेरी अपेक्षा बा पर कई गुना अधिक श्रद्धा रखते हैं”। 

14 साल की कस्तूर का विवाह 13 साल के मोहनदास से हुआ। मोहनदास इंग्लैंड गए और बैरिस्टर बने।  वे  कस्तूर से कस्तूरबा बन गईं। फिर गांधी महात्मा, बापू और राष्ट्रपिता बन गए। इस पूरी प्रक्रिया में कस्तूरबा   गांधी के साथ कदमताल करती रहीं।  महादेव देसाई ने ठीक ही कहा था “गांधी का सचिव होना मुश्किल है मगर गांधी की पत्नी होना दुनिया में सबसे मुश्किल है।”

गांधी जीवनभर अपने उसूलों पर अडिग रहे। गांधी फ़िल्म  में एक दृश्य है  जिसमें गांधी  अपनी  पत्नी कस्तूरबा को दक्षिण अफ्रीका में एक दलित के पाखाने की बाल्टी साफ न करने पर  धक्का देते हुए बाहर ले जाते दिखते हैं। गांधी उनसे कहते हैं कि अगर ये नहीं कर सकतीं तो इस घर में नहीं रहोगी। कस्तूरबा रोती हुई कहती हैं कि आप  विदेश में मुझे लाये हो और इस तरह बाहर धक्का दे रहे हो । विदेश में  कहाँ रहूंगी मैं?  गांधी को अपने बर्ताव पर बहुत  पछतावा होता है, लेकिन अपने उसूल पर नहीं।

गांधी कस्तूरबा को  बड़े धीरज से समझाते हैं कि हम  जिसे गंदा कहते हैं और जिसे साफ करने के लिए हमने एक पूरी जाति बना दी है। हमको उसी गंदगी को खुद साफ  करना होगा। ऐसा करने से या तो यह जाति खत्म हो जाएगी या हम सब लोग उस जाति में चले जायेंगे। कितना मुश्किल है गांधी की पत्नी होना। कस्तूरबा भी समझ गईं कि ये साधारण सा दिखने वाला यह आदमी कितना असाधारण है। यह आदमी किसी खास प्रयोजन के लिए इस दुनिया में आया है और मुझे इसके रास्ते को नहीं रोकना चाहिए। इसीलिए ठीक कहा है कि अगर कस्तूरबा नहीं होतीं तो मोहनदास महात्मा गांधी नहीं बनते।

महात्मा गांधी ने जब अहमदाबाद के पास  अपना साबरमती आश्रम बनाया उसमें एक दलित व्यक्ति रहने आए उनका नाम दूदा भाई था उनके साथ में उनकी पत्नी दानी बेन और एक छोटी बच्ची भी थी। इन तीनों को गांधीजी ने आश्रम में जगह दी तो अहमदाबाद में हंगामा हो गया। लोगों ने जुलूस निकाला और गांधीजी के विरोध में नारे लगे।गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा ने भी  एतराज किया कि वे एक दलित के साथ नहीं रह सकतीं। यहां तक कि  गांधी के भाई  आश्रम छोड़कर जाने लगे।आश्रम ठप होने की स्थिति में आ गया।गांधीजी उदास होकर चटाई पर बैठे बैठे सोचने लगे कि अब क्या होगा? अचानक अहमदाबाद के करोड़पति सेठ अंबालाल साराभाई कार से उतरे ने गांधीजी को 15 हजार रुपये दिए  और  उन्होंने कहा कि बापू जी आश्रम चलते रहना चाहिये। आपके आश्रम में धन की कमी नहीं आने दी जाएगी। गांधीजी अपनी परीक्षा में सफल हुए।

गांधीजी ने बा को समझाया कि क्या ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मण से रिश्ता रखें। दलित सिर्फ दलित से रिश्ता रखें।  जब हम अपने देश से बाहर निकल कर विदेश जाते हैं तो दुनिया हम पर हंसती है। इसलिए छुआछूत के रोग से ग्रसित  यह देश अगर आजादी का दावा दुनिया के समक्ष रखेगा तब कौन इस देश को गंभीरता से लेगा? इसलिए इंसानियत या मनुष्यता का सबसे बड़ा इम्तिहान यह है कि क्या हम अपने से भिन्न व्यक्ति को इत्मीनान देते हैं या नहीं देते। 

कुछ ही दिनों में कस्तूरबा को यह समझ आ गया कि साधारण सा दिखने वाला यह आदमी पूरी दुनिया में सबसे असाधरण है। इस साधारण आदमी को  इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी  और अफ्रीकी देशों से कितने सारे पत्र  लिखे जाते हैं और वो कितने खतों का जवाब देते हैं। आगा खां महल में एक विदेशी महिला पत्रकार ने बा से जब पूछा कि आपको गांधीजी की पत्नी होने पर कैसा महसूस होता है तो बा ने कहा कि मुझे गर्व होता है कि  इस गुलाम मुल्क  की अपनी स्वतंत्र हैसियत नहीं है और उस गुलाम मुल्क के लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाला सिर्फ एक साधारण आदमी है जिसकी अपनी कोई हैसियत नहीं है। इसके बावजूद दुनियाभर के बुद्धिजीवी , दुनियाभर के वैज्ञानिक ,राजनेता ,लेखक गांधीजी से पत्राचार करते हैं। उनसे सलाह मशविरा करते हैं। यह मेरे लिए फक्र की बात है कि एक व्यक्ति जो नितांत शक्ति विहीन है वह  अंतराष्ट्रीय रूप से इतना महत्वपूर्ण है।

भारत छोड़ो आंदोलन के बाद जब महात्मा गांधी, कस्तूरबा और महादेव देसाई को पुणे के आगा खां पैलेस में रखा गया तो महादेव देसाई ने कहा था कि बापू से पहले मुझे उठा ले। 15 अगस्त 1942 को भगवान ने महादेव की सुन ली और वे महात्मा गांधी की गोद में प्राण त्यागकर भगवान को प्यारे हो गए। महादेव को गांधीजी अपना पुत्र मानते थे । महादेव के मरने के सदमे के कारण कस्तूरबा की तबियत भी बिगड़ने लगी। अंग्रेजों ने तो भारत नहीं छोड़ा पर  कस्तूरबा को गुलाम भारत में ही अपनी अंतिम सांस लेनी थी।  गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ आगा खां पैलेस में 21 दिन के अनशन की घोषणा की। गांधीजी के उपवास को अभी 10 दिन ही हुए थे और उनकी तबियत तेजी से बिगड़ने लगी। चर्चिल ने बेबेल से गांधी के मरने के बाद उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए आगा खान महल में ही चुपके चुपके उनके अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था के आदेश दिए।  हिन्दू पद्यति से अंतिम संस्कार करने के लिए दो ब्राह्मण आगा खां महल में  बिठा दिए गए। ताकि अग्निदाह के समय व्यर्थ की हड़बड़ी न हो । चंदन की लकड़ी , शुद्ध घी के कनस्तर  और ऋग्वेद के दशम मण्डल के पुरुष सूक्त के श्लोक का पाठ करने वाले पंडितों की व्यवस्था महल में कर दी गई।

भगवान को  कुछ और ही मंजूर था।  22 फरवरी 1944 को शाम 7 बजकर 35 मिनिट पर जब महाशिवरात्रि पर मंदिरों के घण्टे घनघना रहे थे, कस्तूरबा गांधीजी की गोद में भगवान को प्यारी हो गईं।  अंग्रेजों ने जो सामग्री गांधीजी के अंतिम संस्कार के लिए जुटाई वह कस्तूरबा गांधी के अंतिम संस्कार में लगा दी।

गांधीजी की इच्छा के अनुरूप आगा खां महल पूना में ही उनके प्रिय शिष्य महादेव के बगल में उनकी माँ तुल्य कस्तूरबा का अंतिम संस्कार किया गया।  मां बेटे की  समाधि के प्रतीक के रूप में दो  पौधे आज भी लगे हुए हैं।
मां कस्तूरबा के जन्मदिन ( 11 अप्रैल ) पर उनके चरणों में  सादर नमन।

© अवधेश पांडे
11 अप्रैल 2021

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