Friday 28 April 2023

अतीक अशरफ हत्याकांड की जांच हेतु दायर याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने आज यूपी सरकार को, विस्तार से हलफनामा देने को कहा है / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट में आज अतीक अशरफ हत्याकांड में जांच हेतु दायर विशाल तिवारी की एक याचिका पर सुनवाई की। सुनवाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार 28/04/2023 को उत्तर प्रदेश सरकार से गैंगस्टर, अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद की 15 अप्रैल को प्रयागराज में, पुलिस हिरासत में हुई हत्या की जांच के लिए उठाए गए कदमों पर एक  "डीटेल हलफनामा" मांगा है। 

ज्ञातव्य है कि, पुलिस हिरासत में मेडिकल जांच के लिए अस्पताल में ले जाए गए इन दोनों की हत्या कर दी गई थी। अदालत ने अतीक अहमद के बेटे असद समेत उमेश पाल हत्याकांड के अन्य आरोपियों के मुठभेड़ में मारे जाने की जांच के बारे में भी जानकारी मांगी है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य को जस्टिस बीएस चौहान के नेतृत्व वाले न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट के अनुसरण में उठाए गए कदमों के बारे में भी सूचित करने का निर्देश दिया है, जिसने 2020 के विकास दुबे मुठभेड़ की जांच की थी।

जस्टिस एस रवींद्र भट और दीपांकर दत्ता की पीठ एडवोकेट विशाल तिवारी की एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई कर रही है, जिसमें अहमद बंधुओं की हत्याओं की स्वतंत्र जांच की मांग की गई थी, जिसे लाइव टेलीविजन पर पकड़ा गया था। साथ ही, यूपी राज्य में, 2017 के बाद अब तक, 183 अन्य मुठभेड़ पर भी जांच की मांग याचिका में की गई है। विकास तिवारी ने जस्टिस चौहान की उस रिपोर्ट पर भी सवाल उठाया है, जिसमें विकास दुबे एनकाउंटर मामले में यूपी पुलिस को क्लीन चिट दी गई थी।

लाइव लॉ की रिपोर्टिंग के अनुसार, सुनवाई के दौरान बेंच ने यूपी सरकार से पूछा कि हत्यारों को यह जानकारी कैसे मिली कि अतीक और अशरफ को अस्पताल ले जाया जा रहा है? पीठ ने यह भी पूछा कि पुलिस ने अहमद भाइयों को एंबुलेंस में वहां तक ​​ले जाने के बजाय अस्पताल के प्रवेश द्वार तक, पैदल चलने को क्यों कहा?

यूपी सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने जोरदार तर्क देकर, बेंच से नोटिस जारी नहीं करने का आग्रह करते हुए कहा कि "राज्य सरकार, इन दोनों की मौतों की जांच कर रही है। यह व्यक्ति और उसका पूरा परिवार पिछले 30 वर्षों से जघन्य अपराधों में उलझा हुआ है। यह संभव है कि दोनों को उन्हीं लोगों ने मारा हो जिनके क्रोध का उन्होंने सामना किया था। यह उन कोणों में से एक है जिस पर हम गौर कर रहे हैं।"  .

मुकुल रोहतगी ने आगे कहा, "सभी ने टेलीविजन पर हत्याएं देखीं। हत्यारे समाचार फोटोग्राफरों के भेष में आए थे। उनके पास, मीडिया पास थे, उनके पास कैमरे थे, और पहचान पत्र भी थे जो बाद में नकली पाए गए। वहां 50 लोग थे और बाहर और भी लोग थे।  इस तरह वे अतीक और अशरफ को मारने में कामयाब रहे।" 

"उन्हें कैसे पता चला?" न्यायमूर्ति भट ने, मुकुल रोहतगी से पूछा।
रोहतगी ने जवाब दिया, "अदालत के इस फैसले के कारण, पुलिस हिरासत में किसी भी आरोपी को हर दो दिन में मेडिकल जांच के लिए ले जाना चाहिए। ये हमलावर लगातार तीन दिनों से जा रहे हैं।"
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने पूछा, "श्री रोहतगी, उन्हें एंबुलेंस में अस्पताल के गेट पर क्यों नहीं ले जाया गया? उन्हें चलने और परेड क्यों कराई गई?"
वरिष्ठ वकील ने उत्तर दिया, "यह दूरी बहुत कम है।"
जस्टिस भट ने कहा, "आपके पास जो भी तथ्य हैं उसे रख दीजिए। हम इस पर गौर करेंगे।"

वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने पीठ को बताया कि सरकार द्वारा एक जांच आयोग और साथ ही राज्य पुलिस की एक विशेष जांच टीम (एसआईटी) नियुक्त की गई है।  "आयोग में दो मुख्य न्यायाधीश, एक अन्य न्यायाधीश और एक पुलिस अधिकारी शामिल हैं। हमने एक एसआईटी भी नियुक्त की है। हम और क्या कर सकते हैं?"
इसे रिकॉर्ड पर रखने के लिए, न्यायमूर्ति भट ने कहा।
रोहतगी ने कहा, "हो सकता है कि, लॉर्डशिप नोटिस जारी न करें। हमारे पास जो भी सामग्री है, हम उसे रिकॉर्ड पर रखेंगे।"

विकास तिवारी ने कहा, "एक विशेष जांच दल...जब राज्य खुद एक आरोप के तहत है। आयोग केवल इस विशेष घटना की जांच कर रहा है, जबकि हम आम तौर पर उत्तर प्रदेश में मुठभेड़ में हुई मौतों की जांच की मांग कर रहे हैं।"  
इस पर न्यायमूर्ति भट ने स्पष्ट किया कि पीठ को स्थिति रिपोर्ट देखने का अवसर मिलने के बाद, यदि आवश्यक हो, तो वह "आयोग से बड़े मुद्दे को देखने का अनुरोध कर सकती है। आप कह रहे हैं कि एक पैटर्न है। यदि वास्तव में कोई पैटर्न है, तो हम हमेशा आयोग से अनुरोध कर सकते हैं कि वह कुछ अन्य नमूना मामलों पर विचार करे और अपनी सिफारिशें दे।"

सुनवाई के बाद, पीठ ने निम्नलिखित संक्षिप्त आदेश पारित किया:
"मोतीलाल नेहरू संभागीय अस्पताल, प्रयागराज के पास 15 अप्रैल को हुई मौतों की जांच के लिए उठाए गए कदमों का संकेत देते हुए एक व्यापक हलफनामा दायर किया जाएगा। हलफनामे में घटना के ठीक पहले हुई घटना के संबंध में उठाए गए कदमों का भी खुलासा होगा।  प्रश्न पूछें और न्यायमूर्ति बीएस चौहान आयोग की रिपोर्ट के बाद उठाए गए कदमों का भी खुलासा करें। तीन सप्ताह के बाद सूची।

पिछले महीने, शीर्ष अदालत के जस्टिस अजय रस्तोगी और बेला एम त्रिवेदी की पीठ ने गैंगस्टर से राजनेता बने अतीक अहमद को राहत देने से इनकार कर दिया था, जिसने आशंका जताई थी कि उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में उसे मार दिया जाएगा, अगर उसे एक जगह से स्थानांतरित कर दिया गया। समाजवादी पार्टी के पूर्व लोकसभा सदस्य और 2005 में बहुजन समाज पार्टी के विधायक अतीक अहमद, राजू पाल की हत्या और इस हत्या के एक प्रमुख गवाह उमेश पाल की सनसनीखेज हत्या के मुख्य आरोपी है।

15 अप्रैल को, अतीक को प्रयागराज के नैनी सेंट्रल जेल में स्थानांतरित करने और 2007 में उत्तर प्रदेश की एक अदालत द्वारा उमेश पाल अपहरण मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद, अतीक और उसके भाई अशरफ को लगभग 10 बजे शहर के एक अस्पताल में चिकित्सीय परीक्षण के लिए ले जाया जा रहा था।  रात के समय।  जब मीडिया उनसे पूछताछ कर रही थी, तभी पत्रकारों के भेष में आए तीन हमलावरों ने अहमद बंधुओं को एकदम से गोली मार दी।  यह घटना मीडियाकर्मियों के सामने हुई और इसे लाइव कैप्चर किया गया और बाद में समाचार चैनलों पर प्रसारित किया गया, जिससे बहुत सार्वजनिक बहस हुई।  अतीक के बेटे असद के मुठभेड़ में मारे जाने के दो दिन बाद दोनों भाई मारे गए थे.

हमलावरों पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302, शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 3, 7, 25, और 27 और अन्य प्रासंगिक धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है।  इस बीच, यूपी सरकार ने सेवानिवृत्त इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अरविंद कुमार त्रिपाठी के नेतृत्व में जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत मामले की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन किया है।

पुलिस हिरासत में अतीक और अशरफ की हत्या की स्वतंत्र जांच की मांग के अलावा, वकील विशाल तिवारी द्वारा दायर याचिका में 2017 के बाद से उत्तर प्रदेश राज्य में कथित रूप से हुई 183 मुठभेड़ों की जांच की भी मांग की गई है। याचिका में यह भी उठाया गया है।  यूपी पुलिस द्वारा यूपी के कानपुर जिले के कुख्यात अपराधी, हिस्ट्रीशीटर और गैंगस्टर से नेता बने विकास दुबे की जुलाई 2020 की मुठभेड़ के बारे में सवाल।  याचिका में तर्क दिया गया है कि "पुलिस द्वारा इस तरह की कार्रवाई लोकतंत्र और कानून के शासन के लिए एक गंभीर खतरा है और एक पुलिस राज्य की ओर ले जाती है"।  

याचिका में आगे कहा गया है कि, "पुलिस जब दुस्साहसी हो जाती है, तो कानून का पूरा शासन ध्वस्त हो जाता है और पुलिस के खिलाफ लोगों के मन में भय पैदा करता है जो लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है और आगे अपराध भी होता है ... एक लोकतांत्रिक समाज में, i पुलिस का आचरण ऐसा नहीं हो सकता है। अंतिम न्याय देने या दंड देने वाला अधिकारी बनने के इस तरीके की अनुमति दी गई है। जबकि, दंड की शक्ति केवल न्यायपालिका में निहित है।"

इतना ही नहीं, याचिका में 2020 के विकास दुबे मुठभेड़ की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीएस चौहान की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय जांच आयोग के निष्कर्षों की विश्वसनीयता को भी चुनौती देने की मांग की गई है, जिसने राज्य पुलिस को क्लीन चिट दी थी।  इस आधार पर कि गलत काम का कोई सबूत नहीं था।
विशेष रूप से, याचिका में कहा गया है कि यदि कोई अभियुक्त, जो पुलिस हिरासत में है, मारा जाता है, तो यह पुलिस की दक्षता पर संदेह पैदा करता है और 'षड्यंत्र' की बू आती है।  याचिकाकर्ता ने परिकल्पना की कि या तो अतीक और अशरफ को एक प्रतिद्वंद्वी गिरोह द्वारा मार दिया गया था, या उनकी मौत 'व्यवस्था' से जुड़े किसी 'षड्यंत्र' का परिणाम थी। 
यह लेख लाइव लॉ और बार एंड बेंच की रिपोर्टिंग पर आधारित है। 

(विजय शंकर सिंह)

भगवान सिंह / वर्ण, वर्ग और जाति (2)

पुरानी व्यवस्था में बूढ़ों के लिए असाधारण सम्मान था,  वे उसी परिवार के वयोवृद्ध, बाबा और  दादी थे।  उनके लिए अपार सम्मान था। कोई भी चीज सबसे पहले उनको दी जाती उसके बाद अन्य सदस्य खाते पीते थे। उनकी उपेक्षा या अवज्ञा नहीं हो सकती थी। परंतु उनके लिए क्रोध के रूप में, कलह के रूप में, या घास-पात, झाड़-झंखाड़ के संदर्भ में आग लगाने  का प्रयोग नहीं हो सकता था। वे ऐसे सभी कामों से विरत थे। आग लगाने का काम क्षेत्रविस्तार के लिए चौकसी करने वाले करते थे, या खेतों में उग आए घास-फूस को जलाने का काम विश के लोग करते थे। वृद्धों के लिए यदि यह संज्ञा रूढ़ रही हो तो ज्ञानी, शिक्षक, चिकित्सक और कवि की भूमिकाओं के कारण ही रही होगी। उस दशा में परिवार में  भोजपुरी में  चार जातिवाचक संज्ञाएं प्रचलित हैं - लइका, जवान, सयान और पुरनिया या बूढ़।  बालकों की शिक्षा का एक अनिवार्य नियम है बड़ों की आज्ञा का पालन करना। जिस चौथे वर्ण के शूद्र का प्रयोग होता है उसके लिए प्रजा का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में शूद्र का प्रयोग केवल एक बार हुआ है। संतान और सेवक और सहायक वर्ग के लिए  प्रजा का  बार बार हुआ है, क्योंकि सेवक भी संतान के समान थी। राजा के लिए उसके शासनाधीन सभी जन उसकी प्रजा थे। मनु के अनुसार भी गृहपति नौकर-चाकर सभी के भोजन कर लेने के बाद भोजन करता है। 

दो बातें ध्यान देने की है। पहली यह कि ऋग्वेद से समय से बहुत पहले से चतुराश्रम व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का और वर्णव्यवस्था जाति व्यवस्था का  रूप ले चुकी थी।  इसके पीछे बाहरी दबाव था, न दैवी विधान, न कर्मफल, न शोषण और उत्पीड़न।   इसके मूल में था  सुविधा और सुकरता का हाथ।  

कोई दूसरा व्यक्ति किसी को कोई ऐसी दक्षता नहीं सिखा सकता है जो उसके पास न हो, न ही उसे कोई पेशा अपनाने को बाध्य कर सकता था। इतनी शक्ति किसी राजा के पास भी नहीं कि वह दंडस्वरूप भी किसी का पेशा बदलवा सके - इसके लिए उसे ऐसे व्यक्ति को किसी ऐसे कारागार मे डालना पड़ता जिसमें उस पेशे के प्रशिक्षक होते और उसके निष्णात होने तक उसकी जीविका का प्रबंध करना होता। दंडित इसे होना था और दंड दंडित करने वाले को भोगना पड़ता। 

ऐसी स्थिति में स्मृतियों में आए उन विधानों को जिनमें किसी अपराध के लिए किसी विशेष जाति में डालने के विधान हैं कुछ  सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए।  किसी विशेष जाति की मर्यादा का उल्लंघन होने और उसे दंडनीय मानने और दंड देने का अधिकार न तो राजा के पास था, न ही ब्राह्मण के पास।  यह दंड उस जाति की पंचायत दे सकती थी और इसके नियत विधान थे - 1. सार्वजनिक भर्त्सना और प्रतिषेध; 2. अर्थदंड जो भोज का रूप ले लेता; 3. प्रायश्चित्त और सबसे बड़ा दंड था; 5.  जाति-बहिष्कार/ टाट बाहर करना या हुक्का-पानी बंद कर देना। यह विधान ब्राह्मणों से ले कर शूद्रों तक सभी में रहा है। यह देश-निकाला देने से बड़ा दंड है। जाति बहिष्कृत व्यक्ति  इसके बाद अपने को किस तरह समायोजित करेगा, यह भी कोई दूसरा नहीं सुझा सकता था।  

केवल एक स्थिति में, जिसके कारण हमने ऊपर के क्रम में चौथे को छोड़ दिया था, यह संभावना थी कि किसी को सीधे हीन जाति या वर्ण में डाल दिया जाय। यह था वैवाहिक मर्यादा का अतिक्रमण।  यदि यह सिद्ध हो कि कोई जारज संतान है, या किसी स्त्री या पुरुष का हीन वर्ण की स्त्री या पुरुष से है तो उसकी सामाजिक हैसियत स्त्री-पुरुष में जिसकी भी जाति निम्न होती, उनको उसी का वर्ण या जाति का घोषित कर दिया जाता था।  पर इस दंड-विधान से जातियां पैदा नहीं हुईं, वे जातियां पहले से थीं। इसमें व्यक्तिविशेष की जातीय हैसियत बदलती है। 

दूसरी बात यह कि शूद्रों और सेवकों की सामाजिक हैसियत में अंतर होते हुए इस अंतर के कारण आपसी कटुता नहीं थी। क्यों? यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए था।  परंतु उठाया था  जब इसकी समझ होती है।  जिज्ञासा भी  बौद्धिक स्तर के अनुरूप होती है,  और दार्शनिक समस्याओं के लिए बोध और विवेक का एक अल्पतम स्तर जरूरी है परंतु इस स्तर पर केवल प्रतिभा के बल पर नहीं पहुंचा जाता। इसके लिए श्रम और व्यवसाय की आवश्यकता होती है।  हमारे भीतर  किसी अन्य समाज की तरह  प्रतिभा की कमी नहीं थी, ज्ञान की कमी और अधिकता हुआ करती है।  ज्ञान की परिभाषाएं भी बदलती रहती हैं - एक  का ज्ञान दूसरे का अज्ञान हुआ करता है, एक का अमृत दूसरे का विष।  एक की महिमा दूसरे के दर्प को चूर कर सकती है,  इसलिए यदि  प्रभुता  दूसरे के हाथ में है तो  अपने प्रभुत्व की रक्षा के लिए  उसका पहला  प्रयत्न पहले की  महिमा को  ध्वस्त करने  का होता है।  दूसरे ने ऐसा ही किया।  इसके लिए  हम  उसके कौशल  और  अध्यवसाय की सराहना कर सकते हैं।  जिस  चरण पर  उसने हाय परास्त किया और अपना आधिपत्य कायम करने में सफल हुआ,  उस चरण पर उसकी शक्तियों और अपनी कमजोरियों, विकृतियों को समझना और उनसे सीखना होता है परंतु उनके माध्यम से अपने को जानना नहीं होता।   यह आत्मघात है। दयानंद और उनके गुरु विरजानंद में यह समझ थी, जिसे बंगाल पुनर्जागरण की इतर कारणों से जितनी भी सराहना की जाए, उसमें यह तत्व गायब था और भारत का स्वतंत्रता संग्राम बंगाल पुनर्जागरण से परिचालित रहा इसलिए वह उस नवोत्थान से पीछे रह गया जिसका आरंभ उससे पहले और बंगाल पुनर्जागरण से प्रेरित हुए आर्यसमाज ने किया।  

पर हम यहां आर्य समाज की महिमा स्थापित करने की चेष्टा नहीं कर रहे हैं अपितु यह समझने की कोशिश कर रहे हैं स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान  सीमित  प्रतिरोध  बना रह गया था,  स्वतंत्रता के बाद  नेहरूवादी  सोच के कारण  हमने और हमारे  ज्ञान के आढ़तियों ने, पश्चिम जिन क्षेत्रों में आगे बढ़ा हुआ था, उनकी नकल तो की  आत्मसात  करने का प्रयत्न नहीं किया। अपने को उनकी नजर से देखने की आदत अवश्य डाल ली।   

जातियां विभिन्न सेवाओं में से किसी के चुनाव से बनीं,  और उपजातियां कबीलाई अहंकार के कारण। आदिम समाज में जीविका-विहीन होने वाले सभी एक समान दुराग्रही नहीं थे, कोई ऐसा दर्शन नहीं था जो सर्वमान्य रहा हो। पर एक चेतना सभी को जोड़ती थी कि यदि वनसंपदा न रही तो वे मिट जाएंगे।  इसलिए कृषिकर्मिय़ों के विरोद के दार्शनिक से ले कर व्यावहारित स्तर तक कई रूप थे. परंतु जिन गणों में यज्ञ का दार्शनिक आधार पर विरोध हुआ वे बौद्धक और दार्शनिक स्तर पर कृषि के अग्रदूतों से अधिक कुशाग्र व भी माने जाएं तो दार्शनिक स्तर पर अधिक प्रबुद्ध थे। उशना या शुक्राचार्य असुरों के पुरोधा के रूप में पहले आते हैं और देवों के पुरोधा, बृहस्पति के विषय में वैदिक काल तक आशंका बनी रहती है कि  वह हैं क्या?

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh 

भाग (1)
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भगवान सिंह / वर्ण वर्ग और जाति (1)

जिस देव या ब्राह्मण ने खेती की दिशा में पहल की थी उसकी प्रकृति दूसरे गणों जैसी ही थी। गणों की विशेषता है समानता (जात्या, सदृशा सर्वे कुलेन सदृशस्तथा । न तु शौर्येण बुद्ध्या वा रूपद्रव्येण वा पुनः । महाभारत, 12.108.30)   ऋग्वेद में मरूद्गणों के संदर्भ में इसी समानता को चिन्हित किया गया था (अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या नो अच्छा जिगातन ।। ऋ. 5.59.6)  अर्थात् इसके सदस्यों में किसी तरह का भेदभाव न था। सुंदरता, शौर्य या बुद्धिमता या किसी अन्य गुण के मामले में कुछ लोग विशेष होते थे, इसकी सराहना भी की जाती थी, उन पर पूरा गण  गर्व अनुभव करता था। देव कुल या परिं वार में कृषि उत्पादन अपनाने के कारण गणपति या गण का नेतृत्व करने वाले की भूमिका बदल गई।  गणपति  की भूमिका अपने घर की सुरक्षा करने की थी, और इसलिए गणपति का  साहसी और युवक होना जरूरी था।  

किसानी की ओर बढ़ने वालों को कृषिविद्या में पैदा होने वाली समस्याओं का समाधान करने वाले किसी अनुभवी परमर्शदाता की जरूरत थी। उसका युवा नहीं बुद्धिमान और वयोवृद्ध होना जरूरी था। इसका नेतृत्व गणपति के स्थान पर कुलपति ने ले लिया था। गणपति इसमें सवीकार्य हुए भी तो पुष्टिवर्धन या अन्नदाता के रूप में ही। इस परिवर्तन या समायोजन की प्रक्रिया से हम अपरिचित हैं, पर गणपति के प्रतीक गजराज पर मनुष्य के सवारी करने और अंकुश से उसे नियंत्रित करने की प्रक्रिया और विद्रोही असुरों पर देवों के भारी पड़ने से इसका संबंध हो सकता है।
  
ऐसा लगता है झूम खेती के चरण पर जब वे असुरों के उपद्रव के कारण यहां वहां भागते फिर रहे थे तभी कई इतर गणों के कुछ लोगों को कृषि पर निर्भरता अधिक सुुरक्षित लगी थी। हमारे पास ऐसा सोचने का आधार यह है कि कुलपति के समकक्ष एक दूसरा शब्द सास (शासिका) भी आज तक आधिकारिक रंगत को बनाए हुए है, जिसके महत्व को इसलिए नहीं समझा गया कि हमारा समाज आठ-नौ हजार साल पहले ही पुरुष प्रधान हो गया था। यदि हमारा यह अनुमान सही है तो इसका मतलब है कृषि की पहल जिसने भी की हो, पर आरम्भिक चरण पर कई भाषाई समुदायों के लोग कृषि की ओर आकर्षित हुए थे जिनमें से कुछ मातृ प्रधान और कुछ पितृ प्रधान थे। हम यहां इस बहस में नहीं पढ़ना चाहेंगे कि मानव समाज आदि अवस्था में पितृ प्रधान था या मातृ प्रधान। कारण कौन किसका पिता है इसका निर्णय उस अवस्था में संभव नहीं था।  मां की पहचान अवश्य आसान थी। यह जीव वैज्ञानिक समस्या नहीं है, इसलिए किसी समूह के सभी लड़के या लड़कियां आपस में भाई  बहन हुआ करते थे । हम जिस अवस्था की बात कर रहे हैं वह उस आदि अवस्था से हजारों साल आगे बढ़ा हुआ था। पर यह पहचान तक सीमित थी। सत्तावादी व्यवस्था बाद में आई और जिन समुदायों के पुरुषों को शिकार, पशुओंं की चरवाही, नौवहन आदि के कारण दिनों महीनों परिवार से दूर रहना पड़ता था उनमें पारिवारिक दायित्व वरिष्ठ स्त्री को ही निभाना पड़ता था, मातृसत्ताक समाजों का यह प्रधान कारण रहा है।  पुरुषप्रधानता के लिए स्थायी निवास और जीविका का स्थायी साधन जरूरी था। और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए स्वावलंबन जरूरी है। प्रधानता अर्थमूलक है। 
 
जिस बात की ओर हम ध्यान दिलाना चाहते हैं  वह यह कि कृषि विद्या आहार संग्रह की तुलना में अधिक जटिल है और जिन परिस्थितियों में  खेती आरंभ हुई,   उनमें सबसे कठिन काम फसलों की रखवाली का था, जिसमें रात दिन चौकसी रखनी पड़ती थी।  हिरनों के झुंड, गवल (घोड़रोज/ नीलगाय) के झुंड, अरनाभैंसों  के झुंड, गयन्द (गैंड़ों) के दल रात के अंधेरे में तो आग के लुकाठों से ही डरा कर भगाए जा सकते थे परंतु दिन की रोशनी में दुकानों की चमक दिखाई नहीं दे सकती थी।  इस चौकशी के बिना खेती संभव नहीं थी,   इसलिए इस काम पर कुल के सबसे साहसी  युवकों को लगाया जाता था और उनकी देखभाल भी कुछ विशेष रूप में की जाती थी  जैसे सामान्य परिवारों में यदि कोई पहलवानी करता है तो परिवार के लोग उसके खानपान का  सहज भाव से विशेष ध्यान रखते हैं।  इसे हम आज के शब्दों में क्षत्रिय कह सकते हैं। इसके संरक्षण में विश या कुल दूसरे लोग जमीन की सफाई  गोड़ाई, बोआई, सिंचाई, कटाई,  अनाज का भंडारण प्रसाधन और दूसरे काम करते थे।   काम करने में अशक्त वृद्धजन और महिलाएं खेती के श्रम से मुक्त थे और वह शिशुओं  और बाल को की देखभाल,  उनका मनोरंजन दीवारों की देखभाल ।  इस तरह इस समाज में कार्य विभाजन तो था ।   वर्ण का अर्थ है विभाजन,  यह,  एक आंतरिक  कार्य विभाजन था  जो परिवारों में भी देखने में आता है।   यह एक बड़ा परिवार था और इसमें कोई शूद्र नहीं था।   इसलिए गीता का यह कथन कि ‘चातुर्वर्ण्यम्‌ मया  सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’ सीमित सार्थकता रखता है, यह देवी विधान नहीं था परिस्थितियों की देन था,  और विभाजन  मूलतः  तीन  तरह के दायित्वों का पर्याय था जिसमें किसी तरह का अलगाव न था। सभी की एक ही संज्ञा थी । इसे वर्ण व्यवस्था कहने की जगह श्रम व्यवस्था कहना चाहिए। रोचक है कि आश्रम व्यवस्था पहले आई और वर्ण व्यवस्था उसके बाद। 

जिस देव समाज की बात हम कर रहे हैं वह ऋग्वेद से भी कई हजार साल पहले की सच्चाई है। गणव्यवस्था में साम्य था।  परंतु उसके ओझा भेदभाव - मुक्त गणों के बीच होते हुए भी अपने को दूसरों से ऊपर और अलग रखना और दीखना चाहता था और अलग बनाए रखता था।  यह एक बहुव्यापी प्रवत्ति थी और इसमें छिपा है अनन्य होने की कामना और इसके लिए कोई भी क्लेश सहने का संकल्प। इनके लिए प्रयुक्त संज्ञाएं - ओझा, सोखा, तांत्रिक, मांत्रिक, और शामन(सर्वविद्) सभी अपर्याप्त हैं पर शामन (shaman) का प्रयोग व्यापक है इसलिए हम इसकी परिभाषा पर ध्यान दें:
a person regarded as having access to, and influence in, the world of good and evil spirits, especially among some peoples of northern Asia and North America. Typically such people enter a trance state during a ritual, and practise divination and healing.
 
भेदमूलक वर्ण की स्थापना में इनकी भूमिका निर्णायक है, क्योकि ये समतामूलक गणसमाज में भी अपने को दूसरों से अलग और ऊपर समझते थे, और इस अंतर को बनाए रखने के लिए अपनी आजीविका के लिए जो उपाय सामान्य जन करते थे, अपनी विशिष्टता की रक्षा के लिए उन से परहेज करते थे,  यद्यपि  उनके चढ़ावे पर ही पलते थे। पर इसके लिए कृतज्ञता नहीं ज्ञापित करता था।  चढ़ावा उसकी अपेक्षा से बहुत अधिक मिलता था,  इसलिए वह अपनी जरूरत से अधिक को दूसरों को बांटते हुए यह दिखाने का प्रयत्न करता था कि उसको किसी तरह की आसक्ति नहीं। उसके दानसे दूसरे सभी पलते हैं।  

इसी ने साधनहीन होने के बाद जब किसानों असंभव को संभव करने की अपनी शक्ति के बल पर  बूढ़े, बुद्धिमान वर्ग में प्रवेश किया तो वृद्ध न होते हुए भी वृद्ध बन गया, आयु की सीमा तोड़ कर बाबा बन गया। ब्राह्मण पैदा होते ही बाबा बन जाता है।    बाबा के रूप में शिशु का पैदा होना, मतवा के रुप में बालिका पैदा होना दुनिया में कहीं नहीं होता, ब्राह्मणों जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते।

परंतु अपने को दूसरों से अलग और ऊपर दिखाने के लिए पुराने शामन ने जो  यह दिखावा किया कि  धन-दौलत में  उसकी कोई रुचि नहीं है, ‘न वै ब्राह्मणाय श्री रमते’, यह एक ऐसी भूल थी जिसकी त्रासदी इस  ब्राह्मण को  इस सीमा तक झेलनी पड़ी कि वह   साधन हीन हो कर  किसानों की  सेवा में आने वाले, परंतु किसानी से परहेज करने वाले, अपने ही पुराने स्वजनों से घृणा पालनी पड़ी। 

सबसे रोचक बात यह है कि जन्मना जाति की अवधारणा के विकास में प्रधान भूमिका इन दक्ष कर्मियों की थी क्योंकि कोई भी कौशल पिता-पुत्र क्रम से ही सिखाया जाता रहा है और यदि किसी अन्य दक्षता वाले परिवार में कोई बालक दूसरी दक्षता की ओर आकर्षित होता था तो उसे उस विशेषज्ञता के निष्णात व्यक्ति की शिष्यता ग्रहण करनी होती थी और उसे अपनी पात्रता प्रमाणित करने के बाद लगभग आज्ञापालक (हुक्म का गुलाम)  बन कर रहना पड़ता था।  संगीत, नृत्य में यदि यह परंपरा भारत में आज तक जीवित है तो इसलिए कि संंगीत, नृत्य, अभिनय में किसानों की अपनी रुचि हो ही नहीं सकती थी जब कि आटविक समुदायों में विविध जन-  किन्नर, यक्ष, गंधर्व  विविध कलाओं के लिए विख्यात रहे हैं।  ये मान्यताएं और इनके जन्मना विशेष होने के यथार्थ को आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक विवशताओं   के संदर्भ में परखा जाना चाहिए।

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh 

क्या पीएम केयर्स फंड एक अपारदर्शी और रहस्यमय फंड है? / विजय शंकर सिंह

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, ऐसी 57, सरकार की बड़ी हिस्सेदारी वाली कंपनियों का योगदान PM CARES में दान देने वाली करीब 247 अन्य निजी कंपनियों की तुलना मे अ​धिक है। दान की कुल रकम 4,910.50 करोड़ रुपए (सरकारी एवं निजी कंपनियों) में सरकारी कंपनियों का योगदान 59.3% रहा है। यह सूचना नैशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों पर नजर रखने वाली फर्म प्राइमइन्फोबेस डॉट कॉम  द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर है। इन 57 कंपनियों में से शीर्ष 5 कंपनियों में ओएनजीसी ONGC (370 करोड़ रुपए), एनटीपीसी NTPC (330 करोड़ रुपए), पावरग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (275 करोड़ रुपए), इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (265 करोड़ रुपए) और पावर फाइनैंस कॉरपोरेशन (222.4 करोड़ रुपए) शामिल हैं।

कोरोना वायरस से लड़ने के लिए जनता से आर्थिक मदद प्राप्त करने के लिए 27 मार्च 2020 को पीएम केयर्स फंड का गठन किया गया था, लेकिन तभी से यह फंड अपने कामकाज में अत्यधिक गोपनीयनता बरतने को लेकर आलोचनाओं को घेरे मे है। 2020 में जब यह फंड बनाया गया था तब जिन महत्वपूर्ण सरकती कंपनियों ने योगदान किया था के कुछ आंकड़े इस प्रकार हैं। यह आंकड़े, फंड के गठन के तत्काल बाद के और केंद्र सरकार के 50 विभागों का है जो तब के इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर से लिया गया है। 

157.23 करोड़ रुपये के इस अनुदान में से 93 प्रतिशत से अधिक की धनराशि यानी क़रीब 146 करोड़ रुपये अकेले रेलवे के कर्मचारियों के वेतन से दान किए गए हैं। इंडियन एक्सप्रेस द्वारा सूचना का अधिकार कानून यानी कि आरटीआई एक्ट के तहत प्राप्त की गई जानकारी के मुताबिक इस राशि में से 146.72 करोड़ रुपये अकेले रेलवे से दान किए गए हैं। यह केंद्रीय कर्मचारियों द्वारा कुल 157.23 करोड़ रुपये के अनुदान का 93 फीसदी से अधिक है। यह अंशदान रेलवे कर्मचारियों के द्वारा किया गया है। आरटीआई की यह सूचना रेलवे से अखबार ने जुटाई थी।

इसके बाद दूसरे नंबर पर अंतरिक्ष विभाग है, जिसके कर्मचारियों के वेतन से पीएम केयर्स फंड में 5.18 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया था। विभाग ने इस अंशदान के बारे में तब यह भी बताया था कि, यह धनराशि, कर्मचारियों ने अपने स्तर पर दान की है। पर्यावरण विभाग की ओर से 1.14 करोड़ रुपये का योगदान दिया गया है।

विभिन्न मंत्रालय और विभागों की ओर पीएम केयर्स फंड में दान की गई राशि. (स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस) पीएमओ ने कहा है कि पीएम केयर्स फंड आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत ‘पब्लिक अथॉरिटी’ नहीं है, क्योंकि इसका गठन केंद्र सरकार या किसी सरकारी आदेश के जरिये नहीं हुआ है. इस आधार पर प्रधानमंत्री कार्यालय पीएम केयर्स से जुड़ी कोई भी जानकारी को आरटीआई एक्ट के तहत सार्वजनिक करने से इनकार कर रहा है। लेकिन जब आलोचना होने लगी और इस फंड को लेकर, तमाम आपत्तियां उठने लगीं तो, लंबे समय के बाद पीएम केयर्स ने सिर्फ यह जानकारी दी है कि "इस फंड को बनने के पांच दिन के भीतर यानी कि 27 मार्च से 31 मार्च 2020 के बीच में कुल 3076.62 करोड़ रुपये का डोनेशन प्राप्त हुआ है।" इसमें से करीब 40 लाख रुपये विदेशी चंदा है। आरटीआई के जरिये पता चला था कि महारत्न से लेकर नवरत्न तक देश भर के कुल 38 सार्वजनिक उपक्रमों यानी कि पीएसयू या सरकारी कंपनियों ने पीएम केयर्स फंड में 2,105 करोड़ रुपये से ज्यादा की सीएसआर राशि दान की थी। 

तब सार्वजनिक उपक्रम ओएनजीसी ने सबसे ज्यादा 300 करोड़ रुपये, एनटीपीसी ने 250 करोड़ रुपये, इंडियन ऑयल ने 225 करोड़ रुपये, की सीएसआर राशि पीएम केयर्स फंड में डोनेट की थी। नियम के मुताबिक, सीएसआर राशि को उन कार्यों में खर्च करना होता है, जिससे लोगों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, नैतिक और स्वास्थ्य आदि में सुधार हो तथा आधारभूत संरचना, पर्यावरण और सांस्कृतिक विषयों को बढ़ाने में मदद मिल सके। 

इंडियन एक्सप्रेस की ही एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक आरबीआई के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के कम से कम सात बैंकों और सात अन्य शीर्ष वित्तीय व बीमा संस्थाओं ने अपने कर्मचारियों के वेतन से कुल मिलाकर 204.75 करोड़ रुपये की राशि पीएम केयर्स फंड में दान की है.इसके अलावा कई केंद्रीय शिक्षण संस्थानों ने अपने स्टाफ की सैलरी से पीएम केयर्स में 21.81 करोड़ रुपये की राशि दान की थी। 

कोरोना महामारी के दौरान स्थापित इस PM CARES फंड के चेयरमैन खुद प्रधानमंत्री हैं। पीएम केयर्स फंड की कानूनी स्थिति पर, दिल्ली हाईकोर्ट में प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने दिल्ली उच्च न्यायालय को सूचित किया है कि पीएम केयर फंड भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत "राज्य" नहीं है और सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत "सार्वजनिक प्राधिकरण" के रूप में गठित नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 12 में राज्य की परिभाषा दी गई है। पीएमओ ने उसी परिभाषा का उल्लेख किया है। 

पीएमओ के अवर सचिव द्वारा दायर हलफनामे में कहा गया है कि, 
"पीएम केयर्स फंड को एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट के रूप में स्थापित किया गया है और यह भारत के संविधान या संसद या किसी राज्य विधानमंडल द्वारा या उसके तहत नहीं बनाया गया है। इस ट्रस्ट का, न तो, भविष्य में कोई सरकारी मदद लेने का इरादा है, और न ही यह किसी सरकार के स्वामित्व, नियंत्रण से किसी संस्था द्वारा वित्तपोषित ही है।साथ ही, न ही यह सरकार का कोई संसाधन है।"
यानी इस फंड का सरकार से कोई संबंध नहीं है। हलफनामे में आगे कहा गया है कि "ट्रस्ट के कामकाज में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार या किसी भी राज्य सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।"

हलफनामा में यह भी कहा है कि, "पीएम केयर्स फंड केवल व्यक्तियों और संस्थानों द्वारा स्वैच्छिक दान स्वीकार करता है और यह फंड, सरकार के बजटीय स्रोतों या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की बैलेंस शीट से आने वाले योगदान को स्वीकार नहीं करता है। PMCARES फंड/ट्रस्ट में किए गए योगदान को आयकर अधिनियम, 1961 के तहत छूट दी गई है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाला जाना उचित नहीं है कि, यह एक "सार्वजनिक प्राधिकरण" है।"

पीएमओ ने हलफनामे में इसे और स्पष्ट किया और आगे कहा है कि, "फंड को सार्वजनिक प्राधिकरण नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जिस कारण से इसे बनाया गया था वह "विशुद्ध रूप से धर्मार्थ" है और न तो इस फंड का उपयोग किसी सरकारी परियोजना के लिए किया जाता है और, न ही ट्रस्ट सरकार की किसी भी नीति से शासित होता है। इसलिए, पीएम केयर्स को 'पब्लिक अथॉरिटी' के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। इस फंड के योगदान के साथ, भारत के समेकित कोष का कोई दूर दूर तक, कोई संबंध भी नहीं है।” 

यह कहते हुए कि, "फंड या ट्रस्ट सरकार के किसी निर्णय या कार्य के लिए अपनी गठन का श्रेय नहीं देता है।" हलफनामे में यह सप्ष्ट किया गया है कि, "पीएम केयर फंड का कोई सरकारी चरित्र नहीं है "क्योंकि फंड से राशि के वितरण के लिए, सरकार द्वारा कोई दिशानिर्देश निर्धारित नहीं किया जा सकता है। पीएम केयर्स ट्रस्ट में किए गए योगदान को अन्य निजी ट्रस्टों की तरह आयकर अधिनियम के तहत छूट प्राप्त है। यह एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट है जिसमें व्यक्तियों और संस्थानों द्वारा किए गए स्वैच्छिक दान शामिल हैं और यह केंद्र सरकार का कोई व्यवसाय नहीं है।  इसके अलावा, पीएम केयर फंड को सरकार द्वारा धन या वित्त प्राप्त नहीं होता है।"

हलफनामा में यह भी कहा गया है कि "फंड से स्वीकृत अनुदान के साथ-साथ पीएम केयर फंड की वेबसाइट "pmcares.gov.in" पर सार्वजनिक डोमेन में, सभी जानकारियां उपलब्ध है और इसकी ऑडिटेड रिपोर्ट पहले से ही वेबसाइट पर उपलब्ध है। बाद में खातों के ऑडिट किए गए विवरण भी वेबसाइट पर उपलब्ध कराए जाएंगे, जब भी देय होगा।  इसलिए, मनमानी या गैर-पारदर्शिता के बारे में याचिकाकर्ता की धारणा उचित नहीं है।” 

पीएमओ ने यह भी तर्क दिया है कि "पीएम केयर्स फंड को प्रधान मंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (PMNRF) की तर्ज पर प्रशासित किया जाता है क्योंकि दोनों की अध्यक्षता प्रधान मंत्री करते हैं। जैसे राष्ट्रीय प्रतीक और डोमेन नाम 'gov.in' का उपयोग PMNRF के लिए किया जा रहा है, उसी तरह PM CARES फंड के लिए भी उपयोग किया जा रहा है।"
अंत में, हलफनामे ने यह कहा कि, "न्यासी बोर्ड की संरचना जिसमें सार्वजनिक पद के धारक, (यानी प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री आदि) पदेन रूप से शामिल हैं, तो, यह केवल प्रशासनिक सुविधा के लिए और ट्रस्टीशिप के सुचारू उत्तराधिकार के लिए है और इसका, सरकार के नियंत्रण का न तो कोई इरादा है और न ही वास्तव में इसका कोई उद्देश्य।"

पीएम केयर्स फंड की वेबसाइट के अनुसार साल 2019-20 में इसे कुल 3,076.60 करोड़ रुपए प्राप्त हुए। 2020-21 में यह रकम बढ़कर 10,990.20 करोड़ रुपए हो गई। यहीं यह जिज्ञासा उठती है कि हजारों करोड़ का यह फंड कहां गया? अगर प्रधानमंत्री खुद इसके चेयरमैन हैं तो इसका ऑडिट क्यों नहीं होने दिया गया? अगर यह भारत सरकार द्वारा नियंत्रित फंड नहीं है तो प्रधानमंत्री इसके चेयरमैन क्यों बने बैठे हैं? प्रधानमंत्री पद पर बैठकर कोई व्यक्ति निजी फंड कैसे बना सकता है? इस फंड के बारे में आरटीआई के जरिये किसी तरह की जानकारी क्यों नहीं दी जाती?

पारदर्शिता को लेकर सरकार का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। यहां तक कि अदालत में, अदालत द्वारा तलब किए रिकॉर्ड को भी सरकार, यही कोशिश करती है कि उसे अदालत में कोई रिकॉर्ड न देना पड़े। ताजा मामला बिल्किस बानो की याचिका के संदर्भ में, सरकार ने, ग्यारह सजायाफ्ता कैदियों को समय से पूर्व रिहा करने से संबंधित, गुजरात और केंद्र सरकार की फाइलों को, सर्वोच्च न्यायालय में, इस मामले की सुनवाई कर रही पीठ द्वारा पूछे जाने पर,   न दिखाने के लिए समीक्षा आवेदन देने की बात कही है। यही दांव, पेगासस जांच कमेटी को पूरे दस्तावेज ने दिखाने के संदर्भ में भी आजमाया गया। सरकार का यह अपारदर्शी रवैया पीएम केयर्स को और भी अधिक रहस्यमय बनाता है। 

(विजय शंकर सिंह)


Thursday 27 April 2023

भगवान सिंह / वर्ण, वर्ग और जाति (2)

पुरानी व्यवस्था में बूढ़ों के लिए असाधारण सम्मान था,  वे उसी परिवार के वयोवृद्ध, बाबा और  दादी थे।  उनके लिए अपार सम्मान था। कोई भी चीज सबसे पहले उनको दी जाती उसके बाद अन्य सदस्य खाते पीते थे। उनकी उपेक्षा या अवज्ञा नहीं हो सकती थी। परंतु उनके लिए क्रोध के रूप में, कलह के रूप में, या घास-पात, झाड़-झंखाड़ के संदर्भ में आग लगाने  का प्रयोग नहीं हो सकता था। वे ऐसे सभी कामों से विरत थे। आग लगाने का काम क्षेत्रविस्तार के लिए चौकसी करने वाले करते थे, या खेतों में उग आए घास-फूस को जलाने का काम विश के लोग करते थे। वृद्धों के लिए यदि यह संज्ञा रूढ़ रही हो तो ज्ञानी, शिक्षक, चिकित्सक और कवि की भूमिकाओं के कारण ही रही होगी। उस दशा में परिवार में  भोजपुरी में  चार जातिवाचक संज्ञाएं प्रचलित हैं - लइका, जवान, सयान और पुरनिया या बूढ़।  बालकों की शिक्षा का एक अनिवार्य नियम है बड़ों की आज्ञा का पालन करना। जिस चौथे वर्ण के शूद्र का प्रयोग होता है उसके लिए प्रजा का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में शूद्र का प्रयोग केवल एक बार हुआ है। संतान और सेवक और सहायक वर्ग के लिए  प्रजा का  बार बार हुआ है, क्योंकि सेवक भी संतान के समान थी। राजा के लिए उसके शासनाधीन सभी जन उसकी प्रजा थे। मनु के अनुसार भी गृहपति नौकर-चाकर सभी के भोजन कर लेने के बाद भोजन करता है। 

दो बातें ध्यान देने की है। पहली यह कि ऋग्वेद से समय से बहुत पहले से चतुराश्रम व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का और वर्णव्यवस्था जाति व्यवस्था का  रूप ले चुकी थी।  इसके पीछे बाहरी दबाव था, न दैवी विधान, न कर्मफल, न शोषण और उत्पीड़न।   इसके मूल में था  सुविधा और सुकरता का हाथ।  
कोई दूसरा व्यक्ति किसी को कोई ऐसी दक्षता नहीं सिखा सकता है जो उसके पास न हो, न ही उसे कोई पेशा अपनाने को बाध्य कर सकता था। इतनी शक्ति किसी राजा के पास भी नहीं कि वह दंडस्वरूप भी किसी का पेशा बदलवा सके - इसके लिए उसे ऐसे व्यक्ति को किसी ऐसे कारागार मे डालना पड़ता जिसमें उस पेशे के प्रशिक्षक होते और उसके निष्णात होने तक उसकी जीविका का प्रबंध करना होता। दंडित इसे होना था और दंड दंडित करने वाले को भोगना पड़ता। 

ऐसी स्थिति में स्मृतियों में आए उन विधानों को जिनमें किसी अपराध के लिए किसी विशेष जाति में डालने के विधान हैं कुछ  सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए।  किसी विशेष जाति की मर्यादा का उल्लंघन होने और उसे दंडनीय मानने और दंड देने का अधिकार न तो राजा के पास था, न ही ब्राह्मण के पास।  यह दंड उस जाति की पंचायत दे सकती थी और इसके नियत विधान थे - 1. सार्वजनिक भर्त्सना और प्रतिषेध; 2. अर्थदंड जो भोज का रूप ले लेता; 3. प्रायश्चित्त और सबसे बड़ा दंड था; 5.  जाति-बहिष्कार/ टाट बाहर करना या हुक्का-पानी बंद कर देना। यह विधान ब्राह्मणों से ले कर शूद्रों तक सभी में रहा है। यह देश-निकाला देने से बड़ा दंड है। जाति बहिष्कृत व्यक्ति  इसके बाद अपने को किस तरह समायोजित करेगा, यह भी कोई दूसरा नहीं सुझा सकता था।  

केवल एक स्थिति में, जिसके कारण हमने ऊपर के क्रम में चौथे को छोड़ दिया था, यह संभावना थी कि किसी को सीधे हीन जाति या वर्ण में डाल दिया जाय। यह था वैवाहिक मर्यादा का अतिक्रमण।  यदि यह सिद्ध हो कि कोई जारज संतान है, या किसी स्त्री या पुरुष का हीन वर्ण की स्त्री या पुरुष से है तो उसकी सामाजिक हैसियत स्त्री-पुरुष में जिसकी भी जाति निम्न होती, उनको उसी का वर्ण या जाति का घोषित कर दिया जाता था।  पर इस दंड-विधान से जातियां पैदा नहीं हुईं, वे जातियां पहले से थीं। इसमें व्यक्तिविशेष की जातीय हैसियत बदलती है। 

दूसरी बात यह कि शूद्रों और सेवकों की सामाजिक हैसियत में अंतर होते हुए इस अंतर के कारण आपसी कटुता नहीं थी। क्यों? यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए था।  परंतु उठाया था  जब इसकी समझ होती है।  जिज्ञासा भी  बौद्धिक स्तर के अनुरूप होती है,  और दार्शनिक समस्याओं के लिए बोध और विवेक का एक अल्पतम स्तर जरूरी है परंतु इस स्तर पर केवल प्रतिभा के बल पर नहीं पहुंचा जाता। इसके लिए श्रम और व्यवसाय की आवश्यकता होती है।  हमारे भीतर  किसी अन्य समाज की तरह  प्रतिभा की कमी नहीं थी, ज्ञान की कमी और अधिकता हुआ करती है।  ज्ञान की परिभाषाएं भी बदलती रहती हैं - एक  का ज्ञान दूसरे का अज्ञान हुआ करता है, एक का अमृत दूसरे का विष।  एक की महिमा दूसरे के दर्प को चूर कर सकती है,  इसलिए यदि  प्रभुता  दूसरे के हाथ में है तो  अपने प्रभुत्व की रक्षा के लिए  उसका पहला  प्रयत्न पहले की  महिमा को  ध्वस्त करने  का होता है।  दूसरे ने ऐसा ही किया।  इसके लिए  हम  उसके कौशल  और  अध्यवसाय की सराहना कर सकते हैं।  जिस  चरण पर  उसने हाय परास्त किया और अपना आधिपत्य कायम करने में सफल हुआ,  उस चरण पर उसकी शक्तियों और अपनी कमजोरियों, विकृतियों को समझना और उनसे सीखना होता है परंतु उनके माध्यम से अपने को जानना नहीं होता।   यह आत्मघात है। दयानंद और उनके गुरु विरजानंद में यह समझ थी, जिसे बंगाल पुनर्जागरण की इतर कारणों से जितनी भी सराहना की जाए, उसमें यह तत्व गायब था और भारत का स्वतंत्रता संग्राम बंगाल पुनर्जागरण से परिचालित रहा इसलिए वह उस नवोत्थान से पीछे रह गया जिसका आरंभ उससे पहले और बंगाल पुनर्जागरण से प्रेरित हुए आर्यसमाज ने किया।  

पर हम यहां आर्य समाज की महिमा स्थापित करने की चेष्टा नहीं कर रहे हैं अपितु यह समझने की कोशिश कर रहे हैं स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान  सीमित  प्रतिरोध  बना रह गया था,  स्वतंत्रता के बाद  नेहरूवादी  सोच के कारण  हमने और हमारे  ज्ञान के आढ़तियों ने, पश्चिम जिन क्षेत्रों में आगे बढ़ा हुआ था, उनकी नकल तो की  आत्मसात  करने का प्रयत्न नहीं किया। अपने को उनकी नजर से देखने की आदत अवश्य डाल ली।   

जातियां विभिन्न सेवाओं में से किसी के चुनाव से बनीं,  और उपजातियां कबीलाई अहंकार के कारण। आदिम समाज में जीविका-विहीन होने वाले सभी एक समान दुराग्रही नहीं थे, कोई ऐसा दर्शन नहीं था जो सर्वमान्य रहा हो। पर एक चेतना सभी को जोड़ती थी कि यदि वनसंपदा न रही तो वे मिट जाएंगे।  इसलिए कृषिकर्मिय़ों के विरोद के दार्शनिक से ले कर व्यावहारित स्तर तक कई रूप थे. परंतु जिन गणों में यज्ञ का दार्शनिक आधार पर विरोध हुआ वे बौद्धक और दार्शनिक स्तर पर कृषि के अग्रदूतों से अधिक कुशाग्र व भी माने जाएं तो दार्शनिक स्तर पर अधिक प्रबुद्ध थे। उशना या शुक्राचार्य असुरों के पुरोधा के रूप में पहले आते हैं और देवों के पुरोधा, बृहस्पति के विषय में वैदिक काल तक आशंका बनी रहती है कि  वह हैं क्या?

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh 

भाग (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/04/1_27.html

भगवान सिंह / वर्ण, वर्ग और जाति (1)

जिस देव या ब्राह्मण ने खेती की दिशा में पहल की थी उसकी प्रकृति दूसरे गणों जैसी ही थी। गणों की विशेषता है समानता (जात्या, सदृशा सर्वे कुलेन सदृशस्तथा । न तु शौर्येण बुद्ध्या वा रूपद्रव्येण वा पुनः । महाभारत, 12.108.30)   ऋग्वेद में मरूद्गणों के संदर्भ में इसी समानता को चिन्हित किया गया था (अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या नो अच्छा जिगातन ।। ऋ. 5.59.6)  अर्थात् इसके सदस्यों में किसी तरह का भेदभाव न था। सुंदरता, शौर्य या बुद्धिमता या किसी अन्य गुण के मामले में कुछ लोग विशेष होते थे, इसकी सराहना भी की जाती थी, उन पर पूरा गण  गर्व अनुभव करता था। देव कुल या परिं वार में कृषि उत्पादन अपनाने के कारण गणपति या गण का नेतृत्व करने वाले की भूमिका बदल गई।  गणपति  की भूमिका अपने घर की सुरक्षा करने की थी, और इसलिए गणपति का  साहसी और युवक होना जरूरी था।  

किसानी की ओर बढ़ने वालों को कृषिविद्या में पैदा होने वाली समस्याओं का समाधान करने वाले किसी अनुभवी परमर्शदाता की जरूरत थी। उसका युवा नहीं बुद्धिमान और वयोवृद्ध होना जरूरी था। इसका नेतृत्व गणपति के स्थान पर कुलपति ने ले लिया था। गणपति इसमें सवीकार्य हुए भी तो पुष्टिवर्धन या अन्नदाता के रूप में ही। इस परिवर्तन या समायोजन की प्रक्रिया से हम अपरिचित हैं, पर गणपति के प्रतीक गजराज पर मनुष्य के सवारी करने और अंकुश से उसे नियंत्रित करने की प्रक्रिया और विद्रोही असुरों पर देवों के भारी पड़ने से इसका संबंध हो सकता है।
  
ऐसा लगता है झूम खेती के चरण पर जब वे असुरों के उपद्रव के कारण यहां वहां भागते फिर रहे थे तभी कई इतर गणों के कुछ लोगों को कृषि पर निर्भरता अधिक सुुरक्षित लगी थी। हमारे पास ऐसा सोचने का आधार यह है कि कुलपति के समकक्ष एक दूसरा शब्द सास (शासिका) भी आज तक आधिकारिक रंगत को बनाए हुए है, जिसके महत्व को इसलिए नहीं समझा गया कि हमारा समाज आठ-नौ हजार साल पहले ही पुरुष प्रधान हो गया था। यदि हमारा यह अनुमान सही है तो इसका मतलब है कृषि की पहल जिसने भी की हो, पर आरम्भिक चरण पर कई भाषाई समुदायों के लोग कृषि की ओर आकर्षित हुए थे जिनमें से कुछ मातृ प्रधान और कुछ पितृ प्रधान थे। हम यहां इस बहस में नहीं पढ़ना चाहेंगे कि मानव समाज आदि अवस्था में पितृ प्रधान था या मातृ प्रधान। कारण कौन किसका पिता है इसका निर्णय उस अवस्था में संभव नहीं था।  मां की पहचान अवश्य आसान थी। यह जीव वैज्ञानिक समस्या नहीं है, इसलिए किसी समूह के सभी लड़के या लड़कियां आपस में भाई  बहन हुआ करते थे । हम जिस अवस्था की बात कर रहे हैं वह उस आदि अवस्था से हजारों साल आगे बढ़ा हुआ था। पर यह पहचान तक सीमित थी। सत्तावादी व्यवस्था बाद में आई और जिन समुदायों के पुरुषों को शिकार, पशुओंं की चरवाही, नौवहन आदि के कारण दिनों महीनों परिवार से दूर रहना पड़ता था उनमें पारिवारिक दायित्व वरिष्ठ स्त्री को ही निभाना पड़ता था, मातृसत्ताक समाजों का यह प्रधान कारण रहा है।  पुरुषप्रधानता के लिए स्थायी निवास और जीविका का स्थायी साधन जरूरी था। और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए स्वावलंबन जरूरी है। प्रधानता अर्थमूलक है। 
 
जिस बात की ओर हम ध्यान दिलाना चाहते हैं  वह यह कि कृषि विद्या आहार संग्रह की तुलना में अधिक जटिल है और जिन परिस्थितियों में  खेती आरंभ हुई,   उनमें सबसे कठिन काम फसलों की रखवाली का था, जिसमें रात दिन चौकसी रखनी पड़ती थी।  हिरनों के झुंड, गवल (घोड़रोज/ नीलगाय) के झुंड, अरनाभैंसों  के झुंड, गयन्द (गैंड़ों) के दल रात के अंधेरे में तो आग के लुकाठों से ही डरा कर भगाए जा सकते थे परंतु दिन की रोशनी में दुकानों की चमक दिखाई नहीं दे सकती थी।  इस चौकशी के बिना खेती संभव नहीं थी,   इसलिए इस काम पर कुल के सबसे साहसी  युवकों को लगाया जाता था और उनकी देखभाल भी कुछ विशेष रूप में की जाती थी  जैसे सामान्य परिवारों में यदि कोई पहलवानी करता है तो परिवार के लोग उसके खानपान का  सहज भाव से विशेष ध्यान रखते हैं।  इसे हम आज के शब्दों में क्षत्रिय कह सकते हैं। इसके संरक्षण में विश या कुल दूसरे लोग जमीन की सफाई  गोड़ाई, बोआई, सिंचाई, कटाई,  अनाज का भंडारण प्रसाधन और दूसरे काम करते थे।   काम करने में अशक्त वृद्धजन और महिलाएं खेती के श्रम से मुक्त थे और वह शिशुओं  और बाल को की देखभाल,  उनका मनोरंजन दीवारों की देखभाल ।  इस तरह इस समाज में कार्य विभाजन तो था ।   वर्ण का अर्थ है विभाजन,  यह,  एक आंतरिक  कार्य विभाजन था  जो परिवारों में भी देखने में आता है।   यह एक बड़ा परिवार था और इसमें कोई शूद्र नहीं था।   इसलिए गीता का यह कथन कि ‘चातुर्वर्ण्यम्‌ मया  सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’ सीमित सार्थकता रखता है, यह देवी विधान नहीं था परिस्थितियों की देन था,  और विभाजन  मूलतः  तीन  तरह के दायित्वों का पर्याय था जिसमें किसी तरह का अलगाव न था। सभी की एक ही संज्ञा थी । इसे वर्ण व्यवस्था कहने की जगह श्रम व्यवस्था कहना चाहिए। रोचक है कि आश्रम व्यवस्था पहले आई और वर्ण व्यवस्था उसके बाद। 

जिस देव समाज की बात हम कर रहे हैं वह ऋग्वेद से भी कई हजार साल पहले की सच्चाई है। गणव्यवस्था में साम्य था।  परंतु उसके ओझा भेदभाव - मुक्त गणों के बीच होते हुए भी अपने को दूसरों से ऊपर और अलग रखना और दीखना चाहता था और अलग बनाए रखता था।  यह एक बहुव्यापी प्रवत्ति थी और इसमें छिपा है अनन्य होने की कामना और इसके लिए कोई भी क्लेश सहने का संकल्प। इनके लिए प्रयुक्त संज्ञाएं - ओझा, सोखा, तांत्रिक, मांत्रिक, और शामन(सर्वविद्) सभी अपर्याप्त हैं पर शामन (shaman) का प्रयोग व्यापक है इसलिए हम इसकी परिभाषा पर ध्यान दें:
a person regarded as having access to, and influence in, the world of good and evil spirits, especially among some peoples of northern Asia and North America. Typically such people enter a trance state during a ritual, and practise divination and healing.
 
भेदमूलक वर्ण की स्थापना में इनकी भूमिका निर्णायक है, क्योकि ये समतामूलक गणसमाज में भी अपने को दूसरों से अलग और ऊपर समझते थे, और इस अंतर को बनाए रखने के लिए अपनी आजीविका के लिए जो उपाय सामान्य जन करते थे, अपनी विशिष्टता की रक्षा के लिए उन से परहेज करते थे,  यद्यपि  उनके चढ़ावे पर ही पलते थे। पर इसके लिए कृतज्ञता नहीं ज्ञापित करता था।  चढ़ावा उसकी अपेक्षा से बहुत अधिक मिलता था,  इसलिए वह अपनी जरूरत से अधिक को दूसरों को बांटते हुए यह दिखाने का प्रयत्न करता था कि उसको किसी तरह की आसक्ति नहीं। उसके दानसे दूसरे सभी पलते हैं।  

इसी ने साधनहीन होने के बाद जब किसानों असंभव को संभव करने की अपनी शक्ति के बल पर  बूढ़े, बुद्धिमान वर्ग में प्रवेश किया तो वृद्ध न होते हुए भी वृद्ध बन गया, आयु की सीमा तोड़ कर बाबा बन गया। ब्राह्मण पैदा होते ही बाबा बन जाता है।    बाबा के रूप में शिशु का पैदा होना, मतवा के रुप में बालिका पैदा होना दुनिया में कहीं नहीं होता, ब्राह्मणों जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते।

परंतु अपने को दूसरों से अलग और ऊपर दिखाने के लिए पुराने शामन ने जो  यह दिखावा किया कि  धन-दौलत में  उसकी कोई रुचि नहीं है, ‘न वै ब्राह्मणाय श्री रमते’, यह एक ऐसी भूल थी जिसकी त्रासदी इस  ब्राह्मण को  इस सीमा तक झेलनी पड़ी कि वह   साधन हीन हो कर  किसानों की  सेवा में आने वाले, परंतु किसानी से परहेज करने वाले, अपने ही पुराने स्वजनों से घृणा पालनी पड़ी। 

सबसे रोचक बात यह है कि जन्मना जाति की अवधारणा के विकास में प्रधान भूमिका इन दक्ष कर्मियों की थी क्योंकि कोई भी कौशल पिता-पुत्र क्रम से ही सिखाया जाता रहा है और यदि किसी अन्य दक्षता वाले परिवार में कोई बालक दूसरी दक्षता की ओर आकर्षित होता था तो उसे उस विशेषज्ञता के निष्णात व्यक्ति की शिष्यता ग्रहण करनी होती थी और उसे अपनी पात्रता प्रमाणित करने के बाद लगभग आज्ञापालक (हुक्म का गुलाम)  बन कर रहना पड़ता था।  संगीत, नृत्य में यदि यह परंपरा भारत में आज तक जीवित है तो इसलिए कि संंगीत, नृत्य, अभिनय में किसानों की अपनी रुचि हो ही नहीं सकती थी जब कि आटविक समुदायों में विविध जन-  किन्नर, यक्ष, गंधर्व  विविध कलाओं के लिए विख्यात रहे हैं।  ये मान्यताएं और इनके जन्मना विशेष होने के यथार्थ को आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक विवशताओं   के संदर्भ में परखा जाना चाहिए।

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh 

महिला पहलवानों के प्रकरण में, इंडियन ओलंपिक असोशियेशन की अध्यक्ष, पीटी ऊषा की भूमिका निंदनीय / विजय शंकर सिंह

पीटी ऊषा ने धरने पर बैठी हुई महिला पहलवानों के बारे में कहा है कि, उन्हे इंडियन ओलंपिक एसोसियेशन से अपनी समस्याओं के लिए कहना चाहिए था न कि, धरना देने के लिए जंतर मंतर पर बैठना चाहिए। पीटी ऊषा खुद एक नामचीन खिलाड़ी रही हैं और फिलहाल भारतीय ओलंपिक संघ IOA की अध्यक्ष है। उन्होंने यह भी कहा है कि, इस तरह के धरने प्रदर्शन से देश की छवि धूमिल होती है। उनके इस बयान की आलोचना भी की जा रही है। 

पर जिन समस्याओं को लेकर महिला पहलवान धरने पर बैठी हैं, वे समस्याएं, खेल या किसी प्रतियोगिता से जुड़ी नहीं हैं, बल्कि वे समस्याएं IOA से संबंधित, एक खेल संगठन, कुश्ती महासंघ के प्रमुख पर यौन शौषण के आरोपों से जुड़ी हैं। IOA को, ऐसे आपराधिक मामले का निदान करने का अधिकार और शक्ति नहीं है। यह आरोप आपराधिक कृत्य के हैं जो आईपीसी में, गंभीर और दंडनीय अपराध हैं। इनके बारे में कोई भी कार्यवाही करने का अधिकार और शक्ति पुलिस और न्यायालय को है। 

जंतर मंतर पर, पहलवानों का यह दूसरा धरना है, और पहलवानों ने, इस संबंध में पुलिस में मुकदमा दर्ज करने की मांग को लेकर, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की है, जिसकी सुनवाई चल रही है। इसके पहले जो धरना हुआ था, वह सरकार के आश्वासन पर, कि, सरकार एक कमेटी का गठन कर, इन सब कदाचारों की जांच कराएगी, खत्म कर दिया गया था। जांच के लिए कमेटी गठित भी हुई। पर जांच का निष्कर्ष क्या निकला यह पता नहीं। हो सकता है कमेटी की जांच रिपोर्ट से, महिला पहलवान संतुष्ट न हो पाई हों, और वे दुबारा धरने पर बैठ गई हों। 

यदि महिला पहलवानों के आरोपों को देखें तो इनके आरोप बिल्कुल साफ हैं और उनका निराकरण या जांच केवल पुलिस की तफ्तीश से ही संभव है, जिसके लिए पुलिस को, उनकी शिकायत पर, एक एफआईआर दर्ज करनी पड़ेगी और फिर इसकी विधिवत विवेचना भी होगी। जो भी सुबूत मिले, उसी के अनुसार कार्यवाही होगी। इस कानूनी प्रक्रिया में, IOA की कोई भूमिका नहीं है। यह राज्य और पुलिस से जुड़ा मामला है न कि, खेल मंत्रालय और इंडियन ओलंपिक एसोसियेशन से। 

IOA की अध्यक्ष पीटी ऊषा को, महिला पहलवानों की इस व्यथा और आरोपों पर खुद ही संज्ञान लेकर धरना स्थल पर जाना चाहिए था और उनसे इस बारे में बात करना चाहिए था। इन महिला पहलवानों की उपलब्धियों पर पूरा देश गौरवान्वित होता है, प्रधानमंत्री और अन्य सरकार के मंत्री आदि, उनके साथ सेल्फी लेते हैं, और इसे गर्व का अवसर बताते नहीं थकते हैं। पर जब यही महिला पहलवान अपने शोषण के प्रति मुखर हैं तो उन्हे एक एफआईआर दर्ज कराने के लिए धरने पर बैठना पड़ रहा है!  

पीटी ऊषा को, आईओए के अध्यक्ष होने के नाते, अपने अधिकार का प्रयोग कर, खेल मंत्रालय से, महिला पहलवानों की शिकायत पर, कानूनी कार्यवाही करने के लिए बात करना चाहिए था। यदि यह महिला पहलवान, अपनी शिकायतें लेकर IOA और पीटी ऊषा के पास गई भी होती तो पीटी ऊषा सिवाय एक आश्वासन, सहानुभूति और समझाने बुझाने के अलावा क्या कर सकती थीं? मामला खेल से जुड़ा तो नहीं है। मामला तो एक अपराध से है। वे बहुत करती, आईओए की तरफ से भी इन आरोपों की जांच के लिए इन पीड़ित महिला पहलवानों के पक्ष में खड़ी रहती। पर उन्होंने यह नहीं किया। 

आज बड़े बड़े सेलेब्रिटी, जो अपने अपने खेलों के भगवान कहे जाते हैं, इस गंभीर मामले पर चुप हैं, और उन्हे लगता है कि, उनकी इस चुप्पी से, देश की छवि दुनिया में अच्छी बनेगी। एक बात यह भी, कही जा रही है कि, यह धरना गुटबाजी का परिणाम और हरियाणा राज्य के अन्य राज्यों पर दबदबे का है। ऐसी गुटबाजियां, खेल संघों में होती रहती है। पर जो आरोप लगाए जा रहे हैं, यदि वे उन्ही गुटबाजियों के कारण ही लगाए जा रहे हैं तो, क्या उन आरोपों की जांच नहीं की जानी चाहिए? गुटबाजी के कारण यदि यह धरना है तब तो IOA को तुरंत दखल देना चाहिए था। आईओए, भारत सरकार का खेल मंत्रालय दखल दे, और गुटबाजी को खत्म करने के उपाय ढूंढे। पर यौन शौषण, जैसे गंभीर आरोप जो, कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर लगाए जा रहे है, जिनमे POSCO जैसे गंभीर आरोप भी है, तब इन अरोपो को, अनदेखा नही किया जाना चाहिए। 

आज सुप्रीम कोर्ट में एफआईआर दर्ज करने की प्रार्थना वाली महिला पहलवानों की याचिका पर सुनवाई है, देखिए क्या निर्णय आता है। पर एक एफआईआर दर्ज कराने के लिए ओलंपिक में पदक विजेता महिला पहलवानों को सार्वजनिक रूप से जंतर मंतर पर धरने पर बैठना पड़े, यह दुखद तो है ही, साथ ही, पुलिस के खिलाफ सबसे आम शिकायत, जिससे हम पूरी नौकरी सुनते आए हैं, कि, थानों पर मुकदमा दर्ज नही होता है, की पुष्टि भी करता है। देश की छवि, अपनी जायज मांगों के लिए शांतिपूर्ण तरीके से धरना प्रदर्शन करने से नहीं खराब होती है, बल्कि देश की छवि खराब होती है, ऐसे गंभीर आरोपों पर सरकार की चुप्पी और निष्क्रियता से। पीटी ऊषा के इस बयान से, उनकी और IOA की छवि पर जरूर असर पड़ा है। 

(विजय शंकर सिंह)


कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष के खिलाफ यौन शोषण के आरोप पर दिल्ली पुलिस एफआईआर दर्ज करने के पहले प्रारंभिक जांच करना चाहती है / विजय शंकर सिंह


यौन उत्पीड़न के आरोपों को लेकर भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की मांग करने वाली देश की शीर्ष महिला पहलवानों द्वारा दायर याचिका के जवाब में, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया है कि, पुलिस अधिकारियों का इरादा है कि,  मामले में पहले प्रारंभिक जांच कर ली जाय, और उसके बाद, जांच के आधार पर, मुकदमा दर्ज करने का निर्णय लिया जाय।"

लेकिन यह भी कहा है कि, "दिल्ली पुलिस की ओर से पेश एसजी ने कहा कि अगर शीर्ष अदालत निर्देश देती है, तो वे प्राथमिकी दर्ज करने के लिए तैयार हैं। मैं योर लॉर्डशिप को परेशान कर रहा हूं, क्योंकि प्राथमिकी दर्ज करने से पहले कुछ प्रारंभिक जांच की आवश्यकता हो सकती है ... कुछ मुद्दे जिन्हें हम एफआईआर से पहले जांचना चाहते हैं ... लेकिन अगर योर लॉर्डशिप कहते हैं तो, हम उसके बिना भी एफआईआर दर्ज कर सकते हैं।"

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 7 महिला पहलवानों द्वारा दायर याचिकाओं पर नोटिस जारी किया है और जिसका उत्तर 28 मई तक सरकार को शीर्ष अदालत में  प्रस्तुत करना है। 

याचिकाकर्ताओं की तरफ से, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा था कि, "प्राथमिकी दर्ज करने में अत्यधिक देरी हुई है, खासकर तब जब कुश्ती निकाय के अध्यक्ष के खिलाफ POCSO आरोप लगाए गए हैं।"
यह आरोप कथित तौर पर 2012 के हैं। याचिकाकर्ता दिल्ली के जंतर मंतर पर, सरकार की निष्क्रियता का विरोध कर रहे हैं।

एसजी ने कहा कि, प्रारंभिक जांच की बात वे इसलिए कह रहे हैं ताकि "ऐसा न लगे कि नोटिस जारी करने के बावजूद हमने तुरंत प्राथमिकी दर्ज नहीं की।"
इसके बाद कपिल सिब्बल ने कहा कि याचिकाकर्ताओं का पक्ष भी एक अतिरिक्त हलफनामा दायर करेगा।

कपिल सिब्बल ने यह भी दावा किया है कि, "समिति की एक रिपोर्ट है जिसे सार्वजनिक नहीं किया गया है।"  
उन्होंने आगे अदालत में कहा, "यहां तक ​​कि इस प्रकृति के अपराध दर्ज नहीं करने के लिए पुलिस वालों पर भी मुकदमा चलाया जा सकता है... अब सीआरपीसी की धारा 166ए में भी संशोधन किया गया है, जो मामला दर्ज नहीं होने पर पुलिस पर भी मुकदमा चलाने की अनुमति देता है।"

सीआरपीसी की धारा 154 के अनुसार, किसी भी अपराध की सूचना पुलिस थाने पर, दिए जाने पर, उसे दर्ज किया जाएगा। यही प्रक्रिया एफआईआर first information report कहलाती है। लेकिन सीआरपीसी में इस तरह की प्राथमिकी दर्ज होने के पहले, किसी भी प्रकार की प्रारंभिक जांच किए जाने का प्राविधान नहीं है। प्रारंभिक जांच, विभागीय जांच के पहले की जाती है ताकि आरोपों के बारे में कुछ छानबीन की जा सके। इसीलिए इस मामले में भी, सॉलिसिटर जनरल ने अदालत से यही कहा कि, यदि अदालत मुकदमा दर्ज करने का आदेश देती है तो पुलिस एफआईआर दर्ज कर लेगी। क्योंकि कानून के प्राविधान से तुषार मेहता सॉलिसिटर जनरल भी अवगत हैं। 

फिर इस मामले में, जिसमें इतनी अधिक देती हो चुकी है, एफआईआर दर्ज करने के पहले, एक प्रारंभिक जांच का विंदु क्यों उठाया जा रहा है? यह इसलिए उठाया जा रहा है कि इसी की आड़ में यह धरना प्रदर्शन समाप्त हो, और कुछ समय के लिए यह मामला ठंडा हो। याद कीजिए एक विभागीय कमेटी पहले भी इन्ही आरोपों पर गठित हो चुकी है, पर उक्त कमेटी ने जांच में क्या पाया, यह अब तक सार्वजनिक नहीं हो पाया है। यदि प्रारंभिक जांच की ही बात है तो उक्त कमेटी की जांच एक प्रकार से प्रारंभिक जांच ही है। 

अपराधों की सूचना पर, पुलिस कोई प्रारंभिक जांच नही करती है बल्कि वह सीआरपीसी के प्राविधान के अनुसार, एफआईआर दर्ज करती है, और सीआरपीसी के प्राविधानों के ही अनुसार, उसकी विवेचना करती है और जो भी परिणाम आता है, उसे संबंधित अदालत में प्रस्तुत करती है। प्रारंभिक जांच का कोई कानूनी महत्व भी नहीं है। इसके अंतर्गत न तो कोई पूछताछ की जा सकती है, न ही जरूरत समझने पर कोई गिरफ्तारी और न ही सीआरपीसी के प्राविधानों के अनुसार, कोई अग्रिम कार्यवाही। अब देखना है, कल 28 अप्रैल को शीर्ष अदालत का क्या रुख रहता है। 

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday 26 April 2023

कला, व्यंग्य, समाचार, संगीत के लिए सेलेब्रिटी के नाम या फोटो का उपयोग, कानूनन वैध है / विजय शंकर सिंह

अक्सर यह सवाल उठता है कि, किसी सेलेब्रिटी या नामचीन हस्ती, जैसे, फिल्म कलाकार, स्पोर्ट्स से जुड़े प्रसिद्ध लोग, के नाम और फोटो के साथ कोई खबर, व्यंग्य, कार्टून, या कैरिकेचर प्रसारित या प्रकाशित करते हैं और इसे लेकर, यह मामला उठता है कि, इस तरह सेलेब्रिटी के नाम और फोटो का प्रयोग, सेलेब्रिटी के प्रचार के अधिकार का दुरुपयोग है और इसे रोका जाना चाहिए। इसी संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक नामचीन स्पोर्ट्स हस्ती के इस तरह के प्रयोग के खिलाफ एक मुकदमे का फैसला देते हुए कहा कि, ऐसे कृत्य पर रोक लगाना, संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करना होगा। 

अपने फैसले में,  दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि, "कला, व्यंग्य, समाचार या संगीत के लिए सेलिब्रिटी के नाम या फोटो का उपयोग संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के रूप में स्वीकार्य है। यह, सेलिब्रिटी के प्रचार के अधिकार का उल्लंघन नहीं है।"

यह मानते हुए कि किसी विशेष कानून के अभाव में, सेलेब्रिटी के प्रचार के अधिकार को, भारत में पूर्ण अधिकार के रूप में नहीं माना जा सकता है, दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश, जस्टिस अमित बंसल ने कहा,

"बौद्धिक संपदा अधिकार, जैसे ट्रेडमार्क, कॉपीराइट और पेटेंट, जिनका भारत में वैधानिक आधार है, वे भी पूर्ण (absolute) अधिकार नहीं हैं।  इन अधिकारों की सीमा को क़ानून द्वारा परिभाषित किया गया है और क़ानून, स्वयं बचाव या छूट प्रदान करता है।  यहां तक ​​कि उन न्यायक्षेत्रों में भी जहां प्रचार के अधिकार को वैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है, जैसे कि यू.एस., क़ानून स्वयं छूट या बचाव प्रदान करता है।"
 
अदालत ने ड्रीम 11 की सहायक कंपनी और एक सिंगापुर स्थित इकाई डिजिटल कलेक्टिबल्स पीटीई लिमिटेड को "मोबाइल प्रीमियर लीग" और एक आवेदन "स्ट्राइकर" के खिलाफ अपने मुकदमे में "रेरियो" चलाने वाली इकाई को अंतरिम राहत देने से इंकार कर दिया। मुकदमे के दोनों पक्ष एक समान व्यवसाय मॉडल में लगे हुए हैं। मुकदमे ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी अपूरणीय टोकन "ढोंकने और वितरित" कर रहे थे, जो उन खिलाड़ियों की छवियों को कैप्चर करता था जिनके साथ वादी ने विशेष लाइसेंस समझौते किए थे।"

वादी ने दावा किया था कि "समझौते विशेष रूप से इसे टोकन बनाने के लिए अधिकृत करते हैं और इस प्रकार, प्रतिवादी उल्लंघन के कार्य में लिप्त हैं और खिलाड़ियों का उपयोग करके उनके कैरिकेचर बनाकर एक समान व्यवसाय शुरू करने के प्रचार के अधिकार का उल्लंघन किया।"

अंतरिम राहत की मांग करने वाले वादी के आवेदन को खारिज करते हुए, अदालत ने कहा कि "वादी कंपनी अंतरिम निषेधाज्ञा देने के लिए एक मामला बनाने में विफल रही, जिसके परिणामस्वरूप स्ट्राइकर एप्लिकेशन का कारोबार बंद हो जाएगा और इससे न केवल उसे बल्कि उसके उपयोगकर्ताओं को भी भारी वित्तीय नुकसान होगा।" .

"मेरी राय में, लैम्पूनिंग, व्यंग्य, पैरोडी, कला, छात्रवृत्ति, संगीत, शिक्षाविदों, समाचार और अन्य समान उपयोगों के प्रयोजनों के लिए सेलिब्रिटी के नाम, छवियों का उपयोग भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के अनुच्छेद के तहत स्वीकार्य होगा।  भारत के संविधान के 19 (1) (ए) और प्रचार के अधिकार के उल्लंघन के अपराध में गलत नहीं होगा।”

इस विषय पर प्रासंगिक निर्णयों का उल्लेख करते हुए, अदालत ने कहा कि विभिन्न ऑनलाइन फैंटेसी स्पोर्ट्स गेमिंग प्लेटफॉर्म मशहूर हस्तियों के नाम और छवियों और अन्य सूचनाओं का उपयोग करते हैं जो सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध हैं।

"मेरे विचार से, ओएफएस प्लेटफार्मों द्वारा उनके ऑन-फील्ड प्रदर्शन के संबंध में डेटा के साथ-साथ एक सेलिब्रिटी के नाम और / या छवि का उपयोग अनुच्छेद 19 (1) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार द्वारा संरक्षित है।  
(ए) यह कानून की स्थापित स्थिति है कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत सुरक्षा व्यावसायिक भाषणों तक भी फैली हुई है।"

इसके अलावा, न्यायमूर्ति बंसल ने कहा कि भले ही प्रतिवादी व्यावसायिक लाभ के लिए खिलाड़ियों के नाम, चित्र और आंकड़ों का उपयोग कर रहे हों, इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत संरक्षित किया जाएगा।

 "न ही ओएफएस ऑपरेटरों द्वारा पूर्वोक्त उपयोग प्रचार के सामान्य कानून के उल्लंघन का उल्लंघन होगा।  ओएफएस ऑपरेटर गेम खेलने के लिए खिलाड़ियों की पहचान के उद्देश्य से सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध सभी उपलब्ध खिलाड़ियों की जानकारी का उपयोग करते हैं।  यह भ्रम की किसी भी संभावना को समाप्त करता है कि एक विशेष खिलाड़ी द्वारा एक विशेष ओएफएस मंच का समर्थन किया जा रहा है या किसी विशेष खिलाड़ी के साथ जुड़ाव है, ”अदालत ने कहा।

 इसने यह भी कहा कि स्ट्राइकर द्वारा खिलाड़ी के नाम और खिलाड़ी के वास्तविक-शब्द मैच प्रदर्शन से संबंधित डेटा के बारे में उपयोग की जाने वाली जानकारी सार्वजनिक डोमेन में स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है, जिसका स्वामित्व खिलाड़ियों सहित किसी के पास नहीं हो सकता है।

 "इसलिए, इस तरह की सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी किसी तीसरे पक्ष के पक्ष में खिलाड़ी द्वारा विशेष लाइसेंस का विषय नहीं हो सकती है," अदालत ने कहा।

 अदालत ने आगे कहा कि वादी एक अपूरणीय टोकन प्रौद्योगिकी के उपयोग पर विशेष अधिकार का दावा नहीं कर सकता है जो स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है।  इसने नोट किया कि प्रतिवादियों ने उक्त तकनीक का उपयोग अपने कार्ड के स्वामित्व के प्रमाण के रूप में सुरक्षा और प्रामाणिकता सुनिश्चित करने और ब्लॉकचेन पर लेनदेन का रिकॉर्ड रखने के लिए किया।

"सुविधा के संतुलन और अपूरणीय क्षति के पैरामीटर पर भी, मेरा विचार है कि ये कारक प्रतिवादियों के पक्ष में और अभियोगी के खिलाफ हैं।  इस स्तर पर दिए गए निषेधाज्ञा के परिणामस्वरूप प्रतिवादी नंबर 2 का कारोबार बंद हो जाएगा और इससे न केवल प्रतिवादी नंबर 2 बल्कि स्ट्राइकर प्लेटफॉर्म के उपयोगकर्ताओं को भी भारी वित्तीय नुकसान होगा।  दूसरी ओर, यदि वादी मुकदमे में सफल हो जाता है, तो उसे हमेशा मुआवजा दिया जा सकता है।”

(विजय शंकर सिह) 

Monday 24 April 2023

यौन शोषण के आरोप पर महिला पहलवानों की याचिका पर, सुप्रीम कौन ने नोटिस जारी की / विजय शंकर सिंह

कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ महिला पहलवानों ने यौन शोषण का आरोप लगाया है और इन आरोपों की जांच के लिए पहलवान जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। इस संबंध में एक याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में पहलवानों की तरफ से दायर की गई है।। आज सुप्रीम कोर्ट ने महिला पहलवानों द्वारा कथित यौन उत्पीड़न को लेकर बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की मांग वाली याचिका पर आज, 25/04/23 को नोटिस जारी किया है।

सीनियर एडवोकेट, कपिल सिब्बल ने आज भारत के सीजेआई, डी वाई चंद्रचूड़ के समक्ष मामले का उल्लेख किया और अनुरोध किया कि, मामले में याचिकाकर्ताओं की पहचान को सुरक्षित रखा जाए।

सीजेआई ने कहा कि, "आम तौर पर, पुलिस अधीक्षक से संपर्क करने का उपाय धारा 156 CrPC के तहत, याचिकाकर्ता को उपलब्ध है।"
फिर पूछा "आरोप क्या हैं?"  
सिब्बल ने कहा, "ये महिला पहलवान हैं। वे धरने पर बैठी हैं। 7 महिलाओं ने, यौन शोषण की शिकायत की है और उनमें से एक नाबालिग है। उनकी शिकायत पर, प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है। इस अदालत के कानून का उल्लंघन किया गया है।"

याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि, प्राथमिकी दर्ज करने में अत्यधिक देरी हुई है, खासकर जब कुश्ती निकाय के अध्यक्ष के खिलाफ POCSO के आरोप लगाए गए हैं।  आरोप कथित तौर पर 2012 के हैं। याचिकाकर्ता दिल्ली के जंतर मंतर पर इस तरह की निष्क्रियता का विरोध कर रहे हैं।
अदालत ने तब आदेश दिया, "यौन उत्पीड़न के संबंध में पेशेवर पहलवानों के इशारे पर गंभीर आरोप हैं। शुक्रवार को वापसी के लिए नोटिस जारी करें।"
सीजेआई ने आगे निर्देश दिया कि जो शिकायतें सीलबंद लिफाफे में दी जा रही थीं, उन्हें फिर से सील कर याचिका के तहत रखा जाएगा.

सिब्बल ने यह भी दावा किया कि 
"समिति की एक रिपोर्ट है जिसे सार्वजनिक नहीं किया गया है।  सिब्बल ने कहा, "यहां तक ​​कि इस प्रकृति के अपराध को दर्ज नहीं करने के लिए पुलिस वालों पर भी मुकदमा चलाया जा सकता है... अब सीआरपीसी की धारा 166ए में भी संशोधन किया गया है, जो मामला दर्ज नहीं होने पर पुलिस पर भी मुकदमा चलाने की अनुमति देता है।"

इस बीच, खेल मंत्रालय ने राष्ट्रीय खेल विकास संहिता, 2011 के संदर्भ में डब्ल्यूएफआई से जवाब मांगा है। इस प्रकरण पर पहले भी पहलवान धरने पर बैठे थे और सरकार द्वारा एक जांच समिति के गठन के बाद तब उनका धरना समाप्त हुआ था। समिति की जांच का क्या निष्कर्ष निकला इसकी कोई जानकारी नहीं है। 

(विजय शंकर सिंह)

न्यायाधीशों को, अपने समक्ष सुने जा रहे लंबित मामलों पर टीवी इन्टरव्यू नहीं देना चाहिए ~ सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

कलकत्ता हाईकोर्ट के जज, जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय द्वारा समाचार चैनल एबीपी आनंद को तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नेता अभिषेक बनर्जी के बारे में दिए गए एक साक्षात्कार पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर आपत्ति जताई है। जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय, टीएमसी के नेता अभिषेक बनर्जी से जुड़े एक मामले की सुनवाई कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने, कलकत्ता उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल से, इस संदर्भ में एक रिपोर्ट मांगी है कि, क्या न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय ने पिछले सितंबर में एक टीवी साक्षात्कार में भाग लिया था या नहीं?

इस विशेष अनुमति याचिका की सुनवाई कर रहे, भारत के मुख्य न्यायाधीश, सीजेआई, डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने कहा है कि, "न्यायाधीशों के पास जो लंबित मामले हैं, उनके बारे में, पर समाचार चैनलों को टेलीविजन साक्षात्कार देने का कोई, औचित्य नहीं है। और यदि वे ऐसा करते हैं, तो संबंधित न्यायाधीश, उन मामलों की सुनवाई नहीं कर सकते है, जिनके बारे में उन्होंने मीडिया को कोई इंटरव्यू दिया है।"

सुप्रीम कोर्ट की पीठ का आदेश इस प्रकार है, 
"कलकत्ता हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को, न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय से व्यक्तिगत रूप से, यह सत्यापित करने का निर्देश दिया जाता है कि क्या श्री सुमन डे द्वारा उनका साक्षात्कार लिया गया था और यदि ऐसा है तो, वे उस घटना को स्पष्ट करें। रजिस्ट्रार जनरल इस अदालत (सुप्रीम कोर्ट) के रजिस्ट्रार न्यायिक के समक्ष शुक्रवार से पहले एक हलफनामा दाखिल कर यह रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे।"

"यदि न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ने वास्तव में साक्षात्कार में भाग लिया है, तो वह स्कूल-फॉर-जॉब मामले की सुनवाई नहीं कर सकते हैं और एक अलग पीठ, इस मामले की सुनवाई करेगी।" 
(यह मामला टीएमसी नेता अभिषेक बनर्जी के खिलाफ है, जिनकी सुनवाई जस्टिस गंगोपाध्याय कर रहे हैं)

"अगर उन्होंने ऐसा किया है, तो वह अब इस मामले की सुनवाई में भाग नहीं ले सकते हैं। हम, उक्त जांच के संदर्भ में कुछ नहीं करने जा रहे हैं, लेकिन जब एक न्यायाधीश, जो टीवी बहस या इंटरव्यू पर याचिकाकर्ता के संदर्भ में, अपनी राय रखता है, तो वह, अदालत में, उस मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकता है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को, तब एक नई पीठ का गठन करना होगा। यह एक राजनीतिक शख्सियत से जुड़ा  मामला है और जिस तरह से न्यायाधीश ने इस मामले को सुना, हमने इस पर विचार किया और पाया कि, सुनवाई का यह तरीका नहीं हो सकता।"

शीर्ष अदालत केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा जांच के लिए उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ, टीएमसी के अभिषेक बनर्जी की अपील पर सुनवाई कर रही थी। याचिकाकर्ता अभिषेक बनर्जी ने न्यायाधीश, गंगोपाध्याय द्वारा दिए गए, साक्षात्कार की टेक्स्ट प्रतिलिपि भी शीर्ष अदालत के समक्ष रखी थी। शीर्ष अदालत ने पहले, 13 अप्रैल के उस फैसले पर रोक लगा दी थी, जिसमें सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की भर्ती में अनियमितताओं में बनर्जी की कथित भूमिका की केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जांच का आदेश दिया गया था।

29 मार्च को एक जनसभा के दौरान, अभिषेक बनर्जी ने आरोप लगाया था कि, ईडी और सीबीआई, हिरासत में लिए लोगों पर इस मामले में एक सहभागी के रूप में उनका नाम लेने के लिए दबाव डाल रही थी। इसके बाद, इसी मामले के एक अन्य आरोपी कुंतल घोष ने भी आरोप लगाया था कि, जांचकर्ताओं द्वारा उन पर, अभिषेक  बनर्जी का नाम लेने के लिए दबाव डाला जा रहा था। कुंतल घोष 2 फरवरी तक, अपनी गिरफ्तारी के बाद, ईडी की हिरासत में थे और 20 से 23 फरवरी तक सीबीआई की हिरासत में थे।

इसी प्रकरण पर शीर्ष अदालत में, एक अपील दायर की गई है, जिसमें दावा किया गया था कि उच्च न्यायालय ने, अभिषेक बनर्जी पर "निराधार आक्षेप" लगाया और प्रभावी रूप से सीबीआई और ईडी को उनके खिलाफ जांच शुरू करने का निर्देश दिया। जबकि, तथ्य यह है कि, वह न तो पक्षकार थे और न ही, हाइकोर्ट में, सुनवाई की जा रही याचिका से जुड़े हैं।

सुप्रीम कोर्ट में, दायर, अभिषेक बनर्जी ने अपनी याचिका में आगे इस बात पर प्रकाश डाला कि "आदेश पारित करने वाले न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ने पिछले सितंबर में एक समाचार चैनल को दिए एक साक्षात्कार में टीएमसी नेता के लिए अपनी नापसंदगी जाहिर की थी।" 
यह भी दावा किया गया कि "न्यायाधीश ने सर्वोच्च न्यायालय के उन न्यायाधीशों के खिलाफ टिप्पणी की थी जो मामले में उनके आदेश के खिलाफ अपील की सुनवाई कर रहे थे। ऐसा तब हुआ जब शीर्ष अदालत ने पहले आरोपियों के खिलाफ सीबीआई और ईडी जांच के उच्च न्यायालय के आदेश पर अंतरिम रोक लगाने की मांग की थी।"

उसी मामले में, सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ने कथित तौर पर खुली अदालत में पूछा था,
"सुप्रीम कोर्ट के जज जो चाहें कर सकते हैं? क्या यह जमींदारी है?"

इस संदर्भ में एसएलपी में याचिकाकर्ता ने कहा है,
"तथ्य यह है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित न्यायिक आदेश न केवल जांच के दायरे में हैं, बल्कि उक्त वरिष्ठ एकल न्यायाधीश द्वारा इन सबकी गंभीर तरीके से आलोचना की गई है। अतः इस माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की मांग की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि  संस्थान की महिमा को बनी रहे और जनता का न्याय पर विश्वास बना रहे।"

(विजय शंकर सिंह)

Saturday 22 April 2023

अडानी समूह से जुड़े मनी लांड्रिंग के सवालों पर सरकार की चुप्पी अब भी बरकरार है / विजय शंकर सिंह

"ये घर मुझे 19 साल के लिए हिंदुस्तान की जनता ने दिया, मैं उनका धन्यवाद करना चाहता हूं। सच की आवाज़ और जनता के मुद्दे दोगुने ज़ोर से उठाता रहूंगा।"
राहुल गांधी ने अपना सरकारी आवास, खाली करने के बाद, बंगले की चाभी, संबंधित अधिकारी को सौंपने के बाद, यह बात प्रेस से कही।

यही यह सवाल उठता है कि, क्या कोई अन्य, पूर्व सांसद भी किसी सरकारी बंगले में अब नहीं रह रहा है? यदि रह रहा है तो, उससे अब तक सरकारी आवास क्यों नहीं खाली कराया गया? क्या उसे आजीवन बंगले में रहने की अनुमति दी गई है? यदि ऐसी अनुमति दी गई है क्या ऐसी अनुमति का कोई प्राविधान है? आदि आदि यह सब जिज्ञासाएं उठेंगी। 

सांसद न होने के बाद भी सरकारी बंगले में रह रहे कुछ नेताओं की लिस्ट भी देख लें, 
० भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी (2019के बाद से किसी सदन के सदस्य नहीं हैं) 
० भाजपा के ही डॉ. मुरली मनोहर जोशी (2019 के बाद से किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं)
० बसपा सुप्रीमो मायावती (2017 के बाद से किसी सदन की सदस्य नहीं हैं)
० कांग्रेस के पूर्व दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद (किसी सदन के सदस्य नहीं हैं)
० कांग्रेस नेता आनंद शर्मा (अप्रैल 2022 में ही इनका राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हो चुका है.) 
० बीजेपी के वाईएस चौधरी (अप्रैल 2022 के बाद से किसी सदन के सदस्य नहीं हैं)
जबकि, राहुल गांधी की सदस्यता 24 घंटे में रद्द किए जाने के तुरंत बाद उनसे नोटिस देकर एक महीने के अंदर ही सरकारी आवास खाली करा लिया गया..! 

मोदी सरनेम धारी मुकदमे में अधिकतम सजा, संसद से अयोग्यता और अब सरकारी बंगला खाली कराने के मामलों में कोई भी कार्यवाही अनियमित नहीं हुई है। कानून ने अपना काम किया है। फिर भी यह घटनाएं जितनी तेजी से घटी हैं, उनसे अनेक संशय खड़े होते हैं। और उन पर चर्चा भी चल रही है। 

अडानी और मोदी जी के रिश्ते क्या हैं, इस पर सवाल उठ रहे हैं, और इस सवाल को जितना ही दबाने की कोशिश की जा रही है, यह सवाल उतनी ही तेजी से प्रासंगिक होते जा रहे हैं। दरअसल अडानी - मोदी के रिश्ते पर जब बात उठती है तो यह प्रधानमंत्री जी के अडानी से निजी रिश्तों तक जाकर केंद्रित हो जाती है। यह सवाल, अडानी और सरकार, या अडानी और बीजेपी या अडानी या आरएसएस रिश्तों तक उतनी नहीं पहुंचती है, बल्कि अडानी मोदी रिश्तों तक ही सीमित रहती है। 

यह कहा जा सकता है कि, पीएम के देश के शीर्षस्थ उद्योगपति के साथ रिश्ते, मित्रता हों तो इसमें आपत्ति क्या है। और सच पूछिए तो, इसमें आपत्ति कुछ भी नहीं है। पूंजीवादी लोकतंत्र में सत्ता का उद्योगपति समूहों से निकटता कोई हैरानी की बात नहीं है। हमारा अर्थतंत्र, बजट, टैक्स ढांचा, विकास की योजनाएं आदि आदि, भले ही जनहित के नाम पर लाई जाती हों, पर वे पूंजीपतियों को ही केंद्र में रख कर गढ़ी जाती हैं। उन्ही के हित में कर व्यवस्था से लेकर कामगारों से जुड़े कानून को, रूप दिया जाता है। ऐसे तंत्र में सत्ता हो या विपक्ष, दोनो के ही संबंध पूंजीपतियों से रहेंगे। उनके गुट होते है। लॉबिंग होती है। पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में, इससे बचा नहीं जा सकता है। 

पर आपत्ति और संशय तब उठते हैं, जब  कोई खास पूंजीपति, इसी निकटता या मित्रता का लाभ लेकर अपनी पूंजी और हैसियत दिन दूनी और रात चौगुनी गति से बढ़ाता चला जाता है, और सरकार, उसी शीर्ष मित्रता के कारण, उसी पूंजीपति के हित में, नियमों को शिथिल करती जाती है। अपवाद के उदाहरण बनाती है। और तो और सरकारी जांच एजेंसियों सीबीआई ईडी आदि का इस उद्देश्य से दुरुपयोग करने लगती है, जिससे अंततः लाभ उसी एक पूंजीपति को पहुंचने लगता है। यह सब ठंडे दिमाग से रचे गए एक साजिश के अंतर्गत होता है और ऐसा हुआ भी है। आज के संदर्भ में, उस एक चर्चित पूंजीपति का नाम गौतम अडानी है और नियमों में शिथिलता, उस पूंजीपति को एयरपोर्ट से लेकर, कोयला खदान देने तक लगभग हर बड़े मामले में दी गई है। रहा सवाल, सीबीआई, ईडी इनकम टैक्स विभाग के सेलेक्टिव दुरुपयोग कर, मुंबई एयरपोर्ट, सहित कुछ अन्य एयरपोर्ट और सीमेंट कंपनिया जिस तरह से अडानी समूह ने हथियाई हैं, उनके विस्तृत विवरण की तह में आप जायेंगे तो, यह सब, आप सच पाएंगे। आर्थिक पत्रकारिता से जुड़ी पत्रिकाएं और अखबार,  इन पर रोज लेख लिख रहे है। यह सिलसिला अब भी जारी है। 

पर इस रिश्ते पर, सवाल तब उठा जब गौतम अडानी के भाई विनोद अडानी, जो एक आर्थिक अपराधी है ने, फर्जी शेल कंपनियों के माध्यम से, मनी लांड्रिंग कर के धन भारत भेजा और उसे रक्षा क्षेत्र में निवेश किया।  सवाल तब उठा, जब अडानी के शेयर के ओवर प्राइसिंग घोटाले का राज खुला और सच सामने आया। सवाल तब उठा जब इस सारे मामले में सेबी SEBI खामोश रहा और जब हंगामा हुआ तो उसने दिखावे के लिए कार्यवाही शुरू की। सवाल तब उठा जब, सरकार के सीलबंद लिफाफे में दिए गए प्रस्तावित जांच कमेटी के नामों को सुप्रीम कोर्ट ने डस्टबिन में फेंक कर खुद ही कमेटी गठित कर दी। सवाल तब उठा जब संसद में दिए गए राहुल गांधी के भाषण को लोकसभा के स्पीकर ने सदन के कार्यवाही से निकाल दिया। सवाल तब उठा जब संसदीय इतिहास में सत्तारूढ़ दल ने सदन की कार्यवाही लगातार बाधित सिर्फ इसलिए की कि, विपक्ष अडानी मामले पर बहस न करे। सवाल तब उठा जब जेपीसी गठन  की मांग सरकार ने नहीं मानी। और सवाल तब उठा, जब इस पूरे अडानी मामले पर पीएम नरेंद्र मोदी खामोश रहे और आज तक खामोश हैं। यह सारे सवाल अब भी उठ रहे हैं। जिंदा है। और आगे भी जिंदा रहेंगे।

इतने अधिक सवाल और एक अकेला जो सब पर भारी है, वह अब तक खामोश है। उनकी यह खामोशी या तो किसी अज्ञात डर का परिणाम है या तूफान के गुजर जाने की उम्मीद में, रेत में मुंह छुपाने की कवायद, यह तो समय ही बता पाएगा। पर यह सारे सवाल अभी खत्म नहीं हुए है, बल्कि इनके साथ और भी सवाल जुड़ने लगे हैं। मैं, सत्यपाल मलिक के पुलवामा खुलासा और मोदी जी की डिग्री पर उठ रहे सवालों की बात कर रहा हूं। सवालों की तासीर ही उनके प्रतीक की तरह अंकुश की तरह होती है। असहज करती रहती है। पर देर सबेर इन सवालों के जवाब प्रधानमंत्री जी को देना ही होगा। वे न भी दे तो, पारिस्थितिक साक्ष्य और दस्तावेज उनके और गौतम अडानी के बीच की निकटता को और प्रमाणित करेंगे। 

इन सवालों को पूछना जारी रखिए। पूंजीपति या उद्योगपति समूहों की भूमिका देश के विकास में रहती है और रहेगी, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन उन्हें, कानून तोड़ कर, काले धन की, शेल कंपनियों के द्वारा मनी लांड्रिंग कर के निवेश करने, सरकारी जांच एजेंसियों के दुरुपयोग कर, सरकार के दम पर, सरकारी बैंको, वित्तीय संस्थानों से लोन लेकर फिर उसे डकार जाने जैसी अनेक अनियमितता की आड़ में, समृद्ध होने छूट नहीं दी जा सकती है, और न दी जानी चाहिए। 

(विजय शंकर सिंह)

सचिदानंद सिंह / अफ़ीम (3)

० पटना का अफ़ीम गोदाम

मालवा की तरह बिहार में भी अफ़ीम की खेती अंग्रेजों के आने से पहले से की जा रही थी। सतरहवीं सदी में डच ने पटना से कुछ पश्चिम अपना अफ़ीम गोदाम बनाया था जिसमें अभी पटना कलेक्टरेट का अभिलेखागार है। 

जब कम्पनी बहादुर ने अफ़ीम चीन भेजनी शुरु की तो पटना में एक बहुत बड़ा अफ़ीम 'गोदाम' बनवाया। गुलजारबाग में वह मकान अभी भी खड़ा है और बिहार पर्यटन उसे पटना का एक आकर्षण बताता है। (पर्यटक, बिना अपवाद, देख कर निराश होते हैं।) खुशकिस्मती से तीन तत्कालीन चित्रकारों की कलाकृतियों से उस गोदाम की कार्यवाही को अभी भी स्पष्ट समझा जा सकता है।

कम्पनी का एक ओपियम विभाग था जिसके अधिकारी हर ऐसी जगह नियुक्त थे जहाँ अफ़ीम की खेती होती थी। (विख्यात लेखक जॉर्ज ऑरवेल के पिता अफ़ीम विभाग में बेतिया में नियुक्त थे, जहाँ लेखक का जन्म हुआ था।) पश्चिमी बिहार के गाँवों में अफ़ीम की खेती होती थी। पौधों से अफ़ीम निकाल कर उन्हें मटकों में भरकर कम्पनी के एजेंट की देखरेख में पटना भेजा जाता था। 

वहाँ मटकों को देख सूंघ कर सही पाए जाने पर रासायनिक जाँच की जाती थी। स्वीकृत किये गए मटकों के अफ़ीम को बड़े हौज में रख कर देर तक मिलाया जाता था जिससे 'माल' एकरूप हो जाएं। फिर पीतल के कप से नाप कर इसके समान वजन के गोले बनाए जाते थे। गोलों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी की मुहर लगती थी - ब्रांडिंग। यह अफ़ीम के उत्कृष्ट होने की गारंटी होती थी। इन ब्रांडेड गोलों को लकड़ी की पेटी में भर कर कलकत्ते भेजा जाता था। पेटियों पर स्पष्ट अक्षरों में पटना ओपियम लिखा रहता था।

० नीलामी

कम्पनी पूरे अफ़ीम का निर्यात खुद नहीं करती थी। यह अच्छा रिस्क मैनेजमेंट था। जहाजों के डूबने का खतरा हमेशा रहता था। काफी अफीम कलकत्ते में नीलाम कर दी जाती थी। मुख्यतः कलकत्ते के अंग्रेज व्यापारी खरीदते थे, मुंबई के पारसी भी। वे खरीदी अफीम को अपने जहाजों में कैंटन भेजते थे। एक बार रवींद्रनाथ के पितामह द्वारकानाथ ने भी एक अंग्रेज के साथ पार्टनरशिप में बहुत अफ़ीम खरीदी थी। तीन जहाजों पर उनकी अफ़ीम चीन के लिए निकली। एक समुद्री तूफान में खो गया और एक पर्ल नदी में तोपों की मार नहीं झेल सका। कहते हैं द्वारकानाथ का यह अकेला उपक्रम था जो नुकसानदेह साबित हुआ।

० देह पर पड़ी अफ़ीम

1838 में  तत्कालीन गवर्नर जनरल जॉर्ज एडेन (लॉर्ड ऑकलैंड) अपनी बहन एमिली के साथ पटना अफ़ीम गोदाम के निरीक्षण पर आया था। एमिली एडेन के संस्मरण प्रकाशित हुए। उन्होंने बताया है कि गोदाम के सभी कर्मियों को बाहर निकलने के पहले अनिवार्य रूप से नहाना पड़ता था जिससे उनकी देह पर पड़ी अफ़ीम बाहर न चली जाए। कम उम्र के लड़के गोदाम के अंदर मौका मिलते ही अफ़ीम पर लोट जाते थे। यदि बिना नहाए कोई ऐसा लड़का बाहर निकल पाया तो उसकी धुलाई का पानी चार आने में बिकता था। (सोने के दाम के आधार पर उस समय का चार आना आज के दो हजार एक सौ से अधिक होगा।)
(क्रमशः) 

सचिदानंद सिंह
© Sachidanand Singh

भाग (2) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/04/2.html 

Thursday 20 April 2023

सचिदानंद सिंह / अफ़ीम (2) चीन और अफ़ीम

अफ़ीम की चर्चा हो और चीन का नाम न आए यह असंभव है। प्रायः हर देश की तरह चीन के लोग भी अफ़ीम से परिचित थे। सत्राहवीं सदी में तम्बाकू के आने के बाद चीन में तम्बाकू के साथ अफ़ीम मिला कर धूम्रपान करना लोकप्रिय होने लगा। लेकिन बस उच्च और उच्च-मध्य वर्गों में।

आम चीनियों को अफ़ीम की 'लत' लगाने वाले अंग्रेज थे। अंग्रेज चीन से चाय खरीदते थे। बदले में वे चांदी देते थे। सन 1700 में चीन ने कुल 23 हजार पाउंड चाय का निर्यात किया था। सन 1800 में अकेले ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 2.3 करोड़ पाउंड चाय चीन से खरीदी थी और इसके बदले 36 लाख पाउंड चांदी चीन को दिए थे।

करीब पचास वर्षों से अंग्रेज चांदी को इस तरह बहते निकलते देख कर चिंतित थे। वे कोई ऐसी चीज खोज रहे थे जिसके बदले चीन से चाय ली जा सके। वैसी एक चीज अफ़ीम थी और 1757 में बंगाल पर कब्ज़ा जमा लेने पर अंग्रेजों ने बंगाल (बिहार तब सूबा बंगाल का अंग था) में बड़े रकबे पर अफ़ीम की खेती कराई।

उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने चाय के लिए चीन को अफीम देना शुरु किया। अफ़ीम की आवक बढ़ने से उसके दाम गिरे और तब अफ़ीम की आदत मध्य-वर्ग से चीन के श्रमिक वर्ग में भी आगयी। चीन की क़िंग शहंशाही को यह नागवार लगा। शहंशाह ने अंग्रेजों और पश्चिमी राष्ट्रों से होते व्यापार को नियमित करने की कोशिश की।

अफ़ीम का आयात अवैध था, यानी इस पर चीन को चुंगी (कस्टम) नहीं मिलती थी। व्यापार बस पत्तन नगर  कैंटन (ग्वांग्झू) में होता था। अफ़ीम का आयात इतना अधिक हो रहा था कि बस चाय और पोर्सलेन से उसकी कीमत अदा न की जा सकती थी। हर वर्ष चीन से चांदी बाहर जाने लगी, इतनी अधिक कि चीन की मुद्रा पर संकट आ गया।

लेकिन चीनी नौकरशाही अफ़ीम के आयात पर विभाजित थी। दक्षिण में रहते चीनी अधिकारियों की विदेशी और चीनी होंग व्यापारियों (ऐसे चीनी व्यापारी जिन्हें विदेशियों के साथ लेनदेन करने के लाइसेंस मिले थे) से इतनी अधिक कमाई थी कि वे शहंशाह की नहीं सुनते थे। 

अफ़ीम के आयात को रोकने के लिए शहंशाह ने एक ईमानदार व्यक्ति लिन ज़ेशु को अफ़ीम-व्यापार समाप्त करने के लिए कैंटन का प्रशासक बना कर भेजा।  1839 में लिन कैंटन आया और उसी वर्ष पहला अफ़ीम युद्ध शुरु हुआ। पाश्चात्य देशों के जहाज और उनकी तोपें बेहतर थी। 

चार वर्ष बाद संधि हुई लेकिन यह शांति टिक नहीं सकी। कुछ वर्षों बाद 1856 में फिर युद्ध हुआ। अब युद्ध का उद्देश्य अफ़ीम से अधिक व्यापक हो गया था लेकिन यह दूसरा अफ़ीम युद्ध कहलाता है।

 यूरोपियन ने जो चीन में किया उसे याद करने पर नहीं लगता कि अफ़ग़ान उन्हें हेरोइन भेज कर कुछ गलत कर रहे हैं। पर अफ़ग़ानिस्तान के पहले हम पटना देखेंगे जहाँ कम्पनी की अधिकतर अफ़ीम तैयार होती थी।

चित्र: अफ़ीम लेने की तैयारी में चीनी सम्भ्रान्त

सचिदानंद सिंह 
© Sachidanand Singh 

भाग (1) का लिंक, 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/04/1.html 

सचिदानंद सिंह / अफ़ीम (1)

चीन से लेकर मिश्र तक - भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक, तुर्की - सभी जगह कभी न कभी अफ़ीम की खेती हुई है। ठंढे मुल्कों ने भी, जैसे रूस और यूगोस्लाविया, अफ़ीम की खेती कर रखी है। प्राचीन भारत के साहित्य में अफ़ीम के उल्लेख नहीं मिलते हैं लेकिन मध्ययुग से अफ़ीम की खेती और चिकित्सा या मनोरंजन के लिए इसके प्रयोग के पर्याप्त दृष्टांत हैं।

आज भी राजस्थान में सम्माननीय अतिथि को अफ़ीम की एक गोली देने की प्रथा कई क्षेत्रों / परिवारों में है। शायद दस बारह वर्ष पहले जसवंत सिंह जी ने अपने एक समारोह में अफ़ीम मिश्रित चाय बाँटी थी। राजपूत सेनानी प्रायः युद्ध के लिए निकलते समय अपने मन को शांत करने के लिए थोड़ी अफ़ीम ले लेते थे।

अब अफीम की खेती पर मनाही है। बस उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रों में सरकार से लाइसेंस लेकर इसकी खेती होती है और नियमतः पूरी की पूरी फसल सरकार खरीद लेती है। भारत सरकार की दो ओपियम फ़ैक्ट्री हैं - ग़ाज़ीपुर और नीमच में। वहॉं अफ़ीम में मिलने वाले अलकोलॉइड निकाले जाते हैं, मुख्यतः मॉर्फीन, चिकित्सकीय उपयोग के लिए।

० अफ़ीम के पौधे

अफ़ीम के पौधे साढ़े तीन -चार फीट के होते हैं, पत्ते थोड़े बड़े और कुछ भूरे-हरे रंग के। वार्षिक पौधा है यानी हर वर्ष लगाना पड़ता है। इसके फूल आकर्षक होते हैं- सफेद, लाल, पीले या बैगनी-गुलाबी रंग के चार पुष्पपत्र। फल गोल होता है जिसे डोडा या बोड़ी कहते हैं। इसके पतले तने पर या पत्तियों पर भी कुछ रोएं रहते हैं मगर फल पर नहीं।

फल के पक जाने पर उसके अंदर अफ़ीम के बीज मिलते हैं जिन्हें पोस्ता दाना या खसखस कहते हैं। ये सफेद, गोल दाने निर्दोष होते हैं, उनमें कोई नशा नहीं होता। बंगाली पाककला में पोश्तो के बहुत प्रयोग हैं। बंगाल के बाहर कुछ कम लेकिन पूरे भारत में कुछ मिठाइयों के ऊपर खसखस डालने के रिवाज हैं।

खसखस के दानों से अफ़ीम के पौधे उगाए जा सकते हैं। सामान्यतः अंकुरण बहुत अच्छा नहीं होता लेकिन सुना था कि एक बंगाली वृद्धा ने अपने आँगन में कुछ वर्ष कुछ पौधे इसी तरह लगाए थे।

० अफ़ीम

जिसे हम अफ़ीम के नाम से जानते हैं वह अफ़ीम के पौधे का 'दूध' है। तना या फल पर हल्के हाथ से तेज चाकू से चीरा लगाने पर जो लसलसा सफेद द्रव निकलता है उसे ही जमा लिया जाता है। ताजी अफ़ीम नरम होती है,अंदर से नम; उसे कोई रूप दिया जा सकता है। सूखने पर इसका रंग कुछ लाली लिए हुए भूरा होता है। इसकी खास गन्ध होती है जिसे जानकार पहचान लेते हैं और इसका स्वाद कड़वा होता है।

अफ़ीम की रासायनिक रचना बहुत जटिल होती है। इसमें करीब पचीस अलकोलॉइड मिलते हैं। अलकोलॉइड प्रायः विषाक्त रसायन हैं जो वनस्पतियों में मिलते हैं। वे प्रायः क्षारीय होते हैं और ग्रीक शब्द अल्कली (अर्थ क्षार) पर उन्हें अलकोलॉइड कहा गया। मॉर्फीन पहला अलकोलॉइड है जिसे शुद्ध रूप में निकाला जा सका था। अफ़ीम में मिलते पचीसों अलकोलॉइड में मॉर्फीन सबसे मुख्य है। अन्य हैं कोडीन, नारकोटीन, थेबेन आदि। अफ़ीम में प्रायः 9 से 15 प्रतिशत मॉर्फिन होता है।

अफ़ीम (ओपियम) से निकली दवाओं को ओपीओयड कहा जाता था। अब ओपीओयड उन सभी दवाओं को कहा जाता है जो हमारी देह में उन जगहों पर प्रवेश करते हैं जहाँ अफ़ीम से निकले अलकोलॉइड करते हैं। ऐसी संश्लिष्ट (सिन्थेटिक) दवाओं को भी ओपीयओड कहते हैं यद्यपि अफ़ीम से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता।

० मॉर्फीन

इस दवा का नाम नींद और सपनों का यूनानी देवता मॉर्फिअस के नाम पर पड़ा है। अफ़ीम के ज़हरीले / नशीले गुण मुख्यतः इसी अलकोलॉइड से आते हैं। इसका चिकित्सीय प्रयोग दर्दनाशक के रूप में होता आया है। यह हमारे मस्तिष्क के उस भाग को 'दबाता' (शिथिल करता) है जो दर्द की अनुभूति लेता है। साथ ही यह उल्लास का भाव भी जगाता है। मॉर्फीन का प्रयोग चिकित्सीय ही अधिक होता है। चिकित्सा के दौरान कुछ लोग इसके आदी हो जाते हैं फिर उन्हें इसकी तलब सताने लगती है। लेकिन मॉर्फीन से निकली एक अन्य दवा हेरोइन का प्रयोग अब बस मनोरंजक के रूप में होता है।

० हेरोइन

मॉर्फीन से हेरोइन बनती है। बनाने की प्रक्रिया जटिल नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान के बीहड़ इलाकों में भी हेरोइन बनाने वाली प्रयोगशाला मिल जाएंगी। (तालिबान उनसे ज़कात भी लेते हैं।) इसे एसिटाइल मॉर्फीन भी कहते हैं। मॉर्फीन को एसिटिक एनहाइड्राइड के साथ उबालकर इसे पहली बार बनाया गया था।

जर्मनी की बेयर कम्पनी ने पहली बार इसे व्यावसायिक स्तर पर बनाया और इसे बतौर खाँसी की दवा बेचा भी।
(क्रमशः)

सचिदानंद सिंह
© Sachidanand Singh 

Wednesday 19 April 2023

सामूहिक हत्या तथा बलात्कार और एक हत्या का अंतर स्पष्ट करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, संतरे और सेब की तुलना नहीं की जा सकती है / विजय शंकर सिंह

बिलकिस बानो के सजायाफ्ता हत्यारों और ब्लातकारियो को सजा पूरी होने के पहले अनुकंपा के आधार पर गुजरात और भारत सरकार द्वारा उन्हे रिहा कर देने के निर्णय के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है। इसी मामले, बिलकिस याकूब रसूल बनाम भारत संघ व अन्य, 2022 की रिट याचिका (आपराधिक) संख्या 491, की सुनवाई के दौरान, 18 अप्रैल को, सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया गया कि, केंद्र और गुजरात दोनों सरकारें बिलकिस बानो मामले में 11 आजीवन सजा पाए दोषियों को, उनकी सजा में दी गई छूट की फाइलें तैयार करने के निर्देश देने वाले, अदालत के आदेश की समीक्षा की मांग कर सकती हैं। सुनवाई के समय ही शीर्ष अदालत ने यह निर्देश दिया था कि, इन 11 सजायाफ्ता अपराधियों को रिहा किए जाने से संबंधित फाइलें, सरकारें तैयार रखें। गुजरात और भारत सरकार के वकील ने अदालत के इसी निर्देश के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर करने की बात कही है।

न्यायमूर्ति केएम जोसेफ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ उन 11 दोषियों को समय से पहले रिहा करने के गुजरात सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है, जिन्हें गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान कई हत्याओं और बिलकिस बानो से सामूहिक बलात्कार के मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। पिछले साल, स्वतंत्रता दिवस पर, राज्य सरकार द्वारा उनकी सजा को कम करने के लिए उनके आवेदनों को मंजूरी देने के बाद, उन 11 सजायाफ्ता अपराधियों को रिहा कर दिया गया था। 

इस साल की शुरुआत में बिलाकिस बानो की याचिका पर नोटिस जारी करते हुए न्यायमूर्ति जोसेफ की अध्यक्षता वाली पीठ ने निर्देश दिया था, "पहला प्रतिवादी, यानी, भारत संघ और दूसरा प्रतिवादी, यानी, गुजरात राज्य सुनवाई की अगली तारीख पर पार्टी के उत्तरदाताओं को छूट देने के संबंध में प्रासंगिक फाइलों (रिहाई आदेश की फाइलों) के साथ तैयार रहेगा।  यह दलीलें दाखिल करने के अलावा दिया जा रहा आदेश है, क्योंकि उन्हें फाइल करने की सलाह दी जाती है।”

वरिष्ठ अधिवक्ता और अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल एसवी राजू ने इस पर सुनवाई के दौरान, अदालत को बताया कि, "शीर्ष अदालत के 27 मार्च के आदेश (फाइलों के साथ तैयार रहने के आदेश) पर पुनर्विचार के लिए एक पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती है।" 
"क्या आप संघ या राज्य के लिए उपस्थित हो रहे हैं?" जस्टिस जोसेफ ने पूछा। 
"दोनों," एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने उत्तर दिया। 
संभावित हितों के टकराव के बारे में पूछे जाने पर, एएसजी,  राजू ने कहा कि,  "ऐसी कोई बात नहीं है। सोमवार तक, हम समीक्षा आवेदन दाखिल करने के बारे में फैसला करेंगे। दोनों सरकारें, समीक्षा आवेदन फाइल करना चाहती हैं।" उन्होंने पीठ को आश्वासन दिया।
जस्टिस जोसेफ ने हैरानी जताते हुए कहा, "हमने आपसे केवल फाइलों के साथ तैयार रहने को कहा है। उस आदेश के बारे में भी आप चाहते हैं कि हम समीक्षा करें?"

राज्य और केंद्र दोनों ने सरकारों ने, रिहा हुए दोषियों को दी गई छूट पर अपनी फाइलें पेश करने में, अपनी अनिच्छा जाहिर की। न्यायमूर्ति जोसेफ ने स्पष्ट किया कि, "इस मामले में महत्वपूर्ण सवाल यह था कि क्या छूट देते समय, राज्य सरकार ने दोषियों के छूट आवेदनों को मंजूरी देने से पहले 'सही' सवाल पूछे थे और 'अपने दिमाग का इस्तेमाल' किया था। वह कौन सी सामग्री थी जिसने इस निर्णय का आधार बनाया?  क्या सरकार ने सही सवाल पूछे और क्या वह सही कारकों द्वारा निर्देशित थी?  क्या इसने अपना दिमाग लगाया?"

एएसजी राजू ने अदालत को अपने  जवाब में कहा कि, "रिहाई आदेश देते समय, सरकारों ने, दिमाग का इस्तेमाल किया था।"
जस्टिस जोसेफ ने, इस पर पुनः सवाल किया, "फिर हमें फाइल दिखाइए।  हमने आपको उन फाइलों के साथ तैयार रहने के लिए कहा है।”
“हमारे पास फाइलें हैं।  वास्तव में, मैं उन्हें अपने साथ अदालत में ले भी आया हूं। लेकिन मेरे पास निर्देश (सरकारों की तरफ से प्राप्त निर्देश का वे उल्लेख कर रहे हैं) हैं कि, "हम इस अदालत के,  आदेश (फाइलों को तैयार रखने के आदेश) की समीक्षा की मांग कर सकते हैं।  हम भी विशेषाधिकार का दावा कर रहे हैं।"

"कानून बहुत स्पष्ट है।  कोई भी राज्य सरकार कानून की सीमाओं से बच नहीं सकती है या प्रासंगिक तथ्यों पर विचार करने, अप्रासंगिक तथ्यों से बचने, यह देखने के लिए कि क्या कोई दुर्भावना शामिल है, और वेडन्सबरी सिद्धांत के तहत अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने दिमाग का उपयोग करने की अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है।" जस्टिस जोसेफ ने कहा।
उन्होंने आगे कहा, कि "केंद्र सरकार या उसकी सहमति के साथ, किसी भी परामर्श के बावजूद, राज्य सरकारों को स्वतंत्र रूप से छूट आवेदनों का आकलन करने की आवश्यकता थी। अब आप कह रहे हैं कि आप फाइलें पेश करने से इनकार करने जा रहे हैं।"
एएसजी राजू ने जवाब दिया,"इस अदालत द्वारा समीक्षा आवेदन और सरकार के विशेषाधिकार के अधिकार पर लिए गए फैसले के अधीन वे हैं।"

"हम इस बात की जांच करने में रुचि रखते हैं कि क्या सरकार ने कानून के मापदंडों के भीतर, और एक भरोसेमंद तरीके से छूट देने की शक्ति का प्रयोग किया है। बस इतना ही।  यदि आप हमें कोई कारण नहीं बताते हैं, तो हम अपने निष्कर्ष निकालने के लिए बाध्य होंगे।"  जस्टिस जोसेफ ने यह कहते हुए अपनी बात खतम की।
"मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ।  जरूरत पड़ी तो शपथ पत्र में जानकारी दूंगा। मुझे अपना दिमाग लगाने दीजिए।  मैं अगले हफ्ते, अदालत में अपना पक्ष रखूंगा।” अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल ने अनुरोध किया।

सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने यह भी सुझाव दिया कि "केंद्र और राज्य को सीलबंद लिफाफे में संबंधित दस्तावेज पेश करने की अनुमति दी जा सकती है।"
उल्लेखनीय है कि, इस महीने की शुरुआत में, एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि, "सीलबंद कवर प्रक्रिया प्राकृतिक न्याय और खुले न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।" मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने मलयालम समाचार चैनल मीडियावन पर केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए प्रसारण प्रतिबंध के खिलाफ याचिका को स्वीकार करते हुए सीलबंद कवर में अदालतों को गोपनीय दस्तावेज पेश करने का विकल्प पर यह टिप्पणी की थी। तब  विशेष रूप से, बेंच ने कहा कि उन मामलों में भी जहां राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर सूचना का खुलासा नहीं करना न्यायोचित था, अदालतों को कम प्रतिबंधात्मक उपाय अपनाने चाहिए।  इस संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक 'जनहित प्रतिरक्षा दावा प्रक्रिया' तैयार की, जो कुछ सूचनाओं की गोपनीयता की आवश्यकता के साथ पारदर्शिता के हितों को संतुलित करेगी।

न्यायमूर्ति जोसेफ ने 1 मई तक अपना जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए भी एएसजी से कहा। अब मामले को 2 मई के लिए सूचीबद्ध किया गया है। केंद्र और गुजरात सरकार दोनों की ओर से पेश हुए एएसजी एसवी राजू ने पीठ से कहा, ''हम इस बारे में सोमवार तक विचार करेंगे कि समीक्षा आवेदन, फाइल करनी है या नहीं।''

प्रारंभ में, दोषियों के वकीलों ने मामले में जवाब देने के लिए और समय मांगा और पीठ से सुनवाई स्थगित करने का आग्रह किया।  हालांकि, याचिकाकर्ताओं ने इस अनुरोध का कड़ा विरोध किया। वरिष्ठ अधिवक्ता एएम सिंघवी और अधिवक्ता शोभा गुप्ता ने प्रस्तुत किया कि "कोई भी नया तथ्य नहीं दायर किया गया है। इसलिए प्रतिवादी स्थगन की मांग करने के लिए रिकॉर्ड की मात्रा का हवाला नहीं दे सकते।"

जबकि पीठ ने सहमति व्यक्त की कि, "कभी-कभी आरोपी व्यक्ति देरी करने की रणनीति में लिप्त होते हैं, इसलिए, विपरीत पक्ष को जवाब देने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए।"
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, "जब भी सुनवाई होती है, एक आरोपी इस अदालत में आएगा और स्थगन की मांग करने लगेगा। चार हफ्ते बाद, एक और आरोपी ऐसा ही करेगा और यह दिसंबर तक चलेगा। हम इस रणनीति से भी अवगत हैं।"  .
जिसके बाद सरकार की ओर से पेश एएसजी एसवी राजू ने सुझाव दिया कि सुनवाई के लिए निश्चित तारीख तय की जा सकती है।

सुनवाई के दौरान खंडपीठ ने मामले के रिकॉर्ड का भी अवलोकन किया।  यह नोट किया गया कि, दोषियों को, जब वे सजा काट रहे थे, तब, वस्तुतः 3 साल की पैरोल दी गई थी। उनमें से प्रत्येक को 1,000 से अधिक दिनों की पैरोल दी गई थी। एक दोषी को 1,500 दिन की पैरोल मिली। यह सब अदालत ने नोट किया है।  आप किस नीति का पालन कर रहे हैं?" पीठ ने पूछा।
न्यायाधीश ने कहा कि "बलात्कार और सामूहिक हत्या के अपराध से जुड़े मामले की तुलना साधारण हत्या के मामले से नहीं की जा सकती। क्या आप सेब और संतरे की तुलना करेंगे?"  
प्रतिवादियों की ओर से पेश हुए अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने कहा, "आपने कहा है कि यह एक गंभीर अपराध है, और मैं इससे सहमत हूं... लेकिन हम उन पुरुषों के साथ भी क्या व्यवहार कर रहे हैं जो 15 साल से हिरासत में हैं।"
"क्या वे 15 साल से हिरासत में हैं? 1000 दिनों से अधिक की पैरोल ..." जस्टिस जोसेफ ने जवाब दिया।

जब राज्य सरकार ने उनके क्षमा आवेदनों को अनुमति दी तो, सभी ग्यारह दोषियों को 15 अगस्त, 2022 को रिहा कर दिया गया। रिहा किए गए दोषियों के वीरतापूर्ण स्वागत के दृश्य सोशल मीडिया में वायरल हो गए, जिससे कई वर्गों में आक्रोश फैल गया।  इस पृष्ठभूमि में, दोषियों को दी गई राहत पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएँ दायर की गईं।  बिल्किस ने दोषियों की समय से पहले रिहाई को भी चुनौती दी है।

गुजरात सरकार ने एक हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि दोषियों के अच्छे व्यवहार और उनके द्वारा 14 साल की सजा पूरी होने को देखते हुए केंद्र सरकार की मंजूरी के बाद यह फैसला लिया गया है। राज्य के हलफनामे से पता चला कि सीबीआई और ट्रायल कोर्ट (मुंबई में विशेष सीबीआई कोर्ट) के पीठासीन न्यायाधीश ने इस आधार पर दोषियों की रिहाई पर आपत्ति जताई कि अपराध गंभीर और जघन्य था।

बिलकीस बानो की एडवोकेट शोभागुप्ता का कहना है कि "बिलकिस ने अपने और अपने परिवार के सदस्यों के खिलाफ भयानक हिंसा का सामना किया, जिसमें उसके और उसकी अन्य महिला रिश्तेदारों पर सांप्रदायिक सामूहिक बलात्कार शामिल है, कुल 8 नाबालिगों सहित कुल 8 नाबालिगों सहित उसके तत्काल परिवार के 14 सदस्यों का सफाया किया गया। 

० बिलकिस बानो मुकदमे की पृष्ठभूमि

3 मार्च 2002 को, बिलकुल बानो, जो 21 साल की थी और पांच महीने की गर्भवती थी, के साथ गुजरात के दाहोद जिले में गोधरा के बाद के सांप्रदायिक दंगों के दौरान सामूहिक बलात्कार किया गया था।  उनकी तीन साल की बेटी सहित उनके परिवार के सात सदस्यों को भी दंगाइयों ने मार डाला था।  2008 में, मुकदमे को महाराष्ट्र स्थानांतरित किए जाने के बाद, मुंबई की एक सत्र अदालत ने अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता, आईपीसी, 1860 की धारा 302, और 376 (2) (ई) (जी) के साथ धारा 149 के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 
मई 2017 में, न्यायमूर्ति वीके ताहिलरमानी की अध्यक्षता वाली बॉम्बे हाई कोर्ट की बेंच ने 11 दोषियों की सजा और आजीवन कारावास को बरकरार रखा।
दो साल बाद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी गुजरात सरकार को बानो को मुआवजे के रूप में 50 लाख रुपये देने के साथ-साथ उसे सरकारी नौकरी और एक घर प्रदान करने का निर्देश दिया।

एक उल्लेखनीय घटनाक्रम में, लगभग 15 साल जेल में रहने के बाद, दोषियों में से एक, राधेश्याम शाह ने अपनी सजा में छूट के लिए गुजरात उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। हालांकि, उच्च न्यायालय ने न्यायिक क्षेत्राधिकार के आधार पर उसे, नहीं सुना और वापस कर दिया। यह माना गया कि उनकी छूट के संबंध में निर्णय लेने के लिए उपयुक्त सरकार महाराष्ट्र सरकार थी, न कि गुजरात सरकार। क्योंकि सजा, महाराष्ट्र राज्य के सत्र न्यायालय द्वारा दी गई थी।

लेकिन, जब मामला सुप्रीम कोर्ट में अपील में चला गया, तो जस्टिस अजय रस्तोगी और विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि, सजा में छूट और रिहाई पर,  गुजरात सरकार को फैसला करना चाहिए था क्योंकि प्रश्नगत अपराध, गुजरात राज्य में हुआ था।  पीठ ने यह भी कहा कि मामले को "असाधारण परिस्थितियों' के कारण महाराष्ट्र में स्थानांतरित कर दिया गया था, वह भी केवल मुकदमे के सीमित उद्देश्य के लिए। इसके बाद, गुजरात सरकार को दोषियों के आवेदनों पर विचार करने की अनुमति दी गई थी। 

तदनुसार, छूट नीति के तहत जो उनकी सजा के समय लागू थी, दोषियों को पिछले साल राज्य सरकार द्वारा रिहा कर दिया गया था, जिससे काफी हंगामा हुआ था।  खुद बिलकिस बानो ने ही नहीं बल्कि अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी शीर्ष अदालत के समक्ष इस विवादास्पद फैसले को चुनौती देते हुए जनहित याचिका (पीआईएल) याचिका दायर की है।

राज्य सरकार ने एक हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि 14 साल से जेल में बंद दोषियों के 'अच्छे व्यवहार' को ध्यान में रखते हुए केंद्र की मंजूरी के बाद यह फैसला लिया गया है। अन्य बातों के अलावा, राज्य के हलफनामे से पता चला कि, मुंबई में विशेष सीबीआई अदालत के पीठासीन न्यायाधीश ने इस आधार पर दोषियों की रिहाई पर आपत्ति जताई कि अपराध गंभीर और जघन्य था।  बानो की ओर से पेश एडवोकेट शोभा गुप्ता ने भी सरकार के फैसले का पुरजोर विरोध करते हुए कहा है कि गैंगरेप पीड़िता ने अपने और अपने परिवार के सदस्यों पर भीषण हिंसा का सामना किया है। अभी सुनवाई जारी है।

(विजय शंकर सिंह)