Monday 30 April 2018

Ghalib - Us chashme funsughar kaa agar paaye ishaaraa / उस चश्मे फुसुगर का अगर पाये इशारा - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 71.
उस चश्मे फुसुगर का अगर पाये इशारा,
तूती की तरह आईना गुफ्तार में आवे !!

Us chashme fusughar kaa agar paaye ishaaraa,
Tootii kii tarah aaiinaa guftaar mein aawe !!
- Ghalib

चश्मे फुंसुगर - जादुभरी आंखें
तूती।           - एक प्रकार की छोटी चिड़िया.
गुफ्तार।        - वार्तालाप करना.

जादू भरी आंखों का इशारा अगर उस आईने को मिल जाय तो वह आईना तूती की तरह बोल पड़े। बात करने लगे।

आंखों पर बहुत लाजवाब शायरियां हुई है। हिंदी में भी और अन्य भाषाओं में आंखों की सुंदरता पर बहुत कुछ कहा गया है। खंजन नयन से लेकर मृग नयनी तक की उपमाएं, फारसी में कहें तो आहू जैसे चश्म की बात खूब की गई है। यह शेर ग़ालिब के अतिश्योक्ति अलंकार का उदाहरण है। आईना निर्जीव है। वह बोल नहीं सकता । पर उस दर्पण में अपना दीदार करने वाली आंखों का जादू भरा संकेत पाते ही वह निर्जीव दर्पण बोल उठता है। वह जीवंत हो उठता है। यही ग़ालिब का अंदाज़ ए बयाँ है जिसके लिये वह खुद को अलग मानते हैं और हैं भी।
यहां प्रशंसा आंखों की है, या उसके जादू भरे अंदाज़ की या फिर दर्पण की या फिर तीनों की या फिर मिर्ज़ा ग़ालिब की ? हम सब अपना अपना अनुमान लगा सकते हैं । 

इसी तरह का एक शेर सौदा का है। उसे भी देखें,
कैफियत ए चश्म उसकी, मुझे याद है सौदा,
सागर को मेरे हाँथ से लेना कि, चला में !!
( सौदा )

मुझे उसके आंखों की हालत का अंदाज़ याद आ गया। अब तुम यह प्याला थाम लो। मैं चला । उन मदभरी मदिर आंखों की याद से ही मुझे नशा आ गया । अब मुझे इस प्याले की ज़रूरत नहीं रही।
सौदा तो जीव थे। इंसान थे। मदिर आंखों के नशे में वे जाम भूल गए। यह सम्भव भी है। पर ग़ालिब ने तो, दर्पण को ही जीवित कर दिया। उनके आंखों की फुसुगरी तो सच मे अद्भुत है।

© विजय शंकर सिंह

डालमिया कालिंजर का किला क्यों नहीं ठेके पर लेते है ? / विजय शंकर सिंह


अगर धरोहरों के रखरखाव और पुनरुत्थान के प्रति कॉरपोरेट्स के मन मे इतना ही प्रेम छ्छा रहा है तो वे कालिंजर का दुर्ग क्यों नहीं ठेके पर लेते है ? उनकी नज़र लाल किले पर ही क्यों है ? कालिंजर यहां एक दुर्ग के तौर पर देखा जा सकता है और एक उपेक्षित दुर्ग के प्रतीक के रूप में भी। कहने का आशय प्रमुख धरोहरों और उपेक्षित धरोहरों के बीच चयन की मानसिकता का अंतर है। जो उपेक्षित है उसे कोई कॉरपोरेट नहीं लेना चाहेगा। अपवाद हो सकता है , हों ।

कालिंजर का दुर्ग बांदा जिले का एक ऐतिहासिक दुर्ग है। चंदेल राजाओं द्वारा बनवाया गया यह महान किला ऐतिहासिक धरोहर है। इसी किले में बारुदखाने का निरीक्षण करते हुये शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गयी थी। जिसे वहां से ला कर सासाराम में स्थित शेरशाह के मकबरे में दफनाया गया था। यह किला शहर से दूर है, निर्जन है, और रात में रहस्यमय लगता है। इसके देखभाल की ज़रूरत भी है। पर इस पर किसी डालमिया, जेएमआर, आईटीसी की नज़र नहीं पड़ेगी। क्यों कि इन घरानों का उद्देश्य ही मुनाफा कमाना और धनादोहन है न कि धरोहरों की साज संभाल करना। अपने पुलिस अधीक्षक बांदा के कार्यकाल के दौरान मैंने कई रात इस किले में बिताई हैं।

धरोहरें, जो ठेके पर दी जा रहीं है के सम्बंध में एक तर्क यह दिया जा रहा है कि 2013 के कम्पनी एक्ट में एक संशोधन किया गया था जिसके अनुसार कम्पनी को अपने लाभ का कुछ अंश सामाजिक दायित्वों पर व्यय करना होगा। कम्पनी एक्ट के ये नियम जिन्हें  कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (CSR) नियम कहा जाता है, 1अप्रैल  2014 से लागू किये गए हैं । इस नियम के अनुसार यदि किसी कम्पनी की नेटवर्थ, 500 करोड़ सालाना या 1000 करोड़ की सालाना आय, या 5 करोड़ का सालाना लाभ, जो भी इनमे से हो, तो उन कम्पनियों को सामाजिक दायित्वों पर कुछ राशि खर्च करना जरूरी होता है। यह खर्च तीन साल के औसत लाभ का कम से कम 2% होना चाहिए। इन नियमों के अनुसार, इन दायित्वों के प्रावधान केवल भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होते हैं बल्कि यह भारत में विदेशी कंपनी की शाखा और विदेशी कंपनी के परियोजना कार्यालय के लिए भी लागू होते हैं। यह एक उचित संशोधन है। गलाकाट मुनाफेबाज़ी की दौड़ में शामिल कम्पनियां, शायद इसी कानून से डर कर अपने लाभ का कुछ अंश जन हित पर व्यय करें, इस कानून के बनाने के पीछे सरकार की यही मंशा थी।
सामाजिक दायित्वों में निम्न विंदु आते है।

1. भूख, गरीबी और कुपोषण को खत्म करना
2. शिक्षा को बढ़ावा देना
3. मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य सुधारना
4. पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना
5. सशस्त्र बलों के लाभ के लिए उपाय
6. खेल गतिविधियों को बढ़ावा देना
7. राष्ट्रीय विरासत का संरक्षण
8. प्रधान मंत्री की राष्ट्रीय राहत में योगदान
9. स्लम क्षेत्र का विकास करना
10. स्कूलों में शौचालय का निर्माण

इस कानून की ज़रूरत क्यों पड़ी ?
भारतीय ही नहीं वैश्विक परम्परा में दान या चैरिटी की एक स्थापित परम्परा रही है। धन सम्पन्न लोग अक्सर मन्दिर, धर्मशालाएं, या कुछ न कुछ जन कल्याण का कार्य करते रहते थे । बहुत से कार्य गुप्त दान की अवधारणा के अनुसार होते थे। कोई राजकीय बाध्यता नहीं थी। पर पिछले कुछ सालों से आर्थिक उदारीकरण ने बाजार और उपभोक्तावाद का जो चेहरा दिखाया है वह केवल लाभ प्राप्त करने की गलाकाट प्रतिद्वंद्विता का चेहरा है। वहां दान पुण्य आदि का स्थान गौड़ होता गया। सारी ऊर्जा कर बचाने और अधिक से अधिक लाभ लेने में खपती गयी। तब एक कर इंसेंटिव के रूप में कम्पनी कानून में 2013 में संशोधन कर के इन पूंजीपति घरानों को समाज के वृहत्तर दायित्व की ओर ध्यान देने के लिये बाध्य किया गया। तब सरकार ने इन घरानों से यह अपेक्षा की वे अपने लाभ का कुछ अंश इन पर व्यय करेंगे। धरोहरों को ठेके पर देने का चलन इसी कानून से शुरू हुआ है।
लेकिन, पूंजीवाद की मूल मानसिकता होती है लाभ । अगर किसी भी परियोजना में उन्हें लाभ नहीं दिख रहा है तो वे उसे क़भी नहीं चलाएंगे भले ही उस परियोजना से व्यापक जन कल्याण का हित सधता हो। ये घराने वही धरोहर ठेके पर लेंगे जो या तो मुख्य शहर में हो, बहु प्रचारित हो और जहां से उन्हें लाभ हो सके। अडॉप्ट ए हेरिटेज से यह ध्वनि निकल रही है हम जब साझ संभाल में सक्षम नहीं तो इन पूंजीपति घरानों को बुला कर ये धरोहरें बेहतर रख रखाव के लिये सौंप रहे हैं। यह सरकार की अक्षमता है या पूंजीपति घरानों के साथ दुरभिसंधि यह तो भविष्य ही बताएगा। मैं इसे दोनों ही मानता हूं।

यह कहा जा रहा है कि डालमिया लाल किले का स्वरूप नहीं बदलेंगे। वे केवल रख रखाव करेंगे। यह बात मान भी ली जाय कि वे स्वरूप नहीं बदलेंगे और केवल रख रखाव ही करेंगे। तो वे रख रखाव में करेंगे क्या ? लाल किला साढ़े तीन सौ साल पुरानी इमारत है। वक़्त की मार इस पर भी पड़ती है। ऐसी इमारतों के संरक्षण के लिये जिस विशेषज्ञता की ज़रूरत होगी क्या वह डालमिया ग्रुप के पास है ? क्या वह एक किले के रखरखाव के लिये ऐसा कोई विशेषज्ञ समूह जिसमे पुरातत्व, इतिहास और म्युजियोलॉजी के जानकार हों बनाएंगे ? क्या यह ग्रुप जो कर राहत में लाभ के लिये सामाजिक दायित्व कानून के अंतर्गत यह किला ले रहा है वह एक अच्छी खासी धनराशि, धरोहरों के जीर्णोद्धार के लिये व्यय करेगा ? क्या ग्रुप की रुचि धरोहरों के रखरखाव में सच मे है या केवल सीएसआर की फ़र्ज़ अदायगी ही यह कदम होगा ? निरंतर लाभोन्मादी पूंजीपति घराना इन धरोहरों के लिये अतिरिक्त व्यय करना चाहेगा। अब यह कहा जा सकता है कि यह सब काम पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करेगा। एएसआई एक विशेषज्ञ विभाग है। उसमें विषय के जानकर हैं जो ऐसी धरोहरों के रखरखाव में निपुण है। जब इन्हें ही किले का रख रखाव करना है तो फिर डालमिया को किला देने का क्या तुक है ? मेरे मित्रगण एएसआई में हैं और उनके अनुसार धरोहरों के रखरखाव पर अच्छा खासा पैसा खर्च होता है। इन रख रखाव के बीच सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह होता है कि धरोहरों का मूल स्वरूप न परिवर्तित हो और वे आकर्षक बने भी रहें।
डालमिया ग्रुप वहां जो लाइट एंड साउंड शो हो रहा है उसे थोड़ा आधुनिक करेगा, थोड़ी प्रकाश व्यवस्था ठीक होगी, हरियाली बढ़ेगी और इन सबके एवज में वे शहर के सबसे प्रमुख स्थल पर अपने उत्पादों का विज्ञापन करेंगे। यह सारा विज्ञापन, होर्डिंग, जिन्हें लगाने के लिये उन्हें लाखों रुपये महीने खर्चे करने पड़ते , यहां मुफ्त में लग जाएंगे। लाल किला का 120 एकड़ का परिसर अगर भविष्य में चल कर कहीं थीम आधारित शादियों के लिये भी दिये जाने लगे तो हैरानी की बात है। वहां एक होर्डिंग की क्या दर होगी यह दिल्ली की कोई भी विज्ञापन एजेंसी बता सकती है। असल इरादा ग्रुप का यही है। फिर वैश्विक स्तर पर लाल किला के ठेकेदार होने की साख जो है वह तो अलग है ही।

मैंने कालिंजर का उल्लेख इस लिये किया है कि, यह एक दुर्गम दुर्ग है। उपेक्षित है।और जनशून्य भी। यहां आने के लिये थोड़ा सुरक्षा भाव भी मन मे रखना होता है। पर इसे ठेके पर लेने के लिये कोई भी पूंजीपति घराना आगे नहीं आएगा। किसी के भी मन मे धरोहरों के लिये प्रेम नहीं उमड़ेगा। यह सारा प्रेम लाल किला, ताजमहल, कोणार्क का सूर्य मंदिर, महाबलीपुरम के मंदिर संकुल, खजुराहो के भव्य मंदिर , अजंता एलोरा एलिफेंटा के प्रख्यात गुफा गृह, सारनाथ के स्तूप आदि के लिये उमड़ेगा क्यों कि यहां की प्रसिद्धि से उनका प्रचार होगा। उनके उत्पादों का विज्ञापन होगा। यह मुनाफे की मानसिकता है न कि धरोहरों के प्रति अनुराग । कालिंजर में उन्हें ऐसी सुविधा नहीं मिलेगी । यह ठेकेदारी प्रथा या अडॉप्ट ए हेरिटेज केवल सीएसआर कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के नाम पर कर राहत लेने की चाल है।

© विजय शंकर सिंह

Sunday 29 April 2018

Ghalib - Unki ummat mein hun main / उनकी उम्मत में हूँ मैं - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 70.
उनकी उम्मत में हूँ मैं, मेरे रहे क्यों काम बंद,
वास्ते जिस राह के ' ग़ालिब ' गुम्बद ए बेदर खुला !!

Unkii ummat mein huun main, mere rahe kyon kaam band,
Waaste jis raah ke ' Ghalib ' gumbad e bedar khulaa.
- Ghalib

उम्मत - इस्लामी भाईचारा
गुम्बद ए बेदर - बिना दरवाज़े का गुम्बद या गोल छत। यहां     इसका अर्थ आकाश से है।

मेरे भी काम क्यों रुकें, आखिर मैं भी तो उनकी उम्मत ( इस्लामी भाईचारा ) में ही हूँ, जिसकी राह में सारा आकाश खुला है। यानी मेरे लिये उपलब्ध है।

ग़ालिब यहां एक धार्मिक आस्था से ओतप्रोत व्यक्ति के रूप में नज़र आते है । ग़ालिब का यह शेर उनकी आस्था का परिचय कराता है। ग़ालिब कहते हैं कि वह भी तो उसी उम्मत ए इस्लाम को माननेवालों की उम्मत के ही तो भाग हैं, जो सबके काम पूरा करता है। फिर मेरे लिये ही क्यों उसकी कृपा बन्द होगी ? बिना दर ओ दीवार , दरवाजे और दीवाल के , यह गोल गुम्बद यानी,  आकाश मेरे लिये भी तो उपलब्ध है। मैं ही क्यों उसकी, ईश्वर की कृपा से वंचित रहूंगा।

इसी से मिलता जुलता एक दोहा कबीर का भी है ।
जिसु कृपा करें तिसु पूरन साज
' कबीर ' का स्वामी गरीब नवाज !!

जिस पर ईश्वर की कृपा है उसके समस्त कार्य पूर्ण हो जाते हैं। कबीर कहते हैं, हमारे स्वामी गरीबों पर कृपा करने वाले है ।
© विजय शंकर सिंह

भगवती चरण वर्मा की एक कहानी - मुगलों ने सल्तनत बख्श दी / विजय शंकर सिंह



भगवतीचरण वर्मा की यह एक प्रसिद्ध कहानी है। ठेके पर लाल किले को देने के मामले में उठे विवाद के बाद यह कहानी अचानक प्रासंगिक हो गयी है।
अब यह कहानी पढ़ें ।
***
मुग़लों ने सल्तनत बख़्श दी .

हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्‍य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्‍य है, दुर्भाग्‍य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधासादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्‍चय समझ लें कि आपका संसार के एक बहुत बड़े विद्वान से परिचय हो गया। हीरोजी को जाननेवालों में अधिकांश का मत है कि हीरोजी पहले जन्‍म में विक्रमादित्‍य के नव-रत्‍नों में एक अवश्‍य रहे होंगे और अपने किसी पाप के कारण उनको इस जन्‍म में हीरोजी की योनि प्राप्‍त हुई। अगर हीरोजी का आपसे परिचय हो जाय, तो आप यह समझ लीजिए कि उन्‍हें एक मनुष्‍य अधिक मिल गया, जो उन्‍हें अपने शौक में प्रसन्‍नतापूर्वक एक हिस्‍सा दे सके।
  हीरोजी ने दुनिया देखी है। यहाँ यह जान लेना ठीक होगा कि हीरोजी की दुनिया मौज और मस्‍ती की ही बनी है। शराबियों के साथ बैठकर उन्‍होंने शराब पीने की बाजी लगाई है और हरदम जीते हैं। अफीम के आदी हैं; पर अगर मिल जाय तो इतनी खा लेते हैं, जितनी से एक खानदान का खानदान स्‍वर्ग की या नरक की यात्रा कर सके। भंग पीते हैं तब तक, जब तक उनका पेट न भर जाय। चरस और गाँजे के लोभ में साधु बनते-बनते बच गए। एक बार एक आदमी ने उन्‍हें संखिया खिला दी थी, इस आशा से कि संसार एक पापी के भार से मुक्‍त हो जाय; पर दूसरे ही दिन हीरोजी उसके यहाँ पहुँचे। हँसते हुए उन्‍होंने कहा- यार, कल का नशा नशा था। रामदुहाई, अगर आज भी वह नशा करवा देते, तो तुम्‍हें आशीर्वाद देता। लेकिन उस आदमी के पास संखिया मौजूद न थी।
  हीरोजी के दर्शन प्राय: चाय की दुकान पर हुआ करते हैं। जो पहुँचता है, वह हीरोजी को एक प्‍याला चाय का अवश्‍य पिलाता है। उस दिन जब हम लोग चाय पीने पहुँचे, तो हीरोजी एक कोने में आँखें बंद किए हुए बैठे कुछ सोच रहे थे। हम लोगों में बातें शुरू हो गईं, और हरिजन-आंदोलन से घूमते-फिरते बात आ पहुँची दानवराज बलि पर। पंडित गोवर्धन शास्‍त्री ने आमलेट का टुकड़ा मुँह में डालते हुए कहा - "भाई, यह तो कलियुग है। न किसी में दीन है, न ईमान। कौड़ी-कौड़ी पर लोग बेईमानी करने लग गए हैं। अरे, अब तो लिख कर भी लोग मुकर जाते हैं। एक युग था, जब दानव तक अपने वचन निभाते थे, सुरों और नरों की तो बात ही छोड़ दीजिए। दानवराज बलि ने वचनबद्ध हो कर सारी पृथ्‍वी दान कर दी थी। पृथ्‍वी ही काहे को, स्‍वयं अपने को भी दान कर दिया था।"
  हीरोजी चौंक उठे। खाँसकर उन्‍होंने कहा - "क्‍या बात है? जरा फिर से तो कहना!"
  सब लोग हीरोजी की ओर घूम पड़े। कोई नई बात सुनने को मिलेगी, इस आशा से मनोहर ने शास्‍त्रीजी के शब्‍दों को दोहराने का कष्‍ट उठाया - "हीरोजी! ये गोवर्धन शास्‍त्री जो हैं, सो कह रहे हैं कि कलियुग में धर्म-कर्म सब लोप हो गया। त्रेता में तो दैत्यराज बलि तक ने अपना सब कुछ केवल वचनबद्ध होकर दान दिया था।"
  हीरोजी हँस पड़े - "हाँ, तो यह गोवर्धन शास्‍त्री कहनेवाले हुए और तुम लोग सुननेवाले, ठीक ही है। लेकिन हमसे सुनो, यह तो कह रहे हैं त्रेता की बात, अरे, तब तो अकेले बलि ने ऐसा कर दिया था; लेकिन मैं कहता हूँ कलियुग की बात। कलियुग में तो एक आदमी की कही हुई बात को उसकी सात-आठ पीढ़ी तक निभाती गई और यद्यपि वह पीढ़ी स्‍वयं नष्‍ट हो गई, लेकिन उसने अपना वचन नहीं तोड़ा।"
  हम लोग आश्‍चर्य में पड़ गए। हीरोजी की बात समझ में नहीं आई, पूछना पड़ा - "हीरोजी, कलियुग में किसने इस प्रकार अपने वचनों का पालन किया है?"
"लौंडे हो न!" हीरोजी ने मुँह बनाते हुए कहा - "जानते हो मुगलों की सल्‍तनत कैसे गई?"
"हाँ, अँगरेजों ने उनसे छीन ली।"
"तभी तो कहता हूँ कि तुम सब लोग लौंडे हो। स्‍कूली किताबों को रट-रट कर बन गए पढ़े-लिखे आदमी। अरे, मुगलों ने अपनी सल्‍तनत अँगरेजों को बख्‍श दी।"
  हीरोजी ने यह कौन-सा नया इतिहास बनाया? आँखें कुछ अधिक खुल गईं। कान खड़े हो गए। मैंने कहा - "सो कैसे?"
"अच्‍छा तो फिर सुनो!" हीरोजी ने आरम्‍भ किया - "जानते हो शाहंशाह शाहजहाँ की लड़की शाहजादी रौशनआरा एक दफे बीमार पड़ी थी, और उसे एक अँगरेज डॉक्‍टर ने अच्‍छा किया था। उस डॉक्‍टर को शाहंशाह शाहजहाँ ने हिन्‍दुस्‍तान में तिजारत करने के लिए कलकत्ते में कोठी बनाने की इजाजत दे दी थी।"
"हाँ, यह तो हम लोगों ने पढ़ा है।"
"लेकिन असल बात यह है कि शाहजादी रौशनआरा - वही शाहंशाह शाहजहाँ की लड़की -हाँ, वही शाहजादी रौशनआरा एक दफे जल गई। अधिक नहीं जली थी। अरे, हाथ में थोड़ा-सा जल गई थी, लेकिन जल तो गई थी और थी शाहजादी। बड़े-बड़े हकीम और वैद्य बुलाए गए। इलाज किया गया; लेकिन शाहजादी को कोई अच्‍छा न कर सका - न कर सका। और शाहजादी को भला अच्‍छा कौन कर सकता था? वह शाहजादी थी न! सब लोग लगाते थे लेप, और लेप लगाने से होती थी जलन। और तुरन्‍त शाहजादी ने धुलवा डाला उस लेप को। भला शाहजादी को रोकनेवाला कौन था। अब शाहंशाह सलामत को फिक्र हुई! लेकिन शाहजादी अच्‍छी हो तो कैसे? वहाँ तो दवा असर करने ही न पाती थी।
"उन्‍हीं दिनों एक अँगरेज घूमता-घामता दिल्‍ली आया। दुनिया देखे हुए, घाट-घाट का पानी पिए हुए पूरा चालाक और मक्‍कार! उसको शाहजादी की बीमारी की खबर लग गई। नौकरों को घूस देकर उसने पूरा हाल दरियाफ्त किया। उसे मालूम हो गया कि शाहजादी जलन की वजह से दवा धुलवा डाला करती है। सीधे शाहंशाह सलामत के पास पहुँचा। कहा कि डॉक्‍टर हूँ। शाहजादी का इलाज उसने अपने हाथ में ले लिया। उसने शाहजादी के हाथ में एक दवा लगाई। उस दवा से जलन होना तो दूर रहा, उलटे जले हुए हाथ में ठंडक पहुँची। अब भला शाहजादी उस दवा को क्‍यों धुलवाती। हाथ अच्‍छा हो गया। जानते हो वह दवा क्‍या थी?" हम लोगों की ओर भेद भरी दृष्टि डालते हुए हीरोजी ने पूछा।
"भाई, हम दवा क्‍या जानें?" कृष्‍णानन्‍द ने कहा।
"तभी तो कहते हैं कि इतना पढ़-लिख कर भी तुम्‍हें तमीज न आई। अरे वह दवा थी वेसलीन - वही वेसलीन, जिसका आज घर-घर में प्रचार है।"
"वेसलीन! लेकिन वेसलीन तो दवा नहीं होती," मनोहर ने कहा।
  हीरोजी सँभल कर बैठ गए। फिर बोले - "कौन कहता है कि वेसलीन दवा होती है? अरे, उसने हाथ में लगा दी वेसलीन और घाव आप-ही-आप अच्‍छा हो गया। वह अँगरेज बन बैठा डॉक्‍टर - और उसका नाम हो गया। शाहंशाह शाहजहाँ बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने उस फिरंगी डॉक्‍टर से कहा - ''माँगो।" उस फिरंगी ने कहा - ''हुजूर, मैं इस दवा को हिन्‍दुस्‍तान में रायज करना चाहता हूँ, इसलिए हुजूर, मुझे हिन्‍दुस्‍तान में तिजारत करने की इजाजत दे दें।" बादशाह सलामत ने जब यह सुना कि डॉक्‍टर हिंदुस्‍तान में इस दवा का प्रचार करना चाहता है, तो बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने कहा - ''मंजूर! और कुछ माँगो।" तब उस चालाक डॉक्‍टर ने जानते हो क्‍या माँगा? उसने कहा - ''हुजूर, मैं एक तंबू तानना चाहता हूँ, जिसके नीचे इस दवा के पीपे इकट्ठे किए जावेंगे। जहाँपनाह यह फरमा दें कि उस तंबू के नीचे जितनी जमीन आवेगी, वह जहाँपनाह ने फिरंगियों को बख्श दी।" शाहंशाह शाहजहाँ थे सीधे-सादे आदमी, उन्‍होंने सोचा, तंबू के नीचे भला कितनी जगह आवेगी। उन्‍होंने कह दिया - ''मंजूर।"
"हाँ तो शाहंशाह शाहजहाँ थे सीधे-सादे आदमी, छल-कपट उन्‍हें आता न था। और वह अँगरेज था दुनिया देखे हुए। सात समुद्र पार करके हिंदुस्‍तान आया था! पहुँचा विलायत, वहाँ उसने बनवाया रबड़ का एक बहुत बड़ा तंबू और जहाज पर तंबू लदवा कर चल दिया हिंदुस्‍तान। कलकत्ते में, उसने वह तंबू लगवा दिया। वह तंबू कितना ऊँचा था, इसका अंदाज आप नहीं लगा सकते। उस तंबू का रंग नीला था। तो जनाब, वह तंबू लगा कलकत्ते में, और विलायत से पीपे-पर-पीपे लद-लदकर आने लगे। उन पीपों में वेसलीन की जगह भरा था एक-एक अँगरेज जवान, मय बंदूक और तलवार के। सब पीपे तंबू के नीचे रखवा दिए गए। जैसे-जैसे पीपे जमीन घेरने लगे, वैसे-वैसे तंबू को बढ़ा-बढ़ा कर जमीन घेर दी गई। तंबू तो रबड़ का था न, जितना बढ़ाया, बढ़ गया। अब जनाब, तंबू पहुँचा प्‍लासी। तुम लोगों ने पढ़ा होगा कि प्‍लासी का युद्ध हुआ था। अरे सब झूठ है। असल में तंबू बढ़ते-बढ़ते प्‍लासी पहुँचा था, और उस वक्‍त मुगल बादशाह का हरकारा दौड़ा था दिल्‍ली। बस यह कह दिया गया कि प्‍लासी की लड़ाई हुई। जी हाँ, उस वक्‍त दिल्‍ली में शाहंशाह शाहजहाँ की तीसरी या चौथी पीढ़ी सल्‍तनत कर रही थी। हरकारा जब दिल्‍ली पहुँचा, उस वक्‍त बादशाह सलामत की सवारी निकल रही थी। हरकारा घबराया हुआ था। वह इन फिरंगियों की चालों से हैरान था। उसने मौका देखा न महल, वहीं सड़क पर खड़े होकर उसने चिल्‍ला कर कहा - ''जहाँपनाह, गजब हो गया। ये बदतमीज फिरंगी अपना तंबू प्‍लासी तक खींच लाए हैं, और चूँकि कलकत्ते से प्‍लासी तक की जमीन तंबू के नीचे आ गई है, इसलिए इन फिरंगियों ने उस जमीन पर कब्‍जा कर लिया है। जो इनको मना किया तो इन बदतमीजों ने शाही फरमान दिखा दिया।'' बादशाह सलामत की सवारी रुक गई थी। उन्‍हें बुरा लगा। उन्‍होंने हरकारे से कहा - "म्‍याँ हरकारे, मैं कर ही क्‍या सकता हूँ। जहाँ तक फिरंगियों का तंबू घिर जाय, वहाँ तक की जगह उनकी हो गई, हमारे बुजुर्ग यह कह गए हैं।'' बेचारा हरकारा अपना-सा मुँह ले कर वापस आ गया।
"हरकारा लौटा और इन फिरंगियों का तंबू बढ़ा। अभी तक तो आते थे पीपों में आदमी, अब आने लगा तरह-तरह का सामान। हिंदुस्‍तान का व्‍यापार फिरंगियों ने अपने हाथ में ले लिया। तंबू बढ़ता ही रहा और पहुँच गया बक्‍सर। इधर तंबू बढ़ा और उधर लोगों की घबराहट बढ़ी। यह जो किताबों में लिखा है कि बक्‍सर की लड़ाई हुई, यह गलत है भाई। जब तंबू बक्‍सर पहुँचा, तो फिर हरकारा दौड़ा।
"अब जरा बादशाह सलामत की बात सुनिए। वह जनाब दीवान खास में तशरीफ रख रहे थे। उनके सामने सैकड़ों, बल्कि हजारों मुसाहब बैठे थे। बादशाह सलामत हुक्‍का गुड़गुड़ा रहे थे -सामने एक साहब जो शायद शायर थे, कुछ गा-गा कर पढ़ रहे थे और कुछ मुसाहब गला फाड़-फाड़ कर ''वाह-वाह' चिल्‍ला रहे थे। कुछ लोग तीतर और बटेर लड़ा रहे थे। हरकारा जो पहुँचा तो यह सब बंद हो गया। बादशाह सलामत ने पूछा - "म्‍याँ हरकारे, क्‍या हुआ - इतने घबराए हुए क्‍यों हो?" हाँफते हुए हरकारे ने कहा - "जहाँपनाह, इन बदजात फिरंगियों ने अंधेर मचा रखा है। वह अपना तंबू बक्‍सर खींच लाए।" बादशाह सलामत को बड़ा ताज्‍जुब हुआ। उन्‍होंने अपने मुसाहबों से पूछा - "म्‍याँ, हरकारा कहता है कि फिरंगी अपना तंबू कलकत्ते से बक्‍सर तक खींच लाए। यह कैसे मुमकिन है?" इस पर एक मुसाहब ने कहा - "जहाँपनाह, ये फिरंगी जादू जानते हैं, जादू !" दूसरे ने कहा - "जहाँपनाह, इन फिरंगियों ने जिन्‍नात पाल रखे हैं - जिन्‍नात सब कुछ कर सकते हैं।" बादशाह सलामत की समझ में कुछ नहीं आया। उन्‍होंने हरकारे से कहा - "म्‍याँ हरकारे, तुम बतलाओ यह तंबू किस तरह बढ़ आया।" हरकारे ने समझाया कि तंबू रबड़ का है। इस पर बादशाह सलामत बड़े खुश हुए। उन्‍होने कहा - "ये फिरंगी भी बड़े चालाक हैं, पूरे अकल के पुतले हैं।" इस पर सब मुसाहबों ने एक स्‍वर में कहा - "इसमें क्‍या शक है, जहाँपनाह बजा फरमाते हैं।" बादशाह सलामत मुस्‍कुराए - "अरे भाई, किसी चोबदार को भेजो, जो इन फिरंगियों के सरदार को बुला लावे। मैं उसे खिलअत दूँगा।" सब मुसाहब कह उठे - ''वल्‍लाह! जहाँपनाह एक ही दरियादिल हैं - इस फिरंगी सरदार को जरूर खिलअत देनी चाहिए।" हरकारा घबराया। वह आया था शिकायत करने, यहाँ बादशाह सलामत फिरंगी सरदार को खिलअत देने पर आमादा थे। वह चिल्‍ला उठा - "जहाँपनाह! इन फिरंगियों ने जहाँपनाह की सल्‍तनत का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा अपने तंबू के नीचे करके उस पर कब्‍जा कर लिया है। जहाँपनाह, ये फिरंगी जहाँपनाह की सल्‍तनत छीनने पर आमादा दिखाई देते हैं।" मुसाहब चिल्‍ला उठे - "ऐ, ऐसा गजब।" बादशाह सलामत की मुस्‍कुराहट गायब हो गई। थोड़ी देर तक सोच कर उन्‍होंने कहा - "मैं क्‍या कर सकता हूँ? हमारे बुजुर्ग इन फिरंगियों को उतनी जगह दे गए हैं, जितनी तंबू के नीचे आ सके। भला मैं उसमें कर ही क्‍या सकता हूँ। हाँ, फिरंगी सरदार को खिलअत न दूँगा।" इतना कह कर बादशाह सलामत फिरंगियों की चालाकी अपनी बेगमात से बतलाने के लिए हरम में अंदर चले गए। हरकारा बेचारा चुपचाप लौट आया।
"जनाब! उस तंबू ने बढ़ना जारी रखा। एक दिन क्‍या देखते हैं कि विश्‍वनाथपुरी काशी के ऊपर वह तंबू तन गया। अब तो लोगों में भगदड़ मच गई। उन दिनों राजा चेतसिंह बनारस की देखभाल करते थे। उन्‍होंने उसी वक्‍त बादशाह सलामत के पास हरकारा दौड़ाया। वह दीवान खास में हाजिर किया गया। हरकारे ने बादशाह सलामत से अर्ज की कि वह तंबू बनारस पहुँच गया है और तेजी के साथ दिल्‍ली की तरफ आ रहा है। बादशाह सलामत चौंक उठे। उन्‍होंने हरकारे से कहा - "तो म्‍याँ हरकारे, तुम्‍हीं बतलाओ, क्‍या किया जाय?" वहाँ बैठे हुए दो-एक उमराओं ने कहा - "जहाँपनाह, एक बड़ी फौज भेज कर इन फिरंगियों का तंबू छोटा करवा दिया जाय और कलकत्ते भेज दिया जाय। हम लोग जा कर लड़ने को तैयार हैं। जहाँपनाह का हुक्‍म भर हो जाय। इस तंबू की क्‍या हकीकत है, एक मर्तबा आसमान को भी छोटा कर दें।" बादशाह सलामत ने कुछ सोचा, फिर उन्‍होंने कहा - "क्‍या बतलाऊँ, हमारे बुजुर्ग शाहंशाह शाहजहाँ इन फिरंगियों को तंबू के नीचे जितनी जगह आ जाय, वह बख्‍श गए हैं। बख्‍शीशनामा की रूह से हम लोग कुछ नहीं कर सकते। आप जानते हैं, हम लोग अमीर तैमूर की औलाद हैं। एक दफा जो जबान दे दी वह दे दी। तंबू का छोटा कराना तो गैरमुमकिन है। हाँ, कोई ऐसी हिकमत निकाली जाय, जिससे फिरंगी अपना तंबू आगे न बढ़ा सकें। इसके लिए दरबार आम किया जाय और यह मसला वहाँ पेश हो।"
"इधर दिल्‍ली में तो यह बातचीत हो रही थी और उधर इन फिरंगियों का तंबू इलाहाबाद, इटावा ढकता हुआ आगरे पहुँचा। दूसरा हरकारा दौड़ा। उसने कहा - "जहाँपनाह, वह तंबू आगरे तक बढ़ आया है। अगर अब भी कुछ नहीं किया जाता, तो ये फिरंगी दिल्‍ली पर भी अपना तंबू तान कर कब्‍जा कर लेंगे।" बादशाह सलामत घबराए - दरबार आम किया गया। सब अमीर-उमरा इक्‍ट्ठा हो गए तो बादशाह सलामत ने कहा - "आज हमारे सामने एक अहम मसला पेश है। आप लोग जानते हैं कि हमारे बुजुर्ग शाहंशाह शाहजहाँ ने फिरंगियों को इतनी जमीन बख्‍श दी थी, जितनी उनके तंबू के नीचे आ सके। इन्‍होंने अपना तंबू कलकत्ते में लगवाया था; लेकिन वह तंबू है रबड़ का, और धीरे-धीरे ये लोग तंबू आगरे तक खींच लाए। हमारे बुजुर्गों से जब यह कहा गया, तब उन्‍होंने कुछ करना मुनासिब न समझा; क्‍योंकि शाहंशाह शाहजहाँ अपना कौल हार चुके हैं। हम लोग अमीर तैमूर की औलाद हैं और अपने कौल के पक्‍के हैं। अब आप लोग बतलाइए, क्‍या किया जाए।" अमीरों और मंसबदारों ने कहा - "हमें इन फिरंगियों से लड़ना चाहिए और इनको सजा देनी चाहिए। इनका तंबू छोटा करवा कर कलकत्ते भिजवा देना चाहिए।" बादशाह सलामत ने कहा - "लेकिन हम अमीर तैमूर की औलाद हैं। हमारा कौल टूटता है।" इसी समय तीसरा हरकारा हाँफता हुआ बिना इत्तला कराए ही दरबार में घुस आया। उसने कहा - "जहाँपनाह, वह तंबू दिल्‍ली पहुँच गया। वह देखिए, किले तक आ पहुँचा।" सब लोगों ने देखा। वास्‍तव में हजारों गोरे खाकी वर्दी पहने और हथियारों से लैस, बाजा बजाते हुए तंबू को किले की तरफ खींचते हुए आ रहे थे। उस वक्‍त बादशाह सलामत उठ खड़े हुए। उन्‍होंने कहा - "हमने तय कर लिया। हम अमीर तैमूर की औलाद हैं। हमारे बुजुर्गों ने जो कुछ कह दिया, वही होगा। उन्‍होंने तंबू के नीचे की जगह फिरंगियों को बख्‍श दी थी। अब अगर दिल्‍ली भी उस तंबू के नीचे आ रही है, तो आवे! मुगल सल्‍तनत जाती है, तो जाय, लेकिन दुनिया यह देख ले कि अमीर तैमूर की औलाद हमेशा अपने कौल की पक्‍की रही है," - इतना कह कर बादशाह सलामत मय अपने अमीर-उमरावों के दिल्‍ली के बाहर हो गए और दिल्‍ली पर अँगरेजों का कब्‍जा हो गया। अब आप लोग देख सकते हैं, इस कलियुग में भी मुगलों ने अपनी सल्‍तनत बख्‍श दी।"
  हम सब लोग थोड़ी देर तक चुप रहे। इसके बाद मैंने कहा - "हीरोजी, एक प्‍याला चाय और पियो।"
  हीरोजी बोल उठे - "इतनी अच्‍छी कहानी सुनाने के बाद भी एक प्‍याला चाय? अरे, महुवे के ठर्रे का एक अद्धा तो हो जाता।"
***

भगवती चरण वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के शफीपुर गाँव में हुआ था। वर्मा जी ने इलाहाबाद से बीए और, एलएलबी की डिग्री प्राप्त की और प्रारम्भ में कविता लेखन किया। फिर उपन्यासकार के रूप में विख्यात हुए। 1933 के करीब प्रतापगढ़ के राजा साहब भदरी के साथ रहे। 1936 के लगभग फिल्म कारपोरेशन, कलकत्ता में कार्य किया। कुछ दिनों ‘विचार’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन-संपादन, इसके बाद बंबई में फिल्म-कथालेखन तथा दैनिक ‘नवजीवन’ का सम्पादन, फिर आकाशवाणी के कई केंन्दों में कार्य किया । बाद में,1957 से मृत्यु-पर्यंत साहित्यकार के रूप में स्वतंत्र लेखन से जुड़े रहे । उनके  प्रसिद्ध  ‘चित्रलेखा’  पर दो बार फिल्म -निर्माण हुआ और उनके एक और प्रसिद्ध तथा बड़े उपन्यास ‘भूले-बिसरे चित्र’ पर उन्हें साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।  उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण से भी सम्मानित किया और वे राज्यसभा के  मानद सदस्य भी रहे हैं।

© विजय शंकर सिंह

Saturday 28 April 2018

Ghalib - Us kadah kaa hai daur / उस कदह का है दौर - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 69.
उस कदह का है दौर, मुझ को नक़द,
चर्ख ने ली है, जिससे गर्दिश दाम !!

Us kadah kaa hai daur, mujh ko naqad,
Charkh ne lee hai, jis'se gardish daam !!
- Ghalib

कदह - मधु पात्र, मदिरा पात्र
चर्ख - आसमान

मुझे उस मदिरा पात्र का मूल्य नक़द दे कर खरीदना पड़ रहा है, जो आसमान ने अपनी गति से खरीद कर दी है।
इसका भावार्थ इस प्रकार है।
जिस ईश्वर की असीम कृपा से यह सारा आकाश निरन्तर गतिशील है, उसी कृपा को प्राप्त करने के लिये, मुझे खुद को पहले उसे ( ईश्वर को ) समर्पित करना होगा। चर्ख यानी आसमान गतिशील है। सभी नक्षत्र तारे सभी गतिशील है। वे निरन्तर चलायमान है। आसमान को तो ईश्वर की कृपा बिना मांगे मिल रही है। पर मुझे ईश्वर की कृपा के लिये खुद को ईश्वर को समर्पित करना होगा। यहां कदह, मधु पात्र या मदिरा ईश्वर का प्रतीक है। आसमान या समय की गतिशीलता ईश्वर के कृपा के ही कारण है।

ग़ालिब इसी को बेहद खूबसूरती से कहते हैं कि यह एक अजब दौर है कि हम पर ईश्वर की कृपा बिना मांगे , बिना किसी उपासना या इबादत के, या बिना समर्पण के नहीं मिलती है। जब कि पूरी कायनात उसके कृपा से बिना समर्पण के ही निरन्तर गतिशील है। 

© विजय शंकर सिंह

दुष्यंत कुमार की एक कविता - अपाहिज व्यथा / विक्रय शंकर सिंह



अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।

अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।

वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।

समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।

( दुष्यंत कुमार )

Friday 27 April 2018

Ghalib - Us anjuman e naaz ko kyaa baat hai / उस अंजुमन ए नाज़ को क्या बात है - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 68.
उस अंजुमन ए नाज़ को क्या बात है ग़ालिब,
हम भी गये वां और तेरी तक़दीर को रो आये !!

Us anjuman e naaz ko kyaa baat hai Ghalib,
Ham bhii gaye waan aur teree taqdeer ko ro aaye !!
- Ghalib

उस शान ओ शौकत और नज़ाक़त से भरपूर महफ़िल का क्या वर्णन करूँ। हम भी उस खूबसूरत महफ़िल में गये थे, पर अपने दुर्भाग्य का रोना रो कर वापस उस गोष्ठी से लौट आये।

गालिब के इस शेर में गुणी और ज्ञानवान शायरों की महफ़िल का ज़िक्र है। यह गोष्ठी सभी योग्य और प्रसिद्ध सुखनवरों से भरी पड़ी है। ग़ालिब को भी उस महफ़िल में जाने का अवसर मिला । पर ग़ालिब का दुर्भाग्य वहां भी उनका पिंड नहीं छोड़ा और वह वहां से भी अपनी किस्मत को कोसते वापस आ गए। ग़ालिब के प्रतिभा की गहराई उस शानो शौकत में कहीं खो दी गयी। दिखावटीपन के दौर में उन्हें उचित सम्मान और महत्व नहीं मिला।

ग़ालिब के अधिकतर शेरों में, उनका दुर्भाग्य छलक आता है। यह दुर्भाग्य उन्हें जीवन भर उनके साथ रहा। 13 वर्ष की उम्र में ग़ालिब को मीर तक़ी मीर की शाबाशी मिल चुकी थी। उनकी काव्य प्रतिभा का प्रस्फुटन हो गया था। शुरू में उन्होंने फारसी में लिखते थे। बाद में उन्होंने उर्दू में लिखना शुरू किया। उर्दू शायरी के एक ख्यातनाम हस्ताक्षर मौलवी फ़ज़ल हक़ खैराबादी का स्नेह उन्हें मिल चुका था। वे मुग़ल दरबार मे भी उनकी पैठ हो चुकी थी। पर उस दरबार मे भी दरबार की राजनीति के वे शिकार हुये। पारिवारिक समस्याएं तो थी हीं। अंतिम समय मे पेंशन के लिये अंग्रेजों के सामने हांथ पसारना पड़ा। कदम कदम दुश्वारियां, कदम कदम बदबख्ती। यही बात उनके इस शेर में उभर कर आई है। जीवन के हर खूबसूरत महफ़िल में उन्हें शरीक होने का अवसर तो मिला पर क्या करते वे वहां मिसफिट समझे गये।

प्रतिभा और नियति के इस विचित्र खेल में ग़ालिब ही नहीं बल्कि हम सब भी है । ग़ालिब शायर थे, शब्दों के जादूगर थे, उनका अंदाज़ ए बयां और ही था तो उन्होंने यह खूबसूरत शेर कह दिया।

© विजय शंकर सिंह

ठेके पर धरोहर - लाल किला - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह


खबर है लाल किला अब ठेके पर सरकार ने दे दिया है। और भी धरोहरें भविष्य में दिये जाने की संभावना है। यह देश की अस्मिता को ठेके पर दिए जाने जैसा है। कुछ इमारतें महज़ ईंट पत्थरों की नहीँ होती है हालांकि वे बनती हैं उसी सामग्री से जिससे सभी इमारतें बनती हैं। पर वे इतिहास का प्रतीक होती हैं। उनकी दीवालों ने साम्राज्यों को बनते बिगड़ते देखा है। ऐश्वर्य और वैभव से चकाचौंध होते लोगों को देखा है तो विपन्नता और उजड़ी हुयी उदास आंखें भी अपने अंतिम सम्राट की, हालांकि तब यह ओहदा भी बराये नाम ही था देखा है। लाल किला दुनिया की  ऐसी ही गिनी चुनी इमारतों में से एक है। जिसका रख रखाव अब डालमिया ग्रुप करेगा ।

लाल किला भारत की सत्ता का प्रतीक है। शाहजहां के समय जब राजधानी आगरा से दिल्ली आयी थी तो सत्ता इसी लाल पत्थरों से बने मज़बूत किले से चलती थी। आधे भारत पर राज करने के बावजूद भी अगर दिल्ली किसी राजा के पास नहीं है तो वह भारत का सम्राट नहीं कहलाता था। और कुछ भी आप के पास नहीं है बस दिल्ली है तो आप भारत के सम्राट हैं। याद कीजिये, महान मुगलों का अवसान काल। अंतिम मुगल का समय और उनके किस्से। उस समय एक मज़ाक़ चला करता था, शहंशाह शाह आलम अज दिल्ली से पालम। आधा भारत जीतने के बाद भी मराठे दिल्ली पर अधिकार नहीं जमा सके। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी बंगाल ( जिसमे पूरा बंगाल आज के बांग्लादेश सहित, उड़ीसा और बिहार था ) की ज़मींदारी ले ली, जॉब चारनाक ने कलकत्ता बसा दिया, पर जब तक दिल्ली के लाल किले पर, 1857 के विप्लव को दबाने के बाद , यूनियन जैक नहीं फहरा दिया गया तब तक उनको भारत का कब्जेदार नहीं माना गया। आधा भारत रियासतों में था, और कुछ आटविक इलाके थे पर चूंकि दिल्ली अंग्रेजों की थी, तो वे भारत के भाग्य विधाता माने गए। आज भी हर साल स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त पर प्रधानमंत्री देश का राष्ट्र ध्वज इसी किले पर फहराते हैं। यह देश की अस्मिता, जीवन्तता स्वाधीनता और सम्प्रभुता का प्रतीक है ।

पर यही लाल किला अब ठेके पर डालमिया भारत ग्रुप को दे दिया गया है। डालमिया ग्रुप ने 25 करोड़ रुपये पर इस किले का कुछ भाग ठेके पर लिया है। कहा जा रहा है वह इस धरोहर की देखभाल करेंगे। जब भारत आज़ाद हुआ था तो देश के पास संसाधन कम थे। आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी। फिर 1947 से ले कर 2018 तक देश की किसी भी सरकार ने यह बेवकूफी भरा निर्णय नहीं लिया कि प्राचीन धरोहरों को देखभाल के लिये ठेके पर दे दिया जाय। अब हम तब से बहुत अधिक समृद्ध हैं । फिर ऐसा क्या हो गया है कि, मैं देश नहीं बिकने दूंगा का नाटकीय संवाद करने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने सब कुछ बेचने की धुन पर ओलेक्स की मानसिकता से ग्रस्त इस सरकार ने आज लालकिला को ही ठेके पर दे दिया ? कल हो सकता है और धरोहरों को ठेके पर दे दिया जाये। अब 23 मई को यह किला ठेके पर उठेगा। डालमिया भारत ग्रुप ने कहा है कि वह लाल किला में बेहतर रोशनी और हरियाली की व्यवस्था करेगा। इसे पर्यटकों के लिये आकर्षक बनाएगा। और भी उसकी कुछ योजनाएं होंगी। जो वह बाद में बताएगा ।


ब्रिटेम एक परंपरावादी देश है। यहां तक कि इसका संविधान भी परम्परा से ही विकसित हुआ है। इंग्लैंड का संविधान लिखित नहीं है बल्कि वह संवैधानिक परम्पराओं से निरन्तर विकसित होता रहता है। भारत पर जब उन्होंने कब्ज़ा जमाया तो भारत की सांस्कृतिक विरासत ने उन्हें बहुत ही आकर्षित किया। उन्होंने भारतीय दर्शन, साहित्य वांग्मय, कला, समाज और रीतिरिवाजों का व्यापक अध्ययन किया। साथ ही इतिहास की खोज भी की। उन्होंने इतिहास की एक नयी शाखा पुरातत्व आर्कियोलॉजी की नींव डाली और इतिहास के विशद और प्रामाणिक अध्ययन के लिये उन्होंने उत्खनन भी किये। उन्होंने एशियाटिक सोसायटी जो प्राच्य विद्या पर प्रामाणिक शोध करने वाली एक प्रमुख संस्था थी का गठन किया। उसी क्रम में पुराने स्मारकों, धरोहरों के अध्ययन और रखं रखाव के लिये भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एएसआई, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का गठन किया गया।

1861 में सर अलेक्ज़ेंडर कनिघम जो एक ब्रिटिश पुरातत्वविद थे द्वारा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) की स्थापना तत्कालीन वायसरॉय लार्ड कैनिंग के समय की गयी थी। यह ब्रिटिश पुरातत्वशास्त्री विलियम जोन्स, द्वारा 15 जनवरी, 1784 को स्थापित एशियाटिक सोसायटी का एक स्वरूप है। सन 1788 में इसका एक अधिकृत पत्र द एशियाटिक रिसर्चेज़ प्रकाशित होना आरम्भ हुआ था और सन 1874  में इसका प्रथम संग्रहालय कलकत्ता में बना। उस समय एएसआई के क्षेत्र में अफगानिस्तान भी आता था। सन 1944 में, जब मॉर्टिमर व्हीलर महानिदेशक बने, तब इस विभाग का मुख्यालय, रेलवे बोर्ड भवन, शिमला में स्थित था। 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद 1958 में प्राचीन स्मारक पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम संसद से पारित किया गया। इसके अधीनस्थ सभी पुरातत्व महत्व की धरोहरें रखी गयी। इस कानून में उनसे छेड़छाड़ पर आपराधिक दंड का भी प्राविधान है। इसके बहुत पहले 1904 में जब लार्ड कर्जन वायसरॉय था तो एक कानून , प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम बन चुका था। कलकत्ता का प्रमुख स्मारक विक्टोरिया मेमोरियल लॉर्ड कर्जन के ही समय बना था। इस विभाग के पास 3636 स्मारक स्थल हैं, जो कि पुरावस्तु एवं कला खजाना धारा १९७२ के अन्तर्गत, राष्ट्रीय महत्व की धरोहरें घोषित हैं। लाल किला इन्ही में से एक है।

खबर है, लाल किला ही नहीं निम्न धरोहरें भी पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों को सौंपी जाने की योजना है।
महाराष्ट्र की अजंता गुफायें यात्रा को दी गईं है।
खजुराहो के विश्व विख्यात मंदिर समूह, जीएमआर स्पोर्ट्स प्रा लिमिटेड को मिला है।
एलोरा की गुफाओं का जिम्मा इंडियन एसोसिएशन ऑफ टूर आॅपरेटर्स (आईएटीओ) को दिया गया।
मुंबई के जयगढ़ किला और सेसुन डॉक को संवारने का काम दृष्टि लाईफसेविंग्स प्रा लि को दिया गया।
मुंबई की एलिफेंटा गुफा को महेश इंटरप्राइज एंड इंडिया इंफ्रा ने लिया है।
बोध गया के मंदिर के लिए यस बैंक को आशय पत्र सौंपे गए हैं। दृष्टि लाइफसेविंग्स प्रा लि ने सबसे ज्यादा 21 विरासत स्थलों को गोद लिया है। यह जानकारी अरसा पहले केन्द्रीय पर्यटन राज्य मंत्री के जे अल्फोंस, लोकसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में दे चुके हैं
लाल किला की स्थिति इन धरोहरों से अलग है। लाल किला एक पर्यटन स्थल ही नहीं बल्कि वह सत्ता का प्रतीक है। इसे किसी निजी कम्पनी को लीज पर देना उचित नहीं है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि इसका रखरखाव निजी कम्पनी बेहतर तरीके से करेगी और सरकार को इससे आय भी होगी। लेकिन कोई भी निजी कम्पनी कोई भी काम बिना लाभ के नहीं करती है। निश्चित रूप से अगर डालमिया ग्रुप ने 25 करोड़ की लीज पर यह किला लिया है तो वे 100 करोड़ इससे कमाने की योजना वे बना चुके होंगे। फिर वे यह धन कहां से उगाहेंगे यह मैं नहीं बता पाऊंगा। सरकार को लाल किले का रखं रखाव, खुद करना चाहिये। लाल किले का ही नहीं बल्कि सभी धरोहरों का भी उसे खुद अपने संसाधनों और विभाग से रखं रखाव और प्रशासन करना चाहिये। आज तक हो भी रहा था। पर अब यह सब अब ठेके पर है । सरकार इतनी दयनीय और असमर्थ हो चुकी हैं वह अब धरोहरों और विरासतों की भी देखभाल नहीं कर सकती है।

© विजय शंकर सिंह

Thursday 26 April 2018

Ghalib - Umra bhar dekhaa kiye marne kii raah / उम्र भर देखा किये मरने की राह - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 67.
उम्र भर देखा किये मरने की राह,
मर गये, पर देखिये, दिखलाये क्या !!

Umra bhar dekhaa kiye marne kii raah,
Margaye, par dekhiye, dikhalaayen kyaa !!
- Ghalib.

जीवन भर मृत्यु की प्रतीक्षा में ही रह कर हम, सब उद्योग करते रहे, और जब मर जाते हैं तो सब हम यहीं छोड़ कर चले गए, अब उसे क्या दिखलाएँ। अब उसे कौन देखने वाला है।

मनुष्य जीवन भर मृत्यु की प्रतीक्षा करते करते कुछ न कुछ जोड़ने की जुगत में लगा रहता है। धीरे धीरे मृत्यु का समय भी आ जाता है। तब भी उसकी तृष्णा नहीं जाती है। वह कुछ न कुछ बटोरने में लगा ही रहता है। और अंत मे जब मृत्यु आती है तो सब कुछ जोड़ना घटाना यही ऐसे ही पड़ा रह जाता है। और वह यहां से रुखसत हो जाता है। जीवन भर वह कुछ पाने और कुछ खोने की उधेड़बुन में ही रह जाता है।

इस पर मेरे मित्र श्योदान सिंह जी ने विदुर नीति का एक सारगर्भित श्लोक भेजा है, उसे भी मैं जोड़ दे रहा हूं । वह श्लोक भी ग़ालिब के इस शेर के कथ्य से मिलता जुलता है।

आदमी में यह प्रवृत्ति  अंतिम सांस तक रहती है।शायद प्रकृति  प्रदत्त है।इसका भी कुछ अच्छा उद्देश्य हो सकता है।हम समझ नहीं पाते हैं।

दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥
( विदुर नीति )

दिनभर ऐसा काम करो जिससे रात में चैन की नींद आ सके ।
वैसे ही जीवन भर ऐसा काम करो जिससे मृत्यु पश्चात सुख मिले अर्थात सद्गति  प्राप्त हो ।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday 25 April 2018

Ghalib - Unhe sawaal pe jo'ame junuun hai kyun ladiye / उन्हें सवाल पे जोअमे जुनूँ है क्यूं लड़िये - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 66.
उन्हें सवाल पे जोअमे जुनूँ है, क्यूं लड़िये,
हमें जवाब से कतअये नज़र है क्या कहिये !!

Unhe sawaal pe jo'ame junoon hai kyun ladiye,
Hamen jawaab se qat'aye nazar hai kyaa kahiye !!
- Ghalib

जोअमे जुनूँ   -  दर्प से भरा हुआ.
क़ता ए नज़र - नज़रअंदाज़ करना.

उनके सवाल उन्माद और घमंड से भरे हुये है। वे जब भी सवाल करते हैं तो उसमें उनका अहंकार दिखता है। ऐसे लोगों के ऐसे अहंकारी सवालों का उत्तर हम क्या दें ? वे ऐसे ही दर्पयुक्त सवाल पूछने के आदी हैं और हम ऐसे सवालों को नज़रअंदाज़ करने के । इन सवालों पर क्या लड़ना औऱ क्यों लड़ना । अब यह तो अपनी अपनी आदत है। इस पर क्या कहिये !

प्रश्नों के भी उद्देश्य होते है। कुछ प्रश्न जिज्ञासु भाव, तो कुछ प्रश्न अहंकार की अभिव्यक्ति होते हैं।  अहंकार से भरे प्रश्न का उद्देश्य ही अपना दर्प महत्व और घमंड दिखाना होता है। गालिब का यह शेर, इसी प्रसंग में हैं ।

उनकी बातें, उनका लहजा, उनके सवाल ये सब घमंड से भरे पड़े हैं। यह अहंकार की अभिव्यक्ति है। यह सवाल नहीं दर्पोक्ति है। जब सवाल पूछने में ही जिज्ञासा और उत्सुकता के बजाय अहंकार दिखने लगे तो ऐसे लोगों के सवालों का क्या उत्तर दिया जाय । उचित यही है कि ऐसे घमंडी सवालों को नजरअंदाज कर दिया जाय। ग़ालिब का यह नसीहत भरा शेर, आज भी मौजूं है।

© विजय शंकर सिंह

Tuesday 24 April 2018

Ghalib - Unhe manzoor apne zakhmiyon kaa dekh aanaa thaa / उन्हें मंज़ूर अपने जख्मियों का देख आना था - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 65.
उन्हें मंज़ूर अपने जख्मियों का देख आना था,
उठे थे सैर ए गुल को, देखना शोखी बहाने की !!

Unhe manzoor apne zakhmiyon kaa dekh aanaa thaa,
Uthe the sair e gul ko, dekhnaa shokhii bahaane kee.
- Ghalib

उठे तो वो अपने से घायलों की दशा का जायज़ा लेने को , पर फुलवारी की सैर तो एक बहाना थी।

यह एक कठिन और बहुत जटिल अर्थ समेटे हुये शेर है। अंग्रेज़ी में एक शब्द है सैडिज़्म। परपीड़ा में ही आंनद प्राप्त करना। मनोविज्ञान इसे एक प्रकार की ग्रन्थि complex मानता है। इस शेर में उसी ग्रन्थि की ओर ग़ालिब का इशारा है। प्रेयसी को यहां परपीड़क रूप में देखा गया है। वह अपने प्रेमी यानी को पीड़ा में देख कर आंनदित होते हैं। वह जब उपवन में घूमते जाती है तो उसका उद्देश्य सैर करना नहीं बल्कि उपवन में उसके जो चाहने वाले हैं उसे तड़पाना और जिन्हें वह घायल कर चुकी है उसे देखना है। यह देखना भी सहानुभूति की नज़र से नहीं बल्कि उस पीड़ा से खुद को आंनदित करना है।  अपने प्रेमियों की इस तड़प से वह आंनदित होती है। प्रेयसी को प्रेमी की तड़प में ही आंनद मिल रहा है। यह प्रेम का उलाहना भाव भी है। उपालंभ है।

इस शेर को सैडिज़्म के उदाहरण के रूप में नहीं प्रस्तुत किया जा सकता है। सैडिज़्म, के पीछे ईर्ष्या, विद्वेष, आदि हिंसक मनोभाव प्रभावी होते हैं पर यहां प्रेम है, प्रेयसी को पाने की लालसा है, ललक है और उस ललक, कामना की जब उपेक्षा प्रेयसी द्वारा होती है तो वह परपीड़क नज़र आती है। सैडिज़्म का उपयोग मैंने दूसरे की पीड़ा में सुख ढूंढने के अर्थ में ज़रूर किया है, पर वह हिंसा भाव बिल्कुल नहीं है । यह प्रेम की एक नियति भी है। इसी से मिलती जुलती महादेवी वर्मा की यह पंक्तियाँ पढ़ें ,

पर शेष नहीं होगी, मेरे प्राणों की यह क्रीड़ा,
तुमको पीड़ा में ढूंढा, तुममे ढूंढूंगी पीड़ा !!
( महादेवी वर्मा )

महादेवी ने भी प्रिय को पीड़ा में ढूंढने और फिर उस मिलन में भी पीड़ा ढूंढने की अजब बात कहती है। प्रेम पीड़ा देता है पर उस पीड़ा के इच्छुक भी कम नहीं है। प्रेम की पीड़ा का आनंद तो प्रेमी युगल ही जान सकते हैं।

© विजय शंकर सिंह

24 अप्रैल, दिनकर की पुण्यतिथि पर उनका विनम्र स्मरण / विजय शंकर सिंह


रामधारी सिंह दिनकर मूलतः एक कवि थे। 1964 से 72 तक जब मैं यूपी कॉलेज में था तो 1968 में दिनकर आये थे। उनकी कविता सुनी थी हमने। उनसे मिलने का न कोई अवसर मुझे मिला और न ही अवसर की इच्छा थी। बस उनको सुना। यह पता लगा कि वे एक बहुत बड़े कवि है। फिर जब रश्मिरथी पढ़ी तो दिमाग खुलने लगा। फिर जो जो पुस्तकें मिलती गयीं पढता गया। कुछ समझ मे आयीं कुछ ऊपर से निकल गयीं। लिखा भी तो इन्होंने कम नहीं है। पद्य और गद्य मिला कर इन्होंने कुल 63 रचनाएं लिखी है। कविता संग्रह, खण्ड काव्य, महाकाव्य इतिहास, समकालीन राजनीति, आज़ादी के आंदोलन, नेहरू, गांधी सभी पर तो कलम चली इनकी।
इतिहास और संस्क्रति पर इनकी बहुत ही प्रमाणिक और अच्छी पुस्तक है संस्कृति के चार अध्याय। यह पुस्तक भारतीय इतिहास और संस्क्रति की एक रूपरेखा है। कोई भी व्यक्ति अगर भारतीय सांस्कृतिक धारा का आद्योपांत अध्ययन एक ही पुस्तक में करना चाहता है तो उसे यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिये। यह न तो शुष्क अकादमिक इतिहास की पुस्तक है और न ही गल्प के क्षेपकों से सजी धजी कोई हल्की फुल्की किताब। यह रोचक और ज्ञानवर्धक विवरण है। कवि दिनकर इस पुस्तक में बिल्कुल दूसरी भूमिका , इतिहास और संस्कृति के एक सजग और सतर्क अध्यापक की भूमिका में नज़र आते हैं।

दिनकर की एक कविता शायद मेरे इंटर के कोर्स में थी कि आखिरी कुछ पंक्तियां यहां स्मरण से लिख रहा हूँ। यह उनके किस संग्रह में है नहीं बता पाऊंगा। यह कविता है पाटलिपुत्र की गंगा। पटना यानी प्राचीन पाटलिपुत्र के वैभव को याद करते हुए दिनकर कहते हैं,

अस्तु आज गोधूलि लग्न में,
गंगे मंद मंद बहना,
गावों नगरों के समीप चल,
दर्द भरे स्वर में कहना।
करते हो तुम विपन्नता का,
जिसका अब इतना उपहास,
वहीं कभी मैंने देखा है,
मौर्य वंश का विभव विलास।

उनकी कुछ रचनाओं के कुछ अंश भी देखें। यह स्मरण से नहीं हैं बल्कि उद्धरित हैं।

किस भांति उठूँ इतना ऊपर ?
मस्तक कैसे छू पाँऊं मैं .
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते,
उँगलियाँ न छू सकती ललाट .
वामन की पूजा किस प्रकार,
पहुँचे तुम तक मानव,विराट .
O
रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर
(हिमालय से)
O
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो;
उसको क्या जो दन्तहीन,
विषहीन, विनीत, सरल हो।
( कुरुक्षेत्र से)
O
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ,
लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो लहर आग की,
तभी जवानी पाती जय। -
( रश्मिरथी से )
O
हटो व्योम के मेघ पंथ से,
स्वर्ग लूटने हम जाते हैं;
दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा,
दूध खोजने हम जाते है।
सच पूछो तो सर में ही,
बसती है दीप्ति विनय की;
सन्धि वचन संपूज्य उसी का,
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है;
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।"
दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।-
( रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)
O
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
(रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)।।

दिनकर राष्ट्रवादी कवि से। उनका राष्ट्रवाद राष्ट्रीय चेतना से जुड़ा था। वे आज़ादी के संघर्ष में भी शामिल रहे हैं। वे आज़ादी के प्रबल पक्षधर थे। मूलतःवीर रस और स्वतंत्र चेतना के वाहक दिनकर के हर काव्य में सुप्त राष्ट्रवाद के दर्शन होते हैं। उनका राष्ट्रवाद, किसी धर्म को ही राष्ट्र मानने के भ्रम से दूर था। जितनी पकड़ उनकी वीर रस के काव्य पर थी उससे कम पकड़ उनकी शृंगार रस के साहित्य पर नहीं थी।

दिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला। संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे। भारत सरकार ने मरणोपरांत उन पर डाक टिकट भी जारी किया था।
इस महान साहित्यिक विभूति को नमन और उनका विनम्र स्मरण।

© विजय शंकर सिंह

Monday 23 April 2018

Ghalib - Unke dekhe se jo aa jaatee hai munh par raunaq / उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 64.
उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है !!

Unke dekhe se jo aa jaatee hai, munh par raunaq,
Wo samjhte hain ki biimaar kaa haal achhaa hai !!
- Ghalib.

उनके देखते ही मुंह पर जो चमक आ जाती है, तो वे समझते हैं कि मुझ बीमार की तबीयत ठीक है।
प्रिय का दर्शन सुखद होता है। दुःख , अवसाद, रुग्णता किसी भी विपरीत परिस्थितियों में कोई हो और अचानक ऐसी दशा में उसके सामने कोई प्रिय आ जाय तो दुःख तो नहीं कम होता है पर दुःख की अनुभूति कम हो जाती है। जो सुख की लहर चेहरे पर तैरने लगती है। यह अनुभूति जो प्रिय के दर्शन से चेहरे पर आयी है उससे आगन्तुक यह सोचने लगता है कि ये तो प्रसन्न हैं और सुखी हैं। जब कि वास्तविकता ऐसी नहीं है। प्रिय के आने से वह प्रसन्न दिख रहा है न कि उसका दुःख कम हुआ है। हां दुःख की अनुभूति कम हो गयी है।

कभी कभी बेहद दुख में भी  प्रिय का संयोग आंसू ला देता है। पर वे अश्क़ दुख नहीं सुख के होते हैं। दुःख से कातर व्यक्ति को प्रिय दर्शन इस लिये सुखकर लगता है कि उसे लगता है उसके दुःख अब कम हो जायेंगे। प्रिय या तो दुःख बांट लेगा या दुःखों का निदान, समाधान ढूंढ लेगा। ग़ालिब ने इस शेर में इसी मनोदशा को बड़ी खूबसूरती से व्यक्त किया है।

© विजय शंकर सिंह

Sunday 22 April 2018

Ghalib - Utnaa hee mujhko apnii haqeeqat se / उतना ही मुझको अपनी हक़ीक़त से - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 63
उतना ही मुझको अपनी हक़ीक़त से बोअद है,
जितना कि बहम ए गैर में हूँ, पेच ओ ताब में !!

Utnaa hii mujhko apanii haqeeqat se bo'ad hai,
Jitnaa ki baham e gair mein hun, pech o taab mein !!
- Ghalib.

अपनी हक़ीक़त, वास्तविकता, पहचान, से मैं उतना ही दूर हूँ, जितना कि ईश्वर से अपने आप को, अलग समझ कर दूर हूँ ।

भारतीय दर्शन का एक बोध वाक्य है, आत्म दीपो भव। पालि में यह अप्प दीपो भव है। इसका अंग्रेज़ी तरजुमा है know thyself. खुद को जानो। यह शेर इसी संक्षिप्त पर गूढ़ अर्थ समेटे वाक्य को ही ज़रा सा व्याख्यायित करता है। मुझे कुछ पता नहीं कि मैं क्या हूँ, कौन हूँ, मेरी हक़ीक़त क्या है। मैं इस वास्तविकता से उतना ही दूर हूँ, जितना कि मुझसे ईश्वर दूर है। अहम ब्रह्मास्मि, मैं ही ब्रह्म हूँ । या अनल हक़, मैं ही खुदा हूँ या सत्य हूँ यह सारे लघु वाक्य एक ही बात कहतें हैं बस इनकी ज़ुबान अलग अलग हैं। ग़ालिब इसी को कहते हैं कि उन्होंने अभी खुद को जाना नहीं है। वे अपनी वास्तविकता से अभी अपरिचित हैं। जिस दिन वे या कोई भी खुद को जान लेगा, पहचान लेगा, वह ईश्वर को जान लेगा। खुद को जान लेना ही सत्य से साक्षात्कार है।

यह भाव लगभग सभी सूफी और रहस्यवादी कवियों में मिलता है। सूफीवाद भी रहस्यवाद है। रहस्य है ईश्वर जो अजन्मा, अमर, अबूझा और अगम्य है। उसे जानने का क्रम चिरन्तन है और क्या पता कब तक रहे। कबीर भी एक रहस्यवादी और निर्गुण परंपरा के कवि थे।  इसी से मिलता जुलता कबीर का यह दोहा, पढ़ें।

' कबीर : सोच बिचारिया, दूजा कोई नाहिं,
आपा पर जब चीन्हिया, तब उलटि समाना माहिं !!

मैंने सोच विचार के बाद यह बात जान ली, कि ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। जब मैं अपने और पराये के भेद को जान गया तो, तब मैं पलट कर अपने मे समा गया। खुद में ही विलीन हो गया।
कबीर के साखी शबद रमैनी जो उनकी रचनाओं के संग्रह हैं में यह भाव सर्वत्र बिखरा पड़ा है। इसी से मिलता जुलता कबीर के दो और दोहे देखें,

झुठनि झूठ साच करि जाना,
झुठनि में सब साच लुकाना !!
( कबीर )

हम मिथ्या जगत के लोग, इसी जगत को सत्य और वास्तविक मान बैठते हैं। ईश्वर ने इसी मिथ्या में सत्य को छुपा रखा है ।
( कबीर )

अपने एक और इसी प्रकार के दोहे मे वे कहते हैं।

जग जीवन ऐसा सपने जैसा, जीवन सुपन समान,
सांचु करि हम गांठ दीनी, छोड़ि परम निधान !!
( कबीर )

यह जगत एक स्वप्न की तरह है, और यह जीवन भी स्वप्न है। हमने इसी मिथ्या भाव को ही सच मान लिया है। ईश्वर जो परम् सत्य है उसे हमने इसी मिथ्या भाव के कारण भुला रखा है।
यहां ग़ालिब और कबीर का यह कोई तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया है। क्यों कि मैं न तो ग़ालिब के अदब का जानकार हूँ और न हीं कबीर के साहित्य का मर्मज्ञ । मुझे ग़ालिब के शेर में जो दर्शन दिखा वही उनसे कई सदी पहले कबीर के दोहों में भी दिखा तो मैंने उसे यहां जोड़ दिया। ग़ालिब का यह शेर उनकी आध्यात्मिक पैठ और दृष्टि को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त करता है।  यही उनकी निराली अंदाज़ ए बयानी है।

© विजय शंकर सिंह

22 अप्रैल - लेनिन के जन्मदिन पर कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म / विजय शंकर सिंह


व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव, जिन्हें लेनिन के नाम से भी जाना जाता है, ( 22 अप्रैल 1870 – 21 जनवरी 1924 ) एक रूसी साम्यवादी क्रान्तिकारी, राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक सिद्धांतकार थे। लेनिन को रूस में बोल्शेविक क्रांति के नेता और ज़ारशाही के सामन्ती राज से मुक्तिदाता के रूप में दुनिया मे व्यापक पहचान मिली। वह 1917 से 1924 तक सोवियत यूनियन के कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख रहे।

1917 की रूसी क्रांति इतिहास की अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। मार्क्स के क्रांतिकारी सिद्धांतो पर आधारित इस महान क्रांति ने विश्व के शोषित और वंचित वर्गों के बीच एक चेतना जागृत कर दी और साम्राज्यवाद के उस दौर में गुलाम मुल्क़ों के लिये यह क्रांति एक प्रकाश स्तम्भ के रूप में स्थापित हुयी। ऐसा नहीं है कि मार्क्स और लेनिन ने केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से ही समाज को प्रभावित किया बल्कि साहित्य, सिनेमा, कला, दर्शन, जीवन शैली आदि सभी क्षेत्रों में अपना प्रत्यक्ष और तार्किक  प्रभाव डाला। भारतीय साहित्य भी इससे प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका। हिंदी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, मराठी आदि सभी साहित्यों में प्रगतिवादी रचनायें लिखी गयी। लेखकों की एक पीढ़ी ही प्रगतिशील या तरक़्क़ीपसन्द विचारों से पोषित और पल्लवित हुई। उर्दू के ख्यातनाम शायर कैफ़ी आज़मी भी एक तरक़्क़ीपसन्द ओर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित शायर थे। यह नज़्म उन्होंने लेनिन की स्मृति में लिखी है।
अब आप यह नज़्म पढ़ें।
O
आसमां और भी ऊपर को उठा जाता है,
तुमने सौ साल में इंसां को किया कितना बलंद,
पुश्त पर बाँध दिया था जिन्हें जल्लादों ने,
फेंकते हैं वही हाथ आज सितारों पे कमंद।

देखते हो कि नहीं
जगमगा उट्ठी है मेहनत के पसीने से जबीं,
अब कोई खेत खते-तक़दीर नहीं हो सकता
तुमको हर मुल्क की सरहद पे खड़े देखा है
अब कोई मुल्क हो तसख़ीर नहीं हो सकता।

ख़ैर हो बाज़ुए-क़ातिल की, मगर खैर नहीं
आज मक़तल में बहुत भीड़ नज़र आती है
कर दिया था कभी हल्का-सा इशारा जिस सिम्त
सारी दुनिया उसी जानिब को मुड़ी जाती है।

हादिसा कितना बड़ा है कि सरे-मंज़िले-शौक़
क़ाफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक ख़तरनाक शिगाफ़ उसमे नज़र आता है।

देखते हो कि नहीं
देखते हो, तो कोई सुल्ह की तदबीर करो
हो सकें ज़ख्म रफू जिससे, वो तक़रीर करो
अह्द पेचीदा, मसाईल हैं सिवा पेचीदा
उनको सुलझाओ, सहीफ़ा कोई तहरीर करो।

रूहें आवारा हैं, दे दो उन्हें पैकर अपना
भर दो हर पार-ए-फौलाद में जौहर अपना
रहनुमा फिरते हैं या फिरती हैं बे-सर लाशें
रख दो हर अकड़ी हुई लाश पर तुम सर अपना ।
( कैफ़ी आज़मी )
O

कैफ़ी आज़मी (असली नाम, अख्तर हुसैन रिजवी) उर्दू के एक अज़ीम शायर थे। उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए भी कई प्रसिद्ध गीत व ग़ज़लें भी लिखीं, जिनमें देशभक्ति का अमर गीत -"कर चले हम फिदा, जान-ओ-तन साथियों" भी शामिल है। कैफ़ी साहब मार्क्सवादी विचारों से बहुत प्रभावित थे। वे उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद के रहने वाले थे। क़ैफ़ी आज़मी को राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा कई बार अपने खूबसूरत और दिलकश गीतों के लिये फिल्मों का सम्मानित फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला है ।1974 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था।

© विजय शंकर सिंह

Saturday 21 April 2018

22 अप्रैल, पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएं और पृथ्वी सूक्त - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह


दुनिया भर के देश 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस के रूप में मनाते हैं। यह दिवस पर्यावरण जागरूकता को समर्पित एक वार्षिक आयोजन है ।  इसकी स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन ने 1970 में  पर्यावरण से जुड़े एक शैक्षणिक कार्यक्रम से की थी। यह दिवस अब 192 से अधिक देशों में प्रति वर्ष मनाया जाता है। यह तारीख उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद के मौसम की होती है।

तीव्र औद्योगिक विकास ने यूरोप और अमेरिका के अनेक सघन औद्योगिक क्षेत्रों में पर्यावरण को बहुत ही हानि पहुंचाई। नदियां, जंगल और भूमिगत जल श्रोत भी विषैले होने लगे। इन सब की वैज्ञानिक रपटों ने देश मे पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता उतपन्न की। 9 सितम्बर 1969 में सिएटल, वाशिंगटन में एक सम्मलेन का आयोजन किया गया, जिसमें विस्कोंसिन के अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन घोषणा की कि 1970 की वसंत में पर्यावरण पर राष्ट्रव्यापी जन प्रदर्शन किया जायेगा। यह जन प्रदर्शन किसी के विरुद्ध नहीं बल्कि जनता को जागरूक करने के लिये किया जाएगा। सीनेटर नेल्सन ने पर्यावरण को एक राष्ट्रीय एजेंडा में जोड़ने के लिए पहले राष्ट्रव्यापी पर्यावरण विरोध की प्रस्तावना दी। उन्होंने यह लड़ाई सीनेट में भी शुरू की । उनका उस समय की औद्योगिक और पूंजीवादी लॉबी ने बहुत विरोध किया। क्यों कि यह जागरूकता और पर्यावरण बचाओ आंदोलन से पूंजीपतियों का हित टकरा रहा था। जेराल्ड नेल्सन कहते हैं कि,
  "यह एक जुआ था, लेकिन इसने काम किया। लोग जगे, जुटे और खड़े हो गये। बाद में सरकार ने भी जन स्वास्थ्य और भावी पीढ़ी के लिये इस ओर ध्यान दिया। "

इसी बीच पर्यावरण के प्रति सचेत और एक्टिविस्ट तथा जाने माने फिल्म और टेलिविज़न अभिनेता एड्डी अलबर्ट ने पृथ्वी दिवस, के मनाये जाने के बारे में जन जागृति उतपन्न करने और जन जागरण हेतु बहुत से प्राथमिक और महत्वपूर्ण कार्य किये, जिसका उन्हें व्यापक समर्थन मिला। अल्बर्ट के योगदान को चिर स्थायी बनाने के लिये 1970 के बाद, एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी दिवस को अलबर्ट के जन्मदिन, 22 अप्रैल, को मनाये जाने की परंपरा पड़ी। अलबर्ट को टीवी शो ग्रीन एकर्स में प्रभावी भूमिका के लिए भी जाना जाता था, जिसने तत्कालीन अमेरिकी समाज के सांस्कृतिक और पर्यावरण चेतना पर बहुमूल्य प्रभाव डाला था ।

भारतीय परंपरा में पर्यावरण की चिंता वेदों के काल से की गयी है। समस्त प्रकृति ही पूज्य थी। प्रकृति पूजा के अनेक प्रसंग वैदिक साहित्य में भरे पड़े है।  यजुर्वेद के एक लोकप्रिय मंत्र में समूचे पर्यावरण को शान्तिमय बनाने की अद्भुत स्तुति है। स्वस्तिवाचन की इस अद्भुत ऋचा में द्युलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी से शान्ति की भावप्रवण प्रार्थना है।

।। ॐ द्यौ शांतिरन्तरिक्ष: शांति: पृथ्वी शांतिराप: शान्ति: रोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं: शान्ति: शान्र्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॐ।।
( यजुर्वेद- 36.17 )

"जल शान्ति दे, औषधियां-वनस्पतियां शान्ति दें, प्रकृति की शक्तियां - विश्वदेव, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शान्ति दे। सब तरफ शान्ति हो, शान्ति भी हमें शान्ति दें।"
यहां शान्ति भी एक देवता हैं।

प्रथम वेद ऋग्वेद में भी वायु, सरिता जल, और पृथ्वी के कण कण को मधुर होने की कामना की गयी है।

"मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धव:। माध्वीर्न: सन्त्वोषधी:।। मधु नक्तमुतोष सो मधुमत्पार्थिवं रज:। मधु घौरस्तु न: पिता।। मधुमान्नो वस्पतिर्म धुमां अस्तु सूर्य:। माध्यवीर्गावो भवन्तु न:।।
( ऋग्वेद 1.90/6,7,8 )

वायु मधुमय है। नदियों का पानी मधुर हो, औषधियां, वनस्पतियां मधुर हों। माता पृथ्वी के रज कण मधुर हों, पिता आकाश मधुर हों, सूर्य रश्मियां भी मधुर हों, गाएं मधु दुग्ध दें।

भूमि पर तो अथर्ववेद में पूरा भूमि सूक्त ही है। यह भूमि, धरित्री, जो धारण करती है के महत्व को दर्शाता है। भूमि के प्रति पग पग पर कृतज्ञता व्यक्त की गयी है। पृथ्वी सूक्त में कहा गया है,

"देवता जिस भूमि की रक्षा उपासना करते हैं वह मातृभूमि हमें मधु सम्पन्न करे। इस पृथ्वी का हृदय परम आकाश के अमृत से सम्बंधित रहता है। वह भूमि हमारे राष्ट्र में तेज बल बढ़ाये। '
यामश्विनावमिमातां विष्णुयस्यां विचक्रमे। इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रां शचीपतिः। सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय मे पयः।।10।।

यत्ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संवभूवुः। तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु।।12।।

सूर्य और चन्द्र से इस पृथिवी का मानो मापन हो रहा है। मापन से यहां यह अभिप्राय है कि पूर्व से पश्चिम की ओर जाते हुए सूर्य व चन्द्र मानो पृथिवी को माप ही रहे हैं। इन सूर्य-चन्द्र के द्वारा सर्वव्यापक प्रभु पृथिवी पर विविध वनस्पतियों को जन्म दे रहे हैं। यह पृथिवी शक्ति व प्रज्ञान के स्वामी जितेन्द्रिय पुरूष की मित्र है। यह भूमि हम पुत्रों के लिए आप्यायन के साधनभूत दुग्ध आदि पदार्थों को दे ।

पृथ्वी सूक्त के 12.1.7 व 8 श्लोक कहते हैं,
"हे पृथ्वी माता आपके हिम आच्छादित पर्वत और वन शत्रुरहित हों। आपके शरीर के पोषक तत्व हमें प्रतिष्ठा दें। यह पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र- माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या:। (वही 11-12) स्तुति है।

"हे माता! सूर्य किरणें हमारे लिए वाणी लायें। आप हमें मधु रस दें, आप दो पैरों, चार पैरों वाले सहित सभी प्राणियों का पोषण करती हैं।"

यहां पृथ्वी के सभी गुणों का वर्णन है लेकिन अपनी ओर से क्षमायाचना भी है,

"हे माता हम दायें- बाएं पैर से चलते, बैठे या खड़े होने की स्थिति में दुखी न हों। सोते हुए, दायें- बाएं करवट लेते हुए, आपकी ओर पांव पसारते हुए शयन करते हैं- आप दुखी न हों। हम औषधि, बीज बोने या निकालने के लिए आपको खोदें तो आपका परिवार, घासफूस, वनस्पति फिर से तीव्र गति से उगे-बढ़े। आपके मर्म को चोट न पहुंचे।"

63 मंत्रों में गठित इस पृथ्वी सूक्त को अमरीकी विद्वान ब्लूमफील्ड ने विश्व की श्रेष्ठ कविता बताया है।
पृथ्वी दिवस का भले ही 1970 से मनाया जाना प्रारम्भ हुआ हो, पर पृथ्वी, जल, जंगल, और जीव के प्रति भारतीय वांग्मय में सदैव उदात्त और जागरूक भाव रहा है। पर्यावरण के प्रति लोग सचेत रहें इसी लिये प्रकति में देवत्व की अवधारणा की गयी है।
पृथ्वी दिवस की अंनत शुभकामनाएं !!

( वैदिक ऋचाये और उनके अर्थ, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज के एक लेख का अंश है । यह लेख मनीषी की लोकयात्रा में है। गोपीनाथ कविराज काशी के थे और प्राच्य वांग्मय पर उन्होंने बहुत काम किया है । )

© विजय शंकर सिंह

Ghalib - Imaan mujhe roke hai / ईमां मुझे रोके है - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 62.
ईमाँ मुझे रोके है तो, खींचे है मुझे कुफ्र,
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे !!

Iimaan mujhe roke hai to, khiinche hai mujhe kufra,
Kaabaa mere piichhe hai, kaliisaa mere aage !!
- Ghalib

मेरा ईमान मुझे विचलित होने से रोकता है। कभी कभी कुफ्र भी मुझे आकर्षित करता है। कभी लगता है, काबा मेरे पीछे हैं और कलीसा गिरजाघर मेरे सामने है।
यह विभ्रम की एक आदर्श स्थिति है ! ग़ालिब मुसलमान तो हैं पर उनकी आस्था कभी कभी डगमगा जाती है। कभी उन्हें गैर इस्लामी विचार, रवायतें, इबादत के तरीके जिन्हें इस्लाम मे कुफ्र माना गया है आकर्षित करते लगते  हैं, तो कभी वे काबा को पीछे छोड़ कर कलीसा ( गिरिजाघर ) की ओर चल पड़ते है। यह विभ्रम है या धर्म, ईश्वर और सत्य को जानने की ललक या मन का आवारापन या उसका कुरंग भाव यह तो ग़ालिब ही जानें।

अब एक कहानी पढ़ लीजिए।
1857 का विप्लव दबा दिया गया था। बहादुर शाह जफर को रंगून रवाना कर दिया गया था। लाल किला पर यूनियन जैक आ गया था। पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक और अन्य गलियों में अफरातफरी मची थी। फिरंगी देख कर लोग सहम जाते थे। गुलज़ार दिल्ली भूतों और जिन्नों का शहर बन गयी थी। ऐसे ही एक रोज़ मिर्ज़ा ग़ालिब शहर में घूमते हुये पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। उन्हें अंग्रेज़ हाकिम के यहां पेश किया गया। उनका नाम पता पूछा गया। तभी ग़ालिब के चाहने वाले उन्हें छुड़ाने के लिये और उनके विरोधी इस घटना का मज़ा लेने के लिये आ गए। कुछ मौलाना भी थे। अंग्रेज़ हाकिम ने पूछा,
" तुम्हारा मजहब क्या है ? "
ग़ालिब ने कहा,
" मुसलमान हूँ। पर आधा । "
अदालत में लोग हंस पड़े। मौलाना की आंखे लाल हो गयीं। अंग्रेज़ हाकिम ने हैरानी से पूछा,
" आधा मुसलमान ? क्या मतलब ? "
ग़ालिब ने पूरी गम्भीरता से उत्तर दिया,
" शराब पीता हूँ। पर सूअर का गोश्त नहीं खाता हूं । इस्लाम मे मनाही है शराब की। तो आधा ही हुआ न । "
तभी कोतवाल जो ग़ालिब का प्रशंसक था ने अदालत से गुजारिश की,
" सरकार यह एक बहुत बड़े शायर हैं। दरबार मे इनकी धाक थी। बड़े मोअज्जिज़ अमीर भी रहे हैं। अब जब से दरबार का रुतबा गया तो थोड़ा परेशान रहने लगे हैं। इन्हें छोड़ दिया जाय । "
ग़ालिब जो रात को गलियों में घूमते पकड़े गए थे रिहा हो गये। शहर में यूं ही आवारापन से घूमना अंग्रेज़ो ने मना कर रहा था। बड़ी मुश्किल से दिल्ली जीती थी उन्होंने ।

इस बेहतरीन और विचारोत्तेजक शेर की एक आध्यात्मिक व्याख्या भी की जा सकती है। कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है। और न ही वह यह दावा करता है कि उसी का मार्ग सबसे पूर्ण है। एक अनुसंधित्सु और जिज्ञासु मस्तिष्क अक्सर ही ईश्वर और धर्म के बारे में तर्क वितर्क करता रहता हैं। कभी कोई तो कभी कोई सवाल उसे मथता रहता है। यह स्थिति विभ्रम या कन्फ्यूजन की नहीं है, बल्कि चीजों को जानने की है। ग़ालिब एक सूफी दर्शन से प्रभावित शायर थे। वे कहते भी हैं खुद को, कि अगर वे मद्यपी न होते तो लोग उन्हें वली ( संत या धर्मगुरु ) समझते।
" वली हमे समझते जो न वादख्वार होता ! "

© विजय शंकर सिंह

Friday 20 April 2018

Ghalib - Isharat e paaraa e dil / इशरत ए पारा ए दिल - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 61.
इशरत ए पारा ए दिल, ज़ख़्म ए तमन्ना खाना,
लज्ज़त ए रीश ए जिगर, ग़र्क़ ए नमकदां होना !!

Isharat e paaraa e dil, zakhm e tamannaa khaanaa,
Lajzat e reesh e jigar, garq e namak daan honaa !!
- Ghalib

दिल के टुकड़ों का आनन्द यही है कि वे कामनाओं की चोट खायें। दिल के घाव का सुख यही है कि हम उसे नमकदानी में डुबों दे। ताकि उन घावों पर नमक की जलन होती रहे। यह  ही एक आंनद है। ग़ालिब की बात मानें तो !

कामनाएं या इच्छाएं कभी भी समाप्त नहीं होती। एक की पूर्ति होती नहीं है कि अनेक फिर उतपन्न हो जाती है। हर कामना दुःख देती है। वह पूरी हो जाय तो फिर दूसरी ख्वाहिश की खलिश। हज़ारों ख्वाहिशें हैं और हर ख्वाहिश पर दम निकलने की सज़ा। इस कष्ट, वेदना, का असर दिल पर निरन्तर पड़ता रहता है। लेकिन यह सारी कामनायें जीवन और ज़िंदा दिखने का सुबूत भी तो है। कामनाओं और आंनद का यह विचित्र तालमेल है। जब तक जीवन है इच्छाएं रहेंगी और उन इच्छाओँ की एक स्वाभाविक प्रकृति  है कि वे वेदनाएं देती रहेंगी और उन वेदनाओं में भी हमें आंनद की खोज करते रहना है। हमें हर हाल में आंनद से जीना चाहिये। चाहे कामनाओं की पूर्ति हो न हो । सभी इच्छाओं की पूर्ति तो असंभव है। पर अधूरी और न पूरी हुई इच्छाओँ के गम में जी कर तो जीवन को विषादमय नहीं बनाया जा सकता है न । दुःख में भी सुख ढूंढने का यह एक नायाब सोच है।

इसी कामना, दुख, सुख पर सौदा का यह शेर पढ़ें । सौदा अपने शेर में एक मजेदार बात कहते हैं ।

प्यारे बुरा न मानों तो इक बात कहूँ मैं,
किस लुत्फ की उम्मीद पर यह ज़ोर सहूँ मैं !!
( सौदा )

प्रिय, यदि तुम बुरा न मानों तो एक बात पूछूं, किस आंनद की उम्मीद पर मैं तुम्हारे यह सब अत्याचार सहूँ ?

सौदा, ग़ालिब की तुलना में थोड़ा लेनदेन की बात करते हैं। वे प्रेमिका के सारे सितम सहने को तैयार हैं, बशर्ते उन्हें यह भरोसा हो जाय कि उनके प्रेम का लक्ष्य मिल जाएगा। नहीं तो साफ कहते है कि किस उम्मीद पर मै तुम्हारे सारे नाज़ नखरे उठाऊं और सितम सहूँ। ग़ालिब तो नाज़ नखरे और सितम में भी आंनद ढूंढ लेते हैं और खुश हैं ।

© विजय शंकर सिंह

सहारा बिरला डायरी, कलिखो पुल आत्महत्या, मेडिकल काउंसिल रिश्वत मामला और जज लोया की संदिग्ध मौत पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने निम्न मामलों में जांच से इनकार कर के अपना दृष्टिकोण साफ कर दिया। ये मामले है,

• सहारा बिड़ला पेपर्स.
इन पेपर्स में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुये उनके नाम पर बिरला और सहारा ने लाखों रुपये उन्हें दिए और वह धनराशि दस्तावेज में दर्ज है।
इस मामले में दायर याचिका में गुजरात के मुख्यमंत्री रहते वक्त नरेंद्र मोदी समेत कई राजनेताओं पर इस डायरी का हवाला देते हुए घूस लेने का आरोप लगाया गया था और कोर्ट से इसकी जांच के लिए आदेश देने का आग्रह किया गया था.

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महज डायरी और कागजातों में नाम लिखे होने के आधार पर जांच के आदेश नहीं दिए जा सकते. कोर्ट के मुताबिक याचिका में दिए गए तथ्य स्वीकारयोग्य नहीं हैं. इनको पुख्‍ता सुबूत के तौर पर नहीं गिना जा सकता. इस तरह के पेश दस्तावेजों और सामग्री के आधार पर संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ जांच नहीं हो सकती. इस पर जस्टिस अरुण मिश्र ने कहा कि तब तो आपको पता होगा कि जांच के आदेश देने के बाद क्या हुआ. यहां सुप्रीम कोर्ट ने जांच के आदेश दिए तो दूसरी ओर आरोपी निचली अदालत से आरोपमुक्त हो गए. जाहिर है कि हम न्यायपालिका को विरोधाभासी हालात में नहीं देखना चाहते.
मतलब जांच इस लिये नहीं की जानी चाहिये कि कहीं निचली अदालत सब को दोषमुक्त न कर दे। सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका को विरोधाभासी हालत में नहीं देखना नहीं चाहती।

• कलिखो पुल की सुसाईड डायरी.
कलिखो पुल अरुणांचल के मुख्यमंत्री थे। उनकी मृत्यु जो एक आत्महत्या का परिणाम थी, की भी जाँच नहीं होगी, जब कि उनका सुसाइड नोट उपलब्ध है।

इन्होंने कथित तौर पर घर पर पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली। वह सीएम आवास में ही रह रहे थे और यहीं उन्होंने फांसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली।  कालिखो पुल कांग्रेस से बगावत कर भाजपा में शामिल हुए थे और मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। बताया जाता है कि सत्ता जाने के बाद वह मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजर रहे थे। फ़रवरी 2017 में उनकी पत्नी ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर पुल के द्वारा लिखे गए सुसाइड नोट को प्रमाण मानते हुए उनकी मौत की सी.बी.आई जांच कराने की मांग की। ऐसा माना जाता है कि सुसाइड नोट में पुल ने कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और उच्चतम न्यायलय के न्यायधीशों के ऊपर उन्हें परेशान करने का आरोप लगाया है |
इस सुसाइड नोट की जांच में आरोप बड़े जजों पर था तो जांच कैसे होगी ! भला जज कहीं झूठ बोलता है ! राम राम !!

• मेडिकल कॉलेज घूसकांड.
इस मामले में सीजेआई जस्टिस दीपक मिश्र पर भी कुछ आरोप  हैं।
मामला मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने में हुए कथित भ्रष्टाचार का है। सीबीआई ने इस बारे में एक केस दर्ज कर रखा है। आरोप है कि मेडिकल कॉलेजों से जुड़े एक मामले का फैसला एक कॉलेज के हक में करवाने के लिए दलाल विश्वनाथ अग्रवाल ने पैसे लिए। याचिकाकर्ता की मांग थी कि मामले में सुप्रीम कोर्ट के जजों पर आरोप लग रहे हैं, इसलिए पूर्व चीफ जस्टिस की निगरानी में इस मामले की एसआईटी जांच होनी चाहिए।
उन्होंने खुद ही अपने मामले की सुनवाई की। यह न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत कि व्यक्ति स्वयं अपना जज नहीं बन सकता है के सर्वथा विपरीत है। इसकी भी स्वतंत्र जाँच न हुयी और न होगी।

• जज लोया की मौत.
चूंकि इस मामले में संदेह एक असरदार अपराधी पर है तो सुप्रीम कोर्ट ने बिना जांच, बिना गवाही, बिना जिरह, बिना फोरेंसिक निष्कर्ष और बिना छानबीन के ही इस निष्कर्ष पर पहुंच गयी कि जजों के बयान को असत्य मानने का कोई कारण नहीं है। अतः जाँच नहीं होगी। जो कारण सुप्रीम कोर्ट ने गिनाये हैं उनमें सबसे बड़ा कारण यही है कि जजों की बात पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है।

जब संदेहों की जांच कराने और जांच से कोई भागता है तो कितनी भी आप कानूनी दलीलें दें, संदेह और पुख्ता हो जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक निष्कर्ष है।

अवमानना की शक्ति का अहंकार आप को कभी कभी न्याय पूर्ण निर्णय लेने से बाधित भी करता होगा और हमे इसका डर, निर्भीकता से अपनी बात आप के इजलास में कहने से रोकती भी होगी, मेरे आका । इस अनावश्यक अहंकार और भय का शमन होना चाहिये। न्याय हो, यह तो ज़रूरी है ही, पर न्याय होता दिखे यह भी कम ज़रूरी नहीं है।

© विजय शंकर सिंह