Monday 30 November 2020

काशी में मिथ्यावाचन / विजय शंकर सिंह

काशी नरेश राजा दिवोदास के समय से ही कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर समस्त देवगण एक दिन के लिये शिव से मिलने काशी आते हैं। दीपोत्सव से काशी के लोग उनका स्वागत करते है। आज तो लेजर रोशनी में सद्यःस्नाता काशी को निरखते हुए देवताओं ने कितना झूठ सुना होगा, यह तो देवगण ही जानें। पर एक वैदिक कथा के अनुसार, काशी में एक बार ब्रह्मा ने भी झूठ बोल दिया था तो, शिव ने उन्हें अपूज्य घोषित कर दिया और कहते हैं तब से ब्रह्मा की पूजा नहीं होती है। सरस्वती से जुड़े दुराचार की कथा भी ब्रह्मा की अपूज्यता का एक काऱण है। पर यह संदर्भ जो मैं बता रहा हूँ, वह काशी से ही जुड़ा है। 

ब्रह्मा से जुड़े मिथ्यावाचन की कथा
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एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा और उसके पालनकर्ता विष्णु को काशी में एक विशाल अग्नि स्तंभ दिखा। इस अंतहीन चमकीले स्तंभ से ऊँ ध्वनि निकल रही थी। उन्होंने आश्चर्यचकित  होकर इसके आदि और अंत का पता लगाने की सोची। ब्रह्मा हंस का रूप धारण कर  उसके शीर्ष (सिरे) की खोज में आसमान की ओर ऊपर उड़ने लगे। विष्णु वाराह (सूअर) का रूप धारण कर उसके आधार की तलाश में धरती के नीचे पाताल में काफी नीचे चले गए। 

दोनों ही भटकते रहे, पर दोनो में से किसी को भी न ओर मिला न छोर।क्योंकि यह स्तंभ खुद शिव थे। जिसे मापा ही नहीं जा सकता है, उसे कोई कैसे माप सकता है? विष्णु ने लौट कर अपनी हार मान ली कि उन्हें पाताल के काफी अंदर तक जाने पर भी आधार नही मिला । 

मगर असफलता को स्वीकार न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने झूठ बोला और शेखी बघारते हुए विष्णु से कहा कि, वह तो स्तंभ के शीर्ष तक पहुंच गए थे। उन्हें वहां केतकी का एक पुष्प भी स्तंभ शीर्ष पर रखा मिला। प्रमाण के तौर पर उन्होंने एक सफेद केतकी का फूल भी विष्णु को दिखाया। उनका कहना था यह पुष्प उनके स्तंभ शीर्ष तक पहुंचने का प्रमाण है। 

ब्रह्मा को झूठ बोलते ही शिव आदियोगी के रूप में प्रकट हो गए, और उन्होंने तीक्ष्ण दृष्टि से ब्रह्मा को देखा। ब्रह्मा का झूठ पकड़ा गया और वह नतमस्तक थे। फिर दोनों देवता शिव के चरणों में गिर पड़े। शिव ने कहा कि ब्रह्मा के इस झूठ के कारण अब से उन्हें पूजा नहीं जाएगा। इस झूठ में शामिल होने के कारण केतकी के पुष्प को भी शिव ने अपनी अर्चना में अर्पित करने का निषेध कर दिया।

लेकिन, बाद में विष्णु के यह कहने पर झूठ तो ब्रह्मा ने बोला है। वे अपूज्य हो गए है। पर केतकी पुष्प को तो अनायास ही शिव अर्चना से वंचित किया जा रहा है। तब शिव ने केवल महाशिवरात्रि की पावन रात के लिए केतकी पुष्प की अर्चना स्वीकार करने की अनुमति दी।इसलिए महाशिवरात्रि की रात्रि में, सफेद केतकी का फूल, शिव को पूजा में समर्पित किया जाता है। ऐसा सिर्फ साल के इस सबसे अंधकारपूर्ण रात को ही किया जा सकता है, जो गहनतम आध्यात्मिक संभावना की रात मानी जाती है। केतकी पुष्प को भी ब्रह्मा की कुटिलता औऱ मिथ्यवाचन में साथ देने के लिए दंडित किया गया ।

( विजय शंकर सिंह )

दिल्ली में किसान और सरकार से घमासान / विजय शंकर सिंह

तीनो कृषि कानूनो के विरुद्ध पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान, हज़ारो की संख्या में दिल्ली सीमा पर आ गए हैं। उन्हें दिल्ली तक न आने दिया जाय, इसलिए हरियाणा सरकार ने जीटी रोड को जगह जगह खोद कर खाई बनाने से लेकर, भारी बैरिकेडिंग, वाटर कैनन की बौछार और आंसूगैस के गोलों के साथ, रोकने की हर कोशिश की। पर वे दिल्ली सीमा पर पहुंच गए हैं और उनकी संख्या में, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के भी किसान लगातार आ रहे हैं। यह संख्या बढ़ रही है। किसानों का कहना है कि, उन्हे गृहमंत्री का एक सशर्त आफर मिला है कि वे सभी दिल्ली सीमा पर बुराड़ी स्थित निरंकारी मैदान में आ जांय औऱ उनसे 3 दिसंबर को सरकार बात करेगी। 

किसानों ने गृहमंत्री का यह सशर्त ऑफ़र ठुकरा दिया, और कहा कि वे चार महीनों का राशन लेकर आये हैं और वे बुराड़ी, जिसे वे एक खुली जेल मानते हैं, नही जाएंगे और केंद्र सरकार का शर्तो के साथ बात करने का प्रस्ताव रखना किसानों का अपमाम करना है। पहले भी जब यह आंदोलन शुरू ही हुआ था तब भी केंद्रीय कृषिमंत्री ने इन किसानों के प्रतिनिमंडल को वार्ता के लिये बुलाया था, पर जब किसान वार्ता के लिये पहुंचे तो कृषिमंत्री मध्यप्रदेश चले गए थे और बातचीत का जिम्मा अधिकारियों पर छोड़ दिया था। अब स्थिति यह है कि, इन कृषि कानूनो में संशोधन करने का निर्णय बिना प्रधानमंत्री हस्तक्षेप के संभव नही है। जिस तरह  बिना किसी मांग, आवश्यकता, और संसद में बगैर बहस, या प्रवर समिति से इस कानून का परीक्षण कराये, यह तीनों कृषि विधेयक पारित किए गए हैं, उनसे यही धारणा उपजती है कि, यह कानून किसानों के हित को नहीं बल्कि कॉरपोरेट लॉबी को भारत के कृषि क्षेत्र में नीतिगत दखलंदाजी करने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए लाये गये थे। 

सरकारो का झुकाव कॉरपोरेट या पूंजीपतियों की तरफ स्वाभाविक रूप से हमारे अर्थव्यवस्था के मॉडल में है। यह मॉडल 2014 के पहले से ही है और इस मॉडल के कारण, देश मे जो भी आर्थिक नीति बनाई गई उसके केंद्र में औद्योगिक विकास को कृषि की तुलना में अधिक महत्व दिया गया। जबकि कृषि और औद्योगिक विकास को एक दूसरे का पूरक समझा जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा न हो सका और कृषि को धीरे धीरे हतोत्साहित किया जाने लगा। आज किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के आंकड़ो और किसान के पक्ष में उठी मांगो के बारे में सरकार की उपेक्षा भरी प्रतिक्रिया से इसे स्वतः समझा जा सकता है। 

कॉरपोरेट का हित अकेले इसी बिल में नही देखा गया है, बल्कि 2014 के बाद सरकार की हर आर्थिक नीति का एक ही उद्देश्य है कि, कॉरपोरेट को येनकेन प्रकारेण लाभ पहुंचे। 2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद जो पहला महत्वपूर्ण किसान विरोधी और कॉरपोरेट हितैषी विधेयक लाया गया था, वह भूमि अधिग्रहण विधेयक का। उक्त विधेयक में सरकार को किसी की भी भूमि अधिग्रहण करने के अनियंत्रित अधिकार दिए गए थे। उक्त बिल का जबरदस्त विरोध हुआ और वह बिल वापस हुआ और फिर उसे संशोधित रूप से लाया गया। उक्त बिल से लेकर अब तक, हाल ही में बैंकों में निजी क्षेत्र के स्वामित्व के सम्बंध में आने वाला प्रस्तावित कानून, कॉरपोरेट के हित मे है। 

यह न तो पहला किसान आंदोलन है और न अंतिम। बल्कि किसान समय समय पर अपनी समस्याओं को लेकर देशभर में आंदोलित होते रहे हैं। किसानों का ही एक लौंग मार्च कुछ सालों पहले मुंबई में हुआ था। नासिक से पैदल चल कर किसानों का हुजूम अपनी बात कहने मुम्बई शहर में आया था। सरकार तब देवेंद्र फडणवीस की थी। जब यह मार्च मुम्बई की सीमा में पहुंचा तो मुम्बई ने उनका स्वागत किया। उन्हें खाना पीना उपलब्ध कराए। उन्हें देशद्रोही नही कहा। सरकार ने भी उनकी बात सुनी। उन बातों पर गौर करने के आश्वासन दिए। यह बात अलग है कि जब तक यह हुजूम रहा, सरकार आश्वासन देती रही। हम सबने पैदल चले हुए कटे फटे तलवो की फ़ोटो देखी है। यह आंदोलन किसी कृषि कानून के खिलाफ नही था। यह आंदोलन था, किसानों की अनेक समस्याओं के बारे में, जिसमे, एमएसपी की बात थी, बिचौलियों से मुक्ति की बात थी, बिजली की बात थी, किसानों को दिए गए ऋण माफी की बात थी और बात थी, फसल बीमा में व्याप्त विसंगतियों की। 

सरकार ने इन समस्याओं के बारे में बहुत कुछ नही किया। लेकिन सरकार ने जन आंदोलन की उपेक्षा नहीं की। पर आज जब तीनो कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर के किसान लामबंद हैं तो कहा जा रहा है कि वे भटकाये हुए लोग है। भड़काया गया है उन्हें। कुछ तो खालिस्तानी और देशद्रोही के खिताब से भी उन्हें नवाज़ रहे हैं। सरकार एक तरफ तो कह रही है कि यह सभी कृषि कानून किसानों के हित में हैं, पर इनसे किस प्रकार से किसानों का हित होगा, यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। सरकारी खरीद कम करते जाने, मंडी में कॉरपोरेट को घुसपैठ करा देने, जमाखोरों को जमाखोरी की छूट दे देने, बिजली सेक्टर में जनविरोधी कानून बना देने से, किसानों का कौन सा हित होगा, कम से कम यही सरकार बना दे ! 

आज जब किसानों के जत्थे दर जत्थे, दिल्ली सरकार को अपनी बात सुनाने के लिये शांतिपूर्ण ढंग से जा रहे हैं तो, उन को बैरिकेडिंग लगा कर रोका जा रहा है, पानी की तोपें चलाई जा रही है, सड़के बंद कर दी जा रही है, और सरकार न तो उनकी बात सुन रही है और न सुना रही है। छह साल से लगातार मन की बात सुनाने वाली सरकार,  कम से कम एक बार किसानों, मजदूरों, बेरोजगार युवाओं, और शोषित वंचितों की तो बात सुने। सरकार अपनी भी मुश्किलें बताएं, उनकी भी दिक्कतें समझे, और एक राह तो निकाले। पर यहां तो एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि, जो अपनी बात कहने के लिये खड़ा होगा, उसे देशद्रोही कहा जायेगा। अगर यही स्थिति रही तो सरकार की नज़र मे, लगभग सभी मुखर नागरिक देशद्रोही और जन आंदोलन देशद्रोह समझ लिए जाएंगे। 

गोदी मीडिया द्वारा पूरे आंदोलन को किसी के द्वारा भड़काने की साज़िश बताने, किसान आंदोलन में भिंडरावाले की तस्वीर पर यूरेका भाव से उछल कर सोशल मीडिया पर पसर जाने वाले आईटी सेल के कारनामों के बाद सरकार ने 3 दिसम्बर की तारीख बातचीत के लिये तय कर दी है। सरकार यही काम, आंदोलन शुरू होने और किसानों के दिल्ली कूच करने के पहले भी तो कर सकती थी। अब यह उम्मीद की जानी चाहिए कि 3 दिसम्बर को सरकार कम से कम किसानों की सबसे बडी मांग कि एमएसपी से कम कीमत पर फसल खरीदना दंडनीय अपराध होगा, को कानूनी  प्राविधान बनाने पर सहमत हो जाएगी। वैसे तो मांगे और भी है। पर सबका एक ही बैठक में समाधान हो यह सम्भव नही है तो कम से कम इस एक मांग से तो इस समस्या की एक गांठ खुले। 

अब सरकार को चाहिए कि अब अगर उसने किसानों के साथ बातचीत करने पर सहमति दे ही दी है तो, अब उक्त कानून में, किसान हित में कुछ संशोधन करने की भी सोचे। किसानों की मांगों को देखते हुए बातचीत में निम्न विन्दुओ को शामिल किया जा सकता है। 
● भाजपा ने एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार एमएसपी देने का वादा किया है। सरकार इस वादे को पूरा करे और यदि यह लगता है कि यह वादा अव्यवहारिक है तो इसके अव्यवहारिक पक्ष को भी सबके सामने रखे। 
● सरकार कह रही है कि, वह एमएसपी खत्म नही करने जा रही है। पर कृषिकानून लागू होने के बाद धान की खरीद के जो अनुभव किसान बता रहे हैं उससे यह संकेत स्पष्ट रूप से मिलता है धीरे धीरे एमएसपी खत्म ही हो जाएगी। 
● सरकार को चाहिए कि वह एमएसपी से कम खरीद को दंडनीय अपराध बनाये ताकि किसानों का शोषण, पूंजीपति और बिचौलिए न कर सके। अगर एमएसपी का कानून में कोई प्राविधान नही  किया जाता है तो, यह वादा भी एक जुमला बन कर रह जायेगा। 
● जमाखोरी रोकने के लिये सख्त कानून पुनः बनाये जांय। फिलहाल जमाखोरी को अपराध से हटा दिया गया है क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम ईसी एक्ट रद्द हो गया है। 
● हाल ही में जो महंगाई, खाद्य वस्तुओ और सब्ज़ियों में आयी है, इसका एक कारण जमाखोरी और मूल्य निर्धारण का काम बाजार पर छोड़ देना है। इस महंगाई से कृषि उपज की कीमतें तो बढ़ी हैं, पर उन बढ़ी कीमतों का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है। उसका लाभ उन बिचौलियों और मुनाफाखोरों को मिला है जिनसे किसानों को मुक्त कराने का दावा अक्सर सरकार करती रहती है। 
● कृषि पर सब्सिडी देने पर सरकार फिर विचार करे। सब्सिडी दुनियाभर में सरकारे किसानों को देती है। यहां तक कि अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था भी, जो हमारी सरकारों का आदर्श बनी हुयी है, वह भी सब्सिडी देती है। 
● भारत मे कृषि एक उद्योग नही बल्कि एक समृद्ध ग्रामीण संस्कृति है। सरकार जब बजट बनाने और अन्य नीतिगत वित्तीय फ़ैसले लेने के पहले, फिक्की, एसोचैम,जैसे उद्योगपतियों के संगठनों से बात कर सकती है, और इंडस्ट्री फ्रेंडली बजट बना सकती है तो सरकार फिर किसान संगठनों के साथ बात कर के फार्मर्स फ्रेंडली बजट क्यों नहीं बना सकती है ? 

भारत आंदोलनों का देश रहा है। आंदोलन का अर्थ, केवल ज़िंदाबाद मुर्दाबाद ही नहीं है, बल्कि आंदोलन का अर्थ बदलाव की एक सतत इच्छा। यह इच्छा, भारतीय परंपरा में जड़ता के विरुद्ध चेतनता की चाह रही है। चरैवेति चरैवेति का मूल ही हमारी चेतना में बसा हुआ है। मन मे व्याप्त एक अहर्निश प्रश्नाकुलता, हमें परिवर्तन की ओर सदैव ले जाती है। परिवर्तन, कुछ बेहतर पाने की उम्मीद में तो होती ही है साथ ही जो फिलहाल चल रहा है उससे हुयी एक ऊब से मुक्त होना भी एक उद्देश्य होता है। बदलाव का यही भाव, कभी हमे आज़ाद होने के लिये आंदोलित करता है, तो कभी बेहतर जीवन के लिये सड़क पर ला देता है, तो कभी अन्याय के खिलाफ आक्रोशित करता रहता है। जब परिवर्तनकामी मनोवृति उफनती है तो, बदलाव के विभिन्न तऱीके भी मन मे उपजते हैं, और तब जो स्वरूप बनता है वह अपने सामर्थ्य और आकार के अनुसार, किसी बड़े या छोटे आंदोलन का रूप ले लेता है। कभी कभी एक छोटा सा प्रतिरोध भी ऐसे व्यापक जन आंदोलन में बदल जाता है, कि सत्ता हांफने लगती है और कभी कभी तो पलट भी जाती है। कभी कभी ये आंदोलन हिंसक हो जाते हैं और इससे जो अशांति और अराजकता फैलती है वह आंदोलन के उद्देश्य को भटका भी देती है औऱ आंदोलन के धीरे धीरे हिंसक गिरोहों में बदल जाने का खतरा भी हो जाता है। 

यह तो स्पष्ट है कि, सरकार देश के कॉरपोरेटीकरण की दिशा में चल रही है। इसी क्रम में उन सरकारी कंपनियों का भी निजीकरण किया जा रहा है जो देश की नवरत्न कम्पनियों में शुमार हैं। कृषि सुधार के नाम पर जो तीन नए कृषि कानून और वर्तमान आर्थिक मॉडल से भविष्य का जो संकेत मैं, समझ पा रहा हूँ, वे निम्न प्रकार से होंगे, 
● सैकड़ों एकड़ खेत विभिन्न किसानों से इकट्ठे कर एक कंपनी खड़ी कर के उन्हें कॉरपोरेट में बदल कर खेती की जाय। 
● उन खेतो के स्वामित्व अभी जिन किसानों के पास हैं, उन्ही के पास रहेगा, और उनसे ही आपस मे कुछ धनराशि तय कर खेतो को लीज पर ले लिया जाय और सामूहिक खेती की जाय। 
● उन खेतो में क्या बोया जाय, और क्या न बोया जाय, यह कॉरपोरेट तय करेगा। इसमे स्थानीय कृषि की आवश्यकताएं, लोगों की जरूरतें, आसपास के लोगो की मांग से कोई बहुत सरोकार नही  रहेगा बल्कि वही फसल बोई जाएगी जो कॉर्पोरेट या उस कम्पनी को मुनाफा देगी। मुनाफा निर्यातोन्मुखी हो सकता है।
● जब कृषि सेक्टर में कॉरपोरेट लॉबी महत्वपूर्ण हो जाएगी और एक एग्रो इंडस्ट्री लॉबी के दबाव ग्रुप की तरह सरकार के सामने उभर कर आ जायेगी तो, फिर यही लॉबी, अन्य एकाधिकार सम्पन्न कॉरपोरेट लॉबी की तरह, सरकार से कृषि और किसानों से नुकसान दिखा कर सब्सिडी और अन्य राहत लेने के लिये दबाव बनाएगी। जो राहत और सब्सिडी तो खेती और किसानों के नाम पर सरकार से लेगी, लेकिन उसका लाभ किसानों को कम मिलेगा या नही मिलेगा। 
● शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, रेल, सड़क, हवाई यातायात, सब के सब, जितना हो सकते हैं, निजी क्षेत्रों को बेचे जा रहे हैं। इन सब क्षेत्रो के साथ साथ अब बैंकों के भी निजीकरण की योजना बन रही है। इससे सरकार की जिम्मेदारी कम होती जाएगी। 
● जमाखोरी को कानूनन मान्यता दे दी गयी है। आज सरकार के पास ईसी एक्ट के समान जमाखोरी रोकने के लिये कोई भी प्रभावी कानून नहीं है।  
● किसान धीरे धीरे खेती से विमुख होता जाएगा और अपने ही खेत, जो बाद में कॉरपोरेट के खेत बन जाएंगे, में खेत मज़दूर बन कर रह जायेगा। इसे एक नए प्रकार के जमींदारवाद का उदय होगा। 
● जो किसान खेत मज़दूर नहीं बन पाएंगे, वे शहरों की तरफ पलायन करेंगे और वे या तो दिहाड़ी मजदूर बन जाएंगे या उद्योगों में 8 घन्टे के बजाय 12 घँटे का काम करेंगे।

मेरी इस धारणा का आधार यह है,
● 2016 में देश के कुछ पूंजीपतियों और राजनीतिक एकाधिकार स्थापित करने के लिये, कालाधन, आतंकवाद नियंत्रण और नकली मुद्रा को खत्म करने के लिये नोटबन्दी की गयी। पर न तो कालाधन मिला, न आतंकवाद पर नियंत्रण हुआ और न नक़ली मुद्रा का जखीरा पकड़ा गया। लेकिन, इससे देश के कुछ पूंजीपति घरानों की आय बेतहाशा बढ़ी है जब कि देश की आर्थिक स्थिति में इतनी अधिक गिरावट आयी क़ि हम, मंदी की स्थिति में पहुंच गए हैं। अनौपचारिक क्षेत्र और उद्योग तबाह हो गए। 2016 - 17 से लेकर 2020 तक जीडीपी गिरती रही। अब तो कोरोना ही आ गया है। 
● नोटबन्दी के बाद लागू होने वाली, जीएसटी की जटिल प्रक्रिया से व्यापार तबाह हो गया। पर उसकी प्रक्रियागत जटिलता को दूर करने का कोई प्रयास नही किया गया। 
● एक भी बड़ा शिक्षा संस्थान जिंसमे प्रतिभावान पर विपन्न तबके के बच्चे पढ़ सकें नहीं बना। इसके विपरीत सरकारी शिक्षा संस्थानों में फीस और बढ़ा दी गयी। यदि भविष्य में यही शिक्षा संस्थान अगर कॉरपोरेट को मय ज़मीनों के सौंपने का निर्णय सरकार कर ले तो, इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
● निजी अस्पताल, कोरोना में अनाप शनाप फीस वसूलते रहे। सरकार ने उन पर केवल कोरोना से पीड़ित लोगों के लिये फीस की दरें कम करने के लिये महामारी एक्ट में कोई प्राविधान क्यों नहीं बनाया ? लोगो ने लाखों रुपए फीस के देकर या तो इलाज कराये हैं या उनके परिजन अस्पताल में ही मर गए हैं। 
● यह कानून देश की खेती को ही नही दुनिया की सबसे बेमिसाल, कृषि और ग्रामीण संस्कृति के लिये एक बहुत बड़ा आघात होगा। यह मेरी राय है। आप की राय अलग हो सकती है। 

आज़ादी के बाद कृषि को प्राथमिकता दी गयी। भूमि सुधार कार्यक्रम लागू हुए। बड़ी बड़ी सिंचाई परियोजनाएं लागू की गई। नहर, ट्यूबवेल, आदि का संजाल बिछाया गया। किसानो को जाग्रत करने के लिये कृषि शिक्षा के कार्यक्रम चलाए गए। कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विज्ञान केंद्रों की जगह जगह स्थापना की गयी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर की स्थापना के साथ अलग अलग फसलों पर शोध करने और उन्हें किसानों तक पहुंचाने के लिये शोध संस्थान बनाये गए। 1966 में भारत को जिस अन्न के अभाव से गुजरना पड़ा था, उसे देखते हुए हरित क्रांति की शुरुआत की गयी। दुग्ध उत्पादन के लिये हुये श्वेत क्रांति ने डेयरी उद्योग की तस्वीर बदल दी। 

इसका लाभ भी हुआ कि देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। पर खेती के प्रति सरकारी नीतियों की जो प्राथमिकता थी, वह 1991 के बाद आर्थिक सुधार के युग मे, धीरे धीरे कम होती गयी।औद्योगिकरण, उन सुधारों के केंद्र में आ गए। मुक्त व्यापार और खुलेपन ने देश का विकास तो किया, लोगों को नौकरियां भी मिली, रहन सहन में गुणात्मक बदलाव आया, और देश की आर्थिक तरक़्की भी हुयी, लेकिन इससे एक कॉरपोरेट वर्ग का उदय हुआ जो खेती किसानी को उतनी प्राथमिकता नहीं देता था, जो पहले मिल रही थी। इसका असर सरकारोँ पर भी पड़ा। जनप्रतिनिधिगण भले ही 'मैं किसान का बेटा हूँ" कह कर गर्व की अनुभूति कर लें, पर वे, कृषि के अमेरिकी मॉडल के पक्षधर बने रहे। 

आज जो कानून लाये गए हैं, यह वर्ल्ड बैंक का1998 से लंबित प्रेस्क्रिप्शन है। वर्ल्ड बैंक खेती कॉरपोरेटीकरण के पक्ष में है। वह एक ऐसा मॉडल हमारी सरकार को डिक्टेट कर लाना चाहता है जिससे खेती का स्वरूप बदल जाए और कंपनियां, मशीनों पर आधारित, एकड़ो के फार्म में, पूरे नियंत्रण के साथ खेती करें और भूमि स्वामी उसी जमीन या उन्ही कॉरपोरेट के उद्योगों में एक वेतनभोगी मज़दूर बन कर रह जाय औऱ शोषण के अंतहीन जाल में फंस जाय। आज भी किसान का अच्छा पहनना, अच्छा खाना, और समृद्धि के साथ जीना कुछ को नागवार लगता है। वे उन्हें गोदान के होरी के रूप में ही देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं। 

जब नोटबन्दी, जीएसटी और लॉक डाउन कुप्रबंधन के असर, देश की अर्थव्यवस्था पर पड़े तो, वह कृषि ही थी, जिसने हमारी आर्थिकी को कुछ हद तक संभाला है। किसानों के सामने, बीज, खाद, सिंचाई और उपज बेचने की समस्या पर सरकार को विचार करना चाहिए और फसल चक्र तथा वैज्ञानिक रीति से फसलों के उत्पादन पर जोर देना चाहिए, न कि थोड़ी बहुत जो सुविधा पहले की सरकारों ने दे रखी है उसी को खत्म करने के पूंजीपतियों के षड़यंत्र में भागीदारी करे । अक्सर कहा जाता है कि खेती पर सब्सिडी कम की जाय। धीरे धीरे यह सब्सिडी कम होती भी गयी। खाद, डीजल, और उपकरणों पर मिलने वाली सुविधाओं को कम किया गया और अब निजी क्षेत्रों को सरकारी खरीद की प्रतिद्वंद्विता में लाकर खड़ा कर दिया गया है। 

कॉरपोरेट को सरकार के हर आर्थिक कदम की खबर पहले ही मिल जाती है। इस कदम के पहले ही कॉरपोरेट ने अनाज भंडारण क्षेत्र में अपनी दखल देना शुरू कर दिया । अब सरकारी खरीद तंत्र जब कमज़ोर और कुप्रबंधन से भरा रहेगा तो, निजी मण्डिया तो फसल खरीदने को स्वाभाविक रूप से आगे आएंगी ही। तब किसान, मजबूरी में जो भी भाव मिलेगा, उसी पर बेच कर निकलना चाहेगा। इसे आप शिकार के हांके की तरह से समझ सकते है। सरकारी तंत्र को कुप्रबन्धित होने दिया जाय और इसी बहाने निजी क्षेत्र अपनी दखलंदाजी बढ़ाएं और जब उनका प्रभाव जम जाय तो, वे एकाधिकारवादी रवैय्या अपनाने लगे। और सरकार, इस खेल में कॉरपोरेट के प्रति एक उत्प्रेरक या हांका लगाने वाले के रूप में सामने आए। 

आज इसीलिए, इन क़ानूनों में एमएसपी से कम मूल्य पर फसल खरीद को दंडनीय अपराध के प्राविधान को सम्मिलित करने की मांग किसान संगठन कर रहे हैं। सरकार यह तो कह रही है कि एमएसपी खत्म नहीं होगी, पर यदि यह कानून में शामिल नही हुआ तो इसे सुनिश्चित कैसे किया जाएगा ? इसी तरह कांट्रेक्ट फार्मिंग में आपसी विवाद पर न्यायालय में जाने का कोई प्राविधान रखा ही नही गया है। ऐसा विवाद, एसडीएम, और डीएम देखेंगे या फिर सरकार के सचिव। यह प्राविधान तो व्यक्ति के न्यायालय जाने के मूल अधिकारों के ही खिलाफ है। इसमे भी कॉरपोरेट को ही लाभ मिलेगा। कुल मिलाकर कृषि सुधार के नाम पर लाये गये इन तीनों कानूनों का उद्देश्य है, किसानों को हतोत्साहित कर उन्हें खेती से विमुख कर देना और कृषि व्यवस्था का कॉरपोरेटीकरण कर देना। 

अब 3 दिसम्बर को सरकार और किसान संगठनों के बीच वार्ता प्रस्तावित है, उसका क्या परिणाम रहता है, यह तो बाद में ही बताया जा सकता है। पर सरकार को चाहिए कि वह वर्ल्ड बैंक और अमेरिकी मॉडल पर देश के कृषि सेक्टर को न चलाये, अन्यथा इसका असर, न केवल कृषि पड़ेगा, बल्कि इसके घातक परिणाम देश की आर्थिकि को भुगतने पड़ेंगे। आज भी अगर मानसून कमज़ोर या विलंबित होने लगता है तो वित्त मंत्रालय में दुश्चिंता के बादल छा जाते है। यह एक उचित अवसर है जब किसान संगठन और सरकार एक दूसरे से आमने सामने बैठ कर अपनी समस्याओं के बारे में हल ढूंढ सकते हैं। पर सरकार को एक लोककल्याणकारी सरकार हैसियत से सोचना पड़ेगा, न कि कॉरपोरेट हितचिंतक के रूप में।

( विजय शंकर सिंह )

Friday 27 November 2020

अर्थचर्चा - क्या आर्थिक स्थिति और खराब होगी ?

28/05/2019 को मोदी के चुनाव जीतने के बाद इस पोस्ट को लिखा था..तब कोरोना का नाम भी विश्व मे किसी को पता नही था..जरा पढ़ कर बताइए कि सही लिखा था या गलत?
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2016 से लिखा - भारत के 50 इकोनॉमिक इंडिकेटर तबाही की ओर है..2019 तक तबाह हो गए..आज उन्ही में से 15 इंडिकेटर का 2024 तक का भविष्य पढिये..

● जीडीपी नही बढ़ेगी, कॉर्पोरेट टैक्स घटेगा
● कंसम्पशन जीडीपी का 6% है..और घटेगा
● कंसम्पशन घटेगा तो निवेश घटेगा
● निवेश घटेगा तो फिस्कल डेफिसिट बढ़ेगा
● नौकरिया अगले 5 साल भी गायब रहेंगी
● प्राइवेट निवेश घटेगा, FDI घटेगी
● डोमेस्टिक सेविंग्स और नीचे जाएगी
● इंफ्रास्ट्रक्चर पर रियल खर्च घटेगा
● देशी और विदेशी कर्ज बढ़ेगा
● एक्सपोर्ट और गिरेगा, इम्पोर्ट बढ़ेगा
● पेट्रोल डीजल गैस काबू के बाहर होगा
● व्याज दर घटेगी पर कोई फायदा नही होगा
● विमान और रेल यात्रा भी घटेगी 
● ग्रामीण इकॉनमी तबाह हो जाएगी
● किसानो की आय 2022 तक दुगनी नही होगी

इनमें से कई इंडिकेटर केवल 2014 ही नही 1990 के नीचे जा चुके है..इन सारे इंडिकेटर को आप आज से हर तिमाही पर चेक कर सकते है..
#krishiyer
#vss

Thursday 26 November 2020

शब्दवेध (29) नासिका ध्वनि

मनुष्य का दूसरा अंग जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है, नासिका है।  इससे सोते जागते और श्वास नली की अवस्था के अनुसार कई तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं।  सस, सन, नस, नक सामान्य श्वसन के पुराने वाचिक अनुकार प्रतीत होते हैं जिनसे नासा, नासिका, नाक O.E.nosu, E. nose, Swedish nos,  L.nāsus, Lith. nosis, और दूसरी यूरोपीय भाषाओं के इनसे मिलते-जुलते   naso, nes, nase, आदि शब्द निकले हैं। साँस लेने की सामान्य क्रिया के लिए शब्द कुछ बाद में गढ़े गए साँस <>श्वास, साँस लेने की क्रिया ससन> श्वसन।  स्वन - ध्वनि, आवाज. E. sono-, sone- unit of sound, sound, sonic, sonorous आदि की व्युत्पत्ति इसी से हुई है।  सं. श्वान - आवाज करने वाला जानवर । अंग्रेजी में श्वन का प्रतिरूप  sound हुआ तो कुत्ते का, विशेषतः शिकारी कुत्ते का इसी के अनुरूप हाउंड hound हो गया।  इसका हाउंड <>हुंड  भोजपुरी में भेड़िये के लिए प्रयुक्त हुँड़ार की याद दिलाता है। क्या आवाज या ऊँची आवाज के लिए कभी हुंड का प्रयोग होता था जिससे हुंडकार> ‘हुंकार’, हूयते>हवन, (आ-)ह्वान आदि निकले हैं ?

हुंकार वन्य अवस्था में किसी व्यक्ति के भटक जाने पर उसे दिशा और स्थिति का अनुमान कराने के लिए पुकार का अवशेष है जिसमें ऊँचाई के कारण गर्जना का भाव था इसलिए इसने आक्रमण से पहले समवेत रणनाद का रूप ले लिया, पर प्राथमिक आशय अदृश्य और अनुपस्थित को बुलाने का था और यही आशय हुंड > हवन, ह्वान, और इसके प्रतिरूप *पुंड-कार - पुकार का भी रहा हो सकता है जिससे सबसे ऊँची आवाज करने वाले शंख को पौंड्र (पौंड्रं दध्मौ प्रतापवान) संज्ञा हुई। 

हुंडकार> हुंकार के दो पक्ष थे। एक आह्वान करने वाले का  और दूसरा यदि भटके हुआ व्यक्ति श्रव्य दायरे में हुआ और उसने उसे सुन लिया तो उसे भी प्रतिनाद से उसकी पुष्टि करनी होती थी।  

मैं नहीं जानता कितने देशों में  साहित्यानुराग के वे रूप पाए जाते हैं,  मेरी जानकारी के नृतत्वविदों ने इस पर प्रकाश नहीं डाला है, जिनमें कालयापन के लिए पुरातन घटनाओं के जैसे भी विवरण उन तक पहुँचे होते थे उनके कथन, गायन, और सोने से पहले कहानी सुनने-सुनाने का चलन रहा हो, पर भारत में यह था। कहानी सुनाने वाले के प्रत्युत्तर में सुनने वाले को हुँकारी भरनी होती थी। यह इस बात को सुनिश्चित करता था कि कहानी सुनने वाला ध्यान से सुन रहा है। अभी जगा हुआ है। यह हुँकारी ही हाँ की जननी है। इस हाँ के विरोधी अर्थ थे। एक से हम परिचित हैं, दूसरा किसी संभावित दुर्घटना को रोकने के लिए वर्जनापरक आशय था।  बोलियों में आज भी इसका  प्रयोग होता है, ‘हाँ हाँ, ऐसा मत करो।’  पक्ष और विपक्ष दोनों का भाव उसी शब्द में आने का यही कारण लगता है। जो भी हो हुंड, हुंकार, हुँकारी और हाँ सजात शब्द हैं यह मानना निरापद है।      

हुंड में वही दोहरा भाव है, सुदूर स्थित अदृश्य स्वजन का आह्वान और उसे सुनने का सत्यापन।  प्राचीन भारतीय बैंक प्रणाली में प्रचलित हुंडी का हमें दूसरा कोई स्रोत दिखाई नहीं देता।  इतना ही नहीं, यदि स्वर-व्यंजन-विन्यास पर ध्यान दें तो हुंड, गुंड, घुंड, रुंड, सुंड, भुंड  और इनके अवर आशय के हुंडी, गुंडी, घुंडी, *रुंडी, सुंडी, भुंडी,  तथा हंड गंड, घंड, रंड, संड, भंड  -एक ही भाषाई स्तर से आए हुए शब्द हैं जिनमें से कुछ को ही संस्कृत में स्थान मिल पाया था।  कारण संस्कृत को एक स्वल्पजनसाध्य या कूट भाषा में बदल कर उस खुलेपन का निषेध कर दिया गया जो सामान्य व्यवहार की भाषा में होता है।  इन दो कारणों से - एक तो जैसा हम पीछे (25) में स्पष्ट कर आए हैं भाषा की समग्र संपदा बहुत विशद होती है और उसके समूचे साहित्य में उसका एक क्षुद्र अंश ही आ पाता है, और दूसरे पाणिनीय संस्कृत के बाद ब्राह्मणों तक सीमित, क्लिष्ट और संहित पदों से अधिकाधिक कठिन बनते जाने के कारण संकुचित संचार की भाषा बन कर अपनी उस बोली से भी अधिक विपन्न भाषा बन कर रह गई जिससे इसका विकास हुआ था और इस विपन्नता को वह पुरानी पूंजी के बीच जोड़-तोड़ करके यांत्रिक रीति से पूरी करती रही। 

हम अर्थ विकास के साथ सांस्कृतिक विकास को भी लेना चाहें तो विवेचन संगत होते हुए भी सँभाल से बाहर चला जाएगा, इसलिए उससे बच कर चलना एक बाध्यता है। परंतु कभीकदा इसका प्रलोभन भारी पड़ता है। भटक कर दूर चले गए जत्थे के सदस्य को बुलाने के लिए किए जाने वाले हुंडकार/ हुंकार या पुकार को वह सुन लेता था तो प्रतिनाद करता था, परन्तु यदि वह भटक कर श्रव्य सीमा से दूर चला गया हो और उसका जवाब न मिले तब संकेत के लिए आग जला कर धुँआ पैदा किया जाता था जिसे देख कर वह सही दिशा और दूरी का अनुमान कर सकता था।  बाद में कृषिकर्म से विरत होने पर भी भू संपदा पर अधिकार जताने वाले उसके कर्मकांडीय आयोजन यज्ञ में देवों को बुलाने के लिए हवन या आह्वान के लिए उच्चस्वर से पाठ के साथ अग्नि से अधिकाधिक धूम पैदा करके उन्हें बुलाने के विधान में इसी की प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति थी - 
आदिन्वसि वनिनो धूमकेतुनाऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ।। 1.94.10 
घृतेन त्वा अवर्धयन् अग्न आहुत धूमस्ते केतुः अभवद् दिवि श्रितः ।। 5.11.3

विकास की दृष्टि से इन दोनों चरणों में हजारों साल का अंतर है परंतु ज्ञान परंपरा में ये दूरियाँ मिट जाती हैं। इतना ही नहीं इनका विस्तार भी होता है।  समुद्र में स्थल से दूर और दिशाबोध खो बैठने की दशा में भारतीय नाविकों ने निकटतम स्थल का पता लगाने के लिए कौवे को छोड़ने और उसके किसी दिशा में उड़ जाने को नौवहन में मार्गदर्शक के रूप में प्रयोग किया। कौवा पालतू होने के कारण अपने स्वामी के घर पर आ बैठता और उछल कूद करता था जिससे  दूर गए प्रियजनों की वापसी का सूचक सगुन विचार का संबंध है। इसका बहुत जीवंत चित्रण ऋग्वेद के दो सूक्तों में है
कनिक्रदज्जनुषं प्रब्रुवाण इयर्ति वाचमरितेव नावम् ।
सुमंगलश्च शकुने भवासि मा त्वा का चिदभिभा विश्व्या विदत्  ।। 2.42.1
अव क्रन्द दक्षिणतो गृहाणां सुमंगलो भद्रवादी शकुन्ते । …
आवदन्स्त्वं शकुने भद्रमा वद तूष्णीमासीनः सुमतिं चिकिद्धि नः ।
यदुत्पतन् वदसि कर्करिर्यथा बृहद्वदेम विदथे सुवीरा ।। 2.43.3

परंतु यदि कौए को चक्कर लगाने के बाद किसी दिशा में किनारा दिखाई नहीं देता था, वह जहाज पर वापस लौट आता था, तो स्वजनों को अपने संकट की सूचना देने के लिए वे कबूतर को छोड़ते, क्योंकि इसकी उड़ान बहुत लंबी होती है। कबूतर के पहुँचने और आवाज करने को इसीलिए आपदा का सूचक माना जाता था। इसका भी ऐसा ही हवाला ऋग्वेद में आया है:

देवाः कपोत इषितो यदिच्छन्दूतो निऋर्त्या इदमाजगाम ।
तस्मा अर्चाम कृणवाम निष्कृतिं शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ।। 10.165.1

संभवतः इसके पीछे यह भावना भी रही हो कि कुछ प्रतीक्षा के बाद यदि वे न लौटें तो उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाय।  

जिस ध्वनि शब्द का हम लगातार प्रयोग करते आ रहे हैं उसका संबंध भी श्वन से ही है साथ ही स्वर का भी जनक यही है।

एक विचित्र बात यह कि तमिऴ में मूक्कु का अर्थ नाक है और नाक्कु का अर्थ जिह्ना, कुत्ते के लिए नाय् का प्रयोग होता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (28) भाषा का विकास और परिवेश

पहले  यह निवेदन कर आए हैं भाषा के विकास में  जल की भूमिका सबसे प्रधान है।    यह  अधूरा कथन है।   पूरा सच यह है  कि   जल से  कम भूमिका  वायु की नहीं है।    यह प्राकृतिक परिवेश पर निर्भर करता है। जिन  भूभागों में  वर्षा नहीं होती  अथवा  नाम मात्र होती है  नैसर्गिक ध्वनियों का परिवेश  जल की विविध  क्रियाओं  से उत्पन्न नाद की भूमिका  नगण्य होगी, वहाँ तो वायु की  विविध गतियों से उत्पन्न ध्वनियों का  बाहुल्य होगा  और इसके विपरीत  जहां केवल हिमपात होगा वहां हिम  और वायु की विविध गतियों से गिरने या प्रवाहित होने से  उत्पन्न ध्वनियों की  भूमिका प्रधान होगी। 

इसलिए जब हम  जल को   वाणी की जन्मस्थली ( (मम योनिः अस्ति अन्तः समुद्रे) की बात करते हैं तो यह केवल उन्हीं बोलियों और भाषाओं पर लागू होता है जिनका उद्भव और विकास  आर्द्रता बहुल  भूभाग में हुआ है।

बोली के लिए प्रयोग में आने वाले  ऐसे शब्दों की कमी नहीं है जो  जल की क्रियाओं से उत्पन्न ध्वनि के अनुकरण पर निर्भर हैं।  बदबदाना,  बुदबुदाना,  भदभदाना उबलते हुए पानी, या तरल खाद्य के उबलने से अधिक स्पष्ट रूप में सुना जाता है, और अस्फुट ओष्ठ चालन से उत्पन्न ध्वनि से इसका काल्पनिक साम्य मान कर अस्पष्ट भाषण और फिर स्पष्ट कथन - वदति (1. बजता है, (>वाद्य यंत्र), 2. कहता है, (वाद, वादी, विवाद, संवाद), वंदति (गाते या बजाते हुए कीर्तिगान, स्तुति) , वदंत/ वदन्ती  > भदंत, भंते)। इसकी तुलना बंध> से करने पर हम पाते हैं कि पहली शृंखला इसकी तुलना मे कमजोर है और इसलिए त्याज्य हो सकती है, परन्तु भाषा में अनेक वार दो शब्दोंं के उच्चारण की समीपता के कारण अर्थ की छाया भी क्रियाशील होती है, इसका भी ध्यान रखना होगा । 

खौलना, क्षोभ, भो. खभिलाना - आकुल होकर शोक  निवेदन या एकान्त आत्मविलाप का पारस्परिक संबंध अधिक स्पष्ट है। परंतु ऐसे दुखी व्यक्ति के प्रति स्नेह प्रदर्शन के लिए छोहाइल (छोहाना) के पीछे शोभन+खभिलाना की साझी भूमिका हो सकती है। 

ओटो श्रेडर (Otto Schrader 1883, [Language comparison and ancient history. Linguistic-historical contributions to the investigation of Indo-European antiquity.] (1st ed. Jena: Costenoble), ने पहली बार उस परिवेश का निर्धारण करने से लिए विविध भारोपीय भाषाओं की सांस्कृतिक शब्दावली का संग्रह किया था और उसमें वह जिन निष्कर्षों पर पहुँचे थे उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं :
● मूल निवास में साल के कुछ महीनों में बहुत अधिक बरसात होती थी;
साल के कुछ महीनों में प्रचंड गर्मी पड़ती थी;
● वे नौचालन से पूरी तरह परिचित थे;
● वे करघे से सूती (लिनन) और ऊनी वस्त्र बुनना जानते थे। 
● ऊनी वस्त्र करघे से नहीं गूँथ और कूट कर बनाते थे।
हम उनके द्वारा गिनाई गई दूसरी विशेषताओं को छोड़ सकते हैं परन्तु पूरे भारोपीय क्षेत्र में भारत को छोड़ कर दूसरा कोई भूभाग नहीं था जो इन अपेक्षाओं की पूर्ति कर सके।  इसके बाद भी उन्होंने संभावित क्षेत्र बाल्टिक प्रदेश को माना क्योंकि जर्मन विद्वान कितना भी बड़ा धुरन्धर हो वह जर्मन पूर्वाग्रहों से बाहर निकल ही नहीं सकता था।

हम यहाँ मूल-निवास की चर्चा नहीं कर रहे हैं।  उसका समाधान हो चुका है।  इसकी याद इस लिए आई कि प्राणघाती लू और तृषार्तता का भी हमारी शब्द रचना में प्रभावी भूमिका है, इसकी अनद्खी नहीं की जानी  चाहिए।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

Wednesday 25 November 2020

किसानों के मन की बात भी तो सुनिये, सरकार ? / विजय शंकर सिंह

यूं ही हमेशा उलझती रही है, 
ज़ुल्म से खल्क,
न उनकी रस्म नयी है, 
न अपनी रीत नयी, 
यू ही हमेशा, खिलाये हैं हमने 
आग में फूल,
न उनकी हार नयी है, 
न अपनी जीत नयी !!
मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की यह कालजयी पंक्तियां, आज भी प्रासंगिक हैं और कभी भी कालबाधित नहीं होंगी।

किसानों का एक मार्च कुछ सालों पहले मुंबई में भी हुआ था। नासिक से पैदल चल कर किसानों का हुजूम अपनी बात कहने मुम्बई शहर में गया था। सरकार तब भाजपा शिवसेना की थी। मुख्यमंत्री थे देवेंद्र फडणवीस। जब यह मार्च शांतिपूर्ण तरह से अपनी बात कहने के लिये मुम्बई की सीमा में पहुंचा तो मुम्बई ने उनका स्वागत किया। उन्हें खाना पीना उपलब्ध कराए। उन्हें देशद्रोही नही कहा। उनकी बात सुनी। कुछ न कुछ उन बातों पर गौर करने के आश्वासन दिए। यह बात अलग है कि जब तक यह हुजूम रहा, सरकार आश्वासन देती रही। हम सबने पैदल चले हुए कटे फटे तलवो की फ़ोटो देखी थी। यह आंदोलन किसी कृषि कानून के खिलाफ नही था। यह आंदोलन था, किसानों की अनेक समस्याओं के बारे में, जिसमे, एमएसपी की बात थी, बिचौलियों से मुक्ति की बात थी, बिजली की बात थी, किसानों को दिए गए ऋण माफी की बात थी और बात थी, फसल बीमा में व्याप्त विसंगतियों की। 

सरकार ने उन समस्याओं के बारे में बहुत कुछ नही किया, वचनं कि दरिद्रता ! कुछ कहा तो ! कुछ सुना तो ! पर आज जब तीनो कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर के किसान लामबंद हैं तो कहा जा रहा है कि वे भटकाये हुए लोग है। भड़काया गया है उन्हें। कुछ खालिस्तानी भी उन्हें कह रहे हैं। कुछ तो देशद्रोही के खिताब से भी नवाज़ रहे हैं। सरकार एक तरफ तो कह रही है कि यह सभी कृषि कानून सरकार ने, किसानों के हित के लिये लागू किये हैं, पर इनसे किस प्रकार से किसानों का हित होगा, यह आज तक वह बता नहीं पा रही है। सरकारी खरीद कम करते जाने, मंडी में कॉरपोरेट को घुसपैठ करा देने, जमाखोरों को जमाखोरी की छूट दे देने, बिजली सेक्टर में जनविरोधी कानून बना देने से, किसानों का कौन सा हित होगा, कम से कम यही सरकार बना दे ! 

आज जब किसानों के जत्थे दर जत्थे, दिल्ली सरकार को अपनी बात सुनाने के लिये शांतिपूर्ण ढंग से जा रहे हैं तो, उन को बैरिकेडिंग लगा कर रोका जा रहा है, पानी की तोपें चलाई जा रही है, सड़के बंद कर दी जा रही है, और सरकार न तो उनकी बात सुन रही है और न सुना रही है। छह साल से लगातार मन की बात सुनाने वाली सरकार,  कम से कम एक बार किसानों, मजदूरों, बेरोजगार युवाओं, और शोषित वंचितों की तो बात सुने। सरकार अपनी भी मुश्किलें बताएं, उनकी भी दिक्कतें समझे, और एक राह तो निकाले। पर यहां तो एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि, जो अपनी बात कहने के लिये खड़ा होगा, उसे देशद्रोही कहा जायेगा। अगर यही स्थिति रही तो सरकार की नज़र मे, लगभग सभी मुखर नागरिक, देशद्रोही ही समझ लिए जाएंगे। 

( विजय शंकर सिंह )

अशोक कुमार पांडेय की एक टिप्पणी - आर एस एस और संविधान

कुछ उद्धरण
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--‘जो लोग क़िस्मत से सत्ता में आ गये हैं वे हो सकता है कि हमारे हाथों में तिरंगा झण्डा थमा दें लेकिन हिन्दू कभी उसे स्वीकार या सम्मानित नहीं करेंगे। यह तीन का अंक अपने आप में ही अशुभ है, और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों वह निश्चय ही देश के लिये बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करेगा और देश के लिये हानिकारक होगा।|

(आरएसएस के मुखपत्र आर्गेनाइजर, अंक 3 में छपे लेख "भगवा ध्वज का रहस्य" से.)

--हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिये एक नया ध्वज स्थापित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ़ नक़ल और भटकाव का एक उदाहरण है। हम एक प्राचीन और गौरवशाली देश हैं जिसका एक शानदार अतीत है। फिर, क्या हमारे पास अपना कोई ध्वज नहीं है? क्या इन हज़ारों सालों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं है? बेशक़ है। फिर क्यों हमारे दिमागों में ऐसी जड़ता और शून्य पूरी तरह से भरे हुए हैं? 

(आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवरकर की पुस्तक ‘बंच आफ़ थाट्स’ से, पेज़-237-238, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर- 1996)

--‘संविधान बनाते समय हमारे ‘स्व’ और हिन्दू होने को भुला दिया गया। इस जोड़ने वाली आत्मा की अनुपस्थिति में एक ऐसा संविधान बनाया गया है जो बिखराव ले आयेगा…हमें सरकार के एक ऐसे इकाई वाले रूप को स्वीकार करना होगा जिसमें एक देश, एक राष्ट्र और एक राज्य हो…जिसमें पूरे देश के लिये एक विधानसभा और एक ही मंत्रालय हो।

(गोलवलकर की किताब ‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन’,(संपादित) खण्ड-1, पेज़-144, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर 1996 से) 

--‘सरकार का वर्तमान संघीय रूप अलगाववाद को न केवल जन्म देता है बल्कि उसे बढ़ावा भी देता है, एक तरह से यह एक राष्ट्र के तथ्य को मान्यता देने से इंकार करता है और इसे नष्ट करता है। इसे पूरी तरह से ख़त्म किया जाना चाहिये, संविधान को साफ़ किया जाना चाहिये और एकात्मक प्रकार की सरकार स्थापित की जानी चाहिये।’

(एम एस गोलवलकर की किताब ‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन’,(संपादित) खण्ड-1, पेज़-104, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर 1996 से)

--‘इसके बावज़ूद कि पिछले दिनों डा अम्बेडकर के बम्बई में यह कहने की ख़बर है कि मनु के दिन अब लद गये, यह एक तथ्य है कि आज भी हिन्दुओं का दैनिक जीवन मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों के सिद्धांतों और आदेशों से प्रभावित होता है। यहां तक कि एक उदार हिन्दू भी कुछ मामलों में ख़ुद को स्मृतियों में अन्तर्निहित नियमों से बंधा हुआ पाता है और उनसे अपने जुड़ाव को पूरी तरह त्याग देने पर शक्तिहीन महसूस करता है।’

( 6 फरवरी, 1950 के आर्गेनाइज़र में पेज़ 7 पर ‘मनु रूल्स आवर हर्ट्स’ से)

--(आरक्षण लागू करके) शासक हिन्दू सामाजिक समरसता की जड़ें खोद रहे हैं और उस अस्मिता की चेतना को नष्ट कर रहे हैं जिसने अतीत में इन विभिन्न संप्रदायों को एक सद्भावपूर्ण स्थिति में एक संपूर्ण इकाई की तरह रखा था।

(गोलवलकर, एन एन गुप्ता की किताब ‘आर एस एस एन्ड डेमोक्रेसी’ से उद्धृत, पेज़ – 17, प्रकाशक – सांप्रदायिकता विरोधी समिति, दिल्ली)

- ‘डा अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिये विशेषाधिकारों का प्रावधान 1950 में हमारे गणराज्य बनने के दिन से सिर्फ़ दस वर्षों की अवधि के लिए किया था। लेकिन अब 1973 आ गया है। यह लगातार बढ़ाया जा रहा है। हम केवल जाति के आधार पर ज़ारी विशेषाधिकारों के ख़िलाफ़ हैं क्योंकि यह उनमें पृथक अस्तित्व बनाये रखने का स्वार्थभाव पैदा करेगा। यह शेष समाज से उनकी अखण्डता को नुक्सान पहुंचायेगा।

(एम एस गोलवलकर, स्पाटलाइट्स , पृष्ठ- 116, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, 1974 से)

अभी के लिए इतना ही....
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( विजय शंकर सिंह )

किसानों का यह आंदोलन क्या बदलाव की एक नयी इबारत लिख पायेगा ? / विजय शंकर सिंह

2014 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रबल झंझावात के बल पर भाजपा/ एनडीए की सरकार बनी थी। उम्मीदे भी थी, और गुजरात मॉडल का मायाजाल भी। नरेंद्र मोदी की क्षमता पर ज़रूरत से ज्यादा लोगों को भरोसा भी था। कांग्रेस का दस वर्षीय कार्यकाल खत्म हो रहा था। सबसे अधिक उम्मीद थी कि 2014 में जो वादे सरकार ने अपने संकल्प पत्र में जनता से किये थे, वे पूरे किए जाएंगे। पर वे वादे, वादे करने वाले तो भूल ही गए, उन्होंने उन्हें जुमला तक कह दिया और जिन्हें वादे याद दिलाने चाहिए थे, उन्हें धर्म की अफीम चटा दी गयी, और वे उसी पिनक में तब से पड़े हैं। जब ज़रा होश आता है, एक डोज और धर्म और धर्म से जुड़े बेमतलब के मुद्दों की अफीम पुनः चटा दी जाती है, और जनता एक नीम बेहोशी में पुनः पड़ जाती है। इतने मुर्दा, होशफाख्ता और हवासगुम तो लोग देश के इतिहास में कभी रहे भी हैं या नही, इस पर लिखना एक रोचक विषय होगा। पर देश मे कभी कभी ऐसे दौर भी आते हैं। 

आज अगर देश के आर्थिक स्थिति की बात करें तो देश के हर आर्थिक सूचकांक में निराशा भरी गिरावट दर्ज है और सांख्यिकी के नीरस और उबाऊ आंकड़ो को दरकिनार कर के अपने आस पास नज़र दौड़ाए तो, चाहे वह युवाओं की बेरोजगारी का मसला हो, या सामान्य आवश्यकताओं की चीज़ों की महंगाई का, हर तरफ लोग परेशान है और इसका हल ढूंढने के लिये सरकार की ओर देख रहे है। सरकार की आर्थिक नीति है क्या यह शायद सरकार को भी पता न हो। इसीलिए जब कोरोना महामारी ने दस्तक देना शुरू किया तो वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने मार्च में कहा था कि, इसका कोई असर देश की अर्थव्यवस्था पर नहीं पड़ेगा। जब कि देश की अर्थव्यवस्था पर असर तो सरकार का अब तक का सबसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय, नोटबन्दी के समय से ही पड़ चुका था और नोटबन्दी के बाद, आज तक देश के विकास दर में जो गिरावट आना शुरू हुयी है वह अब तक बरकरार है। कोरोना ने गिरने की गति को और तेज ही कर दिया है। 

नोटबन्दी ने छोटे और मध्यम बाजार, अनौपचारिक क्षेत्र की आर्थिकी, ग्रामीण क्षेत्र की छोटी छोटी बचतों वाली अर्थव्यवस्था को तो बर्बाद किया ही, देश मे बेरोजगारी की दर में अप्रत्याशित बढोत्तरी भी कर दी। अब स्थिति यह हो गयी है कि अर्थव्यवस्था बेपटरी है और इसे कैसे वापस पटरी पर लाया जाए। यह क्षमता न तो सरकार में है और न सरकार इस पर कुछ सोच रही है। छोटे कारोबारियों का भट्टा बैठाने के बाद, सरकार ने किसानों को बर्बाद करने के लिये तीन नए कृषि कानून बनाये, जिसके विरोध में देश भर के किसान लामबंद हो गए हैं। किसानों को उपज के उचित मूल्य पर सरकार का कोई लिखित या कानूनी वादा नहीं है, जमाखोरी पर कानून खत्म कर उसे एक प्रकार से मान्यता दे दी गयी है, और किसानों के इस असंतोष पर किसानों से सरकार कोई बात तक करने को तैयार नही है। 

नोटबन्दी से व्यापार चौपट हुआ, अनौपचारिक क्षेत्र धराशायी हो गया, तीन कृषिकानून से देश भर के किसान बेहाल और आंदोलित हैं ही कि अब नए श्रम कानून लाने की बात होने लगी। नए श्रम कानूनों में एक शातिर बदलाव है, काम के घण्टो में कमी। आठ घँटे की अवधि के लिये दुनियाभर के श्रमिकों ने बेमिसाल संघर्ष के बाद यह उपलब्धि प्राप्त की है जिसे यह सरकार बढ़ा कर 12 घँटे करने जा रही है। हालांकि एक दो दिन अतिरिक्त अवकाश की बात भी की जा रही है, पर यह आगे कितना कारगर होगा यह तो समय ही बताएगा। नौकरिया तो बुरी तरह से जा ही रही हैं और जो कुछ भी नौकरिया आगे मिलने वाली हैं उनका स्वरूप संविदा पर आधारित होने जा रहा है। नियमित नौकरिया, जिंसमे व्यक्ति निश्चिंतता से जीवन जी सके, अगर यही सरकार के नीतियों की भविष्य में दशा और दिशा रही तो, सपने की तरह हो जाएंगी। 

सब कुछ संविदा पर करने को आमादा इस सरकार की एक भी आर्थिक नीति स्पष्ट नहीं है। अगर सरकार किसी एक उद्देश्य पर 'बको ध्यान' मुद्रा में है तो वह है सरकारी उपक्रमो को औने पौने दाम पर, चंद निजी घरानों को बेच देना। बीपीसीएल के निजीकरण की कवायद इसका सबसे नवीनतम उदाहरण है। रेलवे को निजीकृत करने का काम चल ही रहा है, एयरपोर्ट तो अडानी ग्रुप को सौंपे जा चुके हैं, खनन, कोयला तो धीरे धीरे हस्तांतरित हो ही रहा है, नयी बिजली नीति में निजीकरण की बात काफी आगे बढ़ गई है। तकनीकी शिक्षा संस्थानों में फीस बेतहाशा बढ़ा दी गयी है, सरकारी अस्पताल भी निजीकृत किये जाने की योजना है। यह भी आशंका निर्मूल नहीं है कि,  लोककल्याणकारी राज्य की बात, और अनेकों अनुच्छेदों में फैला नीति निर्देशक तत्व बस अकादमिक बहस के मुद्दे ही बन कर न रह जांय। इन सबका बात बात में उल्लेख कर, संविधान की शपथ लेकर सत्तारूढ़ होने वाली सरकार के  पास लोककल्याणकारी राज्य के मूल कार्य शिक्षा और स्वास्थ्य भी नहीं बचेंगे, तो फिर सरकार करेगी क्या और किस तरह से जनता के प्रति जवाबदेह रहेगी ? 

26 नवम्बर से किसानों का दिल्ली चलो आंदोलन शुरू हो रहा है और देश के सभी महत्वपूर्ण उद्योग धंधे से जुड़े कामगारों की हड़ताल भी है। यह हड़ताल, एक प्रतिगामी शासन की उन प्रतिगामी नीतियों के खिलाफ है जो, देश को औपनिवेशिक राज में दुबारा पहुंचा सकते हैं। किसानों से यह वादा किया गया है, कि उनकी आय 2022 तक दुगुनी हो जाएगी। पर नए कृषिकानून से किसानों को यह ज्ञात हो गया है कि यह सब कानून केवल पूंजीपति घरानों को कृषि सेक्टर में घुसाने और देश की कृषि संस्कृति को बरबाद करने के उद्देश्य से लाया गया है। अगर यह कानून किसानों के हित मे है तो यह सब किस प्रकार से किसानों के हित मे है, यह बात सरकार सार्वजनिक रूप से किसानों और देश की जनता को बताती क्यों नही है ? 

भारत मे शोषण से मुक्ति पाने औऱ सम्मानजनक जीवन के लिये किसानों ने लम्बे समय तक अनेक महत्वपूर्ण आंदोलन किये हैं। ब्रिटिश राज में ज़मीदारी प्रथा थी और उस प्रथा को खत्म कर के किसानों को उनके द्वारा जोते जाने वाली ज़मीन का मालिक बनाने की सोच स्वाधीनता संग्राम के समय से ही कांग्रेस के नेताओ की थी। कांग्रेस के इस प्रगतिशील और समाजवादी सोच के कारण भी कुछ बड़े मुस्लिम जमीदार मुस्लिम लीग में शामिल हुए थे क्योंकि लीग और एमए जिन्ना के तत्कालीन एजेंडे में समाज की आर्थिक मुद्दों से जुड़ा कोई एजेंडा था ही नही। वे तो धर्म के ही आधार पर एक मुल्क पाने की ज़िद पाले बैठे थे, और उनकी यह ज़िद पूरी हुयी। इसलिए आज़ादी के बाद जहां भारत एक सुनियोजित आर्थिक एजेंडे पर आगे बढ़ा और वहीं पाकिस्तान इसी कवायद में उलझा रहा कि, कौन कैसा मुसलमान है। 

संविधान बनाते वक्त उसके निर्माताओं को जिन अहम मुद्दों से जूझना पड़ा, उनमें से एक भारत का सामंती सिस्टम था, जिसने स्वतंत्रता से पहले देश के सामाजिक ताने-बाने को बुरी तरह चोट पहुंचाई थी। उस वक्त जमीन का मालिकाना हक कुछ ही लोगों के पास था, जबकि बाकी लोगों की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थीं। इस असमानता को खत्म करने के लिए सरकार कई भूमि सुधार कानून लेकर आई, जिसमें प्रमुख रूप से एक महत्वपूर्ण कानून, जमींदारी उन्मूलन कानून 1950 भी था।सन 1947 में देश के आजाद होने के बाद जमींदारी उन्मूलन कानून, 1950 भारत सरकार का पहला प्रमुख कृषि सुधार कानून था। हालांकि जमींदारी सिस्टम के उन्मूलन की प्रक्रिया संविधान लागू होने से काफी पहले ही शुरू हो गई थी। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, मद्रास, असम और बॉम्बे 1949 में जमींदारी उन्मूलन बिल ले आए थे। इन राज्यों ने प्रारंभिक मॉडल के रूप में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन समिति (इसके अध्यक्ष गोविंद बल्लभ पंत थे) की रिपोर्ट का इस्तेमाल किया था। लेकिन जमींदारों का संगठन अदालत पहुंच गया और यह कहा गया कि ऐसा करना, उनके मूल अधिकारों का उल्लंघन है।
 
जब संविधान पारित हुआ, तब, संपत्ति का अधिकार संविधान के अनुच्छेद, 19 और 31 के तहत मौलिक अधिकारों में की सूची में सम्मिलित था। लेकिन पहले संशोधन के तहत साल 1951 में सरकार ने मौलिक अधिकारों की सूची में संपत्ति के अधिकार को आंशिक रूप से संशोधित कर दिया गया। जो संशोधन किए गए वे इस प्रकार के हैं, 
● सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को उन्नति के लिये विशेष उपबंध बनाने हेतु राज्यों को शक्तियाँ दी गई।
● कानून की रक्षा के लिये संपत्ति अधिग्रहण आदि की व्यवस्था।
● भमि सुधार तथा न्यायिक समीक्षा से जुड़े अन्य कानूनों को नौंवी अनुसूची में स्थान दिया गया।
● अनुच्छेद 31 में दो उपखंड 31(क) और 31 (ख) जोड़े गये।
इससे सरकार के भूमि सुधार कानूनों को फायदा पहुंचा। जमींदारी सिस्टम को खत्म करने में इसका बहुत बड़ा योगदान रहा। इस अधिनियम के मुख्य लाभार्थियों में अधिभोग या उच्च जोतदार थे, जिन्होंने जमींदारों से सीधे जमीन लीज पर ली और उसके आभासी मालिक बन बैठे। पूरे देश की राज्य सरकारों ने 1700 लाख हेक्टेयर्स भूमि का अधिग्रहण किया और जमींदारों को मुआवजे के तौर पर 670 करोड़ रुपये दिए गए । कुछ राज्यों ने फंड बना लिए और जमीन मालिकों को बॉन्ड दे दिए, जिन्हें 10-30 वर्षों बाद मुक्त कराया जा सकता था। 
 
चूंकि भूमि राज्य का विषय है, इसलिए ज्यादातर राज्यों ने जमींदारों को भूमि के एक हिस्से पर खेती करने और उसे अपने पास रखने की इजाजत दे दी। लेकिन जमींदारों ने इसका फायदा उठाया और भूमि पर खुद खेती करनी शुरू कर दी, ताकि राज्य सरकार उनसे जमीन वापस न मांग सकें। इसीलिए 1951 के संशोधन में, अनुच्छेद 31(क) , 31(ख) और नौंवा शेड्यूल संविधान में जोड़े गए, ताकि जमींदारों को कानूनी आड़ लेने से रोका जा सके।नौंवी अनुसूची में इसे सम्मिलित करने के बाद सरकार के कानूनों अदालत में, आसानी से चुनौती नहीं दी जा सकती थी। साथ ही राज्यों को कानून बनाने या किसी की संपत्ति या जमीन का अधिग्रहण करने का अधिकार भी मिल गया। जमींदारी उन्मूलन कानून ने बेगारी या बंधुआ मजदूरी को कानूनन अपराध के दायरे में ला खड़ा किया।

जब ज़मीदारी उन्मूलन और भूमि सुधार की बात की जाएगी तो देश के शीर्ष किसान नेता चौधरी चरण सिंह बरबस  याद आएंगे। किसानों के मसीहा के रूप में याद किये जाने वाले चरण सिंह ने कृषि सुधार और कृषक उत्थान के लिए बहुत काम किया। भूमि सुधार एवं जमींदारी उन्मूलन कानून गरीब किसानों को जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाकर उन्हें भूमिधर बनाने का एक क्रांतिकारी कदम था। जमींदारी प्रथा समाप्त हुई, शोषण से मुक्त हुए किसान भूमिधर बन गए। 1954 में योजना आयोग ने निर्देश दिया कि जिन जमींदारों के पास खुद काश्त के लिए जमीन नहीं है, उनको अपने आसामियों से 30 से 60 फीसदी भूमि लेने का अधिकार मान लिया जाए। चौधरी चरण सिंह के हस्तक्षेप से यह सुझाव उत्तर प्रदेश में नहीं माना गया लेकिन अन्य प्रदेशों मे यह प्राविधान लागू हुआ। इसके बाद 1956 में उत्तर प्रदेश सरकार ने, जमींदारी उन्मूलन एक्ट में यह संशोधन किया कि कोई भी वह किसान, भूमि से वंचित नहीं किया जा सकेगा, जिसका किसी भी रूप में जमीन पर कब्जा हो।

ज़मीदारी उन्मूलन के बाद सरकार ने कृषि क्षेत्र में नए शोध हेतु अनेक वैज्ञानिक केंद्रों और संस्थाओं की स्थापना की, हरित क्रांति की सूत्रपात हुयी, शोधों को प्रयोगशाला से ज़मीन तक पहुचाने के लिये लैब टू लैंड की योजनाएं अमल में लायी गयीं। डीज़ल, खाद, बिजली पर सब्सिडी दी गयी। कृषि उपज के न्यूनतम मूल्य देने की परंपरा शुरू हुयी। उसे और वैज्ञानिक स्वरूप बनाने के लिये डॉ एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया, जिसने अपनी संस्तुतियां दीं और वही संस्तुतियां, जिंसमे प्रमुख रूप से न्यूनतम  समर्थन मूल्य (एमएसपी) एक प्रमुख विंदु है,  और उसे तय करने का एक फार्मूला उक्त आयोग ने दिया है। इस विंदु को राजनीतिक दलों ने लपक तो लिया, पर केवल किसानों के वोट के लिये, न कि सरकार में आकर उसे लागू करने के लिये। 

धीरे धीरे, विश्व बैंक और अमेरिकी पूंजीपतियों के दबाव में भारत के खेती की संस्कृति पर ही आघात किया जाने लगा। सब्सिडी कम होने लगी और लगभग बंद हो गयी, एमएसपी हतोत्साहित की जाने लगी, जमाखोरी को रोकने के लिये लागू कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम, पहले, व्यापारी संगठनों के दबाव में  हतोत्साहित किया गया और अब तो वह कानून ही रद्द कर दिया गया। इसी बीच उद्योग लॉबी का दबाव बढ़ा तो कृषि उपेक्षित होती चली गयी और धीरे धीरे 'उत्तम खेती' एक अलाभकर कार्य बन कर रह गया, जिसके कारण, ग्रामीण आबादी का शहरों की तरफ पलायन हुआ और कृषि संस्कृति के पराभव काल की शुरुआत हुयी। सरकार को जहां इन सब विसंगतियों के खिलाफ, किसान और खेती के बारे में सोचना चाहिए था, तो सरकार ने तीन ऐसे कृषि कानून ला दिए जो न केवल कृषि और किसान विरोधी हैं, बल्कि उनका विपरीत असर भी खेती किसानी पर, साफ साफ दिखने लगा है। 

पीपल्स आर्काइव ऑफ रुरल इंडिया के संस्थापक पी. साईनाथ ने अपने एक भाषण में कहा है कि,
" कृषि संकट अब सिर्फ किसानों और खेतिहर मजदूरों का ही संकट नहीं है बल्कि समाज, अर्थव्यवस्था और मानव सभ्यता का संकट है। मार्च 2018 में मुंबई में हुए किसान आंदोलन का जिस तरह से समाज के मध्यवर्ग के लोगों का समर्थन मिला, वह विश्व की अनोखी घटना थी। मध्यवर्ग को लगा किसान की समस्या उनकी खुद की समस्या है। किसानों का मुद्दा अब क्षेत्र विशेष नहीं बल्कि देश का मुद्दा बन गया है।"  
पी साईनाथ ने, किसान और खेतिहर मजदूरों के मसले पर भारतीय संसद के 21 दिन का विशेष सत्र बुलाने की मांग के समर्थन में डेढ़ वर्ष पूर्व आयोजित एक सेमिनार में यह बात कही थी। उन्होंने कहा था कि,
" देश में पिछले दो दशकों में 20 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। जहां कृषि संकट दिन प्रतिदिन गहराता जा रहा हो, वहां किसानों का मुद्दा सिर्फ उनका ही नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के संकट का मुद्दा बन गया है। यह एक ऐसा संकट है, जिसके प्रभाव से मध्यवर्ग भी अछूता नहीं रह सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 1999 से 2011 के बीच किसानों की संख्या में तकरीबन 1.50 करोड़ की कमी आई है। इस दौरान मजदूरी और वेतन, दोनों में बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन खेती से होने वाली आमदनी में कोई बदलाव नहीं आया है। 94 फीसदी किसान आय सुरक्षा के योजनाओं के दायरे में नहीं आते हैं। खेती से होने वाली आमदनी में भारी कमी आई है। खेती अब जोखिम वाला व्यवसाय हो गई है।" 

किसान, कामगार, श्रमिक, छोटे औऱ मझोले व्यापारी, सरकारी सेवक, नौकरी की तलाश में भटक रहे युवा, नोटबन्दी, जीएसटी, और लॉक डाउन कुप्रबंधन से पीड़ित लोग, आज निराश हैं, आक्रोशित हैं, और उद्वेलित भी है। समस्या इनकी समस्याओं के समाधान ढूंढने की तो है ही, पर सबसे बड़ी समस्या आज है, सत्ता की ज़िद, अहंकार, हठधर्मिता, और  मनमानापन। किसान लम्बे समय से आंदोलित हैं। पर वे चाहते क्या हैं, यह न तो सरकार पूछ रही है और  न ही सरकार का कोई जिम्मेदार व्यक्ति पूछने जा रहा है। किसानों का दिल्ली चलो आंदोलन रोकने के लिये सरकार ने व्यापक इंतजाम किए हैं, पर इस बात की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है कि किसान संगठनों के साथ उनकी समस्याओं के बारे में सरकार उन्हें समझाये और उनकी शंकाओं का निवारण करने की कोशिश करे।  पूंजीपतियों की ज़रा सी समस्या पर सरकार, बैंकों के खजाने और तमाम राहत के रास्ते खोल देती है, पर कभी भी सरकार ने यह चिंता नही कि, कृषि कानूनों पर किसानो से, श्रम कानूनो पर श्रमिक संगठनों से, जीएसटी की जटिलता और समस्याओं पर छोटे और मझोले व्यापारियों के संगठनों से बात चीत का सिलसिला शुरू करे और उनकी समस्याओं का समाधान करे। इसका सबसे बड़ा कारण है कि सरकार उस अफीम के डोज पर भरोसा करती है, जो लम्बे समय तक लोगों को धर्म, जाति, सम्प्रदाय और पंथ के नशे में मदहोश रख सकती है। जब तक अफीम की इस पिनक से समाज नहीं उबरेगा, सत्ता चाहे किसी भी दल की हो वह मगरूर, ठस, और संवेदना से शून्य बनी रहेगी। अब देखना यह है कि क्या किसानों का 26 नवम्बर 2020 का दिल्ली चलो आंदोलन, क्या देश मे व्याप्त जड़ता को झिंझोड़ कर, बदलाव की एक नयी इबारत लिख पायेगा ? 

( विजय शंकर सिंह )


Tuesday 24 November 2020

फिदेल कास्त्रो को उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए / विजय शंकर सिंह

आज फिदेल कास्त्रो की पुण्यतिथि है। 25 नवम्बर 2016 को उनका निधन हवाना, क्यूबा में हो गया था। सैनिक वर्दी में आम प्रदर्शनों की अगुवाई करते हुए कास्त्रो की छवि हमेशा एक सर्वकालिक क्रांतिकारी की रही है। वे ज्यादातर सैनिक पोशाक में देखे जाते रहे हैं। कास्त्रो को अक्सर "कमांडेंट" के रूप में उल्लेखित किया गया है, साथ में उन्हें, उपनाम "एल काबल्लो ", जिसका अर्थ है "हार्स" यानि घोड़ा कहकर भी पुकारा जाता रहा है। इस उपनाम से प्रभावित कास्त्रो जब अपने लोगो के साथ रात में हवाना की सड़कों पर घूमते, तब जोर से चिल्लाते कि "लो आ गया घोड़ा"। क्रांतिकारी अभियान के दौरान कास्त्रो के बागी साथी उन्हें "द जाइंट" के नाम से बुलाते थे। आम तौर पर घंटों चलनेवाले कास्त्रो के जोशीले भाषण को सुनने के लिए लोगों का बड़ा हुजूम इकट्ठा हो जाता। सर्वशक्तिमान अमेरिका  के इतने निकट रहते हुए भी क्यूबा के इस कालजयी क्रांतिकारी की हत्या करने की हर चंद कोशिश अमेरिका की सीआईए ने किया था लेकिन वह सफल न हो सकी। भारत के सम्बंध क्यूबा से बहुत घनिष्ठ रहे है। जनसंख्या और क्षेत्रफल में, एक छोटे देश के राष्ट्रपति होने के बावजूद, फिदेल एक वैश्विक नेता थे। वे गुटनिरपेक्ष देशों के प्रमुख और तीसरी दुनिया जो अब इतिहास बन गयी है की एक मजबूत आवाज़ थे। आज के वैश्विक परिदृश्य के बारे में फिदेल कास्त्रो का यह संस्मरण बेहद रोचक और दुनिया की सियासत में उनके  स्थान को रेखांकित करता है। 
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दुनिया का दौरा करके हम अभी लौट रहे हैं। इस दौरे में हमें एक क्षण का भी आराम नहीं मिला। यह दौरा जरूरी था। इराक में युध्द के लगभग निश्चित खतरे तथा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संकट के गहराने के बीच 24 और 25 फरवरी को क्वालालंपुर, मलेशिया में महत्वपूर्ण शिखर बैठक थी। शिखर बैठक से पहले और बाद में वियतनाम और चीन में बहुत सारे नजदीकी दोस्तों से मिलना था। जापान से भी बहुत से महत्वपूर्ण और मूल्यवान मित्रों से निमंत्रण मिला था इसलिए वहां रुकना भी जरूरी था। इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 5 मार्च को राष्ट्रीय एसेंबली का गठन, एसेंबली और कौंसिल ऑफ स्टेट के नेतृत्व और उनके अध्यक्षों तथा उपाध्यक्षों का चुनाव होना था।

मौसम की वजह से हम 3 मार्च को हिरोशिमा से नहीं निकल पाए। इस बिलंब को देखते हुए हमने क्यूबा में अपने कामरेडों से कहा कि वे बैठक को 6 मार्च तक के लिए स्थगित कर दें।
मुझे हवाई जहाज से लौटते हुए ये पंक्तियां लिखनी पड़ीं। इन दिनों दुनिया की यात्रा आसान नहीं है। यह यात्रा समझदारी से करना, फ्लाइट योजनाओं के बारे में बताना और आवश्यक प्राधिकरण आदि के लिए इंतजार करना और भी मुश्किल है। आई एल-62 जहाजों की उम्र, उनके फ्लाइट उपकरणों, उनके ईंधन उपभोग तथा शोर के कारण उनमें यात्रा और भी जटिल हो जाती है। जब वे हवाई पट्टी पर उतरते हैं या उड़ने के लिए पट्टी पर दौड़ते हैं तो बहुत शोर करते हैं। लेकिन वे उड़ते जरूर हैं और जब उड़ते हैं तो उतरते भी अवश्य हैं।

32 साल पहले जब मैं चिली के राष्ट्रपति साल्वाडोर अलेंदे से मिलने गया तो ऐसे ही जहाज में बैठा था। तब से मैं इन जहाजों में बैठ रहा हूं। ये पुराने सोवियत ट्रैक्टरों की तरह मजबूत हैं जिन्हें मानो क्यूबाई चालकों की परीक्षा के लिए ही इनके पायलट ओलंपिक चैंपियन हैं। इनकी मरम्मत करने वाले टेक्नीशियन और मैकेनिक दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। हम पूरी दुनिया में दूसरी बार इस जहाज में घूमे हैं। मैं पूरी गंभीरता के साथ पूर्व सोवियत संघ की इन मशीनों की तारीफ करता हूं। मैं उनका आभारी हूं और साथी क्यूबावासियों और पर्यटकों से आग्रह करता हूं कि इन जहाजों में यात्रा करें। ये दुनिया के सर्वाधिक सुरक्षित जहाज हैं। मैं इसका जीता जागता प्रमाण हूं।

इस दुनिया में आज आप किसी चीज को बहुत गंभीरता से नहीं ले सकते। यदि आपने ऐसा किया तो दिल के दौरे या दिमाग की नस फटने का खतरा पैदा हो जाएगा।आवश्यक यात्रा रिपोर्ट हमारा शिष्टमंडल 19 फरवरी को आधी रात से थोड़ा पहले रवाना हुआ। रास्ते में हम केवल पेरिस में ही रुक सकते थे। वहां हम थोड़ी देर के लिए रुके। हमें शहर में एक होटल में थोड़ी देर के लिए विश्राम करना था। जगह बेकार थी। मैं सो नहीं सका। मैंने एक ऊंची मंजिल पर जाकर इस सुंदर और प्रसिध्द शहर के कुछ हिस्सों को देखा। मैंने तीन से छह मंजिली इमारतों की छतों को देखा। उनमें कलाकारी की गई लगती थी। मैं यह जानना चाहता था कि 150 साल पहले उन्हें किस चीज से बनाया होगा।

मैंने हवाना और उसकी समस्याओं को याद किया। ये इमारतें सफेद भूरे रंग की थीं। किसी ने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। कुछ किलोमीटर दूर एक जबर्दस्त भवनसमूह था जिसने सौंदर्य भंग कर दिया था। दाईं ओर दफ्तर तथा रहने के लिए बनाई गई ऊंची इमारतों ने नजारा खराब कर दिया था। मुझे क्रांति से कुछ महीने पहले एक समय सरकार के उपनिवेशी महल रहे भवन के पीछे बनाए गए हेलीपार्ट की याद आ गई। मुझे पहली बार हर किसी के प्रशंसा पात्र एफिल टावर और लार्क द त्रिम्फे बेइज्जत और बौनी चीजें लगीं। मुझे अचानक लगा कि मैं कुंठित शहर नियोजक हूं। पेरिस में मैंने न किसी को बुलाया और न किसी से बात की। जब मैं वहां से चला तो फ्रांस की शानदार क्रांति और उनका शौर्यपूर्ण इतिहास, जिसके बारे में मैंने युवावस्था में पढ़ा था, मेरे जहन में मौजूद था। अमरीकी सरकार के अपमानकारी एकतरफा आधिपत्य के खिलाफ उसके वीरतापूर्ण रुख की मैंने मन ही मन प्रशंसा की।

हम चीन के सुदूर पश्चिम क्षेत्र में उरुमुकी में रुके। वास्तुकला की दृष्टि से यह बहुत सुंदर हवाई अड्डा था। दोस्ताना मेहमाननवाजी। परिष्कृत संस्कृति। दस घंटे उपरांत सूर्यास्त के बाद हम अपने प्रिय तथा वीर वियतनाम की राजधानी हनोई पहुंचे। पिछली बार आठ साल पहले 1995 में जब मैं यहां आया था, उसके बाद यह शहर काफी बदल गया था। गलियों में चहल-पहल और भरपूर रोशनी थी। पैरों से चलने वाली एक भी साइकल नजर नहीं आई। उनकी जगह मोटरसाइकलों ने ले ली थी। गलियों में कारे ही कारें थीं। इसके भविष्य, ईंधन, प्रदूषण और अन्य विपत्तियों के बारे सोचकर मुझे थोड़ी तकलीफ हुई।

हर जगह सुख-साधन संपन्न होटल बन गए थे। कारखानों की तादात बहुत बढ़ गई
थी। उनके विदेशी मालिक प्रबंधन के कड़े पूंजीवादी नियमों का पालन करते हैं। लेकिन यह कम्युनिस्ट देश है जो कर वसूल करता है, आय वितरित करता है, नौकरियां पैदा करता है, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधा का विकास करता है तथा साथ ही अपनी शान और परंपराओं की दृढ़ता के साथ रक्षा करता है। तेल, कोयला से बिजली बनाने वाले संयंत्र, पनबिजली संयंत्र तथा अन्य बुनियादी उद्योग सरकार के हाथों में हैं। उत्कृष्ट मानव क्रांति। जो क्रांति के सृजक रहे हैं उनको बहुत सम्मान दिया जाता है। हो चि मिन्ह बहुत बुलंद मिसाल हैं और रहेंगे।
मैंने मेधावी रणनीतिज्ञ गुएन गियाप के साथ विस्तार से बात की। उनकी याददाश्त उत्कृष्ट है। मैंने उदासी तथा अनुराग के साथ महान व्यक्तियों को याद किया जैसे कि फाम वान डोंग तथा अन्य जो गुजर चुके हैं लेकिन लोगों के अनंत स्नेह के पात्र हैं। पुराने और नए नेताओं में असीम प्यार और दोस्ती है। सभी क्षेत्रों में हमारे संबंध प्रगाढ़ और विस्तृत हुए हैं।

हम दोनों देशों की स्थितियों में अंतर विचार योग्य है। हम ऐसे पड़ोसियों से घिरे हैं जिनके पास हमें देने के लिए कुछ भी नहीं हैं। विशेष रूप से एक पड़ोसी, दुनिया का सबसे अमीर राष्ट्र हमारे खिलाफ जबर्दस्त नाकाबंदी किए हुए है। लेकिन हमारा भी दृढ़ इरादा है कि हम अपने देश के धन और लाभों का अधिकतम हिस्सा वर्तमान तथा भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखेंगे लेकिन ये मतभेद हमारी सुंदर और शाश्वत मित्रता का किसी भी रूप में अतिक्रमण नहीं करते।

वियतनाम से हम मलेशिया गए। यह अद्भुत देश है। इसके विशाल प्राकृतिक संसाधन और असाधारण रूप से प्रतिभा संपन्न नेता, जिसने बेलगाम पूंजीवाद के विकास से स्वयं को दूर रखा, इसकी प्रगति के कारण हैं। उन्होंने तीन मुख्य प्रजाति समूहों अर्थात मलयों, भारतीयों और चीनियों में एकता कायम की। औद्योगिक देश जापान तथा दुनिया के दूसरे देशों ने आकर्षित होकर यहां निवेश किया। कड़े नियम और विनिमय लागू किए गए। धन का यथासंभव न्यायपूर्ण वितरण हुआ। देश ने 30 वर्षों में बड़ी तेजी के साथ विकास किया। शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधा की ओर ध्यान दिया जाता है। देश में शांति रही। वियतनाम, जापान, लाओस और कंबोडिया की तरह उस पर पहले उपनिवेशवाद और फिर साम्राज्यवाद का हमला नहीं हुआ।

दक्षिण पूर्वी एशिया में आए प्रलयंकारी संकट ने जब मलेशिया पर आघात किया तो उसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक तथा ऐसे ही अन्य संगठनों की बात मानने से इनकार कर दिया तथा मुद्रा विनिमय नियंत्रण लागू किए और पूंजी पलायन को रोककर देश और उसकी दौलत को बचाया। यह हमारे गोलार्ध में लंबे समय से दु:ख उठा रही दुनिया से अलग दुनिया है। मलेशिया ने वास्तविक राष्ट्रीय पूंजीवाद का विकास किया है जिसने आय में व्यापक विषमता के बावजूद लोगों का कल्याण किया है। देश का बहुत सम्मान है। पश्चिम तथा नई आर्थिक व्यवस्था के लिए वह सिर दर्द और गलत मिसाल बन गया है।

चीन। वहां हम दोपहर को पहुंचे। वियतनाम की तरह ही क्यूबाई शिष्टमंडल को इतना ध्यान और सम्मान कहीं नहीं दिया गया। 26 फरवरी को सरकारी स्वागत, रात्रि भोज। पार्टी और सरकार के पूर्व और वर्तमान नेताओं, जिनमें से कुछ अभी भी शासन में हैं, जियांग जेमिन, हु जिंताओ, लि पेंग, झू रोंग जी, वेन जिआबाओ और उनके सहायकों से भेंट। एक के बाद एक, यह सिलसिला 27 तारीख तक चलता रहा। 28 फरवरी की सुबह बीजिंग टेक्नोलॉजी पार्क का दौरा। इसके बाद पांडा टेलीविजन फैक्टरी देखने के लिए राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ ननजिंग का दौरा। अपने जीवन में पहली बार जंबो जैट में बैठा। जियांगसु प्रांत के पार्टी प्रधान सचिव के साथ बैठक। शंघाई के लिए प्रस्थान। विदाई।

वियतनाम और चीन में क्यूबाई शिष्टमंडल का आतिथ्य सत्कार क्रांति के पूरे इतिहास में अभूतपूर्व है। यह वास्तव में विशिष्ट अतिथियों, व्यक्तियों, सच्चे मित्रों के साथ विस्तार से और गहराई के साथ बात करने का अवसर था। इससे हमारे देशों के बीच दोस्ती और मजबूत हुई। क्यूबाई क्रांति के जिन दिनों उसके टिक पाने में किसी का भी विश्वास नहीं था उन बहुत मुश्किल दिनों में चीन और वियतनाम हमारे बहुत अच्छे दोस्त थे। आज उनके अवाम और उनकी सरकारें इस छोटे से देश को आदर देते हैं तथा उसकी प्रशंसा करते हैं जो अपनी जबर्दस्त शक्ति से पूरी दुनिया पर आधिपत्य कायम कर लेने वाली एकमात्र महाशक्ति के निकट स्थित होने के बावजूद दृढ़ता के साथ खड़ा है।

हममें से कोई एक व्यक्ति इस आदर का हकदार नहीं है। यह उन बहादुर और यशस्वी लोगों को मिलना चाहिए जिन्होंने पूरी गरिमा के साथ अपना कर्तव्य पूरा किया।

हमारी बातचीत द्विपक्षीय हित के मुद्दों और हमारे आर्थिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संबंधों में नवीनतम बदलाव तक ही सीमित नहीं थी। हमने आज के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर पूरी दिलचस्पी, बेबाकी और आपसी समझ के साथ बात की। 

चीन से हम जापान गए। वहां हमारा आतिथ्य सत्कार और सम्मान किया गया। हम वहां कुछ देर के लिए रुके थे लेकिन पुराने और सच्चे दोस्तों ने हमारा स्वागत किया। हमने तोमोयोशी कोंडो, अध्यक्ष, क्यूबा जापान आर्थिक कॉनफ्रेंस; श्री वातानुकी, अध्यक्ष, नेशनल डाइट ऑफ जापान; श्री मिशूजूका, अध्यक्ष, संसदीय मित्रता लीग से लंबी बात की। शिष्टाचार के रूप में पूर्व प्रधानमंत्री रियूतारो हाशीमोतो और प्रधानमंत्री जुनिचिरो कोइजुमी के साथ बैठक भी हुई। जापानियों की पहल पर हमने कोरियाई प्रायद्वीप में तनावपूर्ण स्थिति, जो सभी के लिए चिंता का विषय है, से जुड़े मामलों पर भी चर्चा की। इस बातचीत के बारे में विस्तृत सूचना हम उत्तरी कोरिया की सरकार को देंगे। क्रांति की जीत के दिनों से ही उनके साथ हमारे दोस्तीपूर्ण कूटनीतिक संबंध रहे हैं।

2 मार्च को हम हिरोशिमा गए। हम हिरोशिमा पीस मेमोरियल म्यूजियम भी गए। हिरोशिमा प्रांत के गवर्नर के साथ हमने प्राइवेट लंच किया। हिरोशिमा के नागरिकों का जो नरसंहार हुआ था उसे देखकर हम कितने विह्वल हुए उसे बताने के लिए शब्द और समय मेरे पास नहीं हैं। जो कुछ वहां हुआ था उसे समझने में मानव कल्पना समर्थ नहीं हो सकती है।

हिरोशिमा पर हुआ हमला एकदम अनावश्यक था और उसे कभी भी नैतिक दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। सैनिक तौर पर जापान पहले ही हार चुका था। ओसिनिया, दक्षिण पूर्व एशिया तथा जापानी प्रभुसत्ता वाले इलाके फिर से वापस लिए जा चुके थे। मनचूरिया में लाल सेना लगातार आगे बढ़ रही थी। एक भी अमरीकी जान गंवाए बगैर यह युध्द कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता। केवल अल्टीमेटम देने, या हद से हद लड़ाई के क्षेत्र या जापान के एक दो सैनिक ठिकानों पर इस हथियार के प्रयोग से युध्द समाप्त हो जाता भले ही अतिवादी जापानी नेता कितना ही दबााव देते या हठधर्मी दिखाते रहते।

हालांकि पर्ल हार्बर पर अनुचित और अचानक हमला करके जापान ने युध्द शुरू किया, लेकिन इससे बच्चों, स्त्रियों, वृध्दों तथा हर उम्र के बेकसूर लोगों की भयंकर हत्या का औचित्य नहीं बन जाता।जापान के महान और उदार लोगों ने यह अपराध करने वाले लोगों के खिलाफ घृणा का एक भी शब्द नहीं कहा। इसके विपरीत उन्होंने शांति स्मारक बनवाया है ताकि फिर कभी ऐसा न हो। लाखों लोगों को वहां जाना चाहिए जिससे यह पता चल सके कि वहां क्या हुआ।

वहां चे (ग्वेरा) का चित्र देखकर मैं भाव विह्वल हो गया। यह मानवता के खिलाफ निकृष्टतम अपराध की इस अमर यादगार पर फूल चढ़ाते हुए खींचा गया चित्र था।

हमारी जाति की इस पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि उसे अभूतपूर्व तथा अवांछनीय स्थितियों में रहना पड़ रहा है। हमें विश्वास है कि मानव जाति उन पर काबू पा लेगी। हमारे युग से पहले ऐसा लगता था कि मनुष्यों का घटनाओं पर नियंत्रण है लेकिन अब ऐसा लगता है कि घटनाओं का मनुष्यों पर नियंत्रण है।

हमारे इस दौरे के साथ-साथ कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जिन्होंने चारों ओर अनिश्चितता और असुरक्षा के बीज बो दिए हैं। प्रभुसत्ता और स्वतंत्रता काल्पनिक बातें हो गई हैं। सत्य और नैतिकता मनुष्यों का प्रथम अधिकार या विशेषताएं होनी चाहिए लेकिन उनकी जगह लगातार कम हो रही है। तार के जरिए विवरण, अखबार, रेडियो, टेलीविजन, सैलफोन, इंटरनेट दुनिया के हर कोने से हर दिन हर मिनट खबरों का अंबार लगा रहे हैं। घटनाओं से तारतम्य बनाए रखना बहुत मुश्किल है।

समाचारों के इस सागर में मानव बुध्दि अपनी दिशा खो सकती है। लेकिन अस्तित्व की चिंता उससे प्रतिक्रिया कराती है।दुनिया के राष्ट्रों ने पहले कभी खुद को इस कदर एक महाशक्ति का नेतृत्व करने वाले लोगों की शक्ति और स्वेच्छा के सामने झुका हुआ नहीं पाया था। उनके पास निरंकुश शक्ति है। उनके दर्शन, उनके राजनीतिक विचारों, नैतिकता संबंधी उनकी धारणाओं के बारे में किसी को जरा सा भी भान नहीं है। उनके निर्णयों के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती और न ही उनको चुनौती दी जा सकती है। उनके हर बयान में नष्ट कर देने या मार देने की उनकी ताकत और क्षमता का अहसास मिल जाता है। इसकी वजह से बहुत से देशों के नेताओं में भय और बेचैनी है क्योंकि महाशक्ति के ये नेता ना सुनने के आदी नहीं हैं। उनके पास जबर्दस्त सैनिक, राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी शक्ति है।

दुनिया पर नियमों के शासन तथा विभिन्न देशों की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी संगठन का सपना चूर-चूर हो रहा है।

धरती से मीटरों ऊपर हवा में मैंने तार के जरिए यह वृत्तांत पढ़ा, 
'अपने साप्ताहिक रेडियो संबोधन में राष्ट्रपति बुश ने संयुक्त राष्ट्र महासंघ के प्रति अपना अनादर व्यक्त किया और बताया कि वह 'अपने मित्रों और साथियों के प्रति दायित्व' के कारण ही इस संगठन से परामर्श करते हैं, इसलिए नहीं कि वहां के विचार-विमर्श का उनके लिए कोई मोल है।'
पूरी दुनिया के लोग भारी संख्या में सार्वभौमिक जुल्म के भूमंडलीकरण के खिलाफ बोल रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र ऐसा संगठन है जो लाखों युवा अमरीकियों सहित 5 करोड़ लोगों की जान ले लेने वाले युध्द के बाद अस्तित्व में आया। इसलिए दुनिया के सभी देशों और सरकारों की नजरों में उसका महत्व होना चाहिए। इसमें बहुत कमियां हैं और कई मामलों में यह पुराना पड़ गया है। दुनिया के सभी देशों का प्रतिनिधित्व करने वाली इसकी महासभा केवल विचार-विमर्श का मंच है। उसके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं है, वह केवल राय जाहिर कर सकती है। सुरक्षा परिषद कथित रूप में कार्यपालक निकाय है जहां केवल पांच विशिष्ट देशों का मत चलता है। इनमें से भी केवल एक देश वीटो के जरिए बाकी सब के मत को रद्द कर सकता है। ऐसे ही एक सर्वाधिक शक्ति संपन्न देश ने अपने उद्देश्यों के लिए अनेक बार इस शक्ति का प्रयोग किया। हमारे पास फिर भी वही एक संगठन है।

इसको खत्म करने से इतिहास का वही युग लौट आएगा जो नाजीवाद के उदय से पहले था। इसकी परिणति भयंकर महाविपत्ति में होगी। 20वीं शताब्दी के आखिरी दो तिहाई हिस्से में जो हुआ, यह हममें से कुछ ने देखा है। हमने नए किस्म के साम्राज्य का जन्म और तेजी से विकास होते हुए देखा है जो कि संपूर्ण और सर्वग्रासी है। यह प्रसिध्द रोमन साम्राज्य से हजार गुना शक्तिशाली है तथा अपने मौजूदा परम मित्र, जिसकी छाया किसी समय ब्रिटिश साम्राज्य हुआ करता था, से सौ गुना अधिक शक्तिशाली है। केवल डर, अंधेपन और अज्ञान के कारण स्पष्ट चीज दिखाई नहीं दे रही है।
यह समस्या का केवल निराशावादी पक्ष है। वास्तविकता इससे अलग हो सकती है। इससे पहले इतनी कम अवधि में पूरी दुनिया में ऐसे जबर्दस्त प्रदर्शन नहीं हुए जैसे कि इराक के खिलाफ युध्द की घोषणा के बाद हुए।

अमरीकी सरकार के दो महत्वपूर्ण साथी इंग्लैंड और स्पेन संकट में फंस गए हैं। दोनों देशों में भारी संख्या में जनमत युध्द के खिलाफ है। यह सही है कि इराक ने दो बहुत गंभीरऔर अनुचित कार्य किएईरान पर हमला और कुवैत पर कब्जा। यह भी सही है कि इस देश से जबर्दस्त प्रतिशोध लिए गए हैं। इसके लाखों बच्चे भूख और बीमारी से मर गए हैं। इसके लोगों ने वर्षों तक लगातार बमबारी झेली है। उसमें बिलकुल भी सैनिक क्षमता नहीं है जो अमरीका तथा इस क्षेत्र में उसके मित्रों के लिए खतरा बन सके। यह घिनौने उद्देश्य वाला अनावश्यक युध्द होगा। यदि यह युध्द संयुक्त राष्ट्र के अनुमोदन के बगैर हुआ तो अमरीकी अवाम के एक महत्वपूर्ण तबके सहित पूरी दुनिया के लोग इसका विरोध करेंगे।

विश्व अर्थव्यवस्था पहले से ही मौजूद जबर्दस्त संकट से नहीं उबर पाई है। इस युध्द के उसके लिए गंभीर परिणाम होंगे। इसके बाद दुनिया के किसी देश के लिए सुरक्षा और शांति नहीं रहेगी। विश्व जनमत भी विरोध कर रहा है। यह उनकी और दुनिया के अन्य देशों की सुरक्षा के लिए जरूरी है। दुनिया को अपनी ताकत से धमकाने, अपने नए हथियारों के परीक्षण या अपनी सेनाओं को प्रशिक्षण देने के लिए अमरीका को युध्द की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह हलचल सब जगह देखी जा सकती है लेकिन मलेशिया में गुट निरपेक्ष आंदोलन की शिखर बैठक में यह बिलकुल स्पष्ट थी।

यह बहुत महत्वपूर्ण बैठक थी जिसमें देश तथा शासन प्रमुखों ने तहजीबपूर्ण भाषा में अपने विचार रखे, निष्कपट घोषणाएं कीं और उत्तरदायित्व की भावना प्रदर्शित की। डॉ. महाथिर ने बड़े व्यवस्थित, गंभीर और सक्षम तरीके से विचार-विमर्श का संचालन किया।
अमरीका और उसकी वित्तीय संस्थाओं पर तीसरी दुनिया के देशों की पूरी तरह से निरर्भता के कारण कुछ समझदारी भी दिखाई गई क्योंकि उनको छेड़ने का मतलब है सरकार का खात्मा या अर्थव्यवस्था को अस्थिर बनाना।
सम्मेलन के दौरान दिए गए भाषणों में कुछ बातों पर लगभग एकमत था।

एक : इराक के खिलाफ युध्द नहीं छेड़ा जाना चाहिए, संयुक्त राष्ट्र की अनुमति के बगैर तो बिलकुल नहीं।
दो : इराक सुरक्षा परिषद द्वारा स्वीकार किए गए विनियमों का पालन करे।
तीन : किसी को आशा नहीं थी कि युध्द टाला जा सकता है।
चार : उम्मीद के अनुसार अल्पविकास, गरीबी, भूख, अज्ञान, बीमारी, अदा न किया जा सकने वाला विदेशी ऋण, अस्थिरता पैदा करने वाले अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के प्रयास तथा तीसरी दुनिया पर आघात करने वाली अन्य असंख्य विपदाओं का विश्लेषण किया गया और उनकी निंदा की गई।

हमारे शिष्टमंडल ने शिखर सम्मेलन के सभी सत्रों में हिस्सा लिया तथा दूसरे शिष्टमंडलों से भी मिला। हमसे सूचना देने, अनुभव बांटने और कुछ खास क्षेत्रों में सहयोग करने के लिए कहा गया।

हमने देखा कि किस तरह से बिल्कुल अलग-अलग संस्कृतियों, धार्मिक विश्वासों और राजनीतिक विचारों वाले व्यक्तियों ने हमारे प्रति आत्मीयता और विश्वास दिखाया।

हमारे सामने यह बात स्पष्ट हो गई कि अपने भाईचारे, सिध्दांतों के लिए दृढ़ प्रतिबध्दता के कारण हमारे लोगों की प्रशंसा की जाती है।
हमने उनमें से बहुतों को वेनेजुएला में फासीवादी तख्तापलट के बारे में बताया तथा इस बारे में दस्तावेजी सूचना देने का प्रस्ताव किया। इस घटना के कारण प्रति दिन तीस लाख बैरल तेल का उत्पादन रुक गया जिससे दुनिया को बहुत नुकसान पहुंचा। बोलिवरियन अवाम की जबर्दस्त जीत के कारण तेल उत्पादन शुरू हो गया है। हमने धनी और गरीब राष्ट्रों को स्पष्ट किया कि मध्य पूर्व जैसे नाजुक क्षेत्र में युध्द कितना जोखिमपूर्ण होगा। हमने दूसरों को अपने इस विश्वास के बारे में बताया कि यदि इराक सुरक्षा परिषद ही नहीं बल्कि अमरीकाजहां बहुतों को संदेह है और उसके परम मित्रों ग्रेट ब्रिटेन, स्पेन और इटलीजहां बहुत लोग विरोध कर रहे हैं, सहित पूरी दुनिया की विधायिकाओं को, संसदों को, गुट निरपेक्ष देशों के नेताओं, सामाजिक संगठनों के नेताओं को यह दिखा सके कि वह संयुक्त राष्ट्र के संकल्प सहित सभी अपेक्षाओं को पूरा कर रहा है तो युध्द टाला जा सकता है।

इराक की शांति और अखंडता के लिए लड़ाई सैनिक नहीं बल्कि राजनीतिक है। यदि सत्य की स्थापना और झूठ का पर्दाफाश हो जाए तो इस क्षेत्र में शांति बनी रह सकती है। इसमें अमरीकी अवाम का भी लाभ होगा। इस युध्द के एकमात्र विजेता हथियारों के निर्माता होंगे या वे लोग जो यह असंभव सपना संजोए हुए हैं कि 6.3 अरब मानवों, जिनमें से बहुसंख्यक भूखे और गरीब हैं, पर ताकत के जोर से शासन चलाया जा सकता है।

अपनी अल समद मिसाइलों को नष्ट करने के इराकी सरकार के फैसले का हम समर्थन करते हैं। हम इराक से आग्रह करते हैं कि यदि उसके पास कोई रासायनिक या जैव हथियार बचा है तो वह उसे नष्ट कर दे।

अमरीकी सरकार के पास इराक पर हमले का कोई कानूनी या नैतिक बहाना नहीं है विशेषकर ऐसी स्थिति में जब दुनिया फिलिस्तीनी अवाम का नरसंहार देख रही है और इज्रायल के पास अमरीका द्वारा प्रदान किए गए सैकड़ों परमाणु हथियार और उन्हें चलाने के साधन उपलब्ध हैं।

दुनिया के सामने अकाटय रूप में प्रदर्शित किया गया संपूर्ण सत्य ही इराकी अवाम को नैतिक ताकत और पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समर्थन देगा जिससे कि वे अपने खून के आखिरी कतरे तक अपने देश और उसकी अखंडता की रक्षा कर सकें।

अपने समय की स्पष्ट समझ के अभाव में इस घटना, जिसने हमें यहां इकट्ठा किया है, का केवल सापेक्ष महत्व होगा। क्यूबा दुनिया के कुछ खास देशों में से है जिसकी विशेष स्थितियां हैं। शेष दुनिया की तरह हमारे लिए भी भूमंडलीय जोखिम हैं लेकिन कोई भी देश दुनिया के अधिकांश हिस्सों में मौजूद समस्याओं से जूझने तथा इस धरती पर मानवीय और न्यायपूर्ण समाज स्थापित करने के लिए योजना बनाने तथा सपने संजोने के मामले में हमसे बेहतर तैयार नहीं है। आंतरिक और बाह्य खतरों का मुकाबला करने में इससे अधिक एकताबध्द, अधिक अटल या अधिक सक्षम और कोई देश नहीं है।

जब मैं आंतरिक खतरों की बात करता हूं तो इसका मतलब राजनीतिक खतरे नहीं हैं। पिछले 44 वर्ष के वीरतापूर्ण संघर्ष से हमने इतनी ताकत और जागरूकता पैदा कर दी है कि साम्राज्यवाद की सेवा में तत्पर विश्वव्यापी विनाश और अस्थिरीकरण के कपटी आचार्य हमारी आंतरिक व्यवस्था और हमारी क्रांति के समाजवादी रास्ते में तोड़-फोड़ नहीं कर सकते।

जब एक अत्यंत शक्तिशाली विदेशी सत्ता ने हमसे यह रास्ता छोड़ देने को कहा तो हमारी जनता ने उत्तर में देश के संविधान में क्यूबा की समाजवादी प्रकृति पर कायम रहने की धारा जोड़ दी। अब अपनी क्षुद्र और हास्यास्पद उम्मीद को पूरा करने के लिए वे चालबाजी और झूठ पर उतर आए हैं।

आंतरिक खतरों से मेरा आशय सामाजिक या नैतिक खतरों से है जो हमारे लोगों को प्रभावित कर सकते हैं और उनकी सुरक्षा, शिक्षा या स्वास्थ्य को जोखिम में डाल सकते हैं। सब जानते हैं कि धूम्रपान की आदत के खिलाफ हमने कितनी जद्दोजहद की है और इस आदत को बहुत हद तक कम कर दिया है। इसी प्रकार हम शराब पीने की बुराई या गर्भ के दौरान शराब पीने जैसी दुर्भाग्यपूर्ण आदत के खिलाफ लड़ रहे हैं क्योंकि इसकी वजह से मंद बुध्दि या गंभीर रूप से अपंग बच्चे पैदा हो सकते हैं।

नशीली दवाओं के सेवन की बुराई भी सिर उठा रही है। इन दवाओं के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए हमारे तटों पर इनकी सफाई की जाती है। इसमें से कुछ पदार्थ हमारे देश में पहुंच जाता है। धरती पर अधिकांश समाजों में लगी इस बीमारी को अपने यहां आने से रोकने तथा उसका उन्मूलन करने के लिए आवश्यक उपाय करने में हमने एक मिनट की हिचकिचाहट भी नहीं दिखाई। हमें पूरी तरह से मालूम था कि इस मुद्दे के थोड़े से भी उल्लेख से यह प्रचार हो जाएगा कि इस मामले में हमारी स्थिति बहुत खराब है जबकि हमारे समाज की शुध्दता को देखते हुए हमारी स्थिति सर्वोत्तम है। फिर भी हम इस मुद्दे को यहां उठाने से नहीं हिचकिचा रहे हैं क्योंकि हमारी सभी लड़ाइयां लोगों की हिम्मत पर लड़ी और जीती गई हैं।

और भी बहुत सी लड़ाइयां लड़ी जानी हैं। इनमें से कुछ काफी लंबा समय लेंगी क्योकि ये पुरानी आदतों और रिवाजों से ताल्लुक रखती हैं या वो कुछ ऐसे भौतिक तत्वों पर निर्भर हैं जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। लेकिन हमारे पास भी अचूक हथियार हैं। इनमें सबसे बड़ा हथियार शिक्षा है। हालांकि इस क्षेत्र में हमने किसी भी राष्ट्र से अधिक बड़े प्रयास किए हैं लेकिन इसकी अपार संभावनाओं को समझने में हम अभी भी बहुत पीछे हैं। हम स्वयं द्वारा निर्मित मानव पूंजी का पूरा उपयोग नहीं कर पाए हैं। हर चीज का कायाकल्प होगा और शीघ्र ही हम संसार के सर्वाधिक शिक्षित और सुसंस्कृत लोग होंगे। क्यूबा के बाहर और भीतर किसी को भी इस बात में संदेह नहीं है।
स्वास्थ्य सुविधा के क्षेत्र में भी उसी तेजी के साथ प्रगति की जा रही है। इस मामले में भी दुनिया में हमारा अग्रणी स्थान है। यहां गत वर्षों में संचित मानव पूंजी और अनुभव निर्णायक तत्व होंगे। संस्कृति, कला और विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति की जाएगी।

खेलों में हम सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचेंगे।हमारे सामने बड़े कार्यों के ये कुछ उदाहरण हैं। किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी।लेकिन हमेशा यही सही रहता है कि काम खुद अपनी दास्तान बतलाए।पतनशील साम्राज्यवादी पूंजीवादी व्यवस्था अपनी नव उदार भूमंडलीकरण की अवस्था में पहुंच गई है। मानवता के सामने मौजूद विकराल समस्याओं का उसके पास कोई समाधान नहीं है। मुश्किल से एक शताब्दी में इन समस्याओं में चार गुनी वृध्दि हो गई है। इस व्यवस्था का कोई भविष्य नहीं है। यह प्रकृति को नष्ट कर रही है और भूखों की संख्या बढ़ा रही है। बहुत से क्षेत्रों में हमारा शानदार और मानवीय अनुभव दुनिया के बहुत से देशों के लिए उपयोगी होगा।

विभिन्न कारणों से जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण क्षति, आर्थिक संकट, महामारी और तूफान आदि को देखते हुए हमारे भौतिक, वैज्ञानिक और तकनीकी संसाधन अधिक प्रचुर हैं। लोगों की सुरक्षा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। इससे बड़ी प्राथमिकता नहीं हो सकती है।
विदेश से राजनीतिक खतरों और हमलों के बावजूद अपने देश और समाजवाद की रक्षा करने का हमारा दृढ़ निश्चय तनिक भी कमजोर नहीं पड़ेगा। इसके विपरीत हम जन युध्द की अपनी अवधारणाओं के गंभीर अध्ययन और उन्हें उत्तरोत्तर आदर्श बनाने में लगे हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि कोई भी तकनीक, कितनी भी परिष्कृत हो इनसान को हरा नहीं सकती। साथ ही हमारा निश्चय और हमारी चेतना लगातार बलशाली होगी।

विचारों की हमारी लड़ाई में एक मिनट का भी आराम नहीं किया जाएगा जो कि हमारा सबसे शक्तिशाली राजनीतिक हथियार है। पिछली 24 फरवरी को जब हम मार्ती के आह्वान पर चलाए गए पिछले स्वतंत्रता संघर्ष की यादगार में आयोजन कर रहे थे तो जेम्स केसन नामक एक व्यक्ति, जो यूनाइटेड स्टेट्स इंटेरेस्ट्स सेक्शन इन क्यूबा का प्रमुख है, अमरीकी सरकार द्वारा पोषित प्रतिक्रांतिकारियों के एक समूह से मिला। वे क्राई ऑफ बेयर की यादगार मनाने के लिए मिले थे। इस तारीख का देशभक्तिपूर्ण महत्व है और हमारे लोगों के लिए यह बहुत पवित्र दिन है। दूसरे कूटनीतिज्ञों को भी निमंत्रण भेजा गया लेकिन केवल यही महाशय पधारे।

लेकिन उसने चुपचाप इस बैठक में हिस्सा नहीं लिया। जब उससे एक पत्रकार ने पूछा कि क्या उसकी वहां मौजूदगी से क्यूबा सरकार के आरोप सही सिध्द नहीं हो जाते हैं तो केसन ने उत्तर दिया, 'नहीं, क्योंकि उन्होंने सभी कूटनीतिज्ञों को निमंत्रण भेजा है और
हमारा देश लोकतंत्र और बेहतर जीवन के लिए लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है। मैं अतिथि के रूप में यहां आया हूं।'

एक और पत्रकार ने पूछा कि क्या विरोधियों के बीच उसकी उपस्थिति को क्यूबा सरकार द्वारा अमित्रता का कार्य नहीं माना जाएगा क्योंकि वह विरोधियों को तोड़-फोड़ करने वाला समूह बताती है तो उसने कहा, 'मुझे परवाह नहीं है।'
बहुत अच्छी स्पेनिश में उसने यह भी कहा, 'दु:ख की बात है कि क्यूबा सरकार डरी हुई है। उसे अंतरात्मा की स्वतंत्रता से डर है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से डर है, मानवाधिकारों से डर है। इस समूह ने दिखा दिया है कि वे निडर क्यूबावासी हैं। वे जानते हैं कि लोकतंत्र आ रहा है। हम उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वे अकेले नहीं हैं। पूरी दुनिया उनके साथ है। हमारा देश लोकतंत्र तथा बेहतर जीवन और न्याय के लिए लड़ने वाले लोगों का समर्थन करता है।'

यह समाचार में लिखा था, 'विदेशी कूटनीतिज्ञ अकसर विरोधियों से मिलते हैं लेकिन वे सामान्यत: जन समारोहों में नहीं आते और सरकार के बारे में अपनी राय प्रेस को नहीं बताते।'
'मैं यहां एक अतिथि के रूप में आया हूं। मैं पूरे देश में घूमते हुए स्वतंत्रता और न्याय की चाह रखने वाले लोगों से मिलूंगा।'
कोई भी देख सकता है कि यह एकदम निर्लज्ज और ढीठतापूर्ण उकसावा है। जाहिर है कि डर कूटनीतिक कवच पहने इस बदमाश और उससे ये सब बातें कहने देने वाले लोगों को है। उसकी हरकतों से ही पता चल जाता है कि इस 'देश भक्तिपूर्ण' समारोह में कितनी शराब चली।

वास्तव में क्यूबा केवल इतना डरा हुआ है कि वह इस अजीब अधिकारी के बारे में शांति के साथ निर्णय लेगा। इंटेरेस्ट्स सेक्शन में काम करने वाले अमरीकी खुफिया एजेंट उसे यह बता सकते हैं कि क्यूबा का इस कार्यालय के बगैर भी काम चल जाएगा जो प्रतिक्रांतिकारी पैदा करने का ठिकाना और हमारे देश के खिलाफ तोड़-फोड़ के लिए कमांड चौकी बन गया है। स्विट्जरलैंड के अधिकारी, जो अमरीकी हितों को देखते थे, ने कई वर्षों तक उत्कृष्ट कार्य किया। उन्होंने खुफिया या तोड़-फोड़ का काम नहीं किया। यदि वे इस तरह ढीठ घोषणाओं द्वारा हमको उकसाना चाहते हैं तो ईमानदारी और साहस दिखाते हुए इसे स्वीकार करें। किसी न किसी दिन अमरीकी अवाम अपने देश का सच्चा राजदूत हमारे यहां भेजेंगे जो स्पेनी शूरवीरों के बारे में उनके विचारों के अनुसार 'निडर और निष्कलंक' होगा।

अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में हम हाल के वर्षों में अर्जित नए अनुभव का प्रयोग करेंगे। तेल उत्पादन और बचत में वृध्दि होगी।

अब हम अपने उद्यमों की सक्षमता बढ़ाने और उनमें अनुशासन लाने की बेहतर स्थिति में हैं। ये उद्यम दुर्लभ मुद्रा के मामले में वित्तीय दृष्टि से आत्मनिर्भरता पर अधिक जोर देने के कारण ऐसी गलतियां कर देते हैं जिससे देश के केंद्रीय संसाधनों पर असर पड़ता है।

हमने बहुत सीखा है और बहुत कुछ सीखेंगे। राजस्व के नए स्रोत पैदा हो रहे हैं। संसाधनों का मुस्तैदी से प्रबंधन किया जाना चाहिए। पुरानी और नई बुरी आदतें छोड़ी जानी चाहिए। ईमानदारी और सक्षमता के लिए लगातार सतर्कता जरूरी है।

पिछले सदन ने इतिहास का एक महत्वपूर्ण चरण पूरा किया। इस सदन को भी पीछे नहीं रहना चाहिए। हमारे इतिहास में पिछले चुनाव सर्वोत्तम थे। यह मैं हर दृष्टि से सुधरे आंकड़ों या गुणवत्ता को देखकर नहीं कह रहा हूं। गुणवत्ता पहले ही बहुत अच्छी थी। यह मैं मतदाताओं के असाधारण उत्साह को देखते हुए कह रहा हूं। यह उत्साह मैंने अपनी अनुभवी आंखों से देखा है जो कि विचारों की लड़ाई और हमारी राजनीतिक संस्कृति के तेजी से विकास के कारण आया है।

कामरेड डिप्टियो, मैं आपका तथा अपने प्रिय अवाम का कौंसिल ऑफ स्टेट की ओर से तथा अपनी ओर से शुक्रगुजार हूं कि आपने 50 वर्षों लंबे क्रांतिकारी संघर्ष, जो पहली लड़ाई के दिन से ही शुरू नहीं हुआ था, के बाद एक बार फिर हममें अपना विश्वास व्यक्त किया है। हम सब जानते हैं कि समय गुजर रहा है और ऊर्जा भी खत्म हो रही है।

संभवत: अनंत संघर्ष ने हमें इस लंबी लड़ाई के लिए तैयार किया। मेरे विचार से यह सब बड़े-बड़े सपनों, अक्षय जोश, अपने शानदार ध्येय के प्रति निरंतर बढ़ते प्रेम के कारण संभव हुआ है। यह सब दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है लेकिन जीवन के लिए अटल नियम हैं।

मैं आपसे वायदा करता हूं कि आप जब तक चाहेंगे और जब तक मुझे यह लगेगा कि मैं आपके लिए उपयोगी हूं तब तक आपके साथ रहूंगा, बशर्ते कि कुदरत और कुछ फैसला न कर दे। इससे एक सेकेंड भी पहले या एक सेकेंड भी बाद नहीं।अब मैं समझता हूं कि जीवन की संध्या में विश्राम मेरे नसीब में नहीं है।

( फिदेल कास्त्रो )
( विजय शंकर सिंह )

शब्दवेध (27) श्रुति

भाषा के लिए भारोपीय भाषाओं में कितने शब्द प्रयोग में आते हैं उसका हमें पता नही। भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों का भी पता नही। यहाँ तक कि संस्कृत की क्षत्रछाया में आने वाली बोलियों  में प्रचलित शब्दों का भी ज्ञान नहीं। तथ्य संकलन किसी भी क्षेत्र से संबंधित हो, यह अपने आप में बहुत बड़ा काम है और इस दिशा में जिन साधनों, जितने समय और जैसी एकाग्रता की अपेक्षा है उसका मुझमें अभाव भी रहा है।

जिन तथ्यों की जानकारी मुझे है उसका भी पूरा उपयोग नहीं कर पाता। समय की सीमा के अतिरिक्त पाठकों के सिर दर्द की भी चिंता रहती है। संख्या बढ़ने से बोझ बढ़ता है; परिणाम में अंतर नही आता। परन्तु इस परिधि में भी, शब्दों के आपसी संबंध को समझना कम टेढ़ा और साहसिक काम नही है। 

उदाहरण के लिए हम तमिऴ के चोल्/शोल् - बोलना; शोल् मोऴि - मुहावरा, लोकोक्ति, को लें। हमारी आज की जानकारी के अनुसार यह उन बोलियों में से किसी का शब्द है, जिसका विलय सं. और त. आदि में  हुआ था।  क्या शोल का हिं. शोर - ऊँची आवाज में बहुत से  लोगों का एक साथ बोलना से; शोर का श्रव =बहुत से लोगों द्वारा कहे जाने (तु. नाम> नामी, सरनाम या नामवर आदि ) से,  श्रवण -  सुनना, सुनने की इन्द्रिय,, श्रुति, श्रव्य, श्रुत, अल्प- /बहु-- श्रुत- वान/ -ज्ञ, श्रुधी से कोई संबंध है या नहीं और यदि है तो इसका इतिहास कितना पीछे जाता है। 

यहाँ हम भाषा के अनुनादी सिद्धान्त के एक नियम की याद दिला दें कि जिन वस्तुओं और स्रोतों से कोई ध्वनि नहीं निकलती उनकी संज्ञा उनसे किसी भी दृष्टि निकटता, संबंध या विरोध प्रदर्शित करने वाले ऐसे स्रोतों से मिलती है जिनसे ध्वनि पैदा होती है, इसलिए कान और सुनने के समस्त  कार्य व्यापार से लिए मौखिक उच्चार से संज्ञा मिलना स्वाभाविक  ही था। 

परन्तु क्या यह मुख से उत्पन्न किसी ध्वनि से व्युत्पन्न शब्द है?  फिर बोलने के लिए इसका प्रयोग क्यों नहीं होता? सुनने के लिए ही क्याें। हम खींच तान से कुछ भी सिद्ध करने क्यों न लगें, सामान्यतः मुख से उच्चरित किसी ध्वनि को इसके निकट नहीं पाते।  

जिस स्रोत से इससे मिलती जुलती ध्वनि निकलती प्रतीत होती है वह जल है जिससे चर/सर स्र/श्र/श्ल की ध्वनि निकलती  कल्पित की गई है। सं. के आचार्य किसी भी स्रोत से उत्पन्न ध्वनि को, विशेषतः जिसका वाचिक आशय में प्रयोग हुआ हो, शब्दन/भाषण या कथन मानते रहे हैं यह अर्थपाठ से ऐसी धातुओं की विशाल संख्या से ही समझा जा सकता है। अतः शोर, शोल्, श्रव, श्रुत, श्रव, श्रवण, श्रावक सभी केे नाद का स्रोत जल - स्राव, स्रोत, सोता, श्रावण - बरसात  का मौसम सभी का अनुनादी स्रोत जल है न कि मुख।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (26) वाक्

भाषा के लिए प्रयोग में आने वाले दूसरे अनेक शब्द हैं- वाक् (>*वचन, बाँचल, वाशी (voce, voice, >vocal/ vocabulary, vocation> cf. calling- पेशा) - भाषा,  कथ, कत्थ, कथनी/ कहनी (> कथन/कहन; कथा, कहानी) और आर्तभाव के कुछ कहना - भो. कहँरल,(*कद/खद/गद>  (कदराना, कातर क्रदन/ क्रंदन, भो. *कलप/ सं. कल्प - आवाज>कलाप, कलापी, कलपल आदि।   

इनमें से प्रत्येक पद ऐसा है जिसके एकाधिक उच्चारभेद थे और उनमें कौन सा सबसे पुराना है और किस बोली ने किससे इसे ग्रहण किया और अपनी ध्वनि-व्यवस्था में ढाल लिया और फिर सबके एक बृहद समाज का अंग बन जाने और सभी रूपों के साथ प्रचलित होने के बाद इनमें से कुछ नई व्यंजनाओं के लिए प्रयोग होने लगे, यह ध्यान देने योग्य है।  जिन कालों में ये विकास हुए उनसे बहुत दूर होने के कारण पूरी सावधानी के बाद भी हमारे कुछ समीकरण गलत हो सकते हैं, यह मानने के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए। 

भारतीय भाषाओं के विषय में दो विरोधाभासी विचार मिलते हैं।  पहला यह कि इसमें अन्विता ऐबी द्वारा उद्धृत यूनेस्को के आकलन के अनुसार1600 बौलियाँ बोली जाती हैं, जब कि भारत सरकार के अनुसार यह 200 से कुछ ऊपर और सिल (समर स्कूल ऑफ लिंग्विस्टिक्स) के अनुसार 300 से कुछ अधिक बैठती है। हमारे लिए इनमें से कोई भी संख्या आश्चर्यजनक है। परन्तु इसका दूसरा पक्ष यह कि इनका विभेद पूर्वोत्तर  के कबीलाई क्षेत्र में सर्वाधिक है जिसमें कबीलाई अभिमान और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन तथा प्रशासनिक एकाधिकार के अभाव के कारण बृहद सामाजिक संरचना और उसके कारण स्वाभाविक रूप में बोलियों के क्रमिक विलय से उन्नत भाषाओं का विकास नहीं हो सका, जब कि शेष भारत में उसके विपरीत कारणों से विविधताओं का क्रमिक लोप होने के कारण इनकी संख्या कम होती गई, इसके बाद भी इनकी संख्या काफी अधिक है।

 परन्तु यहाँ भी यह नियम काम करता दिखाई देता है कि पिछड़ेपन के अनुपात में भिन्नता अधिक है और सामाजिक आर्थिक प्रगति के अनुपात में पारस्परिक संपर्क के लिए एकरूपता के समानान्तर स्थानीय  रागात्मकता के कारण “ कोस कोस पर पानी बदले चार/आठ कोस पर बानी”  मुहावरे का चलन है।   संभवतः इसी के आधार पर युनेस्को के 2012 से पहले के किसी सर्वेक्षण में इनकी संख्या 1600 से अधिक पहुँचा दी गई थी - ज्ञान, विज्ञान और कूटनीति का विकास पश्चिम में साथ साथ हुआ है। 

 हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि प्राचीनतर अवस्थाओं में बोलियों की संख्या अधिक रही है और सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक (जिसमें कला, साहित्य और मतवाद को भी लिया जा सकता है)  के कारण वह निकटता आई है जिसके कारण बोलियों और भाषाओं के बीच पारिवारिकता का भ्रम पैदा होता है।  इसकी त्वरा (डाइनैमिक्स) को न समझ पाने के कारण ‘प्रचंड’ भाषा विज्ञानियों ने सत्ता और प्रचार-साधनों पर एकाधिकार के बल पर  वास्तविकता को उलट कर एक आद्य भाषा के विभेदन या ह्रास से पारस्परिक समानता रखने वाली बोलियों और मानक भाषाओं का जन्म लगातार दिखाया और भाषा शास्त्र के शिक्षित और प्रशिक्षित विद्वान और संस्थान (सिल और यूनेस्को भी) आज तक जिसे  दुहराते आ रहे हैं । 

वे आदम की बोली या नोआ  और उसकी संतानों की बोली को वास्तविकता मान कर अटकलबाजियाँ करते रहे। जिस संस्कृत के वर्चस्व को कम करने के लिए भाषाविज्ञान और भाषा-परिवार की उद्भावना की गई थी उसमें भी संस्कृत से सभी भाषाओं की उत्पत्ति का सिद्धांत प्रचलित था  सो एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। 

तथ्य और अटकलबाजी के इस द्वन्द्व में आज तक अटकलबाजी की जीत होती आई है और वह भी विज्ञान के नाम पर। हमने 1973 में ही, (आज से लगभग पाँच दशक पहले) इसका खंडन किया था, पर हिंदी में ही नहीं, किसी गैर-यूरोपीय भाषा में प्रतिपादित किसी नई स्थापना को उस भाषा के लोग तक नहीं मानते, पूरी दुनिया यूरोप की किसी भाषा में प्रस्तुत नए लचर विचारों को, उनके प्रचार-कौशल और जमी हुई धाक के कारण, युगान्तरकारी मान कर स्वयं, अपने को अद्यतन जानकारी से लैस सिद्ध करने के लिए, उनका वितरक बन जाती है।  आज भी हिंदी में लिखते समय यह अंदेशा तो बना ही रहता है कि इसे समझेंगे कितने और मानेगा कौन।

दूसरा तथ्य यह कि अपनी निजता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील बोलियों के साथ ही, आहार की तलाश में, भिन्न बोलियों के परिवेश या पड़ोस में होने और उनके बृहत्तर घटकों मे समायोजित होने के कारण और अलग बनी रह गई भाषाएँ बोलने वालों के प्रत्यक्ष या परोक्ष संपर्क के कारण सभी के तत्व सभी में तलाशे जा सकते हैं जिसे आर्य-अनार्य आदि नकली पहचानों  के आर-पार देखा जा सकता है और जिसकी नितांत सतही समझ के बल पर इमेनों ने तब के भारत को एक भाषाई क्षेत्र के रूप में पहचाना था और जिसके भुलावे में आकर माधव देशपांडे सिंधु-सरस्वती सभ्यता के समय एक प्रोटो इंडियन भाषा की कल्पना कर बैठे जिसका हवाला हम पहले दे आए हैं। 

इस पृष्ठभूमि के बाद हम यह भी स्वीकार करें कि शब्दों का विवेचन करते समय इस उत्साह में कि फिर बात शब्द से ही क्यों न आरंभ की जाए, हमने भाषा की उत्पत्ति और विकास पर बात करने की दृष्टि से गलत आरंभ किया।  मनुष्य विविध वस्तुओं, क्रियाओं, विशेषताओं, आदि लिए शब्दों का प्रयोग करते हुए भी चिंतन की उस ऊँचाई पर दसियों हजार साल बाद पहुँचा जब वह यह सोच सका कि जिस माध्यम से वह वह काम करता है उसका भी कोई नाम होना चाहिए और उसके विषय में भी जानकारी रखी जानी चाहिए और उसके भी बहुत बाद यह सोच सका कि इस जानकारी का भी अपना नाम होना चाहिए।  भाषा का नाम आज भी प्रायः अंचलों के और अंचलों का नाम उनमें  अधिक संख्या में बसने वाले जनों और भौगोलिक लक्षणों के आधार पर रखा जाता है और जनों को उनकी संज्ञा या तो उनके अभिमान को प्रकट करने वाले शब्दों से (होर- मनुष्य, बिरहोर - जंगल का मनुष्य, मुंडा- सर्वोपरि और आर्य- श्रेष्ठ) या उनके पड़ोसियों और शत्रुओं से मिला है।   

जो भी हो भाषा के जिन पर्यायों को हम ऊपर गिना आए हैं उनके विषय में यह सोचना सरलीकरण होगा कि इन सभी का नामकरण मुख से निकलने वाली ध्वनियों में से किसी एक से हुआ होगा।  उनमें से बहुत कम शब्द हैं जिनकी उत्पत्ति मुख की निसर्गजात ध्वनियों से हुआ है और कुछ का नादस्रोत एक ही नहीं दो कदम पीछे मिलेगा।  उसके विवेचन को कल के लिए स्थगित रख सकते हैं।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (25) वण, वणिक और बनिया.

किसी भाषा की समग्र संपदा का अनुमान करना लगभग असंभव है यदि उसमें लिखित समस्त साहित्य, उसके समस्त कोष ग्रंथों को एकत्र कर लें  तो भी  उसका इतना बड़ा अंश  बाकी रह जाएगा जो संभव है हमारी संचित सामग्री से भी अधिक पड़े।  कारण,  भाषा  पूरे समाज की होती है और उसका समग्र किसी एक व्यक्ति, एक वर्ग या व्यक्तियों  और वर्गों के समूह के  पास नहीं हो सकता।[1]   एक ही व्यक्ति को  भाषा का जो ज्ञान है  उसका बहुत बड़ा अंश  उसकी  स्मृति में नहीं आ सकता।   इसलिए हम कितने भी प्रयत्न कर ले हमारे विवेचन से बहुत कुछ ऐसा छूट जाएगा जिसका भाषा की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है।

It is at once a social product of the faculty, of speech, and a collection of necessary conventions adopted by the social body to allow the exercise of this faculty by individuals. It is a whole in itself and a principle of classification. As soon as we give it the first place among the facts of speech we introduce a natural order in a whole which does not lend itself to any other classification." La langue is further "the sum of the verbal images stored up in all the individuals, a treasure deposited by the practice of speaking in the members of a given community; a grammatical system, virtually existing in each brain, or more exactly in the brains of a body of individuals; for la langue is not complete in any one of them, it exists in perfection only in the mass."  F. de Saussure, Cours de Linguisiique GénIrale, pp 23 31

जब हम वण/वणिक/बनिया  पर बात कर रहे थे  तो  उसके तोड़ने,  वितरित करने  वाले पक्ष पर हमारा ध्यान  इतना केंद्रित हो गया  कि  उसका जोड़ने, गढ़ने और जुटाने वाला पक्ष हमारी दृष्टि से  ओझल गया।  भाषा में  तोड़ने के लिए जो शब्द हैं  वे ही जोड़ने,  गढ़ने और बनाने के लिए  भी प्रयोग में आते हैं,  क्योंकि हम बिना किसी प्रयोजन के किसी चीज को  तोड़ते, काटते, तराशते  और घिसते नहीं हैं,  बल्कि  कुछ बनाने  और जोड़ने के लिए  यह कष्ट करते हैं।  बनना,  बनाना, बनावट - 1. निर्मिति; 2. कृत्रिमता;  बुनना, बुनावट,     बँधना,  बाँधना, बंधु,  वधू,  बंधन,  बंदा =   बंधा हुआ, लाचार,  समर्पित; वंदना (समर्पित भाव से निवेदन या याचना> वंदनीय, वन्द्य  आदि का भी  जनक  वही वण<>बन है। यदि इसे समझने में कठिनाई हो रही हो तो  आरती  अर्थात्   आर्त भाव से निवेदन पर ध्यान दे सकते हैं।   निवेदन के साथ  कामना की पूर्ति करने वाले  को प्रसन्न करने के लिए  पेश किए जाने वाले चढ़ावे  से ही  नैवेद्य का संबंध है और  निवेदन भी  वेदना का सम्यक प्रकाशन ही है। 
 
हमारे शिष्ट व्यवहार में  ऐसा बहुत कुछ है जिसे समादृत बना दिया गया है परन्तु वह आदिम अवस्था से आया हुआ है इसलिए जिसकी प्रकृति भिन्न थी; कुछ मामलों में अटपटा होते हुए भी आज की तुलना में अधिक तर्कसंगत भी थी।  भगवान भक्तों (भागीदारों) को उनके कर्म के अनुसार फल देता है।  पहले यह श्रम के अनुपात में था, व्यापारिक चरण पर लागत, जोखिम और श्रम  के अनुरूप और भाववादी चरण पर श्रद्धाभाव या निष्ठा के अनुसार। यह परिवर्तन किसी एक  क्षेत्र में नहीं हुआ था, ऐसा परिवर्तन सभी क्षेत्रों में हुआ। उनकी गिनती कराने चलें तो विषय विस्तार होगा।  फिर भी संक्षेप में यह उल्लेख जरूरी लगता है कि भगवान या,  धन का वितरण करने वाले (सनिता धनानां) के पास वह धन कहाँ से आता था, जिसका वह वितरण करता था।  समूह के लोग जो भी शिकार करते, फल-कंद एकत्र करते उसे   दल  के सरदार के पास जमा करते थे और उसी का वितरण वह करता था।  यह तरीका उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी तक अनेक पिछड़े समुदायों में तो प्रचलित था ही, इस्लाम में मध्यकाल तक चलन में था। सिपाहियों को विजय पाने के बाद विजित समाज को खुल कर लूटने का अधिकार था, जिसे वे राजा या उसके सुल्तान/ बादशाह को सौंपते थे और वह उसका कुछ (पाँचवाँ) भाग अपने पास रख कर बाकी उन्हें लौटा देता था।  

वैदिक काल में व्यापार वाणिज्य के दौर में विदेशों में जाने वाला माल बीच के पड़ावों और परिवहन की समस्या के कारण रास्ते में माल मिल जाता था और सभी का माल आपस में मिल गड्डमड्ड हो जाता था इसलिए भाग के देवता भग (अग्नि) के साक्ष्य में सभी को उनका हिस्सा मिलता था।  सभी को अपने उचित हिस्से (देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते, 10.191.2)  से संतोष करना होता था।  वितरण करने वाले नेता का भी अपना देवभाग होता रहा होगा।  आज भी मंदिर आदि के जो कुछ चढ़ाया जाता है उससे देवता का थोड़ा सा हिस्सा अपने पास रख कर शेष लौटा देता है।  

इसी तरह हमारे आचार में जो प्रशंसित चेष्टाएँ हैं वे युद्ध में समर्पण के प्रतीक हैं।  आज भी पराजित सेना अपने हथियार डाल कर, दोनों हाथ ऊपर उठा कर, श्वेत ध्वज फहरा कर संकेत भाषा में यह संदेश देती है कि हम पूरी तरह आप की शरण में हैं, आप हमारे साथ जैसा चाहें व्यवहार कर सकते हैं, हम प्रतिरोध नहीं करेंगे।

ठीक वही भाव करबद्ध (इस शब्द का प्रयोग आज भी होता है) प्रणाम ( नमन या झुकना कि अगला चाहे तो उसकी गर्दन भी काट सकता है।) यह भाव वीरासन में भी है, पर जानुपात और दंडवत में यह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है।  हमारी तुलना में पश्चिम के अभिवादन में गरिमा अधिक है।  मुष्टिपीडन (महाभा.) समानता के साथ सुख-दुख में सहभागी होने की हार्दिकता का द्योतक है, यद्यपि भारोपीय संपर्क क्षेत्र में भारतीय अभिवादन का भी प्रसार हुआ था, इसका कुछ संकेत लातिन में भाषा में बचा रह गया लगता है:

Caput-...head, cacipit..- of the head, .. in compound the root appears as cipit...A precipitate person is head-long, precipitation of a chemical solution means certain part of it falls headlong to the bottom….Margaret Schlaugh, The Gift of Tongues, London, 1949 p. 85.

चरवाही पर निर्भर दबंग समुदायों में यह  चल नहीं पाया, जैसे वर्ण-व्यवस्था नहीं चल पाई जिसकी छाया प्राचीन ईरान, रोम, गॉथ सभी में लक्ष्य की गई है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (24) वण

कल मैंने सोचा भण  पर चर्चा पूरी हो गई । आज आगे  बढ़ना चाहा  तो उसी शब्द ने रास्ता रोक लिया, “तुमने  वणिक की  बात की और बनिए को छोड़ दिया।”   

कौरवी  का  वणिक पूर्वी में आया  तो बनिया बन गया । मतलब तो यहां भी बांटने वाले से ही था।  परदेस का माल लाकर देश में बांटने वाले  कौरवी के वणिक को  पूरबी में बनिक होना चाहिए था, पर पूरबी को पच्छिम का प्रत्यय ‘इक’ भी स्वीकार नहीं था।  उसका अपना प्रत्यय ‘इया’  उसे इतना प्रिय था  जहाँ इसके बिना काम चल सकता था, वहाँ भी लगा दिया करता था- राह>रहिया, चिरई> चिरइया - फिर वणिक को बनिया तो बनाना ही था। 

कौरवी में बांटने के लिए  वणन् होना चाहिए था,  परंतु  किसी दबाव में  ‘ण’ अनुस्वार  और  अघोष ‘ट’ (ण्ट) में बदल गया,  और वंटन बन गया।   जिस तर्क से वण वर्ण = अलग करने वाला, अंतर प्रकट करने वाला बना था  और  वस्तुओं के रंग में अंतर को दिखाने के लिए  प्रयोग में आने लगा था और फिर आगे चलकर  ध्वनियों में अंतर को दिखाने के लिए प्रयोग में आया, उसी तर्क से  इसका एक और रूप  ‘वर्तन’ बना जिसमें तालव्य ‘न’ के सटे  पास की (आसन्न) ध्वनि के प्रभाव से ‘ट’ बदल कर ‘त’ हो गया।  वंटन और वर्तन के पीछे कौरवी क्षेत्र में प्रभावशाली रूप में उपस्थित पूरबियों का हाथ रहा हो सकता है। वे संपदा पर अधिकार जमाए थे, अपनी भाषा को बचाए रखने के आग्रही थे, पर संख्या में स्थानीय आबादी से कम होने के कारण उन परिवर्तनों को रोक पाने में असमर्थ थे, जिनको संस्कृतीकरण का पहला चरण कहा जा सकता है।   

पूरबी प्रभाव में वंटन  बाँटल बना जिसे कौरवी के -न/-इन प्रत्यय की  तुलना में अपना -ल/-इल पसंद था। इसी तरह वर्तन - बरतल बना परंतु जिस साधन से तुला का आविष्कार होने से पहले शुष्क और द्रव दोनों को बाँटने का काम किया जाता था, उसका विकास कौरवी में हुआ था। यह पूरबी में  कौरवी से लौटकर आया हुआ शब्द था।  

भोजपुरी में  बर्तन के लिए /बसना’/ ‘बासन’ का प्रयोग होता था।  ‘बस’ का अर्थ था कोई चीज इसी को कौ. में वस्तु बनाया गया।  कौरवी में य, र, व प्रेम इतना था कि यह उच्चारण को सुकर मनाने के लिए इनका अंतः-प्रत्यय के रूप में समावेश कर लेती थी, अतः पूरबी का  ब>व हो गया और सभ्यता के उत्थान के साथ, इसके अर्थोत्कर्ष से प्रभावशाली शब्दावली का विकास हुआ।  

बस का किसी चीज, किसी प्रकार के धन के  लिए प्रयोग होता था, इसका अवशेष ऋग्वेद (वसां राजानं-ऋ.5.2.6, सभी संपदाओं के राजा को) में  बचा रह गया है - यही ‘वस्तु’ का जनक बना। लेन-देन (exchange) मे उस चीज के बदले (मोल) में जो चीज दी जाती थी उसे  भी ‘बसन‘  (ऋ. वस्न - मोल जो फा. में पहुँच कर वजन - अर्थात तौल - ‘उसकी बराबरी का’ - बन गया) । 

वह आधान  जिसमें वस्तुएँ समेटी या रखी जा सके, बसना/ बासन = वर्तन>बरतन के रूप में भो. में प्रयोग में आता है,  परंतु वर्तन और बसना में अर्थ उल्टा है। पूर्व से नए कछारों की तलाश में पश्चिम की ओर बढ़ते हुए कौरवी क्षेत्र में पहुँचने वाले जीवन यापन से आगे नहीं बढ़ पाए थे, इसलिए उनके लिए आधान या बासन समेटने सहेजने के लिए था, तोड़ने और विभाजित करने का भाव उसमें नहीं था, पर कुरु पांचाल  से सिंध पर्यंत भूभाग में नगर सभ्यता, उद्योग, व्यापार का विकास हुआ इसलिए आधान (सोमधानी, सुराधानी, अपिधान) जैसे प्रयोग भी मिलते है , कोश (महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च) और क्रिवि   (क्रिविर्न सेक आ गतं ) का उल्लेख है और पुरातत्व से इनके अनुरूप विशाल भंडारण पात्र भी पाए गए हैं, परंतु वर्तन पात्र से अधिक वितरण का मानक या माप का साधन बन गया था। 

हड़प्पा के संदर्भ में ईंटों, बटखरों, स्नानागार और भांडागारों की माप तो की गई है परंतु मेरी सीमित जानकारी में एक तरह के पात्रों के आकार और मानक्रम का अध्ययन नहीं किया गया।  इसका एक कारण यह है कि सभी पात्र टूटी-फूटी अवस्था में मिले और उनके सामने उनके सही टुकड़ों को तलाश कर पहले की शक्ल में ले आना ही प्रमुख चुनौती बनी रही न कि उनका मान और मानक्रम तय करना।

भोजपुरी में कोसा (कोश), तौला (तोला), भार (भर), भरुका जैसे प्रयोग, कुम्हार का पेशा तक,  सभ्यता के प्रसार क्रम में कौरवी प्रेरित हैं, क्योंकि जिस चरण पर पूरब से पश्चिम की दिशा में प्रयाण किया उस समय तक वर्तन पकाने की कला किसी को मालूम ही न थी।

वस का प्रयोग पहनावे के लिए भी होता था जिसे ‘बसन’ में देखा जा सकता है। इसी का प्रयोग घोसले (वृक्षे न वसतिं वयः ।। ऋ.10.127.4)।  आवृत करने, घेरने के आशय के प्रभाव से  वस का दूसरा रूप ‘वसु’ - खनिज संपदा बन गया और खनिज पदार्थों का दैवीकरण वसुओं (वसवः) और वसुगण में हुआ। संभव है फा. ‘वसूली’ वस/वसु से ही व्युत्पन्न हो।  अपनी क्षत्रछाया मे रखने या शरण  (वसतिं जनानाम्, ऋ.5.2.6 - जनता के शरणदाता) और फिर बस्ती के लिए और नि-वास  ‘बासा’ के लिए हुआ। बस > वस >वस्तु > वास्तविकता, वास्तु, वास्तुकार/-कला, -कृति; >वास - बसन,  वासोवाय- बुनकर, >वस्त्र, बस> अलं/ बेसी= बहुत> बां. बेश = बहुत, अच्छा आदि पर ध्यान दें।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )