Friday 17 June 2016

एक कविता, प्रक्षालन / विजय शंकर सिंह




निःशब्द वन, निस्तब्ध बुद्ध,
मंद पवन, चंचल चंद्र,
चकित जन, उत्कण्ठित मन,
प्रश्न किया, तथागत से,
प्रश्नाकुल शिष्य ने,
" शास्ता, कुछ उपदेश आज,
कुछ अमिय ज्ञान, कुछ मार्ग,
कोई अवलंब जीवन का,
कुछ कृपा करें , मुझ मूढ़ पर । "

मुंदे नयन, प्रशस्त ललाट,
अद्भुत अधर, मोहक मुस्कान,
देखते हुए शिष्य को ,
उत्तर तो दिया नहीं,
प्रतिप्रश्न और कर दिया,
बोले बुद्ध,
" भोजन के बाद कभी,
जूठे पात्र, धोये हो ? "
चकित शिष्य , हुआ और भ्रमित,
जागा कुछ भाव उपालम्भ का,
बोल पड़ा,
" जूठा पात्र, हर दिन तो धोता हूँ ,
भोजन के बाद उसे,
भला, बिना धोये,
कैसे खा लूंगा, जूठे बर्तन में ? "

बुद्ध मुस्कुराये,
खिल उठा चाँद,
बादलों के बीच ,
शिष्य की आँखों में देख,
पूछा,
" पात्र धोने के कार्य से कुछ सीखा,
या धोते रहे हो उसे
ऐसे ही अब तक ?"

" पात्र धोने में क्या सीखना, प्रभु,
यह तो कर्म है नित्य का,
सभी तो धोते हैं, जूठे पात्र को,
बिना प्रक्षालित किये , भला,
खा सकता है,
कैसे कोई उस पात्र में ?
अस्वस्थ न हो जाऊँगा ? "
शिष्य ने तर्क रखा,
और सोचने लगा,
जूठा पात्र भला, क्या देगा सीख मुझे !

अधखुले नयन तथागत के,
अधर हिले,
" ध्यान देना तुम,
पात्र , को बाहर तो कम
पर अधिक धोना पड़ता है
भीतर उसे ।
यह देह भी तो पात्र ही है ।
धोते तो इसको भी नित्य ही हो, तुम
पर अंदर कभी देखा है ?
झाँको और पैठो भीतर,
मन पर जो जमी धूल ,
चीकट जो चिपकी है ,
धोना पड़ता है अधिक उसे । "

शिष्य स्तब्ध, बोले बुद्ध फिर
" सब कुछ तो मन ही है ,
बांधे और रखता है साधे सबको,
कभी उदास तो ,
कभी पा चुका हो सब कुछ जैसे,
भरा हो आत्मतोष से,
बिलकुल पूर्णिमा के चाँद की तरह,
सम्पूर्ण कलाओं को समेटे ,
रश्मि बिखेरता,
और पराजित करता, अन्धकार को ।
साफ़ रखो, मन को, 
जूठे पात्र को, जैसे,
भीतर से अधिक धोते हो,
रखते हो, साफ़ उसे ! "

बुद्ध फिर हुए मौन,
आत्मलीन, आँखे मूंदे, स्मित अधर ,
सब शांत और दिव्य !
एक उजास दूर कही ,
क्षितिज के पार दिखने लगा
प्रत्यूष होने लगा !!

© विजय शंकर सिंह

Thursday 16 June 2016

Ghalib - Afsos ki dandaa kaa kiyaa rizk falaq ne / अफ़सोस कि, दंदां का किया रिजक, फलक ने,- ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब -10.


अफ़सोस कि, दंदां का किया रिजक, फलक ने,
जिन लोगों को थी दर्खुर ए उक्द ए गुहर, अंगुश्त !!

दंदा दांत
रिजक जीविका
दर्खुर योग्य
उक्द गाँठग्रंथि. 
गुहर मुक्तामुहर.
अंगुश्त अंगुली.

Afsos ki dandaan kaa kiyaa rizq falaq ne
Jin logon ko thee, darkhur e uqd e guhar, angusht !!
-Ghalib.

अफ़सोस है कि जिन की अंगुलियाँ मुक्ता लड़ियों से शोभित होनी चाहिए थीदुर्भाग्य से शोकग्रस्त हो कर उनकी उंगलियाँ दांतों का आहार बन रही है. 

यह शेर शोक की पराकाष्ठा की और इशारा करता है. हिंदी की एक पंक्ति याद आती हैकनगुरिया की अंगूठी ज्यों कंगना हो जाय. शोक में कनिष्ठा की अंगूठी कनिष्ठा के और दुर्बल हो जाने के कारण कंगन की तरह हो गयी है. ग़ालिब का यह शेर भी कुछ ऐसा ही है. शोक में खुद की ही ऊँगली दांतों में इतनी दबी कि उसका आहार बन गयी. 

ग़ालिब का काल सामंतवाद और मुग़ल ऐशर्व के पराभव का काल था. विलासिता थीकाहिली थी. शौर्य और पराक्रम का लोप हो चुका था. दरबार थादरबारी थेपर राज बस दिल्ली से पालम तक था. कवियों की कल्पना की उड़ान थी. और नए नए परतिमान गढ़े जा रहे थे. ग़ालिब के इस शेर में भी अतिशयोक्ति की निर्बन्ध  उड़ान दिखती है.

Wednesday 15 June 2016

एक कविता - खोज , एक पथिक की / विजय शंकर सिंह


सामने रखा एक
कोरा कागज़,
कितने भाव जगा गया. मन में
लिखूं कुछ,
या  न लिखूं कुछ,
सोचता हूँ, पन्ने पलट दूं 
खामोशी से। 

पर तुम तक बात अपनी,
पहुँचाऊँ कैसे !
तुम तक पहुँचने की
कोई भाषा नहीं होती है,
न होता है कोई व्याकरण
न कोई पथ.
न कोई पंथ ।
घोर अरण्य,
और कठोरतम पत्थरों के,
स्पंदन के बीच,
बूंदों का एक समूह,
कोई न कोई राह
ढूढ़ ही लेता है,
और फिर यह निर्झर,
सदियों तक 
प्यास बुझाता रहता है ।

विकट जिजीविशा है ,
जल के उस नन्हे से,
विंदु में !

शून्य कुछ भी नहीं है,
कोई मोल भी नहीं,
पर साथ मिले तो छोटा पड़ जाय,
अनंत भी ।

शब्द निःसृत होते हैं,
शून्य से,
फिर समा जाते है,
उसी शून्य में.
सब कुछ उद्गमित है,
जहाँ से ,
विसर्जित भी वहीं, 
हो जाता है । 

शब्द ब्रह्म है, अक्षर है,
अक्षत हैं ।
सहस्र सूर्यों की आभा लिए,
ब्रह्माण्ड को समेटे,
घोर अन्धकार में भी जो,
सब का पथ प्रदर्शित करे,
मुझे उसी पथिक की खोज है !!

( विजय शंकर सिंह )

Monday 13 June 2016

कश्मीर और कैराना कहीं मुद्दे ही बन कर न रह जाए / विजय शंकर सिंह

कश्मीर घाटी से पंडितों का पलायन 1990 में शुरू हुआ था । 1989 1990 1991 1992 ये चार साल देश के इतिहास में बेहद कठिन साल थे । राजनीतिक अस्थिरता थी । 1989 में बोफोर्स काण्ड के बाद कांग्रेस केंद्र से बेदखल हो गयी थी, और वीपी सिंह की जनमोर्चा तीसरे मोर्चे के साथ सरकार में थी । इसे भाजपा और वाम मोर्चा का समर्थन बाहर से था । गृह मंत्री महबूबा मुफ्ती के पिता थे । महबूबा की बहन रुबैय्या सईद का आतंकियों ने अपहरण कर लिया था । सरकार बिलकुल नयी थी । मुफ्ती साहब थे तो गृह मंत्री पर इस अपहरण ने गृह मंत्री का अपहरण कर के पिता को उनके ऊपर कर दिया । पुत्री के लिए,  पिता का स्नेह देश के लिये भारी पड़ा, और आतंकियों की , पांच आतंकियों को छोड़े जाने की मांग माननी पडी, और यह सरकार की एक बड़ी भूल थी । बात रुबैय्या की या पांच आतंकियों की नहीं है, बात है सरकार के स्टैंड की । सरकार के राजनीतिक लाभ हानि से जुड़े फैसले सुरक्षा बलों का मनोबल तो गिराते ही हैं , साथ ही साथ वह यह भी सन्देश देते हैं कि आतंक और उसके विरुद्ध कार्यवाही के लिए सरकार अंदर से कमज़ोर है ।

वीपी सिंह के बाद चंद्रशेखर आये। चार माह रहे । फिर चुनाव हुआ और 1991 में पीवी नरसिम्हाराव प्रधान मंत्री बने । वह सरकार भी अल्पमत में थी, जो धीरे धीरे बहुमत में आयी । कश्मीर में पाकिस्तान की दखल बहुत बढ़ गयी थी । देश का माहौल बिगड़ गया था । राम मंदिर का मामला जोर पकड़ चुका था । कश्मीर के बारे में किसी ठोस और स्पष्ट नीति का अभाव था । पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के लिए यह उपयुक्त समय समझा, और घाटी के अलगाववादी तत्व सक्रिय थे ही, और बेनज़ीर भुट्टो की कश्मीर की आज़ादी की तकरीरें टीवी और उस समय की न्यूज़ वीडियो मैगज़ीन न्यूज़ ट्रैक पर देखी जा सकती हैं । उसी समय यह पलायन हुआ और धीरे धीरे घाटी कश्मीरी पंडितों से खाली होने लगी । जो पंडित भाग कर आये भी अपने पुनर्वास के बाद चाह कर भी घाटी में नहीं जा पाये । भय एक मूल कारण था । यह मुद्दा बाद में राजनीतिक बना और आज तक बना हुआ है । कश्मीर की समस्या साम्प्रदायिक के साथ साथ अलगाववाद की भी है । अलगाववाद में भी वहाँ दो पक्ष हैं। एक तो वह है जो पाकिस्तान में मिलने की बात करता है । दूसरा वह है जो, खुद ही आज़ाद होना चाहता है । पाकिस्तान दोनों ही गुटों को शरण देता और उकसाता रहता है । उसका उद्देश्य इस मामले को ज़िंदा रखना तथा भारत को उलझाये रखना है ।

1991 से 1996 तक कांग्रेस की सरकार रही। उस समय देश का साम्प्रदायिक वातावरण बहुत ही बिगड़ा हुआ था । उसी दौरान 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या का विवादित ढांचा गिराया गया । देश में भयानक दंगे हुए । प्रतिक्रिया स्वरुप बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी दंगे हुए । कश्मीर की स्थिति और बिगड़ी । पर धीरे धीरे सब शांत हुआ और 1996 में भाजपा की सरकार आयी । अटल जी तीन बार में, पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और अंत में पूरे कार्यकाल के लिए प्रधान मंत्री रहे । उन्ही के समय में कारगिल हुआ । हालांकि आपसी सम्बन्ध सुधार के लिए उन्होंने बहुत पहल की। वह ईमानदार पहल थी । पर ताली एक हाँथ से नहीं बजती है । कोई स्थिति नहीं सुधरी । कश्मीरी पण्डितों को घाटी से निकले काफी समय हो चुका था। वे जहां पुनर्वासित थे वहाँ रहे ज़रूर पर अपनी मिटटी में जाने की ललक शेष रही । उनके पुनर्वास का मसला लटका ही रहा ।

2004 से 2014 तक देश में कांग्रेस की सरकार पुनः रही। कश्मीर में पहले की तुलना में शान्ति तो थी पर कश्मीरी पंडितों की वापसी पर कोई राय नहीं बन पायी । इसमें तीन पक्ष है । एक केंद्र सरकार, दूसरे राज्य सरकार, और तीसरे कश्मीरी पंडित। कश्मीरी पंडित या कोई भी अशांत क्षेत्र में जहां से उसे अशांति और आतंक के कारण ही भाग कर आना पड़ा हो कैसे जाएगा ? इनका पुनर्वास शान्ति पूर्वक हो और वह शान्ति बनी भी रहे, यह सुनिश्चित करना केंद्र सरकार और राज्य सरकार का ही काम है । पर तीनों ही पक्ष इस पुनर्वासन की बात तो करते थे पर पुनर्वासन की कोई ठोस योजना किसी भी सरकार ने न तो बनायी और न ही पलायित समाज से ही गम्भीर विचार विमर्श किया । यह मुद्दा जैसे था वैसे ही ज़िंदा रहा और अब भी है । 1990 से आज 2016 तक एक पीढी , कश्मीरी पंडितों की निर्वासन में ही जवान हो गयी और उन्होंने ' स्वर्ग ' का सुख नहीं देखा । केसर की क्यारियाँ नहीं देखीं, श्रीनगर की डल झील के चार चिनार के द्वीप को नहीं देखा। वे बिलकुल दिल्ली वाले हो गए । यह एक सांस्कृतिक संक्रमण है ।

अब आइये थोडा कैराना पर । कैराना ज़िला मुज़फ्फरनगर की एक तहसील और एक थाना भी । यह इलाक़ा सरसब्ज़ और खेती में अव्वल । प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में सबसे अधिक । मैं वहाँ कभी नियुक्त नहीं रहा हूँ पर कई बार उधर से जाना हुआ । रुकना भी हुआ । उसी कैराना के बारे में हुकुम सिंह सांसद के हवाले से खबर आयी कि, यहां के हिन्दू व्यापारी और कुछ लोग मुस्लिमों से डर कर इलाक़ा छोड़ कर पलायन कर गए । कश्मीर और कैराना में सिवाय क अक्षर के और कोई समता नहीं है । कैराना न तो आतंकियों के निशाने पर रहा है और न है और न ही वहाँ पाक की शह पर कोई अलगाववादी आंदोलन चल रहा है । दो दिन खूब गहमा गहमी रही। कुछ के खून सोशल मिडिया पर ही उबाल खाये । कुछ के खून जब उबाल खाते हैं तो गालियों के फेन ही छोड़ते हैं , क्या करें सारा धर्म यहीं इसी सोशल मिडिया पर ही बचाना है । खुद मैंने भी पोस्ट डाली। कुछ को हैरानी हुयी तो कुछ आशंकित हुए । पर धर्मान्धता की आड़ में गुंडई और दबंगई से किसी को भी उसका घर छोड़ने को बाध्य करना अपराध भी है और आतंक फैलाना भी । पर दो तीन दिन में ही स्थिति स्पष्ट हो गयी । सांसद की सूची पर ही प्रश्न चिह्न लग गया । पता लगा जिनकी हत्या की बात वे कर रहे हैं वे पहले के किस्से हैं । और वे हत्याएं धर्म के आधार पर नहीं अन्य आधार पर की गयीं । लोगों को स्थिति समझ में आने लगी । एक मुद्दा बनते बनते रह गया ।

दंगा जनित पलायन कोई नयी बात नहीं है । भारत के गाँव का सामाजिक ढांचा देखें तो गाँव की रिहाइश साफ़ साफ़ जाति के आधार पर बंटी रहती है। इनके रिहाइश के नाम भी जाति के आधार पर ही पुकारे जाते हैं । मल्टी स्टोरी फ्लैट में ही पैदा और उसी को संसार समझने वाली पीढी इसे समझ नहीं पाएगी । गाँव इसी आधार पर, ठकुरान, अहिरान, चमटोल, खटिकाना आदि पुरवों में बंटे रहते हैं । सब में परस्पर मेलजोल भी रहता है पर सब अपने अपने समाज में रहते हैं । भारतीय गाँव की सामाजिक स्थिति ऐसी रही है कि देश के केंद्र या सत्ता परिवर्तन का कोई बहुत असर उन पर नहीं पड़ा । ऐसा भी नहीं गाँव उजड़े या पुनः नहीं बसे। बल्कि, आक्रमण और देवी आपदा, महामारी के कारण भी उजड़ते बसते रहे हैं । इसी बीच जब धर्म परिवर्तन की बाढ़ आयी तो इसका असर गाँव पर भी पड़ा । कुछ ने भय वश तो कुछ ने लोभवश धर्म छोड़ा । आज जो मुस्लिम आबादी हमें देहात में देखने को मिलती है , वह उसी धर्म परिवर्तन का नतीजा है । धर्म तो बदला पर मूल जाति उनकी नहीं बदली। इस्लाम लाख एक ही सफ में खड़े हो गए  महमूद ओ अयाज़ , की बात करे पर जिस जातिगत स्वाभिमान के साथ लोगों ने इस्लाम ग्रहण किया था, वह अब तक बरकरार है । जो राजपूत से मुस्लिम हुए हैं वे खुद को पठान या राजपूत मुस्लिम कहते हैं और कुछ तो बाक़ायदा राजपूत सरनेम , राठौर , चौहान, पुंडीर, जादौन, आदि लगाते हैं , यहां भी और पाकिस्तान में भी । यह साफ़ बताता है कि धर्म का चोला भी जाति के आवरण को निगल नहीं पाया । और इसी तर्ज़ पर मुस्लिमों का भी ऐसा ही टोला या मोहल्ला  विकसित हुआ । ऐसा नहीं है मुस्लिम गाँव में सभी बिरादरी के लोग एक साथ ही रहते हों । वहाँ भी जाति व्यवस्था है।  और उनके गाँव भी इसी आधार पर बंटे रहते हैं । समय के साथ धर्म के आधार पर गाँव बंटने लगे और, वे अलग हो गए । ऐसा नहीं कि यह बंटवारा भय वश ही हुआ पर अपने समाज में रहने की ललक और आवश्यकता ने ही इस व्यवस्था को जन्म दिया । शहरों में भी लोग आये तो गाँव से ही थे । वे उसी आधार पर बसते गये । आज भी जब हम कही प्लाट या फ्लैट खरीदते हैं तो अपना समाज और जाति बिरादरी तथा धर्म ज़रूर देखते हैं । । मनुष्य अपना समाज खोजता ही है ।

यह मैंने इस लिए लिखा है कि बेहतर जीवन के लिए पलायन होता ही रहा है और एन आर आई इसकी सबसे ज्वलंत मिसाल है । कैराना की साम्प्रदायिक स्थिति सामाजिक रूप से अविश्वासपूर्ण है । 2014 में वहाँ दंगा हो चुका है और उसकी खटास अभी तक है । हो सकता हो, कुछ पलायन धार्मिक आधार पर भी हुआ हो । और यह भी हो सकता है कि कुछ पलायन बेहतर जीवन के लिए भी हुआ हो । पर अगर यह पलायन धर्म के आधार पर हुआ है तो इसे मुद्दे के रूप में नहीं बल्कि एक गंभीर समस्या के रूप में लेना चाहिए । न्यूज़ चैनेल्स भी अलग अलग राय और तथ्य परोस रहे हैं । निश्चित रूप से सच क्या है यह बता पाना मुश्किल है ।ज़ी न्यूज़ कुछ दिखा रहा है और Abp न्यूज़ कुछ और ndtv कुछ । धर्म आधारित पलायन या विस्थापन क़ानून व्यवस्था की समस्या उतनी नहीं है, जितनी कि परस्पर अविश्वास की । और यही स्थिति और प्रवित्ति खतरनाक है ।

एक बात और । कश्मीर हो या कैराना, यह समस्या है , समाधान नहीं। पंडितों के लिए एक अशोक पंडित हैं मुम्बई के और अनुपम खेर , बहुत बिलखते हैं और अक्सर रुदाली हो जाते हैं । मुझे उनकी व्यथा से सहानुभूति है पर उन्होंने इन पंडितो के पुनर्वास के लिए सरकार पर क्या दबाव डाला ? जब कि वे सरकार और प्रधान मंत्री के नज़दीक भी है । वे लेखकों के सम्मान त्याग के खिलाफ थे, उन्हें खिलाफ रहने का अधिकार है पर जिन समस्याओं पर लेखकों ने सम्मान त्याग किया उनके बारे में क्या सोचा ? ऐसा ही कैराना में हो रहा है । सारी सहानुभूति ऊपर ऊपर , और अधर सहानुभूति बन कर रह जायेगी ।

राजनीतिक दलों के लिये समस्याएं और मुद्दे उपयोगी होते हैं समाधान नहीं । इन्ही मुद्दों और समाधान के आधार पर वह अपनी राजनीतिक दाँव पेंच साधते हैं । कैराना के पलायित परिवारों अगर वह सच में हैं तो , उन्हें उन परिवारो से कोई बहुत सरोकार नहीं है । यही पलायन धार्मिक आधार पर नहीं हुआ होता और सजातीय और सहधार्मिक आधार पर हुआ साबित होगा तो कोई भी दल नाम ही नहीं लेगा । हिन्दू मुस्लिम विवाद हमेशा, राजनितिक दलों के लिए लाभांश के रूप में ही रहा है । वे एक सधे निवेशक की तरह इसमें निवेश भी समय समय पर करते रहते हैं । इसी लिए वे इसे ज़िंदा बनाये रखना चाहते हैं । 2014 के मुज़फ्फरनगर के दंगे में भी मुस्लिमों का व्यापक विस्थापन हुआ था। और अब तक कुछ लोग अपने घर गाँव भी नहीं पहुँच पाये । अगर बात धार्मिक आधार पर विस्थापन की है तो इसे भी देखा जाना चाहिए ।

समस्या पलायन नहीं है । समस्या यह है कि कैसे इसे उभारा जाए और इसे ज़िंदा रखा जाय । कश्मीर और कैराना केवल सद्भाव क्षरण के मुद्दे ही बन कर न रह जाएँ अतः इनका समाधान प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से बिना किसी पूर्वाग्रह के ही किया जा सकता है ।

( © विजय शंकर सिंह . )

Thursday 9 June 2016

एक कविता - अहंकार / विजय शंकर सिंह


तुम भी बेचैन, 
हम भी हैं बेचैन
, 
तुम भी हो बेक़रार
, 
करार हमें भी नहीं !
 

इसे जिद कहूं
, 
या कहूं ग़ुरूर
, 
तूफ़ान ए अना ऐ तुम भी परेशान
, 
और सुकून मुझे भी कहाँ !


वे भी दफ़न हुए
, 
जो राज करते थे लहरों पर
, 
जिन्हें गुमां था
, कि
आफताब उनका है.
 
लगा डूबने एक दिन सूरज
, 
दहलीज़ पर उनके भी !
 

कितन किस्सेे कैद हैं
, 
इतिहास के ज़र्द पन्नों में
, 
बिखरे बिखरे
, फड फडाते हुए, 
क़फ़स में फंसे परिंदों की तरह !
 

खा गया अहंकार
 
न जाने कितनों को
,
फिर भी रगों में खून के मानिंद
,
दौड़ता यह गुरूर
, 
न तुम्हे चैन लेने देता है
, 
और न मुझे !
 

आओ सोचें कोई तरकीब
, 
निजात पायें इस से
, 
बगूले में उड़ते हुए धूल की तरह
, 
हम तुम
, 
इस अनंत कायनात में
, 
सिर्फ फानी हैं !
 
और क्षणभंगुर भी !!
 
-vss. 

A poem. 
Ahankaar. 

Tum bhee, bechain, 
Ham bhee hai bechain.
Tum bhee ho beqaraar, 
Qaraar hamen bhee naheen ! 

Ise zid kahoon, 
Yaa kahoon guroor,
Toofaan e anaa se tum bhee pareshaan, 
Sukoon mujhe bhee kahaan !

Wey bhee dafan huye,
Jo raaj karte the laharon par,
Jinhe gumaan thaa, ki
Aaftaab unkaa hai.
Lagaa doobane sooraj ek din,
Dahaleez par unke bhee ! 

Kitne kisse qaid hain, 
Itihaas ke zard panno mein,
Bikhre, bikhre, phad'phadaate huye,
Qafas mein fanse parindon kee tarah ! 

Khaa gayaa ahankaar,
Na jaane kit'no ko,
Phir bhee ragon mein khoon kee tarah, 
Daudataa yah guroor,
Na tumhe chain lene detaa hai, 
Aur na mujhe ! 

Aao sochen koi taraqeeb,
Nizaat paayen is se,
Bagoole mein udte huye dhool kee tarah, 
Ham, tum,
Is anant qaayanaat mein, 
Sirf faanee hain ! 
Aur kshan'bhangur bhee !! 
-vss.


Monday 6 June 2016

एक कविता - आत्मीय / विजय शंकर सिंह





मैं तुम्हे जीवन की समस्त समस्याओं ,
संदेहों और भय से मुक्ति का हल नहीं सुझा सकता हूँ,
लेकिन मैं तुम्हारी बात सुन सकता हूँ,
और हम मिल बैठ कर उनका समाधान ढूंढ सकते हैं ।
 
मैं तुम्हारा अतीत नहीं बदल सकता,
और न ही अतीत के वे दंश जो दिल पर तुम्हारे खुदे हुए हैं
मिटा सकता हूँ। 
और न ही वे दर्द, जिन्हें तुम संजो कर रखे हो,
भुला सकता हूँ तुम्हारे अवचेतन से ।
और न ही भविष्य की उन कथाओं को सुना सकता हूँ,
जो अभी तक लिखी भी नहीं गयी हैं !

पर मैं दुःख के उन कातर छड़ों में ,
जब तुम खुद को नितांत अकेला पाओगे तो, 
उपस्थित रहूँगा.
मैं तुम्हारे क़दमों को लड़खड़ाते हुए तो, नहीं रोक सकता,
पर जब भी तुम्हारे पाँव डगमगायेंगे,
मेरे हाँथ तुम्हे अवलंब दे कर, 
ज़मीन पर तुम्हे गिरने नहीं देंगे ।

तुम्हारे आनंद, विजयोत्सव, सफलताएं, और खुशियों में ,
मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है ।
यह सारे पुष्प तुम्हारे उद्यान के हैं ।
लेकिन श्वेत और नन्हे पुष्पों के निर्झर सी तुम्हारी हंसी के स्वर में,
एक स्वर मेरा भी, आनंद से भरा , जुड़ेगा ।

तुम्हारी ज़िंदगी के फैसले, तुम्हारे होंगे ,
उम्मीदों की खिलती हुयी कोम्पले तुम्हारी होगी,
मैं उन फैसलों तक पहुँचने में,
राह में पड़ने वाले अवरोधों को हटाते हुए
उत्साह का ज्वार भरते हुए, लक्ष्य तक तुम्हारे साथ रहूँगा ,
पर तुम , चाहोगे तब !

तुम मेरी मित्रता की परिधि से दूर जाना चाहो तो,
रोकूँगा नहीं तुम्हे मैं ,
मैं प्रार्थना करूँगा अनंत से, बातें करूँगा तुमसे और ,
प्रतीक्षा करूँगा तुम्हारी, कि तुम वापस लौट आओ  !

हमारी मित्रता किसी सीमा से मुक्त अनंत की तरह,
सात रंगों का आकाश लिए है,
पर तुम किसी बंधन या नियमों से आबद्ध नहीं हो,
वन सुगंध की तरह मुक्त और सर्वव्यापी हो ।

मैं तुम्हारा ह्रदय भग्न और आहत न हो, ऐसा नहीं कर सकता,
भग्न और आहत होना , तो, नियति ही ह्रदय की ! 
ईश्वर ने इसे गढ़ा ही है , भग्न और आहत होने के लिए !

पर मैं उन टुकड़ों को 
प्रेम से चुन कर तुम्हे फिर जीवन पथ पर,
बढ़ने के लिए सहेजने में हर पल साथ रहूँगा !

तुम क्या हो, यह मैं नहीं जानता, और
न चाहता हूँ जानना,
बस, इतना ही सरोकार है मुझे तुमसे, कि,
तुम मेरे सखा हो, और आत्मीय हो मेरे !!

© विजय शंकर सिंह