Tuesday 22 February 2022

एक सांस्कृतिक संगठन का राजनीतिक चेहरा / विजय शंकर सिंह

यूपी चुनाव 2022 के चरण जैसे जैसे आगे बढ़ रहे हैं, सत्तारूढ़ दल भाजपा में अपनी सरकार को लेकर चिंता का माहौल बनने लगा है। अब तक के तीनों चरण, जैसी खबरें और चुनाव विश्लेषक, उनका आकलन प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे लगता है कि, भाजपा की सरकार गहरे संकट में है। चौथा चरण, जो अवध का क्षेत्र है, और उसे भाजपा का मजबूत इलाका माना जाता है, वहां भी भाजपा को आशातीत सफलता मिलने की उम्मीद नहीं बताई जा रही है। आरएसएस, जो भाजपा का एक थिंकटैंक है, वह इस ज़मीनी हकीकत से अनजान नहीं है और तभी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपने कैडर को इस चुनाव में, अपनी पूरी ताकत लगा देने के लिये कहा है। आरएसएस ने कोई नया काम नहीं किया है, बल्कि हर चुनाव में वह भाजपा के लिये चुनाव प्रचार में उतरता था और अब भी वह उतरा है।

भाजपा और सप की सबसे बड़ी चिंता यूपी चुनाव में हो रही कम बोटिंग है। कयास है कि भाजपा की तरफ झुकाव रखने वाले बोटर बूथ तक नहीं पहुंच रहे हैं। संप के क्षेत्रीय प्रचारकों ने, हाल ही में बूथ संयोजको और अन्य पदाधिकारियों के साथ भाजपा के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान भी मौजूदगी में बैठक की और अन्य चरणों के बारे में चर्चा की। भास्कर की खबर के अनुसार, हर विधानसभा में संघ के कार्यकर्ताओं की तरफ से छोटी-बड़ी औसतन 1500 से अधिक मीटिंग की गई है। इस मीटिंग में कार्यकर्ताओं को 2019 के लोकसभा चुनाव से 10% अधिक वोटिंग का लक्ष्य दिया गया है। मतदाताओं को परों से निकालने के लिए कहा गया है। बुजुर्ग मतदाताओं के वोट डलवाने पर जोर दिया गया। नकयुवकों से कहा गया है कि अब तीन चरण ही बचे है और ऐसे में चुनाव प्रचार में पूरी ताक़त से जुट जांय।

आरएसएस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है, और वह चाहता भी है कि लोग उसे एक सांस्कृतिक संगठन के ही रूप में जाने समझें और मानें। पर हर चुनाव में संघ का राजनीतिक एजेंडा खुलकर सामने आ जाता है। इस चुनाव में भी, अब तक की पोलिंग के बाद, संघ की चिंता और भाजपा के पक्ष में उसकी चुनावी रणनीति से यह बात पुनः स्थापित हो रही है। ऐसा बिलकुल भी नहीं था कि, अब तक, संघ का यह स्टैंड साफ नहीं था या इसमें संशय था, बल्कि सच तो यह है कि, भाजपा का पोलिटिकल एजेंडा संघ ही तय करता है,  जो आज भी 1925 के यूरोपीय फासिज़्म की विचारधारा पर आधारित है। आज जब भाजपा की स्थिति 2022 के चुनाव में अच्छी नही दिख रही है तो संघ की बौखलाहट, साफ साफ दिख रही है। पर आरएसएस मे पाखण्ड इतना है कि, यह तुरंत कह देते हैं कि, हम तो राष्ट्र निर्माण के लिये समर्पित हैं। पर उसी राष्ट्र में जब सैकड़ो लोग नोटबन्दी, लॉक डाउन त्रासदी और कोरोना से मरने लगते हैं तो इन्हें, राष्ट्र के नागरिकों की कोई चिंता ही नहीं व्यापती है। तब यह चुपचाप हाइबरनेशन में चले जाते हैं। पर जैसे ही, इन्हें लगा कि, इनकी राजनीतिक शाखा भाजपा अब चुनाव में घिरने लगी तो, यह सामने आए और वोट परसेंटेज बढ़ाने की रणनीति बनाने लगे। 

वोट परसेंटेज बढ़े और अधिक से अधिक लोगों को मतदान के लिये प्रेरित किया जाय, यह एक लोकतांत्रिक कार्य है, और ऐसा अभियान चलाने पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। पर समस्या, सरकार बनवा देने के बाद, जब जनता, भाजपा के ही संकल्प पत्र में दिए गए वादों पर, सरकार से सवाल पूछती है, तब संघ यह कह कर चुप्पी ओढ़ लेता है कि, वह तो एक गैर राजनीतिक संगठन है। यह तो कच्छप मनोवृत्ति हुयी। शुतुरमुर्ग की तरह, समस्याओं के तूफान से डर कर, गर्दन, रेत में घुसा लेना हुआ। इनसे पूछिये कि, जब 2016 की नोटबन्दी के बाद, सैकड़ों लोग लाइनों में खड़े खड़े मर गए, लघु उद्योग और अनौपचारिक सेक्टर तबाह हो गए, युवा बेरोजगार होकर सड़को पर आ गए, लॉक डाउन में, हज़ारों लोग सड़कों पर पैदल घिसट रहे थे, और, उनमे भी सैकड़ों मर रहे थे, कोरोना में ऑक्सीजन और इलाज के अभाव में लोग दर बदर भटक रहे थे, गंगा लाशों से पट गयी थीं, तब क्या, संघ के किसी भी जिम्मेदार नेता ने, सरकार से गवर्नेंस के इन ज्वलंत मुद्दों और समस्याओं पर पूछताछ की ? सरकार ने बेशर्मी से सुप्रीम कोर्ट में कहा कि, सड़क पर एक भी प्रवासी मज़दूर नहीं है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर में कहा कि, देश मे ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा है। क्या आरएसएस को ऐसे निर्लज्ज सरकारी झूठ पर सरकार से जवाबतलब नहीं करना चाहिए था। जबकि, संघ ऐसी हैसियत में था और आज भी है कि वह सरकार से जवाबतलबी कर सकता है। 

जनता के असल मुद्दों, रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य के बारे में इनके क्या विचार हैं, इन मुद्दों पर जब आप इनकी आंख में आंख डाल कर सवाल करेंगे, तो यह इन सवालों से बचते नज़र आएंगे,  और कह देंगें कि, हम राजनीतिक दल नहीं है, हम तो सांस्कृतिक संघठन हैं। राजनीतिक सवाल भाजपा से पूछिए। सन 1925 से 1947 तक न तो, आरएसएस स्वाधीनता संग्राम में शामिल हुआ, न ही अपने स्तर से आज़ादी के लिये, संघ ने कोई संघर्ष किया, न तो, कभी धर्म की कुरीतियों के खिलाफ यह खड़े हुए, यहां तक कि, दलितोद्धार के अनेक आंदोलन, उस दौरान चले, आज़ादी के बाद, सामाजिक न्याय के आंदोलन चले, पर यह खामोश बने रहे। खामोश ही नहीं, बल्कि इसके विपरीत, स्वाधीनता संग्राम के सबसे बडे जन अंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में, इन्होंने, मुस्लिम लीग के साथ गलबहियां की, उनके साथ हिंदू महासभा के डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सरकार बनाई, और अब भी, आज़ादी के 75 साल बाद भी, उसी मृत धर्मांध राष्ट्रवाद के एजेंडे पर चल रहे हैं। डॉ मुखर्जी, भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे, और आज की भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक रूप से, प्रथम प्रेरणा पुरूष भी हैं। आरएसएस, आज तक यह तय ही नही कर पया कि, इनकी राजनीतिक विचारधारा किस रूप में यूरोपीय फासिज़्म से अलग है, इनकी आर्थिक सोच क्या है, और जिस राष्ट्र के निर्माण की यह बार बार बात करते हैं, उस राष्ट्र की परिकल्पना क्या है।

व्यक्तिगत रूप से मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि, आरएसएस के मित्र मिलनसार हैं।इनसे मिलिए जुलिये तो वे, विनम्रता से बात करेंगे। अच्छी भाषा मे बतियाएंगे। संस्कार, चेतना, अस्मिता आदि पर आप को ले जाएंगे साथ ही, आप को बीच बीच मे काल्पनिक रूप से धर्म के आधार पर डराते भी रहेंगे। सामाजिक सद्भाव की बात पर बात बदलने लगेंगे, आप को इराक, सीरिया और अफगानिस्तान तक की सैर करा लें आएंगे। समान नागरिक संहिता पर बात करेंगे, जनसंख्या नियंत्रण पर बात करेंगे, अल्पसंख्यकों के प्रति आप के मन मे संदेह के बीज अंकुरित करने की कोशिश करने लगेंगे। पर समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून क्या ड्राफ्ट क्या होगा, इस पर वे कुछ भी स्पष्ट नहीं कहेंगे। इन सब माया जाल को दरकिनार करके, उनसे गवर्नेंस पर बात कीजिए, रोजगार पर बात कीजिए, महंगाई पर बात कीजिए, कृषि और औद्योगिक विकास पर बात कीजिए, और तब आप यह पाइयेगा कि यह इन मुद्दों पर या तो ब्लैंक हैं या कनफ्यूज। सरकार का मूल काम ही गवर्नेंस होता है। जनता की आर्थिक और सामाजिक हैसियत में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे, और वह सुरक्षित और निर्भय महसूस करे, यह सरकार का मुख्य उद्देश्य होता है। इन सब मुद्दों पर या भाजपा के संकल्पपत्र में किये गए वादों पर आरएसएस न तो सरकार से कुछ पूछता है और न ही भाजपा से। उंसकी चिंता, भाजपा के सरकार में बस बने रहने तक ही सीमित रहती है, जनता के दुख दर्द से उसका कोई सरोकार कभी रहा ही नहीं है। 

(विजय शंकर सिंह)

Sunday 20 February 2022

यूपी चुनाव 2022 - मिथ्यावाचन इनकी आदत बन चुकी है / विजय शंकर सिंह

"अहमदाबाद विस्फोट में साईकिल का इस्तेमाल हुआ था." हरदोई आज 20 फरवरी को एक चुनाव सभा में नरेन्द्र मोदी ने यह बात कही जो बिल्कुल सफ़ेद झूठ है। जबकि, अहमदाबाद विस्फोट में साईकिल का इस्तेमाल हुआ था। इस मामले के जांच अधिकारी डीसीपी अभय चूदस्मा ने स्पष्ट किया था। पुलिस जांच रिपोर्ट के अनुसार, "लाल और सफ़ेद कारों में विस्फोटक फिट किया गया था।" अदालत में प्रेषित, जाँच रिपोर्ट में कहीं साईकिल का ज़िक्र नहीं मिलता है।

वैसे भी यदि साइकिल का उपयोग आतंकियों ने बम ब्लास्ट के लिये किया भी था तो क्या वह राजनीतिक दल जिनके चुनाव चिह्न साइकिल हैं को आतंकवाद से जोड़ा जाना चाहिए ? देश मे दो राजनीतिक दल ऐसे हैं जिनका चुनाव चिह्न साइकिल है। एक उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी और दूसरी, आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम। बात चुनाव के दौरान, प्राथमिकता की है। न कि आरोप प्रत्यारोप की। सरकार को अपने काम अपमे संकल्पपत्र के वादे, जो सरकार ने पुरे किये हैं, उन्हें बताना चाहिए, न कि अनावश्यक जुमले फेंकने चाहिए। 

अब एक पुरानी घटना का विवरण पढ़े। एक चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि,
"दिल्ली में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ कुछ भारतीय व्यक्तियों की एक बैठक हुई थी, जिसमे भारत सरकार के तख्तापलट की साज़िश रची गयी थी। उस बैठक में, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद थे।"
यह संदर्भ इस चुनाव का नही है, बल्कि पिछले गुजरात विधानसभा के चुनाव का है। याद कीजिए, उसी समय उन्होंने मणिशंकर अय्यर के, नीच वाले बयान का बार बार उल्लेख किया था। 

प्रधानमंत्री, दिल्ली में जिस मीटिंग की बात कर रहे थे, वह रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, रॉ के प्रमुख रह चुके, एएस दुलत और पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस आईएसआई के पूर्व प्रमुख असद दुर्रानी  तथा कुछ अन्य लोगों द्वारा लिखी गयी किताब, The Spy Cronicle, RAW ISI and illusion Of Peace के विमोचन और उस पर आयोजित एक गोष्ठी थी। इस अवसर पर दोनों देशों के राजनयिक, और कुछ नेता शामिल हुये थे। यह एक सामान्य शिष्टाचार गोष्ठी थी।

प्रधानमंत्री को यह बात अच्छी तरह से पता है कि, ऐसे आयोजन होते रहते हैं और कूटनीतिक और अंतरराष्ट्रीय खुफियागिरी के बारे में ऐसी किताबे लिखी जाती रहती हैं। डॉ मनमोहन सिंह भी आमंत्रित थे, पर वे रात्रिभोज में शामिल नहीं हुए थे। फिर भी प्रधानमंत्री ने इस घटना को देशद्रोह से जोड़ कर अपने चुनाव प्रचार में, कहा। उन्होंने यह तक कहा कि, यह सब महानुभाव, मोदी सरकार का तख्ता पलट करना चाहते हैं। इस पर आयोजन में शामिल होने वाले लोगों ने तुरंत, प्रधानमंत्री के आरोपों का खंडन भी कर दिया कि, उस आयोजन में केवल उसी किताब पर चर्चा हुयी थी और सरकार के बारे में किसी ने भी कुछ भी नही कहा और उसकी चर्चा तक नहीं हुयी थी। 

इसके बाद जब संसद सत्र आहूत हुआ तो, तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राज्यसभा में कहा कि, वे डॉ मनमोहन सिंह का सम्मान करते हैं और उन्हें देशद्रोही कहे जाने की बात सपने में भी सोची नहीं जा सकती है। उन्होंने इस प्रकरण पर खेद भी जताया। विपक्ष ने इसपर संसद में चर्चा की मांग की थी, पर राज्यसभा में सदन के नेता के रूप में अरुण जेटली ने, सरकार की तरफ से खेद जता कर इस मामले पर चर्चा का पटाक्षेप कर दिया। आज जब भाजपा के लोग समाजवादी पार्टी को आतंकवादी कह कर लांछित कर रहे हैं, साइकिल पर बम की एक झूठी थियरी, अहमदाबाद बम ब्लास्ट के संदर्भ में प्रधानमंत्री खुले मंच से स्थापित कर रहे हैं, तो मुझे यह घटना याद आई। यह इनकी पुरानी रणनीति है। लोग अब इसे समझने लगे हैं। 

इनकी मूर्खता और गैरजिम्मेदाराना गवर्नेंस का यह एक उदाहरण है कि इन्हें यह तक पता होने के बाद कि, समाजवादी पार्टी, आतंकवाद फैलाती है, उसके नेताओँ के खिलाफ, इन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की । यह झूठे तो हैं ही कायर भी हैं और शासन न करने की कला में माहिर तो हैं ही। 20 सैनिकों की शहादत के 4 दिन बाद ही, चीनी घुसपैठ को नकार देने वाला पीएम का यह बयान, न तो कोई घुसा था, न घुसा है, क्या आज भी आप को असहज नहीं कर देता है ? 

इनका सारा चुनाव, धर्मान्ध राष्ट्रवाद पर केंद्रित रहता है। क्योंकि इस काम के लिये गवर्नेंस की ज़रूरत ही नहीं रहती है। 80 करोड़ आबादी फ्री राशन पर इनके कार्यकाल में जीने को अभिशप्त है, 2016 के बाद सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े देने बंद कर दिए, यूपी में विभिन्न विभागों में नियमित भर्तियां तक नहीं हो पाईं,  जीडीपी, नोटबन्दी के बाद से लगातार गिर रही है, हर आर्थिक सूचकांक साल दर साल अधोगामी होता जा रहा है, रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य पर सरकार की कोई स्पष्ट नीति नहीं, हर सरकारी कम्पनी को निजी क्षेत्र में ठेला जा रहा है, और बार बार कहा जा रहा है कि, सरकार व्यापार करने के लिये नहीं होती है। तब कम से कम यही  सरकार स्पष्ट कर दे कि वह आखिर किस काम के लिये चुनी गयी है ? 

लगभग आधा चुनाव बीत चुका है और अभी यूपी चुनाव के चार चरण शेष है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें अब भी होंगी और झूठ के अनेक कीर्तिमान भी स्थापित किये जाएंगे। पर जनता को अपने बच्चों के लिये रोजगार, सस्ती और उपयोगी शिक्षा और सुलभ स्वास्थ्य के मुद्दों पर अड़ा रहना चाहिए। भाजपा की सबसे बड़ी कमी ही यह है कि, यह जनजीवन से जुड़े मुद्दों पर कभी नही बोलती है क्योंकि उनपर इसने कभी सोचा ही नहीं है। यह केवल समाज को काल्पनिक भय में रख कर, सत्ता में आना चाहते हैं और अब यह दांव विफल हो रहा है। 

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday 16 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (19)


द्रविड़ आंदोलन का हासिल क्या रहा? 94 वर्ष जीने वाले और अपने आखिरी वक्त तक सक्रिय पेरियार की कितनी छाप आज के तमिलनाडु या भारत पर दिखती है? उत्तर भारतीयों के मन में तमिलों के लिए या तमिलों के मन में उत्तर भारतीयों के लिए क्या जगह है? आज इतने वर्षों बाद देश सांस्कृतिक रूप से विभाजित है, या एक ही ‘भारत माता’ की छवि का अंग है? भविष्य का रोडमैप क्या है?

पहली बात जो तमिलनाडु में लंबे समय से स्पष्ट देखी जा सकती है, कि जातिसूचक उपनाम लगभग खत्म हो गए। उत्तर में आप उपनामों से जाति का पता लगा सकते हैं, आंध्र में भी राव, रेड्डी, नायडू मिलेंगे, केरल में नायर आदि मिल जाएँगे। लेकिन, तमिलनाडु में आप उपनाम ढूँढते रह जाएँगे। जयललिता जयराम हों या एम जी रामचंद्रन, या या कमल हासन। कहीं जातिसूचक उपनाम नहीं। यहाँ प्रथम नाम गाँव का नाम, द्वितीय नाम पिता का नाम, और आखिरी नाम मूल नाम होता है। जैसे- मुथुवेल (ग्राम) करुणानिधि (पिता) स्तालिन (नाम)।

दूसरी चीज कि पिछड़े वर्ग का आरक्षण तमिलनाडु के लगभग सात दशक बाद अखिल भारत में शुरू हुआ। ‘मिड डे मील’ तमिलनाडु के चार दशक बाद शेष भारत में योजनाबद्ध शुरू हुआ। इस तरह कम से कम पिछड़ा वर्ग वहाँ बहुत पहले ही शिक्षित और स्थापित हो गया। यह पेरियार और अन्य विचारकों की उपलब्धि रही। 

लेकिन, उपनाम न होने और आरक्षण होने के बावजूद जातिवाद कायम है। जाति-आधारित दलों की संख्या में तमिलनाडु सबसे आगे है। दलितों की स्थिति आज भी चिंतनीय है। यह एक बड़ी असफलता रही।

पेरियार का द्रविड़नाडु या श्रीलंका का ‘तमिल ईलम’, दोनों ही अब फुसफुसाहटों में ही बचे हैं। केंद्र द्वारा भारतीय संघ संरचना में तमिलनाडु को महती स्थान देने की वजह से अलगाववाद की आग अब सिर्फ़ भाषा-विरोध तक सिमट गयी है। मसलन भारत के हर राज्य ने नवोदय विद्यालय अपनाए, लेकिन तमिलनाडु ने सिर्फ़ त्रिभाषा पद्धति के कारण नहीं अपनाया। भाषा-अस्मिता का प्रश्न अन्य राज्यों में भी रहा, लेकिन तमिलनाडु ने इसमें अब तक समझौतावादी रवैया नहीं अपनाया।

धर्म की बात तो क्या ही की जाए। हम यह पढ़ चुके हैं कि एमजीआर और जयललिता खुल कर धर्मनिष्ठ रहे, और दोनों ने लंबे समय तक राज किया। पिछड़े वर्ग और दलितों ने भी नास्तिकता खुल कर नहीं अपनायी। इसके विपरीत धार्मिक संस्थान तमिलनाडु में मजबूत ही होते गए। शंकराचार्य का पीठ ही है। करुणानिधि अवश्य पूरे जीवन नास्तिक रहे, लेकिन उन्होंने भी मंदिरों में पिछड़े वर्ग के पुरोहितों का कानून लाकर धर्म को एक स्थापना मान ही ली। पिछड़े वर्ग से पुरोहित तो खैर न के बराबर बने, क्योंकि वह उनकी न इच्छा थी, न यह प्रायोगिक रहा।

स्त्रियों की मुक्ति पर भी पेरियार-मॉडल असफल रहा। तमिलनाडु की स्त्रियों ने पारंपरिक वस्त्र, विधि-व्यवहार कायम रखे। इसका उदाहरण 2005 में अभिनेत्री खुशबू के कथनों पर उठे विवाद में देखा जा सकता है। आज उत्तर भारत में गाँव-गाँव में पाश्चात्य परिधानों में युवतियाँ दिख सकती है, लेकिन तमिलनाडु के मुख्य शहरों में भी साड़ी और गजरा लगाए दिखेंगी। उन्होंने पेरियार की मुक्त स्त्री नहीं, बल्कि एक प्राचीन ग्रंथ ‘शीलपथकम’ की पतिव्रता स्त्री कन्नगी को आदर्श बनाया।

तमिलनाडु का भविष्य जो भी हो, लेकिन पिछले दशकों की राजनीति से यह अनुमान लगता है कि वहाँ किसी ‘आइकन’ की ज़रूरत है। वे व्यक्ति की छवि को महत्व देते रहे हैं। चाहे पेरियार हों, अन्नादुरइ हों, करुणानिधि हों, एमजीआर या जयललिता हों, ये सभी ऐसे लोग थे जिनके आदमकद ‘कट आउट’ से भी ऊँची इनकी छवि थी। 

एक ब्राह्मण अभिनेता कमल हासन आम आदमी पार्टी सरीखी राजनीति करना चाहते हैं। वहीं, एक मराठी मूल के तमिल ‘भगवान’ रजनीकांत आध्यात्मिक राजनीति की बात करते हैं। यह संभवत: स्पष्ट है कि दोनों में कोई भी ‘द्रविड़ कड़गम’ की धारा में नहीं हैं। इनके साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि दोनों ही लगभग सत्तर वर्ष के हैं, तो भविष्य में राजनैतिक सक्रियता का समय ही नहीं बचा। 

यह भी कयास लगते हैं कि दोनों ही मुख्य राष्ट्रीय दल तमिलनाडु में निकट भविष्य में बड़ी जगह नहीं बना पाएँगे। ब्राह्मण-विरोध और हिंदी-विरोध की गाज इन दोनों पर ही अलग-अलग कालखंडों में पड़ी। लेकिन, कांग्रेस और भाजपा नियमित इन क्षेत्रीय दलों को अपना सहयोगी बनाती रही है, तो यह विभाजन मामूली पेंच है।

इस पूरे संवाद का उद्देश्य यह था कि उत्तर भारतीय तमिलों और संपूर्ण दक्षिण भारत की भाषा, इतिहास, संस्कृति और राजनीति को अपनी रुचि में शामिल करें। यह आर्य-द्रविड़ का भेद अगर हज़ारों वर्षों पूर्व के डीएनए साक्ष्यों से सिद्ध भी हो जाए, तो आज के भारत में उसे द्वंद्व बनाने की आवश्यकता नहीं है। न तमिलों के मन में। न उत्तर भारतीयों के मन में।
(शृंखला समाप्त)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/18.html 
#vss

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज को निर्देशित करने वाला हिमालय का योगी कौन है / विजय शंकर सिंह


धर्म का विश्वास, कभी कभी इतना गहरे पैठ जाता है कि, वह समस्त विवेक और तर्क का हरण कर लेता है। विवेक शून्यता की स्थिति को प्राप्त, मस्तिष्क एक रोबोट की तरह हो जाता है। ऐसा प्रकरण, किसी फिक्शन या उपन्यास में ही नही मिलता है, बल्कि सामान्य जीवन मे भी मिलता है। यह स्थिति, जो परम विश्वास को प्राप्त हो जाती है, वह किसी भी मनुष्य को, मानसिक रूप से दास बनाकर रख देती है। धर्म की यही स्थिति, अफीम के नशे की तरह हो जाती है। धर्म या गुरु या ईश्वर या जो कोई भी हो, उसपर आस्था रखना अनुचित नहीं है, पर उस आस्था के मायाजाल में, अपने को तर्क और विवेक रहित कर देना, यह एक ऐसे नशे की गिरफ्त को खुद को ला देना होता है, जो किसी को भी रोबोट या यंत्र मानव में बदल कर रख देता है। 

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज क्या है, अब इस पर थोड़ा पढ़े। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज भारत का सबसे बड़ा और तकनीकी रूप से अग्रणी स्टॉक एक्सचेंज है। यह मुंबई में स्थित है। इसकी स्थापना 1992 में हुई थी। कारोबार के लिहाज से यह विश्व का तीसरा सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज है। इसके वीसैट (V-SAT) टर्मिनल भारत के 320 शहरों तक फैले हुए हैं। एनएसई देश में एक आधुनिक और पूरी तरह से स्वचालित स्क्रीन-बेस्ड इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग सिस्टम प्रदान करने वाला पहला एक्सचेंज था। एनएसई की इंडेक्स- निफ्टी 50 (नेशनल इंडेक्स फिफ्टी) का उपयोग भारतीय पूंजी बाजारों के बैरोमीटर के रूप में भारत और दुनिया भर के निवेशकों द्वारा बड़े पैमाने पर किया जाता है।

एक रोचक और हैरतअंगेज प्रकरण सामने आया है, शेयर बाजार की इसी महत्वपूर्ण नियामक संस्था, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) की एमडी, चित्रा रामकृष्णन के बारे में, जिन्हें हिमालय में रहने वाले एक योगी से स्टॉक एक्सचेंज से जुड़े, कुछ हिदायतें या टिप्स मिलते थे, जिन पर वे अनुसरण करती थी और इससे स्टॉक एक्सचेंज में कई अनियमितताएं हुयी और शेयर बाजार में पैसा लगाने वालों को भारी नुकसान हुआ। अब वे, हिमालय वाले बाबाजी कौन हैं, और वे कैसे हिमालय में रहते हुए, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के बारे में हिदायतें देते रहते थे, यह सब तो चित्रा रामकृष्णन ही बता सकती हैं। पर फिलहाल जो खबरें आ रही है, उनके अनुसार तो, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की एमडी की हैसियत से चित्रा जी ने, अपने कार्यकाल में उस अज्ञात योगी के कहने पर विभाग में कई बड़ी नियुक्तियां तक की, और अंत मे, ₹44 करोड़ लेकर,  एनएसई से अलग भी हो गईं। 

शेयर बाजार की सर्वोच्च नियामक संस्था, सिक्योरिटी एक्सचेंज ब्यूरो ऑफ इंडिया सेबी इस मामले की जांच कर रहा है और जांच में कई अनियमितताएं भी मिल रही हैं। अखबारों में जो खबरें इस संदर्भ में आ रही हैं वह एक प्रकार का घोटाला ही है और, विश्वासभंग तो है ही। सेबी   की रिपोर्ट के अनुसार, जो आज कई अखबारों में छपी है, 
" चित्रा रामकृष्णन और 'योगी' के बीच कई बार ईमेल का आदान-प्रदान हुआ। जिसे देखने से पता चलता है कि चित्रा उस 'हिमालय के रहस्यमयी योगी' को 'शिरोमणी' के नाम से संबोधित करती थीं और चित्रा एनएसई के कई सीनियर कर्मचारियों के पोर्टफोलियो बंटवारे मामले में भी उनसे परामर्श लेती थीं।"
भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) ने जब से यह खुलासा किया है, तब से भारतीय बाजार से जुड़े सभी उद्योग समूह सकते में हैं। यह सन्दर्भ, लोकमत अखबार से लिया गया है। पर आज लगभग सभी अखबारो में यह खबर आर्थिक पन्नों पर गंभीरता से छपी है। 

सेबी ने इस बड़े खुलासे के साथ यह भी बताया है कि 
"चित्रा उस अज्ञात 'हिमालय के रहस्यमयी योगी' से एनएसई की सभी गोपनीय जानकारी मसलन बिजनेस प्लान और बोर्ड बैठकों के एजेंडा सहित कई सिक्रेट्स को साझा किया करती थीं और कथित तौर पर 'हिमालय के रहस्यमयी योगी' के दिये परामर्श के अनुसार, अपने विभाग से जुड़े, बड़े-बड़े फैसले, जिनमें अहम नियुक्तियां तक होती थी, लिया करती थीं।"
चित्रा रामकृष्णन, अप्रैल 2013 से दिसंबर 2016 तक एनएसआई में एमडी के पद पर रहीं और उसके बाद, उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था। चित्रा ने जो किया, वह हैरान करने वाला तो है ही, उससे अधिक हैरान करने वाली बात यह है कि, सेबी के द्वारा चित्रा रामकृष्णन के संबंध में इतने बड़े खुलासे के बाद एनएसई के बोर्ड ने, चित्रा पर कोई सख्त कार्यवाही न करते हुए उनको सुरक्षित रूप से इस्तीफा देकर निकल जाने दिया। 

सेबी ज़रूर इस मामले में सक्रिय नज़र आ रही है। सेबी ने चित्रा के कार्यशौली को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि, 
"यह इतना खतरनाक है कि इससे नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की वित्तीय जिम्मेदारियों पर बहुत बड़ा बट्टा लग सकता था।" 
सेबी ने इस मामले में चित्रा रामकृष्णन को तीन साल के लिए किसी भी अन्य एक्सचेंज या सेबी से संबंध किसी और संगठन में कार्य पर तीन साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। इसके साथ सेबी ने चित्रा सुब्रमण्यम पर तीन करोड़ रूपये की पेनाल्टी भी लगाई है।

हिमालयी योगी द्वारा डिक्टेटेड एनएसई प्रशासन के इस विचित्र किंतु सत्य मामले में एक दिलचस्प मोड़ तब आया जब चित्रा रामकृष्णन के मेल के कुछ हिस्से, जो एफआईआर की कॉपी में दर्ज हैं, पब्लिक फोरम में सार्वजनिक हो गये। उन्हें पढ़ने से यह पता चलता है कि,
" चित्रा उस 'हिमालय के रहस्यमयी योगी' को 'शिरोमणी' के नाम से संबोधित करती थीं और उनके साथ नियमित रूप से बातचीत भी करती थीं और चित्रा एनएसई के कई सीनियर कर्मचारियों के पोर्टफोलियो बंटवारे मामले में भी उनसे परामर्श लेती थीं।"
वहीं दूसरी ओर चित्रा रामकृष्णन ने उक्त योगी से अपने मुलाकात को लेकर भ्रम उत्पन्न करने वाला बयान भी दिया है। योगी और चित्रा के मेल पत्राचार के सार्वजनिक होंने से, यह बात भी स्पष्ट है कि,
" दोनों एक दूसरे से मिलते-जुलते भी थे। एक ईमेल में योगी ने चित्रा के साथ सेशेल्स में छुट्टी मनाने का भी जिक्र किया है।" 

मीडिया की खबरों के अनुसार, मेल पत्राचार से यह स्पष्ट हो जाता है कि, चित्रा से उनके गुरु योगी उनके दफ्तर संबंधित कार्यों के अलावा अन्य दूसरे मुद्दों पर भी बहुत आत्मीयता से बात करते हैं। दोनों ओर से किये गये ईमेल आदान-प्रदान के क्रम में 18 फरवरी 2015 का एक मेल सामने आया है। जिसमें 'हिमालय के रहस्यमयी योगी' चित्रा को मेल में लिखते हैं, 
"आज तुम बहुत सुंदर दिखाई दे रही हो। तुम अपने बालों को कुछ दूसरे तरीके संवारों, जो तुन्हें और भी आकर्षक बनाएगा। ये तुम्हारे लिए एक मुफ्त की सलाह है और मुझे पता है कि तुम इसे स्वीकार करोगी। आगामी मार्च में तुम खुद को थोड़ा फ्री रखना।" 
इस मेल के ठीक 7 दिन बाद 25 फरवरी 2015 के एक अन्य मेल में लिखा है, 
"मैंने कंचन से सुना कि तुमने कहा है कि सामान पैक करो और निकलो और अभी से दिन गिनने शुरू कर दो। मैं तुम्हें अच्छी जगह पर स्थापित कर दूंगा, जहां तुम आराम से रहोगी।"
वहीं 16 सितंबर 2016 को किये गये मेल में लिखा है, 
"जो मैंने मकर कुंडन गीत जो मैंने तुम्हें भेजा था, क्या वो तुमने सुना। इस गीत को तुम्हें बार-बार सुनना चाहिए। तुम्हें दिल से जो खुशी मिलेगी, उसे तुम्हारे चेहरे पर देखकर मुझे खुशी होगी। कल के दिन मैंने तुम्हारे साथ आनंद की अनुभूति की। यह जो तुम छोटी-छोटी चीजें खुद के लिए करती हो, वह तुम्हें और भी नौजवान और ऊर्जावान बनाती हैं।"

इसके अलावा अन्य मेल को देखने पता चलता है कि, 'हिमालय के रहस्यमयी योगी' को एनएसई के कर्मचारियों के नाम और संस्थान की कार्य प्रणाली की बेहतर समझ थी। आखिर उसे विभागीय गोपन कार्य व्यापार के बारे में इतनी जानकारी कहां से मिली ?  निःसंदेह, यह जानकारी उक्त हिमालयी योगी की शिष्या चित्रा ने ही दी होगी। एक मेल में योगी ने लिखा है, 
“लाला को उसके प्रेजेंट पोर्टफोलियो के साथ लाया जाएगा और कसम को सेम ग्रेड के तहत डिप्टी हेड नियामक के रूप में लाया जाएगा। वहीं निशा लाला को रिपोर्ट करते हुए कसम का पोर्टफोलियो संभालेगी। इसके साथ ही कसम को इस स्ट्रक्चर से हटा देना चाहिए और संस्थान छोड़ने तक उसे अनुपस्थित रखा जाना चाहिए। मयूर को उसी ग्रेड के तहत चीफ-ट्रेडिंग ऑपरेशंस का पद दिया जाएगा। वहीं उमेश को मुख्य सूचना प्रौद्योगिकी का पद मिलेगा। हुज़ान को चीफ-ग्रुप प्रोडक्ट्स, रवि वाराणसी को चीफ बीडी-न्यू प्रोडक्ट्स एवं (एसएमई / एजुकेशन / आरओ कोऑर्डिनेशन) का पद दिया जाएगा।" 
इस मेल पत्राचार से स्पष्ट है कि एमडी के रूप में वह योगी ही कार्य करता था, और चित्रा महज एक रोबोट की तरह उसकी आज्ञापालक थीं।

चित्रा रामकृष्णन ने इस मामले में स्वयं जानकारी देते हुए बताया है कि 'हिमालय के रहस्यमयी योगी' से उनकी मुलाक़ात क़रीब दो दशक पहले गंगा के किनारे पर हुई थी हालांकि चित्रा ने उस जगह का उल्लेख नहीं किया है। सेबी का कहना है कि यह वही आध्यात्मिक शक्ति है, जिसके कहने पर एनएसई की पूर्व एमडी और सीईओ चित्रा रामकृष्ण हर फैसला लेती थीं। सेबी की रिपोर्ट की मानें तो एनएसई में आनंद सुब्रमण्यम की समूह परिचालन अधिकारी एवं प्रबंध निदेशक के सलाहकार के रूप में नियुक्त उक्त 'योगी' के कहने पर हुई थी। जबकि, सुब्रमण्यम को कैपिटल मार्केट का कोई अनुभव भी नहीं था, इसके बावजूद 15 लाख से बढ़ाकर उनका सालाना पैकेज चार करोड़ के ऊपर कर दिया गया। अब सवाल उठता है यह योगी कौन है ? सेबी ने 190 पेज के आदेश में 238 बार 'अज्ञात व्यक्ति' का जिक्र किया है। चित्रा इस व्यक्ति को शिरोमणि कहकर संबोधित करती थीं। वह सीईओ के तौपर भी ई-मेल से संवाद करती थीं। 2018 में सेबी को दिए बयान में चित्रा ने बताया था कि वे योगी परमहंस नामक व्यक्ति से यह संवाद करती थीं, जो हिमालय में विचरण करते हैं। वह उनसे 20 साल से संपर्क में हैं और इसी आध्यात्मिक शक्ति से मार्गदर्शन लेती हैं।

इस विचित्र प्रकरण को आध्यात्मिक या धार्मिक दृष्टिकोण या गवर्नेंस, शासन के दृष्टिकोण से देखें तो एक बात स्पष्ट है कि, एनएसई के दिनप्रतिदिन गतिविधियों का संचालन तक, वहां की एमडी नहीं बल्कि एक अज्ञात योगी कर रहा था, जो कहीं हिमालय में रहता है। पर वह कोई आध्यात्मिक परा शक्ति भी नहीं है, कि वह केवल खयालों में आता है और कुछ निर्देश, चित्रा को देकर चला जाता था और चित्रा उसका पालन करती रहती थीं। बल्कि यह हिमालयन योगी, बाक़ायदा ईमेल करता है, उनका जवाब देता है, विभाग के अंदरूनी प्रशासन से लेकर, चित्रा रामकृष्णन की जुल्फों से होते हुए सेशेल्स में छुट्टियां मनाने तक की हिदायतें देता है और इंतज़ामात करता है। यह कोई काल्पनिक चरित्र या इलहाम लाने वाली ताक़त भी नहीं है, बल्कि यह कोई हाड़ मांस का हमारी आप की तरह का व्यक्ति है जिसका असर चित्रा जी के मन मस्तिष्क पर इस प्रकार से आच्छादित हो चुका है कि, वह एनएसई की एक प्रबंध निदेशक के बजाय, एक रिमोट नियंत्रित रोबोट बन गयी थीं और उनकी प्रशासनिक शक्तियां एक ऐसे व्यक्ति में समाहित हो चुकी थी, जो बिना किसी जिम्मेदारी और जवाबदेही के वह सब कुछ करता रहा, जिसे करने का न तो उसे कोई अधिकार था और न ही वैधानिक शक्तियां। 

इसका परिणाम क्या हुआ ? इसका परिणाम यह हुआ कि, शेयर बाजार में जो भी लोगों का नफा नुकसान हुआ वह एनएसई के किसी नियमों के अंतर्गत, जारी निर्देश या नीतियों के द्वारा नहीं बल्कि एक मायावी व्यक्ति की सनकपूर्ण हिदायतों से हुआ और इसे एनएसई के एमडी ने स्वीकार भी किया है। आस्था चाहे वह किसी धर्म के प्रति हो, या ईश्वर के प्रति हो, या आध्यात्मिक गुरु कहे जाने वाले लोगों के प्रति हो, पर इस आस्था भाव को अपने सार्वजनिक या सरकारी दायित्व में घुसपैठ करने देना अनुचित ही नही बल्कि शासकीय नैतिकता के भी विरुद्ध है। वह योगी यदि चित्रा रामकृष्णन के निजी मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है तो यह केवल उन दो या कुछ उन लोगों के बीच का मामला है, जो चित्रा के निजी जीवन से या तो प्रभावित हैं या जुड़े हुए हैं। पर जब यह दखल, घर की दहलीज लांघ कर, सरकारी जिम्मेदारी में होने लगती है तो यह न केवल आस्था का घातक दुरुपयोग है, बल्कि यह एक प्रकार से सिस्टम का बाहरी और अनधिकृत व्यक्ति द्वारा संचालन है जो न केवल अवैधानिक है बल्कि सिस्टम को किसी अन्य के रहमोकरम पर गिरवी भी रख देना है। एनएसई की एमडी चित्रा रामकृष्णन ने ऐसा ही किया है और उन्हें ऐसा करने के लिये सरकार को जांच कराकर दोषी पाये जाने पर दंडित भी करना चाहिए। 

फिलहाल सेबी, इस मामले को देख रही है। शेयर बाजार एक ऐसा बाजार है जो एक हल्के और नगण्य प्रभाव वाले निर्णयों से भी प्रभावित हो जाता है और मिनटों में राजा को रंक और रंक को राजा बना देता है। सेबी को इस मामले में विशेषज्ञों की एक कमेटी बना कर इस बात की पूरी जांच करानी चाहिए कि, उस अनाम योगी की कितनी ईमेल, जो एनएसई के कामों में दखल देती हैं, आई और उनपर एमडी ने क्या कार्यवाही की। उस कार्यवाही का क्या असर पड़ा और उस योगी के कहने पर कितने लोगों की नियुक्तियां की गई या कितने लोगों को लाभ पहुंचाया गया। चित्रा रामकृष्णन का पासपोर्ट भी नियमानुसार जब्त कर लेना चाहिए और उनसे विस्तार से पूछताछ भी की जानी चाहिए। गवर्नेंस, किसी की निजी आस्था, गुरु निर्देश या इलहाम से नही किया जा सकता है, बल्कि यह उस विभाग के नियमो और शासकीय निर्देशों के अनुसार किया जाता है। 

(विजय शंकर सिंह) 

Tuesday 15 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (18)



माना जाता है कि प्रभाकरण की मृत्यु के बाद बना कमांडर नेदियावन नॉर्वे में है। यह बात इसलिए नहीं कह रहा कि मैं इस देश में हूँ, बल्कि एक खाका बनाना चाह रहा हूँ कि लिट्टे का नेटवर्क कितना बृहत् था।

एम जी रामचंद्रन ने प्रभाकरण को खड़ा किया था, लेकिन उसका मानना था कि भारतीय एजेंसी ‘रॉ’ उसके साथ ‘डबल गेम’ खेल रही है। मेजर जनरल हरकिरत सिंह की पुस्तक में वर्णित है कि 1987 में प्रभाकरण जब दिल्ली लाया गया था, उसी वक्त गोली से उड़ाने की योजना थी।

करुणानिधि शुरू से ही लिट्टे के प्रति शंकित थे। वह एक दूसरे संगठन ‘तमिल ईलम लिबरल ऑर्गनाइज़ेशन’ (TELO) के समर्थक थे। इस TELO संगठन के पास भी आधुनिक हथियार थे, और काफ़ी विदेशी सहयोग था। यह भी मान्यता है कि ‘रॉ’ ने इसे प्रभाकरण के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए सहायता दी थी। 

एमजीआर के वरदहस्त से लिट्टे ने एक-एक कर इस टेलो संगठन के कमांडरों को उड़ाना शुरू कर दिया। करुणानिधि ने 1986 में मदुरई के एक सम्मेलन में कहा, 

“यह कैसी लड़ाई है, जो दो तमिल भाईयों के बीच हो रही है? अगर ये आपस में ही लड़ते रहे तो अपने लक्ष्य तक कैसे पहुँचेंगे? मैं यह विनती करता हूँ कि लिट्टे यह लड़ाई बंद करे, और टेलो नेता सबारत्नम को बख्श दे।”

प्रभाकरण ने इस अपील को तवज्जो नहीं दी, और सबारत्नम को ढूँढ कर न सिर्फ़ मारा गया बल्कि उसके शरीर को बस-स्टैंड पर लटका कर प्रदर्शित किया गया। प्रभाकरण किसी गैंग-वार की तरह अन्य सभी तमिल गुरिल्ला गुटों को खत्म कर रहा था।

जब राजीव गांधी ने शांति-सेना भेजी, तो लिट्टे उस सेना को लक्ष्य बनाने लगी। इसके दूसरे पक्ष पर भी चर्चा होती है कि शांति सेना श्रीलंका सरकार से आदेश लेती थी, और तमिलों पर जुल्म करती थी। किसी भी तर्क से यह लिट्टे बनाम भारतीय सेना युद्ध था, और शांति की कोई भी संभावना खत्म हो गयी।

जब 1989 में वी. पी. सिंह की सरकार बनी, तो करुणानिधि सहयोगी थे। शांति सेना वापस बुला ली गयी। लिट्टे ने भारतीय सेना पर विजय के पताके फहराए।

अगले ही वर्ष भाजपा द्वारा समर्थन खींचने से वी. पी. सिंह की सरकार गिर गयी। राजीव गांधी के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। जनवरी, 1991 में उन्होंने संसद में कहा,

“करुणानिधि की पार्टी के लोग श्रीलंका में जाकर उग्रवादी संगठन लिट्टे से साँठ-गाँठ कर रहे हैं। यह देशद्रोह है।”

यह बात पूरी तरह ग़लत नहीं थी। लिट्टे को तमिलों का सहयोग सदा से था, मगर करुणानिधि तो आये ही दो वर्ष पूर्व थे। खैर, इसी आधार पर करुणानिधि सरकार बर्खास्त कर दी गयी। एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लग गया।

उसी वर्ष 21 मई, 1991 को श्रीपेरम्बूर में चुनाव प्रचार के दौरान लिट्टे ने राजीव गांधी को मानव-बम से उड़ा दिया। करुणानिधि और उनके दल पर पुन: इस हत्या की नैतिक ज़िम्मेदारी थोपी गयी। उस तमिलनाडु चुनाव में जयललिता जयराम विजयी हुई।

उसके बाद अगले बीस वर्ष तक दोनों ही दल बारी-बारी से जीत कर सत्ता में आते रहे। जब भी एक सत्ता में आता, तो दूसरे पर भ्रष्टाचार की तमाम धाराएँ लगाता। कभी करुणानिधि जयललिता और उनकी सहयोगी शशिकला पर अभियोग लगाते, तो कभी जयललिता बीच रात में करुणानिधि को घसीट कर ले जाने के आदेश देती। इन सबका सपाट निष्कर्ष यही था, कि दोनों ने जम कर भ्रष्टाचार किए। हालाँकि, उनके निजी या पारिवारिक भ्रष्टाचार के बावजूद तमिलनाडु अन्य कई राज्यों की अपेक्षा प्रगति-पथ पर ही रहा।

मैं अब उन योजनाओं की बात नहीं करुँगा, जो दोनों ने लाए, क्योंकि यह द्रविड़ इतिहास में ख़ास जोड़ता नहीं। दो टूक कहूँ तो 1996 में मद्रास का नाम बदल कर चेन्नई कर दिया गया, और 2009 में श्रीलंका सेना द्वारा भीषण रक्तपात के बाद लिट्टे सरगना प्रभाकरण मारा गया। 

2016 के दिसंबर में जयललिता चल बसी। इत्तिफ़ाक़न उसी समय करुणानिधि की स्थिति गंभीर हुई, और उनके बोलने की क्षमता खत्म हो गयी। दो साल बाद वह भी चल बसे। कलइनार और अम्मा की मृत्यु के बाद तमिल राजनीति के फ़िल्मी किरदार भी खत्म हो गए। 

हालाँकि, 2018 में लगभग एक साथ दो शीर्ष तमिल अभिनेताओं ने राजनीति में आने की घोषणा की। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (17)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/17.html 
#vss

भीष्म साहनी की एक कहानी - ओ हरामजादे,

घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खंडहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रह होता। दुनिया बड़ी विचित्र पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता जैसे मेरी ही तरह वह भी बिना किसी धुरे के निरुद्देश्य घूम रही है।

ऐसे ही एक बार मैं यूरोप के एक दूरवर्ती इलाके में जा पहुँचा था। एक दिन दोपहर के वक्त होटल के कमरे में से निकल कर मैं खाड़ी के किनारे बैंच पर बैठा आती जाती नावों को देख रहा था, जब मेरे पास से गुजरते हुए अधेड़ उम्र की एक महिला ठिठक कर खड़ी हो गई। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा उसे किसी दूसरे चेहरे का मुगालता हुआ होगा। पर वह और निकट आ गई।

'भारत से आए हो?' उसने धीरे से बड़ी शिष्ट मुस्कान के साथ पूछा।

मैंने भी मुस्कुरा कर सिर हिला दिया।

'मैं देखते ही समझ गई थी कि तुम हिंदुस्तानी होगे।' और वह अपना बड़ा सा थैला बैंच पर रख कर मेरे पास बैठ गई।

नाटे कद की बोझिल से शरीर की महिला बाजार से सौदा खरीद कर लौट रही थी। खाड़ी के नीले जल जैसी ही उसकी आँखें थी। इतनी साफ नीली आँखें किवल छोटे बच्चों की ही होती हैं। इस पर साफ गौरी त्वचा। पर बाल खिचड़ी हो रहे थे और चेहरे पर हल्की हल्की रेखाएँ उतर आई थीं, जिनके जाल से, खाड़ी हो या रेगिस्तान, कभी कोई बच नहीं सकता। अपना खरीदारी का थैला बैंच पर रख कर वह मेरे पास तनिक सुस्ताने के लिए बैठ गई। वह अंग्रेज नहीं थी पर टूटी फूटी अंग्रेजी में अपना मतलब अच्छी तरह से समझा लेती थी।

'मेरा पति भी भारत का रहने वला है, इस वक्त घर पर है, तुम से मिल कर बहुत खुश होगा।'

मैं थोड़ा हैरान हुआ, इंग्लैंड और फ्रांस आदि देशों में तो हिंदुस्तानी लोग बहुत मिल जाते हैं। वहीं पर सैंकड़ों बस भी गए हैं, लेकिन यूरोप के इस दूर दराज के इलाके में कोई हिंदुस्तानी क्यों आ कर रहने लगा होगा। कुछ कुतूहलवश, कुछ वक्त काटने की इच्छा से मैं तैयार हो गया।

'चलिए, जरूर मिलना चाहूँगा।' और हम दोनों उठ खड़े हुए।

सड़क पर चलते हुए मेरी नजर बार बार उस महिला के गोल मटोल शरीर पर जाती रही। उस हिंदुस्तानी ने इस औरत में क्या देखा होगा जो घर बार छोड़ कर यहाँ इसके साथ बस गया है। संभव है, जवानी में चुलबुली और नटखट रही होगी। इसकी नीली आँखों ने कहर ढाए होंगे। हिंदुस्तानी मरता ही नीली आँखों और गोरी चमड़ी पर है। पर अब तो समय उस पर कहर ढाने लगा था। पचास पचपन की रही होगी। थैला उठाए हुए साँस बार बार फूल रहा था। कभी उसे एक हाथ में उठाती और कभी दूसरे हाथ में। मैने थैला उसके हाथ से ले लिया और हम बतियाते हुए उसके घर की ओर जाने लगे।

'आप भी कभी भारत गई हैं?' मैंने पूछा।

'एक बार गई थी, लाल ले गया था, पर इसे तो अब लगता है बीसियों बरस बीत चुके हैं।'

'लाल साहब तो जाते रहते होंगे?'

महिला ने खिचड़ी बालों वाला अपना सिर झटक कर कहा 'नहीं, वह भी नहीं गया। इसलिए वह तुम से मिल कर बहुत खुश होगा, यहाँ हिंदुस्तानी बहुत कम आते हैं।'

तंग सीढ़ियाँ चढ़ कर हम एक फ्लैट में पहुँचे, अंदर रोशनी थी और एक खुला सा कमरा जिसकी चारों दीवारों के साथ किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ रखीं थीं। दीवार पर जहाँ कहीं कोई टुकड़ा खाली मिला था, वहाँ तरह तरह के नक्शे और मानचित्र टाँग दिए गए थे। उसी कमरे में दूर, खिड़की के पास वाले कमरे में काले रंग का सूट पहने, साँवले रंग और उड़ते सफेद बालों वाला एक हिंदुस्तानी बैठा कोई पत्रिका बाँच रह था।

'लाल, देखो तो कौन आया है? इनसे मिलो। तुम्हारे एक देशवासी को जबर्दस्ती खींच लाई हूँ।' महिला ने हँस कर कहा।

वह उठ खड़ा हुआ और जिज्ञासा और कुतूहल से मेरी और देखता हुआ आगे बढ़ आया।

'आइए-आइए! बड़ी खुशी हुई। मुझे लाल कहते हैं, मैं यहाँ इंजीनियर हूँ। मेरी पत्नी ने मुझ पर बड़ा एहसान किया है जो आपको ले आई हैं।'

ऊँचे, लंबे कद का आदमी निकला। यह कहना कठिन था कि भारत के किस हिस्से से आया है। शरीर का बोझिल और ढीला ढाला था। दोनों कनपटियों के पास सफेद बालों के गुच्छे से उग आए थे जबकि सिर के ऊपर गिने चुने सफेद बाल उड़ से रहे थे।

दुआ-सलाम के बाद हम बैठे ही थे कि उसने सवालों की झड़ी लगा दी। 'दिल्ली शहर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा?' उसने बच्चों के से आग्रह के साथ पूछा।

'हाँ। बदल गया है। आप कब थे दिल्ली में?'

'मैं दिल्ली का रहने वाला नहीं हूँ। यों लड़कपन में बहुत बार दिल्ली गया हूँ। रहने वाला तो मैं पंजाब का हूँ, जालंधर का। जालंधर तो आपने कहाँ देखा होगा।'

'ऐसा तो नहीं, मैं स्वयं पंजाब का रहने वाला हूँ। किसी जमाने में जालंधर में रह चुका हूँ।'

मेरे कहने की देर थी कि वह आदमी उठ खड़ा हुआ और लपक कर मुझे बाँहों में भर लिया।

'ओ जालम! तू बोलना नहीं एँ जे जलंधर दा रहणवाले?'

मैं सकुचा गया। ढीले ढाले बुजुर्ग को यों उत्तेजित होता देख मुझे अटपटा सा लगा। पर वह सिर से पाँव तक पुलक उठा था। इसी उत्तेजना में वह आदमी मुझे छोड़ कर तेज तेज चलता हुआ पिछले कमरे की और चला गया और थोड़ी देर बाद अपनी पत्नी को साथ लिए अंदर दाखिल हुआ जो इसी बीच थैला उठाए अंदर चली गई थी।

'हेलेन, यह आदमी जलंधर से आया है, मेरे शहर से, तुमने बताया ही नहीं।'

उत्तेजना के कारण उसका चेहरा दमकने लगा था और बड़ी बड़ी आँखों के नीचे गुमड़ों में नमी आ गई थी।

'मैंने ठीक ही किया ना', महिला कमरे में आते हुए बोली। उसने इस बीच एप्रन पहन लिया था और रसोई घर में काम करने लग गई थी। बड़ी शालीन, स्निग्ध नजर से उसने मेरी और देखा। उसके चेहरे पर वैसी ही शालीनता झलक रही थी जो दसियों वर्ष तक शिष्टाचार निभाने के बाद स्वभाव का अंग बन जती है। वह मुस्कुरती हुई मेरे पास आ कर बैठ गई।

'लाल, मुझे भारत में जगह जगह घुमाने ले गया था। आगरा, बनारस, कलकत्ता, हम बहुत घूमे थे...'

वह बुजुर्ग इस बीच टकटकी बाँधे मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों में वही रूमानी किस्म का देशप्रेम झलकने लगा था जो देश के बाहर रहनेवाले हिंदुस्तानी की आँखों में, अपने किसी देशवासी से मिलने पर चमकने लगता है। हिंदुस्तानी पहले तो अपने देश से भागता है और बाद से उसी हिंदुस्तानी के लिए तरसने लगता है।

'भारत छोड़ने के बाद आप बहुत दिन से भारत नहीं गए, आपकी श्रीमती बता रही थी। भारत के साथ आपका संपर्क तो रहता ही होगा?'

और मेरी नजर किताबों से ठसाठस भरी आल्मारियों पर पड़ी। दीवारों पर टँगे अनेक मानचित्र भारत के ही मानचित्र थे।

उसकी पत्नी अपनी भारत यात्रा को याद करके कुछ अनमनी सी हो गई थी, एक छाया सी मानो उसके चेहरे पर डोलने लगी हो।

'लाल के कुछ मित्र संबंधी अभी भी जालंधर में रहते हैं। कभी-कभी उनका खत आ जाता है।' फिर हँस कर बोली, 'उनके खत मुझे पढ़ने के लिए नहीं देता। कमरा अंदर से बंद करके उन्हें पढ़ता है।'

'तुम क्या जानो कि उन खतों से मुझे क्या मिलता है!' लाल ने भावुक होते हुए कहा।

इस पर उसकी पत्नी उठ खड़ी हुई।

'तुम लोग जालंधर की गलियों में घूमो, मैं चाय का प्रबंध करती हूँ।' उसने हँस कर कहा और उन्हीं कदमों रसोई घर की और घूम गई।

भारत के प्रति उस आदमी की अत्यधिक भावुकता को देख कर मुझे अचंभा भी हो रहा था। देश के बाहर दशाब्दियों तक रह चुकने के बाद भी कोई आदमी बच्चों की तरह भावुक हो सकता है, मुझे अटपटा लग रहा था।

'मेरे एक मित्र को भी आप ही की तरह भारत से बड़ा लगाव था', मैंने आवाज को हल्का करते हुए मजाक के से लहजे में कहा, 'वह भी बरसों तक देश के बाहर रहता रहा था। उसके मन में ललक उठने लगी कि कब मैं फिर से अपने देश की धरती पर पाँव रख पाऊँगा।'

कहते हुए मैं क्षण भर के लिए ठिठका। मैं जो कहने जा रहा हूँ, शायद मुझे नहीं कहना चाहिए। लेकिन फिर भी धृष्टता से बोलता चल गया, ' चुनाँचे वर्षों बाद सचमुच वह एक दिन टिकट कटवा कर हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जा पहुँचा। उसने खुद यह किस्सा बाद में मुझे सुनाया था। हवाई जहाज से उतर कर वो बाहर आया, हवाई अड्डे की भीड़ में खड़े खड़े ही वह नीचे की और झुका और बड़े श्रद्धा भाव से भारत की धरती को स्पर्श करने के बाद खड़ा हुआ तो देखा, बटुआ गायब था...'

बुजुर्ग अभी भी मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों के भाव में एक तरह की दूरी आ गई थी, जैसे अतीत की अँधियारी खोह में से दो आँखें मुझ पर लगी हों।

'उसने झुक कर स्पर्श तो किया यही बड़ी बात है,' उसने धीरे से कहा, 'दिल की साध तो पूरी कर ली।'

मैं सकुचा गया। मुझे अपना व्यवहार भौंड़ा-सा लगा, लेकिन उसकी सनक के प्रति मेरे दिल में गहरी सहानुभूति रही हो, ऐसा भी नहीं था।

वह अभी भी मेरी और बड़े स्नेह से देखे जा रहा था। फिर वह सहसा उठ खड़ा हुआ - ऐसे मौके तो रोज रोज नहीं आते। इसे तो हम सेलिब्रेट करेंगे।' और पीछे जा कर एक आलमारी में से कोन्याक शराब की बोतल और दो शीशे के जाम उठा लाया।

जाम में कोन्याक उँड़ेली गई। वह मेरे साथ बगलगीर हुआ, और हमने इस अनमोल घड़ी के नाम जाम टकराए।

'आपको चाहिए कि आप हर तीसरे चौथे साल भारत की यात्रा पर जाया करें। इससे मन भरा रहता है।' मैंने कहा।

इसने सिर हिलाया 'एक बार गया था, लेकिन तभी निश्चय कर लिया था कि अब कभी भारत नहीं आऊँगा।' शराब के दो एक जामों के बाद ही वह खुलने लगा था, और उसकी भावुकता में एक प्रकार की अत्मीयता का पुट भी आने लगा था। मेरे घुटने पर हाथ रख कर बोला, 'मैं घर से भाग कर आया था। तब मैं बहुत छोटा था। इस बात को अब लगभग चालीस साल होने को आए हैं', वह थोड़ी देर के लिए पुरानी यादों में खो गया, पर फिर, अपने को झटका सा दे कर वर्तमान में लौटा लाया। 'जिंदगी में कभी कोई बड़ी घटना जिंदगी का रुख नहीं बदलती, हमेशा छोटी तुच्छ सी घटनाएँ ही जिंदगी का रुख बदलती हैं। मेरे भाई ने केवल मुझे डाँटा था कि तुम पढ़ते लिखते नहीं हो, आवारा घूमते रहते हो, पिताजी का पैसा बरबाद करते हो... और मैं उसी रात घर से भाग गया था।'

कहते हुए उसने फिर से मेरे घुटने पर हाथ रखा और बड़ी आत्मीयता से बोला 'अब सोचता हूँ, वह एक बार नहीं, दस बार भी मुझे डाँटता तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझता। कम से कम कोई डाँटने वाला तो था।'

कहते कहते उसकी आवाज लड़खड़ा गई, 'बाद में मुझे पता चला कि मेरी माँ जिंदगी के आखिरी दिनों तक मेरा इंतजार करती रही थी। और मेरा बाप, हर रोज सुबह ग्यारह बजे, जब डाकिए के आने का वक्त होता तो वह घर के बाहर चबूतरे पर आ कर खड़ा हो जाता था। और इधर मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि जब तक मैं कुछ बन ना जाऊँ, घरवालों को खत नहीं लिखूँगा।'

एक क्षीण सी मुस्कान उसके होंठों पर आई और बुझ गई', फिर मैं भारत गया। यह लगभग पंद्रह साल बाद की बात रही होगी। मैं बड़े मंसूबे बाँध कर गया था...'

उसने फिर जाम भरे और अपना किस्सा सुनाने को मुँह खोला ही था कि चाय आ गई। नाटे कद की उसकी गोलमटोल पत्नी चाय की ट्रे उठाए, मुस्कराती हुई चली आ रही थी। उसे देख कर मन में फिर से सवाल उठा, क्या यह महिला जिंदगी का रुख बदलने का कारण बन सकती है?

चाय आ जाने पर वार्तालाप में औपचारिकता आ गई।

'जालंधर में हम माई हीराँ के दरवाजे के पास रहते थे। तब तो जालंधर बड़ा टूटा फूटा सा शहर था। क्यों, हनी? तुम्हे याद है, जालंधर में हम कहाँ पर रहे थे?'

'मुझे गलियों के नाम तो मालूम नहीं, लाल, लेकिन इतना याद है कि सड़कों पर कुत्ते बहुत घूमते थे, और नालियाँ बड़ी गंदी थीं, मेरी बड़ी बेटी - तब वह डेढ़ साल की थी - मक्खी देख कर डर गई थी। पहले कभी मक्खी नहीं देखी थी। वहीं पर हमने पहली बार गिलहरी को भी देखा था। गिलहरी उसके सामने से लपक कर एक पेड़ पर चड़ गई तो वह भागती हुई मेरे पास दौड़ आई थी। ...और क्या था वहाँ?'

'...हम लाल के पुश्तैनी घर में रहे थे...'

चाय पीते समय हम इधर उधर कि बातें करते रहे। भारत की अर्थव्यवस्था की, नए नए उद्योग धंधों की, और मुझे लगा कि देश से दूर रहते हुए भी यह आदमी देश की गति-विधि से बहुत कुछ परिचित है।

'मैं भारत में रहते हुए भी भारत के बारे में बहुत कम जानता हूँ, आप भारत से दूर हैं, पर भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं।'

उसने मेरी और देखा और हौले से मुस्करा कर बोला, 'तुम भारत में रहते हो, यही बड़ी बात है।'

मुझे लगा जैसे सब कुछ रहते हुए भी, एक अभाव सा, इस आदमी के दिल को अंदर ही अंदर चाटता रहता है - एक खला जिसे जीवन की उपलब्धियाँ और आराम आसायश, कुछ भी नहीं पाट सकता, जैसे रह रह कर कोई जख्म सा रिसने लगता हो।

सहसा उसकी पत्नी बोली, 'लाल ने अभी तक अपने को इस बात के लिए माफ नहीं किया कि उसने मेरे साथ शादी क्यों की।'

'हेलेन...'

मैं अटपटा महसूस करने लगा। मुझे लगा जैसे भारत को ले कर पति पत्नी के बीच अक्सर झगड़ा उठ खड़ा होता होगा, और जैसे इस विषय पर झगड़ते हुए ही ये लोग बुढ़ापे की दहलीज तक आ पहुँचे थे। मन में आया कि मैं फिर से भारत की बुराई करूँ ताकि यह सज्जन आपनी भावुक परिकल्पनाओं से छुटकारा पाएँ लेकिन यह कोशिश बेसूद थी।

'सच कहती हूँ', उसकी पत्नी कहे जा रही थी, 'इसे भारत में शादी करनी चाहिए थी। तब यह खुश रहता। मैं अब भी कहती हूँ कि यह भारत चला जाए, और मैं अलग यहाँ रहती रहूँगी। हमारी दोनो बेटियाँ बड़ी हो गई हैं। मैं अपना ध्यान रख लूँगी...'

वह बड़ी संतुलित, निर्लिप्त आवाज में कहे जा रही थी। उसकी आवाज में न शिकायत का स्वर था, न क्षोभ का। मानो अपने पति के ही हित की बात बड़े तर्कसंगत और सुचिंतित ढंग से कह रही हो।

'पर मैं जानती हूँ, यह वहाँ पर भी सुख से नहीं रह पाएगा। अब तो वहाँ की गर्मी भी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। और वहाँ पर अब इसका कौन बैठा है? माँ रही, न बाप। भाई ने मरने से पहले पुराना पुश्तैनी घर भी बेच दिया था।'

'हेलेन, प्लीज...' बुजुर्ग ने वास्ता डालने के से लहजे में कहा।

अबकी बार मैंने स्वयं इधर उधर की बातें छेड़ दीं। पता चला कि उनकी दो बेटियाँ हैं, जो इस समय घर पर नहीं थीं, बड़ी बेटी बाप की ही तरह इंजीनियर बनी थी, जबकी छोटी बेटी अभी युनिवर्सिटी में पढ़ रही थी, कि दोनो बड़ी समझदार और प्रतिभासंपन्न हैं। युवतियाँ हैं।

क्षण भर के लिए मुझे लगा कि मुझे इस भावुकता की ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए, इसे सनक से ज्यादा नहीं समझना चाहिए, जो इस आदमी को कभी कभी परेशान करने लगती है जब अपने वतन का कोई आदमी इससे मिलता है। मेरे चले जाने के बाद भावुकता का यह ज्वार उतर जाएगा और यह फिर से अपने दैनिक जीवन की पटरी पर आ जाएगा।

आखिर चाय का दौर खतम हुआ. और हमने सिगरेट सुलगाया। कोन्याक का दौर अभी भी थोड़े थोड़े वक्त के बाद चल रहा था। कुछ देर सिगरेटों सिगारों की चर्चा चली, इसी बीच उसकी पत्नी चाय के बर्तन उठा कर किचन की ओर बढ़ गई।

'हाँ, आप कुछ बता रहे थे कि कोई छोटी सी घटना घटी थी...'

वह क्षण भर के लिए ठिठका, फिर सिर टेढ़ा करके मुस्कुराने लगा, 'तुम अपने देश से ज्यादा देर बाहर नहीं रहे इस लिए नहीं जानते कि परदेश में दिल की कैफियत क्या होती है। पहले कुछ साल तो मैं सब कुछ भूले रहा पर भारत से निकले दस-बारह साल बाद भारत की याद रह रह कर मुझे सताने लगी। मुझ पर इक जुनून सा तारी होने लगा। मेरे व्यवहार में भी इक बचपना सा आने लगा। कभी कभी मैं कुर्ता-पायजामा पहन कर सड़कों पर घूमने लगता था, ताकि लोगों को पता चले कि मैं हिंदुस्तानी हूँ, भारत का रहने वाला हूँ। कभी जोधपुरी चप्पल पहन लेता, जो मैंने लंदन से मँगवाई थी, लोग सचमुच बड़े कुतूहल से मेरी चप्पल की ओर देखते, और मुझे बड़ा सुख मिलता। मेरा मन चाहता कि सड़कों पर पान चबाता हुआ निकलूँ, धोती पहन कर चलूँ। मैं सचमुच दिखाना चाहता था कि मैं भीड़ में खोया अजनबी नहीं हूँ, मेरा भी कोई देश है, मैं भी कहीं का रहने वाला हूँ। परदेस में रहने वाले हिंदुस्तानी के दिल को जो बात सबसे ज्यादा सालती है, वह यह कि वह परदेश में एक के बाद एक सड़क लाँघता चला जाए और उसे कोई जानता नहीं, कोई पहचानता नहीं, जबकि अपने वतन में हर तीसरा आदमी वाकिफ होता है। दिवाली के दिन मैं घर में मोमबत्तियाँ ला कर जला देता, हेलेन के माथे पर बिंदी लगाता, उसकी माँग में लाल रंग भरता। मैं इस बात के लिए तरस तरस जाता कि रक्षा बंधन का दिन हो और मेरी बहिन अपने हाथों से मुझे राखी बाँधे, और कहे 'मेरा वीर जुग जुग जिए!' मैं 'वीर' शब्द सुन पाने के लिए तरस तरस जाता। आखिर मैंने भारत जाने का फैसला कर लिया। मैंने सोचा, मैं हेलेन को भी साथ ले चलूँगा और अपनी डेढ़ बरस की बच्ची को भी। हेलेन को भारत की सैर कराऊँगा और यदि उसे भारत पसंद आया तो वहीं छोटी मोटी नौकरी करके रह जाऊँगा।'

'पहले तो हम भारत में घूमते-घामते रहे। दिल्ली, आगरा, बनारस... मैं एक एक जगह बड़े चाव से इसे दिखाता और इसकी आँखों में इसकी प्रतिक्रिया देखता रहता। इसे कोई जगह पसंद होती तो मेरा दिल गर्व से भर उठता।'

'फिर हम जलंधर गए।' कहते ही वह आदमी फिर से अनमना सा हो कर नीचे की और देखने लगा और चुपचाप सा हो गया, मुझे लगा जैसे वह मन ही मन दूर अतीत में खो गया है और खोता चला जा रहा है। पर सहसा उसने कंधे झटक दिए और फर्श की ओर आँखे लगाए ही बोला, 'जालंधर में पहुँचते ही मुझे घोर निराशा हुई। फटीचर सा शहर, लोग जरूरत से ज्यादा काले और दुबले। सड़कें टूटी हुई। सभी कुछ जाना पहचाना था लेकिन बड़ा छोटा छोटा और टूटा फूटा। क्या यही मेरा शहर है जिसे मैं हेलेन को दिखाने लाया हूँ? हमारा पुश्तैनी घर जो बचपन में मुझे इतना बड़ा बड़ा और शानदार लगा करता था, पुराना और सिकुड़ा हुआ। माँ बाप बरसों पहले मर चुके थे। भाई प्यार से मिला लेकिन उसे लगा जैसे मैं जायदाद बाँटने आया हूँ और वह पहले दिन से ही खिंचा खिंचा रहने लगा। छोटी बहन की दस बरस पहले शादी हो चुकी थी और वह मुरादाबाद में जा कर रहने लगी थी। क्या मैं विदेशों में बैठा इसी नगर के स्वप्न देखा करता था? क्या मैं इसी शहर को देख पाने के लिए बरसों से तरसता रहा हूँ? जान पहचान के लोग बूढ़े हो चुके थे। गली के सिरे पर कुबड़ा हलवाई बैठा करता था। अब वह पहले से भी ज्यादा पिचक गया था, और दुकान में चौकी पर बैठने के बजाय, दुकान के बाहर खाट पर उकड़ूँ बैठा था। गलियाँ बोसीदा, सोई हुई। मैं हेलेन को क्या दिखाने लाया हूँ? दो तीन दिन इसी तरह बीत गए। कभी मैं शहर से बाहर खेतों में चला जाता, कभी गली बाजार में घूमता। पर दिल में कोई स्फूर्ति नहीं थी, कोई उत्साह नहीं था। मुझे लगा जैसे मैं फिर किसी पराए नगर में पहुँच गया हूँ।

तभी एक दिन बाजार में जाते हुए मुझे अचानक ऊँची सी आवाज सुनायी दी - 'ओ हरामजादे!' मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। यह हमारे शहर की परंपरागत गाली थी जो चौबिसों घंटे हर शहरी की जबान पर रहती थी। केवल इतना भर विचार मन में उठा कि शहर तो बूढ़ा हो गया है लेकिन उसकी तहजीब ज्यों की त्यों कायम है।

'ओ हराम जादे! अपने बाप की तरफ देखता भी नहीं?'

मुझे लगा जैसे कोई आदमी मुझे ही संबोधन कर रहा है। मैंने घूम कर देखा। सड़क के उस पार, साइकिलों की एक दुकान के चबूतरे पर खड़ा एक आदमी मुझे ही बुला रहा था।

मैंने ध्यान से देखा। काली काली फनियर मूँछों, सपाट गंजे सिर और आँखों पर लगे मोटे चश्मे के बीच से एक आकृति सी उभरने लगी। फिर मैंने झट से उसे पहचान लिया। वह तिलकराज था, मेरा पुराना सहपाठी।

'हरामजादे! अब बाप को पहचानता भी नहीं है!' दूसरे क्षण हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में थे।

'ओ हराम दे! बाहर की गया, साहब बन गया तूँ?' तेरी साहबी विच मैं...' और उसने मुझे जमीन पर से उठा लिया। मुझे डर था कि वह सचमुच ही जमीन पर मुझे पटक न दे। दूसरे क्षण हम एक दूसरे को गालियाँ निकाल रहे थे।

मुझे लड़कपन का मेरा दोस्त मिल गया था। तभी सहसा मुझे लगा जैसे जालंधर मिल गया है, मुझे मेरा वतन मिल गया है। अभी तक मैं अपने शहर में अजनबी सा घूम रहा था। तिलकराज से मिलने की देर थी कि मेरा सारा परायापन जाता रहा। मुझे लगा जैसे मैं यहीं का रहने वाला हूँ। मैं सड़क पर चलते किसी भी आदमी से बात कर सकता हूँ, झगड़ सकता हूँ। हर इनसान कहीं का बन कर रहना चाहता है। अभी तक मैं अपने शहर में लौट कर भी परदेसी था, मुझे किसी ने पहचाना नहीं था। अपनाया नहीं था। यह गाली मेरे लिए वह तंतु थी, सोने की वह कड़ी थी जिसने मुझे मेरे वतन से, मेरे लोगों से, मेरे बचपन और लड़कपन से, फिर से जोड़ दिया था।

तिलकराज की और मेरी हरकतों में बचपना था, बेवकूफी थी। पर उस वक्त वही सत्य था, और उसकी सत्यता से आज भी मैं इनकार नहीं कर सकता। दिल दुनिया के सच बड़े भौंड़े पर बड़े गहरे और सच्चे होते हैं।

'चल, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं', तिलकराज ने फिर गाली दे कर कहा। 'वह पंजाबी दोस्त क्या जो गाली दे कर, पक्कड़ तोल कर बगलगीर न हो जाए।'

हम दोनों, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, खरामा खरामा माई हीराँ के दरवाजे की ओर जाने लगे। मेरी चाल में पुराना अलसाव आ गया। मैं जालंधर की गलियों में यूँ घूमने लगा जैसे कोई जागीरदार अपनी जागीर में घूमता है। मैं पुलक पुलक रहा था। किसी किसी वक्त मन में से आवाज उठती, तुम यहाँ के नहीं हो, पराए हो, परदेसी हो, पर मैं अपने पैर और भी जोर से पटक पटक कर चलने लगता।

'चुच्चा हलवाई अभी भी वहीं पर बैठता है?'

'और क्या, तू हमें धोखा दे गया है, और लोगों ने तो धोखा नहीं दिया।'

इसी अल्हड़पन से, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, हम किसी जमाने में इन्हीं सड़कों पर घूमा करते थे। तिलकराज के साथ मैं लड़कपन में पहुँच गया था, उन दिनों का अलबेलापन महसूस करने लग था।

हम एक मैले कुचैले ढाबे में जा बैठे। वही मक्खियों और मैल से अटा गंदा मेज, पर मुझे परवाह नहीं थी, यह मेरे जालंधर के ढाबे का मेज था। उस वक्त मेरा दिल करता कि हेलेन मुझे इस स्थिति में आ कर देखे, तब वह मुझे जान लेगी कि मैं कौन हूँ, कहाँ का रहने वाला हूँ, कि दुनिया में एक कोना ऐसा भी है जिसे मैं अपना कह सकता हूँ, यह गंदा ढाबा, यह धुआं भरी फटीचर खोह।

ढाबे से निकल कर हम देर तक सड़कों पर मटरगश्ती करते रहे यहाँ तक कि थक कर चूर हो गए। वह उसी तरह मुझे अपने घर के सामने तक ले गया। जैसे लड़कपन में मैं उसके साथ चलता हुआ, उसे उसके घर तक छोड़ने जाता था, फिर वह मुझे मेरे घर तक छोड़ने आता था।

तभी उसने कहा, 'कल रात खाना तुम मेरे घर पर खाओगे। अगर इनकार किया तो साले, यहीं तुझे गले से पकड़ कर नाली में घुसेड़ दूँगा।'

'आऊँगा,' मैंने झट से कहा।

'अपनी मेम को भी लाना। आठ बजे मैं तेरी राह देखूँगा। अगर नहीं आया तो साले हराम दे...'

और पुराने दिनों की ही तरह उसने पहले हाथ मिलाया और फिर घुटना उठा कर मेरी जाँघ पर दे मारा। यही हमारा विदा होने का ढंग हुआ करता था। जो पहले ऐसा कर जाए कर जाए। मैंने भी उसे गले से पकड़ लिया और नीचे गिराने का अभिनय करने लगा।

यह स्वाँग था। मेरी जालंधर की सारी यात्रा ही छलावा थी। कोई भावना मुझे हाँके चले जा रही थी और मैं इस छलावे में ही खोया रहना चाहता था।

दूसरे रोज, आठ बजते न बजते, हेलेन और मैं उसके घर जा पहुँचे। बच्ची को हमने पहले ही खिला कर सुला दिया था। हेलेन ने अपनी सबसे बढ़िया पोशाक पहनी, काले रंग का फ्राक, जिसपर सुनहरी कसीदाकारी हो रही थी, कंधों पर नारंगी रंग का स्टोल डाला, और बार बार कहे जाती : 'तुम्हारा पुराना दोस्त है तो मुझे बन सँवर कर ही जाना चाहिए ना।'

मैं हाँ कह देता पर उसके एक एक प्रसाधन पर वह और भी ज्यादा दूर होती जा रही थी। न तो काला फ्राक और बनाव सिंगार और न स्टोल और इत्र फुलेल ही जालंधर में सही बैठते थे। सच पूछो तो मैं चाहता भी नहीं था कि हेलेन मेरे साथ जाए। मैंने एकाध बार उसे टालने की कोशिश भी की, जिस पर वह बिगड़ कर बोली, 'वाह जी, तुम्हारा दोस्त हो और मैं उससे न मिलूँ? फिर तुम मुझे यहाँ लाए ही क्यों हो?'

हम लोग तो ठीक आठ बजे उसके घर पहुँच गए लेकिन उल्लू के पट्ठे ने मेरे साथ धोखा किया। मैं समझे बैठा था कि मैं और मेरी पत्नी ही उसके परिवार के साथ खाना खाएँगे। पर जब हम उसके घर पहुँचे तो उसने सारा जालंधर इकट्ठा कर रखा था, सारा घर मेहमानों से भरा था। तरह तरह के लोग बुलाए गए थे। मुझे झेंप हुई। अपनी ओर से वह मेरा शानदार स्वागत करना चाहता था। वह भी पंजाबी स्वभाव के अनुरूप ही। दोस्त बाहर से आए और वह उसकी खातिरदारी न करे। अपनी जमीन जायदाद बेच कर भी वह मेरी खातिरदारी करता। अगर उसका बस चलता तो वह बैंड बाजा भी बुला लेता। पर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। जब हम पहुँचे तो बैठक वाला कमरा मेहमानों से भरा था, उनमें से अनेक मेरे परिचित भी निकल आए और मेरे मन में फिर हिलोर सी उठने लगी।

पत्नी से मेरा परिचय कराने के लिए मुझे बैठक में से रसोईघर की ओर ले गया। वह चूल्हे के पास बैठी कुछ तल रही थी। वह झट से उठ खड़ी हुई दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछते हुए आगे बढ़ आई। उसका चेहरा लाल हो रहा था और बालों की लट माथे पर झूल आई थी। ठेठ पंजाबिन, अपनत्व से भरी, मिलनसार, हँसमुख। उसे यों उठते देख कर मेरा सारा शरीर झनझना उठा। मेरी भावज भी चूल्हे से ऐसे ही उठ आया करती थी, दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछती हुई, मेरी बड़ी बहनें भी, मेरी माँ भी। पंजाबी महिला का सारा बाँकापन, सारी आत्मीयता उसमें जैसे निखर निखर आई थी। किसी पंजाबिन से मिलना हो तो रसोईघर की दहलीज पर ही मिलो। मैं सराबोर हो उठा। वह सिर पर पल्ला ठीक करती हुई, लजाती हुई सी मेरे सामने आ खड़ी हुई।

'भाभी, यह तेरा घरवाला तो पल्ले दर्जे का बेवकूफ है, तुम इसकी बातों में क्यों आ गईं?'

'इतना आडंबर करने की क्या जरूरत थी? हम लोग तो तुमसे मिलने आए हैं...'

फिर मैंने तिलकराज की और मुखातिब हो कर कह, 'उल्लू के पट्ठे, तुझे मेहमाननवाजी करने को किसने कहा था? हरामी, क्या मैं तेरा मेहमान हूँ? ... मैं तुझसे निबट लूँगा।'

उसकी पत्नी कभी मेरी ओर देखती, कभी अपने पति की ओर फिर धीरे से बोली, 'आप आएँ और हम खाना भी न करें? आपके पैरों से तो हमारा घर पवित्र हुआ है।'

वही वाक्य जो शताब्दियों से हमारी गृहणियाँ मेहमानों से कहती आ रही हैं।

फिर वह हमें छोड़ कर सीधा मेरी पत्नी से मिलने चली गई और जाते ही उसका हाथ पकड़ लिया और बड़ी आत्मीयता से उसे खींचती हुई एक कुर्सी की ओर ले गई। वह यों व्यवहार कर रही थी जैसे उसका भाग्य जागा हो। हेलेन को कुर्सी पर बैठाने के बाद वह स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गई। वह टूटी फूटी अंग्रेजी बोल लेती थी और बेधड़क बोले जा रही थी। हर बार उनकी आँखें मिलतीं तो वह हँस देती। उसके लिए हेलेन तक अपने विचार पहुँचाना कठिन था लेकिन अपनी आत्मीयता और स्नेह भाव उस तक पहुँचाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई।

उस शाम तिलकराज की पत्नी हेलेन के आगे पीछे घूमती रही। कभी अंदर से कढ़ाई के कपड़े उठा लाती और एक-एक करके हेलेन को दिखाने लगती। कभी उसका हाथ पकड़ कर उसे रसोईघर में ले जाती, और उसे एक एक व्यंजन दिखाती कि उसने क्या क्या बनाया है और कैसे कैसे बनाया है। फिर वह अपनी कुल्लू की शाल उठा लाई और जब उसने देखा कि हेलेन को पसंद आई है, तो उसने उसके कंधों पर डाल दी।

इस सारी आवभगत के बावजूद हेलेन थक गई। भाषा की कठिनाई के बावजूद वह बड़ी शालीनता के साथ सभी से पेश आई। पर अजनबी लोगों के साथ आखिर कोई कितनी देर तक शिष्टाचार निभाता रहे? अभी ड्रिंक्स ही चल रहे थे जब वह एक कुर्सी पर थक कर बैठ गई। जब कभी मेरी नजर हेलेन की ओर उठती तो वह नजर नीची कर लेती, जिसक मतलब था कि मैं चुपचाप इस इंतजार में बैठी हूँ कि कब तुम मुझे यहाँ से ले चलो।

रात के बारह बजे के करीब पार्टी खत्म हुई और तिलकराज के यार दोस्त नशे में झूमते हुए अपने-अपने घर जाने लगे। उस वक्त तक काफी शोर गुल होने लगा था, कुछ लोग बहकने भी लगे थे। एक आदमी के हाथ से शराब का गिलास गिर कर टूट गया था।

जब हम लोग भी जाने को हुए और हेलेन भी उठ खड़ी हुई तो तिलकराज ने पंजाबी दस्तूर के मुताबिक कहा - बैठ जा, बैठ जा, कोई जाना वाना नहीं है।

'नहीं यार, अब चलें। देर हो गई है।'

उसने फिर मुझे धक्का दे कर कुर्सी पर फेंक दिया।

कुछ हल्का हल्का सरूर, कुछ पुरानी याद, तिलकराज का प्यार और स्नेह उसकी पत्नी का आत्मीयता से भरा व्यवहार, मुझे भला लग रहा था। सलवार कमीज पहने बालों का जूड़ा बनाए, चूड़ियाँ खनकाती एक कमरे से दूसरे कमरे में जाती हुई तिलकराज की पत्नी मेरे लिए मेरे वतन का मुजस्समा बन गई थी, मेरे देश की समुची संस्कृति उसमें सिमट आई थी। मेरे दिल में, कहीं गहरे में, एक टीस सी उठी कि मेरे घर में भी कोई मेरे ही देश की महिला एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमा करती, उसी की हँसी गूँजती, मेरे ही देश के गीत गुनगुनाती। वर्षों से मैं उन बोलों के लिए तरस गया था जो बचपन में अपने घर में सुना करता था।

हेलेन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। मेरे लिए उसने क्या नहीं किया था। उसने चपाती बनाना सीख लिया था। दाल छौंकना सीख लिया था। शादी के कुछ समय बाद ही वह मेरे मुँह से सुने गीत-टप्पे भी गुनगुनाने लगी थी। कभी कभी सलवार कमीज पहन कर मेरे साथ घूमने निकल पड़ती। रसोईघर की दीवार पर उसने भारत का एक मानचित्र टाँग दिया था जिस पर अनेक स्थानों पर लाल पेंसिल से निशान लगा रखे थे कि जालंधर कहाँ है और दिल्ली कहाँ है और अमृतसर कहाँ है जहाँ मेरी बड़ी बहन रहती थी। भारत संबंधी जो किताब मिलती, उठा लाती, जब कभी कोई हिंदुस्तानी मिल जाता उसे आग्रह अनुरोध करके घर ले आती। पर उस समय मेरी नजर में यह सब बनावट था, नकल थी, मुलम्मा था - इनसान क्यों नहीं विवेक और समझदारी के बल पर अपना जीवन व्यतीत कर सकता? क्यों सारा वक्त तरह तरह के अरमान उसके दिल को मथते रहते हैं?

'फिर?' मैंने आग्रह से पूछा।

उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे की मांसपेशियों में हल्का सा कंपन हुआ। वह मुस्करा कर कहने लगा, 'तुम्हे क्या बताऊँ।' तभी मैं एक भूल कर बैठा। हर इनसान कहीं न कहीं पागल होता है और पागल बना रहना चाहता है... जब मैं विदा लेने लगा और तिलकराज कभी मुझे गलबहियाँ दे कर और कभी धक्का दे कर बिठा रहा था और हेलेन भी पहले से दरवाजे पर जा खड़ी हुई थी, तभी तिलकराज की पत्नी लपक कर रसोईघर की ओर से आई और बोली, 'हाय, आप लोग जा रहे हैं? यह कैसे हो सकता है? मैंने तो खास आपके लिए सरसों का साग और मक्के की रोटियाँ बनाई हैं।'

मैं ठिठक गया। सरसों का साग और मक्की की रोटियाँ पंजाबियों का चहेता भोजन है।

'भाभी, तुम भी अब कह रही हो? पहले अंटसंट खिलाती रही हो और अब घर जाने लगे हैं तो...'

'मैं इतने लोगों के लिए कैसे मक्की की रोटियाँ बना सकती थी? अकेली बनाने वाली जो थी। मैंने आपके लिए थोड़ी सी बना दी। यह कहते थे कि आपको सरसों का साग और मक्की की रोटी बहुत पसंद है...'

सरसों का साग और मक्की की रोटी। मैं चहक उठा, और तिलकराज को संबोधन करके कहा, 'ओ हरामी, मुझे बताया क्यों नहीं?' और उसी हिलोरे में हेलेन से कहा, 'आओ हेलेन, भाभी ने सरसों का साग बनाया है। यह तो तुम्हे चखना ही होगा।'

हेलेन खीज उठी। पर अपने को संयत कर मुस्कुराती हुई बोली, 'मुझे नहीं, तुम्हे चखना होगा।' फिर धीरे से कहने लगी, 'मैं बहुत थक गई हूँ। क्या यह साग कल नहीं खाया जा सकता?'

सरसों का साग, नाम से ही मैं बावला हो उठा था। उधर शराब का हल्का हल्का नशा भी तो था।

'भाभी ने खास हमारे लिए बनाया है। तुम्हे जरूर अच्छा लगेगा।'

फिर बिना हेलेन के उत्तर का इंतजार किए, साग है तो मैं तो रसोईघर के अंदर बैठ कर खाऊँगा। मैंने बच्चों की तरह लाड़ से कहा, 'चल बे, उल्लू के पट्ठे, उतार जूते, धो हाथ और बैठ जा थाली के पास! एक ही थाली में खाएँगे।'

छोटा सा रसोईघर था। हमारे अपने घर में भी ऐसा ही रसोईघर हुआ करता था जहाँ माँ अंगीठी के पास रोटियाँ सेंका करती थी और हम घर के बच्चे, साझी थालियों में झुके लुकमे तोड़ा करते थे।

फिर एक बार चिरपरिचित दृश्य मानों अतीत में से उभर कर मेरी आँखों के सामने घूमने लगा था और मैं आत्मविभोर हो कर उसे देखे जा रहा था। चूल्हे की आग की लौ में तिलकराज की पत्नी के कान का झूमर चमक चमक जाता था। सोने के काँटे में लाल नगीना पंजाबियों को बहुत फबता है। इस पर हर बार तवे पर रोटी सेंकने पर उसकी चूड़ियाँ खनक उठतीं और वह दोनो हाथों से गरम गरम रोटी तवे पर से उतार कर हँसते हुए हमारी थाली में डाल देती।

यह दृश्य मैं बरसों के बाद देख रहा था और यह मेरे लिए किसी स्वप्न से भी अधिक सुंदर और हृदयग्राही था। मुझे हेलेन की सुध भी नहीं रही। मैं बिल्कुल भूले हुए था कि बैठक में हेलेन अकेली बैठी मेरा इंतजार कर रही है। मुझे डर था कि अगर मैं रसोईघर में से उठ गया तो स्वप्न भंग हो जाएगा। यह सुंदरतम चित्र टुकड़े टुकड़े हो जाएगा। लेकिन तिलकराज की पत्नी उसे नहीं भूली थी। वह सबसे पहले एक तशतरी में मक्की की रोटी और थोड़ा सा साग और उस पर थोड़ा सा मक्खन रख कर हेलेन के लिए ले गई थी। बाद में भी, दो एक बार बीच बीच में उठ कर उसके पास कुछ न कुछ ले जाती रही थी।

खाना खा चुकने पर, जब हम लोग रसोईघर में से निकल कर बैठक में आए तो हेलेन कुर्सीं में बैठे बैठे सो गई थी और तिपाई पर मक्की की रोटी अछूती रखी थी। हमारे कदमों की आहट पा कर उसने आँखें खोलीं और उसी शालीन शिष्ट मुस्कान के साथ उठ खड़ी हुई।

विदा ले कर जब हम लोग बाहर निकले तो चारों ओर सन्नाटा छाया था। नुक्क्ड़ पर हमें एक ताँगा मिल गया। ताँगे में घूमे बरसों बीत चुके थे, मैंने सोचा हेलेन को भी इसकी सवारी अच्छी लगेगी। पर जब हम लोग ताँगे में बैठ कर घर की ओर जाने लगे तो रास्ते में हेलेन बोली, 'कितने दिन और तुम्हारा विचार जालंधर में रहने का है?'

'क्यों अभी से ऊब गईं क्या?' आज तुम्हे बहुत परेशान किया ना, आई ऐम सारी।'

हेलेन चुप रही, न हूँ, न हाँ।

'हम पंजाबी लोग सरसों के साग के लिए पागल हुए रहते हैं। आज मिला तो मैंने सोचा जी भर के खाओ। तुम्हे कैसे लगा?'

'सुनो, मैं सोचती हूँ मैं यहाँ से लौट जाऊँ, तुम्हारा जब मन आए, चले आना।'

'यह क्या कह रही हो हेलेन, क्या तुम्हे मेरे लोग पसंद नहीं हैं?'

भारत में आने पर मुझे मन ही मन कई बार यह खयाल आया था कि अगर हेलेन और बच्ची साथ में नहीं आतीं तो मैं खुल कर घूम फिर सकता था। छुट्टी मना सकता था। पर मैं स्वयं ही बड़े आग्रह से उसे अपने साथ लाया था। मैं चाहता था कि हेलेन मेरा देश देखे, मेरे लोगों से मिले, हमारी नन्ही बच्ची के संस्कारों में भारत के संस्कार भी जुड़ें और यदि हो सके तो मैं भारत में ही छोटी मोटी नौकरी कर लूँ।

हेलेन की शिष्ट, संतुलित आवाज में मुझे रुलाई का भास हुआ। मैंने दुलार से उसे आलिंगन में भरने की कोशिश की। उसमे धीरे से मेरी बाँह को परे हटा दिया। मुझे दूसरी बार उसके इर्द-गिर्द अपनी बाँह डाल देनी चाहिए थी, लेकिन मैं स्वयं तुनक उठा।

'तुम तो बड़ी डींग मारा करतीं हो कि तुम्हे कुछ भी बुरा नहीं लगता और अभी एक घंटे में ही कलई खुल गई।'

ताँगे में हिचकोले आ रहे थे। पुराना फटीचर सा ताँगा था, जिसके सब चूल ढीले थे। हेलेन को ताँगे के हिचकोले परेशान कर रहे थे। ऊबड़-खाबड़, गड्ढों से भरी सड़क पर हेलेन बार बार सँभल कर बैठने की कोशिश कर रही थी।

'मैं सोचती हूँ, मैं बच्ची को ले कर लौट जाऊँगी। मेरे यहाँ रहते तुम लोगों से खुल कर नहीं मिल सकते।' उसकी आवाज में औपचारिकता का वैसा ही पुट था जैसा सरसों के साग की तारीफ करते समय रहा होगा, झूठी तारीफ और यहाँ झूठी सद्भावना।

'तुम खुद सारा वक्त गुमसुम बैठी रही हो। मैं इतने चाव से तुम्हे अपना देश दिखाने लाया हूँ।'

'तुम अपने दिल की भूख मिटाने आए हो, मुझे अपना देश दिखाने नहीं लाए', उसने स्थिर, समतल, ठंडी आवाज में कहा, और अब मैंने तुम्हारा देश देख लिया है।'

मुझे चाबुक सी लगी।

'इतना बुरा क्या है मेरे देश में जो तुम इतनी नफरत से उसके बारे में बोल रही हो? हमारा देश गरीब है तो क्या, है तो हमारा अपना।'

'मैंने तुम्हारे देश के बारे में कुछ नहीं कहा।'

'तुम्हारी चुप्पी ही बहुत कुछ कह देती है। जितनी ज्यादा चुप रहती हो उतना ही ज्यादा विष घोलती हो।'

वह चुप हो गई। अंदर ही अंदर मेरा हीनभाव जिससे उन दिनों हम सब हिंदुस्तानी ग्रस्त हुआ करते थे, छटपटाने लगा था। आक्रोश और तिलमिलाहट के उन क्षणों में भी मुझे अंदर ही अंदर कोई रोकने की कोशिश कर रहा था। अब बात और आगे नहीं बढ़ाओ, बाद में तुम्हे अफसोस होगा, लेकिन मैं बेकाबू हुआ जा रहा था। अँधेरे में यह भी नहीं देख पाया कि हेलेन की आँखें भर आई हैं और वह उन्हें बार बार पोंछ रही है। ताँगा हिचकोले खाता बढ़ा जा रहा था और साथ साथ मेरी बौखलाहट भी बढ़ रही थी। आखिर ताँगा हमारे घर के आगे जा खड़ा हुआ। हमारे घर की बत्ती जलती छोड़ कर घर के लोग अपने अपने कमरों में आराम से सो रहे थे। कमरे मे पहुँच कर हेलेन ने फिर एक बार कहा, 'तुम्हे किसी हिंदुस्तानी लड़की से शादी करनी चाहिए थी। उसके साथ तुम खुश रहते। मेरे साथ तुम बँधे बँधे महसूस करते हो।'

हेलेन ने आँख उठा कर मेरी ओर देखा। उसकी नीली आँखें मुझे काँच कि बनी लगी, ठंडी, कठोर, भावनाहीन, 'तुम सीधा क्यों नही कहती हो कि तुम्हे एक हिंदुस्तानी के साथ ब्याह नहीं करना चाहिए था। मुझ पर इस बात का दोष क्यों लगाती हो?'

'मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा', बह बोली और पार्टीशन के पीछे कपड़े बदलने चली गई।

दीवार के साथ एक ओर हमारी बच्ची पालने में सो रही थी। मेरी आवाज सुन कर वह कुनकुनाई, इस पर हेलेन झट से पार्टीशन के पीछे से लौट आई और बच्ची को थपथपा कर सुलाने लगी। बच्ची फिर से गहरी नींद में सो गई। और हेलेन पार्टीशन की ओर बढ़ गई। तभी मैंने पार्टीशन की ओर जा कर गुस्से से कहा, 'जब से भारत आए हैं, आज पहले दिन कुछ दोस्तों से मिलने का मौका मिला है, तुम्हे वह भी बुरा लगा है। लानत है ऐसी शादी पर!'

मैं जानता था पार्टीशन के पीछे से कोई उत्तर नहीं आएगा। बच्ची सो रही हो तो हेलेन कमरे में चलती भी दबे पाँव थी। बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता।

पर वह उसी समतल आवाज में धीरे से बोली, तुम्हे मेरी क्या परवाह। तुम तो मजे से अपने दोस्त की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे।'

'हेलेन!' मुझे आग लग गई, 'क्या बक रही हो।'

मुझे लगा जैसे उसने एक अत्यंत पवित्र, अत्यंत कोमल और सुंदर चीज को एक झटके में तोड़ दिया हो।

'तुम समझती हो मैं अपने मित्र की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहा था?'

'मैं क्या जानूँ तुम क्या कर रहे थे। जिस ढंग से तुम सारा वक्त उसकी ओर देख रहे थे...'

दूसरे क्षण मैं लपक कर पार्टीशन के पीछे जा पहुँचा और हेलेन के मुँह पर सीधा थप्पड़ दे मारा।

उसने दोनो हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया। एक बार उसकी आँखें टेढ़ी हो कर मेरी ओर उठीं। पर वह चिल्लाई नहीं। थप्पड़ पड़ने पर उसका सिर पार्टीशन से टकराया था। जिससे उसकी कनपटी पर चोट आई थी।

'मार लो, अपने देश में ला कर तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे, मैं नहीं जानती थी।'

उसके मुँह से यह वाक्य निकलने की देर थी कि मेरी टाँगें लरज गईं और सारा शरीर ठंडा पड़ गया। हेलेन ने चेहरे पर से हाथ हटा लिए थे। उसके गाल पर थप्पड़ का गहरा निशान पड़ गया था। पार्टीशन के पीछे वह केवल शमीज पहने सिर झुकाए खड़ी थी क्योंकि उसने फ्राक उतार दिया था। उसके सुनहरे बाल छितरा कर उसके माथे पर फैले हुए थे।

यह मैं क्या कर बैठा था? यह मुझे क्या हो गया था? मैं आँखें फाड़े उसकी ओर देखे जा रहा था और मेरा सारा शरीर निरुद्ध हुआ जा रहा था। मेरे मुँह से फटी फटी सी एक हुंकार निकली, मानो दिल का सार क्षोभ और दर्द अनुकूल शब्द न पा कर मात्र क्रंदन में ही छटपटा कर व्यक्त हो पाया हो। मैं पार्टीशन के पीछे से निकल कर बाहर आँगन में चला गया। यह मुझसे क्या हो गया है? यही एक वाक्य मेरे मन में बार बार चक्कर काट रहा था...

इस घटना के तीन दिन बाद हमने भारत छोड़ दिया। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब लौट कर नहीं आऊँगा। उस दिन जो जालंधर छोड़ा तो फिर लौट कर नहीं गया...

सीढ़ियों पर कदमों की आवाज आई। उसी वक्त रसोईघर से हेलेन भी एप्रेन पहने चली आई। सीढ़ियों की ओर से हँसने चहकने और तेज तेज सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आई। जोर से दरवाजा खुला और हाँफती हाँफती दो युवतियाँ - लाल साहब की बेटियाँ - अंदर दाखिल हुईं। बड़ी बेटी ऊँची लंबी थी, उसके बाल काले थे और आँखें किरमिची रंग की थीं। छोटी के हाथ में किताबें थीं, उसका रंग कुछ कुछ साँवला था, और आँखों में नीली नीली झाइयाँ थीं। दोनो ने बारी बारी से माँ और बाप के गाल चूमे, फिर झट से चाय की तिपाई पर से केक के टुकड़े उठा उठा कर हड़पने लगीं। उनकी माँ भी कुर्सी पर बैठ गई और दोनो बेटियाँ दिन भर की छोटी छोटी घटनाएँ अपनी भाषा में सुनाने लगीं। सारा घर उनकी चहकती आवाजों से गूँजने लगा। मैंने लाल की ओर देखा। उसकी आँखों में भावुकता के स्थान पर स्नेह उतर आया था।

'यह सज्जन भारत से आए हैं। यह भी जालंधर के रहने वाले हैं।'

बड़ी बेटी ने मुस्करा कर मेरा अभिवादन किया। फिर चहक कर बोली, 'जालंधर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा। जब मैं वहाँ गई थी, तब तो वह बहुत पुराना पुराना सा शहर था। क्यों माँ?' और खिलखिला कर हँसने लगी।

लाल का अतीत भले ही कैसा रहा हो, उसका वर्तमान बड़ा समृद्ध और सुंदर था।

वह मुझे मेरे होटल तक छोड़ने आया। खाड़ी के किनारे ढलती शाम के सायों में देर तक हम टहलते बतियाते रहे। वह मुझे अपने नगर के बारे में बताता रहा, अपने व्यवसाय के बारे में, इस नगर में अपनी उपलब्धियों के बारे में। वह बड़ा समझदार और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति निकला। आते जाते अनेक लोगों के साथ उसकी दुआ सलाम हुई। मुझे लगा शहर में उसकी इज्जत है। और मैं फिर उसी उधेड़बुन में खो गया कि इस आदमी का वास्तविक रूप कौन सा है? जब वह यादों में खोया अपने देश के लिए छटपटाता है, या एक लब्धप्रतिष्ठ और सफल इंजीनियर जो कहाँ से आया और कहाँ आ कर बस गया और अपनी मेहनत से अनेक उपलब्धियाँ हासिल कीं?

विदा होते समय उसने मुझे फिर बाँहों में भींच लिया और देर तक भींचे रहा, और मैंने महसूस किया कि भावनाओं का ज्वार उसके अंदर फिर से उठने लगा है, और उसका शरीर फिर से पुलकने लगा है।

'यह मत समझना कि मुझे कोई शिकायत है। जिंदगी मुझ पर बड़ी मेहरबान रही है। मुझे कोई शिकायत नहीं है, अगर शिकायत है तो अपने आप से...' फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह हँस कर बोला, 'हाँ एक बात की चाह मन में अभी तक मरी नहीं है, इस बुढ़ापे में भी नहीं मरी है कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आए 'ओ हरामजादे!' और मैं लपक कर उस आदमी को छाती से लगा लूँ', कहते हुए उसकी आवाज फिर से लड़खड़ा गई।
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Monday 14 February 2022

चल पड़े जिधर दो डग मग में / विजय शंकर सिंह



खबर है कि, चंपारण में कुछ लोगों ने महात्मा गांधी की प्रतिमा तोड़ दी है। मगर उस प्रतिमा के कदम नहीं उखड़े। या यूं कहें वे गांधी के कदमो को डिगा नहीं पाए। वे कदम मज़बूती से चंपारण की धरती पर जमे रहे। इन कदमो की मज़बूत पकड़ ही, गांधी और उनके विचारधारा की प्रासंगिकता है और वह आगे भी बनी रहेगी। विरोध के झंझावात के बीच भी वह सोच और विचारधारा, बिना डिगे, बिना भटके और बिना हतप्रभ हुए, देश और दुनिया को राह दिखाती रहेगी। कुछ लोग इन कदमो की दृढ़ता से गांधी के जीवन काल मे भी असहज थे और आज, उनकी हत्या हो जाने के 75 साल बाद, अब भी असहज हैं। वे अपनी चिढ़ और कुंठा, इसी तरह से निकाल सकते हैं, और निकालते रहते हैं। 

खंडित प्रतिमा का यह चित्र महात्मा के दृढ़ संकल्पित विचार का प्रतीक है। चंपारण से गांधी के आंदोलन, सत्य अहिंसा और अंग्रेजी राज के खिलाफ प्रबल जन प्रतिरोध का आगाज़ हुआ था। निलहे गोरे जमीदारों के शोषण के खिलाफ, चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल के कहने पर गांधी चंपारण गए थे। दोनो की यह मुलाकात, कांग्रेस के 1916 के लखनऊ अधिवेशन में हुयी थी। गांधी चंपारण आये। अपनी बात कही। गांधी अपने कुछ जानकार मित्रों और सलाहकारों से गांवों का भ्रमण कराकर किसानों की हालत जानने की कोशिश करते रहे और फिर उन्हें जागरूक करने में जुट गए। 

सत्याग्रह की पहली विजय का शंखनाद और गांधी की बढ़ती लोकप्रियता ब्रिटिश  राज को अखरने लगी थी। उनकी उपस्थिति को सरकार ने शांति व्यवस्था के लिये खतरा बताया। उन्हें समाज में असंतोष फैलाने का आरोप लगाकर चंपारण छोड़ने का आदेश दिया गया। पर गांधी ने कब ऐसे आदेशो को माना था कि वे इस सरकारी आदेश को मान लेते ! गांधी जी ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। वे गिरफ्तार कर लिये गए। अदालत में सुनवाई के दौरान गांधी के प्रति व्यापक जन समर्थन को देखते हुए मजिस्ट्रेट ने उन्हें बिना जमानत छोड़ने का आदेश दे दिया, लेकिन गांधी जी अपने लिए कानून के अनुसार उचित सजा की मांग करते रहे। उन्होंने जुर्म स्वीकार किया। बाद में वे रिहा कर दिये गए। 

एक आंदोलन चला। डॉ राजेंद्र प्रसाद सहित बिहार के अनेक नेता उंस आंदोलन में शामिल हुए। गांधी तब इतने लोकप्रिय भी नही हो पाए थे। लोग उन्हें, देख और परख रहे थे। वे भी देश और जनता का मूड भांप रहे थे। अंत मे निलहे गोरे जमीदारों के शोषण का अंत हुआ। यह तब का किसान आंदोलन था। दक्षिण अफ्रीका की ब्रिटिश हुकूमत, गांधी के इस नायाब प्रतिरोध का स्वाद चख चुकी थी, पर भारत के अंग्रेजी हुकूमत के लिए यह एक नयी बात थी। चंपारण ने, सारे भारत का ध्यान अपनी ओर खींचा। ब्रिटिश सरकार झुकी और चंपारण की समस्याओं के लिये एक आयोग बना। गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाया गया। सार्थक परिणाम सामने आने लगे थे। 

भग्न गांधी प्रतिमा के यह कदम यूंही छोड़ दिये जाने चाहिए। यह कदम उनकी दृढ़ता और लक्ष्य की ओर संकल्पशक्ति से बढ़ते जाने के प्रतीक हैं। यह कदम उन अज्ञानी और कुंठित गांधी विरोधियों को असहज भी करते रहेंगें, जो आज भी गांधी हत्या का औचित्य निर्लज्जता से साबित करने की कोशिश करते रहते हैं। गांधी अपने विरोधियों के लिये अक्सर हृदयपरिवर्तन की बात करते थे। वह नैतिकता की बात करते थे। नैतिक परिवर्तन की बात करते थे। इतिहास में हृदय परिवर्तन के कुछ उदाहरण मिलते भी हैं। क्या पता उस खंडित प्रतिमा के यह दृढ़ चरण, उनके विरोधियों में से कुछ के मन में, प्रायश्चित बोध भी जगा दें। न भी जगा सकें तो, यह चरण गांधी के अपराजेय संकल्प की याद आने वाली पीढ़ी को तो कम से कम दिलाते ही रहेंगे। 

क्या विडंबना है, जिसके आदर्शों, सिद्धांतों और नीतियों ने दुनियाभर के अनेक दबे कुचले शोषित और गुलाम देशों को साम्राज्यवाद से मुक्ति का मंत्र दिया वह अपने ही देश मे कुछ सिरफिरों के षड़यंत्र और मूर्खता भरे प्रतिशोध का बार बार शिकार बनता है। आज उसी चंपारण में गांधी की प्रतिमा तोड़ दी गई। पर चंपारण की धरती पर आज से सौ साल से भी पहले पड़े गांधी के दृढ़ कदम अब भी उसी तरह जमे हैं। गांधी एक विचार हैं। जिस गांधी ने दुनिया के सबसे विशाल और समर्थ साम्राज्य को अपने कदमो पर झुका दिया था, उन कदमो को उखाड़ना आसान भी नहीं है। 'चल पड़े जिधर दो डग मग मे, चल पड़े कोटि पग उसी ओर !'

(विजय शंकर सिंह)

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (17)


(चित्र: रुमाल लिए जानकी, सर के पास जयललिता)

राजाओं के साथ समस्या होती है कि उनके बाद कौन? यह लोकतंत्र में होकर भी वंश परंपरा से चलती है। 

एन टी रामाराव के उत्तराधिकारी उनके दामाद चंद्रबाबू नायडु बने, भले ही लड़ कर बने। लेकिन, एमजीआर तीन विवाहों के बाद भी नि:संतान थे। वह अपने आखिरी पाँच वर्ष बीमार रहे, लेकिन उत्तराधिकारी नहीं चुना। माना जाता है कि वह अपने बाद दल को खत्म कर करुणानिधि से विलय चाहते थे। दो उदाहरण देता हूँ। 

एक बार एमजीआर ने अपने सहयोगी कलंडवेलु को सिर्फ इसलिए थप्पड़ मार दिया था कि उन्होंने करुणानिधि को नाम लेकर संबोधित किया था। 

उन्होंने कहा, “तुम्हारी औकात क्या है? वह आज भी मेरे थलैवार (नेता) हैं। उन्हें कलइनार कहो।”

इसी तरह एक दफ़े जेप्पियार के साथ वह जीप में बैठ कर जा रहे थे। जेप्पियार ने करुणानिधि को गाली दे दी। एमजीआर ने जीप रुकवायी, और वहीं वीराने में उन्हें उतारते हुए कहा, “कलइनार के लिए ऐसे शब्द कहने की हिम्मत कैसे हुई? अब पैदल मद्रास पहुँचो।”

खैर, एमजीआर तो दिसंबर, 1987 में चल बसे। उनकी लाश अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि सत्ता-संघर्ष शुरू हो गया। 

उनकी 62 वर्षीय पत्नी जानकी ने 44 वर्ष उनके साथ फ़िल्मों में कार्य किया था। वहीं, 39 वर्षीय जयललिता जयराम ने उनके साथ आखिरी तेईस फ़िल्में की थी, और अविवाहित रही। अफ़सरों के लिए उनका कोड नाम J1 और J2 था। दोनों का खूब दबदबा था। 

तमिलनाडु में जाति की बात भी करनी ही होगी। एमजीआर स्वयं श्रीलंकाई मलयाली मेनन (नायर की उपजाति) परिवार से थे। उनकी पत्नी जानकी केरल की अय्यर ब्राह्मण (शंकराचार्य अद्वैत पंथ) थी, जबकि जयललिता एक तमिल आयंगार (वैष्णव) ब्राह्मण थी। दोनों एक दूसरे से नफ़रत करते थे। 

एमजीआर की मृत्यु की खबर सुनते ही जयललिता भागी हुई आयी, मगर जानकी ने उन्हें अंदर आने से मना कर दिया। मगर जयललिता लाइमलाइट लेना खूब जानती थी। जैसे ही एमजीआर की शव-यात्रा निकलने के लिए आयी, जयललिता एक अच्छी काले बॉर्डर की सफेद साड़ी में उनके सर के पास बैठ गयी। जब भी कैमरा उनके चेहरे पर आता, जयललिता उनका सर पोछने लगती। बूढ़ी जानकी एक साधारण साड़ी में उनके किनारे बैठ कर रुमाल लिए रो रही थी, तो उन पर ख़ास फोकस नहीं था। 

उसके बाद जब सेना तोपों से सलामी देने आए, तो जयललिता ऊपर चढ़ गयी, और जनता को हाथ दिखाने लगी। उन्हें पहले सेना के अधिकारियों ने रोका। उसके बाद जानकी के एक भतीजे और छुटभैये ऐक्टर दीपन ने जयललिता को धक्का देकर नीचे गिरा दिया।

यह खेल अभी और भी घिनौना होना था। दल दो भागों में विभक्त होने लगा। उस समय कार्यकारी मुख्यमंत्री नदनचेजियन थे। वही, जिनको पहले धकिया कर करुणानिधि मुख्यमंत्री बने थे। अब वह मौका हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे। उन्होंने जानकी के ख़िलाफ़ मोर्चा तैयार किया, मगर उन्हें लगा कि यह काम अब जयललिता को ही सौंपा जाए।

जयललिता अपने बंगले पर समर्थक विधायकों का दरबार आयोजित करने लगी। यह शुरुआत थी उनके ‘अम्मा’ बनने की। उन्होंने एक पाँच सितारा होटल में समर्थकों के रहने का इंतज़ाम कराया। जानकी ने विधायकों को तीन सितारा होटल में रखा था, तो कुछ विधायक यूँ ही खिसक कर जयललिता की ओर आ गए। 

28 जनवरी, 1988 को जानकी को विश्वास-मत सिद्ध करना था। उस दिन जयललिता के समर्थकों ने माइक तोड़ कर, पेपरवेट और कुर्सी उठा कर फेंकना शुरू किया। दोनों गुटों में खूब लात-मुक्के चले। आखिर पुलिस को आकर लाठीचार्ज करना पड़ा। 

ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ कि विधानसभा में दंगे के कारण राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। सरकार बर्खास्त कर दी गयी। 

एक साल बाद जब चुनाव हुआ, एम करुणानिधि ने इस दो ‘J’ में बँटे हुए AIADMK पर आसान जीत हासिल की। एमजीआर के कलइनार पुन: मुख्यमंत्री बने, लेकिन अपने दल में ऐसी मुर्ग-लड़ाई तो एमजीआर ने भी नहीं सोची होगी।

सोचा तो यह भी नहीं होगा कि इस एक वर्ष में उनका ‘छोटा भाई’ प्रभाकरण भारत और राजीव गांधी का दुश्मन बन जाएगा। या यह कि विश्वनाथ प्रताप सिंह नामक एक नया ‘मसीहा’ प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर बढ़ रहा होगा। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
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दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (16)
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Sunday 13 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (16)

(चित्र: एन. टी. आर., एमजीआर और दिलीप कुमार, तीनों ने ‘रामडु भीमडु’ (राम और श्याम) को अलग-अलग भाषाओं में पर्दे पर निभाया)

दो अभिनेता। दो राज्य। दो मुख्यमंत्री। 
एम जी रामचंद्रन (MGR) और एन टी रामाराव (NTR) का उदय दक्षिण की राजनीति का एक आयाम है, जो उत्तर भारत में नहीं मिलता। अमिताभ बच्चन जैसे महारथी भी राजनीति में स्थायी मुकाम नहीं बना पाए। जबकि ये दोनों न सिर्फ़ पर्दे पर, बल्कि राजनीति में महानायक रहे। इनका कद आधुनिक अवतारों की तरह था। एन टी रामाराव तो जैसे भगवान के भेष में ही रथयात्रा करते, और जनता उनकी पूजा करती। यह भाजपा की रथयात्रा राजनीति से पहले की बात है। वहीं, एमजीआर का बॉडी-लैंग्वेज किसी समृद्ध राजा की तरह होता, जो प्रजा के उत्थान के लिए जन्मा है। 

यह भी कहा जा सकता है कि ये पेरियार के दर्शन के दो विलोम थे, जब सामंत और ईश्वर जैसी छवियों में प्रजा को विश्वास होने लगा। एमजीआर अपनी मृत्यु तक, और एन टी आर अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व तक गद्दी पर रहे। इन्हें पदच्युत करना लगभग असंभव था, और कम से कम एनटीआर के लिए यह तभी पूरी तरह मुमकिन हुआ जब उनके अपने दामाद चंद्रबाबू नायडु ने ही विद्रोह कर दिया।

एक ने अपनी अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से तमिल अस्मिता को केंद्र बनाया, ‘तमिल ईलम’ की लड़ाई में हिस्सा बने। वहीं, एनटीआर ने तेलुगु देशम पार्टी बना कर तेलुगु अस्मिता का बिगुल बजाया। एमजीआर को तो अंग्रेज़ी ठीक से आती नहीं थी, वह अधिकांश संवाद तमिल में ही करते।

दोनों अपने-अपने अंदाज़ में गरीबों के मसीहा बन कर उभरे। यह संभव है कि इंदिरा गांधी की ‘इंडिया इज इंदिरा’ राजनीति के समानांतर ही इस तरह की मसीहाई और छवि-निर्माण की रेल चली। इसमें कौन कितने सफल हुए, यह कहना कठिन है, लेकिन अस्सी के दशक में क्षत्रप मसीहा उभरने लगे थे।

एमजीआर के फैसले किसी मध्ययुगीन राजा की तरह होते। कभी वह अचानक घोषणा करते कि श्रीलंका के तमिल टाइगर को वह धन देने जा रहे हैं। कभी वह गरीबों के लिए अनाज योजना का ऐलान कर देते। जिस ‘मिड डे मील’ को के. कामराज ने शुरू किया था, उसे एमजीआर ने इस बृहत स्तर पर लाया कि अब उन्हें ही इस योजना का कर्णधार माना जाता है। प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति रिकॉर्ड 96 प्रतिशत तक पहुँच गयी। उस गति से तमिलनाडु शायद केरल को भी पीछे छोड़ देती।

उनके साथ दो स्त्रियाँ एक अलग ही ग्लैमर लाती। दोनों पर्दे पर अलग-अलग कालखंडों में उनकी अभिनेत्री रही थी। एक उनकी पत्नी जानकी, दूसरी जयललिता। हालाँकि जयललिता वास्तविक दुनिया में उनकी पत्नी नहीं थी, लेकिन पर्दे पर छवि के कारण यूँ आभास होता जैसे दो रानियों के मध्य महाराज बैठे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि पेरियार के उत्तराधिकारी और एक कुशल राजनेता एम. करुणानिधि को उन्होंने अपने चमक-दमक से पूरी तरह नेपथ्य में ला दिया था। लिट्टे को समर्थन देकर उन्होंने तमिल मोर्चे पर भी अपनी मजबूत जगह बना ली थी। लेकिन, इस कारण कहीं न कहीं तमिलनाडु में धर्म और जातिवाद फिर से अपनी जगह बनाने लगा था। 

मंदिरों के घंटे गूँजने लगे थे। श्रीलंकाई तमिल अपने जयघोष में देवी-देवताओं का नाम लेते। स्वयं एमजीआर अपने दल के सदस्यों के साथ मंदिरों में दर्शन के लिए जाते थे। एक फ़िल्म में वह देवता मुरुगन के रूप में आए, जब उनकी नायिका जयललिता थी। अपनी बीमारी के दौरान उन्होंने पूजा करवा कर देवी मुखाम्बिका मंदिर में एक तलवार अर्पित किया। 

एमजीआर ने पेरियार की धारा में जा रहे तमिलनाडु पर जैसे ‘रीसेट’ बटन दबा दिया। कहीं न कहीं उनकी बनायी इस ज़मीन के बदौलत एक ब्राह्मणी जयललिता बार-बार मुख्यमंत्री बनी। एक और उदाहरण इसी कड़ी में देता हूँ। 

जब 1984 में एमजीआर गंभीर अस्वस्थ थे, तो घोर नास्तिक करुणानिधि ने अपने पुराने मित्र के लिए खुला पत्र लिखा, 

“मेरे प्रिय मित्र! आज पूरा तमिलनाडु तुम्हारे स्वास्थ्य की कामना कर रहा है। तुम्हारे दल के सदस्य और समर्थक मंदिरों में पूजा-अर्चना कर रहे हैं। 

तुम मुझे जानते हो कि मैं बचपन से पेरियार और अन्ना का अनुयायी रहा। कभी ईश्वर के दरवाजे पर कुछ माँगने नहीं गया। कभी परिक्रमा नहीं की। पूजा नहीं की। यही मेरा आदर्श रहा। 

लेकिन, मेरी नास्तिकता तुम्हारे लिए की जा रही प्रार्थना को ग़लत नहीं ठहराती। अगर इन प्रार्थनाओं से तुम पुन: उसी तरह खड़े होकर लौटते हो, जैसे मैंने तुम्हें यौवन से देखा है, तो मेरी प्रसन्नता किसी से कम न होगी।

अस्पताल तो तुमसे मिलने की इजाज़त नहीं दे रहा, लेकिन आज एक बात कहूँगा। प्रार्थना का अर्थ सिर्फ़ स्तुति नहीं, याचना भी है। उस अर्थ में मैं आज जीवन में पहली बार प्रार्थना करुँगा कि तुम स्वस्थ हो जाओ। जैसे सूर्य की किरणों से ओस की बूँदें वाष्पीकृत हो जाती है, तुम्हारा यह रोग भी लुप्त हो जाए। 

सदैव तुम्हारा मित्र
मु. क. “
(क्रमश:)

प्रवीण झा
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दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (15)
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Saturday 12 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (15)

(चित्र: कोलंबा में नौसेना गार्ड द्वारा राजीव पर हमला)

“मैंने जैन कमीशन को कहा कि 1983 से इंदिरा गांधी और तमाम तमिल नेता लिट्टे को सहयोग देते रहे हैं। सिर्फ़ मुझे ही क्यों बलि का बकरा बनाया जा रहा है?”
- एम करुणानिधि 

एम जी रामचंद्रन का जन्म कैंडी (श्रीलंका) में हुआ। उन दिनों श्रीलंका का उत्तरी और पूर्वी हिस्सा तमिल-बहुल था। उनके भारतीय तमिल राज्य से भी अच्छे संपर्क रहे, और वैवाहिक रिश्ते, धार्मिक तीर्थयात्रा आदि नियमित थे। श्रीलंका के अन्य हिस्सों में सिंहल बौद्ध, ईसाई और मुसलमान पसरे हुए थे।

सिंहलों को यह तमिल ‘गेत्तो’ संस्कृति कभी पसंद नहीं रही, क्योंकि वे तमिल राष्ट्रवाद और स्वतंत्र अस्तित्व की बात करते थे। उनकी भिन्न-भिन्न सरकारों ने तमिल क्षेत्रों में सिंहल बस्तियाँ बसाने का निर्णय लिया, जिससे कि संजातीय समीकरण संतुलित हो। 1956 में एक तमिल इलाके में भूमिहीन सिंहलों को जमीन दी गयी। कुछ ही दिनों में अफ़वाह फैली कि तमिलों ने किसी सिंहल लड़की का बलात्कार कर उसे नग्न घुमाया। परिणाम यह हुआ कि सिंहलों ने तमिलों की बस्ती जला दी, और डेढ़ सौ तमिल मारे गए। अगले दो वर्षों में लगभग हज़ार से अधिक तमिलों की हत्यायें हुई, और तमिलों ने भी जवाबी हमले किए।

उस समय भारत के तमिलों ने जब इन संघर्षों के विषय में सुना तो वे उन्हें यथासंभव सहयोग देने लगे। कई श्रीलंकाई तमिल भाग कर मद्रास और अन्य जिलों में भी बस गए। उन्होंने तमिल गुरिल्ला संगठन बनाने शुरू किए, जो सिंहलों के हमले का मुकाबला करते। 1974 में श्रीलंकाई तमिलों ने अपना एक साझा राजनैतिक दल ‘तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट’ बना लिया, और 1976 में एक स्वायत्त ‘तमिल ईलम’ (तमिल राज्य) की माँग रखी। अगले वर्ष चुनाव में उन्हें अपने क्षेत्रों में जीत मिली, और वे संसद में ठीक-ठाक प्रतिनिधित्व लेकर पहुँचे।

उसी दौरान वेल्लुपलइ प्रभाकरण नामक युवक ने लोकतांत्रिक हल के बजाय हिंसक हल को चुना, और एक लिट्टे नामक संगठन बनाने की सोची। प्रभाकरण के पास धन की कमी थी, जिसके लिए उसने भारत और अन्य देशों में बसे तमिलों से संपर्क साधने शुरू किए। मगर इसके लिए कुछ ठोस कारण की ज़रूरत थी, जिससे सिद्ध हो कि तमिल खतरे में हैं।

1981 में तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट की एक रैली में दो सिंहल पुलिसकर्मियों पर हिंसक हमला हुआ, जिसमें वे मारे गए। सिंहल पुलिस दल-बल के साथ तमिलों से बदला लेने आयी। उन्होंने ताबड़तोड़ गोलियाँ चलायी, पार्टी का मुख्यालय तोड़ दिया। सबसे बड़ी घटना यह हुई कि पुलिस ने एशिया के सबसे बड़े पुस्तकालयों में एक जाफ़ना पुस्तकालय जला दिया। हज़ारों प्राचीन पांडुलिपियाँ भस्म हो गयी।

माना जाता है कि उस समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन इस हिंसा से आहत हुए, और तमिलों की लड़ाई को सहयोग देने का निर्णय लिया। उन्होंने कई श्रीलंकाई नेताओं से संपर्क किया, जिनमें प्रभाकरण नामक युवक उन्हें सबसे दमदार लगा। एमजीआर ने तमिलनाडु विधानसभा में घोषणा कर दी कि वह इस संगठन को चार करोड़ का अनुदान दे रहे हैं। यह तो बाक़ायदा सरकारी फंडिंग थी। तमाम तमिल डायस्पोरा अलग से भी करोड़ों दे रही थी। इसके अतिरिक्त इंदिरा गांधी ‘रॉ’ के सहयोग से लिट्टे से संपर्क में थी।

मान्यता है कि लिट्टे आत्मघाती वस्त्र (suicide vest) पहन कर हमला करने वाले पहले उग्रवादी संगठनों में से थे। ख़ास कर महिलाएँ इसके लिए तैयार की जाती। हर लिट्टे उग्रवादी अपने गले में एक ‘साइनाइड कप्पा’ भी रखता, जो पकड़े जाने पर चाट लेता। शहादत को प्रधानता देने वाले इस संगठन ने आतंक का स्वरूप ही बदल दिया।

आखिर श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्धने ने भारत से सीधे बात-चीत का निर्णय लिया। यह बात अब यूँ भी छुपी नहीं थी कि इस पूरे संगठन और ‘तमिल ईलम’ की डोर भारत से खिंची जा रही थी। 1971 में भारत बांग्लादेश को सफल रूप से तोड़ चुका था। उस बनिस्बत श्रीलंका मामूली देश था। 

1987 की जुलाई में राजीव गांधी और जयवर्धने के मध्य एक समझौता तय हुआ। इस पर सहमति के लिए तमिल नेताओं, एम जी रामचंद्रन, और प्रभाकरण, सभी से बात की गयी। डील यह थी - ‘तमिल-बहुल श्रीलंकाई क्षेत्रों को एक प्रांत बनाया जाएगा, जहाँ एक जनमत-संग्रह किया जाएगा कि वे स्वायत्त प्रांत बनना चाहते हैं या नहीं। इसके बदले प्रभाकरण और अन्य उग्रवादी संगठन आत्मसमर्पण कर देंगे। भारत की एक शांति सेना इस प्रक्रिया में दोतरफ़ा मदद करेगी।’

जुलाई के आख़िरी हफ़्ते में जब प्रभाकरण को दिल्ली में धमकाया जा रहा था, एम जी आर वहाँ आए। 

वह प्रभाकरण को देख कर मुस्कुराए और कहा, “यह मेरा छोटा भाई है। मैं इसे समझाता हूँ।”

उनके मध्य क्या बात हुई, यह सार्वजनिक नहीं है। यूँ भी एमजीआर की उसी वर्ष मृत्यु हो गयी। मगर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि उन्होंने प्रभाकरण को झुकने से मना कर दिया। प्रभाकरण ने इस समझौते को एक धोखे की तरह ही देखा।

राजीव गांधी अगले दिन हस्ताक्षर करने कोलंबो के लिए निकलने वाले थे, जब प्रभाकरण को उनके पास लाया गया। राजीव गर्मजोशी से मिले, और जब प्रभाकरण वापस जा रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र को आवाज़ दी, “राहुल! मेरा बुलेटप्रूफ़ वेस्ट लेकर आना”

प्रभाकरण को वह तोहफ़ा देते हुए कहा, “अपना ध्यान रखना दोस्त। यह काम आएगी।”

राजीव गांधी यह नहीं जानते थे कि जिसे वह ‘बुलेटप्रूफ़ वेस्ट’ दे रहे हैं, उसके लोग एक दिन ‘सुसाइड वेस्ट’ पहन कर उनकी जान ले लेंगे।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (14)
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Friday 11 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (14)

           (चित्र: एमजीआर और प्रभाकरण)

यह पेरियार का अंतिम वर्ष था। दिसंबर, 1972 में राजगोपालाचारी की मृत्यु पर वह उनके शव के सामने फूट-फूट कर रो रहे थे। पेरियार को इससे पूर्व इस तरह द्रवित होते गांधी की मृत्यु पर देखा गया था। जबकि पेरियार आजीवन इनसे ही लड़ते रहे। ठीक अगले वर्ष 23 दिसंबर, 1973 में अपने आखिरी सार्वजनिक वक्तव्य में पेरियार ने कहा,

“हमने स्वाभिमान आंदोलन पाँच चीजों के अंत के लिए शुरू किया था- ईश्वर, गांधी, कांग्रेस, धर्म और ब्राह्मण। गांधी मर गए। कांग्रेस टूट गया। ईश्वर की स्थिति हास्यास्पद है। जब भी हम धर्म में बदलाव की बात करते हैं, ब्राह्मण आज भी अड़ंगा लगाते हैं। उन्हें बदलना होगा।”

अगले दिन 94 वर्ष की अवस्था में पेरियार चल बसे। तमिलनाडु इतिहास का पटाक्षेप हुआ। 

एमजीआर ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिख कर करुणानिधि और उनके मंत्रियों के भ्रष्टाचार का विवरण दिया। वह दल में कोषाध्यक्ष रहे थे, तो उनके पास कई गुप्त दस्तावेज भी थे। भ्रष्टाचार तो खैर चल ही रहा था, और कुछ नेता महज कुछ महीनों में अकूत संपत्ति हासिल कर चुके थे। मगर इंदिरा गांधी ही कई आरोपों में घिरती चली गयी। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हो गया था। 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। 

स्तालिन एक साक्षात्कार में कहते हैं कि इंदिरा गांधी ने करुणानिधि से कहा, “आपको आपातकाल के समर्थन करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन, अगर आप विरोध करेंगे तो आपकी सरकार बर्खास्त कर दी जाएगी।”

करुणानिधि उस समय वयोवृद्ध नेता के. कामराज से मिलने गए। उन्होंने कहा, “भारत में अब कहीं लोकतंत्र नहीं बचा। सिर्फ़ तमिलनाडु में बचा है। इसे संभाल कर रखो। तुम मुख्यमंत्री बने रहो।”

उसी वर्ष गांधी जयंती के दिन कामराज चल बसे। करुणानिधि ने चंडीगढ़ में नज़रबंद जयप्रकाश नारायण को चिट्ठी लिखी कि वह आपातकाल का विरोध करने जा रहे हैं, अन्यथा पेरियार, अन्नादुरइ और कामराज की आत्मा उन्हें माफ़ नहीं करेगी। 

30 जनवरी, 1976 को मद्रास के मरीना बीच पर करुणानिधि ने एक विशाल रैली कर इंदिरा गांधी का विरोध किया। अगले ही दिन उनकी सरकार गिरा दी गयी, डीएमके के नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, करुणानिधि पर भ्रष्टाचार की जाँच के लिए सरकारिया कमीशन बिठा दिया गया। उनके बेटे स्तालिन और युवा नेता मुरासोली मारन को खूब पीटा गया। स्तालिन आज भी चेहरे पर अपने उस दाग को आपातकालीन धारा के नाम पर ‘मीसा निशान’ कहते हैं। 

जब डीएमके के नेता जेल में बंद थे, एमजीआर ने इंदिरा गांधी से संधि कर ली। उन्होंने जनता के सामने करुणानिधि सरकार के भ्रष्टाचार को खूब उभारा। नतीजतन 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी भले हारी, एमजीआर ने भारी जीत हासिल की। 

उन्हीं दिनों पड़ोसी देश श्रीलंका में गुरिल्ला-युद्ध चल रहे थे। एमजीआर की तो वह जन्मभूमि थी। कहा जाता है कि एमजीआर ने स्वयं एक युवा गुरिल्ला योद्धा प्रभाकरण को चुना, और उसे धन भी मुहैया कराया। प्रभाकरण ने एक-एक कर पहले संगठन के उदारवादी नेताओं को रास्ते से हटाया, और हिंसा-समर्थकों को गुट में रखा। एमजीआर के समय लिट्टे की ताकत बढ़ती गयी। एमजीआर ने भी सत्ता में बने रहने के सभी तिकड़म लगाए।

एक सुभाषी व्यक्ति एमजीआर ने इंदिरा गांधी की हार के बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से हाथ मिला लिया। इसे इंदिरा गांधी ने पीठ में छुरा भोंकना माना। 1980 में वापस गद्दी संभालते ही उन्होंने एमजीआर सरकार को बर्खास्त कर दिया, और फिर से चुनाव की घोषणा की। अब इंदिरा गांधी वापस करुणानिधि के साथ हुई।

मगर एमजीआर एक करिश्माई नेता और नामी अभिनेता थे, तमिलनाडु की धड़कन थे। करुणानिधि दस वर्ष तक विपक्ष में बैठे एमजीआर के घोटाले उजागर करते रहे, जिनमें कुछ गंभीर भी थे, मगर वह उनकी सत्ता नहीं हिला सके। एमजीआर जब तक जीए, गद्दी पर रहे। उन्होंने तमिलनाडु के लिए कई कार्य किए, लेकिन उनका एक स्वप्न अधूरा रह गया।

1987 में भारतीय वायु सेना के विमान ने जाफ़ना (श्रीलंका) के सुतुमलइ अम्मन मंदिर से प्रभाकरण को उठाया और दिल्ली के होटल अशोक लाया गया। वहाँ प्रभाकरण को शांति समझौते पर हस्ताक्षर के लिए दबाव डाला गया। प्रभाकरण ने कहा कि यह निर्णय जनता करेगी, मैं नहीं। 

उस समय श्रीलंका में राजदूत जे. एन. दीक्षित ने धमकाया, “तुम एक मामूली आदमी हो। तुम्हें हम यूँ ही मसल देंगे। तुम यहाँ से जिंदा बच कर भी तभी जा पाओगे, अगर हम चाहेंगे।”

प्रभाकरण ने कहा, “आप अन्ना को यहाँ बुलाइए। मुझे पहले उनसे बात करनी है।”

दीक्षित ने पूछा, “कौन से अन्ना?”

“एमजीआर!”

एक द्रविड़नाडु का स्वप्न। एक तमिल ईलम (तमिल देश) का स्वप्न। किसी न किसी रूप में यह पेरियार, अन्नादुरइ, एमजीआर, करुणानिधि सबका साझा स्वप्न था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (13)
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