Sunday 30 April 2017

तेज बहादुर की बर्खास्तगी और उससे उपजे सवाल - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

तेज बहादुर पर तो अनुशासनहीनता का इल्ज़ाम बना होगा कि क्यों उसने एक अनुशासित बल का सदस्य होते हुए अपनी व्यथा सार्वजनिक संचार माध्यम पर कही । उसकी जांच हुयी होगी जिसमे उसका जुर्म साबित हुआ और फिर उसे दंड स्वरूप सेवा से बर्खास्त कर दिया गया । 

यह अनुशासन हीनता थी जैसा कि कानून और सैनिक परम्पराएं कहती हैं । सैनिक अनुशासन के नियम और कायदे किसी भी सिविल सेवा के नियम और कायदे से अलग और सख्त होते हैं । यह एक रेजिमेन्टेशन है । ऐसा भी नहीं कि जवान अपनी व्यथा कह नहीं सकते । वे खूब कहते हैं और उन्हें कहने का अवसर भी मिलता हैं। पर यह सारी व्यथा कथा यूनिट के अंदर ही हर माह होने वाले मासिक सम्मेलन जिसे पहले दरबार कहा जाता था में कह सकते हैं । वहीँ इन समस्याओं का निराकरण भी होता है । ऐसा बिल्कुल नहीं हैं कि अनुशासन का दुरूपयोग नहीं होता । होता है और वह एक अलग पक्ष है । अगर यूनिट प्रमुख योग्य और निष्ठावान अधिकारी है तो शिकायतें कम आएँगी नहीं तो शिकायतें आती रहती हैं । सेना सहित सभी बलों और पुलिस सेवाओं में यूनिट प्रमुख एक जिम्मेदार परिवार के मुखिया की तरह होता है ।

इस प्रकरण में यह हुआ कि सोशल मिडिया पर एक वीडियो अवतरित हुआ और फिर बुखार की तरह फ़ैल गया । वीडियो में हवलदार तेज बहादुर को यह कहतें हुए सुना गया कि उसे खाने में जली हुयी रोटियां और केवल हल्दी मिली दाल मिलती है । यह भोजन व्यथा केवल तेज बहादुर की ही थी या उसके पूरे मेस की यह तो पता नहीं पर इस से यह सन्देश गया कि सीमा पर नियुक्त सुरक्षा बलों के जवानों को खाना अच्छा नहीं मिलता है । फिर जब बात निकली तो उसे दूर तक जाना ही था,और उस पर उंगलियां भी उठनी हीं थीं । सोशल मिडिया पर बुखार चढ़ा तो यूनिट भी हरकत में आयी । खाना सुधरा या नहीं यह तो मुझे नहीं पता पर तेज बहादुर के साथ जो हुआ वह आज सब को पता है । अभी तेज बहादुर अपने मामले में अपील आदि कर सकते हैं और वे क्या करेंगे यह उन्हें ही तय करना है ।

लेकिन उनकी बर्खास्तगी से सीमा पर भोजन की गुणवत्ता सुधर नहीं जायेगी पर यह ज़रूर हो सकता है कि लोग शिकायतें करना ही छोड़ दें । शिकायतों का न मिलना , शिकायतों के बराबर मिलने की तुलना में अच्छी स्थिति नहीं है । दुनिया में आज तक कोई भी ऐसी त्रुटिरहित व्यवस्था नहीं हुयी है जिसमे कि शिकवे शिकायत की गुंजायश न हो । अगर लम्बे समय तक शिकायत नहीं हो रही है तो इसका एक ही कारण है कि लोगों को यह आभास हो चला है कि उन शिकायतों पर कोई सुनवायी ही नहीं हो रही है तो क्या , क्यों और किस से कहा जाय ? यह मनःस्थिति सीधे मनोबल पर असर डालती है और इस से यूनिट के प्रशासकों और जवानों के बीच संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न होती है जो अनुशासन के लिए और भी घातक होती है । यूनिट एक परिवार की तरह होती है । लोग एक साथ रहते हैं , परेड करते हैं, खाते पीते हैं और वक़्त आने पर एक साथ कर्तव्य हेतु मरते जीते भी हैं । यह एकता ही सेना और सुरक्षा बलों की मानसिक ताक़त है जो उन्हें अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी एकजुट बना कर रखते हुए स्वस्थ और प्रसन्न रखे रहती है ।

तेज बहादुर की बर्खास्तगी से सवाल थमेंगे नहीं बल्कि और ज़ोरों से उठेंगे । उसे तो उसके किये की सजा मिल गयी पर उसके आरोपों का क्या हुआ ? 
खराब खाना सम्बंधित आरोप  अगर सत्य है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? 
क्या इस आरोप के खिलाफ क्या कोई जांच हुयी थी ?
जांच से परिणाम क्या निकला ?
जांच का परिणाम और की गयी कार्यवाही का विवरण भी विभाग द्वारा सार्वजनिक किया जाना चाहिए जिस से सच सामने आ सके । हम एक बेहद पारदर्शी युग में जी रहे हैं । जासूसी के ऐसे ऐसे उपकरण उपलब्ध हो गए हैं कि अब कुछ भी गोपन नहीं रहा । अतः गोपनीयता का आवरण देना अनेक अफवाहों को ही जन्म देगा । हो सकता है उधर कोई गलत बयानी हो और इधर कोई न कोई वीडियो , आडियो, या फ़ोटो सोशल मीडिया पर आ कर के उस गोपनीयता को उघाड़ दे ।

अनुशासन हवा में और इकतरफा नहीं होता है और न ही यह दमन का कोई उपादान है । यह बल को एकजुट , उच्च मनोबल युक्त और हर कठिन से कठिन परिस्थितियों में जूझने के लिए जीवनी शक्ति प्रदान करता है । अनुशासन तभी बरकरार रह सकता है, जब यूनिट प्रमुख और यूनिट प्रशासन जवानों का हित एक परिवार के जिम्मेदार  मुखिया की मानसिकता से देखेंगे । जबरन थोपा गया अनुशासन , आक्रोश उत्पन्न करता है । और यह अधिक घातक है ।

( विजय शंकर सिंह )

भारत की 53 प्रतिशत सम्पदा पर केवल एक प्रतिशत लोग काबिज है / विजय शंकर सिंह

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 53 % संपत्ति का मालिकाना हक़ केवल 1 % लोगों के पास है । इस रिपोर्ट के अनुसार संपत्ति का एकत्रीकरण और भी बढ़ रहा है । यही हाल रहा तो, असमानता का दर और अंतर बढ़ता ही जाएगा । फिर जो समृद्ध का द्वीप विपन्नता के सागर में ही दिखेगा । इस असमानता के स्तर को दूर करने के लिये , देश के लिए ऐसे आर्थिक मॉडल की आवश्यकता है जो न सिर्फ इस गैरबराबरी को दूर करे बल्कि सबको जीवन की मूलभूत आवश्यकता भी उपलब्ध कराये । रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि, दुनिया के अन्य मुल्क़ों की तरह, भारत इस असमानता को दूर करने के लिये सचेत भी नहीं है । रिपोर्ट का यह उद्धरण पढ़ें ,
“In terms of wealth inequality, India is second only to Russia, where the richest 1 percent own 53 percent of the country’s wealth,”

यूनाइटेड नेशंस ग्लोबल कॉम्पैक्ट ( UNGC ) ने  ‘The Better Business, Better World’ के नाम से एक रिपोर्ट जारी किया है , जिसमे यह तथ्य सामने आये हैं । UNGC के सीईओ और एक्ज़ीक्यूटिव डाइरेक्टर लिस किंगो ने कहा है कि भारत में निजी क्षेत्र और निजी पूँजी आधारित अर्थ व्यवस्था का प्रसार कम से कम एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया है । उन्हीं के शब्दों में इसे पढ़ें ,
“This is out of a total global value of $12 trillion that could be unlocked by sustainable business models in four key areas, food and agriculture, energy, cities and health,”

किंगो के अनुसार भारत को असमानता कम करने के लिये वैकल्पिक आर्थिक विकास के मॉडल अपनाने पर भी विचार करना होगा । गरीबी, असामनता आदि से प्रभावित क्षेत्रों की पहचान कर के उनके विकास की ओर ध्यान देना होगा ।  भारत के कृषि क्षेत्र की उपेक्षा हरित क्रान्ति आंदोलन के बाद से हो रही है । खेती के लिए नए नए आविष्कार होने के बावज़ूद किसानों का जीवन खुशहाल नहीं हो पा रहा है । देश का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है जहां से किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें न आ रही हों । भारत एक कृषि प्रधान देश है यह वाक्य हम बचपन से पढ़ते आये हैं पर सरकारों ने विकास का अर्थ ही मॉल, दैत्याकार आवासीय योजनाएं ही समझ लिया है । रिपोर्ट का यह अंश पढ़ें ,
“As the second largest food producer in the world, India needs a more focused approach to developing and managing its agricultural sector and agri-based industrialisation,”

बढ़ती हुयी यह असमानता, गरीबी उन्मूलन की योजनाओं को और धीमा करेगी तथा यह भी हो सकता है कि गरीबी उन्मूलन की योजनाएं एक छलावा बन कर रह जाएँ । UNGC की रिपोर्ट ने देश की चिकित्सा सुविधाओं की स्थिति को ले कर भी चिंता जतायी है । रिपोर्ट का यह अंश भी पठनीय है,
“On its current trajectory, India will continue to face enormous challenges in rural development, urban sustainability, national infrastructure, and improved quality of life of its citizens,”

इस असमानता को कम करने के लिए UNGC ने कुछ सुझाव भी दिए हैं । उनके सुझाओं के अनुसार, कम आय वर्ग के लिए खाद्यान्न बाज़ारों का निर्माण, खाने की बरबादी रोकने के लिये उचित कदम उठाने , छोटे किसानों को तकनीकी ज्ञान उपलब्ध कराने, आदि आदि सुविधाएं देने की बात कही गयी है । रिपोर्ट का यह उद्धरण देखें ,
" Its suggestions included creation of low-income food markets, reducing food waste in supply chains, technological aid in smallholder farms, micro-irrigation programs, resource recovery, remote patient monitoring and preventing catastrophic healthcare costs for the poor. "

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 27 April 2017

हरिशंकर परसाई का एक लेख - आवारा भीड़ के खतरे / विजय शंकर सिंह

( भीड़ का अपना अलग एक मनोविज्ञान होता है । अनियंत्रित भीड़ पर परसाई जी की यह रचना आज से पचीस साल पहले जून 1991 में लिखी गयी थी, पर भीड़ के क्रियाकलाप पर आज भी मौजूं है । भीड़ द्वारा न्याय करने और जंगल राज के आगाज़ का वह काल था । दो बहुत बड़े अराजक आंदोलनों का वह काल था । एक आरक्षण विरोध का और दूसरा अयोध्या आंदोलन का । देश भर में आवारा भीड़ जगह-जगह अपने तरीके से न्याय करने पर आमादा थी । आज भी कभी कभी ऐसी ही स्थिति आ जाती है । एक विधायक न्यायालय परिसर में खुद ही देशद्रोही की पहचान करता है और उसे पीटना शुरू कर देता है तो कोई सांसद लोगों को गोली मारने या जीभ काटने का ऐलान करता है । यह लोकतंत्र का त्रासद पक्ष है । प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जी का यह विचारोत्तेजक व्यंग्य । )

आवारा भीड़ के खतरे ।
हरिशंकर परसाई

एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर. इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया- पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर कांच के केस में सुंदर माॅडल खड़ी थी. एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा. कांच टूट गया. आसपास के लोगों ने पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया-हरामजादी बहुत खूबसूरत है.

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं-पश्चिम के सम्पन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी. अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का काम मिले, अमेरिका में रहूं. ‘स्टेटस’ जाना है यानी चौबीस घंटे गंगा नहाना है. ये अपवाद है. भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है, जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं. संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार और भारत के युवकों के व्यवहार में अंतर है.

सवाल है उस युवक ने सुंदर माॅडल के चेहरे पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है- यह उस गुस्से का कारण क्यों है? वाह, कितनी सुंदर है- ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?

युवक साधारण कुर्ता पाजामा पहने था. चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त. शिक्षित था. बेकार था. नौकरी के लिए भटकता रहा था. धंधा कोई नहीं. घर की हालत खराब. घर में अपमान बाहर अवहेलना. वह आत्मग्लानि से क्षुब्ध. घुटन और गुस्सा. एक नकारात्मक भावना. सबसे शिकायत. ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है. खिले हुए फूल बुरे लगते हैं. किसी के अच्छे घर से घृणा होती है. सुंदर कार पर थूकने का मन होता है. मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है. अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है. जिस चीज से खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है.

बूढ़े-सयाने लोगों का लड़का जब मिडिल स्कूल में होता है, तभी से शिकायतें होने लगती हैं. वे कहते हैं ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था. हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुका के मानते थे. अब ये लड़के बहस करते हैं. किसी की नहीं मानते. मैं याद करता हूं कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था. गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता. समाज के नेताओं का भी नहीं. मगर तब हम किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में दस-बारह अखबार आते थे. रेडियो नहीं. स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था. सब नेता हमारे हीरो थे- स्थानीय भी और जवाहरलाल नेहरू भी. हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियां नहीं जानते थे. मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे.

पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पांचवीं कक्षा का छात्र है. वह सबेरे अखबार पढ़ता है, टेलीविजन देखता है, रेडियो सुनता है. वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है. देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है. घर में कुछ ऐसा करने को कहो तो प्रतिरोध करता है- मेरी बात भी तो सुनो. दिन भर पढ़कर आया हूं. अब फिर कहते हो कि पढ़ने बैठ जाऊं. थोड़ी देर नहीं खेलूंगा नहीं तो पढ़ाई भी नहीं होगी. हमारी पुस्तक में लिखा है. वह जानता है कि घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं.

ऊंची पढ़ाई वाले विश्वविद्यालय के छात्र सबेरे अखबार पढ़ते हैं तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं. अखबार देश को चलाने वालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं. धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है. यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं- युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र का ग्रहण करना है- (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे में सब जानते हैं. उनका ऊंचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं. उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टांग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग. छात्रों से कुछ भी नहीं छिपा रहता अब. वे घरेलू मामले भी जानते हैं. ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएं. ये गुरु कहते हैं- छात्रों को क्रांति करना है. वे क्रांति करने लगे तो सबसे पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे. अधिकतर छात्र अपने गुरुओं से नफरत करते हैं.

बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं. वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो तीन हजार है, पर घर का ठाठ-बाट आठ हजार रुपयों का है. मेरा बाप घूस खाता है. मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है. हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं. इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों से भी अंधआज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती. हमारे यहां ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था- ‘प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत.’

उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है. कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था. उसकी परीक्षा हो चुकी है और लंबी छुट्टी है. उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो तीन बार कहा. डांटा. वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया, हम क्या करें? ऐसी-तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी. छुट्टी काटना उसकी समस्या है. वह कुछ तो करेगा ही. दबाओगे तो विद्रोह कर देगा. जब बच्चे का यह हाल है तो तरुणों की प्रतिक्रियाएं क्या होंगी.

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है. सब बड़े उसके सामने नंगे हैं. आदर्शों, सिद्धातों, नैतिकताओं की धज्जियां उड़ते वे देखते हैं. वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल और सार्थक होते देखते हैं. मूल्यों का संकट भी उनके सामने है. सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है. बाजार से लेकर धर्मस्थल तक. वे किस पर आस्था जमाएं और किसके पदचिन्हों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे लॉस्ट जनरेशन’(खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है. युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा, चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं. युद्ध में सब बड़े लगे हैं तो बच्चों की परवाह करने वाले नहीं. बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए. घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ. जीवन मूल्यों का नाश हुआ. ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन, कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीच जो पीढ़ी बढ़कर जवान हुई तो खोई हुई पीढ़ी. इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवा कुछ नहीं था. विश्वास टूट गए थे. यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई. अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था तो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी. नाटक का नाम है- ‘लुक बैक इन एंगर’. मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और सम्पन्न हो जाने पर भी चलता रहा. कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए. ‘बीट जनरेशन’ पैदा हुई. औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है. ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है. अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा. मगर व्यवस्था से असंतोष वहां भी पैदा हुआ. अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है. वहां एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक हैं तो दूसरी ओर अतिशय सम्पन्नता से पीड़ित युवक भी. जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वछंदता और विध्वंसवादिता में प्रकट हुआ. जहां तक नशीली वस्तुओं के सेवन का सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है. दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले (1989 में) सत्तावन फीसदी छात्र और पैंतीस फीसदी छात्राएं नशे के आदी पाए गए. दिल्ली तो महानगर है. छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं. किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर कहीं मिल जाता है. ‘स्मैक’ और ‘पाट’ टाफी की तरह उपलब्ध हैं.

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं. सही मानते हैं. अगर छात्रों-युवकों में विचार हो, दिशा हो, संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो, वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बनें, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयां मिलाकर पतन की परंपरा को आगे नहीं बढ़ाएं. सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है.

एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठे दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे. वे ‘स्टूडेंट पावर’ में बहुत विश्वास करते थे. मानते थे कि छात्र क्रांति कर सकते हैं. वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते. उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लेना होगा. लक्ष्य निर्धारित करना होगा. आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो. अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए. हो ची मिन्ह और चे गुवेरा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी, भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना. अमेरिकी विश्वविद्यालयों की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी. फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे. राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यालय में आंदोलन किया. लेखक ज्यां पाल सात्र ने उनका समर्थन किया. उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था. उनके लिए राजनीतिक क्रांति करना तो संभव नहीं था. फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया. पर उनकी मांगें ठोस थीं जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन. अपने यहां जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी मांग उनकी नहीं थी. पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई. फिर वह लंदन चला गया.

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सब पतित हैं तो हम क्यों नहीं हों. सब दलदल में फंसे हैं तो जो लोग नए हैं, उन्हें उन लोगों को वहां से निकालना चाहिए. यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फंस जाएं. दुनिया में जो क्रांतियां हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है. मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले, क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है, वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती. ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर लेते हैं. कारण बताते हैं- मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूं, पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा. यदि युवकों के पास दिशा हो, विचारधारा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वे परिवर्तन ला सकते हैं.

पर मैं देख रहा हूं एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है. यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है. अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है.

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं. यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.

Wednesday 19 April 2017

एक कविता - निर्मम इतिहास / विजय शंकर सिंह

मृत्यु, समस्त पापों को भी
दफन कर देती है ।
जला कर भस्म कर देती है,
दरिया उन्हें बहाता हुआ ,
अनंत सागर को सौंप आता है
धरती सब कुछ स्वीकार करती है
पर कुछ समय के लिए बस ।

उतरता है जब ज्वार शोक का,
समय धीरे धीरे भुलाने लगता है
तब इतिहास के वे पन्ने भी ,
फड़फड़ाने लगते हैं,
कभी फुसफुसा कर ,
तो कभी चीख कर
वे सारे किस्से और वाक़यात
करने लगते हैं बयान ।

जिनमे सिमटे हैं ,
दिवंगत के स्याह और सफ़ेद कारनामें,
कुछ गहरे राज,
कुछ अनसुलझे सवालात,
कुछ नेकियाँ , तो कुछ बदी की बातें ,
छोड़ता नहीं इतिहास किसी को ।

वक़्त के साथ साथ
वह और मुखर होता जाता है ,
भावना शून्य , निर्मम मुंसिफ की तरह
सब कुछ बेबाकी से कह देता है ।
पर हम , अक्सर वही सुनते है,
जो हमारे कानों को मधुर लगे ।

कर्कश ध्वनि से हम बचते हैं,
उसे टालते हैं ,
व्यक्तित्व हावी हो जाता है,
कृतित्व पर,
हम देखना ही नहीं चाहते ,
आवरण और रंगों से ढंके ,
नग्न सत्य को ।
तर्कशास्त्र के सारे प्रमेय याद आ जाते हैं ,
सच कहने से तो बचते ही है,
उसे सुनना भी नहीं चाहते ।

पर इतिहास सब कुछ सुनाता है,
ज़मीन की तह के अंदर तक पैठ कर,
सब कुछ उघाड़ देता है ।
आँखे और कान बन्द कर लेने से,
भला कहीं तथ्य बदलते हैं ?

ये अक्षर काल के अमित  लेख हैं,
व्याख्याएं और भाष्य का क्या ,
वह तो सुविधा का खेल है
कभी कुछ और कभी कुछ
समझाता और समझता रहता है
कुछ समझते हैं ,
तो कुछ समझना ही नहीं चाहते !

इतिहास निर्मम होता है,
और यह निर्मम इतिहास,
सब कुछ अयाँ कर के सुनाता है !!

( विजय शंकर सिंह )