Monday 30 March 2020

क्या लॉक डाउन प्रबंधन एक गंभीर प्रशासनिक विफलता है ? / विजय शंकर सिंह

दिल्ली यूपी सीमा पर जब हज़ारो की भीड़ दिल्ली से निकल कर यूपी बिहार स्थित अपने गांव घर की ओर जाने के लिये 25 मार्च को उमड़ी तो लॉक डाउन या सोशल डिस्टेंसिंग का उद्देश्य ही विफल हो गया। लॉक डाउन का उद्देश्य ही यह था कि लोग अपने अपने घरों में 21 दिन तक बंद रहें ताकि कोविड 19 वायरस का जीवन चक्र टूट जाय और इसका प्रसार तथा प्रकोप बाधित हो जाय। सोशल मीडिया पर और अन्य मीडिया चैनलों पर जब यह अफरातफरी फैलने लगी तो सारी जिम्मेदारी दिल्ली के मुख्यमंत्री के ऊपर डाली जाने लगी। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने भी बसों की व्यवस्था की पर जितने लोग सड़कों पर निकल आये थे, उतने लोगों के लिये बसे नहीं थी। लोग पैदल ही सड़कों पर चल रहे थे। सरकार को भी बाद में यह आभास हो गया कि प्रबंधन में एक बड़ी और गहरी चूक हो गयी है । फिर सरकार ने दिल्ली सरकार के दो सचिव स्तर के अधिकारियों को निलंबित किया और एक अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी का जवाब तलब किया। 

दंडात्मक कार्यवाही का उद्देश्य, भविष्य में फिर ऐसी भूल या गलती दुहराई न जाय, होता है, पर जो गलती हो चुकी है और उससे जो दुष्परिणाम सामने आएंगे वे तो आएंगे ही। बात केवल दिल्ली की ही नही है बल्कि हरियाणा, पंजाब, गुजरात, आंध्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक यहां तक कि सुदूर केरल के औद्योगिक  क्षेत्रो से उत्तर प्रदेश और बिहार के कामगारों के पलायन की खबरे मिल रही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि, सरकार ने या तो इस गंभीर आपदा और लॉक डाउन जन्य इस जटिल समस्या पर सोचा नहीं या अगर सोचा तो उसके प्रबंधन में कहीं न कहीं कमी रह गई। हालांकि अब सरकार सक्रिय हुयी है। इस पलायन को संभालने की कोशिश की जा रही है पर इससे कम्युनिटी स्प्रेडिंग का खतरा जो कोविड 19 का तीसरा चरण है अभी टला नहीं है। 

कहा जा रहा है कि, दिल्ली से सबसे अधिक पलायन हुआ। केजरीवाल सरकार पर आरोप है कि उसने अपने राज्य में रह रहे मजदूरों को नही रोका और सबको यूपी की सीमा में ठेल दिया। लगता है, कोई  तैयारी दिल्ली सरकार द्वारा की ही नही गयी। यह केंद राज्य या राज्य राज्य के बीच कोऑर्डिनेशन का अभाव है या, लॉक डाउन प्रबंधन में कमी, क्या कहा जाय। दिल्ली ने गलती की और केंद उस गलती को निहारता रहा। एक आधी अधूरी सरकार ने केंद्र के इस अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय का मज़ाक बना कर रख दिया और भारत सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। अब तक देश मे कोरोना प्रकोप से मरने वालों की संख्या कम है और लॉक डाउन के कुप्रबंधन से मरने वालों की संख्या 22 हो गयी है। ये वे प्रवासी मज़दूर थे जो अपने काम की जगहों से वापस अपने अपने घरों को जा रहे थे। 

कल्पना कीजिये, दिल्ली की भीड़ अगर आनन्द विहार और यूपी बॉर्डर के बजाय लुटियन ज़ोन की ओर रुख करती तो क्या दिल्ली पुलिस उन्हें नहीं रोकती ? दिल्ली स्थित सभी केंद्रीय पुलिस बल की टुकड़ियां उन्हें रोकने में लग जाती और पूरी सरकारी मशीनरी अब तक व्यवस्था में जुट जाती । क्योंकि राजा और राजन्य की नींद में खलल पड़ने का भय था। लेकिन यह भीड़ सरकारों की नींद में खलल डालने की आदत छोड़ चुकी है इसलिए उधर जाएगी नहीं। उसे यह भी पता है कि समाधान उधर भी नहीं है। जव कोई समाधान नहीं रहता है तो हम अपने गांव घर की तरफ ही निकल पड़ते हैं। आज भारत की चर्चा दुनिया भर में जितनी कोरोना प्रकोप के कारण नहीं हो रही है उससे अधिक इस लॉक डाउन की बदइंतजामी के लिये हो रही है। 

अब यह एक राष्ट्रीय आपदा घोषित हो चुकी है और यह संकट जाति धर्म और राजनीतिक विचारधाराओं की सीमा तोड़ कर सर्वव्यापी हो चुका है। सरकार को चाहिए कि वह एक सर्वदलीय बैठक बुलाये और स्वास्थ्य, वित्त, वाणिज्य, आपदा प्रबंधन के विशेषज्ञों सहित अन्य जो इस संकट की घड़ी में कुछ समाधान सुझा सकते हैं की एक अधिकार सम्पन्न कमेटी बनाये और एक इस समस्या से निपटने के लिये तुरन्त ब्ल्यू प्रिंट तैयार कर उस पर काम करे। 

समाज के सबसे कमजोर वर्ग के सामने लॉकडाउन के चलते खाने की समस्या है और यह वर्ग अपनी पेट भरने की ज़रूरत से जूझ रहा है और आगे मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं। लॉक डाउन से बने इन हालात पर सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की एक  रिपोर्ट के अनुसार, "कामगारों और दिल्ली में रह रहे प्रवासियों की इस वक़्त सबसे बड़ी समस्या भूख यानी खाने की कमी की है. दैनिक मजूदरों के पास दो-तीन दिनों से ज़्यादा राशन का पैसा हाथ में नहीं होता और 22 तारीख से लॉकडाउन शुरू हो गया था तो अब तक उनके पास खाने का पैसा ख़त्म हो गया होगा. वो खाना ढूंढने के लिए इधर से उधर जा रहे है। जैसे ही नाइट शेल्टर्स में खाना देने की घोषणा हुई तो लोग शेल्टर्स की तरफ बढ़ने लगे और शेल्टर्स में भीड़ बहुत बढ़ गई. शेल्टर में खाना सीमित होता है तो जो लोग शेल्टर में पहले से मौजूद हैं और जो बाद में आए उनमें झगड़ा भी हुआ। राशन की घर-घर डिलीवरी होगी इसकी घोषणा हुई थी लेकिन यह अभी शुरू नहीं हो पाया है। शेल्टर को कहा गया था कि वो खाना बनाएं फिर उनके खर्चे की भरपाई कर दी जाएगी। लेकिन, शेल्टर होम्स की इतनी क्षमता नहीं है कि वो अपने खर्चे पर इतना खिला पाएं. साथ ही खाने की समान की ठीक से आपूर्ति भी नहीं हो पा रही है. इससे उन लोगों के जीवन को भी ख़तरा है, जो लोग शेल्टर होम्स में काम करते हैं। शेल्टर्स होम्स में एक दिक्कत यह भी है, कि वहां लोगों की भीड़ इतनी बढ़ गई कि लॉकडाउन या सोशल डिस्टेंसिंग का मकसद ही ख़त्म हो गया। शेल्टर होम्स की संख्या भी कम है. जहां औद्योगिक कामगार रहते हैं वहां पर शेल्टर ज़्यादा नहीं हैं।"

क्या सरकार यह अनुमान नहीं लगा पायी कि, 21 दिन का लॉक डाउन कर देने से सारे कामकाज बंद हो जाएंगे ओर जो कामगार तथा दिहाड़ी मजदुर है उनका क्या होगा ? यह कैसे अपना पेट भरेंगे और कैसे जीवन यापन करेंगे । लॉक डाउन के निर्णय के पहले इस सबसे जटिल समस्या की तरफ सोचा भी गया था या इसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया था। खबर है कि उत्तराखंड सहित अन्य राज्य सरकारें अपने इलाके के कामगारों के लिये बस सेवा चलाना चाहते थे पर केंद्र की तरफ से कोई दिशा निर्देश ही नही मिला । देश की निजी विमानन कंपनियों स्पाइसजेट, इंडिगो और गोएयर ने भी प्रवासी कामगारों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए अपनी सेवाएं देने की पेशकश की। इंडिगो के सीईओ धनंजय दत्ता ने नागर विमानन मंत्री हरदीप सिंह पुरी को बताया,'देश में संकट की इस घड़ी में इंडिगो लोगों की जान बचाने में सहयोग करने के लिए पूरी तरह तैयार है। जब समस्या की विकरालता सामने आयी तो, गृह सचिव अजय कुमार भल्ला ने शुक्रवार को राज्यों के मुख्य सचिवों को भेजे पत्र में कहा,'मैं इस बात से वाकिफ हूं कि राज्य इस बारे में कई कदम उठा रहे हैं लेकिन असंगठित क्षेत्र के कामगारों खासकर प्रवासी मजदूरों में बेचैनी है। इस स्थिति पर तुरंत काम करने की जरूरत है। अब गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी किया है. जिसके तहत राज्यो से कहा गया है कि मजदूरों के लिए राज्य आपदा राहत फंड जो लगभग 29 हज़ार करोड़ रुपये का है, से राहत शिविरों की व्यवस्था की जाए।"

कोरोना ने दुनियाभर में अपनी दस्तक दिसंबर में ही दे दी थी। वुहान से भयावह करने वाली खबरें आने लगी थीं। चीन ने वुहान को लॉक डाउन कर दिया  था। भारत मे केरल से पहला मामला मिला था 30 जनवरी को। वह मामला था विदेश से आये एक व्यक्ति का। केरल के बहुत से प्रवासी खाड़ी देशों सहित दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रहते हैं। तब यह तय हो गया था कि अगर यह वायरस आता है तो इसका रास्ता एयरपोर्ट ही होगा। लेकिन सरकार ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। अगर उसके बाद ही समस्त अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर सघन चेकिंग और आने वालों को 14 दिन के क्वारन्टीन में रखने की योजना बना कर उसका क्रियान्वयन कर लिया गया होता तो आज यह स्थिति नहीं होती। इसके साथ ही ऐसी आकस्मिकता से निपटने के लिये अस्पताल और ज़रूरी निजी सुरक्षा के उपकरण एन95 मास्क, सेनेटाइजर और वेंटिलेटर आदि की उपलब्धता की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए थी। पर न हवाई अड्डों पर सतर्कता बरती गयी और न ही अस्पतालों को दुरुस्त किया गया। अब कैबिनेट सचिव कह रहे हैं कि राज्य सरकारें सभी विदेश से आने वालों की जांच पहचान कर उन्हें अलगथलग करें, तो यह काम आसान नहीं है। सरकार का मुख्य काम है योजना और नीति बनाना। सरकार इस मामले में बुरी तरह से चूक गयी है। 

लॉक डाउन का यह निर्णय भी बिना किसी योजना के लागू किये गए, नोटबंदी और जीएसटी के निर्णयों की तरह ही अनेक प्रकार की बदइन्तजामियों से भरा पड़ा है। जैसे नोटबंदी और जीएसटी लागू करते समय सरकार यह अनुमान नहीं लगा पायी कि उसके अच्छे और बुरे परिणाम क्या होंगे, अगर कुछ बुरे परिणाम हुए तो उससे कैसे निपटा जाएगा। वैसे ही 21 दिनी लॉक आउट का निर्णय लेते हुए सरकार यह होम वर्क नहीं कर पायी कि, इस फैसले से, कौन कौन सी समस्याएं आ सकती हैं, उन समस्याओं के समाधान के लिये क्या क्या एक्शन प्लान है, कितना धन लगेगा, धन की व्यवस्था कहाँ से होगी, प्रशासन और पुलिस की क्या भूमिका होगी, कैसे यह लॉक डाउन दंगो और शांति व्यवस्था बिगड़ने की स्थितियों में लगाये गए धारा 144 सीआरपीसी के अंतर्गत कर्फ्यू से अलग है, आदि अनेक विंदु हैं जिस पर सोचा जाना चाहिए था, जो नहीं सोचा गया । अगर होम वर्क किया गया होता तो बहुत सी कठिनाइयां आती भी नहीं और अगर आतीं भीं तो उनका समाधान कर लिया जाता।प्रशासन का अर्थ केवल आदेश जारी करना ही नहीं होता है, बल्कि उसे इस तरह से लागू करना भी है, जिससे, जिसके हित के लिये यह आदेश दिया जा रहा है, उसे कोई दिक्कत न हो या हो भी तो, कम से कम हो। 

यह बात कि गरीब मज़दूरों के पलायन की समस्या भी आ सकती है, यकीन मानिए यह बात किसी के भी जेहन में नहीं आयी होगी। लेकिन यह ज़रूर नीति नियंताओ के जेहन में आ गया होगा कि इस तालाबंदी से कॉरपोरेट को कितना नुकसान होगा और कॉरपोरेट अपने लॉबी और इलेक्टोरल बांड की ताकत के भरोसे उस नुकसान की भरपाई की गुणा भाग में  लग भी गया होगा। यकीन न हो तो जब यह विपदा टले तो देख लीजिएगा, सरकार सबसे पहले और मोटी राहत का ऐलान उन्ही के लिये करेगी। कोई भी फैसला अच्छा बुरा नही होता है। अच्छा बुरा होता है उस फैसले का परिणाम क्या रहा। 

एक ट्वीट पर राजधानी एक्सप्रेस में दूध उपलब्ध करा कर अपनी पीठ थपथपाना और एक ट्वीट पर विदेशों में फंसे किसी को बुला लेना एक प्रशंसनीय कदम ज़रूर है पर अचानक लॉक डाउन करने के पहले, और वह भी महीने के अंत मे जब अधिकतर लोगों जेब खाली रहती है, उन  कामगारों के लिये कोई वैकल्पिक व्यवस्था न करना और उन्हें उन्ही के हाल पर छोड़ देना, यह न केवल निंदनीय कदम है बल्कि क्रूर और घोर लापरवाही भी है। चुनाव और कुम्भ मेले जैसे बड़े आयोजनों के दौरान तैयारियां की जाती हैं, और वे शानदार तरह से निपटते भी हैं। सरकार की प्रशंसा भी इस बात के लिये होती है। ऐसा भी नहीं कि प्रशासन सक्षम नहीं है, लेकिन सरकार चाहती क्या है उसे वह स्पष्ट बताये तो ? लॉक आउट निश्चित ही एक ज़रूरी कदम है पर, लोगो को कम से कम असुविधा हो यह भी कम ज़रुरी नहीं है। 

केंद्र और राज्यों में तालमेल का अभाव किसी भी योजना को ध्वस्त कर सकता है। दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार की सारी योजना बिगाड़ दी और केंद्र सरकार असहाय हो गयी। केंद्र और दिल्ली दोनों एक दूसरे को नहीं जानते हैं क्या ? कभी 300 लोग यूपी से आकर दिल्ली में एक सुनियोजित दंगा करा कर चले जाते हैं और पचास से अधिक लोग मारे जाते हैं करोड़ो की संपत्ति आग के हवाले हो जाती है, तो कभी केजरीवाल सारी फैक्ट्रियों के कामगारों को दिल्ली से निकाल कर यूपी सीमा पर छोड़ आते है और बेचारी सर्व शक्ति सम्पन्न केंद सरकार यह सब देखती रह जाती है। कितनी मासूमियत की बात है। आज तक न उन 300 यूपी से गये दंगाइयों का पता लगा, और न केंद्र यह पता लगा पायेगा कि केजरीवाल ने कैसे लॉक डाउन को विफल कर दिया। क्या इसे प्रशासनिक विफलता नहीं कहा जाना चाहिए ?

हाल की राजनीति में एक नयी परंपरा और नयी राजनीतिक शब्दावली का विकास हुआ है। जैसे जो प्रधानमंत्री की नीतियों का विरोध करता है वह देशद्रोही, जो गरीबो की बात करता है वह वामपंथी अराजक, जो सरकार के खिलाफ बोलता है वह देशतोड़क, जो धर्म के पाखंड की बात करता है वह तो पक्का धर्मद्रोही, आदि नयी शब्दावली ने देश के संघीय ढांचे, बहुदलीय व्यवस्था और बहुलतावादी राजनीतिक विचारधारा के परस्पर मान्य मतभेदों को शत्रु भाव मे बदल कर रख दिया है। यही कारण है केंद्र और राज्य में जहां अलग अलग दलों की सरकारें हैं उनके बीच न केवल वैमनस्य दिख रहा है बल्कि यह शत्रु भाव मे बदल रहा है। जिसे जहाँ मौका मिल रहा है वहीं एक दूसरे को रगड़ दे रहा है। इसलिए केंद्र राज्य में समन्वय की कमी हर बड़े फैसले में रहती है। जब तक यह परस्पर  अविश्वास बना रहेगा, एक भी योजना चाहे जैसी भी हो, जितनी भी उपयोगी हो सफल हो ही नहीं सकती है । 

कभी किसी राष्ट्रीय समस्या पर सर्वदलीय बैठक या औपचारिक अनौपचारिक भेंट मुलाकात प्रधानमंत्री द्वारा राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ हुयी है ? कभी किसी राष्ट्रीय मसले पर सभी दलों के नेता एक साथ सामने आए हैं ? कभी केंद्र ने अपने अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयकों चाहे वह जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 हो, या कश्मीर में लंबे समय तक लॉक डाउन करने की बात हो, या एनआरसी, एनपीआर सीएए से उपजा व्यापक असंतोष हो, या अब यह कोरोना प्रकोप हो, के विषय पर केंद और राज्य के बीच कोई समन्वय बैठक हुयी है ? ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि भाजपा और अन्य दलों के बीच अब केवल वैचारिक मतभेद ही नहीं रहे, अब वह एक पट्टीदारी के झगड़े में बदल गये हैं। जब शत्रुता और वैमनस्य का भाव निजी स्तर पर संक्रमित हो जाता है तो ऐसी ही समस्याएं आएंगी कि सरकार और विपक्ष, जिसे जहां मौका मिलेगा एक दूसरे को नीचा दिखाने का अवसर नहीं छोड़ेंगे, बल्कि ऐसे अवसर गढ़े भी जाएंगे। इन सब रस्साकशी में सबसे पीड़ित और ठगे जाएंगे, हम भारत के लोग। 

लॉक डाउन के बाद, 1.70 हज़ार करोड़ रूपये का कोरोना महामारी से निपटने के लिये सरकार ने ज़ारी किया है । गरीबों के लिये कई योजनाओं और उनके खाते में सहायता राशि सीधे जमा करने के लिये वित्तमंत्री ने घोषणा की है। यह एक अच्छा कदम है। इसकी सफलता इसके सुगम क्रियान्वयन पर है।  राहत धन डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर, यानी सीधे प्राप्तकर्ता के बैंक खाते में जायेगा, यह एक अच्छी बात है। इससे 80 करोड़ ग़रीब, भूखे लोगों को 10 किलो अनाज और नकद सहायता दी जाएगी । यह न युद्ध है न साम्प्रदायिक दंगे, न कोई स्थानीय दैवी आपदा, जैसे बाढ़, भूकम्प या भयावह आग कि जिसका प्रबंधन एक ही स्थान पर केंद्रित हो बल्कि यह एक ऐसी आपदा है जो घर घर मे घुस कर पीड़ित कर देने की क्षमता रखती है। इसके सटीक प्रबंधन की योजना बनानी पड़ेगी। सरकार को सभी अनावश्यक और अनुपयोगी खर्चे रोक देने चाहिए। संसद के विस्तार के लिये 20 हजार करोड़ की योजना तुरन्त स्थगित कर दी जानी चाहिए। सभी निजी अस्पतालों को कोविड 19 के मरीजों के इलाज और टेस्ट के लिए तैयार रहने हेतु सख्ती से हिदायत दे देनी चाहिए और अगर वे आनाकानी करें तो जब तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती तब तक के लिये उनका अधिग्रहण कर लेना चाहिए। 

असल समस्या, धन नहीं बल्कि ऐसे आफत विपत में कैसे इसे संभाला जाय, यह है। धन की व्यवस्था तो हो जाएगी । पर धन रहते हुए भी चीजें कैसे पटरी पर आये यह अक्सर समस्या से विचलित मन सोच भी नहीं पाता है। सर्वदलीय और विशेषज्ञों की कमेटी और एक योजना बनाने की बात मैं इसी लिये कह रहा हूँ। एनडीआरएफ, औऱ एसडीआरएफ जैसे आपदा से निपटने के संगठन देश मे हैं और इनसे निपटने के लिये सरकार के पास शक्तियों की कमी नहीं है। और अगर अधिकारों की कमी है भी तो अध्यादेश केंद्र और राज्य सरकार पारित कर नए कानून बना भी सकती है। देर तो हो ही चुकी है पर यह सब केंद्रीय स्तर पर राज्यों से तालमेल कर के तुरन्त शुरू करना होगा अन्यथा जैसा कि कोरोना के स्टेज 3 यानी कम्यूनिटी स्प्रेडिंग की बात चिकित्सा विशेषज्ञ बता रहे है तब यह सब करना भी कठिन हो जाएगी।

बडी आपदाओं के समय सर्वदलीय मीटिंग की परंपराएं रही है । विरोध और समर्थन के शोर के बीच सरकार और विपक्ष में आपसी संवादहीनता की स्थिति जैसी है वैसी पहले कभी नहीं रही है। जबकि सरकारें 1977 के बाद से लगातार बदलती रही हैं। यह एक घातक सोच विकसित हो रही है कि, जो सरकार या प्रधानमंत्री के विरोध में बोलता है वह देशद्रोही है। यह एक अलोकतांत्रिक मानसिकता है। यह 2014 के बाद का एक निंदनीय बदलाव है। ज़रूरत है ऐसे सर्वदलीय और विशेषज्ञों के कमेटी कि जो न केवल अनुभव, ज्ञान और दृष्टि से समृद्ध हो बल्कि उनमे एक पेशेवर इच्छा शक्ति भी हो। केवल लफ़्फ़ाज़ी और हवाबाजी कि सब एकजुट रहे, राष्ट्र को बचाना है, जैसे जुमले काम नही आएंगे। 

( विजय शंकर सिंह )

लॉक डाउन अब तक की सबसे बड़ी प्रशासनिक विफलता है / विजय शंकर सिंह

दिल्ली से सबसे अधिक पलायन हुआ। कहा जा रहा है कि " दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने अपने राज्य में रह रहे मजदूरों, कामगारों और विभिन्न राज्यो से आये हुए प्रवासी लोगों को नही रोका और सबको यूपी की तरफ ठेल दिया। उनके रुकने, खाने पीने किसी भी चीज का उपाय नहीं किया।  सब यूपी की सीमा में आ गए। लाखों सड़कों पर हैं और यह लॉक डाउन ध्वस्त हो गया। ' बीजेपी आईटी सेल कह रहा है कि सरकार ने बिजली पानी काट दी। सच क्या है यह तो अभी पता नही। लापरवाही भी हुयी है और दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने इस पलायन को रोकने की व्यवस्था नहीं की। कोई भी तैयारी दिल्ली सरकार द्वारा की ही नही गयी, यह भी आरोप सोशल मीडिया पर चल रहा है । यह केंद - राज्य या राज्य - राज्य के बीच कोऑर्डिनेशन का अभाव है या, लॉक डाउन प्रबंधन में कमी, या कोई साजिश, अभी क्या कहा जाय।

दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने गलती की और केंद की मोदी सरकार उस गलती को निहारती रही। एक आधी अधूरी सरकार ने एक बेहद मजबूत केंद्र सरकार के इस अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय का मज़ाक बना कर रख दिया और भारत सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। अज़ीब बेचारगी है। यह भी कहा जा रहा है कि, यूपी सरकार ने जब 1000 बसों की व्यवस्था की तो कुछ भीड़ छंटी। केंद सरकार को दिल्ली सरकार से इस अव्यवस्था के बारे में पूछना चाहिए और तत्काल अपने संसाधनों का प्रयोग कर इस विकट स्थिति को संभालना चाहिए। स्थिति सुधरे यह 1000 बसों के बस की बात नही है। सरकार को कुछ और सोचना होगा। सड़कों पर लाखों की भीड़ है और अभी इंतज़ामात उतने नहीं हैं जितने होने चाहिये। 

केंद्र और राज्यों में तालमेल का अभाव किसी भी योजना को ध्वस्त कर सकता है। इस बड़ी और बेहद ज़रूरी लॉक डाउन योजना में यही हुआ है। भाजपा आईटी सेल कह रहा है, दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार की सारी योजना बिगाड़ दी । और बेबस केंद्र सरकार असहाय हो गयी। केंद्र और दिल्ली दोनों एक दूसरे को नहीं जानते हैं क्या ? दिल्ली तो वैसे ही आधी अधूरी सरकार है। यह पहलीं बार कोई एलिबाई नहीं ढूंढी जा रही है।  कभी 300 लोग यूपी से आकर दिल्ली में एक सुनियोजित दंगा करा कर चले जाते हैं जिसमे, पचास से अधिक लोग मारे जाते हैं और करोड़ो की संपत्ति आग के हवाले हो जाती है, तो कभी केजरीवाल सारी फैक्ट्रियों के कामगारों को दिल्ली से निकाल कर यूपी सीमा पर छोड़ आता है और बेचारी सर्व शक्ति सम्पन्न केंद सरकार यह सब देखती रह जाती है। 

कितनी मासूमियत की बात है। कितनी बेबसी की बात हैं। आज तक, न तो, जेएनयू के उन नकाबपोश बदमाशों का पता  लग पाया जिन्होंने 5 जनवरी को जेएनयू कैम्पस में घुसकर अराजकता फैलाई थी, न तो आज तक उन 300 दंगाइयों का पता लग पाया जो उत्तर प्रदेश ने जाकर दिल्ली में हिंसा फैला कर न जाने कहाँ रूपोश हो गये,  और आगे शायद यह भी न केंद्र पता लगा पाए कि केजरीवाल ने कैसे लॉक डाउन को विफल कर दिया। सरकार को यह तो पता है कि केजरीवाल एक आतंकी है, वह अर्बन नक्सल है, बस उसके पास इन सब व्याधियों का इलाज नहीं है। क्या यह प्रशासनिक अक्षमता नही है ? 

दरअसल देश मे, हाल की राजनीति में एक नयी परंपरा और नए राजनीतिक शब्दावली का विकास हुआ है। जैसे, जो प्रधानमंत्री की नीतियों का विरोध करता है वह देशद्रोही है, जो गरीबो और शोषण की बात करता है वह वामपंथी और अराजक है, जो सरकार के खिलाफ बोलता है वह देशतोड़क और पाकिस्तान परस्त है, जो धर्म के पाखंड की बात करता है वह तो पक्का धर्मद्रोही है ही, आदि आदि की इस नयी शब्दावली ने देश के संघीय ढांचे, बहुदलीय व्यवस्था और बहुलतावादी राजनीतिक विचारधारा के परस्पर मान्य मतभेदों को शत्रु भाव मे बदल कर रख दिया है। यही कारण है केंद्र और राज्य में जहां अलग अलग दलों की सरकार हैं उनके बीच न केवल प्रत्यक्ष वैमनस्य दिख रहा है बल्कि यह मतभेद एक शत्रु भाव मे भी बदल जा रहा है। यह विभाजन इतना स्पष्ट हो चला है सामान्य निजी सम्बंध प्रभावित हो चले हैं, राजनीतिक संबंधों की तो बात ही दीगर है। राज्य और केंद्र सरकारों में, जिसे जहाँ मौका मिल रहा है वहीं एक दूसरे को रगड़ दे रहा है। इसलिए केंद्र राज्य में समन्वय की कमी हर बड़े फैसले में रहती है। जब तक यह परस्पर  अविश्वास रहेगा, एक भी योजना चाहे जैसी भी हो, जितनी भी उपयोगी हो सफल हो ही नहीं सकती है । 

कभी किसी राष्ट्रीय समस्या पर सर्वदलीय बैठक या औपचारिक अनौपचारिक भेंट मुलाकात केंद्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकारों के साथ हुयी है ? कभी किसी राष्ट्रीय मसले पर सभी दलों के नेता एक साथ सामने आए हैं ? कभी केंद्र ने अपने अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयकों चाहे वह जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 हो, या कश्मीर में लंबे समय तक लॉक डाउन करने की बात हो, या एनआरसी, एनपीआर सीएए से उपजा व्यापक जन असंतोष हो, या अब इस नामुराद कोरोना प्रकोप का मामला हो, कभी केंद और राज्य के बीच कोई समन्वय बैठक हुयी है ? यह तो छोड़ दीजिए, इन विषयों पर, एनडीए के सरकार समर्थित घटक दलों की भी कोई गोष्ठी नही बुलाई गयी। यह भी अभूतपूर्व है कि, केंद सरकार के एक महत्वाकांक्षी योजना एनपीआर को लेकर 11 राज्य सरकारों और विधान सभाओं ने उसके क्रियान्वयन करने से मना कर दिया है। फिर भी केंद राज्य के बीच इस विषय पर एक बार भी सबकी कोई बैठक तक नहीं हुयी। आखिर केंद्र सरकार ने क्यों नहीं इतने महत्वपूर्ण मसले पर राज्यो के मुख्यमंत्रियों और सभी दलो को अपने विश्वास में लिया ?

ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि भाजपा और अन्य दलों के बीच अब केवल वैचारिक मतभेद ही नहीं रहे, अब वह एक पट्टीदारी के झगड़े जैसे हो गए हैं। जब शत्रुता और वैमनस्य का भाव निजी स्तर पर संक्रमित हो जाय तो ऐसी समस्याएं आएंगी ही कि सरकार और विपक्ष, जिसे जहां मौका मिलेगा एक दूसरे को नीचा दिखाने का अवसर नहीं छोड़ेंगे, बल्कि ऐसे अवसर ढूंढे और गढ़े भी जाएंगे। इन सब रस्साकशी में सबसे पीड़ित और ठगे जाएंगे, हम भारत के लोग। यह एक संकीर्ण समाज का द्योतक है। घमंड भरी तानाशाही की सोच का परिणाम है यह। जब जनता के प्रति सरकार का दृष्टिकोण  लोककल्याणकारी राज्य का नहीं रह जाता है तो शासन का यही विकृत रूप उभर कर सामने आ जाता है। 

कल्पना कीजिए, यदि दिल्ली की यही  भीड़ आनन्द विहार और यूपी बॉर्डर के बजाय लुटियन ज़ोन की ओर रुख कर दी होती तो क्या दिल्ली पुलिस उन्हें नहीं रोकती ? तब तक दिल्ली स्थित सभी केंद्रीय पुलिस बल की टुकड़ियां इस जुगत में लग जाती कि यह भीड़ लुटियन ज़ोन से दूर ही रहे। दोनों सरकारों की पूरी सरकारी मशीनरी अब तक व्यवस्था में जुट जाती । क्योंकि राजा और राजन्य की नींद में खलल पड़ने का भय था। सुविधाओं का आदी शासक वर्ग सबसे अधिक अपनी सुविधा छिनने के भय से घबराता है। लेकिन यह भीड़ सरकारों की नींद में खलल डालने की आदत छोड़ चुकी है इसलिए उधर जाएगी नहीं। जनपथ ने राजपथ पर अतिक्रमण करना अब छोड़ दिया है। डॉ लोहिया के शब्दों में सूनी सड़कों ने संसद को आवारा बना दिया है। अब तो सबसे महत्वपूर्ण फाइनेंस बिल, जिसे बजट कहते हैं, बिना चर्चा के ही पास हो जाते हैं। दूसरे,  भीड़ को यह भी लगने लगा है कि, किसी भी समस्या का समाधान अब उधर भी नहीं है। जव कोई समाधान नहीं रहता है तो हम अपने गांव घर की तरफ ही निकल पड़ते हैं। आज भारत की चर्चा दुनिया भर में जितनी कोरोना प्रकोप के कारण नहीं हो रही है उससे अधिक इस लॉक डाउन के बदइंतजामी के लिये हो रही है। 

कोरोना प्रकोप, अब एक राष्ट्रीय आपदा घोषित हो चुकी है और यह संकट जाति धर्म और राजनीतिक विचारधाराओं की सीमा तोड़ कर सर्वव्यापी हो चुका है। सरकार को चाहिए कि वह एक सर्वदलीय बैठक बुलाये और स्वास्थ्य, वित्त, वाणिज्य, आपदा प्रबंधन के विशेषज्ञों सहित अन्य जो इस संकट की घड़ी में कुछ समाधान सुझा सकते हैं की एक अधिकार सम्पन्न कमेटी बनाये और इस समस्या से निपटने के लिये तुरन्त ब्ल्यू प्रिंट तैयार कर उस पर काम करे। 

बडी आपदाओं के समय सर्वदलीय मीटिंग की जाती रही है और ऐसी कमेटियां बनती भी रही हैं। इस सर्वदलीय और विशेषज्ञों की कमेटी में वे ही लोग रखे जांय जिनके पास ऐसे संकट से उबरने के लिये न केवल ज्ञान और दृष्टि हो बल्कि एक पेशेवर इच्छा शक्ति भी हो। केवल लफ़्फ़ाज़ी और हवाबाजी कि सब एकजुट रहे, राष्ट्र को बचाना है, जैसे जुमले काम नही आएंगे। आंधी, तूफान, बाढ़, या भूकम्प जैसी आपदाये आती है तो कोई भी एकजुट नहीं रहता है, समाज, परिवार और बंधन के सारे ताने बाने बिखर जाते हैं। हर व्यक्ति खुद बचने बचाने की जुगत में पड़ जाता है। फिर न कोई सुभाषित काम आता है और न कोई लफ्फाजी भरा भाषण। न मन कि बात और न ही रात आठ बजे के प्रवचन। 

अब जाकर कुछ पूंजीपतियों ने धन देना शुरू कर दिया है। कुछ धार्मिक संस्थाओं ने भी धन देना शुरू कर दिया है। सामाजिक संगठनों ने भी जितनी हैसियत है उसके अनुसार अपनी अपनी जगहों पर सहायता पहुंचानी शुरू कर दी है। लेकिन यह सहायता कैसे और किस तरह से बिना उसके दुरुपयोग हुए पहुंचाई जाय उसका एक मैकेनिज्म बनाना सरकार का काम है। सहायता में प्राथमिकताएं तय की जांय। यह न युद्ध है न साम्प्रदायिक दंगे, न कोई स्थानीय दैवी आपदा, जैसे बाढ़, भूकम्प या भयावह आग कि जिसका प्रबंधन एक ही स्थान पर केंद्रित हो बल्कि यह एक ऐसी आपदा है जो घर घर मे घुस कर पीड़ित कर देने की क्षमता रखती है। इसके सटीक प्रबंधन की योजना बनानी पड़ेगी। जो फिलहाल तो कही दिख नहीं रही है। 

सरकार के पास प्रधानमंत्री राहत कोष पहले से है और अब एक नया कोष प्रधानमंत्री केयर फंड और नया बना है। सरकार को धन की ज़रूरत पड़ेगी, यह बात सबसे महत्वपूर्ण हैं। सरकार को सभी अनावश्यक और अनुपयोगी खर्चे रोक देने चाहिए। संसद के विस्तार के लिये 20 हजार करोड़ की योजना तुरन्त स्थगित कर दी जानी चाहिए। अन्य जो खर्चे अनुपयोगी हों उनकी भी समीक्षा की जानी चाहिये। सभी निजी अस्पतालों को कोविड 19 के मरीजों के इलाज और टेस्ट के तैयार रहने की लिये सख्ती से हिदायत दे देनी चाहिए और अगर वे आनाकानी करें तो जब तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती तब तक के लिये उनका अधिग्रगण कर लेना चाहिए। 

हज़ारों लोग सड़कों पर निकल आये है । वे अपने घरों को, जो उनके नौकरी की जगह से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं, की ओर बिना यह जाने बूझे कि, कैसे जाएंगे, चल पड़े हैं । जो फ़ोटो सोशल मीडिया पर दिख रही हैं, उनसे तो यही लगता है कि लॉक डाउन अब टूट गया है। जिस सोशल डिस्टेंसिंग की बात दुनिया कर रही है उसका तमाशा बन चुका है। अब कम से कम इन बेसहारो को राहत पहुंचाने के लिए, रास्ते मे पड़ने वाले स्कूलों कॉलेज की बिल्डिंगों को तब तक उनका स्थानीय ठिकाना बना कर उनके भोजन पानी की व्यवस्था के लिये, इन्हें आसपास की स्वयंसेवी संस्थाओं को देखरेख  का दायित्व दे दिया जाना चाहिए। फिर जब जैसी परिस्थिति और व्यवस्था आगे हो वैसे ही उन्हें उनके गंतव्य तक भेजना चाहिए। फिलहाल तो उन्हें भी राहत मिले और कोरोना प्रकोप को फैलने से रोका जा सके। 

असल समस्या, धन की कमी नहीं होती है बल्कि असल समस्या होती है ऐसे आफत विपत में कैसे इसे संभाला जाय। धन की व्यवस्था तो हो जाएगी पर धन रहते हुए भी चीजें कैसे पटरी पर आये यह अक्सर समस्या से विचलित मन सोच भी नहीं पाता है। सर्वदलीय और विशेषज्ञों की कमेटी और एक योजना बनाने की बात मैं इसी लिये कह रहा हूँ। एनडीआरएफ, औऱ एसडीआरएफ जैसे आपदा से निपटने के संगठन देश मे हैं और इनसे निपटने के लिये सरकार के पास शक्तियों की कमी नहीं है। और अगर अधिकारों की कमी है भी तो अध्यादेश केंद्र और राज्य सरकार पारित कर नए कानून बना भी सकती है। देर तो हो ही चुकी है पर यह सब केंद्रीय स्तर पर राज्यों से तालमेल कर के तुरन्त शुरू करना होगा अन्यथा जैसा कि कोरोना के स्टेज 3 यानी कम्यूनिटी स्प्रेडिंग की बात चिकित्सा विशेषज्ञ बता रहे है तब यह सब करना भी कठिन हो जाएगी। अगर इसे संभाला नहीं गया तो, यह उस आसन्न महामारी से भी घातक हो जाएगा जिसे बचाने के लिये हम यह सब उपक्रम कर रहे हैं। 

( विजय शंकर सिंह )

Ghalib - Kyon na ho beiltifaati / क्यों न हो बे इल्तीफ़ाती - गालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 115.
क्यों न हो बेइल्तिफ़ाती, उसकी खातिर जमअ है,
जानता है महव ए पुराशिसहा ए पिनहानी मुझे !!

Kyon na ho be'iltifaatee, uskii khaatir jama'a hai
Jaanataa hai, mahv e purashis'haa e pinahaanee mujhe !!
- Ghalib

उसकी उपेक्षा से मैं दुखी नहीं हूं, चाहे उपेक्षा वह कितनी भी करे पर मुझे यह पता है कि वह अंदर ही अंदर मेरा ध्यान रखता है।

ग़ालिब का यह अद्भुत आशावाद है। इश्क़ ए हक़ीक़ी के संदर्भ में लें तो भी और इश्क़ ए मजाज़ी के संदर्भ में लें तो भी। वे निरन्तर 'उसके' उपेक्षा भाव से त्रस्त हैं, पर उन्हें लगता है कि :उसकी' यह सारी उपेक्षा ऊपर ऊपर की ही है। इस आहनी ( लोहे की ) और संगदिली ( पत्थर जैसी ) उपेक्षा के भीतर का जो मौसम है वह बेहद खूबसूरत और दिल को सुकून देने वाला है। यह दीवार टूटेगी और वही मौसम फिर से आएगा। यहां यह ईश्वर के लिये कहा गया है। ग़ालिब का एक स्थायी भाव यह है, कि वे उपेक्षा से विचलित नहीं होते हैं और न उससे घबराते हैं। वे इस उपेक्षा के खत्म होने की सदैव एक उम्मीद बांधे रहते हैं। उनका यह शेर जो लगभग इसी तासीर का है पढ़े,

माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन,
हम खाक हो जाएंगे, तुमको खबर होने तक !!

यहां भी उनकी उम्मीद शेष है। तमाम तगाफुल उपेक्षा के बावजूद उन्हें यह उम्मीद है कि यह उपेक्षा का दौर खत्म होगा और वक़्त फिर अपने तौर में लौट आएगा, तभी वे एक छोटी सी शिकायत करते हैं कि हमे विश्वास है कि तुम मेरी उपेक्षा नहीं करोगे लेकिन जब तक तुम हमारी सुध लोगे हम मिट्टी हो जाएंगे यानी ज़िंदा ही नहीं बचेंगे। यह वे अल्लाह के लिये कह रहे हैं या किसी और के लिये यह हम सब अपनी अपनी तरह से सोच सकते हैं।

जिन मुसीबतों के बीच ग़ालिब ने ज़िंदगी गुज़ारी है उन मुसीबतों में कोई सकारात्मक आशावादी व्यक्ति ही जी सकता है। यही आशावाद उन्हें दिल्ली से लखनऊ फिर बाँदा होते हुए बनारस ले गया जहां गंगा के घाटों और मंदिरों की शंख तथा घण्ट ध्वनि ने उन्हें बांध लिया और वे कह बैठे कि काश हम पूरा जीवन बनारस में ही बिता पाते। पर वे रुकते कैसे। मक़सद तो उनका कलकत्ता जाने का था। वे कलकत्ता गए और फिर बिना किसी उपलब्धि के वापस दिल्ली आ गए। मसला उनकी पेंशन का था। बाद में उन्हें जो कुछ शाही ख़ज़ाने से मिलता था,वह भी 1858 में ब्रिटिश सरकार के पूरी तरह से दिल्ली पर कब्ज़ा कर लेने के बाद बंद हो गया। अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर तो गिरफ्तार कर के रंगून भेज दिए गए थे। लाल किले की मौसिकी और सुखन की सारी महफ़िल उजड़ गयी थी और वहां तो फौजी बूटों की कवायद हो रही थी। ग़ालिब 1857 के विप्लव के साक्षी थे। उनके पत्रों के संग्रह जो ग़ालिब अकादेमी ने छापे हैं में इस विप्लव का उल्लेख है। 
" मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पर की आसां हो गयी। "

ग़ालिब का जीवन उनकी लेखनी की तरह से ही अबूझ और कई तरह से व्याख्यायित हो सकने वाला है। मैं उनके शेरो को पढ़ने और समझने की एक कोशिश कर रहा हूँ। जो समझ पाया वह आप सब से साझा कर रहा हूं।

( विजय शंकर सिंह )
#vss 

Saturday 28 March 2020

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप होहिं नरक अधिकारी !' / विजय शंकर सिंह

आज दो तस्वीरे सोशल मीडिया पर बहुत अधिक शेयर की जा रही हैं। एक तस्वीर है प्रकाश जावेडकर की जो सूचना प्रसारण मंत्री हैं और दूसरी तरवीर है केशव मौर्य की जो यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। इस लॉक डाउन की त्रासदी में प्रकाश जावेडकर का योगदान है कि उन्होंने जनता की मांग पर इक्कीस साल पहले चले लोकप्रिय धारावाहिक जो रामानंद सागर ने बनाया था को पुनः प्रसारित करवा दिया और आज वे उसी का आनंद अपने ड्राइंग रूम में बैठे हुए ले रहे हैं। 

प्रकाश जावेडकर ने उक्त तस्वीर को ट्वीट किया और गर्व से यह लिखा कि मैं रामायण देख रहा हूँ, क्या आप देख रहे हैं ? इस ट्वीट की बेहद आक्रामक निंदात्मक प्रतिक्रिया हुयी और लोगों ने उनकी असम्वेदनशीलता के लिये जम कर लताड़ा। अंत मे वह ट्वीट प्रकाश जावेडकर द्वारा डिलीट कर दिया। 

अजब हाल है कि आज जब सरकार को अपनी जनता के लिए न सिर्फ संवेदनशील होना  चाहिए बल्कि यह संवेदनशीलता दिखनी भी चाहिये तो सरकार रामायण देख रहे हैं । और हम सामुहिक वनगमन की त्रासदी में लोगों को भटकते देख रहे हैं। दिल्ली से निकलने वाले हर राजमार्ग पर भूखे प्यासे विभिन्न झुंडों में लोग न जाने कहाँ कहाँ जा रहे हैं। ये वे रोज कमाने खाने वाले लोग हैं जो कारखानों के बंद या लॉक डाउन के बाद, अपने घरों की ओर निकल चुके हैं।  1947 के बंटवारे का पलायन जो हमने फिल्मों और डॉक्यूमेंट्री में देखा है उसी तरह की फ़ोटो और वीडियो हम सब अपनी अपनी मोबाईल स्क्रीन पर लगातार देख रहे हैं। अंतर बस यह है कि वह पलायन धार्मिक कट्टरता का पलायन था यह पलायन घोर प्रशासनिक अक्षमता का है। 

सुना है, 
रात तेज आंधी तूफान आया, 
शहर की बिजली गुल थी, 
लोगों के घरों में पानी भी नहीं आया, 
जगह जगह पेड़ उखड़ कर गिर गए, 
पूरी रात मेह बरसता रहा, 

पूछा सरकार ने अपने वातानुकूलित ख्वाबगाह में, 
नरम और मुलायम सोफे पर धंसे हुये, 
चाय की कप में, 
एक अदद सुगरफ़्री की टिकिया डाल, 
चम्मच से उसे हिलाते हुए
सामने करबद्ध खड़े अफसर से।

सुबह के कई अखबार, 
करीने से सेंटर टेबुल पर रखते हुये, 
एहसानों की दबी मुद्रा में, 
धीरे से अफसर ने कहा, 

जी, पानी बरसा था, 
पर अब धूप निकल आयी है, 
बिजली गयी थी, 
पर अब ठीक हो गयी है, 
पानी तो नलों में आया था, 
वह तो बंद ही नही हुआ था, 
और सब तो ठीक है, 
पर, सरकार आप को जुखाम तो नहीं हुआ 
इस बेमौसम की बारिश से। 

अखबार के एक कोने में 
पेड़ गिरने से दबे एक व्यक्ति की फ़ोटो छपी थी, 
और वहीं एक खबर कि 
तूफान, आंधी, बारिश, पानी ओले से, 
शहर में लोगों और फसलों को भारी नुकसान हुआ है।
कुछ लोग मरे हैं कुछ अस्पताल में हैं। 

सबको मालूम है, 
चौबीस घन्टे, बस चौबीस घन्टे बाद, 
एक नया अखबार छप जाएगा, 
और यही खबरें रद्दी के भाव बिक जाएंगी। 

यह एक मजाक उड़ाती हुयी फ़ूहड़ तस्वीर है, आपत्ति रामायण देखने पर नहीं आपत्ति एक बेहद जिम्मेदार पद पर आसीन व्यक्ति की इस अशालीन औऱ अश्लीन तस्वीर के प्रदर्शन पर है। 

प्रकाश जावेडकर और केशव मौर्य ही नहीं, भाजपा नेता बलबीर पुंज ने भी एक शर्मनाक ट्वीट किया है कि, ये मज़दूर काम खत्म होने के कारण नहीं बल्कि छुट्टियां मनाने अपने गांव निकल गए हैं। ऐसी असम्वेदनशीलता न केवल निंदनीय है बल्कि इनके ठस और अहंकार से भरी हुयी, ज़मीन से कटी हुयी और जनता से दूर होती हुयी खुदगर्ज भरी सोच और मानसिकता को प्रतिविम्बित करती है। 
राम इन्हें सदबुद्धि दें।

( विजय शंकर सिंह )

Friday 27 March 2020

लॉक आउट - देश कोई एमसीबी नहीं कि जब चाहे ऑन ऑफ किया जा सके. / विजय शंकर सिंह

24 मार्च को अचानक लॉक डाउन की घोषणा के बाद, से जो अफरातफरी मची वह केवल ज़रूरी चीजों की खरीदारी के लिये ही नहीं थी क्योंकि सरकार ने तुरंत यह स्पष्ट कर दिया था कि आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की जाएगी, हड़बड़ाहट में कोई समान जिसे अंग्रेजी में पैनिक बाइंग कहते हैं न किया जाय। लेकिन जब लंबी लॉक आउट की घोषणा हुयी तो, प्रवासी मजदूरों ओर ठेका मजदूरों की भारी संख्या अपना मेहनताना दिये बिना भगा दी गयी या वे ही खुद ही अपने गांव घरों की ओर निकल गए। रेल बस आदि सभी सेवाएं बंद हैं वे झुंड के झुंड ही अपने अपने घरों की ओर पैदल ही निकल गए। हालांकि बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके जाने के लिये रोडवेज की बसें चलाने की व्यवस्था की। यातायात के जन साधन बन्द हैं और मजदूरों की यह भारी भीड़ सड़कों पर धक्के खाने ओर उत्पीड़न झेलने के लिए मजबूर है। यह समय फसल की कटाई का होता है और महीने भर चलता है। हालांकि थ्रेसर के प्रयोग आम होते जा रहे हैं फिर भी कटाई मज़दूरों की भारी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार से हरियाणा और पंजाब की ओर इस सीजन में बहुत जाती है। इस लॉक डाउन से उत्तरी भारत में लाखों प्रवासी मजदूरों की जीविका का जरिया - गेहूं की कटाई न केवल प्रभावित होगी बल्कि इससे फसलों पर भी असर पड़ेगा। 

लॉक डाउन का यह निर्णय भी बिना किसी योजना के लागू किये गए, नोटबंदी और जीएसटी के निर्णयों की तरह ही अनेक प्रकार की बदइन्तजामियों से भरा पड़ा है। जैसे नोटबंदी और जीएसटी लागू करते समय सरकार यह अनुमान नहीं लगा पायी कि उसके अच्छे और बुरे परिणाम क्या होंगे, अगर कुछ बुरे परिणाम हुए तो उससे कैसे निपटा जाएगा। वैसे ही 21 दिनी लॉक आउट का निर्णय लेते हुए सरकार यह होम वर्क नहीं कर पायी कि, इस फैसले से, कौन कौन सी समस्याएं आ सकती हैं, उन समस्याओं के समाधान के लिये क्या क्या एक्शन प्लान है, कितना धन लगेगा, धन की व्यवस्था कहाँ से होगी, प्रशासन और पुलिस की क्या भूमिका होगी, कैसे यह लॉक डाउन दंगो और शांति व्यवस्था बिगड़ने की स्थितियों में लगाये गए धारा 144 सीआरपीसी के अंतर्गत कर्फ्यू से अलग है, आदि अनेक विंदु हैं जिस पर सोचा जाना चाहिए था, जो नहीं सोचा गया । अगर होम वर्क किया गया है तब इन समस्याओं का समाधान किया जाय।

प्रशासन का अर्थ केवल आदेश जारी करना ही नहीं बल्कि उसे इस तरह से लागू करना जिससे जिसके हित के लिये यह आदेश दिया जा रहा है, उसे कोई दिक्कत न हो या हो भी तो, कम से कम असुविधा हो। लॉक डाउन हो जाएगा तो फैक्ट्रियां बंद हो जाएंगी, लोग खाली हो जाएंगे, वे फिर कहाँ जाएंगे ? फैक्ट्री मालिक की हैसियत भी है उन सबको बैठा कर खिलाने के लिये या फिर क्या यह सम्भव है कि सरकार सबको खिलाये ? आज हज़ार हज़ार किलोमीटर लोग पैदल अपने घरों को जाते दिख रहे हैं। कुछ संस्थाएं और लोग तथा सरकार उन्हें खिला रही है औऱ अब जाकर कुछ बसें यूपी सरकार ने चलाई है। 

क्या यह अंदाजा पहले नही लगाया जा सकता था कि गरीब मज़दूरों के पलायन की समस्या भी आ सकती है। यकीन मानिए यह बात किसी के भी जेहन में नहीं आयी होगी। लेकिन यह ज़रूर नीति नियंताओ के जेहन में आ गयी होगी कि इस तालाबंदी से कॉरपोरेट को कितना नुकसान होगा और कॉरपोरेट अपने लॉबी और इलेक्टोरल बांड की ताकत के भरोसे उस नुकसान की भरपाई की गुणा भाग में  लग भी गया होगा। यकीन न हो तो जब यह विपदा टले तो देख लीजिएगा, सरकार सबसे पहले और मोटी राहत का ऐलान उन्ही के लिये करती है। कोई भी फैसला अच्छा बुरा नही होता है। अच्छा बुरा होता है उस फैसले का परिणाम क्या रहा। 

भारत एक बहुलता भरा देश और अधिसंख्य आबादी कम पूंजी या बेहद कम आय पर अपना गुजर बसर करती है। 30 जनवरी को कोरोना का सबसे पहला मामला केरल में आया। केरल में प्रवासी भारतीय बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं तो यह बहुत असामान्य भी नहीं था। 

"द हिन्दू"  अखबार में, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज का एक लेख, लॉक डाउन के संदर्भ में,  छपा है। ज्यां द्रेज एक प्रतिभासंपन्न अर्थशास्त्री हैं और विकासशील देशों की आर्थिकी पर वे अक्सर शोध करते रहते हैं और उनके शोधपत्र छपते रहते हैं। उन्होंने इस महामारी से निपटने के लिये देशव्यापी लॉक डाउन के क्या परिणाम हो सकते हैं पर भी एक शोध किया है और उसे इस लेख में लिखा है। यह बात शत प्रतिशत सही है कि वर्तमान परिस्थितियों में देश व्यापी लॉक डाउन एक अकेला विकल्प है जो इस महामारी का प्रसार रोक सकता है। अगर चिकित्सा सुविधाएं बेहतर हों तो भी और जब खराब हैं तब तो यही विकल्प शेष भी है। 

उनके लेख में दिए गए तथ्यों के अनुसार कोरोना वायरस के प्रकोप ने हमारे देश के सामने दो संकट पैदा कर दिये हैं, एक तो स्वास्थ संकट ओर दूसरा आर्थिक संकट। दुर्भाग्य से इन दोनों ही मोर्चो पर भारत ही स्थिति पहले से ही चिंता जनक है । स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार, हर साल 80 लाख लोग विभिन्न बीमारियों से मर जाते है। बड़े सरकारी अस्पताल, कुछ बड़े मेडिकल कॉलेजों के अस्पताल और एम्स को छोड़ दिया जाय तो जिलों के सरकारी अस्पताल मेडिकल स्टाफ, डॉक्टरों और अन्य चिकित्सकीय उपकरणों की कमी से लंबे समय से ग्रस्त हैं। गावो में जो प्राइमरी हेल्थ सेंटर बने हैं उनकी तो अलग व्यथा कथा है ही। स्वास्थ्य का आधारभूत ढांचा इतना भी सक्षम नहीं है कि वह स्थानीय स्तर पर फैलने वाले संक्रामक रोगों को झेल सके फिर यह तो एक वैश्विक आपदा है। याद कीजिये गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में ऑक्सिजन की कमी से पचासों बच्चो की जान 2016 में चली गयी थी। 

कोरोना वायरस के प्रकोप के शिकार भले ही सम्पन्न और उच्च मध्यम वर्ग के लोग, जो विदेशों में अधिक आवागमन करते रहते हैं, हों पर इसके संक्रमण को रोकने के लिये किये गए वयापक लॉक डाउन का असर समाज के निम्न आय वर्ग के लोगो और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों पर भी पड़ा है। ज्यां द्रेज कोरोना वायरस के इस प्रकोप को वर्तमान आर्थिक संकट का वर्गीय चरित्र कहते हैं, जिसने करोड़ो गरीब लोगो की जीविका पर सबसे आधिक असर डाला है।

इस असंगठित क्षेत्र में, प्रवासी मजदूर, जो फसल कटाई के समय मे दूसरे सम्पन्न कृषि वाले राज्यों में जाकर कुछ धन कमाते हैं,  ठेका मजदूर जो मूलतः कंस्ट्रक्शन के कार्य मे या तो बड़ी कंपनियों द्वारा संचालित निर्माण योजनाओं में या स्थानीय भवन निर्माण की योजनाओं में काम कर के जीवन यापन करते हैं,  रेहड़ी, ठेले, खोमचे वाले लोग,जो रोज कमाते और खाते हैं,  यानी इस पूरे असंगठित क्षेत्र को इस लॉक आउट से चोट पहुंची है और यह आपदा कोरोना से कम आघात इन्हें नही पहुंचाएगी। ज्यां इसे अर्थव्यवस्था पर  सुनामी की संज्ञा देते हैं। 

यह मान के चलिये कि वर्तमान संकट, जितना महामारी का है उससे कम भुखमरी की आशंका का नहीं है। यह संकट स्वास्थ सम्बन्धी ओर आर्थिक दोनों ही तरफ है । रोज कुआ खोद कर पानी पीने वाली' करोड़ों मेहनतकश आबादी को बिना किसी भी सरकारी सहायता के घरों में कैद कर देना उन पर कहर ढा देगा। महानगरों की बड़ी बड़ी सोसायटियों और मध्यम वर्ग की बस्तियों की बात में नहीं कर रहा हूँ जो इस लॉक डाउन को टीवी, फेसबुक और फिल्में देख तथा दोस्तों से बात कर के काट ले रहे हैं, जिनके पास कम ही सही नियमित आय का साधन भी कुछ न कुछ है, और भोजन की न्यूनतम व्यवस्था तो है ही, बल्कि यह समस्या उनकी है जिनके घर तब चूल्हा जलता है जब शाम को कामगार या दिहाड़ी पर जीने वाला कुछ न कुछ कमा कर घर लाता है। 

भारत के मजदूरों की आर्थिक दशा  यूरोप ओर अमेरिका के मजदूरों से भिन्न है। उनके कृषि का ढांचा अलग है। उनके यहां विकास की परिकल्पना अलग है। उनके यहां अपेक्षाकृत बेरोज़गारी कम है, आबादी कम है और स्वास्थ्य का इंफ्रास्ट्रक्चर हमारे यहां के मुकाबले बेहतर है। हालांकि भारत मे, जन आपूर्ति सिस्टम, पीडीएस, मनरेगा, मध्याह्न भोजन की सुविधा, , आंगनबाड़ी जैसी कई आधारभूत गरीबी उन्मूलन की योजनाएं हैं, हालांकि उनकी स्थिति बहुत उत्तम तो नहीं पर एक ठीकठाक नेटवर्क तो उनका है ही, जिसके जरिए सरकारें तुरंत राशन ओर आर्थिक सहायता उन्हें ज़रूरत पड़ने पर उपलब्ध भी करा सकती है। लेकिन सरकारअपने संसाधन मुठ्ठी भर कारपोरेट को बेल आऊट पैकेज देने के बजाए, इस संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित करोड़ों मेहनतकशों पर खर्च करने का इरादा करे तो। 

लॉक डाउन के बाद, 1.70 हज़ार करोड़ रूपये का कोरोना महामारी से निपटने के लिये सरकार ने ज़ारी किया है । गरीबों के लिये कई योजनाओं और उनके खाते में सहायता राशि सीधे जमा करने के लिये वित्तमंत्री ने घोषणा की है। यह एक अच्छा कदम है। इसकी सफलता इसके सुगम क्रियान्वयन पर है। उम्मीद है कि वैश्विक महामारी की इस आपदा में प्रशासनिक तंत्र कम से कम असंवेदनशील नहीं होगा और यह राशि वास्तविक हक़दारों तक पहुंचेगी और इस त्रासदी में कुछ न कुछ तो राहत उन्हें मिलेगी। राहत धन डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर, यानी सीधे प्राप्तकर्ता के बैंक खाते में जायेगा, यह एक अच्छी बात है। इससे 80 करोड़ ग़रीब, भूखे लोगों को 10 किलो अनाज और नकद सहायता दी जाएगी । 

राहत पैकेज की घोषणाओं को संक्षेप में आप यहां पढ़ सकते हैं।
● 20 करोड़ जन धन खातों में 500 रुपये 3 माह तक दिए जाएंगे। 
● 8.69 करोड़ महिलाओं को उज्ज्वला योजना के अंतर्गत 3 माह तक सिलेंडर मुफ्त दिए जाएंगे ।
● देश के लोगों के लिए 1 लाख 76 हजार करोड़ का पैकेज दिया गया है ।
● देश के 80 करोड़ लगभग 2/3 जनसंख्या को 5 किलो चावल / गेहूं तथा 1 किलो दाल दी जाएगी ।
● हेल्थ केयर वर्कर के लिए 3 महीनों के लिए 50 लाख का मेडिकल इन्सुरेंस ।
● देश के किसानों को 2 हजार रुपये अप्रैल महीने में भेज दी जाएगी। 
● वृद्ध , विधवा व विकलांग पेंशन 1000 कर दी गयी है ।
● स्वयं सहायता समूह की 7 करोड़ गृहणी को 20 लाख तक का कल्लेट्रोल फ्री लोन ।
● 3.5 करोड़ रजिस्टर्ड  कंस्ट्रक्शन वर्कर  की सहायता के लिए राज्यों को दिए जाने वाले 31 हजार करोड़ रुपये प्रयोग करने को कहा। 
● कर्मचारियों को epf का 75%  निकालने की छूट ।
● मनरेगा के मजदूरों की दैनिक मजदूरी 202 की गई। 
● कर्मचारी जिनकी आय 15 हजार तथा वो कंपनी जिनके कर्मचारियों की संख्या 100 से कम है उनके epf का 12 % तथा कंपनी के 12% का हिस्सा सरकार देगी। 

अस्पतालों और मेडिकल स्टाफ के लिए पैकेज की कोई घोषणा नहीं की गयी है, लेकिन 20 लाख मेडिकल स्टाफ के लिये 50 लाख के बीमे की व्यवस्था की गयी है, और बीमा तब मिलता है जब कोई नही रहता है। अस्पतालों और मेडिकल स्टाफ को पीपीई यानी एन95 मास्क, बॉडी कवर और दस्ताने तथा मरीज़ों के लिये आईसीयू में वेंटिलेटर की ज़रूरतों पर भी सरकार को व्यय करना चाहिए। बीमा का लाभ अक्सर बीमा कम्पनी उठा लेती है । बीमा इलाज नहीं इलाज या उपचारोपरांत जीने मरने पर धन का आश्वासन है। हो सकता है सरकार ने अस्पतालों और मेडिकल स्टाफ के लिये अलग से दिया हो, पर जब विस्तृत निर्देश निकले तो स्पष्ट हो। 

खुद को घरों में बंद कर लेने के पीछे हमारा मुख्य उद्देश्य यह है कि राष्ट्र हित में हम इस बीमारी के खिलाफ हो रहे ' सामूहिक प्रयास ' में सहभागी हैं। जन सेवाओं और उत्पादन गतिविधियों आदि का लॉक डाउन भी इसी सामूहिक प्रयास का हिस्सा है। अगर राष्ट्र हित में किए गए किसी 'सामूहिक कार्य' से किसी की जीविका पर संकट आता है तो उसकी भरपाई करना भी एक लोककल्याणकारी राज्य में सरकार का कर्तव्य है। स्वास्थ सेवाएं, जन वितरण प्रणाली आंगनबाड़ी, मनरेगा आदि को न केवल जारी रखना चाहिए बल्कि कई गुना बढ़ा देना चाहिए। सरकारों की अब तक की कार्यवाहियों से प्रतीत होता है कि स्वास्थ संकट से निपटने के लिए की जा रही गैर - रचनात्मक  लॉक डाउन करोड़ों मेहनतकशों को भयावह भुखमरी के चंगुल में फंसा देगी।

एक ट्वीट पर राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन में दूध उपलब्ध करा कर अपनी पीठ थपथपाना और एक ट्वीट पर विदेशों में फंसे किसी को बुला लेना एक प्रशंसनीय कदम ज़रूर है पर अचानक लॉक डाउन करने के पहले,  और वह भी महीने के अंत मे जब अधिकतर लोगों जेब खाली रहती है, उन  कामगारों के लिये कोई वैकल्पिक व्यवस्था न करना और उन्हें उन्ही के हाल पर छोड़ देना, यह न केवल निंदनीय कदम है बल्कि क्रूर और घोर लापरवाही भी है। चुनाव के दौरान तैयारियां की जाती हैं। कुम्भ मेले के दौरान तैयारियां की जाती हैं। और वे शानदार तरह से निपटते भी हैं। सरकार की प्रशंसा भी होती है। ऐसा भी नहीं कि प्रशासन सक्षम नहीं है, लेकिन सरकार चाहती क्या है उसे वह स्पष्ट बताये तो ? लॉक डाउन निश्चित ही एक ज़रूरी कदम है पर, लोगो को कम से कम असुविधा हो यह भी कम ज़रुर्री नहीं है। 

 ( विजय शंकर सिंह )

Thursday 26 March 2020

Ghalib - Kyon na firdaus mein dozakh / क्यों न फिरदौस में दोज़ख - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 114.
क्यों न फिरदौस में, दोज़ख को मिला लें यारब,
सैर के वास्ते थोड़ी सी फ़ज़ा और सही !!

Kyon na firdaus mein, dozakh ko milaa len, yaarab.
Sair ke waaste thodee see fazaa aur sahee !!
- Ghalib

क्यों न स्वर्ग में नर्क को भी मिला लिया जाय। ऐसा करने से घूमने फिरने के लिये थोड़ा और वातावरण मिल जाएगा।

ग़ालिब खुद को आधा मुसलमान कहते थे। जुए और एक झगड़े में जब उन्हें पुलिस पकड़ कर अंग्रेज़ हाकिम के पास ले गयी तो अंग्रेज़ मैजिस्ट्रेट ने उनसे उनका धर्म पूछा तो ग़ालिब ने कहा, हुज़ूर मैं आधा मुसलमान हूँ। अदालत हँसने लगी और फिर पूछा कि कैसे । तब ग़ालिब कहते हैं, शराब पीता हूँ, सुअर नहीं खाता । इस्लाम मे सूअर और शराब दोनो ही हराम है। इस तरह ग़ालिब खुद को आधा धार्मिक बताते हैं, सच तो यह है कि वे धर्म का उपहास उड़ाते हैं। 

उनका यह शेर भी स्वर्ग में अपार सुख, हूरों आदि और नर्क में यातनामय वातावरण की अवधारणा का उपहास ही है। स्वर्ग और नर्क ऐसी कल्पनाएं हैं जहां कोई आज तक गया नहीं, किसी ने देखा नहीं, उन सुखों और उन यातनाओं को किसी ने भोगा नहीं, फिर भी सबसे विशद वर्णन उन्ही का लोग करते हैं। यह वर्णन और यह अवधारणा सभी धर्मों में है। चाहे वे सेमेटिक या अब्राहमिक धर्म माने जाने वाले यहूदी, ईसाई और इस्लाम हों या सनातन धर्म। 

लेकिन यह अवधारणा दो प्राचीन भारतीय धर्मो जो तर्क और प्रमाण पर आधारित हैं जैसे जैन और बौद्ध धर्म मे नहीं मिलते हैं । यह दोनो ही धर्म संयम और करुणा पर आधारित है, तर्क पर टिके हैं , ईश्वर जैसी किसी संस्था के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते हैं। यह अलग बात है कि कालांतर में दोनों ही धर्मो के प्रवर्तक खुद ही ईश्वरीय शक्तियों से सम्पन्न मान लिये गए और जिन कर्मकांडो के विरोध में ये धर्म प्रारंभ हुए वैसे ही जटिल और अंधविश्वास भरे कर्मकांड इन धर्मों में भी आ गए। 

अब इसी से मिलता जुलता, कबीर का यह दोहा भी पढ़ें।

कौन स्वर्ग, कौन नरक, विचारा, संतन दोऊ रादे, 
हम काहू कि काण न कहते, अपने गुरु परसादे !!
( कबीर )

स्वर्ग क्या है और नर्क क्या है, संतो ने इन दोनों कल्पनाओं को ही रद्द और अमान्य घोषित कर दिया है। अपने गुरु की कृपा के कारण हम न स्वर्ग मानते हैं और न नर्क ।

सच तो यह है कि अच्छे कर्म करने से स्वर्ग और बुरे कर्म करने से नर्क मिलता है यह केवल जनता को इसी लोभ के बहाने अच्छे कर्म करने को प्रेरित और बुरे कर्म करने से रोकने की एक प्रवित्ति है। स्वर्ग हो, न हो, ईश्वर हो, न हो,इन सब विवादों में गए बगैर मनुर्भव यानी, मनुष्य बनें की बात की गयी है और तमाम पाखंड और ढोंग का विरोध किया गया है। 

( बिजय शंकर सिंह )


Wednesday 25 March 2020

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को दी गयी फांसी, उनकी न्यायिक हत्या थी. / विजय शंकर सिंह

23 मार्च शहीदे आज़म भगत सिंह का शहीदी दिवस है। इसी दिन लाहौर सेंट्रल जेल, जो अब पाकिस्तान में है में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था। अब वहां एक चौराहा है जिसे शादमान चौक कहा जाता है। उस स्थान का नाम बदलने के लिये पाकिस्तान में एक आंदोलन चल रहा है। सरकार ने उनकी बात मान ली है। भगत सिंह स्वाधीनता संग्राम के एक अनोखे सेनानी हैं जो भारत और पाकिस्तान में समान भाव से याद किये जाते हैं। भगत सिंह को हत्या के एक मामले में दोषी ठहराया गया था । पर जब गंभीरता से उनके मुक़दमे के बारे में अध्ययन किया जाता है तो यह बात निकल कर सामने आती है कि उनके विरुद्ध चलाया गया यह मुक़दमा विधिक रूप से गलत था और इसमें कई कानूनी कमियां भी थीं। 

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था और 23 साल की उम्र में उन्हें राजगुरु और सुखदेव के साथ एक ऐसे मुक़दमे में फांसी दे दी गयी जो कानूनी दृष्टिकोण से गैर कानूनी था। लाहौर, पाकिस्तान के एक एडवोकेट जो इस गैर कानूनी मुक़दमे और फांसी की सज़ा के विरुद्ध एक कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं के अनुसार, उन्हें जिस अदालत ने फांसी की सज़ा सुनाई उसे न्यायालय के रूप में पंजाब की विधायिका ने कोई अधिकार ही नहीं दिया था। वह अदालत का गठन ही गैर कानूनी था। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी के लिये जो डेथ वारंट जारी किया गया था वह उस अदालत द्वारा जारी किया गया था, जिसे डेथ वारंट जारी करने का अधिकार ही नहीं था। मुक़दमे की पूरी सुनवायी ही न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतो के विपरीत की गयीं थी। 

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में 8 अप्रैल 1929 को बम फेंका था। उस समय असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी बिल जो सरकार को किसी को भी बिना कारण बंदी बनाने का अधिकार और शक्तियां देता था पर बहस चल रही थी। उसी के विरोध में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंका और उक्त बिल के विरोध में कुछ पर्चे भी फेंके, और यह नारा लगाया कि बहरों के कान खोलने के लिये यह धमाका ज़रुर्री था। उन पर्चो पर उनकी मांगे लिखी गयी थीं। यह एक बड़ी घटना थी और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को एक चुनौती थी। वह बम केवल धमाके की आवाज़ के लिये था न कि किसी को मारने के लिये। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त वही खड़े रहे और उन्होंने वहाँ से भागने का भी प्रयास नहीं किया। क्योंकि उनका इरादा ही बिल के खिलाफ जनता और ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित करना था। 

इस मुकदमे की सुनवाई 7 मई को ब्रिटिश मैजिस्ट्रेट बीपी पूल के सामने शुरू हुयी। भगत सिंह की तरफ से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता आसिफ अली वकील के रूप में पैरवी करने के लिये खड़े हुए। सरकारी वकील राय बहादुर सूर्यनारायण अभियोजन की तरफ से थे। सरकारी वकील ने यह दलील दी कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा फेंका गया बम हत्या करने और असेम्बली को उड़ाने के उद्देश्य से फेंका गया था। उन्होंने कहा कि यह हिज मैजेस्टी की अस्मिता पर यह हमला था। यह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एक युद्ध की घोषणा है क्योंकि असेम्बली ब्रिटिश सम्राट का प्रतीक है। मैजिस्ट्रेट ने आरोप तय किये और इसे सेशन जज लियोनार्ड मिडिलटन जो जिला जज भी था की अदालत में सुपुर्द कर दिया। 

अभियोजन ने यह भी आरोप लगाया था कि भगत सिंह ने असेम्बली में न केवल बम फेंका था, बल्कि उन्होंने अपनी रिवाल्वर से हत्या करने की नीयत से दो गोलियां भी चलाई थीं। यह आरोप बिल्कुल झूठा था। क्योकि न तो भगत सिंह ने और न ही बटुकेश्वर दत्त ने कोई गोली चलाई । इस झूठे आरोप के कारण दोनो क्रांतिकारियों ने मुक़दमे की सुनवाई में सहयोग करने से मना कर दिया। यह बात सही है कि जब भगत सिंह असेम्बली में बम फेंकने गए थे तो उनके पास पिस्तौल थी, जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी देते समय पुलिस को वहीं सौंप दी थी। पुलिस को भी यह पता था कि उस पिस्तौल से कोई गोली नही चलायी गई है। एफआईआर में भी यह बात दर्ज नहीं की गयी थी। जबकि कारियों पुलिस ने ही लिखाई थी। मौके से गिरफ्तारी पुलिस ने खुद नहीं की थी, बल्कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वतः ही 
अपनी गिरफ्तारी दे दी थी। उन्होंने भागने के बजाय गिरफ्तारी देना उचित समझा। लेकिन जज लियोनार्ड मिडिलटन की सेशन अदालत ने 14 साल की सज़ा, असेम्बली में बम फेंकने, हत्या के प्रयास, आर्म्स एक्ट और एक्सप्लोसिव एक्ट के अंतर्गत सब मिला कर दे दिया।  

लेकिन ब्रिटिश सरकार इस सज़ायाबी से भी संतुष्ट नहीं हुयी। भगत सिंह को जितनी सजाये उपरोक्त धाराओं में दी जा सकती थीं, दे दी गयीं थी। अब उन्हें दूसरी तरह से फंसाने का उपक्रम सरकार द्वारा किया जाने लगा। लाहौर में ही साइमन कमीशन के आगमन पर उसका जबरदस्त विरोध 30 अप्रैल 1928 को पंजाब केसरी कहे जाने वाले कांग्रेस के नेता लाला लाजपत राय ने किया था। पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज लाला लाजपत राय के नेतृत्व में निकले जुलूस पर किया था, जिसमे लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए और फिर उन्ही चोटों से उनकी मृत्यु 17 नवंबर 1928 को हो गयी। लाला लाजपत राय ने अपनी घायलावस्था में पुलिस के इस बर्बर लाठीचार्ज पर कहा था कि, मेरे शरीर पर पड़ने वाली लाठी की एक एक चोट, ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत की कील होगी। 

लाला लाजपत राय के ऊपर हुए इस हमले में सारा दोष डिप्टी कमिश्नर था जिसे मारने के लिये क्रांतिकारियों ने योजना बनायी। लेकिन डिप्टी कमिश्नर के ऊपर घात लगा कर हमला करने की योजना सफल तो हुयी पर उक्त डिप्टी कमिश्नर की जगह एक युवा अंग्रेज अफसर सांडर्स मारा गया। सांडर्स के साथ एक हेड कॉन्स्टेबल चरण सिंह की भी मृत्यु इस हमले में हुयी थी। यह घटना 17 दिसंबर 1928 की है। घटना की एफआईआर, लाहौर के थाना अनारकली में धारा 302, 120 बी आईपीसी की बनाम दो अज्ञात हमलावर युवकों के दर्ज की गयी थी। सांडर्स की हत्या के बाद घटनास्थल और कुछ स्थानों पर कुछ पर्चे चिपकाए गए थे। पुलिस का कहना था कि यह उसी प्रकार के पर्चे थे जो असेम्बली बम कांड में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने फेंके थे। यही एक सुबूत था पुलिस के पास जिसके आधार पर भगत सिंह को ब्रिटिश पुलिस फंसा सकती थी। 

सांडर्स और चरण सिंह के मारे जाने का यह मुक़दमा लाहौर षड़यंत्र केस के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सांडर्स, वायसरॉय लॉर्ड इरविन के निजी सचिव का होने वाला दामाद भी था। इसलिए यह मामला ब्रिटिश हुकूमत के लिये और भी महत्वपूर्ण बन गया। यह मुक़दमा, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के खिलाफ ब्रिस्टल जेल में सुना गया और इसकी सुनवाई फर्स्ट क्लास मैजिस्ट्रेट पंडित किशन लाल ने की । जिनको बाद में अंग्रेजों ने राय बहादुर के खिताब से नवाजा। किशन लाल के ही फैसले से यह मुक़दमा सेशन सुपुर्द हुआ था। 

मुक़दमे की सुनवाई के दौरान ही जेल की बदइंतजामी से क्षुब्ध होकर भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों साथियों ने जेल में ही अनशन शुरू कर दिया। उन्होंने मुक़दमे की सुनवाई की तारीखों पर जाना बंद कर दिया औऱ ट्रायल में किसी भी प्रकार से सहयोग देने से मना कर दिया। अभियोजन के पास भगत सिंह के विरुद्ध कोई ठोस सबूत भी नहीं था। जिस पर्चे के आधार पर यह केस खड़ा किया गया था, उस पर्चे की पुष्टि असेम्बली में फेंके गए पर्चे से प्रमाणित नहीं हुयी। हालांकि आरोप तय हो चुके थे, पर उसके बाद की सुनवाई बेहद लचर थी। 

जेल में चल रहे आमरण अनशन की खबरें लाहौर के दैनिक अखबार द ट्रिब्यून में नियमित छप रही थी। 1930 में ही लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन भी तय था। उस सिलसिले में जब जवाहरलाल नेहरू लाहौर गए तो, वे भगत सिंह से मिलने जेल गए। भगत सिंह से मिलकर जब जेल के बाहर नेहरू निकले तो उनका एक लंबा इंटरव्यू द ट्रिब्यून ने छापा। नेहरू ने भगत सिंह और उनके साथियों के इस अनशन का विवरण दिया और इन क्रांतिकारियों को जबरन खाना खिलाने की बात की निंदा की और सरकार से कहा कि वह इन क्रांतिकारियों को राजनीतिक बंदी की सुविधाएं दे। देश मे भगत सिंह की खूब चर्चा होने लगी और ब्रिटिश सरकार ने फिर इन क्रांतिकारियों की जेल में सुविधाएं देने की मांग मान ली। इस आमरण अनशन में क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु भी 13 दिसंबर 1929 को हो गयी। 

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा के पृष्ठ 204 में इस मुलाकात का जिक्र इन शब्दों में किया है, 
" मैं जब लाहौर में गया था तो यह भूख हड़ताल एक महीना पुरानी हो चुकी थी। मुझे कुछ कैदियों से जेल में जा कर मिलने की इजाज़त मिली थी। मैंने इस मौके का फायदा उठाया। मैंने भगत सिंह को पहली बार देखा और जतिनदास तथा अन्य भी वहीं थे। वे सभी बहुत कमजोर हो गए थे और बिस्तर पर ही पड़े थे, इस लिये उनसे बहुत मुश्किल से ही बात हो सकी। भगत सिंह एक आकर्षक और बौद्धिक लगे जो गज़ब के शांत और निश्चिंत  । मुझे उनके चेहरे पर लेश मात्र भी क्रोध नहीं दिखा था। वे बहुत ही सौम्य लग रहे थे और शालीनता से बात कर रहे थे। लेकिन मैं यह सोच बैठा था कि जो एक महीने से भूख हड़ताल पर बैठा हो वह तो आध्यात्मिक व्यक्ति जैसा दिखेगा। जतिनदास तो और भी सौम्य, कोमल तथा लड़कियों जैसा दिखा । हालांकि निरन्तर भूख हड़ताल से वह बहुत कष्ट में था । "

भगत सिंह ने अदालत में अपनी पेशी पर अपना मुक़दमा खुद ही लड़ा। उन्होंने जो दलीलें दी वह अपने बचाव में कम बल्कि उन्होंने अपनी वैचारिक पीठिका के आधार पर अपनी बात कही। उनके भाषण जो अदालत में हुए वे अखबारों में भी खूब छपे और भगत सिंह की एक बेहद प्रबुद्ध और विवेकशील विचारक की क्षवि उभर कर सामने आयी। ब्रिटिश हुकूमत जल्दी से जल्दी मुक़दमे का समापन चाहती थी और भगत सिंह इसे और लम्बा खींचना चाहते थे। उन्हें इस मुकदमे के परिणाम का पता था। लेकिन वे ब्रिटिश न्यायतंत्र को उघाड़ कर रख देना चाहते थे। वे साम्राज्यवाद के शराफत और न्याय के मुखौटे को खींच कर फेंक देना चाहते थे। 

उधर सरकार भी जल्दी से जल्दी भगत सिंह के मुक़दमे की सुनवाई खत्म कर देना चाहती थी। 1 मई 1930 को तत्कालीन वायसरॉय लार्ड इरविन ने एक अध्यादेश द्वारा केवल इस मुकदमे की सुनवाई के लिये एक ट्रिब्यूनल का गठन किया जिसे लाहौर षडयंत्र केस की सुनवाई की जिम्मेदारी दी गई। 7 अक्टूबर को ही जब इस ट्रिब्यूनल अवधि समाप्त हो रही थी, इस ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को , अंग्रेज अफसर, सांडर्स और हेड कॉन्स्टेबल चरण सिंह की हत्या का दोषी ठहरा दिया और मृत्युदंड की सज़ा सुना दी। 

अब इस मुक़दमे की कानूनी कमियों पर चर्चा करते हैं। पूरा मुक़दमा ही कानूनी कमियों से भरा पड़ा था। 
● जिस प्रथम सूचना पर सांडर्स और चरण सिंह की हत्या का दोष भगत सिंह और साथियों पर साबित किया गया था, उस एफआईआर में उनका नाम ही नहीं था। 
● पुलिस की तफ्तीश में भी उनका नाम प्रकाश में नहीं आया था। 
● उनका नाम बइस्तवाह यानी संदेह के रूप में भी पुलिस ने उक्त एफआईआर में दर्ज नहीं किया था। 
● जब असेम्बली बम कांड में उन पर मुकदमा चलाया जाना शुरू हुआ तब इनका नाम लाहौर षडयंत्र केस में अभियोजन द्वारा जोड़ा गया। 
● जिस अध्यादेश के अंतर्गत गठित ट्रिब्यूनल द्वारा, लाहौर षडयंत्र केस की सुनवाई हुयी थी उसका अनुमोदन विधायिका से कभी लिया ही नही गया था। जबकि कानूनन ऐसा करना ज़रुर्री था। 
● जिस डेथ वारंट पर भगत सिंह और साथियों को फांसी दी गयी थी, वह भी काल बाधित हो गया था।
● जिस डेथ वारंट पर इन शहीदों को फांसी दी गयी थी, उक्त डेथ वारंट को उस अदालत द्वारा ज़ारी भी नहीं किया गया था, जिसने फांसी की यह सजा सुनाई थी।
● नियमानुसार, ट्रायल कोर्ट ही जिसने फांसी की सज़ा सुनाई है वही डेथ वारंट जारी कर सकता है। अतः यह डेथ वारंट ही अवैधानिक था। 
● लाहौर षडयंत्र केस में भगत सिंह और साथियों को बचाव का पर्याप्त अवसर भी नहीं दिया गया। 
● अभियोजन के कुछ 450 गवाहों में से बचाव पक्ष को जिरह की अनुमति दी ही नहीं गयी। 
● केवल उन्ही गवाहों से पूछताछ करने की अनुमति मिली जो वायदा माफी गवाह, (अप्रूवर) बन गए थे। 
● ट्रिब्यूनल की पूरी कोशिश थी कि जल्दी से जल्दी फांसी की सज़ा सुना दी जाय। जैसे सब कुछ पहले से तय हो।
● एफआईआर में दो अज्ञात युवक का उल्लेख है। विवेचना में राजगुरु और सुखदेव के नाम बाद में आये। फिर भगत सिंह का नाम कब और किस संदर्भ से आया यह न तो पुलिस विवेचना में बता पायी और न अभियोजन अदालत में। 
● संक्षेप में कहें तो, न वकील, न दलील न अपील का यह एक उदाहरण था। 

लाहौर, पाकिस्तान के एक एडवोकेट, इम्तियाज रशीद कुरेशी ने लाहौर हाईकोर्ट में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के खिलाफ चले लाहौर षडयंत्र के मुक़दमे को पुनः खोलने के लिये उक्त ट्रायल में हुयी कमियों को रेखांकित करते हुए एक याचिका भी दायर की है। कुरेशी, लाहौर में भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन के अध्यक्ष भी है। ऊपर जो कमियां विन्दुवार बताई गयी हैं वह इन्ही कुरेशी की याचिका से ली गयी है। यह सब विवरण, पाकिस्तान के अखबार डॉन की साइट पर उपलब्ध है। भगत सिंह आज भी पाकिस्तान और विशेषकर पंजाब के इलाके में लोकप्रिय हैं। इम्तियाज कुरेशी यह भी चाहते हैं कि लाहौर षडयंत्र के मुक़दमे की गैर कानूनी सुनवाई और भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव को दुर्भावनापूर्ण तरीके से मृत्युदंड देने के लिये ब्रिटेन मांफी मांगे। 

ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने जिस कानून के राज का नक़ाब ओढ़ रखा था वह लाहौर षडयंत्र केस में बुरी तरह से उतर गया और शोषक, साम्राज्यवाद का विद्रूप चेहरा सामने आ गया। इंक़लाब ज़िंदाबाद  और साम्राज्यवाद का नाश हो का उद्घोष करते हुए भारतीय स्वाधीनता संग्राम का यह अमर योद्धा अपने दो साथियों सहित शहीद हो गया। 

( विजय शंकर सिंह )

Monday 23 March 2020

क्या व्यापक कोरोना प्रकोप को हमारी स्वास्थ्य सेवाएं झेल पाएंगी ? / विजय शंकर सिंह

22 मार्च को प्रधानमंत्री की अपील पर पूरा देश बंद रहा और शाम को लोगो ने घँटे शंख थाली आदि बजाकर स्वास्थ्य विभाग के डॉक्टरों औऱ अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का मनोबल बढ़ाया। आज पूरा देश एक वायरस के आतंक से जूझ रहा है। चीन के वुहान शहर से शुरू हुआ मौत और दहशत का यह घातक वायरस अब धीरे धीरे पूरी दुनिया मे फैल गया है। भारत मे सबसे पहला मामला 30 जनवरी को केरल में सामने आया और अब तक लगभग 450 मामले सामने आ चुके हैं। 4 लोग इस वायरस के कारण मर चुके हैं। यह वायरस अपने प्रकोप के दूसरे चरण को पार कर के तीसरे चरण जिसे कम्युनिटी स्प्रेडिंग चरण कहते हैं में न पहुंच जाय इसी लिए 22 मार्च का एक दिन लॉक डाउन रखा गया था, पर शाम को जब घन्टे और थाली बज रही थी तो यह लॉक डाउन टूट गया और लोग उत्साह में सड़कों पर आ गए। सरकार ने जिस उद्देश्य से इस बंदी की अपील की थी, वह कुछ तो मूर्खता के अतिरेक और कुछ चाटुकारिता भरे उत्साह के कारण विफल हो गयी । इस प्रकोप से बचने का एक बड़ा उपाय सामाजिक दूरी है और दुनियाभर के देश इसी निरोधात्मक उपाय को अपना रहे हैं तो हमने भी देर से ही सही, इस उपाय को अपनाते हुए पूर्ण बंदी को स्वीकार कर लिया। राजस्थान, दिल्ली, पंजाब पूरा बंद है, उत्तर प्रदेश के कई शहर बंद हैं। बस आवश्यक सेवाओं को इनसे मुक्त रखा गया है। अब लगभग हर जगह लॉक डाउन है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन को 31 दिसंबर को इस महामारी के संकेत मिले और 30 जनवरी को भारत मे पहला मामला मिला। इसे अंतरराष्ट्रीय चिन्ता वाली विश्व स्वास्थ्य इमरजेंसी घोषित कर दिया गया। 2 फ़रवरी को सरकार का बयान आता है कि सरकार इसकी निगरानी कर रही है। लेकिन विदेशों से आने वाले लोगों की जांच और उन्हें अलगथलग रखने की कोई प्रक्रिया तब तक नहीं शुरू की गयी। 24 और 25 फरवरी को इसी आपात स्थिति में अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा निपटता है। इटली और दक्षिण कोरिया में जहां यह महामारी भीषण रूप ले चुकी है के लोगों के भी आने पर कोई रोक नहीं लगायी और न ही सघन टेस्टिंग आदि की कार्यवाही की गयी। 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित किया।  प्रधानमंत्री द्वारा 22 मार्च को एकदिनी जनता कर्फ्यू की घोषणा की गई और 22 मार्च को जो कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी वह शाम तक तमाशा बन गयी। 

19 मार्च को लोग महानगरों से अपने गाँव क़स्बों को भागे और उन्हें जहां वे हैं वही रोके रखने या कम से कम उनकी गतिविधि हो इसे भी चेक करने की कोई योजना नहीं बनी। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगता है और उसके बाद अधिकतर शहरों में लॉक डाउन हो जाता है। अब तक, 23 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 419 भारतीय और 41 विदेशियों में कोविड - 19 के मामले पाए गए हैं। 23 लोग ठीक हो गए हैं। एक व्यक्ति बाहर चला गया है और सात मौतें हो चुकी हैं। 22 मार्च से सरकार ने सभी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया है। सभी गैर आवश्यक यात्री परिवहन रोक दिया गया है।

भारत मे डॉक्टरों और अन्य मेडिकल स्टाफ के समक्ष सबसे बडी समस्या यह है बचाव उपकरणों जैसे मास्क, सैनिटाइजर, आदि के साथ साथ कोरोना टेस्टिंग लैब, किट, अस्पतालों में बिस्तर और गंभीर रोगियों के लिये आईसीयू और वेंटिलेटर की पर्याप्त कमी है। पीपीई, ( पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्यूपमेंट,) उपकरण बनाने वालों के सामने यह भी एक समस्या है कि वह किस मानक से यह उपकरण बनाएं और कितना बनाएं। फरवरी में ही इन उपकरणों के निर्माताओं ने स्वास्थ्य मंत्रालय को इनका मानक आदि तय कर, निर्देश देने का अनुरोध किया था, पर अब तक स्वास्थ्य विभाग उस पर चुप्पी साधे रहा है। गुणवत्ता मानक के अभाव में यह उपकरण कैसे बनेंगे, यह भी उपकरण निर्माताओं के समक्ष एक समस्या है । सबसे पहले तीन कोरोना वायरस के मामले केरल में आये लेकिन केरल की स्वास्थ्य व्यवस्था अपेक्षाकृत बेहतर होने के कारण उन्होंने इसे संभाल लिया। लेकिन पहले मामले के सामने आने के बाद भी जो सतर्कता सरकारों से अपेक्षित थी वह नहीं हो पायी। 

सुरक्षात्मक उपकरणों की सबसे पहली आवश्यकता डॉक्टरों और अन्य मेडिकल स्टाफ को होती है। उन्हें तो इन मरीजों के बीच रहना ही है और अगर वे सुरक्षित रहेंगे तभी इस महामारी को नियंत्रित किया जा सकेगा। कई जगहों से मेडिकल स्टाफ के भी संक्रमित होने की खबरें आ रही हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के इमरजेंसी रिस्पॉन्स डिवीजन के सीएमओ डॉ यूबी दास ने मास्क के लिये बताया कि अभी टेक्सटाइल मंत्रालय यह तय नहीं कर पा रहा था, कि इबोला के समय जो मास्क बना था उसी स्तर का मास्क चाहिए या कोई और। अब यह तय हुआ है कि कोरोना के लिये इबोला से कम टेस्ट होते हैं अतः अलग मास्क चाहिए। अतः यूरोपीय यूनियन के मानक के अनुसार अब यह तय हुआ है कि मास्क बनाया जाएगा। 18 मार्च की मीटिंग में यह मानक तय हुआ। स्वास्थ्य मंत्रालय को कुल 7.25 लाख बॉडी कवर, 60 लाख एन 95 मास्क, और 1 करोड़ तीन पर्तो वाले मास्क की ज़रूरत है। इन सबकी मांगे पूरी करने के लिये वस्त्र मंत्रालय ने राज्य सरकारों की टेक्सटाइल मिलों को भी कहा है। इन ज़रूरतों को लेकर, वस्त्र मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय में अलग ही विवाद है और इसी कारण से यह उपकरण बनाने वाली कम्पनियों के संगठन के एक पदाधिकारी राजीव नाथ ने कहा है कि यह जिम्मेदारी स्वास्थ्य विभाग की है उसे मानक तय करके निर्माणकर्ताओं को देना है। इसी लिये बाजार में मास्क और अन्य प्रोटेक्टिव उपकरणों की कमी हो गयी हैं और वे महंगे दामों पर बिक रहे हैं। जमाखोरी की समस्या तो अलग है ही। 

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भारत, बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से भी पीछे है। स्वास्थ्य सेवाओं पर, शोध करने वाली  एजेंसी 'लैंसेट' ने अपने 'ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज' नामक अध्ययन में एक खुलासा किया है, जिसके अनुसार भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145 वें स्थान पर है। विडंबना है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका है। यह किसी सरकार की प्राथमिकता में है भी या  नही ? सरकारी अस्पतालों का तो और भी बुरा हाल है। ऐसे हालात में निजी अस्पतालों का बढ़ना स्वास्थ्य सेवाओं का एक प्रकार से बाज़ारीकरण ही है। 2017 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान बताया था कि भारत में 8.18 लाख डॉक्टर हैं जो सक्रिय सेवाओं के लिए उपलब्ध हैं। 1.33 अरब जनसँख्या के साथ यह 0.62 डॉक्टर प्रति 1000 आबादी का अनुपात बनता है।

भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का सबसे कम खर्च करने वाले देशों में आता है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। दक्षेस देशों में अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है।
 
2015-16 और 2016-17 के वार्षिक बजट में स्वास्थ्य बजट के मद में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, लेकिन मंत्रालय से जारी बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हिस्से में पहले की अपेक्षा गिरावट आई और यह मात्र 48 प्रतिशत रहा। परिवार नियोजन में 2013-14 और 2016-17 में स्वास्थ्य मंत्रालय के कुल बजट का 2 प्रतिशत रहा। सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं। देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति 1,000 आबादी पर 1 डॉक्टर होना चाहिए, वहां भारत में 7,000 की आबादी पर मात्र 1 डॉक्टर है। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों द्वारा काम पर न जाने की उदासीनता भी एक बड़ी समस्या है।

भारत में बड़ी तेज गति से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है, वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का एक लक्ष्य मुनाफा बटोरना भी है। उच्च आय वर्ग और मध्यम आय वर्ग के लोगों जिनके पास मेडिक्लेम जैसी तरह तरह की सुविधाओं वाली बीमा पॉलिसी होती हैं उन्हें तो बहुत राहत है पर ग्रामीण क्षेत्र और कम आय वर्ग के नागरिकों के लिये ये निजी अस्पताल तो उन्हें उजाड़ ही देते हैं। महंगे चिकित्सक, महंगी जांचे और महंगी दवाइयां इन निजी अस्पतालों को कमज़ोर और गरीब तबके के लिये उपलब्ध ही नहीं हो पाते और सरकार, सरकारी अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र के प्रति उदासीन दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं। 

यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में जहां आज भी आर्थिक पिछड़ेपन के लोग शिकार हैं, वहां चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना कितना उचित है? एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष 4 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसी 'अर्न्स्ट एंड यंग' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं।
 
भारत में बीमारी के इस बोझ का महत्वपूर्ण कारण अनियंत्रित शहरीकरण, साफ पानी का अभाव, साफ-सफाई, खाद्य असुरक्षा, पर्यावरण क्षरण और व्यापक जाति व्यवस्था जैसे सामाजिक निर्धारक हैं। भारत के मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था के सुधार मे, कमज़ोर प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली, कुशल मानव संसाधन की कमी, निजी क्षेत्र के बेहतर विनियमन, स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च में वृद्धि, स्वास्थ्य सूचना प्रणाली में सुधार और जवाबदेही के मुद्दे बड़ी चुनौतियां हैं। 

भारत का कमज़ोर स्वास्थ्य सेवाओं का इंफ्रास्ट्रक्चर क्या इस महामारी के तीसरे या चौथे चरण का सामना करने के लिये सक्षम है ? इसका सीधा उत्तर होगा, नहीं। हमारी पूरी कोशिश होनी चाहिए कि हम इसे तीसरे चरण जिसे कम्यूनिटी स्प्रेडिंग या सामाजिक विस्तार का स्तर है वहां तक पहुंचने ही न दें। शहरों को लॉक डाउन करने के निर्णय के पीछे यही उद्देश्य है। अभी तक राहत की बात यही है कि सवा अरब की आबादी में कोरोना पीड़ित मरीजों की संख्या बहुत ही कम है। हालांकि सरकार ने एयरपोर्ट और अन्य स्थानों पर चेकिंग की व्यवस्था की है पर हमारे पास टेस्ट लैब और टेस्ट किट की उतनी व्यापक व्यवस्था नहीं है जितनी होनी चाहिए। आईसीएमआर ने चिंता जताई है कि कहीं हम वास्तविक संख्या से कम संख्या, पीड़ितों की तो, नहीं दिखा रहे हैं ? अगर ऐसा होगा तो यह स्थिति भयावह हो सकती है। इसलिए अभी इस संभावना को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि हम  कम्यूनिटी स्प्रेडिंग के चरण से बच गए हैं। खतरा अभी टला नहीं है। 

अभी जो टेस्ट की सुविधा या स्क्रीनिंग की प्रक्रिया है, वह एयरपोर्ट या बाहर से आने वालों और उनके सम्पर्क में आये लोगों की जांच और उन्हें तालेबंदी में रहने तक सीमित है। पर ऐसे लोग जो  बिना चेक किये या बिना लक्षण के ही बाहर से आकर घूमफिर रहे हैं, इस महामारी के लिये अधिक घातक हैं। इसपर आईसीएमआर ने कहा है कि, अभी तक कम्युनिटी प्रसार की संभावना नहीं मिली है पर जब उसके संकेत मिलने लगेंगे तो टेस्टिंग रणनीति बदली जाएगी। अभी की रणनीति यही है कि सभी बाहर से आने वालों को 14 दिन के लिये अलग रखा जाय। उनक़ी पांचवे और 14 वे दिन जांच की जाय और सभी मेडिकल स्टाफ को भी नियमित निगरानी और जांच में रखा जाय। विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्ल्यूएचओ ) ने कहा है कि टेस्ट, ट्रीट औऱ ट्रेस यानी जांच करो, इलाज करो, और खोजो की तकनीक पर काम करना होगा तभी इस महामारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है। पर भारत मे अभी इन पर उतनी गंभीरता से काम नहीं हो रहा है, जितनी गंभीरता से होना चाहिए। 

दुनियाभर में इस महामारी को लेकर भयाकुल सन्नाटा पसरा है। दुनियाभर में जो हो रहा है उसे देखें।
श्रीलंका में कर्फ्यू लग गया है। 15 अप्रैल को होने वाले संसदीय चुनाव को टाल दिया गया है। ब्रिटेन ने घोषणा की है कि जितने भी ब्रिटिश वर्कर हैं उनकी अस्सी फीसदी सैलरी सरकार देगी। यानि 2500 पाउन्ड प्रति माह। यहां की सात लाख छोटी कंपनियों को 10,000 पाउन्ड की नगद मदद दी जाएगी। 
अमरीका ने हर नागरिक को 1000 डॉलर देने और 104 बिलियन डॉलर के पैकेज की घोषणा की है।  सैंपल टेस्ट, मुफ्त और बिना बीमा के टेस्ट की सुविधा भी है। 
जर्मनी ने एक अरब यूरो के कर्ज पैकेज का एलान किया है।  करों में भी छूट दी जा रही है। कोरोना वायरस के टीका के लिए 145 मिलियन यूरो की घोषणा की गयी है।
बावेरिया प्रांत ने 10 बिलियन यूरो का एलान किया है। 
स्पेन ने 200 अरब यूरो का पैकेज और सामाजिक सेवाओं में 600 मिलियन देने की बात की है। 
पुर्तगाल में 18 मार्च से ही आपातकाल है और वहां की सरकार जीडीपी के चार प्रतिशत के बराबर यानि 10 बिलियन यूरो का पैकेज देगी। 
कनाडा में 83 बिलियन डालर के पैकेज का एलान किया गया है। इसमें से 55 बिलियन डॉलर टैक्स छूट के रूप में दिए जाएंगे। टैक्स भुगतान की समय सीमा में छूट देकर यह राहत दी गई

भारत मे भी सरकार ने अनेक राहतों का एलान किया है। लेकिन हमारे यहां उन विकसित देशों की तरह संसाधनों का अभाव है। अब जब आग लग गई है तो रातोंरात न तो कुंवा खोदा जा सकता है और न ही कोई अधिक व्यवस्था की जा सकती है। ऐसी स्थिति में तुरन्त अस्पतालों में बिस्तर बढ़ जांय, टेस्टिंग लैब और टेस्टिंग किट उपलब्ध हो जांय, वेंटिलेटर उपलब्ध हो जांय यह भी सम्भव नहीं है। जब सारी गतिविधियां ठप हैं तो सरकार के राजस्व में और कमी आएगी जो पहले से ही कम करसंग्रह से पीड़ित है। सरकार धन और संसाधनों के लिये निजी क्षेत्रों पर दबाव डाले और अगर वे राजी न हों तो राष्ट्रीयकरण करने पर भी विचार करे जिससे व्यापक इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध हो सके। यूरोपीय पूंजीवादी देश और अमेरिका ने भी इस भयावह आपदा में यह विकल्प सोचा है। हर नागरिक की अपेक्षा अपने सरकार से होती है कि वह अपने नागरिकों को सुलभ और सुगम स्वास्थ्य सुविधाएं दे। यह आपदा सरकार के लिये परीक्षा की घड़ी भी है कि कैसे वह अपने नागरिकों की न्यूनतम स्वास्थ्य हानि के साथ इस महाविपत्ति से पार पाती है। 

( विजय शंकर सिंह )

Saturday 21 March 2020

कोरोना प्रकोप के इस आफत में हमारा निजी क्षेत्र कहाँ है ? / विजय शंकर सिंह

टाटा स्टील का एक विज्ञापन पहले आता था, जिसमे एक भव्य स्कूल, शहर, हंसते खेलते बच्चे और स्वस्थ सुखी परिवार दिखता था और फिर अंत मे लिखा रहता था, हम स्टील भी बनाते हैं। इस विज्ञापन का अर्थ यह था कि भले ही हमारी कम्पनी स्टील बनाती हो पर हम उससे पहले समाज और अपने कामगारों के हित की बात पहले करते हैं। इधर बहुत दिनों से वह विज्ञापन दिखा नही। टाटा देश का अग्रणी औद्योगिक घराना रहा है और उद्योगपतियों की जमात में प्रगतिशील और बेहतर सोच वाला माना जाता है। अब उसकी प्रथम बीस घरानों में नीचे आ गयी है। हालांकि यह कोई खास बात नहीं है, लक्ष्मी चंचला होती हैं। व्यापारियों और धनाढ्य लोगों द्वारा धर्मादा और समाजसेवा के लिये पहले भी बहुत कार्य किये जाते रहे हैं। परोपकार करना, एक धार्मिक और स्वर्गाकांक्षी भाव भी हमारे यहाँ माना जाता है। टाटा के अतिरिक्त बिरला, डालमिया, जयपुरिया, बांगड़ आदि व्यावसायिक घरानों ने मंदिर, अस्पताल आदि बनवाये हैं। लेकिन यह पुरानी बात है। 

2014 में कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के नाम से एक कानून लाया गया जिसमें कॉरपोरेट को यह बाध्य किया गया कि वह अपने लाभ का 2 % का धन सीएसआर के रूप में सामाजिक और जनहित के कार्यों में लगाये। 

लेकिन यह प्रवित्ति इधर कम हो गयी है। बडे बडे औद्योगिक घरानों की संख्या तो बढ़ी पर उनके द्वारा किये जा रहे सार्वजनिक और लोककल्याण के कार्य कम ही दिखते हैं। जो हैं भी वे भी एक लाभदायक कॉरपोरेट संस्थान की ही तरह हैं। यह कानून बड़ी कंपनियों पर लागू किया गया है और सरकार ने यह भी कंपनियों की ही मर्ज़ी पर छोड़ा है कि वे जैसे चाहें जनहित के कार्य करें। इसकी योजनाएं वह स्वय बनाएं और खुद ही लागू करें। हालांकि सरकार ने कुछ क्षेत्रों को चिह्नित भी कर दिया है कि ये योजनाएं उन्ही क्षेत्रों में लागू की जाय जहां जनता को बहुत अधिक ज़रूरत है। जैसे, भुखमरी उन्मूलन, गरीबी, बच्चो के स्वास्थ्य, लैंगिक अनुपात ठीक रखने वाली परिवार कल्याण योजनाएं, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी से जुड़ी समस्याएं आदि। कम्पनियों को यह भी कहा गया कि वे जहां पर स्थित हैं उसी क्षेत्र के लोगों के कल्याण की योजनाओं में यह धन लगाएं। साथ ही अगर कोई कंपनी अपनी खुद की सीएसआर की योजनाएं नहीं चला पाती है तो वह सरकार की सामाजिक आर्थिक जनकल्याण की योजनाओं में अपने सीएसआर का धन दे दे। यह कानून 2014 से लागू है और इसके नियम भी बन चुके हैं, पर इसके व्यय का सारा दायित्व कॉरपोरेट पर ही है। सभी पूंजीपतियों को सस्ती दर पर ज़मीन, कर राहत, तथा अन्य सुविधाएं सरकार पहले से ही देती रही हैं और अब भी दे रही हैं। इसके पीछे सरकार की यह मंशा होती है कि उद्योग बढ़ेंगे तो इससे लोगों को रोजगार मिलेगा और विकास होगा। ऐसा होता भी है। 

सीएसआर के धन के उपयोग के लिये बड़े बड़े कॉरपोरेट ने अपने अपने निजी एनजीओ बना रखे हैं और उन्ही के द्वारा वे जनहित के कार्य करते हैं। अब वे एनजीओ क्या करते हैं कैसे करते हैं इसकी ऑडिट भी होती है। सभी कॉरपोरेट के पास अपने अपने हॉस्पिटल, और यूनिवर्सिटी भी हैं। लेकिन इनका भी उद्देश्य कोई चिकित्सा लाभ या शिक्षा जनता को देना नहीं है बल्कि इससे भी मुनाफा कमाना ही है। कॉरपोरेट की हर योजना में मुनाफा सबसे पहला और अनिवार्य अवयव होता है। सरकार का कोई नियंत्रण या भूमिका इन मामलों में सिवाय  आंकड़े एकत्र कर कॉरपोरेट के किसी आयोजन में उपस्थित हो धन्यवाद और प्रशस्ति गान करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। सोशल दायित्व का यह लाभ समाज के किस तबके तक पहुंच रहा है इसका भी कोई आकलन सरकार करती भी है या नहीं यह स्पष्ट नहीं है। 

सरकार को चाहिए कि सीएसआर के अंतर्गत जो धन इन कम्पनियों के पास हो उसे कोरोना महामारी के निपटने के लिये उनसे ले ले और अगर वे न दें तो ज़ब्त कर लें। उससे चिकित्सा तथा अन्य टेस्ट लैब की जो सुविधाएं वह दे सकती हैं जनता को दे। सीएसआर का दुरुपयोग भी कम नहीं होता है और यह पैसा  घूमफिर कर पुनः इन्हीं पूंजीपतियों के पास चला भी जाता है। यह एक अच्छा खासा घोटाला है। यह भी चर्चा है कि यह धन समाज कल्याण के मुखौटे के रूप में बनायी गई कुछ एनजीओ द्वारा राजनीतिक दलों के पास उनके चुनावी फंड के रूप में वापस चला जाता है। इस पूरे घोटाले में सरकार, राजनीतिक दल, और कॉरपोरेट पूंजीपतियों की सांठगांठ रहती है। यही अपवित्र गठजोड़, गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज़्म कहलाता है। फिलहाल तो यही प्राथमिकता है कि,  सरकार सीएसआर  की रकम का उपयोग सरकारी अस्पताल, पीएचसी, आदि को मजबूत बनाने में करे न कि कॉरपोरेट के निजी क्षेत्रों के एनजीओ के द्वारा दिखावटी समाजसेवा के लिये। स्वास्थ्य का इंफ्रास्ट्रक्चर इससे कुछ तो सुधरेगा ।

अब जरा सरकार के आंकड़ों पर नज़र डालते हैं। भारत सरकार ने कुल जीडीपी का मात्र 1.03 % ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने का प्रावधान बजट में किया है, जो सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए बेहद कम है। ग्लोबल हैल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स 2019 के अनुसार गंभीर संक्रामक रोगों और महामारी से लड़ने की क्षमता के पैमाने पर भारत विश्व में 57वें नम्बर पर आता है। नेशनल हैल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार भारत में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों द्वारा संचालित लभभग 26,000 सरकारी अस्पताल हैं। सरकारी अस्पतालों में पंजीकृत नर्सों और दाइयों की संख्या लगभग 20.5 लाख है। कुल मरीजों के लिए बिस्तरों की संख्या 7.13 लाख के करीब है। अब यदि देश की सवा अरब की आबादी को सरकारी अस्पतालों की कुल संख्या से भाग दिया जाए तो प्रत्येक एक लाख की आबादी पर मात्र 2 अस्पताल मौजूद हैं। प्रति 610 व्यक्तियों पर मात्र 1 नर्स उपलब्ध है. प्रति  10,000 लोगों के लिए मुश्किल से 6 बिस्तर उपलब्ध हैं। सरकारी अस्पतालों में जरूरी दवाओं और चिकित्सकों की भारी कमी है। चिकित्सा जांच के लिए आवश्यक उपकरण या तो उपलब्ध ही नहीं है, और यदि उपलब्ध भी हैं तो तकनीकी खराबी के कारण बेकार पड़े रहते हैं। ग्रामीण इलाकों में तो स्वास्थ्य सेवाएं और भी मुश्किल हालात में हैं। निजी अस्पताल, जहाँ चिकित्सकों की कमी नहीं है, आधुनिकतम चिकित्सा उपकरण उपलब्ध हैं और स्वच्छता के उच्चतम मानदंडों का पालन किया जाता है, वे अपनी आसमान छूती महँगी चिकित्सा सुविधाओं के कारण इस देश की अधिसंख्य गरीब निम्नवर्गीय आबादी की पहुँच से बाहर हैं। सरकारी अस्पतालों एवं स्वास्थ्य सेवाओं में आमजन का भरोसा बहुत कम है। 

हमने विकास के अर्थ के रूप में चार लेन या आठ लेन के एक्सप्रेस वे, बडी बडी टाउनशिप, गगनचुंबी इमारतों और महंगे निजी अस्पतालों और चमक दमक भरी निजी यूनिवर्सिटी का होना ही समझ लिया है। यह विकास के मापदंड तो है पर क्या सवा अरब की आबादी वाले देश मे जो विश्व हंगर इंडेक्स में 102 स्थान पर हो, बेरोजगारी और विपन्नता में लगातार 'प्रगति' कर रहा हो की अधिकांश जनता को विकास का यह मॉडल लाभ पहुंचा रहा है ? बिल्कुल नही। देश की आर्थिक और सामाजिक संरचना दो भागों में बंटती जा रही है। एक वे जिनके पास बहुत कुछ है तो दूसरे वे जिनके पास कुछ भी नही है या है भी तो बहुत कम है। अमीर औऱ गरीब का यह बढ़ता अंतर देश के विकास की एक अजीब तस्वीर पेश कर रहा है। विकास का पैमाना है देश की आबादी के कितने हिस्से को रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य की सुलभ और सुगम सुविधाएं मिल चुकी हैं और कितनो को अभी इन सुविधाओं का मिलना शेष है। हर बजट के समय इन सब पैरामीटर पर सरकार को समीक्षा करनी चाहिए और अधिकतम जनता को यह लाभ पहुंचाना चाहिए। पर हम बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, अत्याधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न नगर को ही विकास समझने की भूल कर बैठते हैं। 

अभी कुछ दिनों पहले यह खबर आई थी कि सरकार सरकारी अस्पतालों को निजी क्षेत्रों में देने जा रही है। यह बहुत आसान है और कॉरपोरेट तथा हेल्थकेयर की बड़ी बड़ी कंपनियां खुशी खुशी अस्पताल ले भी लेंगी। पर क्या वे इससे मुनाफा नहीं कमाएंगी ? जब मुनाफे को केंद्र में रख कर वे अस्पताल का विकास करेंगी तो फिर उस जनता को चिकित्सा का लाभ कैसे वे दे पाएंगी जो मुश्किल से अपना गुजर बसर कर रही है ? समस्या हम जैसो की नही है जो आर्थिक, सामाजिक रूप से थोड़े बेहतर हैं, समस्या उनकी है जो सरकारी अस्पतालों की ओपीडी में सुबह से लाइन लगाए खड़े रहते हैं और एक सामान्य से टेस्ट के लिये भी दिनभर दौड़ते भागते रहते हैं। अगर राज्य के उद्देश्य में जनकल्याण का एजेंडा नहीं है तो फिर यह लोककल्याणकारी राज्य कैसा ? और अगर लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा केवल एक नारा है तो यह लोकतंत्र कैसा ? 

हमने विकास के जिस मॉडल को अंगीकार किया है उसमें कॉरपोरेट एक देवलोक सरीखा है। उद्योगपति देवता हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं, अनेक घोड़ो से खींचे जाने वाले रथों पर चलते है, और सरकार को अपनी जेब मे रखते हैं।  सरकार की हर प्राथमिकता, चाहे वह बजट हो, या कर राहत, या कोई भी अन्य सुविधा, इन सब पर पहला हक़ सरकार की नज़र में कॉरपोरेट का ही है । यह एक अलिखित संविधान की परंपरा की तरह है। बस वोट लेने के लिये अंत्योदय और एकात्म मानववाद जैसे यूटोपियन शब्द गढ़ लिए गए हैं। मूर्ख बनाने के लिये नियतिवाद और समय का कालचक्र जैसी धारणाएं हैं । दूसरी तरफ, धन के लिये कॉरपोरेट है ही। यही दो सहारे वर्तमान जनतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए प्रासंगिक हैं। एक वोट देकर उसे सत्ता में लाता है और दूसरा धन देकर अपना आकार बढ़ाता रहता है। सरकार ने सीएसआर के खर्चे के लिये किसी नियंत्रण मैकेनिज़्म की व्यवस्था भी नही कर रखी है। इनकी ऑडिट ज़रूर होती है और कुछ न कुछ कागजों का पेट भी भरा जाता होगा पर यह धनराशि जो कॉरपोरेट के कुल लाभ का 2 % होती है का सच मे कोई लाभ, जनता पहुंच रहा है, इसकी भी पड़ताल ज़रुरी है। 

कोरोना वायरस की जांच की कोई सुलभ और सुगठित व्यवस्था नहीं है। आज जिस तरह से दुनिया के तमाम देश व्यापक स्तर पर अपने नागरिकों की जांच करा रहे हैं हम उतनी व्यापकता से जांच नहीं करा पा रहे हैं। एक तो जांच लैब की कमी और दूसरे किट की जितनी आवश्यकता है उतनी अनुपलब्ध है। सरकार को जन संचार के माध्यम से हर शहर या कम से कम जिला मुख्यालय में स्थित शहरों में ऐसे जांच लैब का स्थान, जांच का समय और जांच का शुल्क अगर कुछ निर्धारित है तो, प्रचारित करना चाहिए। जहां नहीं है वहां सैम्पल लेने, सुरक्षित रखने, और जांच कराने, फिर जांच रिपोर्ट मंगा कर संदिग्ध व्यक्ति को देने की व्यवस्था करनी चाहिए।  अभी तक सरकार अपील करते हुए निजी लैब को जांच करने की मंजूरी दे रही थी लेकिन शुक्रवार को उच्च अधिकारियों की हुई बैठक में जांच के लिए पांच हजार रुपये शुल्क तय करने पर सहमति बन चुकी है। यह तो महामारी में भी लूट है। जो रोज कमाकर खाते हैं, वे  5 हजार रुपये में इतनी महंगी जांच कैसे करवाएंगे ? सरकार को या तो यह जांच मुफ्त कराने के लिये निजी अस्पतालों पर दवाव डालना चाहिए या जांच की दर सस्ती हो और जो गरीब हों उनके लिये मुफ्त हो। जो अस्पताल ऐसा न करें उनके लिए दंडात्मक प्राविधान हों। यह एक मेडिकल आपात स्थिति है। इस विपत्ति में कोई भी संस्था अगर मुनाफा से प्रेरित होकर कुछ कर रही है तो उसे कठोर दंड देना चाहिए। 

जनता को राहत देते हुए, केरल हाईकोर्ट ने बैंकों, वित्तीय संस्थानों, आयकर और जीएसटी के कर संग्रह को कोरोना के प्रकोप को देखते हुए अस्थायी तौर पर स्थगित कर दिया था। यह कदम नागरिकों को कुछ आर्थिक राहत देने के लिये था। ऐसा ही एक आदेश, इलाहाबाद हाईकोर्ट का भी है कि उसने भी 6 अप्रेल तक के लिये वसूली पर रोक लगा दी है। 

अब केंद्र सरकार की अपील पर, सुप्रीम कोर्ट ने उक्त स्थगन को रद्द कर दिया है। निश्चित रूप से सरकार को राजस्व की हानि होगी और इससे वित्तीय प्रबंधन में दिक्कत आ सकती है। अगर अर्थव्यवस्था की स्थिति चौपट नही हुयी होती तो बहुत अधिक आघात आर्थिकी पर नहीं पड़ता। लेकिन अब जब सामान्य कार्य के लिये भी सरकार को धन की कमी पड़ रही है तब तो यह एक बड़ी आपदा है। सरकार का राजस्व संग्रह इस वित्तीय वर्ष का कम है। इसका कारण मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से लेकर सभी आर्थिक सूचकांक नीचे हैं। 

ऐसी ही आपदाओं के लिये ही आरबीआई का रिजर्व फंड होता है जो सरकार के अर्थतंत्र को मुसीबत में पड़ने पर, संभाल ले। पर सरकार ने 1 लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये आरबीआई से पहले ही ले लिये हैं और उसे मंदी से बचने के उपाय के रूप में, अपने चहेते पूंजीपतियों को बांट दिए। अब आरबीआई के पास भी उतना धन शेष नहीं है कि वह कुछ मदद कर सके। 

22 मार्च को होने वाला, जनता कर्फ्यू इस प्रकोप से बचने का एक समाधान ज़रूर है और दुनियाभर में यह स्वतः एकांत अपनाया जा रहा है, लेकिन इसकी सवसे बडी मार रोज कमाने रोज खाने और आकाशवृति से जीवनयापन करने वालों को होगी। यूपी सरकार ने दिहाड़ी मज़दूरों को कुछ आर्थिक सहायता देने की बात की है। पर यह लाभ अभी मिलना शुरू हुआ है या नही, यह पता नही। कोरोना वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए केरल सरकार ने कुछ उत्तम उपाय किये हैं। 20000 करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज की घोषणा की गयी हैं।  दो महीने का वेलफेयर पेंशन एडवांस में दिया जायेगा जिसमें वृद्धा पेंशन-विधवा पेंशन और सरकारी पेंशन सभी शामिल हैं! सबको महीने भर का राशन मुफ़्त देने की बात है। कोरोना से निपटने के लिए 500 करोड़ रूपयों का हेल्थ स्कीम अलग से लागू की गयी है। किसी को भी बिजली-पानी का बिल एक महीने तक देने की अनिवार्यता की कोई ज़रुरत नहीं 2000 करोड़ रूपये ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार गारंटी के लिए और 2000 करोड़ रूपयों की घोषणा उपभोक्ता लोन के लिए रखा गया है। जो परिवार बहुत ग़रीब हैं जिनको पेंशन भी नहीं मिलती (जैसे दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक) सबको एकमुश्त 1000 रुपए की मदद और राज्यभर में 1000 फ़ूड स्टाल जहाँ 20 रूपये प्रति थाली भोजन मिलेगा। पश्चिम बंगाल की सरकार ने छह माह तक अनाज मुफ्त देने की घोषणा की है। हो सकता है कुछ राज्य सरकारें, और भारत सरकार और भी राहत का एलान करें। 

सरकार को स्वतः एकांत से उत्पन्न इस समस्या पर भी सोचना ही होगा। क्योंकि यह कम से कम दस दिन तो चलेगा ही। हमे घर मे बैठ कर भीड़ से दूर रहकर ही इस समस्या का समाधान करना होगा, क्योंकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारे पास बेहद कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर है जो इस महामारी को कंट्रोल कर सके। जब विकसित और कम आबादी वाले सम्पन्न देश जिनके यहां स्वास्थ्य सेवा का तामझाम मज़बूत है, वे इसे नियंत्रित करने में हांफ जा रहे हैं। हम उनसे इस मामले में पीछे हैं। वैसे भी जहां अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर है, वहां भी सामाजिक दूरी को ही एक उचित और कारगर समाधान माना गया है। इसे सरकार नहीं लागू कर सकती है, जनता को ही इसे स्वतः खुद पर लागू करना होगा। 

दुनियाभर के देश अपने अपने नागरिकों को आर्थिक सहायता और पैकेज उपलब्ध करा रहे हैं। जबकि हमारी सरकार कच्चे तेल की कमी में जो राहत हमे मिल रही है उसका भी लाभ हम तक पहुंचानी नहीं चाहती है। ज़रूरी चीजों की कालाबाज़ारी रुके इसके लिये अपील ज़रूर होगी लेकिन ऐसे कालाबाज़ारियों पर कोई कार्यवाही होगी, यह मुझे नहीं लगता है। सरकार को इधर भी ध्यान देना होगा। दुनियाभर से जो खबरें कोरोना प्रकोप को लेकर जो आ रही हैं, वह भयावह हैं और चिंतित करने वाली हैं। 

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 19 March 2020

सांसद रंजन गोगोईं और न्यायपालिका को शिकंजे में लेती कार्यपालिका / विजय शंकर सिंह

रंजन गोगोईं ने आज 18 मार्च को राज्यसभा की सदस्यता की शपथ ले ली। यह शपथ उन्हें राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने दिलाई। शपथग्रहण समारोह में भी हंगामा हुआ और शेम शेम के नारे लगे। राज्यसभा में अपने मनोनयन पर रंजन गोगोई ने जो कहा था, उसे यहां पढ़ें।
" मैंने राज्यसभा की नामजदगी का प्रस्ताव इसलिए स्वीकार किया कि मैं दृढ़ निष्ठा से यह सोचता हूँ कि विधायिका और न्यायपालिका को कुछ अवसरों पर राष्ट्र निर्माण के लिये मिल कर काम करना चाहिए । राज्यसभा में मेरी उपस्थिति से विधायिका के समक्ष न्यायपालिका की सनस्याओ को उठाने में सुविधा होगी । " 

रंजन गोगोइ ने अपनी यह बात असमिया न्यूज़ एजेंसी प्रतिदिन टाइम्स को कहा था। उनके जीवन का एक अध्याय खत्म हुआ। वे न्यायपालिका के प्रमुख पद से उतर कर विधायिका के एक सदस्य बन गए। अब देखना यह है कि उनकी उपस्थिति से न्यायपालिका कितनी समृद्धि होतो है। उल्लेखनीय है कि वह निर्वाचित नही, बल्कि नामजद सांसद है । उन्हें सदन में अपनी बात कहने का अवसर तो मिलेगा पर वे सदन में मतदान नहीं कर पाएंगे, क्योंकि वे राज्यसभा में उस कोटे हैं जिसमे समाज के गैर राजनीतिक पेशेवर लोग लिये जाते हैं। यह नामांकन शुद्ध रूप से राजकृपा पर आधारित होता है। राजा की मर्ज़ी से मिलता है। 
यह सवाल कि क्या रंजन गोगोई का राज्यसभा मे नामांकन संविधान के प्राविधानों के अनुरूप है या नहीं ? अगर एक शब्द में इसका उत्तर देना हो तो उतर होगा 'है:। लेकिन कानून की शंकाओं का उत्तर एक शब्द में नहीं जा सकता है और न दिया जाता है। क्योंकि अनेक प्रतिप्रश्न आगे उठते हैं औऱ एक लंबा सिलसिला चलता है जो सवाल के कई पहलुओं को हल करते हुए जिज्ञासा का शमन करता है। संविधान के अनुच्छेद 80 के अधीन राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत कर सकता है। जब संविधान में राष्ट्रपति की शक्तियों की बात की जाय तो इसे मंत्रिमंडल की शक्तियां समझी जानी चाहिए, क्योंकि मंत्रिमंडल की ही सलाह पर राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का उपयोग करता है। आर्टिकल 80 के प्रावधान की उपधारा 3 के अंतर्गत, 12 लोगों को राष्ट्रपति राज्यसभा के लिए मनोनयन कर सकते हैं, लेकिन जिनको वे मनोनीत कर सकते हैं वे, साहित्य, विज्ञान, आर्ट, और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में  विशेष जानकारी अथवा व्यवहारिक अनुभव रखने वाले अपने अपने क्षेत्र के विशिष्ट महानुभाव हों । अब न्यायाधीश इस श्रेणी में आते हैं या नहीं यह भी एक मतवैभिन्यता का मामला हो सकता है। संविधान निर्माताओं का इरादा, उपरोक्त श्रेणी के लोगो को मनोनीत करने के पीछे यह था कि, यह सब लोग, अपने अपने क्षेत्र के नामचीन और अत्यंत प्रतिभावान लोग होते हैं और वे सक्रिय राजनीति से दूर रहते हैं, अतः उच्च सदन में उन्हें लाकर उनकी मेधा और प्रतिभा का उपयोग किया जा सके।  

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 80 के अंतर्गत राज्य सभा की संरचना की गयी है। इसका विवरण इस प्रक्रिया है। 

(1) राज्य सभा –
(क) राष्ट्रपति द्वारा खंड (3) के उपबंधों के अनुसार नामनिर्देशित किए जाने वाले बारह सदस्यों, और
(ख) राज्यों के और संघ राज्यक्षेत्रों के दो सौ अड़तीस से अनधिक प्रतिनिधियों, से मिलकर बनेगी।
(2) राज्यसभा में राज्यों के और संघ राज्यक्षेत्रों के तिनिधियों द्वारा भरे जाने वाले स्थानों का आबंटन चौथी अनुसूची में इस निमित्त अंतर्विष्ट उपबंधों के अनुसार होगा।
(3) राष्ट्रपति द्वारा खंड (1) के उपखंड (क) के अधीन नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात्‌ : --
साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा।
(4) राज्य सभा में प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाएगा।
(5) राज्य सभा में संघ राज्यक्षेत्रों के प्रतिनिधि ऐसी रीति से चुने जाएँगे जो संसद‌ विधि द्वारा विहित करे।

उपरोक्त अनुच्छेद में उप अनुच्छेद 3 में यह स्पष्तः अंकित है कि, उनको मनोनीत किया जाएगा, जो साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र के लोग हैं। इस प्राविधान के अंतर्गत इन क्षेत्रों के नामचीन लोगों को नामांकित किया गया है। कुछ महत्वपूर्ण नामांकित सज्जन यह हैं। 
● डॉ ज़ाकिर हुसैन, शिक्षाशास्त्री 
● अल्लादि कृष्णास्वामी, न्यायविद 
● प्रो. सत्येंद्र नाथ बोस, वैज्ञानिक 
● श्रीमती रुक्मिणी देवी अरुंडले, कला
● प्रो एनआर मलकानी, शिक्षाशास्त्री, और समाज सेवा.
● डॉ कालिदास नाग, इतिहासकार
● डॉ जेएम कुमारप्पा, स्कॉलर
● ककासाहब कालेलकर, स्कॉलर
● मैथिलीशरण गुप्त, साहित्य
● डॉ राधाकुमुद मुखर्जी, इतिहासकार
● मेजर जनरल साहिब सिंह सोखे, चिकित्सा वैज्ञानिक.
● पृथ्वीराज कपूर, फ़िल्म अभिनेता, कला
● बनारसी दास चतुर्वेदी, साहित्य
● रामधारी सिंह दिनकर, सहित्य
● बीआर अम्बेडकर, कानूनविद, 
● आचार्य नरेन्द्र देव , शिक्षाशास्त्री
● आरआर दिवाकर
● डॉ रघुवीर
● डॉ पट्टाभिसीतारमैया
● डॉ कालूलाल श्रीमाली
● इंदिरा विद्यावाचस्पति
यह पूरी सूची नहीं है। आप इसे और समृद्ध कर सकते हैं। 

सत्ता सदैव अपने हित, स्वार्थ और लाभ का मार्ग ढूंढ निकालती है। कानून कितना भी अच्छा और त्रुटिरहित हो, पर अगर उसे अपने हित के लिये तोड़ा मरोड़ा जाएगा तो न केवल परंपराएं टूटेगी बल्कि गलत परंपरा भी बनेगी। अनुच्छेद 80 (3) के उल्लंघन का सबसे पहला और दिलचस्प मामला है असम के सांसद और राज्यसभा के सदस्य बहरुल इस्लाम का। राजनीति और न्यायपालिका में घालमेल के लिये असम के न्यायमूर्ति बहरूल इस्लाम को हमेशा याद किया जाता है। बहरूल इस्लाम,  भारत के इतिहास में पहले राजनीतिक व्यक्ति थे जो संसद की सदस्यता से त्याग पत्र देकर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने, फिर वह उच्चतम न्यायालय के भी न्यायाधीश बने और सेवानिवृत्त होने से करीब डेढ़ महीने पहले ही उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया था।

वे 1962 में राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्य बने और अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान ही, त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद, उन्हें 1972 में असम और नगालैंड उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया। जुलाई, 1979 में वह, गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी बने। इसके बाद 4 दिसंबर, 1980 को उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया था लेकिन यहां भी कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उन्होंने जनवरी, 1983 में त्यागपत्र दे दिया था। फिर उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा। 

इसी प्रकार जस्टिस गुमानमल लोढा, राजस्थान उच्च न्यायालय में 1978 में न्यायाधीश नियुक्त होने से पहले वह 1972 से 1977 तक राजस्थान विधान सभा के सदस्य रह चुके थे। गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जस्टिस गुमान मल लोढ़ा सक्रिय राजनीति में फिर आ गए,  तीन बार लोकसभा के सदस्य रहे। वह 1989 में पहली बार लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुये थे। 

न्यायाधीश के पद से इस्तीफा देकर राजनीति में आने वालों में विजय बहुगुणा को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। विजय बहुगुणा पहले भाजपा और कांग्रेस दोनों में ही रह चुके हैं। वे यूपी के मुख्यमंत्री स्व हेमवतीनंदन बहुगुणा के पुत्र हैं। विजय बहुगुणा पहले उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त हुये और फिर वह बंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने लेकिन अचानक ही उन्होंने 15 फरवरी, 1995 को न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दे दिया। न्यायाधीश के पद से इस्तीफा देने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गये और 2007 से 2012 तक लोकसभा में कांग्रेस के सदस्य बने और फिर 13 मार्च 2012 से 31 जनवरी 2014 तक वह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी बने थे। 

सुप्रीम कोर्ट के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को राज्यपाल बनाने की परंपरा भी 1997 में शुरू हुई। उच्चतम न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त करने वाली न्यायमूर्ति एम फातिमा बीवी को सेवानिवृत्ति के बाद 25 जनवरी, 1997 को तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया गया था। न्यायमूर्ति फातिमा बीवी ने राज्यपाल के रूप में राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों की मौत की सजा के मामले में दायर दया याचिकायें खारिज की थीं।

एनडीए सरकार तो अपनी पूर्ववर्ती सरकार से भी एक कदम आगे निकल गयी और उसने देश के प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम को अप्रैल, 2014 में सेवानिवृत्ति के बाद सितंबर, 2014 में केरल का राज्यपाल बना दिया। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी पूर्व प्रधान न्यायाधीश को किसी राज्य का राज्यपाल बनाया गया हो।

रंजन गोगोई साहब की विधिक योग्यता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता और अगर कल किसी राजनीतिक दल के द्वारा  वे भारत के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भी बनाए जाएं तो भी विधिक रूप से यह  गलत नहीं होगा मगर राज्यसभा में उन को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत करना आर्टिकल 80 के प्रावधानों के विपरीत लग रहा है। 

हालांकि यह उल्लंघन पहली बार नहीं है। इसके पूर्व कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत कर राज्यसभा पहुंचने वाले पूर्व सीजेआई, रंगनाथ मिश्रा सुप्रीम कोर्ट के 21वे चीफ जस्टिस थे जो 1998 से 2004 तक राज्यसभा सांसद रहे। लेकिन, रंजन गोगोई की तरह रंगनाथ मिश्रा को राष्ट्रपति  ने नामित नहीं किया था। उन्हें सीधे तौर पर कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा कर, राज्यसभा भेजा था। जस्टिस मिश्रा 1983 में सुप्रीम कोर्ट जज बने। फिर 1990 में चीफ जस्टिस बने। फिर 1991 में रिटायरमेंट के 7 साल बाद उन्होंने कांग्रेस जॉइन कर ली थी।

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के रिटायर जजो को सरकार या विधायिका में पुनर्नियुक्ति दी जाय या नहीं इस पर जस्टिस रंजन गोगोईं ने जो कहा था, उसे भी पढ़ा जाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि, 
" यह एक मज़बूत धारणा है कि अवकाशग्रहण के बाद जजो की कहीं अन्यत्र  नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक धब्बा है। "

उनका यह कथन आज से डेढ़ साल पहले जब वे न्यायाधिकरण के अध्यक्षों के एक सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे तब का है। अब यह संयोग है या प्रयोग, कि जिस जज ने कभी जजो के पोस्ट रिटायरमेंट नियुक्तियों को, एक धब्बा कहा था, अब वह, वही एक धब्बा के रूप में मूर्तिमान हो गए हैं। कुछ चीज़ें संविधानसम्मत और कानूनन सही होते हुए भी स्थापित नैतिक संस्थागत मानदंडों के विपरीत होती है।

इसी क्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने जो कहा वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। 2013 में जजो की पुनर्नियुक्ति के संबंध में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि, 
" दो तरह के जज होते है।एक जो क़ानून जानते है और दूसरे जो क़ानून मंत्री को जानते हैं।जज रिटायर नहीं होना चाहते हैं।रिटायर होने से पहले दिए फ़ैसले रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले काम से प्रभावित होते हैं।"

इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट के अनेक भूतपूर्व जजो ने उनके नामज़दगी की आलोचना की है। कुछ की प्रतिक्रियाएं मैं नीचे दे दे रहा हूँ। 

12 जनवरी 2018 को जस्टिस चेलमेश्वर के साथ जब रंजन गोगोई ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी तो उनके साथ जस्टिस कुरियन जोसेफ भी थे। वह प्रेस कॉन्फ्रेंस न्यायपालिका पर सरकार के बढ़ते दबाव के संदर्भ में हुयी थी। जज साहबान का वह जनता से संवाद था और लोगों को अपनी व्यथा बताने के लिये आयोजित की गयी थी। रंजन गोगोई की राजसभा में नामजदगी पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी लोकुर, जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने क्रमशः इंडियन एक्सप्रेस और हस्तक्षेप में लेख लिख कर सरकार के इस कदम की निंदा की। जस्टिस कुरियन का कहना है, कि, 
" जब 12 जनवरी 2018 को हम चार जज प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे तो उस समय रंजन गोगोई ने कहा था कि, हमने देश के प्रति अपने ऋण को उतारा है। मुझे हैरानी है कि जस्टिस गोगोई जिन्होंने एक समय न्यायपालिका की स्वतंत्रता के संकल्प के लिये अपने साहस का प्रदर्शन किया था, आज कैसे उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के साथ, ऐसा समझौता कर लिया। "

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा, " पूर्व सीजेआई गोगोई ने 'ज्यूडीश्यरी की आजादी, निष्पक्षता के सिद्धांतों से समझौता' किया।"

जस्टिस जोसेफ ने कहा, “इस घड़ी में लोगों के विश्वास को झटका लगा है। इस पल में ऐसा समझा जा रहा है कि जजों में एक धड़ा किसी के प्रति झुका है या फिर आगे बढ़ना चाह रहा है।"

सबसे तीखी प्रतिक्रिया, जस्टिस मार्कण्डेय काटजू की रही। उन्होंने कहा कि, 
" मैं 20 वर्ष अधिवक्ता और 20 वर्ष जज रहा। मैं कई अच्छे जजों और कई बुरे जजों को जानता हूं। लेकिन मैंने कभी भी भारतीय न्यायपालिका में किसी भी जज को इस यौन विकृत रंजन गोगोई जैसा बेशर्म और लज्जास्पद नहीं पाया। शायद ही कोई ऐसा दुर्गुण है जो इस आदमी में नहीं था। और अब यह दुर्जन और धूर्त व्यक्ति  भारतीय संसद् की शोभा बढ़ाने वाला है। हरिओम।“
जस्टिस काटजू ठहरे इलाहाबादी, तो इलाहाबादी बेबाकी उनकी प्रतिक्रिया में झलक ही गयी। 

यह बात सही है कि कांग्रेस पार्टी के समय में भी न्यायपालिका को शिकंजे में लेने की कोशिश की गयी थी। वह इंदिरा गांधी के समय की बात है। तब कोलेजियम सिस्टम नहीं था और सरकार जिसे चाहती थी जज बना देती थी। अधिकतर जज वकालत की पृष्ठभूमि से आते हैं तो वे राजनीति विचारधारा और दल से अप्रभावित रहें यह संभव भी नही है। 

राजनीति में सरकार द्वारा की जा रही हर गलत परंपरा का विरोध होना चाहिए। कांग्रेस ने तो प्रतिबद्ध न्यायपालिका की भी बात की थी। मई 1973 को केंद्रीय मंत्री एस मोहन कुमारमंगलम का संसद में दिया गया बयान देखें। उन्होंने कहा था, 
“निश्चित तौर पर, सरकार के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम इस दर्शन को अपनाएँ कि क्या अगला व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट का नेतृत्व करने लायक है या नहीं।”
बाद में, तीन जजों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर इंदिरा सरकार ने जस्टिस एएन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया। 
जस्टिस एच आर खन्ना की बारी चीफ़ जस्टिस बनने की आई तो उनकी जगह इंदिरा सरकार ने एम एच बेग को सीजेआई बना दिया। इसी पर जस्टिस एचआर खन्ना ने त्यागपत्र दे दिया था। 

संविधान ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच जिस रिश्ते की अवधारणा की है वह चेक और बैलेंस पर आधारित है। एक्जीक्यूटिव जब मज़बूत होती है और स्वेच्छाचारिता की ओर बढ़ने लगती है तो विधायिका को अपने शिकंजे में कर ही लेती है फिर वह न्यायपालिका की ओर बढ़ती है और इसी प्रकार के निजी उपकारों द्वारा न्यायपालिका में सेंध भी लगाती है। रंजन गोगोई का नामांकन संविधान के उद्देश्य और भावना के विपरीत है। कांग्रेस के समय के गलत और संविधान की भावना के विपरीत किये गए निर्णय के आधार पर आज जो उस तरह के निर्णय किये जा रहे हैं उनको औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। जस्टिस गोगोइ के फैसलों, उनके खिलाफ उठे और फिर दब गए यौन उत्पीड़न के मामले भी चर्चा की जद में आएंगे, क्योंकि वे संसद में हैं और वहां किसी न किसी प्रकरण पर ऐसे विवादित प्रकरण उठ सकते हैं। अब इस समय न्यायपालिका को यह गंभीरता से यह देखना होगा कि वह कैसे कार्यपालिका के इस अतिक्रमण को जो चेक और बैलेंस को दरकिनार कर के स्वेच्छाचारिता से किया जा रहा है, खुद को अप्रभावित रखती है।  

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday 18 March 2020

सरकार का संकट और सुप्रीम कोर्ट में जिरह / विजय शंकर सिंह

कोर्ट रूम में जिरह
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सियासी उठापटक पर कांग्रेस की दलील देते हुए एडवोकेट दुष्यंत दवे ने कहा, 
प्रदेश की जनता ने कांग्रेस पर भरोसा जताया था। चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनी कांग्रेस ने उसी दिन विश्वास मत हासिल कर लिया था। बहुमत के साथ 18 महीने सरकार चलाई। भाजपा बलपूर्वक सरकार को अस्थिर कर लोकतंत्र मूल्यों को खत्म करना चाहती है। उसने 16 विधायकों को अवैध हिरासत में रखा है। 

इस पर बागी विधायकों के वकील मनिंदर सिंह ने कहा- 
ये झूठ है, कोई हिरासत में नहीं है।

दवे ने कहा- हमारे विधायकों से जबरन इस्तीफे लिखवाए गए।होली के दिनभाजपा नेताओं ने जाकर 19 बागी विधायकों के इस्तीफे स्पीकर को सौंप दिए थे। ये बड़ी साजिश है। इसकी जांच जरूरी है। बागी विधायकों को चार्टर्ड विमानों से बाहर ले जाकर भाजपा के द्वारा बुक किए रिजॉर्ट में रखा है।

फ्लोर टेस्ट पर कांग्रेस की दलील
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फ्लोर टेस्ट कराने का निर्णय लेने में स्पीकर सबसेऊपर हैं। राज्यपाल उन पर हावी हो रहे हैं। रातोंरातमुख्यमंत्री और स्पीकर को फ्लोर टेस्ट का आदेश देना राज्यपाल का काम नहीं है। राज्यपाल को बहुमत परीक्षणका आदेश नहीं देना चाहिए था। जो विधायक इस्तीफा दे रहे हैं, चुनाव में जनता के बीच जाएं। इस पर जस्टिस गुप्ता ने कहा- वही तो कर रहे हैं। उन्होंने सदस्यता छोड़ दी, फिर चुनाव चाहते हैं।दवे ने कहा- खाली हुई सीटों पर उपचुनाव होने तक फ्लोर टेस्ट को टाल दिया जाए। अभी कोई आसमान नहीं गिर पड़ा है कि कमलनाथ सरकार को तुरंत हटाकर शिवराज सिंह को गद्दी पर बैठा दिया जाए। कोर्ट को बाद में विस्तार से मामला सुनना चाहिए।

फ्लोर टेस्ट पर भाजपा की दलील
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रोहतगी ने कांग्रेस की मांग काविरोध करते हुए कहा- हम अभी कोर्ट से कोई अंतरिम आदेश चाहते हैं। कांग्रेस 1975 में सत्ता के लिए देश पर इमरजेंसी थोपने वाली पार्टी है। किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहती है। सत्ता के लिए अजीब दलीलें दी जा रही हैं। जिसके पास बहुमत नहीं है, वह एक दिन सत्ता में नहीं रह सकता। यहां पहले खाली सीटों पर चुनाव की दलील देकर 6 महीने का प्रबंध करने की योजना है। चुनाव करवाना चुनाव आयोग का काम है। यहां इस पर विचार नहीं हो रहा, फ्लोर टेस्ट पर हो रहा है। 

इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा- 
विधायकों के इस्तीफे स्वीकार करने से पहले स्पीकर का संतुष्ट होना जरूरी है।

लंच ब्रेक के बाद बागी विधायकों पर कोर्ट की टिप्पणी... 
बेंच ने कहा- 
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हम कैसे तय करें कि विधायकों के हलफनामे मर्जी से दिए गए या नहीं? यह संवैधानिक कोर्ट है। हम संविधान के दायरे में कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे। टीवी पर कुछ देखकर तय नहीं कर सकते। 16 बागी विधायक फ्लोर टेस्ट में शामिल हों या नहीं, लेकिन उन्हें बंधक नहीं रखा जा सकता। अब साफ हो चुका है कि वे कोई एक रास्ता चुनेंगे। उन्होंने जो किया उसके लिए स्वतंत्र प्रक्रिया होनी चाहिए। इसके साथ ही अदालत ने वकीलों से सलाह मांगी कि कैसे विधानसभा में बेरोकटोक आने-जाने और किसी एक का चयन सुनिश्चित हो।

बागी विधायकों पर भाजपा की दलील
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रोहतगी ने कहा- 
हम 16 बागी विधायकों को जज के चैम्बर में पेश कर सकते हैं। 

कोर्ट ने कहा- 
इसकी जरूरत नहीं है। 

रोहतगी ने कहा- 
आप विकल्प के तौर पर कर्नाटक हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को गुरुवार को विधायकों के पास भेजकर वीडियो रिकॉर्डिंग करा सकते हैं।
कांग्रेस चाहती है कि विधायक भोपाल आएं ताकि उन्हें प्रभावित कर खरीद-फरोख्त की जा सके। विधायक उनसे मिलना ही नहीं चाहते तो कांग्रेस क्यों इस पर जोर दे रही है।

बागी विधायकोंकी दलील
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उनके वकील ने कहा- 
विधायकों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताया है कि वह अपनी इच्छा से बेंगलुरु में हैं। हम सबूत के तौर पर कोर्ट में सीडी पेश करने के लिए तैयार हैं। इस्तीफा देना उनका संवैधानिक अधिकार है, हमने वैचारिक मतभेद के चलते इस्तीफे दिए। इन्हें मंजूर करना स्पीकर का कर्तव्य है। वह फैसले को लंबे वक्त तक लटका नहीं सकते हैं। क्या स्पीकर इसे लेकर सेलेक्टिव हो सकते हैं, कि कुछ पर फैसला लेंगे, कुछ इस्तीफे पर नहीं। जब विधायक भोपाल आकर कांग्रेस से मिलना ही नहीं चाहते तो हमे इसके लिए कैसे मज़बूर किया जा सकता है। कोर्ट स्पीकर को इस्तीफे स्वीकार करने के लिए निर्देश दे। हमारा भी मानना है कि सरकार बहुमत खो चुकी है। इसलिए तुरंत फ्लोर टेस्ट होना चाहिए।

मंगलवार की सुनवाई में मध्य प्रदेश सरकार और कांग्रेस के पक्षकार मौजूद नहीं थे। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा- हम दूसरे पक्ष को भी सुनेंगे। इसके बाद अदालत ने सभी पक्षकारों राज्यपाल लालजी टंडन, मुख्यमंत्री कमलनाथ और विधानसभा स्पीकर एनपी प्रजापति को नोटिस देकर 24 घंटे में जवाब मांगा था। नोटिस ईमेल और वॉट्सऐप के जरिए नोटिस भेजे गए। इसके साथ ही ईमेल पर बागी विधायकों की अर्जी और याचिका की कॉपी भी पक्षकारों को भेजी गई। भाजपा की तरफ से पैरवी करने पहुंचे वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा था कि कांग्रेस के 22 विधायक पार्टी छोड़कर चले गए, उनके पास बहुमत नहीं है, इसलिए उनकी तरफ से कोई सुनवाई में नहीं आया।

ऐसे केस में सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व में क्या
 फैसला दिया?
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● भाजपा ने 1994 के एसआर बोम्मई vs भारत सरकार, 2016 के अरुणाचल प्रदेश, 2019 के शिवसेना vs भारत सरकार जैसे मामलों का जिक्र किया है। इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने 24 घंटे में फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया था। 

● अरुणाचल प्रदेश के मामले में कोर्ट ने कहा था कि अगर राज्यपाल को लगता है कि मुख्यमंत्री बहुमत खो चुके हैं तो वे फ्लोर टेस्ट का निर्देश देने के लिए स्वतंत्र हैं। 

● 2017 में गोवा से जुड़े एक मामले में फ्लोर टेस्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक और टिप्पणी की- ‘फ्लोर टेस्ट से सारी शंकाएं दूर हो जाएंगी और इसका जो नतीजा आएगा, उससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी विश्वसनीयता मिल जाएगी ।
सुनवायी कल भी होगी। 

( विजय शंकर सिंह )