Tuesday 22 March 2022

एक कुजात गांधीवादी को याद करते हुए / विजय शंकर सिंह

आज ( 23 मार्च ) एक कुजात गांधीवादी का जन्मदिन है, हालांकि उस कुजात गांधीवादी ने अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाया। उसी के जन्मदिन के दिन ही शहीद ए आज़म भगत सिंह को साल 1931 में फांसी पर लटका दिया गया था। पर जन्मदिन पर कोई जश्न न मनाए, पर जन्मदिन तो आता ही है और आकर गुज़र भी जाता है। वह कुजात गांधीवादी थे, देश के समाजवादी आंदोलन के एक प्रमुख स्तम्भ डॉ राममनोहर लोहिया। डॉ लोहिया का जन्म 1910 ई में हुआ था और वे युवा होते ही स्वाधीनता संग्राम में शामिल हो गए थे। वे खुद को गांधी के सविनय अवज्ञा यानी सिविल नाफरमानी से प्रभावित मानते थे और जब गांधीवाद की बात चलती थी, तो खुद को कुजात गांधीवादी कहते थे। यह बात वे परिहास में नहीं कहा करते थे, बल्कि उन्होंने इस वर्ग विभाजन को, सरकारी, मठी और कुजात गांधीवादी, शीर्षक से एक विचारोत्तेजक लेख भी लिखा है। इन श्रेणियों का विभाजन करते हुए वे कहते हैं कि सरकारी गांधीवादी वे हैं जो कांग्रेस में हैं और सत्ता में हैं, जैसे जवाहरलाल नेहरू। मठी गांधीवादी वे हैं, जो गांधी जी के नाम पर प्रतिष्ठान चला रहे हैं जैसे सर्वोदय से जुड़े लोग, आचार्य बिनोवा भावे और जयप्रकाश नारायण। कुजात गांधीवादी वे हैं, जो हैं तो असल मे गांधीवाद की राह पर चलने वाले, पर उन्हें न तो सरकारी गांधीवादी, गांधीवादी मानते हैं और न ही मठी गांधीवादी, यानी वे इस वर्ग से बहिष्कृत हैं, और इसीलिए वे कुजात गांधीवादी कहलाये।

1937 में कांग्रेस से एक धड़ा अलग होकर, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से एक नयी पार्टी बनाता है। इस धड़े में शामिल होने वाले तत्कालीन कांग्रेस के नेताओ में प्रमुख थे, आचार्य नरेंददेव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्द्धन, मीनू मसानी, और डॉ लोहिया। 1937 में कांग्रेस में एक वैचारिक उथलपुथल हुयी थी। 1937 में समाजवादी धड़ा अलग हुआ, 1939 में सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, और 1939 - 40 में ही वामपंथी विचारधारा पर आधारित अग्रगामी दल, यानी फारवर्ड ब्लॉक का गठन किया, फिर 1940 में कांग्रेस प्रांतीय सरकारों से अलग हो जाती है और 1942 में स्वाधीनता का सबसे लोकप्रिय जनआंदोलन भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होता है। उस समय कांग्रेस के पहली पंक्ति के सभी बड़े नेता 8/9 अगस्त 1942 की रात ही गिरफ्तार हो जाते हैं और तब उस जनआंदोलन के जुझारू नेतृत्व के रूप में उभरते हैं, जयप्रकाश नारायण, डॉ लोहिया, अरुणा आसफ अली और युवा समाजवादियों की जुझारू टोली। 1937 में कांग्रेस से चाहे, समाजवादी धड़ा अलग हुआ हो या 1939 में सुभाष बाबू, पर गांधी के नेतृत्व पर सबकी निर्विवाद आस्था रही है। सुभाष, गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा देते हैं, आज़ाद हिंद फौज में पहली ब्रिगेड का नाम गाँधी जी के नाम पर रखते हैं, और डॉ लोहिया खुद को गांधी का असली शिष्य मानते हैं, और ख़ुद को असली गांधीवादी कहते हैं।

डॉ लोहिया का जवाहरलाल नेहरू से मोहभंग आज़ादी के समय से ही होने लगा था और यह टकराव नेहरू के जीवित रहने तक रहा। लोहिया की जीवनी लिखने वाले ओंकार शरद, गांधी जी की अंतिम यात्रा में जब वे, तोपगाडी पर रखे महात्मा गांधी के पार्थिव शरीर के साथ नेहरू को जूते पहने उक्त वाहन पर देखते हैं तो, असहज हो जाते हैं। नेहरू लोकप्रियता के शिखर पर तब भी थे और देश के पहले प्रधानमंत्री तो वे थे ही। डॉ लोहिया सोशलिस्ट पार्टी से 1952, 57, 62 के चुनाव लड़ते हैं और बराबर हार जाते हैं। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस के साथ साथ नेहरू की लोकप्रियता भारतीय जनमानस में बसी हुयी थी। अंत मे 1963 में हुए फरुखाबाद के लोकसभा के उपचुनाव में लोहिया जीतते हैं और संसद में पहुंचते हैं। लोकसभा में लोहिया का पहुंचना भारत के संसदीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। वे दुबारा 1967 में फिर फर्रुखाबाद से ही लोकसभा के लिये चुने जाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से 12 अक्टूबर 1967 को जब लोहिया अपनी लोकप्रियता के शिखर पर होते हैं, और विपक्ष की सबसे मुखर, तार्किक और ओजस्वी आवाज़ थे, तभी उनका निधन हो जाता है। यह देश के समाजवादी आंदोलन की अपूर्णीय क्षति थी।

लोहिया एक सतत विरोधी और विद्रोही व्यक्तित्व के थे। केरल में जब पहली  सरकार सोशलिस्ट पार्टी के समर्थन से बनी, और जब उक्त सरकार के कार्यकाल में केरल में हुए एक छात्र आंदोलन पर, गोलियां चलाई गयीं तो, डॉ लोहिया ने, अपनी पार्टी का समर्थन वापस लेने की बात कही। जनांदोलन से निकले डॉ लोहिया यह सोच भी नहीं सकते थे, कि, कोई सरकार अपने ही नागरिकों पर कैसे गोली चला सकती है। इसे आज की सरकारों द्वारा जन आंदोलनों से निपटने की नीति से तुलना कर के देखेंगे तो, शायद उक्त समय की परिस्थितियों को समझ नहीं पाएंगे। सोशलिस्ट पार्टी में मतभेद हुआ। और डॉ लोहिया ने अपनी एक नयी पार्टी बना ली, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी जिसका चुनाव चिह्न बरगद था। यही से उनका मंत्र शुरू हुआ सुधरो या टूटो। नहीं सुधर सकते तो टूटो और शेष जिजीविषा एकत्र कर के फिर से उठो, जैसे राख से उठता है स्फिंक्स और फिर अनन्त में उड़ता है।

लोहिया की राजनीतिक लाइन गैर कांग्रेसवाद की थी। उनके समय मे कांग्रेस का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू के पास था, लोहिया के मुकाबले, वे न केवल एक बड़े नेता थे बल्कि उनकी लोकप्रियता भी समकालीन नेताओ में सबसे अधिक थी। लोहिया उनके खिलाफ भी लोकसभा का चुनाव इलाहाबाद के फूलपुर क्षेत्र से लड़े। ज़ाहिर है नेहरू को हराना असंभव था, और लोहिया हारे, पर अपनी जमानत बचा ले गए। इस चुनावी मुकाबले का बड़ा रोचक विवरण, ओंकार शरद, डॉ लोहिया की जीवनी में करते हैं। लोहिया जब नेहरू के खिलाफ फूलपुर से चुनाव में उतरने का निश्चय करते हैं तो वे, नेहरू को एक पत्र लिखते हैं और उसमें वे यह लिखते हैं कि, 
" मैं जानता हूँ मैं पहाड़ से सिर टकरा रहा हूँ, पर यदि पहाड़ थोड़ा सा भी हिला तो इसे मैं अपनी सफलता मानूंगा। मैं आप को हरा कर 1947 के पहले वाले नेहरू में लाना चाहता हूँ, जो हम सब युवकों का तब एक आदर्श हुआ करता था।" 
नेहरू न केवल लोहिया को उनकी जीत के लिये शुभकामनाएं देते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि, वे लोहिया की सहायता के लिये अपने चुनाव क्षेत्र में प्रचार के लिये नहीं जाएंगे। आज जैसा शत्रु भाव विपरीत विचारधारा के नेताओ में दिखता है उसे देखते हुए ऐसे प्रकरणों पर यकीन करना मुश्किल लग सकता है।

लोहिया, नेहरू की चीन और तिब्बत की नीति के कटु आलोचक थे। वे कैलास और मानसरोवर पर भारतीय दावे को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे। तिब्बत पर चीन के अधिकार को चीन की हड़प नीति और विस्तारवादी सोच का परिणाम मानते थे। वे चीन और भारत के बीच एक स्वाधीन औऱ संप्रभु तिब्बत, भारत की सुरक्षा के लिए ज़रूरी मानते थे। भारत पाक सम्बन्धो पर वह इन बंटवारे को कृत्रिम और अतार्किक बंटवारा मानते थे। वे भारत पाकिस्तान महासंघ की बात करते थे। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि, द्विराष्ट्रवाद पर आधारित यह बंटवारा, पच्चीस साल से अधिक नहीं चल पाएगा। और यह भविष्यवाणी सच भी हुयी।1971 में पाकिस्तान एक बार फिर टूटा और धर्म ही राष्ट्र का आधार है, इस सिद्धात की धज्जियां उड़ गयीं। पर लोहिया अपनी भविष्यवाणी को सच होते हुए देखने के लिये जीवित नहीं थे।

1963 में डॉ लोहिया का लोकसभा में पहुंचना एक महत्वपूर्ण घटना थी। देश के संसदीय इतिहास में लोहिया ने पहली बार सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया। प्रस्ताव गिरना था। लेकिन इस अविश्वास प्रस्ताव पर जैसी तीखी और तथ्यात्मक बहस लोकसभा में हुयी उससे संसदीय परिपक्वता का संकेत मिलता है। तीन आना और बारह आना की एक रोचक बहस अक्सर याद की जाती है। लोहिया ने कहा था, 
" योजना आयोग के अनुसार देश के 60 प्रतिशत लोग, जो आबादी का 27 करोड़ है, तीन आना प्रतिदिन पर जीवनयापन कर रहे हैं। एक खेतिहर मजदूर दिन भर में 12 आने कमाता है, शिक्षक दो रुपये कमाता है, लेकिन कुछ कारोबारी रोजाना तीन लाख रुपये तक कमा रहे हैं। वहीं, प्रधानमंत्री नेहरू के कुत्ते पर प्रतिदिन तीन रुपये का खर्च निर्धारित है। खुद प्रधानमंत्री पर रोजाना 25 से 30 हजार रुपये खर्च होता है। मेरी  प्रधानमंत्री के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है, लेकिन उनकी देखादेखी देश के 50 लाख लोग वैसी ही जीवन शैली अपना रहे हैं। 15 हजार करोड़ रुपये की सकल राष्ट्रीय आय का पांच हजार करोड़ वहां खर्च हो रहा है, बाकी 43.5 करोड़ नागरिक बचे हुए 10 हजार करोड़ में जीवन यापन कर रहे हैं।"
लोहिया ने इस विषमता को देश के विकट हालात की वजह बतायी। तथ्यों पर आधारित ऐसी बहस संसद के लिये एक अनोखी घटना थी। नेहरू सदन में मौजूद थे। लोहिया बोलते रहे। तब खुल कर बोलने के दिन थे, और धैर्य से आलोचना सुनने के भी। तब कुहरे की बात करना, व्यक्तिगत आलोचना नहीं मानी जाती थी। लोहिया के संसदीय भाषणों का एक 17 खंडों का विशाल संकलन काशी विद्यापीठ के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और समाजवादी चिंतक प्रो कृष्णनाथ के संपादन में प्रकाशित हुआ था। जन संचार के रूप में तब केवल अखबार ही थे, पर लोहिया देश के सबसे लोकप्रिय विरोधी नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे।

लोहिया का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे केवल एक विपक्ष से चुने गए सांसद ही नहीं थे, बल्कि एक राजनीतिक चिंतक और संकल्प से भरे हुए संगठनकर्ता भी थे। जब वे सोशलिस्ट पार्टी से अलग हुए तब किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे एक मजबूत संगठन खड़ा कर लेंगे। उनसे वरिष्ठ समाजवादी नेताओ, आचार्य नरेंद देव, जेपी आदि में संगठन खड़ा करने और सड़क पर उतर कर अपने सिद्धांतों के लिये लड़ने की क्षमता नहीं थी। आचार्य नरेंद देव एक अकादमिक व्यक्तित्व थे और समाजवाद पर किताब भी लिखी थी, पर वे सड़क पर नहीं उतरे थे। जेपी सार्वजनिक जीवन से अलग हट कर समाज सेवा से जुड़ गए। हालांकि जब देश मे अधिनायकवादी ताकतें मज़बूत होने लगीं तो, वे पूरी ऊर्जा के साथ 1975 में सड़क पर उतरे और एक इतिहास रचा। पर डॉ लोहिया, ने न केवल अपने राजनीतिक दर्शन को परिमार्जित और परिवर्धित किया बल्कि वे सड़क पर लगातार उतरते रहे। वे जन आंदोलनों से तपे नेता थे और गांधी का मूल मंत्र, हर अन्याय का शांतिपूर्ण तरीके से सतत प्रतिरोध, उनका आधार बना रहा। संसद की अभिजात्य परंपरा के विपरीत वे सड़क को संसद का नियंत्रक मानते थे। वे कहते थे, जब सड़के सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। सड़क अपनी आन्दोलनजीविता से संसद पर अंकुश रखती है। सड़क एक सजग महावत की तरह है जो संसद को निरन्तर कोंचता रहता है और उसे मदमस्त और अनियंत्रित नहीं होने देता है। सड़क और आन्दोलनजीविता, ज़िंदा रहने का सुबूत है। उनका एक बेहद उद्धरित वाक्य है, ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं। और उनका जीवन इस जिंदादिली और जिजीविषा का साक्षात उदाहरण है। 

भारत के सांस्कृतिक जीवन और पृष्ठभूमि ने भी लोहिया को कम प्रभावित नहीं किया। आज राम के नाम पर सत्ता में आने वाले सत्तारूढ़ दल के कुछ युवा समर्थकों को शायद ही यह पता हो कि लोहिया ने सबसे पहले एक सांस्कृतिक आयोजन के रूप में तुलसी के रामचरित मानस को चुना था। उन्होंने चित्रकूट में पहली बार रामायण मेला की शुरुआत, 1961 में की थी। लोहिया एक नास्तिक व्यक्ति थे पर देश की सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक प्रतीकों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया है। राम, कृष्ण और शिव उनका एक प्रसिद्ध लेख है, जिंसमे वे कहते हैं,
" हे भारत माता हमे शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और बचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ साथ, जीवन की मर्यादा से रचो। "
यह लेख मूल रूप से अगस्त 1955 के अंक में मैनकाइंड पत्रिका में छपा था। इसका हिंदी अनुवाद बाद में 'जन' मासिक पत्रिका में छपा।

स्त्री शक्तिकरण के बारे में उनके विचार अपने समय मे बेहद क्रांतिकारी थे। वे सिमोन द बोउआ की प्रसिद्ध पुस्तक 'द सेकेंड सेक्स' से बेहद प्रभावित थे। द्रौपदी उनकी प्रिय नारी पात्र थीं। वे कहते हैं, 
" भारतीय नारी द्रौपदी जैसी हो, जिसने कि कभी भी किसी पुरुष से दिमागी हार नहीं खाई. नारी को गठरी के समान नहीं बल्कि इतनी शक्तिशाली होनी चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बना अपने साथ ले चले।"
यौन संबंधों पर उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण पढ़े,
" हमेशा याद रखना चाहिए कि यौन संबंधों में सिर्फ दो अक्षम्य अपराध हैं. बलात्कार और झूठ बोलना या वायदा तोडना. एक तीसरा अपराध दूसरे को चोट पहुँचाना या पीड़ा पहुँचाना भी है जिससे जहाँ तक मुमकिन हो बचना चाहिए।" 
वे महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने और स्त्री पुरूष की बराबरी पर बराबर जोर देते थे। ऐसा ही प्रगतिशील विचार उनके जाति व्यवस्था के बारे में भी था। वे समाज मे वंचित और पिछड़े लोगों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान तथा विषमता से भरे समाज को बराबर करने के प्रबल हिमायती थे। आज मंडल कमीशन जिसने पिछड़े वर्ग को उनका देय दिलाया है, की दार्शनिक पीठिका लोहिया के विचारों पर ही आधारित है।

डॉ लोहिया मूलतः अर्थशास्त्र के विद्वान थे। उन्होंने जर्मनी से नमक कानून की अर्थनीति पर अपना शोध प्रबन्ध लिखा और डॉक्टरेट की डिग्री ली। संसद में उनकी बहस आंकड़ो और तथ्यों पर होती थी। यह आंकड़े सरकार के ही होते थे। तब न गूगल था और न ही तरह तरह की वेबसाइट जो तमाम तथ्यों को चुटकियों में सामने रख दें। इन आंकड़ो को इकट्ठा करने और उनके विश्लेषण के लिये काफी सामग्री एकत्र करनी पड़ती थी और फिर उन्हें अपने तर्कों के साथ रखना पड़ता था। लोहिया का दर्शन सामाजिक विषमता और आर्थिक शोषण के खिलाफ था। वे कांग्रेस के घोर आलोचक थे और इसका काऱण था तत्कालीन सरकार की आर्थिक नीति। वामपंथ की तरफ थोड़ी झुकी हुयी तत्कालीन कांग्रेस की नीतिया भी जनता को बहुत अधिक आर्थिक लाभ नही दे पा रही थी। उन्होंने एक अनूठी योजना रखी, दाम बांधने की। यह दाम बांधो के रूप में बेहद चर्चित योजना थी। तब तक कालाबाज़ारी और जमाखोरी जैसे आर्थिक अपराध समाज मे गहरे पैठ गए थे। इसे दूर करने और महंगाई को नियंत्रित करने के लिये उन्होंने मूल्य की अधिकतम सीमा तय करने का सुझाव रखा। जिससे अनियंत्रित मुनाफे पर अंकुश लग सके। पर इस विचार पर न तो तब सरकार ने ध्यान दिया और न ही आज के अर्थशास्त्री इस पर कुछ सोच रहे हैं। यह कदम मुनाफाखोरी की सोच के खिलाफ था और इससे न केवल मुनाफाखोरी और जमाखोरी पर अंकुश लग सकता है बल्कि महंगाई भी इससे नियंत्रित रहती। आज जब चीजों की कीमतें मनमाने ढंग से बढ़ रही है तो कम से कम दाम बांधने के विकल्प पर, सरकार और अर्थ विषेधज्ञों को सोचना चाहिए।

लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की आलोचना भी होती है। इस आलोचना का एक प्रमुख विंदु है कि लोहिया ने गांधी हत्या के बाद लगभग हाशिये पर जा पड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके राजनीतिक अवतार भारतीय जनसंघ को अपने साथ लेकर, राजनीति में साम्प्रदायिक सोच के प्रवेश के लिये एक स्पेस उपलब्ध कराया। यह बात बिल्कुल सच है कि लोहिया और जनसंघ की विचारधारा का कोई मेल नहीं था, पर यह बात भी अजीब तरह से सच है कि लोहिया के सिद्धान पर ताज़िन्दगी आचरण और चर्चा करने वाले अनेक जुझारू लोहियाइट समाजवादी जनसंघ के दूसरे राजनीतिक अवतार भारतीय जनता पार्टी के न केवल बेहद करीब आये बल्कि वे लंबे समय तक सत्ता में रंगे, और कुछ तो अब भी वहां बने हुए हैं। लोहिया के प्रति उनका अनुराग अब भी दिखता है, पर यह अनुराग कॉस्मेटिक है या दिली यह तो वे ही  बता सकते है ।

1967  का आम चुनाव गैर कांग्रेसवाद के एजेंडे पर लड़ा गया था। उसके बनी कुछ राज्यो में संयुक्त विधायक दल की सरकारें ज़रूर जनसंघ के साथ बनीं। पर जनसंघ जैसे प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक दल का साथ लेना डॉ लोहिया की, गैर कांग्रेसवाद के लक्ष्य की पूर्ति के लिये कोई तात्कालिक रणनीति थी या कोई दूरगामी एजेंडा, इस पर कुछ विशेष इसलिए नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि 1967 में ही 12 अक्टूबर को डॉ लोहिया का निधन हो गया जिससे इस संबंध में उनकी भविष्य की रणनीति क्या होती, पर अनुमान लगाना उचित नहीं होगा । मैंने उनके कुछ लेख ढूंढने की कोशिश की लेकिन कहीं ऐसा तथ्य नही मिला जिससे यह संकेत मिलता हो कि वे जनसंघ के साथ लंबी दूरी तय करना चाहते हों। लोहिया के लिये गैर कांग्रेसवाद या नेहरू का विरोध, सत्ता की एकरस और जड़ता का विरोध था। यहां फिर उनकी अधीरता सामने आ जाती है और वह यह चाहते हैं कि, यदि सरकार जनता के व्यापक हित मे कुछ कर नहीं पा रही है तो वह सत्ता से हटे या उसे हटा दिया जाय। सुधरो या टूटो। यह एक प्रयोग था, सत्ता को वैचारिक आधार पर लाने का और जनसापेक्ष बनाने का।

पर लोहिया के अचानक दिवंगत हो जाने से उनका यह प्रयोग अपने तार्किक अंत तक नहीं पहुंच सका। 1969 - 70 में कांग्रेस ने अपना वैचारिक चोला बदला था। बैंको के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के विशेषाधिकार खात्मे ने कांग्रेस की वैचारिक जड़ता को भी तोड़ा था। लोहिया यदि कांग्रेस के इन वैचारिक बदलाव के समय  जीवित रहते तो क्या वे इन प्रगतिशील कदमो का समर्थन नहीं करते ? मेरा कहना है कि वे इन कदमो के साथ खड़े होते और फिर गैरकांग्रेसवाद के सिद्धांत में बदलाव होता। पर तब जबसंघ, लोहिया के साथ नहीं जाता, क्योंकि वह मूल रूप से प्रगतिशील आर्थिक बदलाव के खिलाफ था और अपने नए अवतार भाजपा के रूप में आज भी प्रगतिशील आर्थिक बदलाव के खिलाफ है।

1910 से 1967 तक कुल 57 वर्ष लोहिया का जीवन रहा। पर इतनी अवधि में लोहिया ने विचारधारा से लेकर, इतिहास, संस्कृति, समाज से लेकर अनेक समसामयिक मुद्दों पर मुद्दों पर किताबे और लेख लिखे, और जगह जगह भाषण दिए। मैनकाइंड और जन जैसी विचार प्रधान पत्रिकाओं का संपादन किया। जो लिखा उसे सड़क पर उतारा भी। एक ही व्यक्ति में वैचारिक प्रतिभा, लेखन क्षमता, और जन संघर्षों में खड़े होने का जुझारूपन मुश्किल से ही मिलता है। संसद के बजाय सड़क की ओर उनका रुझान कुछ को अराजक सोच लग सकती है, लेकिन उनके लिये संसद, सड़क की समस्याओं को ही हल करने, सड़क की आकांक्षाओं और भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम है। आज जब आज़ादी के बाद का सबसे संगठित और शांतिपूर्ण आंदोलन, किसान आंदोलन, हम सब देख रहे हैं तो लोहिया की याद आना स्वाभाविक है। पर यह भी एक विडंबना और अजीबोगरीब सच है कि लोहियाईट कहे जाने वाले कुछ लोग इस किसान आंदोलन से दूरी बनाए हुए हैं। भाजपा और उसका पितृ संगठन आरएसएस यदि इस जन आंदोलन से दूर है और इसकी निंदा कर रहा है, इसे तोड़ने की चालें चल रहा है तो, यह उतनी हैरानी की बात नहीं है। संघ और भाजपा की पृष्ठभूमि किसी जनहित पर आधारित, जन आंदोलन में भाग लेने की रही ही नहीं है। पर पूर्व समाजवादियों और खुद को लोहिया का शिष्य कहने वालों का ऐसा आचरण अचंभित करता है। लोहिया को उनके जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण और उनकी जिजीविषा और जुझारूपन को आज ही नहीं हर उस जनआदोलन के समय याद रखा जाना चाहिए, जो समाज मे व्याप्त आर्थिक और सामाजिक विषमता के खिलाफ तथा जनहित में हो रहा हो । सच है, 
" जिन्दा कौमें बदलाव के लिए पाँच साल तक इंतजार नहीं करतीं. वह किसी भी सरकार के गलत कदम का फ़ौरन विरोध करती है।"

( विजय शंकर सिंह )

Monday 21 March 2022

द कश्मीर फाइल्स देखने और सच जान लेने के बाद / विजय शंकर सिंह

हम सबको विवेक अग्निहोत्री का आभार व्यक्त करना चाहिए कि जो सच और घटनाएं, पूरे देश और दुनियाभर की मीडिया को 1990 के बाद, अब तक पता था, उससे सरकार को भी उन्होंने अवगत करा दिया। प्रधानमंत्री जी हैरान हैं कि, इतना बड़ा सच उनसे छुपा रहा। 1998 से 2004 तक भाजपा की अटल सरकार थी और 2014 से अब तक खुद ही सरकार में होते हुये, वे देश की सबसे पुरानी और उलझी हुयी ज्वलंत समस्या के बारे में, सच क्या था और क्या है, वे अब तक नहीं जान पाए थे। विवेक अग्निहोत्री को शुक्रिया कि, उन्होंने कम से कम सरकार को तंद्रा से जगा दिया। मैं फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर रहा हूँ। क्योंकि यह मेरा न तो कभी कार्यक्षेत्र रहा है, और न ही आज है। फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म समीक्षक और वे पत्रकार मित्र कर ही रहे हैं, जो फिल्मों में रुचि रखते है। अतः फ़िल्म के शिल्प, कथ्य, दृश्य संयोजन, अभिनय, आदि पर कुछ नहीं कह रहा हूँ। अभिनय पर बस यह कहना है कि अनुपम खेर, एक समर्थ और प्रतिभाशाली अभिनेता है, और मैं 'सारांश' फ़िल्म के समय से ही, उस फिल्म में किये गए उनके अभिनय का प्रशंसक रहा हूँ।  

फिल्में इतिहास नहीं होती हैं। न ही ऐतिहासिक उपन्यास, इतिहास होते हैं। इतिहास के आधार पर दुनिया भर में बहुत सी फिल्में बनी हैं। पर यदि उनमें इतिहास ढूंढने की कोशिश की जाएगी तो, निराशा ही हांथ लगेगी। कथा वस्तु भले ही इतिहास से लिया गया हो, पर उसे पर्दे पर या उपन्यास या कहानी के रूप में जब ढाला जाता है तो उसमें कल्पना का समावेश हो ही जाता है। द कश्मीर फाइल्स कोई दस्तावेजी या डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म नहीं है, वह एक फीचर फ़िल्म है। एक कहानी पर आधारित है। एक बेहद त्रासद घटना पर आधारित है। एक ऐसी दुःखद और व्यथित कर देने वाली घटना या घटनाओं पर आधारित है, जिसने संविधान के मूल ढांचे के मूल्यों पर ही कई सवाल खड़े कर दिए हैं। घटनाएं सच हैं। यह सब घटा है। और जब यह सब घट रहा था तो देश और दुनिया के सारे अखबार इन्हें कवर कर रहे थे। ख़ुफ़िया एजेंसियां इनकी सूचना दे रही थी। पर जिनपर इन्हें रोकने की जिम्मेदारी थी, वे क्या कर रहे थे, यह सवाल बार बार हम सबके मन मे कौंधना चाहिए। 

यह कहना कि इस घटना के दोषी के वीपी सिंह, उन्हें समर्थन देने वाली पार्टियां और तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ही थे, तो यह दोष का सामान्यीकरण करना होगा। यह बात बिल्कुल सही है कि, उस समय बीपी सिंह की सरकार थी, और उन्हें भाजपा और वाम मोर्चा दोनों का बाहर से समर्थन था, और जगमोहन राज्यपाल थे। पर क्या इतनी बड़ी त्रासदी के लिये केवल यही सब जिम्मेदार माने जाने चाहिए ? यदि तात्कालिक कारण देखें तो, निश्चय ही ये उस कलंक से मुक्त नहीं हो सकते, पर इस घटना की भूमिका जो पाक प्रायोजित आतंकवाद और एक क्षद्म युद्ध की जो स्थिति लंबे समय से बन रही थी, तब से ही है। पर इसका क्लाइमेक्स जब सामने आया तो यही सेट ऑफ गवर्नेंस था। 

1989 से 91 तक अस्थिर कालखंड रहा है। इस अल्प अवधि में देश ने दो प्रधानमंत्री देखे और दोनों ही किसी न किसी अन्य दल के बाहरी समर्थन से चल रहे थे। 1991 से 1996 तक, देश मे कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार थी। 1996 से 1998 तक पुनः एक अस्थिरता का दौर आया। यह तीसरे मोर्च की सरकार का दौर था। इस अल्प अवधि में भी दो प्रधानमंत्री सत्ता में रहे। 1998 से 2004 तक, एनडीए की सरकार, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में रही। 2004 से 2014 तक, मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार थी। और अब 2014 से नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार है। अगर संख्याबल की दृष्टि से देखें तो, यह 1990 के बाद की सबसे मजबूत सरकार है। यह सब लिखने का आशय यह है कि, 1990 से आज विवेक अग्निहोत्री की इस फ़िल्म के रिलीज होने तक, देश की हर पार्टी किसी न किसी तरह से, और किसी न किसी समय सत्ता में रही है। 

इस फ़िल्म में दिखाई गयी घटनाओं को मैं एक बेहद संगठित और क्रूर अपराध की तरह देखता हूँ। यह भी मानता हूँ कि, हो सकता है जो त्रासदी फ़िल्म में दिखाई जा रही है, उससे भी बड़ी घटना वहां घटी हो। अपराध के बारे में जानकारी होने के बाद, उक्त अपराध के बारे में क्या जांच हुयी, दोषी कौन थे और जब अपराध हो रहा था तो, उस समय सरकारी मशीनरी क्या कर रही थी और सरकार क्या कर रही थी, यह सब सवाल एक पुलिस अफसर रहे होने के कारण, मेरे दिमाग मे कुलबुलाते रहते हैं। 1990 के बाद सरकार ने क्या कोई ऐसा आयोग बनाया जिसने इस त्रासद विस्थापन के बारे में, परिस्थितियों, तत्कालीन घटनाओं और उसमें केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों की क्या भूमिका रही है, की कोई जांच हुयी है, और इस त्रासद कांड के जिम्मेदार लोगों का दायित्व निर्धारण कर के उनको या उनमें से कुछ को ही, दंडित किया गया है ? आदि आदि सामान्य और स्वयंस्फूर्त जिज्ञासाओ का उत्तर भी सरकार से अपेक्षित है। ,

अब सरकार जाग चुकी है। अब देखना है 32 साल से विस्थापित कैम्पो में रह गए कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के लिए सरकार क्या प्रयास करती है और इस घटना के लिये जिम्मेदार लोगों की पहचान कर, उन्हें सामने लाती है या नहीं। फ़िल्म देख कर गुस्सा आना और उत्तेजित होना स्वाभाविक है। यह एक सामान्य भाव है। पर यह फ़िल्म कुछ सवाल भी उठाती है कि, 
● 1990 में किन परिस्थितियों में कश्मीर से पंडितों का पलायन हुआ। 
● जब पलायन हो रहा था, तब क्या इस पलायन को रोकने की कोई कोशिश की गयी थी ?
● उस समय जो भी केंद्र और राज्य सरकार सत्ता में थी, उसकी भूमिका उस पलायन में क्या थी ?
● क्या पलायन को लेकर कोई गोपनीय योजना थी, जिसे पलायन के बाद लागू किया जाना था ?
● क्या ऐसी कोई योजना किन्ही कारणों से लागू नहीं की जा सकी ?
● लम्बे समय तक 1990 के बाद घाटी में अशांति फैली रही, और जब कुछ हालत सुधरने लगी तब क्या सरकार ने कोई ऐसी योजना बनाई कि, कश्मीरी पंडितों की वतन वापसी की जा सके ?
● 1991 से 96 तक देश मे पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी। उनके कार्यकाल में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास पर क्या किया गया ?
● 1996 से 98 तक अस्थिर सरकारें थीं। 1998 में एनडीए सरकार आई। जब जगमोहन मंत्री बने और फारुख अब्दुल्ला भी एनडीए में थे। जगमोहन के समय में यह विस्थापन हुआ। हालांकि कश्मीर की स्थिति पहले से ही अशान्त थी। वे लंबे समय तक वहां राज्यपाल रहे हैं। उस समय पुनर्वास के लिये क्या किया गया ?
● खुद को कश्मीरी पंडितों के पुनर्वापसी की सबसे बड़ी पैरोकार घोषित करने वाली, भाजपा, 1998 से 2004 तक सत्ता में रही। उस दौरान कश्मीर के पंडितों के लिये सरकार ने क्या क्या उपाय किये ?
● वापसी मुश्किल थी तो, विस्थापित पंडितों के लिये सरकार ने क्या क्या योजना लाई ?
● 2004 से 2014 तक यूपीए सरकार सत्ता में आयी। इन दस सालों में कोई योजना इन पंडितों के पुनर्वास के बनी की नहीं ?
● बनी तो क्या उन्हें लागू किया गया या नहीं ?
● क्या कभी ऐसा अध्ययन या सर्वेक्षण किया गया है, जिससे यह पता चले कि, कश्मीर के पंडित समाज की वापसी कैसे होगी ?
● 2014 से अब तक देश मे भाजपा की सरकार है। यह सरकार कश्मीर के पंडितों के पक्ष में अक्सर खड़ी दिखती है। कश्मीर में भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार भी चलाई है और अब तो, वहां की सरकार सीधे केन्द्राधीन है। तब 2014 से अब तक कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिये क्या कदम उठाए गए ?
● अनुच्छेद 370 को कश्मीर के एकीकरण में एक बड़ी बाधा के रूप में प्रचारित किया जाता है। अब वह अनुच्छेद संशोधित हो गया है। जम्मूकश्मीर अब पूर्ण राज्य भी नही रहा। अब वह सीधे केंद्र शासित है। फिर अनु 370 के हटने के बाद क्या कोई योजना सरकार ने उनके पुनर्वास की बनाई ?

पुनर्वास  और राहत पर भी सरकारों ने काम किया है। उसका भी विवरण देखें। द हिंदू के मुताबिक, साल 2015 में कश्मीरी पंडितों के लिए 6,000 ट्रांजिट घरों की घोषणा की गई थी. पर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक फरवरी 2022 तक इनमें से केवल 1,025 घरों का निर्माण आंशिक या पूर्ण रूप से पूरा हुआ है. जबकि 50 प्रतिशत से ज़यादा ऐसे घर हैं जिनपर काम शुरू होना बाकी है। साल 2015 में घोषित प्रधान मंत्री डेवलपमेंट पैकेज के तहत केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी प्रवासियों के लिए 3,000 सरकारी नौकरियों को मंजूरी दी थी. जिसनें से अब तक 1,739 प्रवासियों को नियुक्त किया जा चुका है और 1,098 अन्य को नौकरियों के लिए चुन लिया गया है। इससे पहले 2008 में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा प्रवासियों के लिए इसी तरह के रोजगार पैकेज की घोषणा की गई थी. जिसके तहत 3,000 नौकरियां देने की बात कही गई थी. जिसमें से 2,905 नौकरियों के पद भरे जा चुके हैं। मंत्रालय ने एक संसदीय पैनल को यह भी बताया कि पंजीकृत कश्मीरी प्रवासियों को प्रति परिवार 13,000 रुपये और साथ में 3,250 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीने मिलता है. साथ ही हर महीने उन्हें राशन भी दिया जाता है। साल 2020 की संसदीय पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर में 64,827 पंजीकृत प्रवासी परिवार हैं. जिनमें से 60,489 हिंदू परिवार, 2,609 मुस्लिम परिवार और 1,729 सिख परिवार हैं। 64,827 परिवारों में से 43,494 परिवार जम्मू में पंजीकृत हैं, 19,338 दिल्ली में और 1,995 परिवार देश के दूसरे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बसे हुए हैं. वहीं 43,494 प्रवासी परिवारों में से 5,248 परिवार प्रवासी शिविरों में रह रहे हैं। 

कश्मीर घाटी में अलगाववादी गुटों के आंदोलन के इतिहास में चुन चुन कर की गयी, कश्मीरी पंडितों की लक्षित और क्रूर हत्याएं निश्चित रूप से एक भयानक त्रासदी थीं। पर एक महत्वपूर्ण और अनुत्तरित प्रश्न यह है कि क्या ये हत्याएं कश्मीरियत के भ्रम को खत्म करने के लिए पाक एजेंसियों द्वारा किए गए 'प्रॉक्सी वॉर' का हिस्सा थीं या सामान्य तौर पर घटने वाली आतंकवादी गतिविधियां ? क्या इन घटनाओं का उद्देश्य, कश्मीर घाटी में कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के बीच एक अपूरणीय विभाजन पैदा करना था ? या अधिकांश हत्याओं का उद्देश्य केवल कश्मीरी पंडितों की संपत्ति पर कब्जा करना था ? या यह सब पिछली रंजिश का परिणाम था? जब तक एक वस्तुपरक जांच इन सब विन्दुओं को समेटते हुए शुरू नहीं की जाती है और केंद्र तथा राज्य सरकार, के सभी संबंधित अभिलेखों की पड़ताल नहीं हो पाती, तब तक इस त्रासदी के तह तक नहीं पहुंचा जा सकता है। 

इस घटना और कश्मीर की वर्तमान स्थिति पर बहुत सी किताबे लिखी जा चुकी हैं। लोगो के संस्मरण हैं। वे घटना का खुलासा करती हैं। दोषियों को बेनकाब भी करती हैं। पर वे कोई कानूनी दस्तावेज नहीं है। उनके आधार पर कोई अदालत, किसी पर मुकदमा नहीं चला सकती है। कानून की नज़र में वे साक्ष्य नहीं हैं। क्यों वे किसी वैधानिक रूप से गठित जांच एजेंसी के निष्कर्ष नहीं है। 1989 - 90 - 91 में, केंद्र में काफी अस्थिरता थी और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में पाकिस्तान की रुचि बेहद बढ़ गयी थीं। अलगाववादियों के नेतृत्व में तथाकथित 'आज़ादी' आंदोलन अपने चरम पर था। रोज़मर्रा के बड़े पैमाने पर प्रदर्शन होते थे, और सशस्त्र आतंकवादी अनंतनाग और कुछ अन्य शहरों की सड़कों पर खुलेआम घूमते थे।  स्थानीय प्रशासनिक तंत्र लकवा की स्थिति में था और केंद्रीय बल जो अक्सर स्थानीय नब्ज को पढ़ने में असमर्थ होते थे, बस मौजूद भर थे। नेतृत्व का संकट राजनीतिक भी था और प्रशासनिक तो था ही।  ऐसी संघर्ष भरी स्थितियों में किसी भी प्रकार का विश्वसनीय आकलन करना हमेशा एक चुनौती के समान होता है। जो सूचनाएं मिल रही थीं वे अधूरी और अक्सर विरोधाभासी थीं। निर्णय लेने वालों को सलाह देने वाली एजेंसियों और अधिकारियों की धारणा भी अलग-अलग होती है। "युद्ध के कोहरे" के समान वह वातावरण था। 

प्रशासनिक/पुलिस व्यवस्था के दृष्टिकोण से 2 मुद्दे उन लोगों के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक हैं जिन्हें इन स्थितियों का सामना समाधान करना पड़ सकता है
● क्या कभी इस बात पर प्रकाश डाला जाएगा कि काश्मीर पंडित, के बड़े पैमाने पर पलायन का फैसला किसने लिए, किस आकलन पर आधारित था, और किन उद्देश्यों के साथ यह लिया गया ?  
● क्या उन कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के अन्य तरीके थे जो इस सामूहिक पलायन के बजाय लागू किये जा सकते थे ?

द कश्मीर फाइल्स फ़िल्म, यदि आप को केवल गुस्सा दिला कर प्रतिशोध के लिये मानसिक रूप से तैयार कर रही है तो आप निश्चित ही एक खतरनाक षड़यंत्र के लिये गढ़े जा रहे हैं। आप की प्रोग्रामिंग की जा रही है। यह प्रयोग पहले भी दुनिया मे हो चुका है। उंस परिणाम का भयावह अंत भी आप को पता है। सरकार को कश्मीर के पंडितों के पलायन और उनकी वतन वापसी के लिये किये गए प्रयासों पर एक श्वेत पत्र लाना चाहिए। द कश्मीर फाइल्स फ़िल्म ज़रूर देखिए। पर गुस्से और दुःख पर नियंत्रण रखते हुए सरकार से यह मांग कीजिए कि 1990 से अब तक जिन जिन सरकारों ने जो भी योजनाए, कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास और वहां शांति बहाली के लिये बनाई हैं, उनपर एक श्वेत पत्र लाये और लोग यह जाने कि, अब तक क्या क्या हुआ है? 

( विजय शंकर सिंह )


Friday 18 March 2022

रूस - यूक्रेन युद्घ के परिपेक्ष्य में विश्व कूटनीति / विजय शंकर सिंह

हम एक उन्माद और अजीब पागलपन के दौर में हैं। दुनियाभर के इतिहास में ऐसे पागलपन के दौर आते रहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे, हम सबके जीवन में, अच्छे और बुरे वक्त आते हैं, हमें बनाते और बिगाड़ते हैं और फिर चले जाते हैं। ऐसा ही एक दौर आया था, 1937 से 1947 का। पूरी दुनिया एक उन्माद से ग्रस्त थी। एक महायुद्ध छिड़ा, एक प्रतिक्रियावादी फासिस्ट ताकत का अंत हुआ, औपनिवेशिक साम्राज्य का बिखराव हुआ, सदियों के गुलाम देश आजाद हुए और दुनिया का एक नया स्वरूप देखने को मिला। पर क्या हाल का रूस यूक्रेन युद्ध, दुनिया को आज फिर से, 80 साल के उन खतरनाक दिनों की ओर झोंक रहा है, जिसकी कल्पना से लोग आज भी सिहर जाते हैं ? अभी इस पर हां कहना, जल्दबाजी होगी। पर यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने एक इंटरव्यू में कहा है कि "रूस ने अब तृतीय विश्वयुद्ध शुरू कर दिया है और इसमें पूरी सभ्यता दांव पर लगी है। पुतिन के यूक्रेन हमले का परिणाम अभी बाकी है, लेकिन इससे विश्वयुद्ध के हालात बन चुके हैं।"

अब आते हैं इस युद्ध पर, नोआम चोम्स्की के विचार क्या है, इस विंदु पर। नोआम से बातचीत इसलिए शुरू की जा रही है कि, नोआम ने द्वितीय विश्वयुद्ध देखा है। उसकी विभीषिका को महसूस किया है। वे युद्ध के खिलाफ रहते हैं। युद्ध को साम्राज्यवाद के एक बर्बर और असभ्य विस्तार माध्यम के रूप में देखते हैं। उनका यह स्पष्ट मत है कि 
" रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, एक संप्रभु राष्ट्र के खिलाफ आक्रमण को सही ठहराने के लिए, जो तर्क दे रहे हैं, उन्हें सही नहीं ठहराया जा सकता है। इस भयानक आक्रमण के सामने, अमेरिका को सैन्य वृद्धि और विकल्पों पर विचार न करके, इसके समाधान के लिए, तत्काल कूटनीतिक राह का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि यदि, बिना किसी विजेता के, यह युद्ध, यदि यूं ही गहराता रहा तो, मानव प्रजाति के लिए, यह मौत का वारंट बन हो सकता है।"
नोआम चौमस्की ने यह बात आज नहीं, बल्कि जब युद्ध शुरू हुआ था और, पुतिन, अपने आक्रमण के औचित्य पर दुनिया के सामने अपने तर्क रख रहे थे, तब कहा था। वे, आगे कहते हैं, 
"हमें कुछ ऐसे तथ्यों को सुलझाना चाहिए जो निर्विवाद हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि, हमें यह मानना चाहिए कि, यूक्रेन पर रूसी आक्रमण, एक प्रमुख युद्ध अपराध है। यह वैसे ही है, जैसे, इराक पर अमेरिकी और सितंबर 1939 में पोलैंड पर हिटलर का आक्रमण।"
फिलहाल वे बस यही दो उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि, 'जैसे, इन दो आक्रमणों का कोई औचित्य नहीं था, वैसे, इस आक्रमण का भी कोई औचित्य नहीं है।' वे पुतिन के अत्यधिक आत्मविश्वास को, पागल कल्पनाओं में फंसे हुए एक युयुत्सु जीव के रूप में देखते हैं। 

हालांकि वे पुतिन का बचाव भी करते हुए कहते हैं कि, यह हो सकता है कि, "चूंकि पुतिन की प्रमुख मांग एक आश्वासन के रूप में थी कि नाटो संगठन अब कोई और नया सदस्य नहीं बनाएगा, विशेष रूप से यूक्रेन या जॉर्जिया को अपने गुट में नहीं शामिल करेगा।' 
अब एक उद्धरण पढ़े, 
"यह तो स्पष्ट  है कि वर्तमान संकट का कोई आधार ही नहीं होता यदि, नाटो विस्तार की कोई महत्वाकांक्षा अमेरिका में न पनप रही होती तो। सोवियत संघ के विघटन औऱ शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो गठबंधन का विस्तार यूरोप में, जिस सुरक्षा संरचना के निर्माण के अनुरूप हुआ उसने रूस को सशंकित किया और जब रूस में कुछ मजबूती आई तो, वह चुप नहीं रहा।"
यह शब्द हैं, रूस में पूर्व अमेरिकी राजदूत जैक मैटलॉक के, जो अमेरिकी राजनयिक कोर में रूस के कुछ गंभीर विशेषज्ञों में से एक हैं, और यह उनके एक लेख का अंश है, जिसे, आक्रमण से कुछ समय पहले उन्होंने लिखा था। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह संकट,
"सामान्य सहमति की विंदु पर, बातचीत के माध्यम से पहुंच कर हल किया जा सकता है। कोई भी समझदार व्यक्ति यह समझ सकता है कि, यह संघर्ष,  संयुक्त राज्य अमेरिका के हित में नहीं है। यूक्रेन को रूसी प्रभाव से अलग करने की कोशिश करना, इसके लिये नस्ली क्रांति की बात करना, उसके लिये किसी भी तरह का अभियान चलाना, एक मूर्खता थी, और यह एक खतरनाक नीति भी। क्या हम इतनी जल्दी क्यूबा मिसाइल संकट का सबक भूल गए हैं ?”

मैटलॉक इन निष्कर्षों पर पहुंचने वाले अकेले राजनयिक नहीं हैं, बल्कि ऐसी धारणा, रूस विशेषज्ञों में से एक, सीआईए प्रमुख विलियम बर्न्स के संस्मरणों में भी आयी है। राजनयिक जॉर्ज केनन, पूर्व रक्षा सचिव विलियम पेरी द्वारा समर्थित, और राजनयिक रैंकों के बाहर प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय संबंध विद्वान जॉन मियरशाइमर और कई अन्य कूटनीति के विशेषज्ञ भी लगभग इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। ट्रुथआउट वेबसाइट के द्वारा जारी किए गए अमेरिकी आंतरिक दस्तावेजों से पता चलता है कि जॉर्ज बुश की, यूक्रेन को नाटो में शामिल कराने की प्रबल उत्कंठा ने, रूस को बेहद असहज और सतर्क कर रखा था, और युद्ध की भूमिका अंदर ही अंदर बनने लगी थी। रूस ने तीखी चेतावनी भी दे दी थी कि सैन्य खतरे का विस्तार बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।  इससे यह समझा जा सकता है कि, युद्ध के तार कहाँ से इग्नाइट हो सकते थे। नोआम चोम्स्की कहते हैं, 
" संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि, यह संकट 25 वर्षों से चल रहा है क्योंकि अमेरिका ने रूसी सुरक्षा चिंताओं को तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया था, विशेष रूप से उनकी स्पष्ट लाल रेखाएं: जॉर्जिया और विशेष रूप से यूक्रेन। यह मानने का अच्छा कारण है कि इस त्रासदी को अंतिम क्षण तक टाला जा सकता था।  हमने पहले भी इस पर बार-बार चर्चा की है।  पुतिन ने अभी आपराधिक आक्रमण क्यों शुरू किया, हम अनुमान लगा सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। पर अब धीरे धीरे सब स्पष्ट हो रहा है।" 

नोआम चोम्स्की, वियतनाम युद्ध का उल्लेख करते है। वे कहते हैं, 
" पहले की तरह, मुझे एक सबक याद आ रहा है जो मैंने बहुत पहले सीखा था। 1960 के दशक के अंत में, मैं यूरोप में नेशनल लिबरेशन फ़्रंट ऑफ़ साउथ वियतनाम के कुछ प्रतिनिधियों से मिला था। यह सम्मेलन, वियतनाम पर, भयानक अमेरिकी युद्ध अपराधों के तीव्र विरोध के लिए आयोजित किया गया था। उस मुलाकात में कुछ युवा इतने क्रोधित थे कि, उन्हें लगा कि केवल हिंसक प्रतिक्रिया ही सामने आने वाली राक्षसी युद्ध के लिये एक उपयुक्त प्रतिक्रिया होगी। मेन स्ट्रीट पर खिड़कियां तोड़ना, एक आरओटीसी केंद्र पर बमबारी।  इससे कम कुछ भी इन भयानक युद्ध अपराधों में संलिप्तता के समान था।  वियतनाम ने इस युद्ध में, चीजों को बहुत अलग तरीके से देखा। लेकिन उन्होंने ऐसे सभी हिंसक उपायों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने एक प्रभावी विरोध का अपना मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होंने, वियतनाम में मारे गए अमेरिकी सैनिकों की कब्रों पर मौन प्रार्थनाये की। वे युद्ध से ऊबे थे। शांति चाहते थे। उन्होंने अपने क्रोध, उन्माद और हिंसक मनोवृत्ति पर नियंत्रण रखा। पर क्या अमेरिका ने अपना मानवीय चेहरा दिखाया ? बिल्कुल नहीं।" 
यह एक सबक है जिसे मैंने अक्सर एक या दूसरे रूप में, ग्लोबल साउथ में भयानक पीड़ा के शिकार लोगों से सुना है, जो हिंसा के मुख्य लक्ष्य और शिकार थे। हमें परिस्थितियों के अनुकूल उसका हल सौहार्द से निकलना चाहिए। आज इसका यह अर्थ है कि, हम यह समझने का प्रयास करें कि यह त्रासदी क्यों हुई और इसे टालने के लिए क्या किया जा सकता था, और अब भी क्या किया जा सकता है।" 

यह मामला, अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट ऑफ जस्टिस में भी यूक्रेन द्वारा ले जाया गया। वहां का फैसला भी यूक्रेन के पक्ष में आया। रूस को युद्ध रोकने के लिये कहा भी गया। पर आईएसजे एक ऐसी न्यायपालिका है जो, आदेश दे सकती है पर आदेश का पालन न किये जाने पर कुछ कर भी नहीं सकती है। रूस का यूक्रेन पर यह आक्रमण, संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) का स्पष्ट उल्लंघन है, जो किसी अन्य राज्य की क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ धमकी या बल प्रयोग को प्रतिबंधित करता है।  फिर भी पुतिन ने 24 फरवरी को अपने भाषण के दौरान आक्रमण के लिए कानूनी औचित्य की पेशकश करने की मांग की, और रूस ने कोसोवो, इराक, लीबिया और सीरिया को सबूत के रूप में उद्धृत किया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगी बार-बार अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हैं। मतलब साफ है, जब जब जो मज़बूत रहा, उसने हमला किया, यूएनओ, आईएसजे सहित अंतर्राष्ट्रीय परम्परा, कानूनों का उल्लंघन किया, और न्याय की जगह मात्सन्याय की परंपरा का पालन किया। यह सब न्याय से दूर है। न्याय से बहुत दूर।  लेकिन अंतरराष्ट्रीय मामलों में न्याय की जीत कब हुई है ? 

यदि आप अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं को ध्यान पूर्वक देखें और उसका विवेचन करें तो यह बात बिल्कुल सच है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश, बिना किसी अपराधबोध के, अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते रहे हैं। न केवल उल्लंघन ही करते रहे हैं, बल्कि वे ऐसे अंतर्राष्ट्रीय कानून गढ़ते भी रहे हैं, मनमानी और पक्षपातपूर्ण व्याख्या भी उन कानूनों की करते रहे है, और दुनिया मे एक बेशर्म दादागिरी जैसी हरकतें करते रहें। पर एक की दबंगई, किसी अन्य की दबंगई के लिये औचित्य का आधार नहीं हो सकती है। इसलिए, इस युद्ध मे भी, रूस को यह छूट नहीं दी जा सकती कि, जब जब अमेरिका ने जो जो युद्ध अपराध किये हैं, उन्हें रूस भी दुहराए और अपनी मनमर्जी चलाये। कोसोवा हो, इराक हो, या लीबिया हो, यह सब रूस द्वारा छेड़े गए इन नए युद्ध का औचित्य साबित नहीं करते हैं। हालांकि, इन युद्धों ने रूस को यूक्रेन पर हमला करने के लिये एक बहाना ज़रूर दिया है। 

द्वितीय विश्वयुद्ध और शीत युद्ध काल के बाद अमेरिका द्वारा इराक पर किया गया हमला, न केवल अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन था, बल्कि वह एक अहंकार और जिद की पराकाष्ठा थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, ज़मीनी साम्राज्यवाद का दौर चला गया था। अब पूंजीवाद के रूप में एक नए प्रकार के साम्राज्यवाद का दौर शुरू हो गया था। युद्धों के कारणों में, आर्थिक कारण सबसे महत्वपूर्ण हो गए थे। तेल व्यापार पर एकाधिकार की जिद और लिप्सा ने इराक पर हमले की भूमिका तय कर दी। फिर लीबिया का नम्बर आया। निशाना तो ईरान भी था और अब भी है, पर अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की जो दुर्गति हुयी, उससे अमेरिका के युद्धाभियान को फिलहाल ठंडा कर रखा है। एशिया में अमेरिकी दखल जिस तरह से बढ़ रहा था, उससे रूस, जो एक समय अमेरिका का प्रबल प्रतिद्वंद्वी रह चुका है, का असहज होना स्वाभाविक भी है। कोसोवो के मामले में, नाटो की आक्रामकता (अर्थात् अमेरिकी आक्रमण) को अवैध तो कहा गया था, पर इसे भी येनकेन प्रकारेण उचित ठहराने का दावा किया गया था। उदाहरण के लिए, रिचर्ड गोल्डस्टोन की अध्यक्षता में कोसोवो पर गठित अंतर्राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट देखें। उसमे कोसोवा पर हमले के दौरान बमबारी के औचित्य को यह कह कर सिद्ध किया गया कि, यह बमबारी, कोसोवा में चल रहे अत्याचारों को समाप्त करने के लिए की गई। कोसोवो युद्ध, (1998-99) कोसोवो में जातीय अल्बानियाई और यूगोस्लाव सरकार (पिछले संघीय राज्य की दुम, सर्बिया और मोंटेनेग्रो के गणराज्यों से मिलकर) के बीच का संघर्ष था। इस संघर्ष ने दुनिया भर का ध्यान खींचा, और अंततः उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन के हस्तक्षेप (नाटो) के दखल के बाद, यह समस्या सुलझी। अल्बानियाई और सर्ब के बीच कोसोवो में तनाव बराबर जारी रहा। उदाहरण के लिए, मार्च 2004 में कोसोवो के कई शहरों और गांवों में सर्ब विरोधी दंगे भड़क उठे। यह मामला अलग तरह का था। 

अपनी आक्रामकता के लिए कानूनी औचित्य की पेशकश करने के पुतिन के प्रयास के बारे में पूछने पर, नोआम चोम्स्की कहते हैं, 
" कहने के लिए कुछ भी नहीं है।  इसका गुण शून्य है। घटनाओं के परिणाम होते हैं;  हालाँकि, तथ्यों को सैद्धांतिक प्रणाली के भीतर भी छुपाया जा सकता है। शीत युद्ध के बाद की अवधि में अंतरराष्ट्रीय कानून और परस्पर प्रतिद्वंद्विता की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया।  यहां तक ​​कि शब्दों में भी कोई बदलाव नहीं दिखा, ऐक्शन की तो बात ही छोड़ दीजिए।"  
राष्ट्रपति क्लिंटन ने तो यह स्पष्ट रूप से कह दिया था, कि 'अमेरिका का कोई इरादा, इसका पालन करने का नहीं था।  क्लिंटन सिद्धांत की घोषणा की कि 'यूएस. "आवश्यक होने पर एकतरफा रूप से" कार्य करने का अधिकार सुरक्षित रखता है, जिसमें "सैन्य शक्ति का एकतरफा उपयोग" भी शामिल है ताकि "प्रमुख बाजारों, ऊर्जा आपूर्ति और सामरिक संसाधनों तक निर्बाध पहुंच सुनिश्चित करने" जैसे महत्वपूर्ण हितों की रक्षा की जा सके। इसका मतलब क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि, अंतरराष्ट्रीय कानून का कोई मूल्य नहीं है या इसकी सीमाएं है, और यह कुछ ही मामलों में एक उपयोगी मानक है ? या यह मान लिया जाय कि, कानून कमजोरों के लिए होता है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पर निर्मम तथ्य है कि, विजेता का तर्क अलग होता है। हमलावर का तर्क अलग होता है। आक्रामक मानसिकता का तर्क अलग होता है। यह सारे तर्क अहंकार में लिपटे होते है। यह मेमने और भेड़िये की एक पुरानी और लोकप्रिय कहानी में दिए गए, भेड़िये की तर्क की तरह होता है कि, उसके लिए झरने के पानी को मेमने ने जूठा कर दिया था !

इस बीच ताज़ी खबरों के अनुसार, अमेरिकी खुफिया अधिकारियों का आकलन है कि 'यूक्रेन पर हमले में दो दिन में ही सफलता मिलने की उम्मीद कर रहे रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अब तक युद्ध जारी रहने और अपेक्षाकृत सफलता न मिलने पर खफा और निराश हैं और ऐसे में वह यूक्रेन में और अधिक हिंसा और विनाश कर सकते हैं। रूसी राष्ट्रपति, यूक्रेन में संघर्ष को और बढ़ाएंगे. रूस अभी भी भारी सैन्य क्षमता रखता है और हफ्तों तक देश पर बमबारी कर सकता है।' पिछले सप्ताह कांग्रेस के समक्ष खुफिया अधिकारियों ने खुले तौर पर यह चिंता व्यक्त की थी कि, पुतिन क्या कर सकते हैं, और ये चिंताएं इस बारे में, अनेक चर्चाओं को तेजी से आकार दे रही हैं कि, अमेरिकी नीति निर्माता यूक्रेन के लिए क्या करने को तैयार हैं। रूस में नियुक्त रह चुके, अमेरिकी राजदूत, बर्न्स, जो कई बार पुतिन से मिल चुके हैं. उन्होंने रूसी राष्ट्रपति की मानसिक स्थिति के बारे में एक सवाल के जवाब में अमेरिका के सांसदों से कहा कि 'उन्हें नहीं लगता कि पुतिन मूर्ख हैं. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि पुतिन अभी गुस्से में हैं और निराश हैं।" 

दुनिया मे कोई भी युद्ध लगातार नहीं चल सकता है और अब न उन युद्धों का जमाना ही रहा कि किसी एक पक्ष की सेना घुटने टेक दे। खासकर ऐसे युद्धों में जब उसकी डोर कहीं और से नियंत्रित हो रही हो। युद्ध से क्षत विक्षत होकर, घाव सहलाते हुए बातचीत की मेज पर बैठना ही पड़ता है। हालांकि नाटो ने, जितनी यूक्रेन ने उम्मीद की थी, कि वह, यूक्रेन के समर्थन में प्रत्यक्ष युद्ध मे उतर जाएगा, ऐसा तो नहीं हुआ, पर अमेरिका और ब्रिटेन सहित पश्चिमी ब्लॉक ने अपना चिर परिचित कदम, आर्थिक प्रतिबन्धों का ज़रूर उठा लिया। लेकिन, इसका अभी तक बहुत असर रूस पर नहीं पड़ा है। दिक्कत यह भी है कि, इन प्रतिबन्धों का असर रूस के साथ साथ यूरोपीय देशों को भी भुगतना पड़ सकता है। प्रतिबंधो के बावजूद, रूस से यूरोप में तेल व गैस का आयात खूब चल रहा है। 24 फ़रवरी से अब तक 15 अरब यूरो का भुगतान हो चुका है। इसे भी अमेरिकी खेमे की विफलता के रूप में देखा जा सकता है।

आक्रमण के बाद जो विकल्प अब बचे हैं, वे भी कम गंभीर नहीं हैं।  कम से कम अब उन राजनयिक विकल्पों की तलाश की जानी चाहिए, जिससे यह युद्ध समाप्त हो और शांति स्थापित हो। नोआम चोम्स्की कुछ विकल्प भी सुझाते हैं। जैसे, यूक्रेन की ऑस्ट्रियाई शैली का तटस्थीकरण, मिन्स्क द्वितीय संघवाद का कुछ संस्करण। पर लंबे  समय से, रूस अमेरिका के बीच परस्पर बढ़ रहे अविश्वास के वातावरण में, ब्लादिमीर पुतिन और जो बाइडेन के बीच गम्भीरता से हल ढूंढने के लिए कोई बातचीत हो पायेगी, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। 

इस बीच, हमें उन लोगों के लिए सार्थक समर्थन प्रदान करने के लिए कुछ भी करना चाहिए जो क्रूर हमलावरों के खिलाफ अपनी मातृभूमि की रक्षा कर रहे हैं। जो भयावहता से बच रहे हैं, और हजारों साहसी रूसियों के लिए सार्वजनिक रूप से अपने राज्य के अपराध का बड़े व्यक्तिगत जोखिम पर विरोध कर रहे हैं। हमें पीड़ितों के अधिक व्यापक वर्ग की मदद करने के तरीके खोजने का भी प्रयास करना चाहिए। यह तबाही ऐसे समय में हुई जब सभी महान शक्तियां एक साथ मिल कर, पूरी दुनिया में पर्यावरण के विनाश के समक्ष आये एक बड़े संकट को नियंत्रित करने के लिए एक साथ काम कर रही हैं।

ऐसा लगता है कि रूसी आक्रमण का उद्देश्य ज़ेलेंस्की सरकार को गिराना और उसके स्थान पर एक रूसी समर्थक सरकार स्थापित करना है। लेकिन यूक्रेन की सबसे बड़ी विफलता यह रही है कि, वह न तो, नाटो को समझ पाया और न ही पश्चिमी ब्लॉक के कुटिल साम्राज्यवादी चरित्र को। कूटनीति के खेल में परम स्वार्थ चलता है और अपने देश का हित सर्वोपरि है, यह मूल बोध वाक्य होता है। शब्दों में भी और भावनाओं में भी। मुझे लगता है, अमेरिका को शुरू में अंदाज़ा ही नहीं रहा होगा कि, पुतिन की इतनी आक्रामक प्रतिक्रिया होगी। पुतिन एक खुफिया पृष्ठभूमि के, कमांडो से राजनीति में आये व्यक्ति हैं। जिस तरह से उन्होंने खुद को रूस का आजीवन सर्वेसर्वा घोषित कर दिया, यह उनके अलोकतांत्रिक और एकाधिकारवादी मस्तिष्क को इंगित करता है। रूस के ठीक बगल में स्थित और रूसी संस्कृति से प्रभावित यूक्रेन के राष्ट्रपति कैसे अपने मज़बूत पड़ोसी का मनोवैज्ञानिक अध्ययन नहीं कर सके, यह हैरानी की भी बात है और उनकी कूटनीतिक विफलता भी। हालांकि, पश्चिमी ब्लॉक्र, ब्रिटेन में लेबर पार्टी सहित मुख्यधारा के विपक्षी दलों और कॉरपोरेट मीडिया ने समान रूप से रूस विरोधी अभियान भी शुरू किया है। इस अभियान के लक्ष्यों में न केवल रूस के कुलीन वर्ग बल्कि संगीतकार, बुद्धिजीवी और गायक और यहां तक ​​​​कि फुटबॉल मालिक जैसे चेल्सी एफसी के रोमन अब्रामोविच भी शामिल हैं।  आक्रमण के बाद 2022 में रूस को यूरोविज़न से भी प्रतिबंधित कर दिया गया है।  यह वही प्रतिक्रिया है जो कॉरपोरेट मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने आम तौर पर इराक के आक्रमण और उसके बाद के विनाश के बाद यू.एस. के प्रति प्रदर्शित की थी। 

यह कहना मुश्किल है कि इस युद्ध की राख कहाँ कहाँ तक गिरेगी। चीन फिलहाल इसे शांत होकर देख रहा है। वैसे भी चीन की कूटनीतिक चालें अक्सर चौकाने वाली रहती हैं। कुछ हफ़्ते पहले अर्जेंटीना को बेल्ट एंड रोड योजना के भीतर शामिल करते हुए, अपने, प्रतिद्वंद्वियों को देखते हुए, अपनी विस्तृत वैश्विक प्रणाली के भीतर दुनिया के अधिकांश आर्थिक एकीकरण के अपने व्यापक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने की कोशिश में वह लंबे समय से लगा ही हुआ है। फिलहाल वह जाहिरा तौर पर किसी की भी तरफ नहीं है, पर यह बात बिल्कुल सच है कि, उसे अमेरिका और रूस में चुनना होगा तो वह रूस की तरफ नज़र आएगा। भारत ने फिलहाल, एक तटस्थ दृष्टिकोण अपना रखा है। जैसा कि नोआम चोम्स्की ने पहले ही कहा है कि, "यह युद्ध लम्बा चला तो, यह मानव प्रजातियों के लिए एक डेथ वारंट है, जिसमें कोई विजेता नहीं है।  हम मानव इतिहास में एक महत्वपूर्ण बिंदु पर हैं।  इसे नकारा नहीं जा सकता।  इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।"
(समाप्त)

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 17 March 2022

प्रो भगवत शरण शुक्ल - 'होली' का शब्द विवेचन

होली-(क) शब्द का अर्थ- इसका मूल रूप हुलहुली (शुभ अवसर की ध्वनि) है जो ऋ-ऋ-लृ का लगातार उच्चारण है। आकाश के ५ मण्डल हैं, जिनमें पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माण्ड हमारे अनुभव से परे है। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी का अनुभव होता है, जो शिव के ३ नेत्र हैं। इनके चिह्न ५ मूल स्वर हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ। शिव के ३ नेत्रों का स्मरण ही होली है। 

अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र सूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः। (मुण्डक उपनिषद्, २/१/४)   

चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय, तस्मै वकाराय नमः शिवाय (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
विजय के लिये उलुलय (होली) का उच्चारण होता है-
उद्धर्षतां मघवन् वाजिनान्युद वीराणां जयतामेतु घोषः। 
पृथग् घोषा उलुलयः एतुमन्त उदीरताम्। (अथर्व ३/१९/६)

(ख) अग्नि का पुनः ज्वलन-सम्वत्सर रूपी अग्नि वर्ष के अन्त में खर्च हो जाती है, अतः उसे पुनः जलाते हैं, जो सम्वत्-दहन है-
अग्निर्जागार तमृचः कामयन्ते, अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह-तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः। (ऋक् ५/४४/१५)

यह फाल्गुन मास में फाल्गुन नक्षत्र (पूर्णिमा को) होता है, इस नक्षत्र का देवता इन्द्र है-
फाल्गुनीष्वग्नीऽआदधीत। एता वा इन्द्रनक्षत्रं यत् फाल्गुन्यः। अप्यस्य प्रतिनाम्न्यः। (शतपथ ब्राह्मण २/१/२/१२)
मुखं वा एतत् सम्वत्सररूपयत् फाल्गुनी पौर्णमासी। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/१८)
सम्वत्सर ही अग्नि है जो ऋतुओं को धारण करता है-
सम्वत्सरः-एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। सम्वत्सरमेवैतत्-ऋतुभिः-सन्तनोति, सन्दधाति। ता वै नाना समानोदर्काः। ऋतवो वाऽअसृज्यन्त। ते सृष्टा नानैवासन्। तेऽब्रुवन्-न वाऽइत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्। रूपैः समायामेति। ते एकैकमृतुं रूपैः समायन्। तस्मादेकैकस्मिन्-ऋतौ सर्वेषां ऋतूनां रूपम्। (शतपथ ब्राह्मण ८/७/१/३,४)

जिस ऋतु में अग्नि फिर से बसती है वह वसन्त है-
यस्मिन् काले अग्निकणाः पार्थिवपदार्थेषु निवसन्तो भवन्ति, स कालः वसन्तः।
फल्गु = खाली, फांका। वर्ष अग्नि से खाली हो जाता है, अतः यह फाल्गुन मास है। अंग्रेजी में भी होली (Holy = शिव = शुभ) या हौलो (hollow = खाली) होता है। वर्ष इस समय पूर्ण होता है अतः इसका अर्थ पूर्ण भी है। अग्नि जलने पर पुनः विविध (विचित्र) सृष्टि होती है, अतः प्रथम मास चैत्र है। आत्मा शरीर से गमन करती है उसे गय-प्राण कहते हैं। उसके बाग शरीर खाली (फल्गु) हो जाता है, अतः गया श्राद्ध फल्गु तट पर होता है।

(ग) कामना-काम (कामना) से ही सृष्टि होती है, अतः इससे वर्ष का आरम्भ करते हैं-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। 
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२९/४)

इस ऋतु में सौर किरण रूपी मधु से फल-फूल उत्पन्न होते हैं, अतः वसन्त को मधुमास भी कहते हैं-
(यजु ३७/१३) प्राणो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण १४/१/३/३०) = प्राण ही मधु है।
(यजु ११/३८) रसो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण ६/४/३/२, ७/५/१/४) = रस ही मधु है।

अपो देवा मधुमतीरगृम्भणन्नित्यपो देवा रसवतीरगृह्णन्नित्येवैतदाह। (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/३) 
= अप् (ब्रह्माण्ड) के देव सूर्य से मधु पाते हैं।

ओषधि (जो प्रति वर्ष फलने के बाद नष्ट होते हैं) का रस मधु है-ओषधीनां वाऽएष परमो रसो यन्मधु। (शतपथ ब्राह्मण २/५/४/१८) परमं वा एतदन्नाद्यं यन्मधु। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १३/११/१७)
सर्वं वाऽइदं मधु यदिदं किं च। (शतपथ ब्राह्मण ३/७/१/११, १४/१/३/१३)

हम हर रूप में मधु की कामना करते हैं-
मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥६॥
मधुनक्तमुतोषसो, मधुमत् पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥७॥
मधुमान्नो वनस्पति- र्मधुमाँ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥८॥ (ऋक् १/९०)  
= मौसमी हवा (वाता ऋता) मधु दे, नदियां मधु बहायें, हमारी ओषधि मधु भरी हों। रात्रि तथा उषा मधु दें, पृथ्वी, आकाश मधु से भरे हों। वनस्पति, सूर्य, गायें मधु दें।

मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो मधुमन्नो अन्तरिक्षम्। 
क्षेत्रस्य पतिर्मधुमन्नो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेनं चरेम॥ (ऋक् ४/५७/३)
= ओषधि, आकाश, जल, अन्तरिक्ष, किसान-सभी मधु युक्त हों।

(घ) दोल-पूर्णिमा-वर्ष का चक्र दोलन (झूला) है जिसमें सूर्य-चन्द्र रूपी २ बच्चे खेल रहे हैं, जिस दिन यह दोल पूर्ण होता है वह दोल-पूर्णिमा है-
यास्ते पूषन् नावो अन्तः समुद्रे हिरण्मयीरन्तरिक्षे चरन्ति।
ताभिर्यासि दूत्यां सूर्य्यस्य कामेन कृतश्रव इच्छमानः॥ (ऋक् ६/५८/३)

पूर्वापरं चरतो माययैतै शिशू क्रीडन्तौ परि यन्तो अध्वरम् (सम्वत्सरम्) ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूरन्यो विदधज्जायते पुनः॥ (ऋक् १०/८५/१८)
कृष्ण (Blackhole) से आकर्षित हो लोक (galaxy) वर्तमान है, उस अमृत लोक से सूर्य उत्पन्न होता है जिसका तेज पृथ्वी के मर्त्य जीवों का पालन करता है। वह रथ पर घूम कर लोकों का निरीक्षण करता है-
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्। (ऋक् १/३५/२, यजु ३३/४३)

(ङ) विषुव संक्रान्ति-होली के समय सूर्य उत्तरायण गति में विषुव को पार करता है। इस दिन सभी स्थानों पर दिन-रात बराबर होते हैं। दिन रात्रि का अन्तर, या इस रेखा का अक्षांश शून्य (विषुव) है, अतः इसे विषुव रेखा कहते हैं। इसको पार करना संक्रान्ति है जिससे नया वर्ष होली के बाद शुरु होगा।

प्रो. भगवतशरण शुक्ल ,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

Tuesday 15 March 2022

रूस - यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि और बीसवीं सदी का युद्धोन्माद / विजय शंकर सिंह

रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के 20 दिन बीच चुके हैं। मीडिया से प्राप्त, अब तक की ताजी अपटेड के अनुसार, यूक्रेन का दावा है कि दक्षिणी शहर मारियुपोल पर रूसी बमबारी से अब तक 2,500 से ज्यादा मौतें हुई हैं। राष्ट्रपति जेलेंस्की के सलाहकार ओलेक्सी एरेस्टोविच ने कहा कि, "मारियुपोल में हमारी सेना को कामयाबी मिल रही है। हमने कल यहां पर रूसी सेना को हराकर अपने युद्ध बंदियों को आजाद करा लिया है।" दोनों देशों की युद्ध-तकरार से यूरोप के देशों पर कोरोना का खतरा बढ़ गया है। अब तक 20 लाख से ज्यादा यूक्रेनी शरणार्थी यूरोपीय देशों में पहुंचे हैं। इनमें से ज्यादातर का वैक्सीनेशन नहीं हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि "यूक्रेन और आसपास के देशों में 3 से 9 मार्च के बीच कोरोना के कुल 7,91,021 नए मामले सामने आये हैं।" रूसी हमले की वजह से यूक्रेनी इंफ्रास्ट्रक्चर को अब तक 119 बिलियन डॉलर से ज्यादा का नुकसान हो चुका है।

एएफपी न्यूज एजेंसी के मुताबिक, 'मॉस्को में यूक्रेन पर हमले के खिलाफ रविवार को बहुत बड़ा प्रदर्शन किया गया। रूसी पुलिस ने इसमें शामिल 800 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है। रूस के वित्त मंत्री एंटोन सिलुआनोव ने रविवार को कहा कि विदेशी प्रतिबंधों से करीब 2.30 लाख करोड़ रुपए का फंड फ्रीज हो गया है। यह फंड रूसी सरकार के 4.91 लाख करोड़ रुपए के रेनी-डे फंड का हिस्सा था।' अब यूक्रेन के पश्चिमी इलाके में भी लड़ाई तेज हो गई है, जो अब तक 'सेफ हैवन' बना हुआ था। रूसी सेना ने रविवार को नाटो  NATO के सदस्य देश पोलैंड सीमा से महज 12 मील दूर यावोरिव में एक मिलिट्री ट्रेनिंग बेस पर क्रूज मिसाइलें दागकर 35 लोगों को मार दिया, जबकि 134 लोग घायल हैं। रूस ने हमले में 180 विदेशी लड़ाकों को मारने का भी दावा किया है।

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, रूस ने यूक्रेन में अपनी लड़ाई तेज करने के लिए चीन से मिलिट्री उपकरण मांगे हैं। अमेरिकी अधिकारियों के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से अतिरिक्त आर्थिक सहयोग भी मांगा है, ताकि अमेरिका, यूरोप व एशियाई देशों की तरफ से लगाए प्रतिबंधों से वह अपनी इकोनॉमी को बचा सके। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, लीव शहर के करीब हमले का शिकार हुआ मिलिट्री बेस इंटरनेशनल पीस कीपिंग सेंटर था, जहां अमेरिकी सेना एक महीने पहले तक यूक्रेन के सैनिकों को ट्रेनिंग दे रही थी। रूस ने यहां 30 से ज्यादा क्रूज मिसाइल दागी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, रूस ने भी हमले की पुष्टि की है। रूस के रक्षा मंत्रालय ने कहा कि उसने 180 विदेशी लड़ाके मारे हैं, जो यूक्रेन की तरफ से लड़ने आए थे। रूसी सेना ने यह हमला अपनी उस चेतावनी के एक दिन बाद किया है, जिसमें उसने यूक्रेन को अमेरिका व अन्य देशों से मिलने वाले हथियारों को निशाना बनाने की बात कही है। 

रेड क्रॉस ने चेतावनी दी है कि मारियुपोल शहर में फंसे करीब 4 लाख लोगों की हालात बेहद खराब है और उनके लिए समय तेजी से भाग रहा है। रेड क्रॉस ने इन्हें निकालने के लिए ग्रीन कॉरिडोर की दोबारा बहाली की अपील की है। पूर्वी यूक्रेन में एक इवेक्यूएशन ट्रेन में आग लगने से कंडक्टर की मौत हो गई, जबकि कई अन्य घायल हैं। नेशनल रेलरोड कंपनी ने रविवार को बताया कि दोनस्क रीजन में ब्रूसिन स्टेशन के करीब आग का शिकार हुई ट्रेन में 100 बच्चों समेत सैकड़ों लोग सवार थे। पूर्वी यूक्रेन में रविवार को रूसी आर्टिलरी अटैक ने 16वीं सदी के एक चर्च और गुफा कॉम्पलेक्स को भारी नुकसान पहुंचाया है। आर्थोडॉक्स क्रिश्चियन समुदाय के होली डोरमिशन सिव्यातोगोर्स्क लावरा चर्च में सैकड़ों लोगों ने शरण ले रखी थी। हमले में इनमें से बहुत सारे घायल हो गए हैं। बता दें कि इस चर्च को मानने वाले यूक्रेन के अलावा रूस में भी हैं। 

उपरोक्त खबरे, अखबार और मीडिया एजेंसियां, लगातार दे रही हैं। युद्ध अपटेड निरन्तर बदल रहे हैं। यह खबरें, लोगों को डरा रही हैं और दुनिया क्या फिर से एक महायुद्ध की तरफ जाने या अनजाने बढ़ने लगी है, इस पर दुनियाभर के बौद्धिक समाज मे चर्चा शुरू हो गयी है। शुरुआत में, यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद जैसा कि माना जा रहा था, कि नाटो देश और उनका सरपरस्त यूएस, यूक्रेन की तरफ से मोर्चा संभाल लेगा, खुद ही युद्ध नियंत्रित करने लगेगा और यूरोप फिर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के सबसे कठिन युद्धों के दौर में आ जायेगा। और जब युद्ध बढ़ेगा तो कई समीकरण बनेंगे, बिगड़ेंगे और फिर विश्व चौधराहट के लिये जो जंग छिड़ेगी वह चीन ईरान और भारत को भी समेट लेगी। पर अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। पर यह 'अभी तक', अभी तक ही है। युद्ध भी एक उन्माद की तरह होता है। और उन्माद किस दशा या दिशा में जायेगा, इसका अनुमान लगाया जाना कठिन होता है। हर युद्ध के कारण होते हैं, और तत्काल युद्ध छिड़ जाय तो उसके तात्कालिक कारण भी होते हैं। मानव सभ्यता का इतिहास ही युद्धों का इतिहास रहा है। यदि ज्ञात इतिहास का सिलसिलेवार अध्ययन किया जाय तो, आप पाएंगे कि, मानव सभ्यता का सारा इतिहास युद्ध और युद्ध की तैयारियों से भरा पड़ा है। दो युद्धों के बीच का शांतिकाल भी एक कूलिंग काल की तरह नज़र आता है। तभी तो साम्राज्य बनते, विकसित और बिगड़ते रहे हैं। रूस यूक्रेन युद्ध के बहाने बीसवीं सदी के दो बड़े और विनाशकारी युद्धों पर टिप्पणी के साथ साथ इस लेख में प्रसिद्ध बुद्धिजीवी नोआम चोम्स्की के एक इंटरव्यू की भी चर्चा की जा रही है। 

आज दुनियाभर में, नोआम चॉम्स्की को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीवित सबसे महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों में से एक, प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में माना जाता है। अक्सर उनके बौद्धिक कद और मेधा की तुलना गैलीलियो, न्यूटन और डेसकार्टेस से की जाती है, क्योंकि उनके अध्ययन और उपलब्धियों का विस्तार, भाषाविज्ञान, तर्क और गणित, कंप्यूटर विज्ञान, मनोविज्ञान, मीडिया अध्ययन, दर्शन सहित विद्वानों और वैज्ञानिक जांच के विभिन्न क्षेत्रों तक है। उन्होंने अपने विचारों से इन सभी विषयों पर अपनी जबरदस्त छाप छोड़ी है। लगभग 150 पुस्तके, उनके द्वारा लिखी गयी हैं। वे सिडनी शांति पुरस्कार और क्योटो पुरस्कार (जापान के नोबेल पुरस्कार के समकक्ष) और दुनिया के सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों से दर्जनों मानद डॉक्टरेट की उपाधि सहित अत्यधिक प्रतिष्ठित  पुरस्कारों के सम्मानित हैं।  चॉम्स्की, अमेरिका के एमआईटी संस्थान के प्रोफेसर एमेरिटस हैं और वर्तमान में एरिज़ोना विश्वविद्यालय में पुरस्कार विजेता प्रोफेसर हैं।
"यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने पूरी दुनिया को चकित कर दिया।  यह एक अकारण और अनुचित हमला है जो इतिहास में 21 वीं सदी के प्रमुख युद्ध अपराधों में से एक के रूप में, याद रखा जाएगा।" 
यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है, नोआम चोम्स्की की, जब वे ट्रुथआउट वेबसाइट के लिए एक विशेष साक्षात्कार में अपनी बात कह रहे थे। 

पर चोम्स्की के इस तर्क और विचार को जानने के पहले, बीसवीं सदी के दो प्रमुख महायुद्धों और उनके बाद की स्थितियों की संक्षिप्त चर्चा करनी ज़रूरी है। दोनों ही महायुद्धों में जर्मन राष्ट्रवाद की एक प्रमुख भूमिका रही है। प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण, भले ही, 28 जून 1914 को, सेराजोवा में ऑस्ट्रिया के सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्चड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या रही हो, और इस घटना के बाद, ऑस्ट्रिया द्वारा सर्बिया पर युद्ध कर देना रहा हो, पर यह एक तात्कालिक कारण था, युद्ध के साजो सामान में एक इग्नीशन की तरह था। पर साजो सामान को यूरोपीय साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी देशों ने इसके पहले से इकट्ठा करना शुरू कर दिया था। युद्ध की पीठिका शांतिकाल में ही आकार लेती है और जब सब, तहसनहस हो जाता है तो फिर अफसोस किये जाते हैं, बर्बादी की दास्तान सुनाई जाती है, युद्ध विरोधी हृदयविदारक साहित्य रचे जाते हैं, और शांति के लिये लीग ऑफ नेशन्स और यूनाइटेड नेशंस ऑर्गनाइजेशन जैसी अंतरराष्ट्रीय पंचायतें आकार लेने लगती है। पर, दुर्भाग्य से फिर कोई वैश्विक युद्धोन्माद उभरता है तो यह संस्थाये अक्सर बेबस नज़र आती हैं। रूस यूक्रेन युद्ध मे, आज यूएनओ की भूमिका और उसके दखल से उसकी हैसियत क्या है, इसे आप प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध जब घोषित किया तो, रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन ने सर्बिया की सहायता की और जर्मनी ने आस्ट्रिया की और इस तरह यूरोप का यह पहला विश्वयुद्ध था। 1919 में भयंकर तबाही के बाद, यह युद्ध समाप्त हुआ, जर्मनी पराजित हुआ, पर जर्मन राष्ट्रवाद ने खुद को आहत महसूस किया और वह अंदर ही अंदर उद्वेलित होता रहा, उफनता रहा। इसी बीच तमाम उथलपुथल के बाद जर्मनी में हिटलर आया और हिटलर का एक ही उद्देश्य था प्रथम विश्वयुद्ध में पराजित जर्मनी का प्रतिशोध लेना। प्रतिशोध के लिये सैन्य तैयारियां तो हो ही रही थी, पर जनता को भी युद्ध की ज़रूरत, प्रतिशोध की आवश्यकता, जर्मनी की प्रतिष्ठा स्थापित करने का औचित्य आदि बातें समझानी थीं और उसे मानसिक रूप से तैयार भी करना था। जनमानस में, हिटलर की अजेयता और उसकी विकल्पहीनता सिद्ध करने के लिये जर्मनी में जो कुछ किया गया वह एक ऐसी विचारधारा बनी, जिसका आधार ही घृणा, झूठ, फरेब और उन्माद था। जिस आक्रामक और घृणा आधारित राष्ट्रवाद की नींव हिटलर और उसके लोग रख रहे थे, अंततः वही उसके विनाश का कारण बनी। पर जब युद्ध होता है, तो बर्बाद, आम जन होते हैं, देश की अर्थव्यवस्था होती है, समाज का तानाबाना मसकता है, विकास और जनिहित के कार्य नष्ट हो जाते हैं, भुखमरी, बेरोजगारी और अन्य मुसीबते सर उठा लेती हैं और हवा में बारूद की गंध लम्बे समय के लिये फैल जाती है। यह बात भी कुछ हद तक सही है कि, राष्ट्र नायक, इस विनाश के बाद, राष्ट्र खलनायक के रूप में देखा जाने लगता है, और जनता ठगी हुयी उन कारणों के पड़ताल में लग जाती है कि, क्या वह प्रतिशोध के उन्माद में अपना विवेक खो कर एक रोबोट संचालित भीड़ बन गयी थी ? 

अब आते हैं, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की स्थितियों पर। युद्ध मे कोई नही जीतता है खास कर ऐसे विनाशकारी युद्धों के बाद। ऐसे ही युद्धों के लिए अंग्रेजी में एक शब्द है pyrrhic victory पिरिक विक्ट्री, जिसका अर्थ है, विनाशकारी विजय। एक ऐसी विजय जो जीत का आह्लाद तक नहीं खुलकर लेने देती और जीत एक मनोवैज्ञानिक युद्धोन्माद की संतुष्टि जैसी रह जाती है। यही हाल ब्रिटेन का हुआ। उसके उपनिवेश बिखरने लगे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिर एक अंतरराष्ट्रीय पंचायत यूएनओ के रूप में सामने आयी। पर युद्ध की समाप्ति के चार साल बाद ही अंतरराष्ट्रीय गोलबंदी और सैन्य समझौते होने लगे। दरअसल, सोवियत रूस और अमेरिका भले ही द्वितीय विश्वयुद्ध में धुरी राष्ट्रों के खिलाफ एक रहे हों, पर वह समझौता एक साझे शत्रु से निपटने तक के लिये ही था। वह साझा शत्रु हिटलर था, मुसोलिनी था, उनकी संकीर्ण फासिस्ट सोच थी और उनका खतरनाक स्तर तक बढ़ा हुआ युद्धोन्माद था। जब वह कॉमन शत्रु निपट गया तो तो जो, यूएस सोवियत रूस का, मूल वैचारिक विरोध था, वह फिर दोनों के बीच सतह पर, आ गया। अब तकनीक बदल गयी थी। युद्ध के तब तक के सबसे विनाशकारी हथियार का दुखद परीक्षण हो चुका था, तो युद्ध की एक नई शैली सामने आई, जिसे कोल्ड वार यानी शीत युद्ध कहा गया। इस काल मे दुनिया दो ध्रुवों में बंटी और भारत के नेतृत्व में नवस्वतंत्र एशियाई और अफ्रीकी मुल्कों ने, इन गुटों से अलग हट कर एक नया समूह बनाया जो सफलतापूर्वक लम्बे समय तक चला और अपनी हैसियत भी समय समय पर प्रदर्शित की। यह समूह था, गुट निरपेक्ष संगठन। 

1990 तक सोवियत रूस बिखरने लगा। उसके बहुत से कारण हैं, उनमें जाना विषयांतर हो सकता है। पर जब सोवियत टूटा तो यूक्रेन और अन्य बहुत से देश जो स्टालिन के समय मे सोवियत रूस में थे वे अलग हो गए। रूस आर्थिक रूप से कमजोर भी हो गया था। अमेरिका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय विश्व बन रहा था। सन्तुलन की अब आवश्यकता ही नहीं रही तो गुट निरपेक्ष संगठन भी धीरे धीरे अप्रासंगिक होने लगे। अमेरिका ने, रूस के चारों तरफ अपना अधिकार बढ़ाना शुरू कर दिया। उसी क्रम में जब उसकी महत्वाकांक्षा यूक्रेन तक आयी तो रूस जो धीरे धीरे, सम्भल चुका था, और अमेरिका को समझ भी गया था, इस पर सशंकित हुआ और यूरोप में युद्ध की एक नयी पीठिका बनने लगी। फिर अचानक यह युद्ध छिड़ गया। अमेरिका को लगता था कि रूस यूक्रेन पर हमला नहीं करेगा, पर यह हमला हुआ, यूक्रेन को लगता था, उस पर हमला होगा तो, नाटो देश उसके पक्ष में बम बरसाने लगेंगे, पर ऐसा बिल्कुल अभी तक तो नहीं हुआ, चीन को लगा कि युद्ध तो मज़बूत से मज़बूत देश को भी कमजोर कर देता है, अमेरिका इससे कमज़ोर ही होगा, उस शून्य को भरने के लिये वह मानसिक और आर्थिक रूप से तैयार हो ही रहा था, साथ ही रूसी राष्ट्रवाद के विस्तार की नज़ीर में वह ताइवान और दक्षिण एशिया में अपने एजेंडे को पूरा करने के मंसूबे बांधने लगा, अभी यह होगा या नहीं यह भविष्य में ही तय होगा और भारत क्या कर रहा है, यह सबको पता ही है। हमने इस युद्ध मे किसी की तरफ न रहने का निर्णय लिया, यह निर्णय अच्छा है या बुरा इसका निर्णय कूटनीतिक विशेषज्ञ ही कर सकते हैं। 

अब एक नज़र रूस यूक्रेन के वर्तमान विवाद पर भी ज़रा विस्तार से डालते हैं। क्या रूस-यूक्रेन युद्ध अब तीसरे विश्व युद्ध की तरफ बढ़ता दिखाई दे रहा है ? अभी इस पर कोई स्वीकारत्मक टिप्पणी करना, जल्दबाजी होगी। रूस ने अपने और यूक्रेन के बीच हो रहे इस युद्ध में, बीच मे पड़ने वालों को धमकी दी है तो वहीं, अमेरिका ने भी सख्त चेतावनी के साथ कहा है कि, इस युद्ध का परिणाम बहुत बुरा होगा और रूस को इसकी कीमत चुकानी होगी। ब्रिटेन और दूसरे देश भी रूस के खिलाफ खड़े हैं। रूस और यूक्रेन के बीच जंग के पीछे की वजह इस बार नाटो को माना जा रहा है। NATO यानी North Atlantic Treaty Organization, जिसे साल 1949 में शुरू किया गया था. यूक्रेन NATO में शामिल होना चाहता है लेकिन रूस ऐसा नहीं होने देना चाहता था। यह जानना जरूरी है कि आखिर इस विवाद की जड़ क्या है? सोवियत संघ के जमाने में कभी मित्र रहे ये प्रांत दो देश बनने के बाद एक दूसरे के खिलाफ क्यों हो गए ?

अब इसके इतिहास में जाकर कुछ पुरानी घटनाओं को देखते हैं। यूक्रेन की सीमा पश्चिम में यूरोप और पूर्व में रूस से जुड़ी है. 1991 तक यूक्रेन पूर्ववर्ती सोवियत संघ (USSR) का हिस्सा था. अलग होने के बाद भी यूक्रेन में रूस का प्रभाव काफी हद तक दिखाई देता था. यूक्रेन की सरकार भी रूसी शासन के आदेश पर ही काम करती थी. लेकिन, बिगड़ती अर्थव्यवस्था, बढ़ती महंगाई और अल्पसंख्यक रूसी भाषी लोगों के बहुसंख्यक यूक्रेनी लोगों पर शासन ने विद्रोह की चिंगारी सुलगा दी। 

अब यह क्रोनोलॉजी देखें, 
● 1991 यूक्रेन ने रूस से आजादी का ऐलान किया। यह वह समय था, जब सोवियत रूस का विखराव शुरू हो गया था। यूक्रेन में जनमतसंग्रह हुआ लियोनिद क्रावचुक वहां के राष्ट्रपति बने।
● 1994 में फिर वहां चुनाव हुआ और, लियोनिद कुचमा ने लियोनिद क्रावचुक को चुनाव में हरा दिया। 
● 1999 के चुनाव में, कुचमा एक बार फिर से राष्ट्रपति चुने गए। लेकिन इस चुनाव में उनकी सरकार पर, अनियमितता और धांधली के कई आरोप लगे।
● 2004 के चुनाव में, रूस के पक्षधर विक्टर यानूकोविच विजयी हुए और वे नए राष्ट्रपति बने। उन पर चुनाव में धांधली का आरोप लगा और इस व्यापक अनियमितता पर यूक्रेन में देश भर में प्रदर्शन हुए। इस व्यापक जनप्रदर्शन को यूक्रेन के इतिहास में, ऑरेंज रिवोल्यूशन के नाम से जाना जाता है। विक्टर यूस्चेन्को को पश्चिमी देशों, यानी अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस का पक्षधर कहा जाता था। विक्टर यूनोकोविच यूक्रेन के राष्ट्रपति तो बन गए थे, पर यह दुनिया का पहला देश रहा होगा जहां पर किसी देश के राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक कैंडिडेट के प्रचार में राजधानी कीव में अमेरिका और यूरोप के नेता वोट मांग रहे थे तो दूसरी तरफ़ दूसरे कैंडिडेट के लिए रूस के राष्ट्रपति पुतिन वोट मांग रहे थे। चुनाव हारने के बाद विक्टर को चुनावी धांधली का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया। इस बीच विपक्षी राष्ट्रपति उम्मीदवार यूसचें को को डॉक्सिन ज़हर देकर मार डालने की कोशिशों का आरोप रूस पर लगा जिसे रूस ने पश्चिम देशों का प्रोपोगांडा बताया. 2005 से लेकर 2010 लाख यूक्रेन रूसी विरोधी अमेरिका और यूरोप की नीतियों का केन्द्र रहा। 
● 2005 यूस्चेन्को ने रूस का दबदबा कम करने का संकल्प लिया और खुल कर, यूक्रेन को नाटो और यूरोपीय यूनियन में शामिल करने की बात, अमेरिकी लॉबी में चलाई। वे रूस से दूर हट रहे थे और उनके इस कदम ने रूस को यूक्रेन के प्रति बेहद सन्देहास्पद बना दिया था।
● 2008 में नाटो ने यूक्रेन को आश्वासन दिया कि वह यूक्रेन को नाटो संगठन में शामिल कर लेगा। 
● 2010 में जब चुनाव हुआ तो, यानूकोविच ने राष्ट्रपति चुनाव में यूलिया टिमशेंको को हराया। यह रूस समर्थित खेमा था। 
● 2013 में, यानूकोविच ने अमेरिका के साथ पहले से चल रही व्यापार वार्ता को स्थगित कर दिया। उन्होंने रूस के साथ आपसी व्यापार समझौते किए। इसे लेकर कीव में एक बड़ा प्रदर्शन भी हुआ। 
● 2014 में, 14 हजार से ज्यादा प्रदर्शनकारियों की मौत कानून व्यवस्था के कारण हुयी। संसद ने यानूकोविच को हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव पारित किया। यानूकोविच यह प्रबल जनविरोध झेल नहीं पाए और वह, यूक्रेन छोड़ कर रूस भाग गए। रूसी समर्थक लड़ाकों ने यूक्रेन के क्रीमिया में संसद पर रूसी झंडा फहराया। 16 मार्च को रूस ने इसे एक जनमतसंग्रह के माध्यम से रूस में शामिल कर लिया। 
● 2017 में यूक्रेन और यूरोपीय यूनियन के बीच मुक्त बाजार संधि हुयी।
● 2019 में, यूक्रेन के ऑर्थोडॉक्स चर्च को आधिकारिक मान्यता मिली। रूस ऑर्थोडॉक्स चर्च की मान्यता नहीं चाहता था, वह नाराज हुआ। उसका विरोध और बढ़ा। .
● जून 2020 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष IMF ने 5 बिलियन डॉलर की वित्तीय सहायता यूक्रेन को दी। 
● जनवरी 2021 यूक्रेन ने अमेरिका से नाटो में शामिल होने की अपील की। 
● अक्टूबर 2021 यूक्रेन ने बेरेक्टर टीबी 2 ड्रोन का इस्तेमाल किया। रूस ने इससे उत्तेजित करने वाली कार्यवाही बतायं। ड्रोन के इस्तेमाल से रूस नाराज हुआ। 
● नवंबर 2021 में, रूस ने यूक्रेन की सीमा पर अपनी सेनाओं की तैनाती बढ़ाई। अब एक खतरनाक स्थिति बन रही थीं। 
● 7 दिसंबर 2021 को सीमा पर, रूसी सैनिकों की संख्या बढ़ाने पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की रूस को चेतावनी.दी और कहा कि, रूस ने यूक्रेन पर यदि हमला किया तो, उस पर आर्थिक पाबंदियां लगेंगी। 
● 10 जनवरी 2022 यूक्रेन-रूस तनाव के बीच यूएस और रूस के राजनयिकों की वार्ता हुयी जी विफल हो गयी। इसे विफल होना ही था। 
● 14 जनवरी 2022 को, यूक्रेन पर रूस ने, साइबर हमले की चेतावनी.
● 17 जनवरी 2022 को, रूस की सेना बेलारूस पहुंचनी शुरू हुई। 
● 24 जनवरी 2022 को, नाटो ने अपनी सेना को स्टैंडबाई यानी तैयारी की हालत में रखा। 
● 28 जनवरी 2022 को, रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने कहा- रूस की मुख्य मांग है, उसकी सुरक्षा, जो पश्चिमी देशों द्वारा स्वीकार नहीं की गई। 
● 2 फरवरी 2022 को, अमेरिका ने 3000 अतिरिक्त सैनिकों को पोलैंड, रोमानिया भेजने के लिये कहा। 
● 4 फरवरी 2022 को, पुतिन को चीन का समर्थन मिला। चीन ने रूस के पक्ष में बयान जारी किया कि, यूक्रेन को नाटो का हिस्सा नहीं होना चाहिए। 
● 7 फरवरी 2022 को, पुतिन से फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने मुलाकात की और मैक्रों ने बयान जारी किया, "पुतिन मान गए" पर, पुतिन ने, इसका खंडन करते हुए कहा, " रूस से कोई डील नहीं हुई है।"
● 9 फरवरी 2022 को, जो बाइडेन ने कहा, 'यूक्रेन पर रूस कभी भी हमला कर सकता है।' इसके बाद, अमेरिका ने अमेरिकी लोगों से यूक्रेन  छोड़ कर वापस आने की बात कही। 
● 15 फरवरी 2022 को, रूस ने कहा कि वह अपनी कुछ सेना वापस बुला रहा है। यह पीछे लौटना नहीं था, बल्कि एक सामरिक रणनीति थी। 
● 18 फरवरी 2022 को यूएस राजदूत ने कहा, 'रूस ने यूक्रेन सीमा पर पुनः सैनिक बढ़ा दिये हैं।'
● 19 फरवरी 2022 को, रूस की सेना ने परमाणु हथियारों का एक युद्धपूर्व पूर्वाभ्यास किया। 
● 21 फरवरी 2022 को, रूस ने यूक्रेन के दो हिस्सों- लोहान्स्क-दोनेत्स्क को मान्यता दे दी। यह रूसी बहुल इलाके थे। 
● 24 फरवरी 2022 रूस ने यूक्रेन पर सैन्य ऑपरेशन का ऐलान किया और फिर जंग शुरू हो गई। 
(क्रमशः)

( विजय शंकर सिंह )

Friday 11 March 2022

हेमन्त शर्मा - बनारस के किस्से और लोग - लंगड़ा मोची

यह सीरीज मैं प्रसिद्ध पत्रकार, हेमन्त शर्मा Hemant Sharma, जी की टाइमलाइन से उठा रहा हूँ। हेमन्त बनारस के रहने वाले है और बनारस को उन्होंने जीया है। बनारस की अपनी अदा है, कहने सुनने की अपनी शैली है, औऱ हेमन्त का सधा हुआ लेखन, बनारस के इस अंदाज ए बयानी को और स्पष्ट करता है। 

हेमन्त इस सीरीज के बारे में कहते है, 
"जीवन में कुछ लोग ऐसे होते है।जो हो सकता है आपको महत्वपूर्ण न लगे।पर हमारे निजी जीवन पर उनका गहरा असर होता है।"
■ 
बनारस के किस्से औऱ लोग (1) 
लंगड़ा मोची 

(लंगड़े मोची की कोई तस्वीर नहीं थी।सो यह रेखाचित्र, चित्रकार मित्र माधव जोशी ने बनाया है)

कोरोना काल में घुले इस अवसाद के माहौल में ‘इवंनिग वॉक’ उर्जा देता है। ये अलग बात है कि मेरे सेक्टर के ज़्यादातर ‘ईवनिंग वॉकर’ डर के मारे घर में दुबके है। आदमी तो आदमी कुत्ते भी सड़क पर नहीं दिख रहे है।सिर्फ़ चंदू बाबू आते हैं शाम की सैर के लिए।चंदू पेंशनभोगी इंजीनियर है।बड़े बड़े पदों पर रहे है।इसलिए रोज़ नए नए “ब्रान्ड “ के वॉक करने वाले जूते पहनते है।कल मुझे चलने में थोड़ी परेशानी हुई क्योंकि मेरा पनारू (बिना फ़ीते वाला पम्प शू) मेरे अंगूठे को दबा रहा था। अब गलती अंगूठे की थी या जूते की इस विवाद में मैं फ़िलहाल नहीं पड़ता। 

सैर के बाद जूते उतार मैं पैर में चुभने वाली वस्तु को तजबीज़ ही रहा था कि चंदू उखड़ गए। मुझसे बोले कि आप इतने रद्दी जूते पहनते ही क्यों हैं? ब्राण्डेँड क्यों नहीं पहनते? देखिए मेरा मोची का जूता है। मैंने कहा मोची का जूता तो मैं बचपन में पहनता था।अब जूता बनाने वाले मोची रहे कहॉं? मेरे बचपन में बनारस का जगतगंज ऐसे मोची हस्तनिर्मित जूतों का बाज़ार था। संत रविदास के समय से यह बाज़ार चल रहा है।उन जूतों की ख़ासियत यह थी कि ख़रीदने के बाद उसमें पूरी रात तेल भर कर रखा जाता था। तभी दूसरे रोज़ जूता अपनी पूरी मुलायमियत के साथ पैर की शोभा बढ़ाता था। 

चंदू एक बार फिर से उखड़ गए। इस बार हत्थे से भी दो अंगुल उपर।क्योंकि ईवनिंग वॉक के बाद उन्हें नीला वाला हास्य कलाकार ( जॉनीवॉकर) पसन्द है। उसी के असर में झल्लाकर बोले, “आप भी क्या घटिया बात करने लगे।मैं ‘मोची’ ब्रान्ड की बात कर रहा हूँ। दिल्ली के बडे बड़े मॉल में इसकी दुकान है।मामूली दुकानो तो में यह मिलता भी नहीं है।मुझे आपने क्या समझ रखा है मैं मोची का बनाया जूता क्यो पहनूगॉं।” मैंने फिर समझाया मैं तो मोची के बनाए चमरौधे जूते को जानता हूँ। कालेज के दिनों में एक लंगड़ा मोची मेरा दोस्त भी था। धीर,गम्भीर और दार्शनिक। वह चमरौधे जूते बना लेता था।आप चमरौधा जूता कैसे नहीं जानते विलायत से तो आए नहीं है।ददुआ के ज़िले के ही तो है ? इस जूते पर तो महाप्राण निराला ने अपने दामाद के पैरों का चित्रण करते लिखा है -
"वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते घोर गन्ध 
उन चरणों को मैं यथा अंध
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ ऐसी नहीं शक्ति।"

निराला का नाम सुनकर चंदू बाबू कहीं खो से गए। कुछ देर बाद बोले, “कौन निराला एक निराला मेरा जेई होता था,निर्माण निगम में।उसने मेरे रिटायरमेंट पर एक मशहूर विदेशी ब्रांड का जूता गिफ्ट करने का वादा किया था मगर रिटायरमेंट के एक दिन पहले से ही उसने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया।पर वो तो कविता लिख नही सकता।मैंने उनके ज्ञान को प्रणाम किया।और काफ़ी के बाद उन्हें समझा पाया कि निराला जी हिन्दी के महाकवि है।आप तेलियरगंज के जिस मोतीलाल नेहरू में पढे है। उसी के पास दारागंज में वे रहते थे।बहरहाल आप उन्हें नहीं जानते तो मैं मोची के बारे में ही आपको बताता हूँ। मगर चंदू कुछ सुनने को तैयार ही नही थे।मैने गौर किया कि वे जल्दी जल्दी अपने वाट्सएप पर किसी को मैसेज टाइप कर रहे थे और साथ ही साथ बड़बड़ा रहे थे, “फुटवियर में क्रान्ति फ़ैशन के लिए ही नही, पैरों के आराम के लिए हुई है। इसलिए ब्रॉन्ड पहनना ज़रूरी है।” मैने ध्यान से देखा इस बीच उन्होंने तीन अलग अलग नंबरों पर एक ही मैसेज कट पेस्ट किया और फिर से जूतों की बहस में उलझ गए।ये मैसेज “आरआईपी” का था। जूतों पर बहस करते करते ही उन्होंने अपने तीन परिचितों को ‘पीस’ में ‘रेस्ट’ करा दिया और वापिस मुद्दे पर लौट आए। 

चन्दू जूते और ब्रान्ड में उलझे ही हुए थे कि मुझे अपना लंगड़ा मोची याद आने लगा।वह पक्का बनारसी था।हो सकता है लंगड़ा आपकी सबकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण न हो पर मेरे जीवन में उसकी असरदार भागीदारी रही है। काशी ऐसे ही रत्नोँ की खान है। तुलसीदास लिख गए हैं- “ग्यान खान अघ हानि कर। जहँ बस संभु भवानि “ अर्थात काशी ज्ञान की खान है। जहॉं शिव पार्वती बसते हैं।” पर काशी के ज्ञान की पहचान सिर्फ़ मंडन मिश्र से नहीं होती है। एक कपड़ा बुनने वाला कबीर और दूसरा जूता गॉठने वाला रैदास भी ज्ञान की इस पांडित्य परम्परा का प्रतिनिधित्व करते है।अब आप समझ गए होंगे कि मैं लंगड़े मोची का जिक्र किस संदर्भ में कर रहा हूं। 

पढ़ते वक्त गोदौलिया पर एक किताब की दुकान थी पुस्तक मंदिर। उसी के सामने यह लंगड़ा मोची बैठता था पुस्तक मंदिर बीएचयू आते जाते वक्त अपनी अडी थी।तब काशी के हर मुहल्ले में चाय पान या कोई दूसरी दुकान समानधर्मा मित्रों के बैठने की जगह होती थी। जो ज्ञान बॉंटने का अड्डा होती है। यहॉं सुबह से शाम तक पॉंडित्यपूर्ण शास्त्रार्थ होते थे इन अड्डों पर होने वाली बहसें संसद से कम रोचक नहीं होती हैं। अपना ज्ञान बॉंटने के लिए बुद्ध और आचार्य शंकर को भी काशी में अडी लगानी पड़ी। आचार्य शंकर और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ इतिहास प्रसिद्ध है। भगवान बुद्ध भी गया से ज्ञान लेकर उसे बॉंटने काशी ही आए।और सारनाथ में अडी लगायी। जिसे बौध्द लोग धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं।

ऐसी ही अड़ियों पर मेरा संस्कार और समाजबोध बना । इन अड़ियों ने मुझे संवारा, निखारा, प्रबुद्ध किया।ये अडिया मेरा बोधगया थी। यानी  ज्ञान प्राप्ति का केन्द्र । कबीरचौरा पर चूहणमल की चाय की दुकान मेरे बचपन की अडी थी जहॉ मुहल्ले के लोग अख़बार पढ़ने जाते और इन्दिरा गॉधी से लेकर गोल्डामायर तक और भण्डारनायके से लेकर क्वीन एलिज़ाबेथ तक सब पर यहॉं विमर्श चलता रहता था।इस अडी पर अध्यापक ,पत्रकार और कबीर चौरा का संगीत परिवार जमा होता  था। 

पुस्तक मंदिर की अडी के सदस्य केवल विश्वविद्यालयी साथी ही नहीं थे। इसमें आरटीओ में काम करने वाले क्लर्क, सिनेमा में टिकट ब्लैक करने वाले एक सज्जन, एक सरस्वती टाकीज में साईकिल स्टैंड चलाते। एक सज्जन थे जो हत्या के मामले में जेल हो आए थे ।एक महापुरुष  को हम इसलिए प्रोफ़ेसर कहते थे कि वे जुए में मास्टर थे। दिन भर जुआ खेलते थे। वे हमारे लिए प्रोफ़ेसर पद का दैवीय संस्करण थे।एक छेदी लाल थे जिनकी  बूंदी और  समोसे की दुकान थी। छेदी विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व के छात्र थे। पर अपने नाम को लेकर कुण्ठित रहते थे।विभाग में लड़कियाँ बहुत पढ़ती थी वहॉं जा हम उन्हें छेदी कहते तो परेशान होते।तो हम लोगो ने उनका नाम रखा ‘विलियम होल’। कुछ मित्रो ने सुराख़ अली भी सुझाया। पर छेदी विश्वविद्यालय में विलियम होल हो गए थे। रंग भी उनका दक्षिण अफ्रीकी था। सो नाम फ़िट बैठ गया। इस अडी में एक पाण्डे  जी थे जो कई वैज्ञानिक उपकरण बना चुके थे।आइंस्टाइन की बनारसी परम्परा में थे। पर जीवन अडी पर बिता दिया।एक लंगड़ा मोची, कुछ दवाइयों की मार्केटिंग से जुड़े लोग ,  सैकड़ों रिक्शा किराए पर चलवाने वाले एक मित्र,जैसे नाना विधाओं के ढेर सारे लोग यहॉं रोज़ जमा होते थे। यह अडी समूचे समाज और उसके वर्गीय चरित्र  का प्रतिनिधित्व करती थी ।यूनिवर्सिटी से आते जाते मैं भी यहॉं रूक जाता था या फिर शाम को यहीं साईकिल खड़ी कर गंगा घाट तक आवारागर्दी होती ।मेरे मित्र अजय त्रिवेदी नियमित तौर पर यहॉं लूडो खेलते थे। लूडो को इन अडीवाजो ने बड़ा वैज्ञानिक खेल बना दिया था। इस खेल मे उस जमाने में सैकड़ों के वारे न्यारे होते थे। इसी अडी पर एक होमियोपैथ के डॉक्टर भी थे। वे एक ही होमियोपैथिक दवा जानवर और मनुष्य दोनों को देते थे। बस मात्रा में बदलाव करते। उनकी क्लिनिक देर रात से सुबह तक चलती थी।क्यो की दूध बेचने वाले उनके क्लायंट थे।गॉंव से दूध वाले आते तो उनकी बीमारी का इलाज करते डॉ साहब उन्हे होमियोपैथ की दवा देते। और अगर वो यह बताते की उनकी भैंस भी बीमार है। तो वो मनुष्य को देने वाली दवा का चार गुना डोज़ भैंस के लिए दे देते। डॉ की अच्छी प्रैक्टिस थी। 

एक से बढ़कर एक चरित्र थे । व्यक्ति विशेष की विलक्षणता में दिलचस्पी की मेरी आदत को इन्हीं अड़ियों ने परिष्कृत किया। इसी पुस्तक मंदिर की अड़ी  के नीचे वह लंगड़ा माफ़ कीजिएगा दिव्यांग मोची था। हम सब का मुखबिर। देश दुनिया की ख़बर वह रखता था। काम भले ही वह मोची का करता था। पर आदमी एकदम दार्शनिक बुद्धि से लबालब था। समझ, प्रतिउत्पन्नमति और देहभाषा को पढ़ने में उसका कोई तोड़ नही था। उसके पास चौकन्नी नज़रों की पूंजी थी। भवितव्यता को पढ़ने में वो सबसे अव्वल था। यूं तो हमारे बीच वो लँगड़ा मोची के नाम से मशहूर था मगर बड़े बड़ों की चाल ठीक करने की क्षमता उसमें थी।वो पुस्तक मन्दिर की  ‘अडी ‘ का नियमित और सक्रिय सदस्य था।

लँगड़ा मोची अपनी सोच में अरस्तू और सुकरात का फूफा था। जूता सिलने के काम को लँगड़ा न छोटा मानता न उसके चलते किसी कुण्ठा में रहता। बल्कि जूता सिलने की बात आते ही वो अपनी अकड़ का डिस्प्ले बोर्ड ऑन कर देता।उससे मैने सीखा अपने काम के प्रति कोई हीन भावना नही होनी चाहिए।आपको याद होगा इसी शहर में जूता गॉंठते गाँठते रैदास मुक्ति की धुरी का सत्य बता गए। लंगड़े मोची की उम्र कोई २५ साल थी। गठीला शरीर। एक पैर नही था। जीवनसंगिनी के नाम पर एक बैशाखी थी। वह हमें दिन भर की सारी सूचनाएँ देता था। मिलते ही सारी रिपोर्ट एक सॉंस में दे जाता। कौन आया? कौन किधर गया ? किसके साथ कौन था? हमें देखते ही वह बैसाखी उठाता सड़क के उस पार जाकर चाय लाता। हमें पिलाता और खुद भी पीता। पैसा ज़रूर हम देते पर चाय का मैनेजमेंट उसी का होता।

लँगड़े मोची के जीवन का बड़ा सीधा सा फलसफा था कि जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। टोपी दस रूपए में मिल जाती है और जूते पचास रुपये से कम में नही मिलते। यानी एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं। इसी फलसफे पर चलते हुए लंगड़ा हमेशा इस फिराक में रहता कि कब कोई टोपी उसके सामने आए और वह तपाक से उस पर अपना जूता रख दे। अपनी इसी आदत के चलते लंगड़ा एक नही बल्कि बीसियों बार बड़ी बड़ी इज्जत की सुराहियों के पेंदे में छेद कर चुका था। लोग उससे जितना डरते थे उतना ही सतर्क भी रहते थे। वो कभी भी किसी वक्त भी किसी की भी इज्जत के कपड़े बड़ी बेरहमी से उतार सकता था। उसके भुक्तभोगी पूरे शहर में थे।

वह गजब दार्शनिक किस्म का आदमी था। मुझे कई बार लगता है कि अगर इस देश में वास्तव में प्रतिभाओं की कद्र होती तो अब तक उसके फक्कड़ सिद्धांतों पर कई किताबें लिखी जा चुकी होतीं। मगर अफसोस....। खैर! लंगड़े मोची ने इससे हार नही मानी। उसने उल्टा ही जीवन की  स्थितियों और मजबूरियों को अपना हथियार बना लिया था। मोची के बैठने की स्थिति उसकी सामाजिक स्थिति का आइना होती है। वह सामने खड़े व्यक्ति के घुटनों के बराबर पालथी मारकर बैठा रहता है और उसी स्थिति में उस व्यक्ति की सोच और चरित्र का एक्सरे निकाल लेता। उसके पास विनम्रता के पुतले भी आते हैं और अकड़ के राक्षस भी। वह इन दोनों ही अतिवादों के बीच अपनी व्यवहारिकता का हाईवे बनाकर सरपट दौड़ता हुआ निकल जाता है।

घर से यूनिवर्सिटी जाने के रास्ते में पुस्तक मंदिर हमारा पहला पड़ाव होता। यहीं साइकिल खड़ा कर हम लोग अपनी अपनी सुविधा से आगे का रास्ता चुनते। कोई बस पर चढ़ जाता। कोई किसी की मोटर साईकिल पर सवार होता। या फिर कई और मित्रो के साथ साईकिल से ही जाता। पुस्तक मंदिर की इस अड़ी के सभी सदस्य परिचय में एक ग्रन्थ लिखे जा सकते है। एक महापुरुष औऱ थे जो हीरोईन और चरस का तुरन्त इन्तज़ाम करते थे। दुनिया में ऐसा कोई ऐब नही था जिसमें पारंगत कोई न कोई महाशय इस अडी के सदस्य न हो। आप कह सकते है कि चार्ल्स शोभराज और नटवरलाल जैसे महापुरुषों भी इस अडी पर आते तो उन्हें भी कुछ सीखने को मिलता। संयोग है कि ये दोनों बनारस में काफ़ी समय तक रहे थे। अजय गुरू इन सबके गुरू थे।गुरू नाम उनका इसी अडी पर पड़ा था। इस किताब की दुकान के मालिक बच्चेलाल पैदाइशी सभ्य और विनम्र थे। वे कभी किसी से मुंह नही बिदकाते थे। हरदम मुस्करा कर हर किसी का स्वागत करते। कभी कभार हमे उनके होंठ तेज़ी से चलते नज़र आते पर आवाज़ कुछ भी न आती। ये इस बात का सिग्नल था कि बच्चेलाल मन ही मन किसी की माँ बहन कर रहे होते। पर इस दौरान भी उनके चेहरे पर  मुस्कुराहट दौड़ती रहती। इस दुकान के अन्दर बैठकर कुछ लोग दिन भर लूडो खेलते। सिर झुका कर सात आठ लोग तल्लीनता से लूडो की फड़ पर घंटो बैठे रहते।पर बच्चेलाल  बुरा नहीं मानते थे। न दुकानदारी के ख़राब होने की शिकायत करते। हॉं भीड़ भाड के दौरान लूडो खेलने वाले साथी बच्चेलाल की किताब निकालने और बिल बनाने में मदद भी करते।

तो मित्रो, बात लंगड़े मोची की हो रही थी। लंगड़ा  मोची विपरीत लिंग के प्रति उतना ही सतर्क रहता था जितना सीमा पर इस्तेमाल किए जाने वाले टोही राडार होते हैं। किस व्यक्ति के साथ आ रही महिला कौन है। यह लँगड़ा देखते ही बता देता जो अकसर सटीक निकलता था। कैन्ट से दिलीप जी आए थे और स्कूटर यहॉं खड़ा कर गोरकी के साथ बस में बईठ के गईलन। औरंगाबाद वाले लाला भाई आज इतने बजे साइकिल से इनवरसिटी जात रहलन। आगे आगे पतरकी रेक्शा पर रहल। पीछे पीछे दुनो भाई।" ऐसी सूचनाएँ वो अपनी ज़ुबान पर तैयार रखता और हमारे पहुंचते ही अपना रेडियो ऑन कर देता।

एक बार मै और अजय गुरू पुस्तक मंदिर पर बैठे थे। लंगड गुरू आए। अजय गुरू से बोले कुछ पैसा दे दअ। पूछने पर कितना? उसने पचास रूपये माँगे। गुरू ने तीस और मैने बीस रूपये दे दिए। लगंडा ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मुझे लगा उसने दवा वग़ैरह के लिए पैसे लिए होगे। उसके बाद लँगड़े ने दो दिन दुकान नही खोली। फिर जब लँगड़ा लौटा तो मैंने पूछा दो दिन कहॉं गए थे? उसने झट से जवाब दिया आपसे पैसा मिलल त चल गईली शिवदासपुर।उहरे रह गईली। मैं आश्चर्यचकित हो उसकी बात सुनता रहा।शिवदासपुर में उन दिनों लाल बत्ती जगमगाती थी। 

लँगड़ा मोची बड़ा स्वाभिमानी था। उसका स्वाभिमान भी दीवार फ़िल्म के बच्चा अमिताभ बच्चन जैसा था। वह भी जूते की पॉलिश का फेंका हुआ पैसा नही उठाता था। उसने अपने जीवन मे दीवार फ़िल्म बीसियों बार देखी थी। उसके ऊपर कुछ कुछ फ़िल्म का असर सा होने लगा था। लँगड़े के भीतर एक अजीब किस्म की मौलिकता थी। दरअसल जूता सीना अपने आप में एक चरित्र होता है। बनारस में ही चौदहवीं शती में संत रविदास हुए। वे जूता सिलते थे। उनकी वजह से रविदासी लोगों का एक पूरा मुहल्ला जगत गंज में आज भी है जहॉं आज भी जूते बनते है। लंगडा मोची की ये भी ताकत थी कि वह कद की लंबाई और पद की ऊंचाई से व्यक्ति की चौड़ाई की पहचान नहीं करता था। बड़े ही निरपेक्ष भाव से अपने कर्म में लीन रहता था। वो शायद धूमिल के "मोचीराम" की उसी परम्परा का वाहक था जिसकी नज़रों में उसका साध्य सामने पड़े जूतों की मरम्मत भर होता है। फिर उन जूतों में समाने वाले पैरों की औकात चाहे जो हो! धूमिल का मोचीराम भी इसी दर्शन को आगे बढ़ाता है। वे लिखते हैं-

"राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।"

धूमिल बनारस के थे। मेरा मोचीराम भी उसी जमीन का था। धूमिल और उसके बीच अगर कोई रिश्ता हो सकता था, तो वह कुछ परिचित सी सम्वेदनाओं का रिश्ता था। उसने जीवन के उस दर्शन को आत्मसात कर लिया था जो धूमिल होते हुए भी शाश्वत था, सनातन था। मुझे अक्सर ही उसकी सोच की जमीन पर धूमिल के उन विचारों के वृक्ष लहलहाते नजर आते । धूमिल ने जो लिखा, मेरे मोचीराम ने उसे जी कर दिखाया। सार बस इतना था -

"और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है।"

इस शहर में जूता सीने के पीछे रैदास की सनातन परंपरा भी है। यह रैदास की भक्ति का चमत्कार ही था कि उनके चमड़ा साफ करने की कठौती से गंगा को प्रकट होना पड़ा।वहां भी काशी थी। वहां भी एक मोची था। यहीं से इस कहावत का भी जन्म हुआ कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। लगंडा मोची एड्स से मर गया। लेकिन जब तक जिया शान से। कुण्ठाओ के आवरण को तोड़ वह जीवन का पूरा आनन्द लेता रहा। चंदू बाबू की जूता गाथा ने आज  फिर से उसकी याद दिला दी। उसकी स्मृति को प्रणाम।   
* हर जगह लंगड़े की जगह दिव्यांग पढे।

हेमन्त शर्मा
© Hemant Sharma

Tuesday 8 March 2022

एनएसई की पूर्व एमडी की गिरफ्तारी और उससे उठती आशंकाएं / विजय शंकर सिंह

आखिरकार, एक हिमालयन योगी के ईमेल से नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का  प्रबंधन करने वाली, एमडी चित्रा रामकृष्ण को सीबीआई ने गिरफ्तार कर ही लिया। अकेले चित्रा को ही नहीं गिरफ्तार किया गया है, बल्कि एनएसई के सीईओ आनंद सुब्रमण्यम को भी गिरफ्तार किया गया है। आनन्द की नियुक्ति, चित्रा ने इस महत्वपूर्ण पद पर, उसी हिमालयी योगी के कहने पर किया था। दिल्ली की एक अदालत ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो को नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) की पूर्व एमडी चित्रा रामकृष्ण को एनएसई को-लोकेशन घोटाला मामले में सात दिन की हिरासत में लेकर पूछताछ करने की 7 मार्च को अनुमति भी दे दी है। सीबीआई के स्पेशल जज, संजीव अग्रवाल ने सीबीआई और आरोपियों की ओर से पेश वकीलों की दलीलें सुनने के बाद यह आदेश पारित किया है, हालांकि, सीबीआई ने उनसे पूछताछ के लिए 14 दिन के हिरासत की मांग की थी। 

पूर्व एमडी चित्रा रामकृष्ण पर यह आरोप है कि कुछ शेयर दलालों ने, उनसे और सीईओ आनंद सुब्रमण्यम से मिलीभगत कर के, एल्गोरिदम और को-लोकेशन सुविधा का दुरुपयोग करके अप्रत्याशित लाभ कमाया है। इस मामले की जांच पिछले तीन वर्षों से चल रही है और भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की एक ताजा रिपोर्ट के आधार पर सीबीआई ने यह गिरफ्तारी की है। बाजार नियामक सेबी की जांच में यह तथ्य सामने आया है कि, 
"देश के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज एनएसई (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज) की पूर्व सीईओ चित्रा रामकृष्ण, नियमों का उल्लंघन करते हुए बाज़ार के वित्तीय अनुमानों, व्यावसायिक योजनाओं और बोर्ड के एजेंडे सहित महत्वपूर्ण जानकारियां एक कथित आध्यात्मिक गुरु से साझा करती थीं। उन पर आनंद सुब्रमण्यम को अपना सलाहकार और समूह संचालन अधिकारी के रूप में नियुक्त करने में नियमों का उल्लंघन करने का भी आरोप है।" 
एनएसई में अनियमितताओं के बारे में ताजा खुलासे के बीच यह गिरफ्तारी को-लोकेशन घोटाले से संबंधित मामले में की गई थी, जिसके लिए एफआईआर मई 2018 में दर्ज की गई थी। 

संक्षेप में पूरा प्रकरण इस प्रकार है, 
● वर्ष 2013 में एनएसई के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) रवि नारायण की जगह लेने वाली चित्रा रामकृष्ण ने आनंद सुब्रमण्यम को अपना सलाहकार नियुक्त किया था।
● इसके बाद आनंद सुब्रमण्यम को ₹4.21 करोड़ के मोटे वेतन पर समूह संचालन अधिकारी के रूप में पदोन्नत किया गया था।
● सेबी ने अपनी रिपोर्ट मे चित्रा रामकृष्ण और अन्य लोगों पर आनंद सुब्रमनियम को मुख्य रणनीतिक सलाहकार के रूप में नियुक्त करने के अलावा समूह संचालन अधिकारी और प्रबंधक निदेशक (रामकृष्ण) के सलाहकार के पद पर पुन: नियुक्त करने में, नियमों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया है। 
● सेबी ने नियमों के उल्लंघन के मामले मे, चित्रा रामकृष्ण पर ₹3 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया है।
● सेबी ने एनएसई पर ₹2 करोड़ रुपये, पूर्व प्रबंधक निदेशक और सीईओ रवि नारायण पर जुर्माना लगाया है। 
● मुख्य नियामक अधिकारी और अनुपालन अधिकारी वीआर नरसिम्हन पर ₹6 लाख का जुर्माना लगाया है। 

एनएसई की पूर्व एमडी चित्रा रामकृष्णन के खिलाफ आयकर विभाग ने भी जांच शुरू कर दिया है और हिमालय के उस रहस्यमय योगी की भी पहचान लगभग हो गई है जो ईमेल भेज कर चित्रा को नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की कार्यप्रणाली के बारे में अक्सर मशविरे देता रहता था और उसी के दिशा निर्देशों पर चित्रा, एनएसई का प्रशासन संभालती थी। वह हिमालयन योगी कोई और नहीं बल्कि आनंद सुब्रमण्यम नाम का एक व्यक्ति है जिसे चित्रा ने अपना सलाहकार बना रखा था, जिसे न तो वित्तीय मामलों की कोई समझ थी और न ही उसे शेयर बाजार के कार्यप्रणाली के बारे में कोई जानकारी थी, पर चित्रा ने उसे सिर्फ इसलिए अपना सलाहकार बनाया था कि, ऐसा करने के लिये उन्हें, हिमालयन योगी, जिसे वह शिरोमणि कह कर संबोधित करती है, ने कहा था। इसी आनंद सुब्रमण्यम उर्फ सुब्बू उर्फ हिमालयन योगी और चित्रा रामकृष्णन के आवास पर हाल ही में, आयकर (आईटी) विभाग ने छापा मारा और तलाशी ली है। यह एक सन्देह है, जिसकी पुष्टि जांच एजेंसियों द्वारा अभी की जानी है। पर अब तक जो सुबूत मिले हैं, उनसे यह संदेह पुख्ता होता जा रहा है। 

मनीलाइफ वेबसाइट जो अर्थ विषयक समाचारों और विश्लेषण की एक प्रमुख वेबसाइट है में लिखे एक लेख में, इस प्रकरण और, आनंद सुब्रमण्यम के बारे में विस्तार से कई रिपोर्ट छपी हैं। वेबसाइट में छपे एक लेख मे लिखा है कि, 
" पहली बार, हमारे पास बेहद विवादास्पद और रहस्यमय आनंद सुब्रमण्यम की तस्वीर है।  यह महत्वपूर्ण है क्योंकि, जैसा कि सुचेता दलाल और देबाशीष बसु ने एनएसई पर अपनी पुस्तक एब्सोल्यूट पावर में लिखा है, “एनएसई के एक वरिष्ठ कार्यकारी ने बताया कि कैसे लिंक्डइन या कॉर्पोरेट प्रोफाइल को ट्रैक करने वाली कई वेबसाइटों पर उनके बारे में बहुत कम जानकारी है या कोई जानकारी नहीं है।"
क्या कोई व्यक्ति अपने सारे क्रियाकलाप नेट से पूरी तरह से मिटा सकता है ? इस सवाल का उत्तर तो, साइबर एक्सपर्ट ही दे सकते हैं। पर मनीलाइफ के लेख के अनुसार, 
" पेपैल जैसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के आंतरिक दिशानिर्देशों का कहना है कि अगर किसी के फ़ूटप्रिंट यानी आईपी एड्रेस को पूरी तरह से नेट से मिटा दिया गया है तो यह समझना चाहिए कि मामला बेहद संदिग्ध हो गया है।" 
आनंद सुब्रमण्यम, जिसपर हिमालयी बाबा होने का संदेह अभी तक हो रहा है, का कोई भी डिजिटल फ़ूटप्रिंट या आईपी एड्रेस नहीं मिल रहा है। फिर वह ईमेल अकाउंट किसका था ? आंनद सुब्रमण्यम, आखिर कैसे, एनएसई जैसे एक बहुत बड़े, अत्यधिक प्रौद्योगिकी-गहन और संवेदनशील संगठन में समूह संचालन का एक महत्वपूर्ण अधिकारी बन गया ? हालांकि, इसका उत्तर तो एनएसई की एमडी ने ही दे दिया कि, आनंद सुब्रमण्यम को सीईओ और अपना सलाहकार नियुक्त करने का, निर्देश, उसी हिमालयन योगी, जिसे, चित्रा,  शिरोमणि के नाम से सम्बोधित करती हैं, ने ईमेल से दिया था। अब जाकर पता लगता है कि, संदेह की सुई आंनद सुब्रमण्यम पर ही टिक रही है कि, हिमालयन योगी तो, कोई और नहीं, यही आनंद सुब्रमण्यम है। फिलहाल अभी जांच चल रही है। 
 
पिछले महीने, आयकर विभाग के करीब आठ से नौ अधिकारियों ने चित्रा रामकृष्णा और उनकी मां के घर पर सुबह सुबह छापा मारा। चित्रा रामकृष्ण, मुंबई के चेंबूर इलाके में रहती हैं, जबकि उनकी मां अलग घर में रहती है। एक मीडिया रिपोर्ट में अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि, 
"तलाशी का उद्देश्य उनके और अन्य के खिलाफ कर चोरी और वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों की जांच करना है। उनपर ऐसे आरोप हैं कि, उन्होंने एनएसई की आंतरिक जानकारी किसी अज्ञात तीसरे व्यक्ति को दी, जिसे उन्होंने हिमालयन योगी कहा है, और उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए अवैध लाभ कमाया है।"
निश्चित रूप से यह एक बेहद गंभीर मामला है। पद का दुरुपयोग तो उनके बयान से ही स्पष्ट है कि, उन्होंने एनएसई के आंतरिक प्रशासन का संचालन, एक अज्ञात व्यक्ति के कहने पर किया है। रहा सवाल धन कमाने और अन्य लाभ लेने का तो, इसकी जांच सीबीआई द्वारा कराई जानी चाहिए। आयकर विभाग को भ्रष्टाचार के मामलों में जांच करने की पुलिस शक्तियां नहीं होती हैं। वे बिना कर अदायगी के कमाए धन पर, टैक्स या पेनाल्टी वसूल कर सकते हैं, पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत जांच और अभियोजन नहीं कर सकते हैं। 
 
हालांकि, सेबी ने हाल ही में चित्रा रामकृष्ण को, एनएसई से जुड़ी महत्वपूर्ण और संवेदनशील जानकारियों को, हिमालय में रहने वाले एक अज्ञात या फेसलेस आध्यात्मिक शक्ति से साझा करने के लिए दंडित ज़रूर किया है, पर इससे, उनके द्वारा किये गए या उन पर लगाये गए, भ्रष्टाचार के आरोपों का शमन नहीं हो जाता है। पिछले महीने जारी एक आदेश में, सेबी ने चित्रा रामकृष्ण, रवि नारायण, पूर्व उपाध्यक्ष और आनंद सुब्रमण्यम, पूर्व जीओओ और एमडी और सीईओ के सलाहकार को किसी भी बाजार अवसंरचना संस्थान, मार्केट इंफ्रास्ट्रक्चर इंस्टीट्यूट, (एमआईआई) या सेबी के साथ पंजीकृत किसी भी मध्यस्थ के साथ जुड़ने से रोक दिया है। चित्रा रामकृष्ण पर ₹3 करोड़ का जुर्माना लगाते हुए, बाजार नियामक संस्था सेबी ने, एनएसई को 1.54 करोड़ रुपये के अतिरिक्त अवकाश नकदीकरण और 2.83 करोड़ रुपये के आस्थगित बोनस को जब्त करने के लिए कहा है, जो चित्रा को वीआरएस लेने पर दिया जाना है। साथ ही, सेबी ने एनएसई को छह महीने के लिए कोई नया उत्पाद लॉन्च करने से भी प्रतिबंधित कर दिया था।
 
चित्रा रामकृष्ण ने 2 दिसंबर 2016 को एनएसई से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि, सेबी ने इस इस्तीफे पर भी गंभीर सवाल उठाया कि एनएसई बोर्ड ने उन्हें एक अज्ञात व्यक्ति के साथ गोपनीय जानकारी साझा करने और साझा करने में कदाचार के बावजूद एक्सचेंज से इस्तीफा देकर, बाहर निकल जाने की अनुमति कैसे दे दी। इस संबंध में मनीलाइफ के लेख  का निम्न अंश पढ़े, 
 “सेबी की जांच में पाया गया कि 21 अक्टूबर 2016 को हुई एनआरसी और एनएसई बोर्ड की बैठक में आनंद सुब्रमण्यम की नियुक्ति पर चित्रा रामकृष्ण की ओर से इस तरह की गंभीर अनियमितताओं और कदाचार की जानकारी होने के बावजूद और चित्रा रामकृष्ण द्वारा गोपनीय जानकारी के आदान-प्रदान की जानकारी के बावजूद, 2 दिसंबर 2016 को हुई बोर्ड की बैठक में चित्रा रामकृष्ण को इस तरह के गम्भीर और विचित्र कदाचार के बावजूद, इस्तीफे के माध्यम से, बाहर निकल जाने की अनुमति दे दी, जैसा कि उनके (एनएसई बोर्ड) द्वारा परिलक्षित होता है।  इस संबंध में कोई कार्रवाई किए बिना एक फर्जी ईमेल पते के साथ ईमेल पत्राचार, जाहिर तौर पर आनंद सुब्रमण्यम से संबंधित है।” 
 
 सेबी ने अपने जांच पड़ताल के निष्कर्ष में कहा है कि, 
" एनएसई बोर्ड की मिलीभगत से आनंद सुब्रमण्यम की असाधारण पदोन्नति होते जाना, यह प्रमाणित करता है कि उनके प्रति अनावश्यक  और नियमों को ताक पर उन्हें पदोन्नत किया गया है। उन्हें एक प्रमुख प्रबंधन व्यक्ति (केएमपी) घोषित किए बिना, जबकि उन्हें एनएसई की सहायक कंपनियों के बोर्ड में नियुक्त किया गया था और एक्सचेंज के लगभग हर निर्णय, में उनका दखल रहा, ऐसा होने देना, एनएसई को एक निजी संस्था की तरह संचालित करना रहा है। एक सलाहकार के रूप में उन्होंने एनएसई के हर संवेदनशील मामले में हस्तक्षेप किया और वे, एमडी चित्रा रामचंद्र के विश्वासपात्र बने रहे। उन्होंने उन भत्तों का भी लाभ उठाया जो किसी अन्य सलाहकार को नहीं दिए गए थे। उन्होंने दुनिया भर में प्रथम श्रेणी की यात्रा की। वे अक्सर सुश्री रामकृष्ण के साथ दौरों पर जाते थे और उन्हें चेन्नई में सप्ताह में दो से तीन दिन बिताने की अनुमति भी दी जाती थी, जहां उनकी पत्नी भी स्टॉक एक्सचेंज में कार्यरत थीं।" 
 सेबी की पड़ताल आगे कहती है, 
 " इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका मूल्यांकन मानव संसाधन विभाग, एचआर द्वारा निर्धारित प्रक्रिया से नहीं हुआ था और इसका निर्णय अकेले सुश्री चित्रा रामकृष्ण ने लिया था।  यह एक घोटाला है कि यह सब नियामक के लिए एक अजीबोगरीब स्थिति थी। हालांकि एनएसई एक अत्यधिक विनियमित और बहुत संवेदनशील बाजार संस्थान है।" 
 
 शिकायतें मिलने के बाद, सेबी ने 2016 में चार बार एनएसई से यह स्पष्ट करने को कहा कि क्या आनंद सुब्रमण्यम को केएमपी के रूप में नामित किया गया था।  तत्कालीन सीआरओ डॉ नरसिम्हन ने सेबी को बताया कि श्री सुब्रमण्यम और एमडी की नियुक्ति में प्रतिभूति अनुबंध (विनियम) (स्टॉक एक्सचेंज और समाशोधन निगम) विनियम, 2012 (एसईसीसी विनियम) का कोई उल्लंघन नहीं था, एक सक्षम प्राधिकारी होने के नाते,  उसे नियुक्त किया। आनंद सुब्रमण्यम को अक्टूबर 2016 में इस्तीफा देने के लिए कहा गया था और उनके निष्कासन के नाटक को मनीलाइफ के संपादकों सुचेता दलाल और देबाशीष बसु ने अपनी पुस्तक "एब्सोल्यूट पावर: इनसाइड स्टोरी ऑफ द नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की अद्भुत सफलता, जिसके कारण अभिमान, नियामक कब्जा और  एल्गो घोटाला", जून 2021 में जारी किया गया। सेबी 2014 से इस जानकारी पर चुप्पी ताने बैठा था और अभी उसने अपना आदेश जारी किया है।

किसी भी देश की प्रगति का आधार उस देश का वित्तीय प्रबंधन और प्रशासन होता है। इसी से देश मे आर्थिक संपन्नता आती है, अनेक विकास से जुड़ी योजनाओं का क्रियान्वयन होता है, जनहितकारी और लोककल्याण से जुड़ी तमाम योजनाएं धरातल पर उतरती हैं, आयात निर्यात में देश विश्व व्यापार में अपना दखल बढ़ाता है, इससे न केवल उसकी राजनीतिक साख बढ़ती है बल्कि विश्व कूटनीति में भी वह एक महत्वपूर्ण आवाज़ बन कर उभरता है। शेयर मार्केट, कम्पनियों की सेहत, साख, उपलब्धियों और अर्थ की दशा दिशा का पैमाना होता है। हालांकि यह एक मैनीपुलेटेड बाजार भी कहा जाता है और यह भी कहा जाता है कि, इसे बड़ी कम्पनियों का एक कॉकस अपनी मर्जी से संचालित करता है, फिर भी इन आरोपों और विवाद के बाद भी देश मे शेयर मार्केट का सूचकांक ही विदेशी निवेशकों के लिये पहला आकलन विंदु भी होता है। 

इस शेयर मार्केट को संचालित करता है नेशनल स्टॉक एक्सचेंज। और उसी नेशनल स्टॉक एक्सचेंज को संचालित कर रहा है हिमालय में बैठा एक योगी ! और वह भी वहां से ईमेल भेज कर, सभी महत्वपूर्ण और गोपनीय दस्तावेजों का अध्ययन कर के ! कहानी एक खूबसूरत फंतासी जैसी नही लग रही है ? पर यह कहानी सच है। एनएसई लम्बे समय तक उस अज्ञात हिमालयी योगी के की बोर्ड से संचालित होती रही है और एमडी चित्रा रामचन्द्र उस योगी की कठपुतली रही हैं। अब उनकी गिरफ्तारी हुयी है। सीईओ आंनद सुब्रमण्यम भी जेल में हैं और योगी ? इसके बारे में अभी तक यही संदेह पुख्ता है कि आनंद सुब्रमण्यम ही योगी है। यदि यह बात प्रमाणित होती है तो यह एक बेहद शातिर और महीनी से बुना गया षडयंत्र है, जिसके किरदार चित्रा रामचंद्र और आनंद सुब्रमण्यम हैं। अभी जांच चल रही है। लेकिन सरकार को सभी वित्तीय संस्थानों की एक आकस्मिक छानबीन करा लेनी चाहिए, कि कहीं वहां भी तो इस तरह के घपले नहीं हो रहे हैं ?

( विजय शंकर सिंह )