Wednesday 29 January 2020

जनवरी 30 1948, के पहले गांधी जी की हत्या के प्रयास की क्रोनोलॉजी / विजय शंकर सिंह


● गांधी की हत्या के प्रयास 1934 से ही किये जा रहे थे। गांधीजी भारत आये उसके बाद उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को किया गया। पूना में गांधीजी एक सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे, तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था। गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गये। हत्या का यह प्रयास हिन्दुत्ववादियों के एक गुट ने किया था। बम फेंकने वाले के जूते में गांधीजी तथा नेहरू के चित्र पाये गये थे, ऐसा पुलिस रिपोर्ट में दर्ज है। 
 
● गांधीजी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 में पंचगनी में किया गया। जुलाई 1944 में गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गये थे। तब पूना से 20 युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा। दिन भर वे गांधी-विरोधी नारे लगाते रहे। इस गुट के नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात करने के लिए बुलाया। मगर नाथूराम ने गांधीजी से मिलने के लिए इन्कार कर दिया। शाम को प्रार्थना सभा में नाथूराम हाथ में छुरा लेकर गांधीजी की तरफ लपका। पूना के सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने नाथूराम को पकड लिया।
 
● गांधीजी की हत्या का तीसरा प्रयास भी इसी 1944 सितम्बर में वर्धा में किया गया था।
गांधीजी, मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई जाने वाले थे। गांधीजी बम्बई न जा सकें, इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहुॅचा। उसका नेतृत्व नाथूराम कर रहा था। 
उस गुट के एक व्यक्ति थने के पास से एक छुरा बरामद हुआ था। यह बात पुलिस रिपोर्ट में दर्ज है। कहा गया यह छुरा गांधीजी की मोटर के टायर को पंक्चर करने के लिए लाया गया था, ताकि एक तय जगह पर उनकी हत्या कर दी जाय। ऐसा बयान थने ने अपने बचाव में दिया था। 

इस घटना के सम्बन्ध में प्यारेलाल (म.गांधी के सचिव) ने लिखा है :
'आज सुबह मुझे टेलीफोन पर जिला पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट से सूचना मिली कि आरएसएस के स्वयंसेवक गम्भीर शरारत करना चाहते हैं,
इसलिए पुलिस को मजबूर होकर आवश्यक कार्रवाई करनी पडेगी।
बापू ने कहा कि मैं उसके बीच अकेला जाऊंगा और वर्धा रेलवे स्टेशन तक पैदल चलूगा,
स्वयंसेवक स्वयं अपना विचार बदल लें और मुझे मोटर में आने को कहें तो दूसरी बात है।

बापू के रवाना होने से ठीक पहले पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट आये और बोले कि धरना देने वालों को हर तरह से समझाने-बुझाने का जब कोई हल न निकला, तो पूरी चेतावनी देने के बाद मैंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है। धरना देनेवालों का नेता बहुत ही उत्तेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती थी। गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला।
(महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)
इस बार भी स्वयंसेवकों की यह योजना विफल हुई।
 
● गांधीजी की हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था। 
गांधीजी विशेष ट्रेन से बम्बई से पूना जा रहे थे,
उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था। 
उस रात को ड्राइवर की सूझ-बूझ के कारण गांधीजी बच गये। 

दूसरे दिन, 30 जून की प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का उल्लेख करते हुए कहा : ''परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरशः मृत्यु के मूंह से सकुशल वापस आया हूँ। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुंचाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है, फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ मे नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का प्रयास निष्फल गया।'
 
नाथूराम गोडसे उस समय पूना से 'अग्रणी' नाम की मराठी पत्रिका निकालता था। गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर होने के बाद 'अग्रणी' के एक अंक में नाथूराम ने लिखा- 'पर जीने कौन देगा  ? यानी कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा ? गांधीजी की हत्या से डेढ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य है। 

यह कथन साबित करता है कि वे गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से प्रयासरत थे। 
अग्रणी का यह अंक शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है।

● इसके बाद 20 जनवरी 1948 को मदनलाल पाहवा ने गांधीजी पर प्रार्थना सभा में बम फेंका 

● 30 जनवरी 1948 के दिन नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या कर दी। आज वही दुर्भाग्यपूर्ण दिन है। यह हत्या स्वाधीन भारत की पहली आतंकी घटना है। 

कश्मीरनामा और कश्मीरी पंडितों पर शोधपरक किताबे लिखने वाले अशोक कुमार पांडेय का यह उद्धरण भी पठनीय है, 
" उसने गांधी को मारा क्योंकि उसका हृदय घृणा से भर दिया गया था। घृणा ने उसके उपेक्षित जीवन को एक उद्देश्य दे दिया था। उसे बताया गया था कि राष्ट्र का अर्थ हिन्दू राष्ट्र है। उसे भरोसा दिलाया गया था कि एक अस्सी साल के वृद्ध की हत्या पुण्य कार्य है। उसे बताया गया था कि नफ़रत प्रेम से बड़ी चीज़ है। 
उसने गाँधी को मारा क्योंकि वह राष्ट्र के लिए कुछ करना चाहता था और उसे बताया गया था कि वह कुछ नहीं कर सकता। उसे इतिहास की कन्दराओं में ऐसे पटक दिया गया था कि वह भविष्य देख पा रहा था न वर्तमान। 
उसने गांधी को मारा क्योंकि उसे धर्म के नाम पर राजनीति का एक कुत्सित पाठ पढ़ाया गया था। वह हिंदुत्व नाम के एक षड्यंत्र का शिकार होकर हिंदू होना तक भूल चुका था। उन्होंने एक उत्साही युवा को हत्यारे में बदल दिया। पिस्तौल पर अंगुली उसकी थी लेकिन दिमाग़ में ज़हर उन्होंने भरा था जो एक बड़े षड्यंत्र के निर्माता थे - हमारे देश की संकल्पना को विकृत करने के षड्यंत्र के। 
आज भी वे हमारे इर्द गिर्द हैं। उनका ज़हर प्रचंड होता जा रहा है। युवाओं का एक समूह अभिशप्त प्रेतों सा चल रहा है उनके पीछे उन्मत्त। धर्म को गालियों और कुत्सित नारों का पर्याय बनाते हुए उन्होंने हमला बोल दिया है। 
उनसे अपने बच्चों को बचा कर नफ़रत की गोलियों के आगे प्रेम का सीना बन जाना ही आज हमारा युगधर्म है। "

गांधी जी की अंतिम यात्रा का अंश भी पढ़े, रेडियो पत्रकार, मैलविल डी मैलो की कलम से जो मैंने शुक्रवार पत्रिका के संपादक श्री अम्बरीष कुमार की फेसबुक टाइमलाइन से उठाया है। 
" राजकीय शोक यात्रा में रेडियो की मेरी गाड़ी धीरे धीरे रेंगती हुई चल रही थी।क्वीसवे,किंग्जवे, हारडिंग एवेन्यू और बेला रोड, होते हुए राजघाट की ओर। हमारी रेडियो गाड़ी के ठीक पीछे था वह विशेष वाहन, जिस पर महात्मा गांधी का पार्थिव शरीर आम जनता के दर्शन के लिए रखा हुआ था। इनके शरीर के आसपास पंडित नेहरू , सरदार वल्लभभाई पटेल, देवदास गांधी, सरदार बलदेव सिंह, आचार्य कृपलानी और राजेंद्र प्रसाद कुछ ऐसे अस्थिर से खड़े थे मानो संगमरमर की मूर्ति हो। और रास्ते में खड़े थे दोनों तरफ लाखों लोग। लाखों कंट बापू के प्रिय भजनों को गा रहे थे। लाखों उनकी अमरता, उनकी जय-जयकार कर रहे थे। और सब रो रहे थे_लोगों के इस समुद्र में मुझे एक भी आंख ऐसी नहीं देखी जो सुखी हो। चंदन की लकड़ियों की चिता से पहली लपट आकाश की ओर उठी और उधर सूरज डूब गया था। लहरों की तरह लोग आगे बढ़ रहे थे तुम बिना और इन लहरों से उठ रही थी सिसकियों  की आवाजें। लगता था मानो राजघाट कोई तूफान उतरआया हो। यह भावनाओं का तूफान था। अब तक की व्यवस्था इसने तोड़ दी थी। स्त्री पुरुष सबने बार तोड़ दी, रस्सी से खंबे तार सब टूट गए थे । पुलिस सब कुछ उस तूफान का हर एक हिस्सा बन चुके थे। अब सब धीरे-धीरे उस चंदन की चिता की परिक्रमा में लगे थे। चंदन की लगते भी ऊपर उड़ चली थी और उसकी सुगंध अब पूरी सांझ के प्रकाश में फैल गई थी। राज्यपाल राजदूत केंद्रीय मंत्री और सर्वसाधारण सब लोग जमुना के किनारे के इस छोटे से टुकड़े में समा गए थे आज। मानवता की अटूट इस श्रृंखला में होती लहरों के बीच मैंने अपने को इस पर सवार उस लाचार चींटी की तरफ आया था जो एक भवर के बीच थक गई हो।"

© विजय शंकर सिंह 

कुणाल कामरा पर प्रतिबंध सिविल एविएशन के नियमों के विरुद्ध है / विजय शंकर सिंह

स्टैंड अप कॉमेडियन कुणाल कामरा के हवा में उड़ने पर इंडिगो एयरलाइंस ने 6 महीने के लिये प्रतिबंध लगा दिया है। उसके तुरन्त बाद इंडियन एयरलाइंस ने भी अनिश्चित काल के लिये प्रतिबंध लगा दिया है। अब यह खबर आ रही है कि, विस्तारा को छोड़ कर सभी एयरलाइंस ने कुणाल की हवाई यात्राओ पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसका कारण यह बताया गया है कि, कुणाल कामरा ने रिपब्लिक टीवी के पत्रकार और एंकर अर्नब गोस्वामी के साथ वाचिक अभद्रता की जो एयरलाइंस के नियमों के विपरीत है। दोनो ही इंडिगो एयरलाइंस के जहाज 6E 5317  से मुंबई से लखनऊ जा रहे थे। कुणाल ने उसी जहाज में बैठे अर्नब गोस्वामी से उन्ही के एंकर वाली स्टाइल में कुछ कहा था। 

कुणाल ने जहाज में जो कहा उसे पढिये। " यहां डरपोक अर्नब गोस्वामी से उनकी पत्रकारिता को लेकर कुछ सवाल पूछ रहा हूं. अर्नब वही कर रहे हैं, जिसकी मुझे उम्मीद थी. एक डरपोक होने के नाते पहले वो मुझे मानसिक रूप से बीमार कहते हैं और अब कह रहे हैं कि मैं कुछ देख रहा हूं. ये मेरे सवालों का जवाब नहीं देना चाहते हैं. आज दर्शक जानना चाहते हैं कि अर्नब गोस्वामी एक डरपोक हैं या राष्ट्रवादी? अर्नब ये नेशनल इंटरेस्ट है. मैं टुकड़े-टुकड़े नैरेटिव का हिस्सा हूं. आप देश के दुश्मनों को आड़े हाथों लीजिए. आप इस बात को साबित कीजिए कि देश सुरक्षित हाथों में है. आपको उन राहुल गांधी के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए, जिनका मैं समर्थन करता हूं. अर्नब कम से कम जवाब दो अर्नब. क्या आप डरपोक हैं? क्या आप पत्रकार हैं? मैं आपके जवाब का इंतज़ार कर रहा हूं. मैं आपसे सौम्यता से बात करना चाहता हूं. लेकिन आप मेरी सौम्यता के काबिल नहीं हैं. ये आपके लिए नहीं हैं. ये रोहित वेमुला की मां के लिए है, जिसकी जाति पर आपने शो में चर्चा की थी. मैं जानता हूं कि ये मुझे ये नहीं करना चाहिए और मैं इसके लिए जेल जा सकता हूं. लेकिन ये रोहित वेमुला की मां के लिए है. जाइए और वक़्त निकालकर रोहित वेमुला का 10 पेज का सुसाइड लेटर पढ़िए. तब शायद आप में भावनाएं जाग पाएं और आप एक इंसान बन सकें.”

एयरलाइंस कंपनियों को उद्दंड और नियमविरुद्ध यात्रियों को प्रतिबंधित करने के अधिकार हैं और इसके नियम कानून भी हैं। यह प्रतिबंध सिविल एविएशन रिक्वायरमेंट की धारा 3, सीरीज M, पार्ट Vl जो “Handling of Unruly Passengers rules " उडद यात्रियों से निपटने के लिये बनायी गयी नियमावली जो 2017 में पुनर्संशोधित की गयी है के अंतर्गत किये जाते हैं। अब यह नियम देखें। 

 8 सितम्बर 2017 को भारत सरकार ने उद्दंड वायु यात्रियों के व्यवहार से निपटने के लिए कुछ नियम बनाये। सरकार के अनुसार, एयरलाइंस द्वारा ऐसे यात्रियों के लिये नो फ्लाई लिस्ट दुनिया मे अपनी तरह का एक अनोखा और अकेला नियम है, क्यों कि यह सहयात्रियों, जहाज के क्रू, और जहाज की सुरक्षा और सुविधा को ध्यान में रख कर बनाया गया है। सुरक्षित और निरापद हवाई यात्रा के लिये जापान के शहर टोक्यो में एक वैश्विक सम्मेलन 1963 में हुआ था, जिसमे इस प्रकार के नियम पहली बार बनाये गए थे। भारत सरकार का 2017 में संशोधित किया गया नियम भी टोक्यो सम्मेलन के प्राविधान के आधार पर किया गया है। यह नियम सभी एयरलाइंस पर जो भारत की सीमा में उड़ रही हैं और उनके यात्रा कर रहे या करने जा रहे भारतीय और विदेशी नागरिकों पर लागू होंगे। 

2017 के सिविल एविएशन रूल्स सीएआर के अंतर्गत तीन श्रेणियां बनायी गयी हैं। 
● श्रेणी 1. मुंहजबानी, बदतमीजी या वाचिक अभद्रता करने वाले यात्रियों को अधिकतम तीन महीने तक,
● श्रेणी 2, शारिरिक अभद्रता यानी हाथापाई करने वाले यात्रियों को अधिकतम 6 महीने तक,
● श्रेणी 3, धमकी देने और ऐसा आचरण करने वाले यात्रियों को न्यूनतम दो साल तक हवाई यात्रा से प्रतिबंधित करने का नियम है। 

नियमों के अनुसार, अभद्रता भरे व्यवहार, जिसे अंग्रेजी में unruly behaviour कहा गया है की शिकायत पर, जो मुख्य पॉयलट द्वारा लिखित मे की जाएगी, एयरलाइंस द्वारा गठित एक आंतरिक कमेटी जांच करेगी। नियमों के अनुसार, ऐसी आंतरिक कमेटी की अध्यक्षता एक जिला और सत्र न्यायाधीश करेंगे। उनकी सहायता के लिये अन्य एयरलाइंस, यात्री संगठनों, उपभोक्ता संगठनों या का कंज्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेसल फोरम के रिटायर्ड सदस्य भी रह सकते हैं। यह कमेटी डीजीसीए गठित करता है। सिविल एविएशन रूल्स के अनुसार, यह आंतरिक कमेटी 30 दिन में जांच रिपोर्ट देगी। जिसमे उस अभद्र आचरण को स्पष्ट करेगी कि क्या और किस प्रकार की अभद्रता यात्री द्वारा की गयी है। जांच की अवधि और कार्यवाही तक सम्बन्धित एयरलाइंस उक्त आरोपित यात्री पर अस्थायी प्रतिबंध लगा सकती है। 

सिविल एविएशन के महानिदेशक डीजीसीए अरुण कुमार ने मीडिया रिपोर्ट्स अनुसार बताया है कि यह प्रतिबंध सीएआर नियमावली के विरुद्ध है। यहां भी एयरलाइंस ने सीएआर नियमो का खुद ही पालन नहीं किया है। 
● एक,  कुणाल ने अगर अभद्रता की भी है तो उन्होंने केवल बोला है जिसमे अधिकतम 3 महीने तक का ही प्रतिबंध लगाया जा सकता है। 
● दूसरे अगर कुणाल ने नियमों का उल्लंघन किया भी है तो उसकी कोई लिखित शिकायत भी किसी सहयात्री या अर्नब गोस्वामी ने की भी है या नहीं। 
● तीसरे, एयरलाइंस ने किसी आंतरिक जांच कमेटी का भी गठन इस आरोप की जांच के लिये किया है या नहीं। 
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है।

अन्य एयरलाइंस द्वारा यात्रा प्रतिबंधित करने का जो आदेश दिया गया है उसके बारे में क्या आधार है यह भी नहीं बताया गया है। इस बारे में भी नियम यह स्पष्ट कहते हैं कि बिना किसी आंतरिक जांच के किसी भी यात्री को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है। एयर इंडिया ने अपने प्रतिबंध के आदेश में कोई समय सीमा नहीं दी है बल्कि अग्रिम आदेश तक यह प्रतिबंध रहेगा, यह कहा है। अगर सुरक्षा कारणों से कोई प्रतिबंध एयरलाइंस लगाती हैं तो उन्हें ऐसा करने के लिये गृह मंत्रालय से एडवायजरी भेजी जाती है। कुणाल के मामले में न तो कोई आंतरिक जांच ही हुयी  है और न ही गृह मंत्रालय से कोई एडवायजरी जारी की गयी है। डीजीसीए के डीजी अरुण कुमार ने भी यह कहा है कि प्रतिबंधित करने के पहले कम से कम इंडिगो एयरलाइंस को नियमों के अंतर्गत आंतरिक कमेटी की जांच करा लेनी चाहिए थी। 
इंडिगो एयरलाइंस और एयर इंडिया द्वारा कुणाल को प्रतिबंधित किये जाने के बाद, सिविल एविएशन मंत्री हरदीप सिंह पूरी ने एक एडवायजरी ट्वीट से जारी की जिसके बाद, स्पाइस जेट ने भी कुणाल कामरा को 6 महीने के लिये प्रतिबंधित कर दिया। 

निजी एयरलाइंस द्वारा इस प्रकार सरकार को खुश करने के लिये सीएआर नियमावली का खुला उल्लंघन और अवहेलना करते हुए किसी भी यात्री की वायु यात्रा प्रतिबंधित कर देना एक गलत और विधिविरुद्ध प्रवित्ति है। इस प्रकरण पर बाद में कुणाल ने अपनी बात को लेकर  यह बयान भी जारी किया।
" आज मैं लखनऊ की फ्लाइट में अर्नब गोस्वामी से मिला. मैंने प्यार से उनसे बातचीत करने के लिए कहा. पहले वो ऐसे पेश आए कि जैसे वो फ़ोन कॉल पर हैं. मैंने फोन कॉल पूरी होने का इंतज़ार किया. तब तक सीट बेल्ट लगाने के निर्देश नहीं दिए गए थे. मैं अर्नब की पत्रकारिता को लेकर जो सोचता हूं, उस पर अपनी राय रखी. वो मेरे किसी भी सवाल का जवाब देने से इंकार करते हैं. फ्लाइट के टेकऑफ करने और सीट बेल्ट साइन दोबारा ऑफ होने के बाद मैं दोबारा अर्नब के पास गया. अर्नब बोले कि वो कुछ देख रहे हैं और बात नहीं करना चाहते हैं. तब फिर मैंने वही किया जो रिपब्लिक टीवी के पत्रकार लोगों के साथ करते हैं. मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है. सीट पर लौटने के बाद मैंने क्रू मेंबर्स और पायलट से माफ़ी मांगी कि मेरी वजह से उन्हें जो दिक़्क़त हुई। "

आज से कुछ माह पहले बम ब्लास्ट के आतंकी मामले में अभियुक्त और भाजपा की  भोपाल से सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने जहाज में ही एक खिड़की वाली सीट के लिये हंगामा किया था। हंगामा इतना बढ़ा कि सहयात्री भी उनसे उनकी ज़िद छोड़ने के लिये और उन्हें जो सीट आवंटित थी, वहां जाने के लिये कहने लगे। काफी तमाशा हुआ। पर तब न मंत्री का कोई ट्वीट ऐडवाज़ारी जारी हुआ और न एयरलाइंस ने उनको प्रतिबंधित किया। वे तो एक अभियुक्त हैं। अभियुक्त भी बम ब्लास्ट की आतंकी घटना का। अगर सरकार और प्रतिष्ठान नियम कानूनो को लागू करते समय दोहरी दृष्टि का उपयोग करेंगे तो जनता से ही केवल यह अपेक्षा करना कि वह कानून का पालन करे, यह कानून का मज़ाक बनाना है। 

© विजय शंकर सिंह 

Tuesday 28 January 2020

सीएए से क्या हमारी अंतरराष्ट्रीय साख भी गिरी है ? / विजय शंकर सिंह

26 जनवरी को देश और अंतरराष्ट्रीय जगत में दो बड़ी घटनाएं हुयी, जिनसे भारत का सीधा संबंध है। देश मे हर साल की तरह गणतंत्र दिवस का भव्य आयोजन किया गया। राजपथ पर एक भव्य परेड हुयी और हमने सत्तर सालों में हुयी देश की प्रगति देखी। साल दर साल गणतंत्र दिवस की भव्यता बढ़ती ही जा रही है। यह गर्व का विषय है। 
पर राजपथ से लग्भग 15 किमी दूर शाहीन बाग नामक स्थान पर जहां 19 दिसंबर से आम जनता का नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन के विरोध में जो सत्याग्रह चल रहा है उसी जगह पर लग्भग लाखों की भीड़ ने जनतंत्र का महापर्व मनाया और संविधान की प्रस्तावना का पाठ किया। यह जनता का उत्सव था और राजपथ के सरकारी आयोजन से अलग था।

अंतरराष्ट्रीय जगत में हुआ यह है कि, यूरोपीय यूनियन की सांसदों ने सीएए यानी नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 को “भेदभावपूर्ण” और “खतरनाक रूप से विभाजनकारी” बताते हुए एक प्रस्ताव पेश किया है, जिसमे कहा गया है कि
" इस कानून में, दुनिया की सबसे बड़ी अराजकता का माहौल पैदा करने की क्षमता है। " 
इस कानून के अंगर्गत समान सुरक्षा के सिद्धांत पर अमेरिका ने भी सवाल खड़े किए हैं। 24 देशों के यूरोपीय संसद के 154 सदस्यीय सोशलिस्ट्स और डेमोक्रेट्स ग्रुप के सदस्यों द्वारा यह प्रस्ताव पेश किया गया है, जिस पर अगले सप्ताह चर्चा होने की उम्मीद है। यह वही यूरोपीय यूनियन है जिसके कुछ सांसदों को कश्मीर का दौरा वहां के हालात का जायजा लेने और दुनिया को बताने के लिये दो बार कराया गया और हमारे सांसदों को एक बार भी  वहां नहीं जाने दिया गया।

यह एक सामान्य बात नहीं है। विशेषकर तब, देश के पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने यह चेतावनी दी थी, कि ' सीएए से हम विश्व बिरादरी में अलग थलग पड़ सकते हैं। ' यह प्रस्ताव यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों के भारत में नियुक्त अपने प्रतिनिधियों को यह भी निर्देश देता है कि, 
" वे भारतीय अधिकारियों के साथ अपनी होने वाली औपचारिक और अनौपचारिक बातचीत में, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव  के मुद्दे को भी शामिल करें। "
इस प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि,
" भारत ने अपनी शरणार्थी नीति में धार्मिक मानदंडों को शामिल किया है। लिहाजा, यूरोपीय संघ के अधिकारियों से शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार सुनिश्चित करने और भेदभावपूर्ण प्रावधानों को निरस्त करने का आग्रह करता है। " 
प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि,
" सीएए के जरिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया गया है। इसके अलावा नागरिकता संशोधन कानून भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों और करार का भी उल्लंघन करता है जिसके तहत नस्ल, रंग, वंश या राष्ट्रीय या जातीय मूल के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। प्रस्ताव के मुताबकि यह कानून मानवाधिकार और राजनीतिक संधियों की भी अवहेलना करता है। "

यूरोपीय यूनियन का यह प्रस्ताव अकेली ऐसी घटना नहीं है जो भारत के अंतरराष्ट्रीय साख को आघात पहुंचाती है बल्कि सीएए को लेकर दुनियाभर की राजधानियों में जो आवाज़ें उठ रही हैं वे भी यही प्रतिबिंबित करती हैं कि इस अनावश्यक कानून के कारण, भारत विश्व बिरादरी में जिन मूल्यों के लिये जाना जाता रहा  और सम्मानित होता रहा है, उस पर यह एक प्रबल आघात है। न सिर्फ यूरोपीय यूनियन के देशों में बल्कि ब्रिटेन और अमेरिका के महत्वपूर्ण शहरों, विश्वविद्यालयों और बौद्धिक जगत मे भी यह धारणा बनने लगी है कि भारत अपने संविधान में स्थापित मूल्यों, जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है,  से भटकने लगा है। देश के अंदर इस कानून का जो विरोध हो रहा है उसकी कोई चर्चा फिलहाल मैं नहीं कर रहा हूँ, बल्कि विश्व बिरादरी में इस कानून को लेकर जो प्रतिक्रिया हो रही है, उसपर बात कर रहा हूँ।

यूरोपीय यूनियन के प्रस्ताव का देश के अंदरूनी राजनीति में क्या असर पड़ता है या क्या असर नहीं पड़ता है, यह फिलहाल उतना महत्वपूर्ण विंदु नहीं है बल्कि यह विषय अधिक महत्वपूर्ण है कि विश्व कूटनीति में हमारी साख कहां पर है। यूरोपीय यूनियन का यह प्रस्ताव ही नहीं, बल्कि हाल ही में प्रकाशित प्रतिष्ठित ब्रिटिश मैगजीन ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने इनटॉलरेंट इंडिया नाम से कवर पेज स्टोरी छापी है। उसमें भी उन्हीं विन्दुओ को उठाया गया है जो यूरोपीय यूनियन ने एक प्रस्ताव के द्वारा कहा गया है। द इकॉनॉमिस्ट ने पत्रिका के बाजार में आने के एक दिन पहले अपने  कवर को ट्वीट करके कहा था, कि,
" भारत के 20 करोड़ मुस्लिमों में डर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू राष्ट्र का निर्माण कर रहे और बंटवारे को भड़का रहे। " 
‘द इकोनॉमिस्ट’ ने लिखा है कि 
" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नागरिकता संशोधन कानून के जरिए भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की अनदेखी कर रहे हैं। वे लोकतंत्र को ऐसा नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिसका असर भारत पर अगले कई दशकों तक रह सकता है।"
मौजूदा सरकार की नीतियों की समीक्षा में मैगजीन ने कहा है कि,
" मोदी सहिष्णु और बहुधर्मीय समाज वाले भारत को उग्र राष्ट्रवाद से भरा हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश में जुटे हैं।" 
सीएए के बारे में द इकोनॉमिस्ट का कहना है कि 
" नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) एनडीए सरकार के दशकों से चल रहे भड़काऊ कार्यक्रमों में सबसे जुनूनी कदम है। सरकार की नीतियों ने भले ही मोदी को चुनाव में जीत दिलाने में मदद की हो, लेकिन अब यही नीतियां देश के लिए राजनीतिक जहर साबित हो रही हैं। मोदी की नागरिकता संशोधन कानून जैसी पहल भारत में खूनी संघर्ष करा सकती हैं।"

इसी लेख में यह भी कहा गया है कि 
" भाजपा ने धर्म और पहचान के नाम पर लोगों को बांटा और परोक्ष रूप से मुस्लिमों को खतरनाक करार दिया। इसके जरिए पार्टी अपने समर्थकों को ऊर्जावान रखने और खराब अर्थव्यवस्था के मुद्दे से लोगों का ध्यान भटकाने में सफल हुई है। प्रस्तावित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) भगवा पार्टी को अपना विभाजनकारी एजेंडा आगे बढ़ाने में मदद करेगा। एनआरसी की लिस्टिंग की प्रक्रिया सालों-साल चलती रहेगी, जिससे उनके बंटवारे का एजेंडा भी चलता रहेगा। भाजपा ने मुस्लिमों को मारने वाले उपद्रवियों को महत्व देने से लेकर कश्मीर घाटी में में रहने वालों के लिए सजा जैसा माहौल बनाया। उन्हें मनमाने तरीके से गिरफ्तार किया गया, कर्फ्यू लगाया और 5 महीने तक इंटरनेट बंद रखा गया। नागरिकता कानून मामले को भड़काना भी इसी तरह भाजपा का नया कार्यक्रम है।" 
इसी लेख में चेतावनी दी गई है कि, 
" एक समूह का लगातार उत्पीड़न सभी के लिए खतरा है और इससे राजनीतिक प्रणाली भी संकट में पड़ जाती है। जानबूझकर हिंदुओं को भड़काने और मुस्लिमों को उनके साथ लड़ाने का षडयंत्र कर के भाजपा देश में खूनी संघर्ष की पीठिका तय कर रही है।"

यही दो उदाहरण नहीं है जिनके कारण सीएए के कारण हमारी साख पर असर पड़ रहा है, बल्कि अमेरिका की कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और बौद्धिक संगठन भी बदलते भारत की इस मुद्रा पर हैरत में हैं। भारत दुनियाभर में चाहे वह कूटनीतिक मामला हो या बौद्धिक एक अलग और विशिष्ट क्षवि रखता रहा है। यूं तो उपनिवेशवाद के युग मे दुनियाभर मे  यूरोपीय ताकतों के कई उपनिवेश थे, पर भारत उन सबमे अनोखा और विशिष्ट था। यह विशिष्टता न केवल भारतीय सभ्यता, संस्कृति, दर्शन, वांग्मय, परंपराओं  आदि को ही लेकर थी, बल्कि उपनिवेशवाद से मुक्त होने का जो अहिंसक और जनआंदोलन का मार्ग हमने चुना था, के कारण भी था।आज़ादी के बाद जो हमारा संविधान बना, और जिस सर्वधर्म समभाव के राह पर हम मजबूती से टिके रहे, तमाम चुनौतियों के साथ मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखते हुए तरक़्क़ी हमने किया, उससे भी विश्व बिरादरी में हमारी साख बनी। जब दुनिया शीत युद्ध के समय दो ध्रुवीय बन गयी थी, तब हमने एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र देशों को मिलाकर एक नया अंतरराष्ट्रीय संगठन गुट निरपेक्ष आंदोलन बनाया जो एक मजबूत आवाज़ बनी। 1965, 1971 और 1999 के भारत पाक युद्धों, विशेषकर बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय जो भारत की भूमिका रही, उससे दुनियाभर में किसी देश की यह हैसियत नहीं रही है कि वह भारत को नजरअंदाज करे। उदार, पंथनिरपेक्ष और प्रगतिशील भारत दुनियाभर में अपनी पहचान बनाये रखने में सफल रहा।

1991 में देश ने आर्थिक नीतियों में बदलाव किया। सोवियत संघ के विघटन और चीन के उदय के बाद दुनिया लगभग एकध्रुवीय होने लगी थी। मुक्त बाजार, मुक्त अर्थव्यवस्था का दौर आ गया था। सामाजिक मुद्दे गौड़ होने लगे थे और आर्थिक विकास का मुद्दा प्रमुख हो गया था। भारत ने भी यही राह पकड़ी और इसका लाभ भी हुआ। लेकिन यूपीए 2 के अंतिम समय मे जो आर्थिक घोटाले प्रकाश में आये उससे तत्कालीन सरकार की किरकिरी हुई और 2014 ई में भाजपा की सरकार, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आयी। नरेंद मोदी सरकार जिन मुद्दों पर सवार होकर 2014 में सत्ता में आयी थी उनमे भ्रष्टाचार और आर्थिक विकास मुख्य मुद्दा था। 100 स्मार्ट सिटी, दो करोड़ नौकरियां, सबका साथ सबका विकास के आकर्षक वादों ने लोगों को खूब लुभाया। पर 2016 में अचानक की गयी नोटबंदी ने देश की आर्थिक प्रगति को बाधित कर दिया। उसी के बाद आर्थिक पराभव शुरू हो गया। आज यह स्थिति हो गयी है कि चाहे महंगाई हो, या आर्थिक विकास की दर, या बेरोजगारी के आंकड़े या सरकारी कंपनियों की दशा या बैंकिंग सेक्टर का एनपीए यह सब आर्थिक सूचकांक देश को गम्भीर आर्थिक संकट में फंसे होने का संकेत कर रहे हैं।

2014 में सत्ता में आने के बाद, सरकार से उम्मीद थी कि वह आर्थिक प्रगति और भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही को अपना मुख्य मुद्दा बनाएगी। पर काले धन पर तत्काल एसआईटी गठित करने के बाद भी सरकार ने इन मुद्दों पर, आगे कुछ नहीं किया। बल्कि सत्तारूढ़ दल ने गौरक्षा, घर वापसी जैसे, ऐसे मुद्दे पीठ पीछे उठाये जिससे न केवल सद्भाव को नुकसान पहुंचा बल्कि देश मे कानून व्यवस्था का जो मामला बिगड़ा उससे प्रधानमंत्री को खुद ही गौगुंडो के बारे में बोलना पड़ा। 1991 से लेकर अब तक हमारी अर्थनीति पूंजीवाद से प्रभावित रही है। लेकिन 2014 के बाद यह नीति गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म में बदल गयी। कुछ चुनिंदा पूंजीपति और सरकार के बीच एक गठजोड़ विकसित हो गया, जिससे जो आर्थिक विकास का मॉडल बना उसका परिणाम देश के सभी क्षेत्रों में आर्थिक दुरवस्था के रूप में देखने को मिला।  2014 के बाद प्रधानमंत्री ने दुनियाभर का दौरा किया, जहां ज़हां वे गये उन्होंने भारतीयों की अलग बैठक आयोजित की लेकिन जिस प्रकार से विदेशी निवेश की उम्मीद थी, वह तो पूरी हुई नहीं ऊपर से लोगों ने अपने पैसे निकालने शुरू कर दिए। एक एक कर के सभी वित्तीय संस्थान, बैंकों आदि की आर्थिक हालात खराब होती गयीं। मूडी, आईएमएफ जेसी संस्थाओ ने भी चेतावनी देनी शुरू कर दी। आज जब देश के सभी आर्थिक सूचकांक आर्थिक विपन्नता को दर्शा रहे हैं तो इन पूंजीपतियों की आय और लाभ अप्रत्याशित वृद्धि की ओर है।

इधर आर्थिक स्थिति गड़बड़ होने लगी और इससे जनता में कोई असंतोष न उपजे उसे भटकाने के लिये केवल राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से नया नागरिकता कानून जो प्रत्यक्षतः धर्म के आधार पर भेदभाव करता हुआ दिख रहा है को लाया गया। अभी हाल ही में दुनिया के बड़े उद्योगपतियों में से एक ने दावोस में कहा है कि, " भारत का राजनीतिक स्वरूप तानाशाही की ओर जा रहा है और आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है।" दुनियाभर में जब भी किसी देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगती है, युवाओं में बेरोजगारी, किसानों मज़दूरों में हताशा आने लगती है तो सत्ता भावुकता भरे मुद्दों का सहारा लेने लगती है ताकि रोजी रोटी शिक्षा और स्वास्थ्य के जनहितकारी मुद्दों से लोगों का ध्यान हटे। सत्ता एक काल्पनिक दुश्मन गढ़ती है, और अपने सारे कुकर्मों और विफलताओं की जिम्मेदारी उसी दुश्मन के सिर पर थोप देती है। आज दुनियाभर में भारत के बारे में यही धारणा पनपने लगी है। भारत की अर्थव्यवस्था का असर विश्व की आर्थिकी पर भी पड़ता है,क्योंकि हम एक बड़ी और उभरती अर्थव्यवस्था है। इसी लिए दुनियाभर के अधिकतर देश भारत को एक शांत और समृद्ध देश के रूप में देखना चाहते हैं। इसका एक कारण हमारा एक संगठित और बड़ा बाजार होना भी है।

लेकिन इधर विश्व  भुखमरी सूचकांक हो या, खुशी सूचकांक, पासपोर्ट की ताकत से जुड़ा आंकड़ा हो या सुरक्षित देश का सूचकांक, या देश के अंदरूनी आर्थिक सूचकांक, उन सबमे निराशाजनक स्थिति है। जब यूके और यूएस सहित कई महत्वपूर्ण देश अपने  नागरिकों को भारत आने के संदर्भ में ऐडवाज़री  जारी करने लगें तो हमे यह मान लेना पड़ेगा कि दुनिया मे एक प्रगतिशील, सभ्य और सुसंस्कृत देश के रूप में हमारी साख नीचे जा रही है। भारत की आर्थिक मंदी, सामाजिक संकेतकों के लड़खड़ाते जाने, लोकतंत्र और भ्रष्टाचार के पैमाने पर गिरती रैंकिंग, सीएए/एनआरसी के खिलाफ देशव्यापी शांतिपूर्ण प्रदर्शनों, और सत्तातंत्र की ओर से आक्रामक, प्रतिशोधपूर्ण और भेदभावपूर्ण प्रतिक्रियाओं को दुनियाभर के अखबार जगह दे रहे हैं। सोशल मीडिया तो पल पल की खबर दे ही रहा है। हम कितना भी यह कहें कि हम कोई भी कानून लाने के लिये अधिकार सम्पन्न और संप्रभु हैं लेकिन इन कानूनों पर दुनिया मे बहस न हो, मीन मेख न निकाला जाय यह संभव भी नहीं है। शेखर गुप्त के एक लेख का यह अंश आज के समय के लिये प्रासंगिक है जिसे मैं यहां उध्दृत कर रहा हूँ। 
" शीतयुद्ध के बाद के तीन दशकों में दावोस समागम में भारत कभी पसंद का विषय रहा हो या नहीं, मगर उसकी ओर हमेशा उम्मीद भरी नज़रों से देखा जाता रहा है. जिस सहजता से वह अपनी विविधताओं को सहेजता रहा, लोकतांत्रिक तरीके से अपनी सरकारें बदलता रहा, अपने आर्थिक तथा रणनीतिक सोच को वैश्विक बनाता रहा, उस सबको यह समागम बड़े सम्मान भरे आश्चर्य से देखता रहा. बाल्कन से लेकर मध्यपूर्व और अफ्रीका के कुछ हिस्सों समेत कई देश और क्षेत्र यह सब कर पाने में विफल रहे, और इसी वजह से पिछले दो दशकों से दुनिया में कोहराम मचा है। "

1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था प्रभावशाली तरीके से आगे बढ़ी, उससे लोग हैरत में थे कि यह देश तो सामाजिक-राजनीतिक रूप से साल-दर-साल और मज़बूत ही होता जा रहा है और अब तो दुनिया की आर्थिक वृद्धि को गति दे रहा है। 2010 में द इकॉनॉमिस्ट  ने ही हमारी प्रगति की तुलना चीते से की थी। चीन बेशक भारत से बहुत आगे था, लेकिन वह अपनी अधिनायकवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण था, न कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण। आज जब उसी लोकतांत्रिक व्यवस्था संविधान के मूल तत्वों के खिलाफ सरकार कुछ फैसले कर रही है तो उसका असर तो होगा ही। भारत एक ब्रांड की तरह है। जिसकी कुछ विशेषताएं हैं। यह विशेषता लोकतंत्र और संविधान के मौलिक अधिकार हैं। आज दुनियाभर में लोग यह बड़ी गंभीरता से देख रहे हैं कि हम अपने मूल रास्ते से भटक रहे हैं या नहीं। दुनियाभर में हनारी साख कैसे बनती है और हम कहां उस साख सूचकांक, हालांकि यह कोई औपचारिक सूचकांक नहीं है, में ठहरते हैं, यह विषय भी हमारे लिये महत्वपूर्ण है। यह धरती अब गोल नहीं रही, चपटी हो गयी है जैसा कि सूचना क्रांति पर महत्वपूर्ण किताब द वर्ल्ड इस फ्लैट लिखने वाले, टॉमस एल फ्रीडमैन कहते हैं। हम सब एक दूसरे के समाज और घरों में अपनी अपनी तरह से मौजूद हैं और सब, सबकी गतिविधियों से अनजान नहीं हैं।

© विजय शंकर सिंह

Saturday 25 January 2020

विडंबना है कि लोकतंत्र के महापर्व के लिये हम एक लोकतंत्र समर्थक मुख्य अतिथि भी नहीं पा सके ! / विजय शंकर सिंह

गणतंत्र दिवस 2020 की आप सबको बधाई और अनंत शुभकामनाएं। आज 26 जनवरी को राजपथ पर सेना और पुलिस के जवान एक भव्य परेड करेंगे, राज्य अपनी अपनी संस्कृति की झांकिया प्रस्तुत करेंगे और देश मे एक उत्सव का माहौल रहेगा। 26 जनवरी की परेड देश के लिये एक बेहद अहम परेड होती है। जिसमे देश के आमंत्रण पर एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष भी मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेते हैं। यह परंपरा बहुत दिनों से चली आ रही है। इस बार ब्राजील के राष्ट्रपति इस लोकतंत्र के महापर्व के मुख्य अतिथि हैं।

गणतंत्र दिवस समारोह के लिए मुख्य अतिथि कौन होगा इसका फैसला लंबे विचार-विमर्श के बाद किया जाता है। मुख्य अतिथि को लेकर फैसला भारत के राजनयिक हितों को ध्यान में रखकर किया जाता है। विदेश मंत्रालय भारत और उसके करीबी देश के बीच संबंधों को ध्यान में रखकई कई मुद्दों पर विचार करता है। जिसके बाद मुख्य अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है। कई मुद्दों पर चर्चा की जाती है इनमें राजनीतिक, आर्थिक, और वाणिज्यिक संबंध, सैन्य सहयोग आदि शामिल हैं।विदेश मंत्रालय विचार-विमर्श के बाद अतिथि को निमंत्रण देने के लिए प्रधानमंत्री की मंजूरी लेता है। जिसके बाद राष्ट्रपति भवन की मंजूरी ली जाती है. मंजूरी मिलने के बाद जिस देश के व्यक्ति को मुख्य अतिथि के रूप में चुना जाता है. उस देश में भारत के राजदूत अतिथि की उपलब्धता का पता लगाने की कोशिश करते हैं। इसके बाद विदेश मंत्रालय की तरफ से बातचीत शुरु होती है और अतिथि के लिए निमंत्रण भेजा जाता है। गणतंत्र दिवस के लिए मुख्य अतिथि अन्य देशों की रुचि और अतिथि की उपलब्धता के आधार पर किया जाता है.

ब्राजील के राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो के बारे में कुछ लिखा जाय उसके पहले उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण पढ़ लें।
“I wouldn’t rape you because you are ugly and you don’t deserve it....
( "मैं तुम्हारा बलात्कार नहीं करूंगा क्यूंकि तुम इस लायक भी नहीं हो." )

यह बयान वर्ष 2014 के सितम्बर महीने में भरी संसद में जब बोल्सोनारो संबोधित कर रहे तो उन्होंने लेफ़्टिस्ट वर्कर्स पार्टी की सांसद मारिया डो रोज़ारियो से कहा था । ऐसा कहने के बाद जाइर ने धक्का देने के मकसद से मारिया के सीने में एक छोटा-मोटा मुक्का भी धर दिया। बाद में एक अख़बार ने जब उनसे इस बारे में सफ़ाई मांगी तो उन्होंने कहा कि वो रेपिस्ट तो नहीं हैं लेकिन अगर होते तो मारिया का रेप नहीं करते क्यूंकि मारिया बदसूरत हैं और उनके टाइप की नहीं हैं. ये जाइर बोल्सोनारो इस महान देश के 71वें गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि हैं। जाएर बोलसोनारो एक घोर दक्षिणपंथी माने जाते हैं और राष्ट्रपति बनने के बाद ब्राज़ील की समाजवाद से आज़ादी की घोषणा कर दी थी। बीस सालों से सैनिक तानाशाही देख चुकने वाली ब्राज़ील की जनता के बारे में उनका कहना है कि तानाशाही अभी उसने देखी ही कहाँ है। यानी वे अभी और दिखाएंगे।

जाएर बोल्सोनारो के कुछ और बयान नीचे हैं, ज़रा इनपर भी दृष्टिपात कर लें।
● अगर मेरा बेटा समलैंगिक होगा तो मैं उसे प्यार नहीं करूंगा. बजाय इसके कि मेरा बेटा किसी दिन एक पुरुष के साथ अपने घर में दिखाई दे, मैं चाहूंगा कि वो किसी एक्सीडेंट में मर जाए.
● मैं समलैंगिकता के ख़िलाफ़ लड़ूंगा नहीं और न ही किसी भी तरह का भेदभाव करूंगा लेकिन अगर मुझे दो पुरुष एक दूसरे को चूमते दिख गए तो मैं उन्हें पीट के रख दूंगा.
● मेरे 5 बच्चे हैं. लेकिन पांचवें मौके पर मैं कुछ कमज़ोर पड़ गया और मुझे बेटी हो गई.
● मैं एक अफ़्रीकी कॉलोनी में गया और वहां सबसे हल्की महिला भी 230 पाउंड की थी. वो (वहां की महिलाएं) कुछ नहीं करतीं. उनका इस्तेमाल बच्चे पैदा करने तक के लिए नहीं किया जा सकता.
● (इमिग्रेशन के बारे में बात करते हुए) सारी दुनिया की गंदगी ब्राज़ील में आ रही है. जैसे हमारे निपटने के लिए हमारे पास पहले कम समस्याएं थीं।

उपरोक्त बयान में कुछ उनके निजी विचार हो सकते हैं, दक्षिणपंथ की तरफ भी उनका वैचारिक झुकाव हो सकता है पर उसके  विचारों से ही किसी भी व्यक्ति की मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता  हैं। 1999 में जब वह 44 साल के थे अपने एक टेलीविज़न इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि,
" चुनावों से कोई बदलाव आने वाला नही है इस देश मे. बदलाव उस दिन आएगा जब देश मे गृह युद्ध होगा और तब वो काम होगा जो मिलिट्री रूल नही कर पाया यानि 30000 लोगों का मारा जाना. यदि इसमे बेगुनाह मरते हैं तो कोई बात नही, हर युद्ध मे बेगुनाह मरते ही हैं ।"
उन्होंने यूएसए टुडे को 2016 मे दिए एक  इंटरव्यू में कहा था कि दो दशकों की
"सैनिक  तानाशाही की सबसे बड़ी ग़लती यही रही कि उसने लोगों को यातना दिया, मारा नही।"
अमेरिकी पत्रिका प्ले बॉय को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि
" अपने बेटे की दुर्घटना में मृत्यु पसन्द करूँगा बजाय उसे किसी आदमी के साथ देखूँ, समलैंगिक बेटे को प्यार नही कर सकता । "

उपरोक्त विचारों के बाद रंगभेद पर इनके विचार भी जान लेना जरूरी है। नस्लीय घृणावाद इनके अंदर इतना भरा हुआ है कि,
काले लोगों के बारे में इनका कहना है कि
" वो महज चिड़ियाघर में भेजे जाने लायक़ हैं, वो कुछ नही करते, बच्चा पैदा करने लायक तक नही हैं। "
बीबीसी के अनुसार, इनका स्त्रीद्वेष इस हद विद्रूप और घृणा से भरा पड़ा है कि अपनी साथी कानूनविद जो महिला हैं के बारे में उनका कहना है कि
" वो इतनी बदसूरत हैं कि उनके साथ बलात्कार करना तक पसन्द नही करेंगे। " इस व्यक्ति के लिये सौंदर्य बलात्कार के जुगुप्सा भरे अपराध का प्रेरक तत्व है।
यही नही वर्ष 2016 में दिए अपने एक टीवी इंटरव्यू में 4 लड़कों के बाद एक लड़की के पैदा होने को उन्होंने कमज़ोरी का एक लम्हा बताया। यह एक निहायत ही स्त्रीद्वेषी मानसिकता है। उनके अनुसार बहुत सी स्त्रियाँ योग्य हैं मगर स्त्रियों को पुरुषों बराबर वेतन नही मिलना चाहिये क्योंकि वो मेटरनिटी लीव लेती हैं।

हाल ही में ब्राजील के अमेजन के जंगलों में भारी आग लग गयी थीं। पर्यावरण के विद्वान अमेजन के जंगलों को धरती का फेफड़ा कहते हैं। कहा जाता है कि, ये जंगल धरती को 20 % ऑक्सिजन आपूर्ति करते हैं। उन्ही अमेज़न के जंगलों को आग लगने पर कुछ भी न करने और उसे भड़काने का दोष भी कुछ पर्यावरण एक्टविस्ट इन्हें ही देते हैं। यूएनओ की जनरल असेंबली में दिए गए अपने एक भाषण में इन्होंने अमेजन की आग के बारे में कहा कि,
" यह भ्रामक धारणा है कि, अमेज़न के जंगल धरती का फेफड़ा हैं, कि वो पूरी मनुष्यता की थाती हैं, वो सिर्फ़ ब्राज़ील के हैं।"
एक महिला पत्रकार को धमकाते हुये इसने उसे वैश्या कहते हुये मैसेज किया और उसका जीवन इस तरह बर्बाद करने की धमकी दी कि वो अपने पैदा होने पर पछ्तायेगी! इस सनकी व्यक्ति के ऊपर सेना में रहते हुये अपने ही एक आर्मी सेक्शन में बम लगाने का आरोप लग चुका है और इनपर मानसिक रूप से अस्थिर होने का भी आरोप लग चुका है!

एफ्रो-ब्राजीलियन समुदाय को मिलने वाले आरक्षण (कोटा) का विरोध करते हुये इसने कहा अगर राष्ट्रपति बना तो कोटा ख़त्म नहीं कर सका लेकिन कम ज़रूर कर दूंगा। एफ्रो ब्राजीलियन समुदाय वह समुदाय है जो यूरोपियन देशों विशेषकर स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस द्वारा अफ्रीका के निवासियों को गुलाम बनाकर आज से दो सौ साल पहले दक्षिण अमेरिका के देशों में ले जाया गया था। उन्ही की संतानें जब ब्राज़ील के मूल निवासियों से मिलीं तो एफ्रो ब्राजीलियन नस्ल बनी। यह सभी गुलाम थे और उन्हें  बेहतर जीवन के लिये आरक्षण की सुविधा दी गयी थी। उसी आरक्षण कोटे के विरोध में इन्होंने कहा था कि,
" उनकी दासता का कारण पोर्तुगीज नहीं बल्कि वो ख़ुद हैं इसलिए अब उनको आरक्षण देने की ज़िम्मेदारी हमारी नहीं है।"
पुर्तगाल ने ही अधिकार उपनिवेश खोजे थे जो बाद में ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, हॉलैंड आदि के उपनिवेश बने।

ऐसा स्त्रीद्वेषी, नस्लीय घृणावाद से भरा रेसिस्ट,, पर्यावरण विरोधी और हत्यारी मानसिकता का राष्ट्रपति हमारे गणतंत्र दिवस का अतिथि है।  यदि ब्राज़ील से द्विपक्षीय समझौते भी करने हो तब भी क्या गणतंत्र दिवस इसके लिये अनुकूल है? यह ऐसे राजनेता हैं जो एक नहीं, कई मायनों में एक सनकी तानाशाह है! ये भयंकर स्त्रीद्वेशी, होमोफोबिक, और आदिवासी-किसान विरोधी है! इनके उपर यौन शोषण  के कई आरोप अब भी हैं। बल्कि एक पीड़िता,जो कि ब्राज़ील की सांसद भी रह चुकी थीं।

यह हमारे आज के अतिधि हैं। अतिथि बड़ा गूढ़ शब्द है। अतिथि यानी बिना तिथि के कोई आगंतुक आ जाय। जो भी बिना तिथि के आ जाय, जिसे हम जानते भी न हों तो भी उसका स्वागत है। यह एक महान परंपरा थी अनजान व्यक्ति के स्वागत की ऐसी उदार  परंपरा हो सकता है कहीं और भी हो पर उसे देवता सरीखा सम्मान की बात तो शायद ही कहीं कही गयी हो। पर इन महोदय को तो एक अतिथि के रूप में तो, हमने चुना है और एक ऐसे अवसर के लिये चुना है जो हमारी थाती, विरासत, संस्कृति और महापर्व है। ब्राजील के राष्ट्रपति के स्त्री, वंचित और दलित समाज, पर्यावरण, विधि, आदि के लिये जिस प्रकार के विचार हैं वे हमारी परंपरा से बिल्कुल उलट है। हमारी विचार परंपरा, ऐसा भी नहीं है कि इन्ही 70 सालों के विकास का परिणाम हो, बल्कि यह सनातन काल से चली आ रही है। ऐसा भी नहीं कि हमारे यहां ऐसे विपरीत विचार के लोग जैसा कि ब्राजील के राष्ट्रपति के हैं, बिलकुल नहीं रहे हैं या हैं । ऐसे लोग थे और अब भी हैं, पर हमारे समाज ने उनको अपने विचारों पर हावी नहीं होने दिया।

ब्राजील का राष्ट्रपति न तो हमने चुना है और न यह हमारी समस्या है। लेकिन एक अतिथि के रूप में और वह भी एक ऐसे देश के लोकशाही के महापर्व पर जो अपनी बहुलतावादी और विराट संस्कृति के लिये विश्व विश्रुत है, उनका आमंत्रण विरोधाभासी है। वे एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में जब आएं उनका स्वागत किया जाना चाहिये पर इस पर्व पर उनका हमारे गणतंत्र दिवस के अवसर पर आना, आज आलोचना के केंद में है।

© विजय शंकर सिंह 

अदनान सामी को पद्मश्री / विजय शंकर सिंह

अदनान सामी को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनके योगदान के प्रति हम कृतज्ञ है। अब यह न पूछियेगा कि कौन सा योगदान । सरकार ने दिया है तो सोच समझ कर ही दिया होगा। जिन्हें योगदान जानने की अभिलाषा है वे सूचना के अधिकार का उपयोग कर सकते हैं। ऐसे गोपन योगदानी को सम्मानित करने पर सरकार का साधुवाद। 

एक तथ्य यह ज़रूर पता लगा है कि 1965 के भारत पाक युद्ध मे अदनान के पिता अरशद पाकिस्तान की फौज में थे और पाकिस्तानी सेना के अनुसार,
"फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान ने भारत के खिलाफ 1965 की जंग में शत्रु (भारत) का एक लड़ाकू विमान, 15 टैंक और 12 वाहनों को नष्ट किया. वे रणभूमि में विपरीत हालतों के बावजूद शत्रु की सेना का बहादुरी से मुकाबला करते रहे. फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान को उनकी बहादुरी के लिए सितारा-ए-जुर्रत से नवाजा जाता है "
पिता को पाकिस्तान ने सम्मानित किया और पुत्र को हमने। 

आज जब पाकिस्तान के लेखकों साहित्यकारों, संगीतकारो, गायकों, और क्रिकेटरों के साहित्य, संगीत, गीत, और खेल, जो साझी विरासत और इतिहास से उपजे और विकसित हुए हैं को, पढ़ना सुनना और देखना देशद्रोही की तासीर समझ ली जा रही है वहीं देश के खिलाफ खुली जंग में भाग लेने वाले एक व्यक्ति के बेटे को, सरकार द्वारा सम्मानित करना अचंभित करता है। 

यह भी एक प्रकार का खोखलापन है कि हम इकबाल, फ़ैज़, मंटो, हबीब जालिब, आदि को पढ़,  और नुसरत फतेह अली खान, आबिदा परवीन आदि को सुन नहीं सकते हैं क्योंकि वह एक दुश्मन मुल्क के हैं, और सरकार अपनी मर्ज़ी से जिसे चाहें, भले ही उसका कोई योगदान न हो, पद्मश्री से सम्मानित कर सकती हैं ! 

© विजय शंकर सिंह 

Friday 24 January 2020

शाहीनबाग में दीपक चौरसिया के साथ हुयी घटना अनुचित है / विजय शंकर सिंह

सीएए एनआरसी के विरोध में दिल्ली के शाहीनबाग में चल रहे प्रतिरोध सत्याग्रह में न्यूज़ नेशन के पत्रकार दीपक चौरसिया के साथ धक्का मुक्की और रोके जाने की घटना अनुचित है। भले ही यह घटना आंदोलन में शामिल कुछ थोड़े लोगों का ही काम हो, पर इसकी बदनामी के दाग, न केवल शाहीनबाग पर बल्कि देश मे जगह जगह हो रहे इसी तरह के स्वयंस्फूर्त आंदोलनों पर भी पड़ सकते है। बात मीडिया की ही नहीं है, बात उन आदर्शों की है जिनके नाम पर यह आंदोलन चल रहा है। गांधी के तरीकों पर चले आंदोलन गांधी के ही समय मे अहिंसक नहीँ रह पाए। न पहला असहयोग आंदोलन और न ही अंतिम भारत छोड़ो आंदोलन। पर हिंसा न हो यह सतर्कता तो किसी भी सत्याग्रह से जुड़े आंदोलन के लिये एक अनिवार्य शर्त है। इसे हर संभव प्रयास से बनाये रखना होगा।

यह घटना कितनी सच है, कितनी प्रायोजित यह तो धीरे धीरे सबको पता चल ही जायेगा, लेकिन अगर यह घटना प्रायोजित हो तब भी इस घटना का घटित होना, आंदोलन को ही बदनाम करेगा और पुलिस तथा आंदोलन विरोधियों को ऐसे आदोलनों के खिलाफ मुखरित होने का अवसर देगा। साथ ही, देश भर में हो रहे इस प्रकार के स्वयंस्फूर्त आंदोलनों को संदिग्ध ही बनाएगा। दीपक अगर गोदी मीडिया हैं तो भी वे तो सरकार के गोद मे बैठे ही हैं। सड़कों पर तो जनता ही है जो अपने अधिकार के लिये विपरीत मौसम में भी डटी है। यह कहा जा रहा है कि उन्हें कवरेज करने से रोका गया क्योंकि उनके चैनल ने आंदोलन के बारे में गलत खबरें जैसे पांच सौ रुपये लेकर सड़क पर बैठने की बात प्रसारित की थी। या जो सच मे जो हुआ है उसे बढ़ा चढ़ा कर बताया जा रहा है। इन सब पर, अलग अलग तथ्य आ रहे हैं। पर यह सब तमाशे, दीपक चौरसिया को तो टीआरपी दे देंगे पर आंदोलन को विवादित ही बनाएंगे। ऐसे विवाद से बचा जाना चाहिये।

शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन अगर सबसे अधिक किसी को असहज करता है तो, सरकार और पुलिस को असहज करता है जो उस आंदोलन को खत्म करना तो चाहते हैं पर आंदोलन के शांतिपूर्ण और स्वयंस्फूर्त होने के कारण ऐसा कुछ नहीं कर नहीं पाते हैं जिससे कानून को बाईपास कर के किया जा सके। ऐसे समय एक मौके की तलाश रहती है कि कब कोई आंदोलन एक भीड़ में तब्दील हो और भीड़ को लठिया कर भगा दिया जाय। लेकिन शाहीनबाग में यह हो नहीं पा रहा है। महिलाओं और बच्चों के इस आंदोलन के खिलाफ बिना किसी उत्तेजना के बल प्रयोग करना कानूनी और नैतिक रुप से औचित्यपूर्ण भी नहीं होता है। अगर सरकार का कोई व्यक्ति या सत्तारूढ़ दल का कोई नेता या सीएए एनआरसी समर्थक भी ऐसे आंदोलनों में आकर सीएए एनआरसी के पक्ष में कुछ समझाना चाहे तो उसकी बात भी सुनिए और उसका जवाब दीजिए। इस तरह की मारपीट, किसी भी आंदोलन की कुंठा का भी संकेत दे सकती है।

रवीशकुमार ने इस घटना पर एक लेख लिखा है जिसे पढा जाना चाहिये। उनके अनुसार,
" शाहीन बाग़ को ही इम्तहान देना है। इसलिए मीडिया हो या कोई और हो उसके साथ किसी तरह की धक्का मुक्की या हिंसा नहीं होनी चाहिए। पत्रकार भले वो स्टुडियो से हिंसा की भाषा बोलते रहें। जो आंदोलन की ज़मीन पर उतरता है उसे ही अपने भीतर आत्म बल विकसित करना होता है। उसे ही संयम रखना होता है। इसलिए मेरी राय में उत्तम तो यही होगा कि दीपक चौरसिया के साथ हुई घटना की मंच से निंदा की जाए। इससे एक काम यह होगा कि वहाँ मौजूद सभी लोगों में अहिंसा के अनुशासन का संदेश जाएगा। जब शाहीन बाग़ कश्मीरी पंडितों पर चर्चा कर सकता है और उनके साथ खड़े होने का एलान कर सकता है तो मुझे उम्मीद है कि यह भी करेगा। पत्रकार के साथ हिंसा हो यह अच्छी बात नहीं। मैं अगर या मगर लगा कर, तब और अब लगा कर यह बात नहीं कहना चाहता। "

उन्होंने मीडिया का अध्ययन करने वाले विनीत कुमार की भी एक पोस्ट साझा की है।  विनीत कुमार के अनुसार,
“ शाहीनबाग में दीपक चौरसिया के साथ जो हुआ गलत हुआ. हम इसकी निंदा करते हैं.

कारोबारी मीडिया को पता है कि हम चाहे लोकतंत्र और नागरिकों के खिलाफ कितने खड़े हो जाएं, कॉर्पोरेट की बैलेंस शीट दुरूस्त रखने और अपनी कुंठा की दूकान चलाने के लिए चाहे जिस हद तक गिर जाएं, समाज का संवेदनशील और तरक्कीपसंद तबका ये हम पर हुए हमले, हिंसा की जरूर आवोचना करेगा. उसे खुद को मानवीय दिखने के लिए ऐसा करना जरूरी होगा.

यही कारण है कि सालभर तक जिस कारोबारी मीडिया की कारगुजारियों को जो लोग सिर झुकाकर झेलते हैं या फिर जमकर आलोचना करते हैं, दोनों एक स्वर में ऐसे मीडियाकर्मियों पर हुए हमले की निंदा करते हैं. कोई विकल्प भी नहीं है उनके पास.

राजदीप सरदेसाई को विदेश में जिस तरह जलील करते हैं, हमले करते हैं, एक तबका इस पर जश्न मनाता है और दीपक चौरसिया या फिर जी न्यूज के  मीडियाकर्मी पर हुए हमले की निंदा करता है. ऐसा क्यों है ?

यदि आप मानवीय संवेदना के पक्षधर हैं तो आपको समान रूप से सबका विरोध करना चाहिए. लेकिन नहीं. आप ऐसा नहीं कर सकते. अब किसी भी मीडियाकर्मी पर हमला एक राजनीतिक गुट के प्रतिनिधि पर हमला है और आपको उस हिसाब से विरोध या जश्न के साथ होना होता है. बाकी संवेदनशीलता का फायदा तो उन्हें मिलता ही है.

इससे पहले कि आप मुझे इस हमले का समर्थक मान लें, मैं आपसे बस एक सवाल पूछना चाहता हूं कि दीपक चौरसिया ने पिछले एक साल-दो साल- तीन साल...में ऐसी कौन सी रिपोर्टिंग की है जो जनतंत्र को मजबूत करता है ?

अपील : इस हमले का विरोध करते हुए मेरी अपील होगी कि कारोबारी मीडिया के मीडियाकर्मियों को मारिए नहीं, हमले मत कीजिए. आपको लगे कि वो नागरिक के खिलाफ काम कर रहा है, नाम लेना बंद कर दीजिए. एक पब्लिक फेस, मीडियाकर्मी के लिए गुमनामी से बड़ी मौत कुछ नहीं. शाहीनबाग में उन पर हमला करके एक मरे चुके ज़मीर के मीडिया कारोबारी को हमलावरों ने लोगों की निगाह में जिंदा कर दिया जो कि गलत हुआ।”

अब दीपक चौरसिया से जुड़ी घटना को ही लें। आंदोलन का उद्देश्य, उसकी गम्भीरता, रचनाशीलता, और व्यापकता पर कल की घटना के बाद से बात कम हो रही है, बल्कि बात हो रही है तो आंदोलन के अनियंत्रित  भीड़पने की। एक अनियंत्रित भीड़पने की क्षवि किसी भी आंदोलन को न केवल बदनाम करती है बल्कि वह उसे खोखला कर के, उस आंदोलन को तोड़ने के लिये आधार बना देती है। जन आंदोलन विशेष कर गांधीवादी आधार पर कोई आंदोलन चलाना, उसे जारी रखना और लक्ष्य तक पहुंचने तक अहिंसक बनाये रखना आसान काम नहीं है। फिर भी जो लोग यह आंदोलन चला रहे हैं उनकी प्रशंसा की जानी चाहिये कि लंबे समय से वे इस सर्द रात में मौसम की परवाह किये बगैर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिये सड़कों पर बैठे हैं। धैर्य सबके बस की बात नहीं होती है। अधिकारसंपन्नता स्वभातः अधीर होती है।

© विजय शंकर सिंह 

Thursday 23 January 2020

गृहमंत्री का यह कथन तथ्यों के विपरीत है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं / विजय शंकर सिंह

इस समय हमारा मुकाबला, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से है। तभी हमारे मीडिया चैनल पाकिस्तान की जितनी फिक्र करते हैं उतनी हमारी नहीं करते हैं। अल्पसंख्यक उत्पीड़न से राहत देने के नाम पर नया नागरिकता कानून भी इन्ही तीन देशों के, हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मावलंबियों को नागरिकता देने की बात तो करता है पर अन्य पड़ोसी देश, म्यांमार, चीन, नेपाल, भूटान और श्रीलंका के अल्पसंख्यक जो इन्ही धर्मावलंबियों में से हैं कि कोई बात नहीं करता है। 

गृह मंत्री अमित शाह ने 18 जनवरी को कर्नाटक के हुबली में एक जनसभा को संबोधित करते हुए भारत के पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों को हो रही प्रताड़ना का भी जिक्र करते हुए देश में सीएए की जरूरत को बताया उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यकों को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है। 

दरअसल शाह ने जो दावा किया स्थिति इसके उलट है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव लड़ सकते हैं। शाह के इस बयान पर बीबीसी ने फैक्ट चेक किया जिसमें सामने आया है कि इन देशों में अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने का अधिकार तो है ही बल्कि उनके लिए सीटें भी आरक्षित हैं।

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पपसंख्यक  समुदाय द्वारा चुनाव लड़ने के निम्न प्राविधान वहां के संविधान में हैं। 

 अफ़ग़ानिस्तान 
● साल 2002 में यहां अंतरिम सरकार बनाई गई और हामिद करज़ई राष्ट्रपति बने. इसके बाद साल 2005 के चुनाव में देश की निचली सदन और ऊपरी सदन में प्रतिनिधि चुन कर पहुंचे और अफ़गानिस्तान की संसद मज़बूत बनी।

● अफ़ग़ानिस्तान की आबादी कितनी है इसका सही आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है क्योंकि 70 के दशक के बाद यहां जनगणना नहीं हो सकी. लेकिन वर्ल्ड बैंक के मुताबिक यहां की आबादी 3.7 करोड़ है। अगर अमरीका के डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस की रिपोर्ट की मानें तो जिसमें हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों की संख्या यहां महज़ 1000 से 1500 के बीच हैं।

● अफ़ग़ानिस्तान की निचली सदन यानी जहां प्रतिनिधियों का सीधा चुनाव जनता करती है वहां 249 सीट हैं. यहां अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की आज़ादी है।. लेकिन नियमों के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में संसदीय चुनाव में नामकरण भरते वक़्त कम से कम 5000 लोगों को अपने समर्थन में दिखाना पड़ता था।

● यह नियम सभी के लिए एक समान थे लेकिन इससे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए अपना प्रतिनिधि संसद में भेजना मुश्किल था. 2014 में अशरफ़ ग़नी सत्ता में आए और उन्होंने हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों के समीकरण को देखते हुए निचले सदन में एक सीट रिज़र्व की है।

● इस वक़्त इस सीट पर नरिंदरसिंह खालसा सांसद हैं. इसके अलावा अफ़गानिस्तान की ऊपरी सदन में एक सीट धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए रिज़र्व है. इस वक़्त अनारकली कौर होनयार इस सदन में सांसद हैं। 

● अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से ये नाम तय किए जाते हैं जिसे राष्ट्रपति की ओर से सीधे संसद में भेजा जाता है।

● इसके अलावा कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र के उम्मीदवार को वोट कर सकता है. साथ ही अल्पसंख्यक किसी भी सीट से चुनाव भी लड़ सकते हैं बशर्ते वो अपने लिए पांच हज़ार लोगों का समर्थन जुटा लें।

● साल, 2005 से देश में स्थिर सरकार बन रही है. लेकिन कभी अल्पसंख्यकों को वोटिंग या चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित नहीं किया गया. पिछले तीन दशकों में हिंदू-सिख ही नहीं अन्य धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों ने भी पलायन किया है. गृह युद्ध इसकी वजह रही है। 

 बांग्लादेश 
● बांग्लादेश में कोई भी अल्पसंख्यक चुनाव लड़ सकता है ।

● बांग्लादेश में संसदीय चुनाव में किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सीटें आरक्षित नहीं की गई हैं बल्कि महिलाओं के लिए 50 सीटें ही आरक्षित की गई हैं। 

● बांग्लादेश संसद में 350 सीटें हैं जिसमें से 50 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं. 2018 में हुए संसदीय चुनाव में 79 अल्पसंख्यक उम्मीदवारों में से 18 उम्मीदवार जीतकर संसद पहुंचे थे।

● इससे पहले बांग्लादेश की 10वीं संसद में इतने ही अल्पसंख्यक सांसद थे. स्थानीय अख़बार ढाका ट्रिब्यून के मुताबिक बांग्लादेश की नौंवी संसद में 14 सांसद अल्पसंख्यक समुदाय से थे, जबकि आठवीं संसद में आठ सांसद अल्पसंख्यक थे। 

पाकिस्तान
● पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 51 (2A) के अनुसार पाकिस्तान की संसद के निचले सदन नेशनल असेंबली में 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं. साथ ही चार प्रांतों की विधानसभा में 23 सीटों पर आरक्षण दिया गया है।

● पाकिस्तान में कुल 342 सीटें हैं और जिनमें से 272 सीटों पर सीधे जनता चुनकर अपने प्रतिनिधि भेजती है. 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए और 60 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

● इन आरक्षित 10 सीटों का विभाजन राजनीतिक पार्टियों को उन्हें 272 में से कितनी सीटों पर जीत मिली है इसके आधार पर होता है. इन सीटों पर पार्टी खुद अल्पसंख्यक उम्मीदवार तय करती है और संसद में भेजती है। 

● दूसरा विकल्प ये है कि कोई भी अल्पसंख्यक किसी भी सीट पर चुनाव लड़ सकता है. ऐसे में उसकी जीत जनता से सीधे मिले वोटों पर आधारित होगी।

● कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे किसी भी उम्मीदवार को वोट करने के लिए स्वतंत्र है. यानी वोटिंग का अधिकार सभी के लिए समान है।

● आज़ादी के बाद पाकिस्तान का संविधान 1956 में बना फिर इसे रद्द करके 1958 में दूसरा संविधान आया और इसे भी रद्द कर दिया गया और 1973 में तीसरा संविधान बना जो अब तक मान्य है. ये संविधान पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार देने की बात करता है।

● यानी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए सीटें तो आरक्षित हैं ही, साथ ही वो अन्य सीटों से चुनाव भी लड़ सकते हैं। 2018 के चुनाव में महेश मलानी, हरीराम किश्वरीलाल और ज्ञान चंद असरानी सिंध प्रांत से संसदीय और विधानसभा की अनारक्षित सीटों से चुनाव लड़े और संसद पहुंचे।

गोएबेलिज़्म 1932 से 39 के कालखंड में जर्मनी में इसलिए भी सफल हो गया कि उस समय यूरोप या दुनिया भर में जन संचार के साधनों के रूप में या तो अखबार थे या रेडियो। सरकारी रपटें गोपनीय डिस्पैच के माध्यम से जाती थी। अफवाहबाज़ी करना, उसे फैलाना आसान था, और उसका खंडन मुश्किल। तथ्यो की पड़ताल के साधन नहीं थे जो थे, उन तक सबकी पहुंच नहीं थी। लेकिन आजकल संचार बाहुल्य के युग मे अधिकतर रेफरेंस नेंट पर, किताबे किंडल पर और अगर संपर्क हो तो दुनियाभर में बैठे पढ़ाकू तथ्यान्वेषी मित्र बैठे हैं जो थोड़ी ही देर में तमाम दस्तावेज मेल या व्हाट्सएप्प पर भेज देंगे। जब आज गोएबल सफल नहीं हो सकता है तो हिटलर की क्या बात कीजिए। 

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday 22 January 2020

सुभाष बाबू, सांप्रदायिकता के प्रबल विरोधी थे / विजय शंकर सिंह

आज 23 जनवरी है। आज ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती भी है। सुभाष एक विलक्षण प्रतिभासंपन्न और अपनी तरह के अनोखे स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे। सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद के बारे में आज,  उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण पढें।

हिंदू महासभा भारतीय राष्ट्रवाद का यह शत्रु तत्व है और इसे हराने की हमारी चुनौती है। आज हिंदू महासभा मुसलिम विद्वेष से प्रेरित अंग्रेजी हुकूमत के साथ खड़ी दिख रही है। उनका एक ही मकसद है किसी भी तरह मुसलमानों को सबक सिखाना।

इस मकसद को हासिल करने के लिए वे अंग्रेजों का साथ देने में हिचकिचायेंगे भी नहीं। अंग्रेजों की कदमबोशी करने से भी उन्हें खास परहेज नहीं है।

मुसलमान हमारे दुश्मन हैं और अंग्रेज हमारे दोस्त हैं, यह मानसिकता हमारी समझ से बाहर है। उन्होंने कहा कि राजनीति का पहला सबक यह है कि हम याद रखें कि हमारा दुश्मन विदेशी साम्राज्यवाद है। फिर याद रखना है कि विदेशी साम्राज्यवाद के सहयोगी जो हैं, जो भारतीय नागरिक और भारतीय संगठन साम्राज्यवादियों के हमजोली हैं,  वे तमाम लोग और उनके वे तमाम संगठन भी हमारे दुश्मन हैं।

( नेताजी सुभाष चन्द्र बोस )

16 दिसम्बर 1938, तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने एक प्रस्ताव पारित  करके काँग्रेस के किसी भी सदस्य को हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग का सदस्य बनने पर रोक लगवाई थी।
( संदर्भ - Hindu Mahasabha in colonial North India, Page 40.
Author:-Prabhu Bapu)

आज भी हिंदू महासभा, ब्रिटिश महारानी की आरती उतारती है। गोडसे का मंदिर बना कर उस आतंकी हत्यारे का महिमामण्डन करती है। आज भी गांधी हत्या का सीन रिक्रिएट कर के अखबारों में छपवा कर दुनियाभर में देश का नाम बदनाम करती है। हिन्दू महासभा, आरएसएस यह दोनों आज़ादी के आंदोलन को तोड़ने के लिये अंग्रेजों द्वारा पाले पोसे गये थे जो उनके इशारे पर मुस्लिम लीग की विभाजनकारी नीति के साथ गलबहियां कर रहे थे। जब पूरा देश इतिहास के सबसे बड़े जन आंदोलन के साथ आज़ाद होने के लिये एक निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था तो इनके नेता और आका अंग्रेजों की मुखबिरी कर रहे थे और जिन्ना के साथ सरकार में थे। आज भी भाजपा का एक मंत्री नितिन गडकरी गांधी हत्या को वध कहता है। यह उसका दोष नहीं है, यह उसकी मानसिकता का दोष है, जो उसे उसके आकाओं ने सिखाया पढ़ाया है।

सुभाष इन साम्प्रदायिक तत्वो को पहचान गये थे, इसीलिए उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही यह प्रतिबंध लगा दिया था कि कोई भी कार्यकर्ता जो कांग्रेस का सदस्य है, वह हिंदू महासभा का सदस्य नहीं हो सकेगा। दोहरी सदस्यता पर प्रतिबंध का यह अनोखा कदम सुभाष ही उठा सकते थे। ऐसा कदम उठाने का निर्णायक साहस न नेहरू ने दिखाया, न पटेल ने न आज़ाद ने, और न ही महात्मा गांधी ने । 1938 के बाद दोहरी सदस्यता का मुद्दा 1979 में मधु लिमये ने जब जनता पार्टी की सरकार केंद में मोरार जी देसाई और कुछ महीनों के लिये चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में थी, तो उठाया था। मधु लिमये का प्रस्ताव था कि एक साथ जनता पार्टी और आरएसएस का सदस्य नहीं रहा जा सकता है। इसी बात पर भारतीय जनसंघ से जनता पार्टी में गये नेता, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख आदि ने जनता पार्टी से अलग हो कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। विडंबना देखिये, भाजपा ने अपना वैचारिक स्रोत, न तो हेडगेवार को माना, न गोलवलकर को, और न ही आरएसएस को, बल्कि गांधी को माना और कहा कि उनका वैचारिक आधार गांधीवादी समाजवाद होगा।

क्या आप को हिंदू महासभा और आरएसएस का एक भी ऐसा उद्धरण, लेख, या दस्तावेज इतिहास के पन्नों में मिला है जहां इन संगठनों के नेताओं, डॉ हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि ने ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य की निंदा की हो ? अंग्रेजों के खिलाफ कभी कुछ कहा हो ? ढूंढ़ियेगा मित्रों। अगर ऐसी कोई सामग्री मिले तो हम सबसे साझा कीजिएगा। सुभाष बाबू की जयंती पर ऐसे विलक्षण और प्रतिभाशाली स्वाधीनता संग्राम सेनानी को कोटि कोटि प्रणाम, और उनका विनम्र स्मरण।

© विजय शंकर सिंह 

फीसवृद्धि के खिलाफ आंदोलन और जेएनयू प्रशासन का झूठ. / विजय शंकर सिंह

जवाहलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) में जो कुछ भी 4 जनवरी को सर्वर रूम में कुछ छात्रों द्वारा की गयी तोड़ फोड़ को लेकर आरोप लगाए जा रहे थे, वह झूठे पाए जा रहे हैं। जेएनयू प्रशासन के दावे ग़लत साबित होते दिख रहे हैं। जेएनयू प्रशासन ने ये दावा किया था कि रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया का विरोध कर रहे छात्रों ने सीसीटीवी (CCTV) कैमरे और बायोमैट्रिक सिस्टम (Biometric system) को तोड़ दिया था। 

लेकिन सूचना का अधिकार के तहत दिए गए एक जवाब से पता चला है कि सेंटर फॉर इनफॉरमेशन सिस्टम के मेन सर्वर को 3 जनवरी को बंद कर दिया गया था। जब मुख्य सर्वर 3 जनवरी को ही बंद था तो यह आरोप कि 4 जनवरी को रजिस्ट्रेशन हो रहा था, जिसे रोकने के लिये तोड़ फोड़ हुयी थी ?

इसके पीछे बिजली आपूर्ति में बाधा को कारण बताया गया है. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक ख़बर के अनुसार, एक आरटीआई (RTI) द्वारा पूछे गए प्रश्न के जवाब में कहा गया है कि, 
“जेएनयू कैंपस के उत्तरी/मेन गेट पर मौजूद सीसीटीवी कैमरे में 5 जनवरी के दिन 3 बजे से लेकर 11 बजे रात तक ‘लगातार और संपूर्ण’ फुटेज उपलब्ध नहीं है.”

उल्लेखनीय है कि यही वह समय है जब जेएनयू में नकाबपोश गुंडों ने घुसकर छात्र-छात्राओं, शिक्षकों और कर्मचारियों पर हिंसक हमला किया था. इन नकाबपोश गुंडों के हाथ में लाठी, हथौड़े और पत्थर थे। जब नकाबपोश गुंडे जेएनयू कैंपस में दाखिल हुए तो कैमरे बंद थे या उनके फूटेज उपलब्ध नहीं हैं। यह सबसे महत्वपूर्ण सुबूत हैं। गुंडे दाखिल भी इसी समय हुये हैं। कुछ मोबाइल से खींचे गये वीडियो में वे नकाबपोश साफ दिख रहे हैं। उज़मे कुछ एबीवीपी के छात्र भी हैं। उनके हांथ में लाठी डंडे हैं। पर जेएनयू का अधिकृत सीसी टीवी कैमरा सिस्टम या तो बंद कर दिया गया है या जानबूझकर फूटेज न होने का उत्तर आरटीआई द्वारा दिया जा रहा है। 

आरटीआई द्वारा मांगी गयी जानकारी जो मिली है वह इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार इस प्रकार है। 
“जेएनयू का मेन सर्वर 3 जनवरी को बंद कर दिया गया था और अगले दिन बिजली आपूर्ति में हो रही बाधा के चलते ये ठप हो गया. किसी भी सीसीटीवी कैमरे को 30 दिसंबर 2019 से लेकर 8 जनवरी 2020 तक कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया गया.” 
जेएनयू में हुई हिंसा के बाद व्यापक पैमाने पर सीसीटीवी फुटेज मुहैया कराने की मांग की जा रही थी, जिसके बाद यूनिवर्सिटी प्रशासन ने ये दावा किया था कि सीसीटीवी कैमरे के साथ विश्वविद्यालय के छात्रों ने तोड़-फोड़ की थी। 

इसी आरटीआई के जवाब में यह तथ्य भी सामने आया है कि
" 4 जनवरी को दोपहर एक बजे 17 फाइबर ऑप्टिकल केबल को क्षति पहुंचाई गई थी । " 
आगे इसी आरटीआई के उत्तर के अनुसार,  “30 दिसंबर 2019 से लेकर 8 जनवरी 2020 के बीच एक भी बायोमैट्रिक सिस्टम को नहीं तोड़ा गया।.”

इससे पहले जेएनयू प्रशासन ने पुलिस को दी गयी एक एफ़आईआर, प्रथम सूचना में यह दावा किया था कि,
" 3 जनवरी को नकाबपोश छात्रों का एक समूह सीआईएस (CIS) में ज़बरन घुस आया और बिजली आपूर्ति को ठप कर दी। स्विच बंद कर दिया औऱ इस तरह सर्वर को पूरी तरह नाकाम कर दिया। " 
आगे एफआईआर में जेएनयू प्रशासन ने कहा है, कि
" इसी के कारण सीसीटीवी सर्विलांस, बायोमैट्रिक एटेंडेंस और इंटरनेट सेवा पर असर पड़ा। "

आरटीआई के उत्तर में कुछ, और पुलिस को दी गयी एफआईआर में कुछ औऱ तथ्य तथा आरोप जेएनयू प्रशासन द्वारा 4 जनवरी की घटना के संबंध में लगाये जा रहे हैं। 
जेएनयू के कुलपति जगदीश कुमार ने भी इसी तरह का दावा किया था. उन्होंने कहा था कि वो 5 जनवरी के दिन (हमले के दिन) का सीसीटीवी डेटा जुटाने की कोशिश में संघर्ष से जूझ रहे हैं क्योंकि कुछ घंटे पहले प्रदर्शनकारी छात्रों ने इसे डैमेज कर दिया था। 

सौरव दास की अर्जी पर जेएनयू द्वारा दिए गए जवाब में और भी चौंकाने वाली बातें सामने आई हैं. प्‍वाइंट नंबर दो में कहा गया है कि सर्वर रूम में रखे गए सभी सर्वर रूम को सिर्फ रिबूट करके सुधार लिया गया. न तो इन्‍हें कोई नुकसान पहुंचा था और न ही इन्‍हें रिप्‍लेस ही किया गया. इसके अलावा RTI जवाब के प्‍वाइंट नंबर 4 और 10 में स्‍पष्‍ट रूप से कहा गया है कि न तो सीसीटीवी कैमरों और न ही डाटा सर्वर रूम में तोड़फोड़ की गई। 

न्यूज़ 18 के अनुसार, आरटीआई कार्यकर्ता सौरव दास ने बताया कि उन्‍होंने 8 जनवरी को अर्जी देकर जवाब मांगा था।. दास ने बताया कि उन्‍होंने जेएनयू छात्रों की जिंदगी और उनकी स्‍वतंत्रता के खतरे में होने का दावा किया था. बकौल दास, उन्‍हें 24 घंटे में ही आरटीआई अर्जी का जवाब दे दिया गया था. इसके मुताबिक, जेएनयू प्रशासन ने 3 और 4 जनवरी को हिंसा की घटनाएं होने की बात कही है. सौरव दास ने बताया कि दिल्‍ली पुलिस की FIR के मुताबिक, तोड़फोड़ की घटनाएं 1 जनवरी को हुई थीं। 

( विजय शंकर सिंह )

Monday 20 January 2020

आतंकवाद और देवेंदर सिंह की गिरफ्तारी से उठते कुछ सवाल / विजय शंकर सिंह

दक्षिण कश्मीर के एक इलाके से जम्मूकश्मीर के एक डीएसपी देवेंदर सिंह को अपनी गाड़ी में हिजबुल मुजाहिदीन के दो आतंकियों के साथ जम्मू जाते हुए गिरफ्तार किया गया था। जिस कश्मीर में कई दशकों से आतंकवाद और आतंकियों के खिलाफ पुलिस सहित सभी सुरक्षा बल एक साझा अभियान चला रहे हैं, उसी दक्षिण कश्मीर में एक डीएसपी अपनी ही गाड़ी में दो हिजबुल आतंकियों को लेकर कहीं जा रहा हो, यह बेहद चौकाने वाली बात है। देवेंदर सिंह को चेकपोस्ट पर तैनात डीआईजी ने बंदी बना लिया और अब उसके ऊपर आपराधिक धारा के मुक़दमे दर्ज कर लिए गए हैं और उस मुक़दमे की विवेचना एनआईए को दे दी गयी है। पर हैरानी की बात है कि उन मुकदमों में देवेंदर पर सेडिशन का मुकदमा दर्ज होने का उल्लेख नहीं है। यह भी हो सकता है कि, यह मुकदमा बाद में विवेचना के दौरान जोड़ दिया जाय।

एक डीएसपी की अपने निजी गाड़ी में रात के समय दो आतंकियों को लेकर जम्मू की तरफ जाना एक चिंतित करने वाली घटना है। हाइवे चेक प्वाइंट पर एक कार को रोका गया जिसमें यह आतंकी और डीएसपी देवेंदर सिंह बैठे थे। अब जैसा कि विस्तृत विवरण आ रहा है देवेंदर सिंह को राष्ट्रपति के मेडल से सम्मानित किया जा चुका है और वह सुरक्षा के दृष्टिकोण से सबसे संवेदनशील एयरपोर्ट श्रीनगर एयरपोर्ट के ऐंटी हाइजैकिंग सेल का प्रभारी था। उसकी एक फोटो भी हाल ही में श्रीनगर गये यूरोपीय यूनियन के राजनयिकों के प्रतिनिधि मंडल के साथ अखबारों में छपी थी। एयरपोर्ट या सुरक्षा से जुड़े अतिसंवेदनशील स्थानों पर जिन पुलिस कर्मियों की नियुक्ति होती है वे निश्चित ही विभाग के तेज तर्रार और सबसे अच्छी सत्यनिष्ठा वाले अधिकारी होते हैं। देवेंदर के बारे में भी जेके पुलिस के अफसरों की भी यही धारणा रही होगी। राष्ट्रपति द्धारा प्रदत्त पदक भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है कि वह एक उत्कृष्ट कोटि का अफसर रहा होगा। हो सकता है, लंबे समय तक वह आतंकवाद विरोधी दस्ते में रहा हो और उसने कुछ ऐसे काम किए हों, जो भले ही सबकी जानकारी में सार्वजनिक न हों, पर विभाग और सरकार की तो जानकारी में होगा ही, अतः उसकी कुछ खास उपलब्धियों के कारण ही, हो सकता है, उसे गंभीर चुनौतियों वाले स्थान पर नियुक्त किया गया हो। पर इस शर्मनाक गिरफ्तारी से, न केवल जेके पुलिस की स्थिति बहुत ही असहज हुयी है बल्कि इससे आतंकवाद और आतंकवाद के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान पर बहुत से सवाल उठ खड़े हुए हैं।

अपराधी पुलिस गठजोड़ कोई नयी समस्या या नया आरोप नहीं है। अक्सर ऐसी शिकायतें मिलती रहती हैं जब पुलिसकर्मियों के संपर्क अपराधियों से हो जाते हैं। आर्थिक भ्रष्टाचार तो इसका एक कारण होता ही है, और कभी कभी जाति, धर्म और क्षेत्र का भी एंगल इस निकटता में आ जाता है। पर इस मामले में आर्थिक भ्रष्टाचार का ही कोई एंगल है या कहानी और पृष्ठभूमि कहीं और गहरी है यह तो जांच से ही पता लगेगा। लेकिन इस घटना ने जेके पुलिस के बड़े अफसरों को एक बार फिर इस संदर्भ में सोचने और  विचार कर, अपनी रणनीति की समीक्षा करने को बाध्य कर दिया है कि ऐसी काली भेड़ केवल यही डीएसपी है या विभाग के कुछ और लोग भी हैं। डीएसपी की गिरफ्तारी से अचंभित और हैरान डीआईजी ने जो प्रतिक्रिया दी है वह और भी चिंतित करने वाली है। उनके अनुसार, देवेंदर का उद्देश्य उन्हें कहीं ले जाना था, और रास्ते मे कोई चेकिंग न हो, इसलिए उसने अपना कवर उन आतंकियों को दिया था। अब वे कहां ले जाये जा रहे थे ? वहां जाने का उद्देश्य क्या था ? अगर देवेंदर किसी गोपनीय पुलिस ऑपरेशन के अंतर्गत दिए गए किसी टास्क के कारण ले जा रहा था, तो फिर इसकी जानकारी उसके अधिकारियों को थी या नहीं ? फिर उसकी गिरफ्तारी जब हुयी तो यह टास्क, भले ही इसका विवरण उक्त डीआईजी को, जिसने चेक किया है, ज्ञात न हो तो भी यह तो बताया ही जा सकता था कि वह किसी निजी हैसियत से नहीं बल्कि सरकारी काम से ही यह काम कर रहा है। लेकिन जिस तरह से उसकी गिरफ्तारी की खबरें आ रही हैं, उसे देखते हुए यह बिल्कुल नहीं लगता है कि इस यात्रा का उद्देश्य सरकारी होगा।

अब अगर यह कृत्य धन के लिये है जैसा कि कहा जा रहा है तो यह एक अपराधी पुलिस गठजोड जिसमे भ्रष्टाचार एक प्रमुख कारक तत्व होता है, की बात होगी, पर अगर यह आतंकी घटनाओं में उक्त डीएसपी की संलिप्तता की बात है तो यह एक बड़ी साजिश की पीठिका है। और इस साजिश में निश्चय ही, देवेंदर एक मोहरा होगा जो यहां एक कैरियर का काम कर रहा था। यह अकेला मामला होगा भी नहीं। हो सकता है ऐसे और भी देवेंदर सिंह हों जो सामने न आ पाए हों और यह एक मामला अचानक पकड़ा गया हो। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि यह एक काउंटरइंसर्जेंसी का टास्क था। फिर भी अपनी गाड़ी में दो इनामी आतंकियों को साथ ले जाते हुए पकड़े जाना भी ऐसी किसी टास्क का हिस्सा नहीं होता है। आतंकवादियों की मदद करने के आरोप की जांच अब एनआईए के अधिकारी करेंगे। कश्मीर में आतंकियों को सहायता और आर्थिक मामलों के अनेक आरोपो के कई मामलों की एनआईए पहले से ही छानबीन कर रही है। मामले में एनआईए की सबसे बड़ी चुनौती होगी ये तय करना कि आख़िर चरमपंथियों के साथ सहयोग करने के पीछे डीएसपी दविंदर सिंह रैना का असल मक़सद क्या हो सकता है। उंसके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए पुलिस अधिकारियों का कहना है कि उन्हें पैसों का बहुत लालच था और इसी लालच ने उन्हें ड्रग तस्करी, जबरन उगाही, कार चोरी और यहां तक कि चरमपंथियों तक की मदद करने के लिए मजबूर कर दिया। देविंदर सिंह पर पिछले साल पुलवामा में हुए चरमपंथी हमले में भी शामिल होने के आरोप लग रहे हैं। उनका कहना है कि हमले के समय देविंदर सिंह पुलिस मुख्यालय में तैनात थे। पुलवामा हमले में 40 से ज़्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए थे।
हालांकि देविंदर सिंह को पुलवामा हमले से जोड़ने का कोई पक्का सबूत नहीं अभी तक सामने नहीं आया है। अब इस घटना और मुक़दमे की जांच सरकार ने नेशनल इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी, एनआईए को सौंपी है।

जिन आतंकियों के साथ देवेंदर जा रहा था उसमें शोपियां का 17 मुकदमों में वाँछित, नावीद मुश्ताक नाम का एक कुख्यात आतंकी भी था। इसी गिरफ्तारी के बाद पूरे दक्षिण कश्मीर में सुरक्षा बलों ने आतंकियों की धड़पकड़ के लिये अभियान चलाया और उन्हें हथियारों की बरामदगी सहित अनेक सूचनाएं भी मिली हैं। ऐसे अपराधी के साथ देविंदर की गिरफ्तारी ने उससे जुड़े कई और मामलो में उसकी संलिप्तता पर संदेह खड़े कर दिए हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण है, संसद पर हमले के मामले में अफ़ज़ल गुरु की सज़ा और फिर फांसी का मामला। अब यह मुकदमा कानूनन खत्म हो गया है लेकिन इस गिरफ्तारी के बाद कुछ नयी बातें जो सामने आ रही हैं उनसे एक विवाद ही उत्पन्न होगा। कहते हैं अफ़ज़ल गुरु ने अपनी तफतीश के दौरान देवेंदर से नजदीकी का ज़िक्र किया था, पर तब उस पर ध्यान नहीं दिया गया। उसने कहा था कि देवेंदर ने उससे एक व्यक्ति को दिल्ली ले जाने के लिये और उसके रुकने आदि का इंतजाम करने के लिये कहा था। वही व्यक्ति 2001 के संसद हमले में मुठभेड़ में मौके पर ही मारा गया था।  अब अफ़ज़ल के मामले में किसी चर्चा का कोई मतलब नहीं है लेकिन यह घटना यह बताती है आतंकवादियों के संजाल में, पुलिस की लिप्तता कितनी गहरी है। विभाग को भी इस बढ़ते गठजोड़ की चिंता ज़रूर होगी।

पिछले साल होने वाला पुलवामा हमला अब तक रहस्यमय बना हुआ है। 47 सीआरपीएफ के जवान उस हमले में शहीद हो गए। जिसकी जिम्मेदारी जैश ए मोहम्मद ने ली। हमने बालाकोट में उनके कैम्प पर हमला किया और उसे नष्ट कर दिया। पर यह आज तक रहस्य नहीं खुला है  कि वह घटना घटी कैसे ? कैसे वहां 300 किलो आरडीएक्स आया ? कैसे फोर्स के मूवमेंट का प्लान लीक हुआ ? क्यों नहीं फोर्स को हवाई जहाज से भेजा गया ? इस लापरवाही का कौन जिम्मेदार है ? खुफिया तंत्र की नाकामी का काऱण क्या है ? इन सारे सवालों के जवाब हो सकता है कुछ को असहज करें, पर जहां 47 जवानों की अकारण और योजनागत विफलता से जान जा चुकी हो, वहां इन सवालों को उठाया ही जाना चाहिये। शोक संदेश, रीथ, लास्ट पोस्ट की धुन और नेताओं के संदेश इस अभाव को कभी भी नहीं भर पाते हैं। उन ज़बको दंडित किया जाना चाहिये जो इस दुर्दांत हादसे के लिये जिम्मेदार हैं। बालाकोट कोई उपलब्धि नहीं है वह एक काउंटर अटैक है, जिसका कारण पुलवामा है। यह भी कहा जा रहा है कि पुलवामा के समय देवेंदर वहीं नियुक्त था लेकिन इस हमले में उसकी क्या भूमिका है यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन इस गिरफ्तारी ने एक बात बिना किसी शक के साबित कर दी है कि देवेंदर का संबंध आतंकी गिरोहों से बहुत नज़दीकी का है। नावीद जैसा आतंकी अगर देवेंदर के साथ निश्चिंत होकर जा रहा है तो यह उसका भरोसा ही है। फिर जब पुलवामा में देवेंदर की नियुक्ति काल में इतनी बड़ी घटना होती है तो इस पर एक स्वाभाविक सन्देह उठेगा ही।

पुलवामा से पहले एक और आतंकी घटना हुयी थी, पठानकोट एयरबेस पर हमला। पठानकोट एयरबेस पंजाब के गुरदासपुर में है। उस समय भी एक पुलिस अफसर का नाम सामने आया था, वह सलविंदर सिंह था। अब जरा उसके बारे में जान लीजिये। सलविंदर सिंह पर आरोप लगा था कि वे पठानकोट के आतंकियों को अपनी गाड़ी में  बिठा कर पठानकोट के पास तक ले गए थे। इस पर उनका कहना था कि " आतंकवादियों ने उन्हें घने जंगल में फेंक दिया और उनकी नीली बत्ती लगी एसयूवी गाड़ी लेकर फरार हो गए। बाद में आतंकी इसी वाहन में सवार होकर पठानकोट पहुंचे ओर  पठानकोट में आर्मी बेस कैम्प पर हमला किया। "
वे यह भी कहते हैं कि,
"वह पठानकोट के पास स्थित एक धार्मिक स्थल पर दर्शन के लिए जा रहे थे, जहां वो नियमित दर्शन के लिए जाते रहे हैं. वहां से लौटते हुए पाकिस्तान से आए छह आतंकियों ने उनका अपहरण कर लिया था।
लेकिन उस धार्मिक स्थल की देखभाल करने वाले सोमराज का कहना है कि
" 31 दिसंबर को उन्होंने पहली बार एसपी को वहां देखा था। "
उनके कुक मदन गोपाल से एनआईए ने लंबी  पूछताछ की थी  ओर यह भी पाया गया कि उनके ड्रग माफिया से सम्बंध थे। एनआईए के जांचकर्ता आखिर तक इस गुत्थी में उलझे रहे कि आखिर आतंकवादियों ने एसपी सलविंदर और उनके साथियों को क्यों छोड़ दिया, जबकि उन्होंने एक दूसरी गाड़ी को अगवा किया तो उसके ड्राइवर की हत्या कर दी थी ?
लेकिन कुछ दिनों बाद आश्चर्यजनक रूप से एनआईए ने सलविंदर सिह को उस पठानकोट केस में क्लीन चिट दे दी थी।हालांकि, 2019 में गुरदासपुर के पूर्व पुलिस अधीक्षक सलविंदर सिंह को किसी दूसरे केस में भ्रष्टाचार और रेप के मामले में 10 साल की सजा सुनाई गई ओर सजा सुनाए जाने के बाद उन्हें जेल भेज दिया गया ।

यह दो उदाहरण सुरक्षा बलों के अंदर व्याप्त गंभीर रुग्णता की ओर संकेत करती हैं। पुलिस अपराधी या आतंकी गठजोड़ कोई अचंभित करने वाली बात नहीं है, बल्कि अचंभित करने वाली बात है कि ऐसे तत्वो को हल्के से छोड़ देना। सुरक्षा बल के लोग भी मनुष्य ही होते हैं और वे भी लोभ मोह आदि मनोभाव जन्य दुर्गुणों से मुक्त नहीं हो सकते हैं। हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार, 32 सेना के जवान और अधिकारी जासूसी के मामलों में सन्देह के घेरे में हैं। हैरानी की बात यह है कि सलविंदर और देवेंदर के मामलों में जांच जितनी गहराई और तेजी से होनी चाहिये वह क्यों नहीं होती है। सलविंदर तो बच ही गये, अब देखना है देविंदर का क्या होता है और कब तक होता है।

यह तो सबको पता है कि पिछले तीस सालों से जम्मूकश्मीर अलगाववादी समूहों का एक केंद्र बना है जिसे पाकिस्तान का खुला समर्थन है। ऐसे आतंकी और अलगाववादी समूहों का पहला लक्ष्य ही सुरक्षा बलों पर हमला करना होता है। 2005 में मैं श्रीनगर गया था। मैं सीआरपीएफ के गेस्ट हाउस में रुका था। लेकिन मुझे कहा गया कि सरकारी गाड़ी लेकर और कम सुरक्षा व्यवस्था के साथ लाल चौक जाना निरापद नहीं है। मैंने और एक अन्य मित्र ने एक ऑटो से लाल चौक का भ्रमण किया, घूमा, वहीं कहवा पिया और सुरक्षित वापस आ गया। सुरक्षा बलों पर आतंकवादी हमलों का एक काऱण उनका मनोबल गिराना और सरकार को यह संदेश देना कि उनका इकबाल खतरे में है, यह जताना भी होता है। लेकिन इस खुली दुश्मनी के बावजूद भी पुलिस के खुफिया मुखबिर तंत्र भी उन्ही आतंकियों के ही गिरोह से निकलते हैं। यह मुखबिरी बिना आतंकियो को भरोसे में लिये होती भी नहीं है। यही से सुरक्षा बलों और आतंकियों के बीच निकटता की शुरुआत होती है जिसमे से कुछ निजी दोस्ती और फिर गठजोड़ नेक्सस का रूप ले लेती है। देवेंदर की निकटता किस प्रकार से हुयी है यह तो मैं नहीं बता पाऊंगा, पर मैं एक सामान्य तरीका अपने पेशागत अनुभव से बता रहा हूँ।

आतंकियों या बदमाशों में भरोसा पैदा कर के उन्हें चढ़ा कर मार देना या गिरफ्तार कर के उनका संजाल ध्वस्त कर देना काउंटर इंसर्जेंसी का ही एक रूप है। यह एक अलग तरह की पुलिसिंग होती है जो सबके बस की बात भी नहीं होती है। इस प्रकार के काउंटर इंसर्जेंसी ऑपरेशन में बहुत से काबिल और दिलेर पुलिस अफसरों की भी जान गयी है। ऐसी परिस्थितियों में आतंकियों और पुलिस के गठजोड़ के प्रति विभाग के वरिष्ठ अफसरों को शुरू से ही सतर्क रहना होगा। हमारे एक डीजीपी इसे प्राइवेट प्रैक्टिस कहते थे और वे यह बराबर कहते थे कि, मुखबिरी इकट्ठा करना तो ठीक है पर यह ध्यान गम्भीरता पूर्वक रखा जाना चाहिए कि, पुलिस उन्हीं की ही मुखबिर न हो जाय। अब जब जम्मूकश्मीर में सारी राजनीतिक गतिविधियों पर विराम लगा हुआ है, सारे बड़े नेता नज़रबंद हैं, सुरक्षा बलों की नियुक्ति बहुत अधिक है तो यह जिम्मेदारी सुरक्षा बलों के वरिष्ठ अफसरों की है कि वे ऐसे संभावित गठजोड़ के प्रति विशेष रूप से सतर्क रहें। देवेंदर सिंह की गिरफ्तारी एक सामान्य घटना नहीं है। इसके तार बहुत ऊपर तक जुड़े हो सकते हैं। हालांकि एनआईए का हाल का रिकॉर्ड ऐसी तफ़्तीशों को लेकर बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है । इस मामले की जांच एक एसआईटी गठित करके और सुप्रीम कोर्ट के एक जज की सघन निगरानी में की जानी चाहिये। जांच अधिकारी केवल जज के ही सुपरवीजन में रहे। एनआईए की जांच करने की क्षमता और योग्यता पर अविश्वास नहीं है, बशर्ते वे अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी और मजबूत रखें। ऐसी जांचों में दबाव बहुत आता है। मुझे लग रहा है कि जांच का सिरा ऊपर तक जाएगा, कम से कम बिल्कुल ऊपर तक न जाय तो भी। हर संगठन में अच्छे बुरे होते हैं, यह भी अपवाद नहीं है।

यह घटना न केवल जेके पुलिस बल्कि अन्य सुरक्षा एजेंसी, रॉ, आईबी, सीआईडी, मिलिट्री इंटेलिजेंस के लिये भी एक सीख है। अगर यह घटना एक अफसर के धन की लालच में आतंकियों के कैरियर बनने की ही है तब यह एक और सवाल खड़ा करती है कि कैसे एक सम्मानित और कर्तव्यनिष्ठ अफसर घूसखोरी के इस संजाल में फंस गया ? लेकिन अगर यह घटना, देवेंदर और हिजबुल मुजाहिदीन के बीच आपसी गठजोड़ की है तो यह बेहद गंभीर बात है। दोनों ही परिस्थितियों में यह सुरक्षा बलों औऱ सरकार के लिये असहज करने वाली घटना है।

1947 के कबायली हमले के बाद कश्मीर एक जटिल समस्या बना हुआ है। पाकिस्तान की पूरी कोशिश है कि मुस्लिम बाहुल्य यह सूबा उनके देश का अंग बने और धर्म ही राष्ट्र है का सिद्धांत को कुछ जीवनदान मिले। लेकिन महाराजा हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान का गेम खत्म कर दिया। फिर 1990 से कश्मीर एक नए तरह का आतंक देख रहा है। आतंकवाद को कभी भी केवल सुरक्षा बलों द्वारा खत्म नहीं किया जा सकता है। या तो अतिशय हिंसा से ऊब कर जनता खुद आतंकियों के खिलाफ खड़ी होने लगे या सरकार जनता का इतना भरोसा पा ले कि जनता सुरक्षा बलों के पक्ष में खड़ी हो जाय। पंजाब और असम के आतंक के इतिहास से यह आप समझ सकते हैं। 1980 से लेकर 1995 तक 15 साला आतंकी गतिविधियों का खात्मा पंजाब में तब हुआ जब जनता वहां खुलकर साथ आ गयी। लेकिन कधमीर में जनता के एक अच्छे खासे वर्ग के आतंकियों के विरोध में होने के बावजूद पाकिस्तान से घुसपैठ जारी है। अब अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद कश्मीर की जनता का क्या रुख होता है यह अभी नहीं कहा जा सकता है। जब कश्मीर में सारे प्रतिबंध हट जाँय, स्थिति सामान्य हो और लोकप्रिय सरकार का गठन हो तभी इस बारे में कुछ कहा जा सकता है।

फिलहाल तो आतंकी गतिविधियों के शमन और उन्मूलन के काम मे लगी सुरक्षा बलों को देवेंदर सिंह टाइप सिंड्रोम से मुक्त होना पड़ेगा। उसके घर से सेना के कैंप का नक़्शा मिलना, हथियार मिलना, और हिजबुल मुजाहिदीन के साथ निकट संपर्क होना एक सामान्य पुलिस अपराधी गठजोड़ का मामला नहीं है। इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिये और ऐसा हो भी रहा होगा। देवेंदर सिंह टाइप अफसर अपनी पहुंच राजनीतिक और महत्वपूर्ण लोगों के साथ जानबूझकर कर बना कर रखते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वे वीआईपी और राजनीतिक लोग उनकी असलियत जानते हैं। वे बिल्कुल नही जानते। लेकिन ऐसे उच्च स्तरीय सूत्रों की जानकारी के कारण ऐसे अफसरों की विभाग में भी एक हनक बनी रहती है, जिसका लाभ उन्हें  ट्रांसफर पोस्टिंग में भी मिलता है। सुरक्षा बलों के अंदर संक्रमित हो रहे ऐसे लोगों से बलों को मुक्त होना पड़ेगा अन्यथा आतंकवाद विरोधी अभियान कहीं कहीं बैकफायर भी कर जाएगा।

© विजय शंकर सिंह

Saturday 18 January 2020

लखनऊ पुलिस पर इस समय सबकी नजर है / विजय शंकर सिंह

लखनऊ पुलिस पर वैसे भी सबकी नजर रहती है, पर अब और रहेगी। एक तो राजधानी की पुलिस होने के कारण दूसरे नए नए कमिश्नर सिस्टम के अंतर्गत पुलिस कमिश्नर का पद सृजित होने के कारण। लखनऊ पुलिस में नियुक्त कुछ अधिकारियों को यह गुमान रहता है कि वे मुख्यमंत्री और पंचम तल के नज़दीक रहते हैं। पंचम तल मुख्यमंत्री सचिवालय का कार्यालय होता था, अब बिल्डिंग बदल गयी है पर तल क्या है मुझे नहीं मालूम। पंचम तल के कृपापात्र कुछ अधिकारी 1, तिलक मार्ग को भी कभी कभी नजरअंदाज कर देते थे पर जब उन्माद उतरता था तो वहीं आकर गिरते थे। अब यह भी बिल्डिंग बदल गयी है। अब कहीं गोमतीनगर में है पर मैं अब तक वहां नहीं जा पाया हूँ। कमिश्नर सिस्टम, जहां पुलिस को अधिक शक्ति, अधिकारी और जिम्मेदारी देता है, वही वह यह भी अपेक्षा करता है कि पुलिस कानून को कानूनी रूप से लागू करने के लिए दृढ़ता से कानूनी तंत्र के प्रति समर्पित रहे न कि बात बात पर बेवजह दखल देने वाले राजनीतिक आकाओं के डिक्टेशन पर। 

कमिश्नर सिस्टम लाने वाले पैरोकारों का मुख्य तर्क यह है कि इससे पुलिस को कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिये अतिरिक्त अधिकार मिल जाएंगे और पुलिसिंग बदलते वक्त के अनुसार, सरल और सुगम हो जाएगी। कुछ शक्तियां जो मैजिस्ट्रेट साहबान को मिलती थीं वह अब पुलिस अफसरों को मिलने लगेंगी, जिससे किसी भी त्वरित निर्णय लेने में सुविधा होगी। यह तर्क उचित है। शहरों में बदलते समय के अनुसार पुलिस को कानून व्यवस्था से जुड़ी एक एक्सपर्ट एजेंसी के रूप में, सीआरपीसी में प्रशासनिक मैजिस्ट्रेसी को दी गयी कुछ शक्तियां मिलनी चाहिये, और वह अब मिली भी हैं। अब यह जिम्मेदारी पुलिस की है कि वह कैसे बिना किसी पक्षपात के आरोपों के उन शक्तियों का उपयोग कर पाती है। 

कमिश्नर सिस्टम, देश मे नयी प्रथा नही है, बल्कि देश के तीन ब्रिटिश प्रेसिडेंसी शहरों, कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यह पुलिस व्यवस्था के प्रारंभ से ही है। दक्षिण के राज्यों में यह लग्भग सभी बड़े शहरों में है। 1978 से यह व्यवस्था दिल्ली पुलिस में भी है। दिल्ली से सटे, गुड़गांव और फरीदाबाद में भी अब यह व्यवस्था लागू है। 1978 में उत्तर प्रदेश के कानपुर में भी पुलिस कमिश्नर व्यवस्था लागू हो गयी थी और वासुदेव पंजानी को वहां नियुक्त भी कर दिया गया था, पर दो दिन के ही अंतर्गत यह व्यवस्था और यह नियुक्ति रद्द कर दी गयी थी। मैंने तब नौकरी की है जब हमसफ़र एक मैजिस्ट्रेट चाहे वे एसडीएम हों या एडीएम या डीएम रहा करते थे। अगर व्यक्तिगत अनुभव कहूँ तो मुझे अपने हमसफ़र मैजिस्ट्रेट साथियों से कभी कोई दिक्कत नहीं हुयी और हमने समस्याओं का सामना भी मिलजुलकर भली प्रकार किया। पुलिसिंग की मुख्य समस्या अधिकारों का अभाव नहीं बल्कि उन अधिकारों का बिना दुरुपयोग हुये कैसे क्रियान्वयन किया जाय, यह है। 

पर बात यहां कमिश्नर सिस्टम के पक्ष और विपक्ष की नहीं है, बात है कि अब जब सीएए एनआरसी विरोध में उत्पन्न जन आंदोलन की एक गम्भीर समस्या से लखनऊ जूझ रहा है, तो कमिश्नर सिस्टम से यह समस्या कैसे निपटी जाती है, यह देखना है। लखनऊ पुलिस को हाल ही में 19 दिसंबर को सीएए एनआरसी विरोधी आंदोलन में उसकी भूमिका को लेकर बहुत से असहज सवालों का सामना करना पड़ा है और अब भी रोज़ अदालतों से लेकर जनता में आरोप, आक्षेप लग ही रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में लखनऊ पुलिस कितनी शांति से कानूनों को लागू करते हुए कानून व्यवस्था की समस्याओं से पार पाती है। यह एक प्रकार से उंसका इम्तहान है।

कमिश्नर पुलिस, और अन्य डीसीपी तो नियुक्त हो गए हैं पर मुख्य रूप से थाना चौकी आदि का स्टाफ उतना ही है या बढ़ा है यह अभी नहीं कहा जा सकता है। यूपी पुलिस की एक विसंगति और है कि आईपीएस और उसमे भी आईजी, और ऊपर के अधिकारी तो अधिक हो जाते हैं पर उनकी तुलना में अधीनस्थ अधिकारी जो पुलिस में मुख्य रूप से कार्यकारी होते हैं, विशेषकर सब इंस्पेक्टर और कांस्टेबलरी वे कम ही रहते हैं। उनकी रिक्तियां बनी रहती है। नियमित नियुक्तियां नहीँ हो पाती हैं। इसका एक कारण होता है, लंबे समय तक निरापद रूप से भर्तियों का न होना। पिछले दस सालों में कम ही ऐसी भर्ती हुयी होगी जो अदालतों में नहीं गयी होगी। कमिश्नर सिस्टम को प्रभावी करने के लिये जरूरी है कि, थानों चौकियों पर अधिक नियुक्ति की जाय, उनका एलोकेशन बढाया जाय और अपराधों की विवेचना और कानून व्यवस्था को अलग किया जाय। ऐसा करने के लिये, नेशनल पुलिस कमीशन की संस्तुति और सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी है।

कमिश्नर सिस्टम में सबसे ज़रूरी बात पुलिस को यह ध्यान में रखना होगा कि भीड़ नियंत्रण करते समय धैर्य बनाये रखना और स्थापित कानूनों को खुद भी मानते हुए लागू करना ज़रूरी है। दबाव तो भीड़ को हटाने का ऊपर से, मतलब सरकार से तो पड़ेगा ही, अगर वह भीड़ सरकार के विपरीत राजनीतिक दृष्टिकोण से है तो और भी पड़ेगा। आधुनिक संचार साधनों के संजाल युग मे दबंगई और बरजोरी से भीड़ हटाने का प्रयास अक्सर पुलिस को ही कठघरे में खड़ा कर देगा। भीड़ भीड़ में भी अंतर होता है। शांतिपूर्ण तरीके से सड़कों पर जब भीड़ बैठी हो तो उसे दबंगई से हटाना उल्टा पड़ सकता है। मेरा अनुभव है कि जब ऎसे मामलो में पुलिस घिरती थी तो बचाव में कोई नेता नहीं आता था, हां हमसफ़र मैजिस्ट्रेसी और कुछ मित्र पत्रकार और मॉनिंद लोग ज़रूर साथ होते थे। यह हमें मान के चलना होगा कि सिंघम और दबंग टाइप की पुलिसिंग केवल फिल्मों में ही ताली बजवाती है, असल धरातल पर नहीं। असल धरातल पर तो वह निलंबन और तबादला आदेश ले के आती है। 

कमिश्नर सिस्टम का जो रूप इधर हाल में दिल्ली पुलिस के कुछ फैसलों पर देखने को मिला है उससे दिल्ली पुलिस की क्षवि एक स्वतंत्र और विधिपूर्वक विधिनुरूप विधिस्थापक के बजाय सरकार और सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक एजेंडे के लागू करने वाली एजेंसी के रूप में अधिक बनी है। तीसहजारी कोर्ट के मामले में गाली और लात घूंसा खाकर भी अपने ही डीसीपी पर हुये हमले में कोई कार्यवाही न करना, और जामिया यूनिवर्सिटी और जेएनयू में अलग अलग मानदंडों के आधार पर कार्यवाही करना, जो घटनाएं हुयी उनकी एक बेवकूफी भरी जांच का विवरण प्रेस वार्ता में रखना, एक प्रोफेशनल पुलिसिंग तो नहीं ही है, बल्कि वह पुलिसिंग का जी जहाँपनाह मोड है। तीसहजारी मामले में शर्मनाक तरह से रक्षात्मक और छात्र आंदोलन के मामलों में प्रतिशोधात्मक रूप से आक्रामक हो जाना, यह और चाहे जो कुछ भी हो, पर कानून को लागू करने वाली एजेंसी का विधिसम्मत चेहरा तो नहीं ही है। पुलिस को एक सीमा रेखा तो तय ही करनी पड़ेगी कि वह किस स्तर तक राजनीतिक आकाओं के आगे, उनके नियमविरुद्ध आदेशो और निर्देशों के संदर्भ में झुकेगी और वह कब तन कर कह देगी कि जी नहीँ। अब बस। यह स्तर पुलिस कमिश्नर को तय करना होगा, क्योंकि वह पुलिस का नेतृत्व करते हैं। यह नेतृत्व का अंग पुलिस और फौज जिनका आधार ही रेजीमेंटेशन पर टिका है, पुलिस को ट्रेनिंग में पढ़ाया जाता है।

अब बात फिर लखनऊ की। अभी बहुत चुनौतियां विशेषकर आधारभूत ढांचे से जुड़ी, कमिश्नर पुलिस के समक्ष होंगी जो रातोरात दूर नहीं हो सकती है। मैजिस्ट्रेसी के साथ काम करते रहने और बहुत सी चीज़े आपसी मन्त्रणा से निपटाने की आदत के बाद थोड़ा बदलती कार्य संस्कृति में भी पुलिस को तालमेल बिठाना पड़ेगा और सरकार का दबाव इस आंदोलन के संदर्भ में तो अभी और अधिक पड़ेगा, जैसा कि मेरा अनुमान है। नयी नयी कमिश्नर व्यवस्था के अंतर्गत आयी हुयी लखनऊ पुलिस और सचिवालय के तंत्र, इन दोनों के माइंडसेट को भी बदलना होगा। पर लखनऊ के नए पुलिस कमिश्नर एक सुलझे हुए अधिकारी हैं, आशा है वे इस देशव्यापी आंदोलन जन्य  चुनौतियों से निपटने में सक्षम होंगे। सीएए एनआरसी के विरोध का कारण राज्य सरकार से जुडे या स्थानीय मुद्दे बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह आंदोलन तो केंद्रीय कानून के खिलाफ है और जैसी खबरें आ रहीं हैं यह देश के प्रमुख शहरों में चल रहा है और दिल्ली में तो इसका एक व्यापक रूप है ही। और अंत मे पुलिस कानून को कानूनी रूप से लागू करने के लिये बनी है, न कि किसी के अहं की तुष्टि और बदला लेने के लिये।

© विजय शंकर सिंह 

सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए / विजय शंकर सिंह

मंटो से किसी ने पूछा: 
"क्या हाल है आपके मुल्क़ का ?"
कहने लगा
बिलकुल वैसा ही जैसा जेल मे
होने वाली जुमा की नमाज़ का होता है
अज़ान फ्राडिया देता है, 
इमामत क़ातिल कराता है
और नमाज़ी सब के सब
चोर होते हैं...

उर्दू साहित्य के बेबाक और अपनी ही तरह के अनोखे लेखक, सआदत हसन मंटो की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 1955 में लाहौर में उनका देहांत हो गया था। मंटो का यह उद्धरण धर्म आधारित राज्य यानी थियोक्रैटिक स्टेट की असल तस्वीर दिखाता है। जब भी कोई राज्य, धर्म पर आधारित, एक थियोक्रैटिक स्टेट होने लगेगा तो वहां, उसी धर्म की आत्मा, उद्देश्य और मूल का लोप हो जाएगा, जिसके उन्माद और नाम पर वह राज्य बना है। और शेष रह जायेगा केवल उन्माद, अहंकार, मिथ्या श्रेष्ठतावाद, पाखंड, कर्मकांड पर आधारित धार्मिक और आर्थिक शोषण, और बढ़ने लगेगी, जनता की विपन्नता, दरिद्रता, कूप मंडूकता, ज़िद, कठघरों में बंटा हुआ  समाज। मंटो के अफसाने पढिये। वे 1947 के उन बेहद कठिन और पागलपन भरे दिनों के दस्तावेज हैं जब नेहरू दिल्ली में नियति से साक्षात्कार और जिन्ना कराची में एक ऐसे पाकिस्तान की उम्मीद कर रहे थे, जहां सभी धर्मों के लोग एक साथ रह कर आराम से अपनी ज़िंदगी बिता सकें और मुल्क की तरक्की में अपना योगदान दें। जिन्ना, पता नहीं कैसा पाकिस्तान चाहते थे। शायद एक बेवकूफी भरी ज़िद में वे खुद भी मतिभ्रम के शिकार हो गए थे। वे बिल्कुल भी मजहबी व्यक्ति नहीं थे, पर एक अलग इस्लामी मुल्क बने, यह उनकी ज़िद थी। एक अदद टाइपराइटर और एक स्टेनोग्राफर के बल पर जिन्ना ने पाकिस्तान पाया है। यह कथन मेरा नहीं, एमए जिन्ना का खुद का कहा वाक्य है। धर्म आधारित राज्य का अंत कैसा होता है यह पाकिस्तान की केस स्टडी से समझा जा सकता है, जबकि वह पचीस साल में टूट गया। यह द्विराष्ट्रवाद का अंत था। 

मंटो एक विवादास्पद लेखक थे। उन पर अश्लील लेखन का भी आरोप लगा।  शराबखोरी की लत तो थी ही, और फक्कड़पना भी। वे फिल्मों के लिये भी लिखते थे। मूलतः वे कथाकार थे। बंटवारे पर लिखी उनकी एक कहानी टोबा टेक सिंह बेहद प्रसिद्ध है। कहानी का सार, इस प्रकार है।

1947 में विभाजन के समय भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने एक दुसरे के हिन्दू-सिख और मुस्लिम पागलों की अदला-बदली करने पर समझौता किया। लाहौर के पागलख़ाने में बिशन सिंह नाम का एक सिख पागल था जो टोबा टेक सिंह नामक गांव का निवासी था। उसे पुलिस के दस्ते के साथ भारत रवाना कर दिया गया, लेकिन जब उसे पता चला कि टोबा टेक सिंह भारत में न जाकर बंटवारे में पाकिस्तान की तरफ़ पड़ गया है तो उसने जाने से इनकार कर दिया। कहानी के अंत में बिशन सिंह दोनों देशों के बीच की सरहद में कंटीली तारों के बीच लेटा, मरा या मरता हुआ दर्शाया गया। कहानी का अंतिम वाक्य है, 

" इधर ख़ारदार (कंटीली) तारों के पीछे हिन्दोस्तान था। उधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरम्यान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिस का कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था।" 

मंटो को उस समय ज़रूर पढा जाना चाहिए, जब देश को जानबूझकर, अपने अधूरे और मिथ्या एजेंडे की पूर्ति के लिये कुछ लोगों का गिरोह, रिवर्स गेयर में ले जाने की कोशिश कर रहा है । यह प्रतिगामी ताकतें, फिर से उसी साम्प्रदायिक उन्माद के अंधे दशक, जो 1937 से 1947 के बीच देश ने बड़ी त्रासदी से भोगा है, में देश को ले जाना चाहती हैं।

इतिहास बहुत सी चीजें छुपा देता है। वह घटनाक्रम, और घटनाओं के शुष्क विवरण के अतिरिक्त उनकी अलग अलग अकादमिक व्याख्या तो दे देता है पर इतिहासकार, समाज का मन नहीं पढ़ पाता है। वह पुरातत्व से अभिलेखागारों तक तमाम दस्तावेजों की पड़ताल, उनकी ऐतिहासिकता की जांच के बीच समाज और लोगों पर क्या बीत रही है यह वह अक्सर पकड़ नहीं पाता है। लेकिन लेखक अपनी संवेदनशीलता और कल्पना प्रवीणता के कारण समाज के अंदर खदबदाते हुये मनोभावों को भांप लेता है औऱ फिर समाज का वह अक्स हमें देखने को मिलता है, जो इतिहास के बहु खण्डीय पुस्तकों में नहीं मिलता है। बंटवारे की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी मंटो की कुछ कहानियां ऐसी ही हैं। 

मंटो को बहुत लंबी उम्र नहीं मिली। पर जो भी मिली और जो साहित्य उन्होंने लिखा वह उर्दू साहित्य में उन्हें श्रेष्ठतम कथाकारों की पंक्ति में रखने के लिये पर्याप्त है। मंटो की पुण्यतिथि पर उनका विनम्र स्मरण। 

© विजय शंकर सिंह 

एक फौजी जवान नरेन्द्र की एक कविता - ऐ शाहीनों / विजय शंकर सिंह

सीमा पर खड़े एक जवान नरेंद्र का, शाहीनबाग़ की शाहीनों को एक संदेश..  
" .मैं चाहूंगा, कि मेरा संदेश उन शाहीनों तक पहुंचे ...जो आज राष्ट्र के संविधान , और संविधान के अस्मत के लिए , बुर्के-घूंघट और रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़कर, इस कड़कड़ाती ठंड में ,अपने नन्हों को अपने साथ लेकर इस देश की भोली-भाली जनता की भलाई के लिए ,डटी हुई हैं । "
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ऐ शाहीनों...

चिलमन को हटा,अब चश्म मिला,
कर ख़त्म अज़ाब के अफसाने,
तू गा़र नहीं, तू गैर नहीं,
अब आसिम, खुद को पहचाने।
ये इज़्तिरार का वक्त नहीं, 
ये एतबार का वक्त नहीं, 
अब तोड़ कफ़स और काईदा, 
तू जंग का कर एलान यहीं।

लक्ष्मी बाई अब, तू ही है..
अब तू ही है, रजिया सुलतां
दुर्गा, चंडी अब तू ही है ,
तुझमे बसती है, देवी माँ..
ललकारो ,और संहार करो ! 
शक्ति का तुम विस्तार करो,
मिमियाती रही तू, अब गुर्रा..
के हलाल है ये, हराम नही !

शाहीन है तू, परवाज कर..
जमीं पे तेरा काम नही !
है खतरे में, अम्न-औ-चैन
तेरी किस्मत में, आराम नही ! 
बुर्के-घूंघट को उतार के तू
अब आजादी की बातें कर..
आवाज उठा 'नंगों' को बता
ये मुल्क है, कोई हमाम नही ! 

( नरेंद्र ) 
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(चिलमन-परदा, चश्म- आंख, अज़ाब-पीड़ा, गा़र-राजद्रोही,आसिम- दोषी,इज़्तिरार-विवशता,
कफ़स-पिंजड़ा/बंधन)
साभार अपूर्व भारद्वाज.

( विजय शंकर सिंह )

एनएसए, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 - ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और प्राविधान / विजय शंकर सिंह

दिल्ली सरकार ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम-1980, के अंतर्गत तीन माह के लिये अधिकृत किये जाने वाले आदेश को जारी किया है। यह कोई नयी बात नहीं है। यह कानून 1980 से लागू है। यह देश की सुरक्षा के लिए सरकार को अधिक शक्ति देने से संबंधित एक कानून है। यह कानून केंद्र और राज्य सरकार को किसी भी व्यक्ति को निरुद्ध, डिटेंन करने का आदेश देता है। 23 सितंबर 1980 को यह कानून भारत सरकार ने लागू किया था। इसका उद्देश्य, 

“to provide for preventive detention in certain cases and for matters connected therewith”.
कुछ मामलों में किसी कि, अगर आवश्यकता हो तो निरोधात्मक निरुद्धि का अधिकार देता है।

अब इस कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया था और तब तक देश मे ब्रिटिश राज के खिलाफ असंतोष भी बढ़ने लगा था। देश के बाहर आज़ाद भारत की सरकार बनाने के उपक्रम भी शुरू हो गए थे और 1907 के सूरत अधिवेशन के बाद कांग्रेस के तेवर जो राजभक्ति की तरफ झुके थे, बदलने लगे थे। कांग्रेस तब तक ब्रिटिश के साथ ही प्रथम विश्वयुद्ध मे थी। लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियों ने युवाओं को मोहित करना शुरू कर दिया था। तभी 1915 में डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाया गया जिसमें सरकार को किसी भी व्यक्ति को निरुध्द करने का स्वेच्छाचारी प्राविधान था। तब ब्रिटिश सरकार ने यह तर्क दिया कि यह एक अस्थायी और आपात प्राविधान है जो विश्वयुद्ध के कारण लाया गया है। तब इसका कारण यह बताया गया था,

" for the purpose of securing the public safety and the defence of British India and as to the powers and duties of public servants and other persons in furtherance of that purpose..."
( जनता की सुरक्षा और ब्रिटिश भारत की रक्षा के लिये सरकार अपने लोकसेवकों को यह शक्ति और अधिकार प्रदान करती है। )
वैसे 1812 में बंगाल की सरकार ने इसी प्रकार का एक कानून सबसे पहले बनाया था।

1915 का बना यह कानून 1975 में भी, आपातकाल के दौरान राजनीतिक विरोधियों को निरुध्द और गिरफ्तार करने का एक उपकरण बना रहा। बाद में यह कानून हटा दिया गया। ऐसा नहीं है कि 1915 का ही कानून 1975 में भी लागू किया गया था। बल्कि बीच बीच मे इस कानून में थोड़ी बहुत तब्दीलियां भी की गयीं।  1915 के डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स एक्ट जिसे संक्षिप्त रूप से डीआईआर कहा जाता है का जबरदस्त विरोध किया गया। रोलेट की अध्यक्षता में एक कमेटी भी इस पर पुनर्विचार के लिए बनी थी। प्रखर वकील, एमए जिन्ना जो तब कांग्रेस के एक बड़े नेता बन चुके थे ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ा था। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के आधीन 1939 ई में, पुनः यह कानून, नए सिरे से लाया गया, क्योंकि तब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। 1962 में जब भारत चीन युद्ध शुरू हुआ तो पुनः यह कानून कुछ नए फेरबदल के साथ लाया गया। यही कानून 1980 तक बना रहा। 1980 में डीआईआर एक्ट समाप्त कर दिया गया और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 बना।

1915, 1939 और 1962 , अधिकतर रूप से यह कानून युद्ध की पृष्ठभूमि में ही लाया गया था। 1965, 1971 के युद्धों के समय भी यह कानून लागू रहा। मुख्य रूप से यह एक आपातकालीन व्यवस्था है जो युद्ध और संकटकाल में राज्य को किसी भी व्यक्ति को निरुध्द करने के लिये असीमित शक्ति देती है। अतः यह भी अपेक्षा की गयी है कि यह कानून आपात स्थिति मे ही सरकार द्वारा प्रयुक्त हो, न कि यह एक सामान्य रूप से किसी निरोधात्मक प्राविधान की तरह लागू किया जाय। क्योंकि यह कानून व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करता है। इमरजेंसी के दौरान, 1975 से 76 में इस कानून का बहुत दुरुपयोग हुआ। इसीलिए इसे बदल कर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 लाया गया।

रासुका के प्राविधान इस प्रकार हैं।
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● अगर सरकार को लगता कि कोई व्यक्ति उसे देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले कार्यों को करने से रोक रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने की शक्ति जिला मैजिस्ट्रेट या पुलिस आयुक्त, जहां जैसी स्थितियां हो, को दे सकती है।
● सरकार को अगर यह लगता है, कि कोई व्यक्ति कानून-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में उसके सामने बाधा खड़ा कर रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने का आदेश दे सकती है।
● अगर उसे लगे कि वह व्यक्ति आवश्यक सेवा की आपूर्ति में बाधा बन रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने का आदेश दे सकती है।
● इस कानून के तहत आर्थिक अपराधी और जमाखोरों की भी निरुद्धि की जा सकती है।
● अगर सरकार को ये लगे तो कोई व्यक्ति अनावश्यक रूप से देश में रह रहा है और वह लोक व्यवस्था ( Public Order ) के लिए खतरा बन रहा है तो उसकी भी  गिरफ्तारी कर उसे, निरुद्ध कर सकती है।

निरुद्धि का आधार और समयावधि.
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● इस कानून के अंतर्गत किसी व्यक्ति को पहले तीन महीने के लिए निरुद्ध किया जा सकता है। फिर, आवश्यकतानुसार, तीन-तीन महीने के लिए उसके निरुद्धि की अवधि बढ़ाई जा सकती है।
● एक बार में ही तीन महीने से अधिक की अवधि नहीं बढ़ाई जा सकती है। हर तीन माह बाद समीक्षा करके ही यह अवधि बधाई जा सकती है।
● राज्य सरकार को निरुद्धि का आधार, बताना होगा, कि किस आधार पर यह निरुद्धि की गयी है।

निरुद्धि का अनुमोदन.
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● जब तक राज्य सरकार इस निरुद्धि का अनुमोदन नहीं कर दे, तब तक यह निरुद्धि बारह दिन से अधिक समय तक नहीं हो सकती है।
● अगर निरुद्धि का आदेश देने वाला अधिकारी पांच से दस दिन में अपना पक्ष, निरुद्धि का आधार स्पष्ट करते हुए,  दाखिल करता है तो इस अवधि को बारह की जगह पंद्रह दिन की जा सकती है।
● अगर उस रिपोर्ट को राज्य सरकार स्वीकृत कर देती है तो इसे सात दिनों के भीतर केंद्र सरकार को भेजना होता है। इसमें इस बात का जिक्र करना आवश्यक है कि किस आधार पर यह आदेश जारी किया गया और राज्य सरकार का इसपर क्या विचार है और यह आदेश क्यों जरूरी है।
( यह उन मामलों में हैं जहां सीधे केंद के आधीन कानून व्यवस्था का विषय हो। जैसे दिल्ली )

निरुद्धि का आदेश और नियमन
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● सीआरसीपी, 1973 के तहत जिस व्यक्ति के खिलाफ आदेश जारी किया जाता है, उसकी निरुद्धि भारत में कहीं भी हो सकती है।
● निरुद्धि के आदेश का नियमन किसी भी व्यक्ति पर किया जा सकता है।
● उसे एक जगह से दूसरी जगह पर भेजा जा सकता है।
● पर संबंधित राज्य सरकार के संज्ञान के बगैर व्यक्ति को उस राज्य में नहीं भेजा जा सकता है।

निरुद्धि की अवैधता
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● गिरफ्तारी के आदेश को सिर्फ इस आधार पर अवैध नहीं माना जा सकता है कि इसमें से एक या दो कारण नहीं हैं। अगर यह चारो कारण हैं तो निरुद्धि अवैध मानी जायेगी। निरुद्धि की अवैधता का निर्णय सरकार ही करेगी।
(1) अस्पष्ट हो
(2) उसका अस्तित्व नहीं हो
(3) अप्रसांगिक हो
(4) उस व्यक्ति से संबंधित नहीं हो
● इसलिए किसी अधिकारी को उपरोक्त आधार पर निरुद्धि का आदेश पालन करने से नहीं रोका जा सकता है।
● निरुद्धि के आदेश को इसलिए अवैध करार नहीं दिया जा सकता है कि वह व्यक्ति उस क्षेत्र से बाहर हो जहां से उसके खिलाफ आदेश जारी किया गया है।

● अगर वह व्यक्ति फरार हो तो सरकार या अधिकारी,
(1) वह व्यक्ति के निवास क्षेत्र के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट को लिखित रूप से रिपोर्ट दे सकता है।
( 2) अधिसूचना जारी कर व्यक्ति को तय समय सीमा के अंदर बताई गई जगह पर उपस्थित करने के लिए कह सकता है।
( 3) अगर, वह व्यक्ति उपरोक्त अधिसूचना का पालन नहीं करता है तो उसकी सजा एक साल और जुर्माना, या दोनों बढ़ाई जा सकती है।

सलाहकार समिति का गठन
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● इस अधिनियम के उद्देश्य से केंद्र सरकार और राज्य सरकारें आवश्यकता के अनुसार एक या एक से अधिक सलाहकार समितियां बना सकती हैं।
● इस समिति में तीन सदस्य होंगे, जिसमें प्रत्येक एक उच्च न्यायालय के सदस्य रहे हों या हो या होने के योग्य हों. समिति के सदस्य सरकार नियुक्त करती हैं।
● संघ शासित प्रदेश में सलाहकार समिति के सदस्य किसी राज्य के न्यायधीश या उसकी क्षमता वाले व्यक्ति को ही नियुक्त किया जा सकेगा, नियुक्ति से पहले इस विषय में संबंधित राज्य से अनुमति लेना आवश्यक है।

सलाहकार समिति का महत्व
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● इस कानून के तहत निरुद्ध किसी व्यक्ति को तीन सप्ताह के अंदर सलाहकार समिति के सामने उपस्थित करना होता है।
● सरकार या निरुद्धि का आदेश देने वाले वाले अधिकारी को यह भी बताना पड़ता है कि उसे क्यों निरुद्ध किया गया है ।
● सलाहकार समिति उपलब्ध कराए गए तथ्यों के आधार पर विचार करती है या वह नए तथ्य पेश करने के लिए कह सकती है। ● सुनवाई के बाद समिति को सात सप्ताह के भीतर सरकार के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करना होता है।
● सलाहकार बोर्ड को अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिखना होता है कि निरुद्धि के जो कारण बताए गए हैं वो निरुद्धि के लिये कानूनी रूप से पर्याप्त हैं या नहीं।
● अगर सलाहकार समिति के सदस्यों के बीच मतभेद है तो बहुमत के आधार निर्णय माना जाता है।
● सलाहकार बोर्ड से जुड़े किसी मामले में निरुद्ध व्यक्ति की ओर से कोई वकील उसका पक्ष नहीं रख सकता है और सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट गोपनीय रखने का प्रावधान है। निरुध्द व्यक्ति स्वयं ही अपना पक्ष रखता है। एक पक्ष जिला मैजिस्ट्रेट और एसपी का होता है दूसरा निरुध्द व्यक्ति का होता है। इसमे न तो सरकारी वकील रहते हैं और न हीं निरुध्द व्यक्ति के वकील।

सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट पर कार्रवाई
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● अगर सलाहकार बोर्ड व्यक्ति की निरुद्धि के कारणों को सही मानता है तो सरकार उसकी निरुद्धि को उपयुक्त समय, जितना पर्याप्त वह समझती है, तक बढ़ा सकती है। ● अगर समिति निरुद्धि के कारणों को पर्याप्त नहीं मानती है तो निरुद्धि का आदेश रद्द हो जाता है और व्यक्ति को रिहा करना पड़ता है।

गिरफ्तारी की अधिकतम अवधि
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● अगर, निरुद्धि के कारण पर्याप्त साबित हो जाते हैं तो व्यक्ति को गिरफ्तारी की अवधि से एक साल तक हिरासत में रखा जा सकता है।
●  समयावधि पूरा होने से पहले न तो निरुद्धि को समाप्त किया जा सकता है और न ही उसमें फेरबदल हो सकता है।

निरुद्धि के आदेश की समाप्ति
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● निरुद्धि के आदेश को रद्द किया जा सकता है या बदला जा सकता है, जो सरकार ही करेगी,
(1) इसके बावजूद, कि निरुद्धि केंद्र या राज्य सरकार के आदेश के उसके अधीनस्थ अधिकारी ने की है।
(2) इसके बावजूद कि यह निरुद्धि केंद्र या राज्य सरकार के आदेश के हुई हो।

यह कानून, सामान्य गिरफ्तारी से अलग है, क्योंकि,

● सामान्य गिरफ्तारी में पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति को, चौबीस घँटे के अंदर निकटतम मैजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, जो बाध्यता इस कानून में नहीं है । ( धारा 56 और 76 सीआरपीसी )
● सामान्य गिरफ्तारी में, सीआरपीसी की धारा 50 के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तार करने का काऱण बताना पड़ता है और उसे जमानत के लिये अदालत से अपनी प्रार्थना करने का अधिकार होता है जो इस कानून में नहीं है।
● संविधान के अनुच्छेद 22 (1) जो मौलिक अधिकारों के अंतर्गत है हर व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह आपना पक्ष रखने के लिये कानूनी सहायता ले सकता है और वकील एख सकता है, लेकिन इस कानून में यह सुविधा प्रतिबंधित है।

उपरोक्त कारणों के ही कारण इस कानून को स्वेच्छाचारी बताया जाता है और इसकी निंदा की जाती है। लेकिन जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, यह कानून, अत्यंत आपात स्थिति में ही अपवादस्वरूप लागू करने के लिये ही बनाया गया है न कि रूटीन कानून व्यवस्था के मामलों में। मुझे अपने साथी जिला मैजिस्ट्रेट के साथ कई बार एडवायजरी बोर्ड के समक्ष उपस्थित होना पड़ा है और बोर्ड को यह विश्वास दिलाना पड़ा है कि यह लोक व्यवस्था के भंग होने का मामला था। ऐडवाज़ारी बोर्ड का जोर इसी बात पर रहता है कि जब कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के सारे प्राविधान विफल हो जांय तभी यह कानून अमल में लाया जाय, क्योंकि यह व्यक्ति के मौलिक और अन्य कानूनी अधिकारों का हनन करता है जो उसे एक नागरिक होने के कारण प्राप्त हैं।

© विजय शंकर सिंह