Tuesday 27 December 2022

गालिब को याद करते हुए..../ विजय शंकर सिंह

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे 
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और !!

आज उर्दू के महानतम शायर मिर्जा गालिब का जन्मदिन है। मिर्जा नौशा के नाम से मशहूर यह शायर न केवल उर्दू शायरी में अपना आला मुकाम रहते हैं, बल्कि 1857 के विप्लव के वे एक साक्षी भी थे। दिल्ली को उजड़ते, दहकते, बादशाह को गिरफ्तार होते, फिर उनकी जलावतनी देखी और भारतीय इतिहास का एक युग, अपनी आंखों के सामने उन्होंने बदलते देखा। गालिब के खत और उनकी आपबीती दस्तंबू, जो 1857 के विप्लव के इतिहास लेखन का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी माना जाता है, उनके शेरों के ही समान अपनी अपनी विधा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। गालिब के शेर इतने गूढ़ और रहस्यमय होते हैं कि उनके लगभग हर शेर की दार्शनिक व्याख्या की जा सकती है। गालिब का एक शेर, पढ़े...

करे है सर्फ ब ईमाए शोला किस्सा  तमाम,
बतर्ज़ अहले फ़ना है, फ़सानाख़्वानीए शम्म'आ !!
- गालिब

Kare hai sarf ba iimaae sholaa kissaa tamaam,
Batarz ahale fanaa hai, fasaanaa'khwaanii'e shamm'aa  !!
- Ghalib

प्रेम के सारे किस्से कहानियां, दीपक, अपनी प्रज्वलित लौ द्वारा ही अभिव्यक्त कर देता है। इश्क़ में फ़ना हो जाने, यानी प्रेम में मर मिटने वालों के साथ ही,  उनके किस्से तो तमाम हो जाते हैं, पर वे ही नातमाम किस्से, लोगो के जेहन और दिमाग में, अमर भी हो जाते हैं। दीपक की लौ, जो कहानी कह रही है, उसका अंत ही, फ़ना हो जाने पर हैं।

दुनियाभर की प्रसिद्ध प्रेम कहानियों का अंत दुःखद होता रहा है। उन कहानियों की खूबसूरती उनके दुःखान्त होने में हैं। वे कहानियां दुःख के समंदर में डूब कर दंतकथाओं की तरह फैल जाती हैं और फिर साहिल से टकराती लहरें, बार बार उन्हें दुहराती हैं। किस्सो का यूँ लब ब लब फैलते जाना ही उन कहानियों की अमरता का प्रमाण है। वे चाहे लोकगीतों या लोक कथाओं में बरबस छू लेने वाली खुनक हवाओ की तरह हों या फिल्मों में जी गयी प्रेम कथाएं, मन मे आलोड़न के कई दर्द दे कर रह जाती है। याद उनकी बनी रहती हैं। 

इश्क़ में फ़ना होने की तरह, दीपक की प्रकम्पित लौ का प्रतीक और रूपक ऐसी ही अधूरी प्रेम कथाओं की बात, ग़ालिब का यह शेर करता है। दीपक की लौ, उसके इर्दगिर्द मंडराने वाले परवानों के फ़ना हो जाने की आदत को, रेखांकित करता है। शमा और परवाना, प्रेम का एक लोकप्रिय प्रतीक है। न जाने कितने गीत, कितने किस्से इस प्रतीक से बाबस्ता हैं। इस शेर में भी यही कहा गया है कि, दीपक की प्रज्वलित शिखा यानी जलती हुयी लौ, इश्क़ के किस्सों की तरह है। प्रकम्पित दीप शिखा या हिलती हुयी लौ, ये वे प्रेम कथाएं हैं जिनपर परवाने, प्रेमी या प्रेमिका, निसार हो जाते हैं। 

बात जब प्रकंपित लौ की होगी तो, महादेवी वर्मा की निम्न पंक्तियां बरबस याद आ जायेंगी, 
"मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!"
यहां भी प्रतीक्षा है। एक अंतहीन प्रतीक्षा।

साहित्य खूबसूरत मौसम की तरह बहकाता भी बहुत है। अक्सर विषयांतर करा देता हैं। आइए फिर गालिब पर लौटते हैं! इश्क़ के बारे में ग़ालिब की यह पंक्तियां पढ़े, 

जान तुम पर निसार करते हैं,
हम नहीं जानते वफ़ा क्या है !!

यह पंक्तियां उनके एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल की हैं। वफ़ा यानी प्यार का कोई अर्थ होता है क्या ? होता होगा। वह तो हमें नहीं मालूम, बस यह मालूम है कि हम तुम पर अपनी जान निसार, न्योछावर करते हैं। अब यह वफ़ा है या इश्क़ या प्रेम, यह हमें नहीं पता। यह बात इश्क़ हक़ीक़ी दैविक प्रेम के बारे में है या इश्क़ मजाज़ी दैहिक प्रेम के बारे में है, इसका निर्णय तो पाठक को ही करना है, पर शमा परवाना का प्रतीक, आध्यात्मिक प्रेम या सूफियाना इश्क़ का भी सबसे चहेता रूपक और प्रतीक है।

अरब की लोककथा में लैला - मजनू, (मजनू तो कैस की दीवानगी से उसे कहा जाने लगा था) फ़ारसी की अमर प्रेम कथा, शीरी फरहाद, या पंजाब की सदाबहार लोक गाथाए सोहनी महिवाल, सस्सी पुन्नू और हीर रांझा, यह सब अधूरी पर अमर प्रेम कथाएं रही हैं। यह सच मे घटी कोई कहानियां हैं या प्रेम के प्रति सदैव निष्ठुर भाव रखने वाले समाज को एक्सपोज करने वाली कल्पना प्रसूत कहानियां, यह मुझे नहीं पता है, पर लोक मन मे बसी यह कहानिया आज भी समाज के नैतिकता के मानदंड पर कुछ कुछ खरी उतरती है। हॉनर किलिंग की घटनाओं के संदर्भ में इसे देखें। यह सारी कथाएं, ग्रीक ट्रेजडी की तरह दुःखान्त हैं। इन प्रेम कथाओं की खूबसूरती ही इनका अंजाम तक न पहुंचना यानी वियोग रहा है। यह एक टीस के साथ खत्म होती हैं और तीरे नीमकश की तरह हर पल याद आती रहती है।

अमीर खुसरो सूफी परंपरा के एक महान कवि और उन्हें क़व्वाली का जन्मदाता माना जाता है। कहते हैं, सूफी संतों की मज़ारो और खानकाहों पर कव्वाली और नात ( ईश्वर और पैगम्बर की प्रशंसा में गाया जाने वाला गीत संगीत ) गाने की परंपरा उन्होंने ही शुरू की थी। आज भी दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में, जाते समय पहले ग़ालिब की मजार पड़ती है और अंदर दरगाह के पास अमीर खुसरो और तब हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। पहले अमीर खुसरो के दर पर हाज़िरी दी जाती है और तब हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर लोग जाते हैं। उन्ही अमीर खुसरो का यह खूबसूरत दोहा है,

खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार,
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार !!

यहां भी ग़ालिब के शेर की ही तरह, इश्क़ की पूर्णता फ़ना या समर्पित हो जाने में है। प्रेम की इसी बारीकी को, ग़ालिब ने दीपक की प्रकम्पित लौ के रूपक से व्यक्त किया है।

गालिब के इस शेर और उसकी व्याख्या करते हुए मैं इस महानतम सुखनवर को अपनी खिराज ए अकीदत पेश कर रहा हूं। गालिब अमर हैं और अमर रहेंगे।

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 15 December 2022

"भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, (Prevention Of Corruption Act) के प्राविधानों के अनुसार, किसी भी, लोक सेवक को दोषी ठहराने के लिए, रिश्वत के प्रत्यक्ष साक्ष्य का होना आवश्यक नहीं है": सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसीए) पर दूरगामी प्रभाव डालने वाले सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने, एक महत्वपूर्ण फैसले में, आज 15/12/22, गुरुवार को कहा है कि, "भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत एक लोक सेवक को दोषी ठहराने के लिए रिश्वत की मांग या स्वीकृति का प्रत्यक्ष प्रमाण आवश्यक नहीं है और इस तरह के तथ्य को परिस्थितिजन्य साक्ष्य के माध्यम से साबित किया जा सकता है।"

"मृत्यु या अन्य कारणों से शिकायतकर्ता का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध न होने पर भी, लोक सेवक को लोक सेवक अधिनियम के तहत दोषी ठहराया जा सकता है, यदि अवैध परितोषण Gratification (रिश्वत) की मांग परिस्थितियों के आधार पर, आनुमानिक साक्ष्य के माध्यम से सिद्ध की जाती है। (रिश्वत की) मांग या उसकी स्वीकृति के संबंध में, तथ्य Facts का अनुमान, कानून की अदालत द्वारा, एक अनुमान के माध्यम से, केवल तभी लगाया जा सकता है जब, मूलभूत तथ्य Facts सिद्ध हो गए हों।"

संविधान पीठ ने कहा कि, "शिकायतकर्ता के साक्ष्य / अवैध संतुष्टि की मांग के प्रत्यक्ष या प्राथमिक साक्ष्य के अभाव में, धारा 7 और धारा 13(1)(डी) के अंतर्गत, लोक सेवक द्वारा किए गए अपराध/अपराध का निष्कर्ष निकालने की अनुमति विधिसम्मत है।  इसे अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत अन्य साक्ष्यों के आधार पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) के साथ पढ़ने पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।" 

जस्टिस अब्दुल नज़ीर, बी.आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना, वी. रामासुब्रमण्यन और बी.वी. नागरत्ना की 5-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने 23 नवंबर को, इस मामले में, अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। आज पीठ की तरफ से, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने फैसले के ऑपरेटिव हिस्से को, अदालत में, सुनाया, जो इस प्रकार है। 

"आरोपी के ऊपर अपराध को साबित करने के लिए, अभियोजन पक्ष को पहले, उत्कोच/रिश्वत की मांग और बाद में, उक्त धन की स्वीकृति को, मुकदमे के तथ्य के रूप में, अदालत में सिद्ध करना होगा। इस तथ्य (रिश्वत के धनराशि की मांग और, आरोपी द्वारा, की गई, प्राप्ति को, अभियोजन, या तो प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा, या मौखिक साक्ष्य की प्रकृति के रूप में, साबित कर सकता है। इस संबंध में, दस्तावेजी साक्ष्य, इसके अलावा, विवादित तथ्य, अर्थात् उत्कोच या रिश्वत  की मांग और स्वीकृति का प्रमाण, यदि प्रत्यक्ष, मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य का अभाव हो तो, उसे परिस्थितिजन्य साक्ष्य Circumstantial evidence द्वारा भी, अदालत में, साबित किया जा सकता है।"

इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि,
"यदि शिकायतकर्ता पक्षद्रोही Hostile हो जाता है या, उसकी मृत्यु हो जाती है या, परीक्षण Trial के दौरान अपने साक्ष्य देने में असमर्थ हो जाता है, तो, रिश्वत की मांग को, किसी अन्य गवाह के साक्ष्य के माध्यम से, अभियोजन साबित कर सकता है और अभियोजन, इस पर, फिर से मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य, अदालत में, प्रस्तुत कर सकता है। अभियोजन पक्ष, साक्ष्य या परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा, मुकदमे को, अदालत में, साबित कर सकता है। इससे मुकदमा कमज़ोर नहीं होता है और न ही, इसका असर, लोक सेवक के बरी होने के आदेश के रूप में होता है।"

फैसले के अन्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं:

० भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और 13(1)(डी)(i) और (ii) के तहत आरोपी लोक सेवक के अपराध को स्थापित करने के लिए एक लोक सेवक द्वारा रिश्वत/अवैध परितोष Gratification की मांग और उसकी स्वीकृति का सबूत, मुकदमे में एक अनिवार्य शर्त है। 

० मामले में तथ्य facts को साबित करने के लिए, अर्थात् लोक सेवक द्वारा अवैध परितोषण की मांग और स्वीकृति,को अदालत में सिद्ध करने के लिए, निम्नलिखित पहलुओं को ध्यान में रखना होगा:
(i) यदि रिश्वत देने वाले द्वारा, लोक सेवक की ओर से कोई मांग किए बिना भुगतान करने का प्रस्ताव है, और बाद में वह प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है और अवैध उत्कोच प्राप्त कर लेता है, तो यह धारा 7 के अनुसार स्वीकृति (रिश्वत स्वीकार कर लेने) का मामला बन जाता है। ऐसे मामले में लोक सेवक द्वारा, रिश्वत की पूर्व मांग के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। लोकसेवक ने कोई रिश्वत की कोई मांग नही की पर उसने काम हो जाने के बाद भी यदि उत्कोच/रिश्वत स्वीकार कर लेता है तो वह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धाराओं के अंतर्गत दोषी करार दिया जायेगा। 

(ii) दूसरी ओर, यदि लोक सेवक, रिश्वत की मांग करता है और रिश्वत, उसे दी जाती है या निविदा में मांगा गया परितोषण gratification, जो बदले में लोक सेवक द्वारा प्राप्त किया जाता है, तो यह, रिश्वत स्वीकार कर लिए जाने का मामला बनता है। रिश्वत प्राप्त करने के मामले में, रिश्वत (काम से पहले की) मांग लोक सेवक की तरफ से उत्पन्न होती है। यह अधिनियम की धारा 13(1)(डी)(i) और (ii) के तहत एक अपराध है।

दोनों ही मामलों में, रिश्वत देने वाले की पेशकश और लोक सेवक द्वारा मांग को क्रमशः अभियोजन पक्ष द्वारा एक तथ्य के रूप में साबित किया जाना चाहिए।  दूसरे शब्दों में, बिना किसी फैक्ट या आधार के रिश्वत की स्वीकृति या प्राप्ति लोकसेवक को, धारा 7 या धारा 13(1)(डी)(i) और (ii) के अंतर्गत, अपराध नहीं बनाती है। रिश्वत की मांग या स्वीकृति के संबंध में तथ्य का अनुमान कानून की अदालत द्वारा एक अनुमान के माध्यम से केवल तभी लगाया जा सकता है जब, मूलभूत तथ्य साबित हो गए हों।  

इसी मामले में, जयराज और पी. सत्यनारायण मूर्ति के मामले में, सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की पीठ के फैसले और एम.नरसिंह राव के मामले में 3 न्यायाधीशों की खंडपीठ के फैसले में धारा 7 और अन्य धारा के तहत अपराधों के लिए सजा को बनाए रखने के लिए आवश्यक सबूत की प्रकृति और गुणवत्ता के साथ, इस संविधान पीठ के इस फैसले का कोई विरोध नहीं है। यह फैसला, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा, 13(1)(डी)(i) और (ii) की पुनः व्याख्या करता है। 

2019 में, एक खंडपीठ द्वारा एक बड़ी पीठ को एक मामला संदर्भित किया गया था कि, रिश्वत की मांग को साबित करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण या प्राथमिक साक्ष्य का आग्रह कई निर्णयों के दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं हो सकता है, जिसमें शिकायतकर्ता के प्राथमिक साक्ष्य की अनुपस्थिति के बावजूद  , शीर्ष अदालत ने अन्य सबूतों पर भरोसा करते हुए, और क़ानून के तहत एक अनुमान बनाकर अभियुक्त की दोषसिद्धि को बरकरार रखा था। बाद में, तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने, इस मुद्दे को संविधान पीठ को सौंप दिया। इसका  कारण यह था कि,
"हम ध्यान देते हैं कि इस न्यायालय की दो, तीन - न्यायाधीशों की पीठ, बी. जयराज बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, (2014) 13 एससीसी 55; और पी. सत्यनारायण मूर्ति बनाम जिला पुलिस निरीक्षक, आंध्र प्रदेश राज्य के मामलों में  और अन्य, (2015) 10 SCC 152, एम. नरसिंह राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, (2001) 1 SCC 691 में इस न्यायालय के पहले के तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ के फैसले के विरोध में हैं। ऐसा इसलिए कि, आवश्यक सबूत की प्रकृति और गुणवत्ता के संबंध में  भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) के साथ पठित धारा 7 और 13(1)(डी) के तहत हुए अपराधों के लिए, दोषसिद्धि को बनाए रखने के लिए जब, शिकायतकर्ता का प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध न हो। इसी विंदु पर पांच सदस्यीय पीठ ने यह व्यवस्था दी है। 

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने, धारा 7 और धारा 13 का उल्लेख किया है, जिसे मैं, अधिनियम से लेकर प्रस्तुत कर रहा हूं। 

० भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7

7. सरकारी कार्य के संबंध में कानूनी पारिश्रमिक के अलावा अन्य परितोषण लेने वाला लोक सेवक - जो कोई, लोक सेवक होने के नाते, या होने की उम्मीद करता है, स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिए सहमत होता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है, स्वयं के लिए या किसी के लिए अन्य व्यक्ति, कोई भी संतुष्टि, कानूनी पारिश्रमिक के अलावा, किसी भी आधिकारिक कार्य को करने या करने से मना करने के लिए या अपने आधिकारिक कार्यों के अभ्यास में, किसी भी व्यक्ति के पक्ष में या विरोध करने के लिए या दिखाने के लिए मना करने के लिए एक मकसद या इनाम के रूप में केंद्र सरकार या किसी राज्य सरकार या संसद या किसी राज्य के विधानमंडल के साथ या धारा 2 के खंड (सी) में निर्दिष्ट किसी भी स्थानीय प्राधिकरण, निगम या सरकारी कंपनी के साथ किसी भी व्यक्ति को कोई सेवा प्रदान करने या देने का प्रयास करना, या किसी लोक सेवक के साथ, चाहे उसका नाम हो या अन्यथा,कारावास से दंडनीय होगा जो छह महीने से कम नहीं होगा लेकिन जो पांच साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना के लिए भी उत्तरदायी होगा।

(स्पष्टीकरण) - 
(ए) "एक लोक सेवक होने की उम्मीद"। यदि एक व्यक्ति जो कार्यालय में होने की उम्मीद नहीं करता है, दूसरों को इस विश्वास में धोखा देकर संतुष्टि प्राप्त करता है कि वह कार्यालय में आने वाला है, और वह उनकी सेवा करेगा, तो वह धोखाधड़ी का दोषी हो सकता है, लेकिन वह अपराध का दोषी नहीं है इस खंड में परिभाषित।
(बी) "संतुष्टि"। शब्द "परितोषण" आर्थिक संतुष्टि या धन के रूप में अनुमानित संतुष्टि तक ही सीमित नहीं है।
(सी) "कानूनी पारिश्रमिक"। "कानूनी पारिश्रमिक" शब्द केवल उस पारिश्रमिक तक ही सीमित नहीं है जिसे एक लोक सेवक कानूनी रूप से मांग सकता है, लेकिन इसमें वे सभी पारिश्रमिक शामिल हैं जिन्हें स्वीकार करने के लिए उसे सरकार या संगठन द्वारा अनुमति दी जाती है, जिसकी वह सेवा करता है।
(डी) "करने के लिए एक मकसद या इनाम"। एक व्यक्ति जो ऐसा करने के लिए एक मकसद या इनाम के रूप में संतुष्टि प्राप्त करता है जो वह करने का इरादा नहीं रखता है या करने की स्थिति में नहीं है, या नहीं किया है, इस अभिव्यक्ति के अंतर्गत आता है।
(ई) जहां एक लोक सेवक किसी व्यक्ति को गलत तरीके से विश्वास करने के लिए प्रेरित करता है कि सरकार के साथ उसके प्रभाव ने उस व्यक्ति के लिए एक शीर्षक प्राप्त कर लिया है और इस प्रकार उस व्यक्ति को इस सेवा के लिए पुरस्कार के रूप में लोक सेवक, पैसा या कोई अन्य संतुष्टि देने के लिए प्रेरित करता है, लोक सेवक ने इस धारा के तहत अपराध किया है।

० भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13

13. लोक सेवक द्वारा आपराधिक कदाचार।—
(1) एक लोक सेवक को आपराधिक कदाचार का अपराध करने वाला कहा जाता है, -
(ए) यदि वह आदतन स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिए सहमत होता है या स्वीकार करने का प्रयास करता है या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कानूनी पारिश्रमिक के अलावा कोई भी संतुष्टि एक मकसद या इनाम के रूप में होता है जैसा कि धारा 7 में उल्लिखित है; या
(बी) अगर वह आदतन स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिए सहमत होता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है या किसी अन्य व्यक्ति के लिए, किसी भी मूल्यवान चीज को बिना किसी विचार के या किसी ऐसे व्यक्ति से अपर्याप्त होने के बारे में जानता है जिसे वह जानता है, या उसके द्वारा की जाने वाली किसी भी कार्यवाही या व्यवसाय में शामिल होने या होने की संभावना है, या उसके द्वारा या किसी लोक सेवक के आधिकारिक कार्यों के साथ कोई संबंध है, जिसके वह अधीनस्थ है, या किसी व्यक्ति से जिसे वह जानता है कि वह संबंधित व्यक्ति में रुचि रखता है या उससे संबंधित है; या
(ग) यदि वह लोक सेवक के रूप में उसे सौंपी गई या उसके नियंत्रणाधीन किसी संपत्ति का बेईमानी से या कपटपूर्वक दुरूपयोग करता है या अन्यथा अपने उपयोग के लिए परिवर्तित करता है या किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा करने देता है; या
(घ) यदि वह,—
(i) भ्रष्ट या अवैध तरीकों से, अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करता है; या
(ii) लोक सेवक के रूप में अपने पद का दुरूपयोग करके अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करता है; या
(iii) एक लोक सेवक के रूप में पद पर रहते हुए, बिना किसी सार्वजनिक हित के किसी व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करता है; या
(ङ) यदि वह या उसकी ओर से कोई व्यक्ति, अपने कार्यालय की अवधि के दौरान किसी भी समय कब्जे में है या उसके कब्जे में है, जिसके लिए लोक सेवक अपने ज्ञात स्रोतों से अधिक धन संबंधी संसाधनों या संपत्ति का संतोषजनक हिसाब नहीं दे सकता है आय का। स्पष्टीकरण.—इस धारा के प्रयोजनों के लिए, "आय के ज्ञात स्रोत" का अर्थ किसी वैध स्रोत से प्राप्त आय है और ऐसी प्राप्ति किसी लोक सेवक पर तत्समय लागू किसी कानून, नियम या आदेश के प्रावधानों के अनुसार सूचित की गई है। .

(2) कोई भी लोक सेवक जो आपराधिक कदाचार करता है, कारावास से दंडनीय होगा, जिसकी अवधि एक वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जो सात वर्ष तक की हो सकती है और जुर्माने का भी उत्तरदायी होगा।

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday 14 December 2022

संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता और भारत / विजय शंकर सिंह

गृहमंत्री ने कहा है कि, "भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता, चीन के लिए छोड़ दी।" उनका यह इल्जाम, जवाहरलाल नेहरू पर है। गृहमंत्री का यह बयान तथ्यात्मक रूप से झूठा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में पांच स्थाई सदस्यों की सदस्यता का निर्णय, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, 1945 में ही, जब यूएनओ का गठन किया गया था, तभी कर लिया गया था। जबकि भारत,  1945 में तो, आजाद ही नहीं हो पाया था। आजादी 15 अगस्त 1947 को मिली थी। आजादी के पहले ही कैसे स्थाई सदस्यता का ऑफर भारत को मिलता। भारत तो यूएनओ का सदस्य भी नहीं था। हालांकि, तकनीकी रूप से भारत संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्यों में से एक माना जा सकता है। क्योंकि 26 जून, 1945 को, भारत ने, अन्य भाग लेने वाले देशों के साथ संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किया है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर की पुष्टि के बाद 30 अक्टूबर, 1945 को भारत को संयुक्त राष्ट्र में शामिल किया गया, लेकिन वह, आजाद और संप्रभु भारत नहीं था, वह ब्रिटिश के आधीन एक उपनिवेश था। 

1972 में यूएनओ की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता और चीन द्वारा किए गए 1962 से लेकर अब तक के हमले/झड़पों का कोई अंतर्संबंध नहीं है। यदि गृह मंत्री को लगता है कि ऐसा कोई गंभीर प्रस्ताव, यूएनओ की तरफ से, वास्तव में आया था तो वह दस्तावेजों में अब भी रखा होगा। उन्हे चाहिए कि, संसद में वे, उन दस्तावेजों को रखें और बताएं कि इस तारीख को यह, औपचारिक प्रस्ताव आया था और जवाहरलाल नेहरू ने, उसे ठुकरा कर, स्थाई सदस्यता लेने से मना कर दिया था। 

वास्तविकता यह है कि, रिपब्लिक ऑफ चाइना, 1945 में संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य रहा है। लेकिन, यही आरओसी, जब ताइवान तक ही सिमट गया, तो, 1971 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी पीआरसी यानी कम्युनिस्ट चीन से सुरक्षा परिषद की अपनी सीट गंवा बैठा था। चीन के दो नाम थे। एक रिपब्लिक ऑफ चाइना जिसके राष्ट्रध्यक्ष च्यांग काई शेक हुआ करते थे, दूसरे, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना, जो माओ त्से दुंग के नेतृत्व में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बाद, 1948 में अस्तित्व में आया है। जब संयुक्त राष्ट्र संघ का 1945 में गठन हुआ था तब, इसी रिपब्लिक ऑफ चाइना को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का, स्थाई सदस्य बनाया गया था। तब तक भारत आजाद नहीं हुआ था। 

संयुक्त राष्ट्र का चार्टर, यूएनओ का,  मूल दस्तावेज़ माना जाता है और उक्त दस्तावेज के ही आधार पर, यूएनएससी में कोई संशोधन हो सकता है। उक्त चार्टर ने चीन के बारे में, 'वन चाइना पॉलिसी' (एक चीन की नीति) को मान्यता दी थी। यानी एक ही चीन के अस्तित्व को संयुक्त राष्ट्र ने आधिकारिक रूप से स्वीकार किया। चाहे वह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का कम्युनिस्ट चीन हो या च्यांग काई शेक वाला रिपब्लिक ऑफ चाइना, जो ताइवान/फर्मोसा में था। यूएनओ ने इस नियम के अनुसार, कम्युनिस्ट चीन  को असल चीन के रूप में मान लिया था। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में ताइवान की सदस्यता पर ही सवाल खड़ा हो गया। वन चाइना पॉलिसी का मतलब यह हुआ कि, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना, चीन की वैध सरकार है और ताइवान उसका अभिन्न अंग है। 

इसका कूटनीतिक परिणाम यह हुआ कि, जो देश, पीआरसी चीन से संबंध रखना चाहते हैं उन्हें, आरओसी ताइवान से संबंध तोड़ना होगा। वे एक ही चीन को मान्यता दे सकते हैं। सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पर सवाल, जब चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हो गई तब भी उठा था और तब, चीन ने कहा था कि "एक ही संगठन (यूएनओ) में उसके हिस्से के लिए कोई अलग से सीट नहीं हो सकती।" आज की तारीख़ में ताइवान संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सामान्य सदस्य भी नहीं है और न ही इसके किसी भी उप-संगठनों का हिस्सा है। यह अलग बात है कि ताइवान, अब भी, यूएनओ में शामिल होने की इच्छा रखता है। चीन,  ताइवान की इस इच्छा का ज़ोरदार विरोध करता है। चीन का तर्क है कि, "केवल संप्रभु देश ही संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बन सकता है।" चीन ताइवान को अलग देश मानता ही नहीं, वह उसे अपना ही हिस्सा मानता है। 

1945 में चीन से लेकर ताइवान तक रिपब्लिक ऑफ़ चाइना सरकार का शासन शुरू हुआ था। इस सरकार के अपदस्थ होने के बाद 1949 में बीजिंग में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना, कम्युनिस्ट चीन, सत्ता में आया। इसके बाद दोनों प्रतिद्वंद्वियों, कम्युनिस्ट चीन और ताइवान ने, अपने को असली चीन के रूप में, अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधित्व के दावे करने शुरू कर दिए। दोनों 'वन चाइना पॉलिसी' का पालन करते थे. ऐसे में राजनयिक संबंधों में किसी दूसरे देश के लिए काफ़ी मुश्किल स्थिति बन गई थी। ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के लिए भी मुश्किल होने लगी। यह सवाल बड़ा और महत्वपूर्ण हो गया कि कौन सी सरकार चीन का वास्तविक रूप में प्रतिनिधित्व करती है? रिपब्लिक ऑफ़ चीन सरकार के च्यांग काई-शेक ने संयुक्त राष्ट्र में असली चीन होने का दावा किया लेकिन उन्हे कामयाबी नहीं मिली। समय के साथ साथ, उन देशों की संख्या बढ़ती गई, जिन्होंने बीजिंग (पीआरसी) को मान्यता देना शुरू कर दिया और ताइपे (ताइवान) के प्रति लोगों का रुझान कम होता गया और आख़िरकार ताइवान ख़ुद में ही सिमट कर रह गया।

संयुक्त राष्ट्र संघ में दोहरा प्रतिनिधित्व रह सकता है, लेकिन यह तभी, जब उस देश का विभाजन हो, जैसे भारत पाकिस्तान या फिर पाकिस्तान और बांग्लादेश या यूएनओ, वन चाइना नीति न लागू करके, चीन और ताइवान को अलग अलग मान्यता दे दे। पर यूएनओ ने तो एक चीन की नीति स्वीकार कर के यह तय कर दिया था कि, रहेगा तो एक ही चीन। चाहे पीआरसी या आरओसी। यूएनओ ने पीआरसी को मान भी लिया था। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में 1971 में प्रस्ताव संख्या 2758 पास होने से पहले, ऐसी कोशिश भी हुई कि, दोनों चीनों, पीआरसी और आरओसी को, यूएनओ में सदस्यता मिल जाय। च्यांग काई-शेक ने संयुक्त राष्ट्र में यह कह कर कोशिश भी की थी कि, आरओसी (ताइवान) ही पूरे चीन का वैध प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन वे असफल हुए। च्यांग काई-शेक को लगता था कि टू-स्टेट सॉल्युशन से वो यूएन की सुरक्षा परिषद की सीट, वह अपने दुश्मन पीआरसी कम्युनिस्ट चीन को गंवा देंगे, क्योंकि, चीन ही मुख्य भूमि है। 1961 में च्यांग काई-शेक का यह बयान बहुत प्रसिद्ध हुआ था जब उन्होंने कहा था कि, "देशभक्त और देशद्रोही एक साथ नहीं सकते।" वे कम्युनिस्ट क्रांति को देशद्रोही मानते थे। 

अब थोडा पीछे चलते हैं, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय। जब हिटलर का उत्थान हो रहा था तो, हिटलर ने स्टालिन के साथ युद्ध न करने की एक संधि की थी। यह समझौता, मोलोटोव-रिबेंट्रॉप पैक्ट के रूप में जाना जाता है और द्वितीय विश्व युद्ध से कुछ समय पहले 1939 में नाजी जर्मनी और सोवियत संघ द्वारा हस्ताक्षरित एक गैर-आक्रमण समझौता था। इस संधि में, दोनों देश, 10 वर्षों तक एक दूसरे के खिलाफ किसी भी प्रकार की कोई सैन्य कार्रवाई नहीं करने पर, सहमत हुए थे। इसी अनाक्रमण संधि के कारण, जब पूरे यूरोप में हिटलर ने आतंक मचा रखा था तब, जर्मनी - सोवियत रूस की सीमा पर शांति थी। तब मित्र देशों के रूप में, ब्रिटेन और फ्रांस ही मुख्य रूप से धुरी देशों से लोहा ले रहे थे। अमेरिका, उनके साथ तो था, पर भौगोलिक दूरी और कारणों से उसे युद्ध से पीड़ित होने का, कोई खतरा नहीं था। जब पेरिस सहित यूरोप के तमाम छोटे देश, हिटलर के कब्जे में आते जा रहे थे, तब इसी बढ़े मनोबल के कारण, हिटलर ने सोवियत रूस पर, 1939 की अनाक्रमण संधि को तोड़ते हुए  हमला कर दिया। अब इस विश्वयुद्ध में, रूस भी शामिल हो गया। लेकिन कम्युनिस्ट रूस, मित्र देशों की वैचारिकी से अलग तो था ही, वह उनका वैचारिक शत्रु भी था। हालांकि, तब बड़ी समस्या, हिटलर था, जिसने यूरोप और ब्रिटेन में आतंक मचा रखा था। उधर पूर्व में जब जापान ने, 9 दिसंबर 1941 को, पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया तो, अमेरिका खुलकर युद्ध में कूद पड़ा और तब ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, सोवियत रूस, मित्र राष्ट्र के रूप में, एक तरफ और इटली, जर्मनी और जापान, धुरी राष्ट्र के रूप में, दूसरी तरफ हो गए। अंत में जापान के दो शहरों, हिरोशिमा पर 6 अगस्त 1945 और नागासाकी पर 9 अगस्त 1945 को, अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराए जाने, सोवियत रूस द्वारा बर्लिन पर कब्जे और हिटलर द्वारा एक बंकर में घुस कर आत्महत्या कर लिए जाने और मुसोलिनी को, इटली की जनता द्वारा चौराहे पर मार कर लटका दिए जाने के बाद, यह विश्वयुद्ध खत्म हो गया। साथ ही सोवियत रूस की वैचारिकी के कारण, मित्र देश पुनः सोवियत यानी कम्युनिस्ट विरोधी हो गए। शीत युद्ध इसी वैचारिक मतभेद का परिणाम था।

इस प्रकार, जब 1945 में जब यूएनओ का गठन हुआ तो, उसमे, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस तो स्थाई सदस्य बने ही, साथ ही अपने आकार और द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी भूमिका के कारण सोवियत रूस को भी स्थाई सदस्यता मिली। तब तक चीन में कम्युनिस्ट क्रांति नहीं हो पाई थी और चीन, रिपब्लिक ऑफ चाइना आरओसी के रूप में ही था, तो उसे भी जगह मिली। भारत तब गुलाम था और अपनी आजादी के लिए निर्णायक जंग लड़ रहा था। लेकिन जब चीन 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बन गया और च्यांग काई शेक वहां से भाग कर फर्मोसा/ताइवान चले गए तो, वे, रिपब्लिक ऑफ चाइना का टैग भी लेते गए और उनके ऊपर अमेरिका का हांथ था, जो अब भी ताइवान पर है को, यूएनएससी में, स्थाई सदस्यता का मिला पद बरकरार रहा। शुरू में सीआईए और अन्य पश्चिमी ताकतें चीन की कम्युनिस्ट क्रांति को पलट कर प्रतिक्रांति करना चाहती थी, पर वे सफल नहीं हुई और धीरे धीरे कम्युनिस्ट चीन को दुनिया के बहुत से देशों ने मान्यता दे भी दी। इसी बीच यूएनओ चार्टर ने, एक चीन की नीति, वन चाइना पॉलिसी की घोषणा की, तो यह तय हो गया कि, एक ही चीन रहेगा, चाहे वह पीआरसी के रूप में कम्युनिस्ट चीन हो या आरओसी के रूप में ताइवान का चीन। 

धीरे धीरे, अमरीका ने भी बीजिंग से, अपने कूटनीतिक संबंध बढ़ाने शुरू कर दिये। जब अमरीका का ताइवान के साथ पूरी तरह राजनयिक संबंध कायम था, तभी अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने 1972 में चीन की यात्रा की। 1971 से पहले तक ताइवान सुरक्षा परिषद के पांच सदस्यों में एक सदस्य बना रहा। तब दुनिया को लगता था कि च्यांग काई-शेक ही चीन, जिसे आरओसी कहते हैं, चीन के असली शासक हैं। 1972 में चीन के प्रति अमेरिकी कूटनीति में बदलाव भी इसलिए हुआ कि, चीन में तख्ता पलट संभव नहीं हो सका था, तब दुनिया के एक बड़े देश और बड़ी आबादी को कैसे अमेरिका नजरअंदाज कर सकता था, और तब पिंग पोंग खेल के द्वारा, यूएस चीनी, रिश्तों को सामान्य बनाने की शुरुआत हुई। तब रिपब्लिक ऑफ चाइना (ताइवान) जिसे चीन के रूप में मान्यता देकर यूएनएससी में स्थाई सदस्यता दी गई थी, की जगह पर, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (कम्युनिस्ट चीन) को स्थाई सदस्य बनाया गया। चीन की शर्त ही यह थी कि वही असल चीन है, और ताइवान उसी की भूमि है, कोई अलग संप्रभु देश नहीं है। इसे पिंगपॉन्ग कूटनीति कहा गया था। 

अमरीका नहीं चाहता था कि सुरक्षा परिषद की सीट ताइवान से चीन को मिले लेकिन ऐसा केवल अमरीका के चाहने भर से तो, संभव नहीं हो पाता। इसी क्रम में अमरीका ने नेहरू से अनौपचारिक तौर पर इच्छा जताई थी कि, भारत सुरक्षा परिषद में शामिल हो जाए। लेकिन यह भी इतना आसान नहीं था। 1949 में ही, जब विजयलक्ष्मी पंडित, यूएसए में भारत की राजदूत थीं तब उन्हें एक अनौपचारिक ऑफर जरूर अमेरिकी कूटनीतिक सर्किल से मिला था कि, अमेरिका, भारत को, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दिलाने के लिए प्रयास कर सकता है। जब यह खबर, जवाहरलाल नेहरु को भेजी गई तो, उनकी प्रतिक्रिया थी कि, यदि इस आशय का कोई प्रस्ताव, यूएनओ की तरफ से आता है तो वे इस पर अपनी बात रखेंगे। लेकिन यूएस ने ऐसा कोई प्रस्ताव यूएनओ में, न तो रखा और न ही ऐसी कोई बात हुई। यूएनओ की तरफ से भी ऐसा कोई प्रस्ताव कभी नहीं आया था। 

ऐसा करना, इतना आसान भी नहीं था। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में संशोधन करना पड़ता और सुरक्षा परिषद के पांचों देशों के बीच सहमति की, ज़रूरी शर्त थी। तब सोवियत संघ और चीन में कम्युनिस्ट विचारधारा के कारण दोस्ती थी। कहा जाता है कि, अगर भारत के लिए ऐसा कोई संशोधन लाया भी जाता तो, सोवियत संघ, तब वीटो कर देता। यह बात भी सच है कि, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी चाहते थे कि, यूएनएससी की स्थाई सीट से, वन चाइना पॉलिसी के अनुसार, ताइवान को हटा कर, चीन को लाया जाय। यह कोई नई स्थाई सदस्यता का प्रस्ताव नहीं था बल्कि आरओसी के बजाय पीआरसी को, यूएनओ में स्थाई स्थान देना था और यह यूएन चार्टर के अनुरूप भी था। यदि ऐसा नहीं होता तो, यह चीन के साथ अन्याय ही होता क्योंकि असल चीन और चीन की मुख्य भूमि तो पीआरसी कम्युनिस्ट चीन के ही पास थी।  

यूएनओ में, एक बार, आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अज़हर को चीन ने वैश्विक आतंकी घोषित कराने के मामले में भारत के ख़िलाफ़ वीटो कर दिया तो बीजेपी नेता और क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस नेता शशि थरूर की किताब का हवाला देकर आरोप लगाया था कि, "सुरक्षा परिषद में भारत की सीट, नेहरू ने चीन को दिलवा दिया था और इसी के दम पर चीन भारत को परेशान कर रहा है।"

इसके जवाब में शशि थरूर ने कहा था कि, "बीजेपी के दावों में कतई सच्चाई नहीं है।" और उन्होंने इस मसले में कई तथ्यों को साझा किया। शशि थरूर ने लिखा है, ''संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता में नेहरू की भूमिका पर मेरी किताब 'नेहरू द इन्वेंशन ऑफ़ इंडिया' का बीजेपी ने हवाला दिया है. उसके संदर्भ को यहाँ समझ सकते हैं, 
'चीन 1945 में यूएन चार्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद से ही सुरक्षा परिषद में वास्तविक स्थायी सदस्य था। चीन 1949 में जब कम्युनिस्ट शासन के हाथ में आया तो सुरक्षा परिषद की सीट ताइवान स्थित च्यांग काई-शेक की सरकार यानी रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के जाने के बाद भी उसी के पास रही। नेहरू इस चीज़ को बिल्कुल सही महसूस करते थे कि, ताइवान जैसे छोटे से द्वीप का सुरक्षा परिषद में वीटो पावर के साथ स्थायी सदस्य रहना तार्किक नहीं होगा। इसके बाद नेहरू ने सुरक्षा परिषद के बाक़ी के स्थायी सदस्यों से कहा कि यह सीट कम्युनिस्ट चीन यानी पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को दिया जाए। अमरीका रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के सुरक्षा परिषद में बने रहने की आपत्तियाँ को समझ रहा था पर वो कम्युनिस्ट चीन को सुरक्षा परिषद में लाने को लेकर अनिच्छुक था। इसी संदर्भ में अमरीका ने भारत से सुरक्षा परिषद में चीन की स्थायी सीट लेने की इच्छा व्यक्त की थी. नेहरू को लगा कि ऐसा करना ग़लत होगा और यह चीन के साथ नाइंसाफ़ी होगी. उन्होंने कहा कि रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की सीट पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को मिलनी चाहिए और भारत को एक दिन अपने हक़ से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिलेगी।'

इस बात को याद रखना चाहिए कि यूएन चार्टर में बिना संशोधन के भारत सुरक्षा परिषद में चीन की जगह नहीं ले सकता था। तब इस तरह का संशोधन सोवियत संघ के पास वीटो पावर रहते किया भी नहीं जा सकता था। इससे यह स्पष्ट है कि, 
० भारत को कभी भी यूएनओ की तरफ से, सुरक्षा परिषद में, स्थाई सदस्यता का ऑफर नहीं मिला था, और,
० भारत को ऐसी कोई भी मिलने वाली स्थायी सदस्यता, नेहरू ने, चीन को नहीं दी थी। 
केवल अमरीकी सरकार की इच्छा से भारत को यह सीट नहीं मिल सकती थी। बीजेपी, जब भी वर्तमान की चुनौतियों का सामना नहीं कर पाती है तो वह, अतीत के तथ्यों से छेड़छाड़ कर, जनता को उलझाने लग जाती है।  पसंद कर रही है।

27 सितंबर, 1955 को डॉ जेएन पारेख के सवालों के जवाब में नेहरू ने संसद में कहा था, ''यूएन में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनने के लिए औपचारिक या अनौपचारिक रूप से कोई प्रस्ताव नहीं मिला था। कुछ संदिग्ध संदर्भों का हवाला दिया जा रहा है जिसमें कोई सच्चाई नहीं है। संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद का गठन यूएन चार्टर के तहत किया गया था और इसमें कुछ ख़ास देशों को स्थायी सदस्यता मिली थी। चार्टर में बिना संशोधन के कोई बदलाव या कोई नया सदस्य नहीं बन सकता है. ऐसे में कोई सवाल ही नहीं उठता है कि भारत को सीट दी गई और भारत ने लेने से इनकार कर दिया. हमारी घोषित नीति है कि संयुक्त राष्ट्र में सदस्य बनने के लिए जो भी देश योग्य हैं उन सबको शामिल किया जाए।"

(विजय शंकर सिंह)

Thursday 8 December 2022

"न्यायपालिका को, संसद द्वारा पारित, कानूनों की न्यायिक समीक्षा की शक्तियां हैं।" ~ सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट में, आजकल, एडवोकेट असोशियेसन बेंगलुरु बनाम बरूण मित्र और अन्य मामले की सुनवाई चल रही है। मुख्य मुद्दा है, उच्च न्यायपालिका (हाइकोर्ट सुप्रीम कोर्ट) के जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम प्रणाली की संवैधानिकता। सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम जजों का एक समूह होता है, जिसे कॉलेजियम कहते हैं, जो प्रधान न्यायाधीश, सीजेआई की अध्यक्षता में, जजों की नियुक्ति के लिए अपनी सिफारिशें, सरकार को भेजता है। सरकार, उन सिफारिशों को, राष्ट्रपति के पास भेजती है, फिर राष्ट्रपति, उन जजों को नियुक्त करते हैं। 

लेकिन, इधर, सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा भेजे गए कुछ नामों को तो सरकार ने नियुक्ति के लिए, राष्ट्रपति को भेज दिया तो कुछ नाम रोक रखे और कुछ नामों को पुनर्विचार के लिए, सुप्रीम कोर्ट को लौटा दिया। लौटाए गए नामो के लिए, सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था है कि, सुप्रीम कोर्ट, उन लौटाए गए नामो पर विचार करती है और या तो उन्हे संशोधित कर देती है या फिर उन्हीं नामों को दुबारा सरकार के पास भेज देती है। दुबारा भेजे गए नामो को स्वीकार करना, सरकार के लिए बाध्यकारी है। 

अब यहां एक समस्या और है, कि, सरकार, सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजे गए नामो को कब तक रोक के रख सकती है, इसकी कोई समय सीमा, न तो सरकार ने तय की है और न  ही, सुपरिम कोर्ट ने। अब इससे दिक्कत यह होती है कि, जजों की नियुक्तियां तो बाधित होती ही हैं, साथ ही, देर से नियुक्ति के कारण, नियुक्त हुए जजों की वरिष्ठता भी प्रभावित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने, इन सब विदुओं पर विचार किया और तदनुसार, एटॉर्नी जनरल को निर्देश भी दिए। 

कॉलेजियम प्रणाली को लेकर, हाल ही में कानून मंत्री के कई बयान न्यायपालिका को लेकर आए और इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। साथ ही, एक महत्वपूर्ण बयान, उपराष्ट्रपति जी का भी आया कि, संसद, सर्वोच्च है और संसद द्वारा पारित कानून रद्द नहीं किया जा सकता है। इस पर एक संवैधानिक सवाल खड़ा हो गया कि, क्या सुप्रीम कोर्ट, संसद द्वारा पारित कानूनों की न्यायिक समीक्षा कर सकती है या नहीं, या उन्हे रद्द कर सकती है या नहीं। संसद की सर्वोच्चता असदिग्ध है। इस पर कोई विवाद है ही नहीं। पर सुप्रीम कोर्ट को, सांसद द्वारा  कानूनों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार और शक्तियां है। 

इसी विंदु पर, सुप्रीम कोर्ट ने, 8/12/22, गुरुवार को कॉलेजियम की सिफारिशों को रोक कर, रखे हुए, केंद्र सरकार के खिलाफ, इसी याचिका पर, आदेश पारित करते हुए, कोर्ट ने स्पष्ट रूप से व्यवस्था दी कि, "भारत के संविधान की योजना ऐसी है कि, हालांकि यह मानता है कि, कानून बनाने की शक्ति संसद के पास है, पर, उसी विषय पर, न्यायपालिका, उनकी समीक्षा भी कर सकती है।" 
अदालत ने कहा, "हम अंत में केवल यही कहते हैं कि, संविधान की योजना न्यायालय को, कानून की स्थिति पर, अंतिम मध्यस्थ होने के लिए निर्धारित करती है। कानून बनाने की शक्ति संसद के पास है, लेकिन, वह शक्ति न्यायालयों की समीक्षा अधिकार के अधीन है।  यह आवश्यक है कि सभी इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून का पालन करें, अन्यथा समाज के वर्ग, कानून निर्धारित होने के बावजूद, अपने स्वयं की इच्छानुसार, के विधि का पालन करने का, निर्णय ले सकते हैं।"

ऐसा लगता है कि उपरोक्त उद्धृत अंश को, सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान, वरिष्ठ अधिवक्ता, विकास सिंह के, इस कथन पर, आदेश में, शामिल किया गया है कि "संवैधानिक पदों पर बैठे कुछ लोग कह रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के पास न्यायिक समीक्षा की शक्ति नहीं है।"  वरिष्ठ अधिवक्ता, विकास सिंह ने संकेत दिया था कि, "न्यायिक समीक्षा, संविधान की 'मूल संरचना' है और यह 'थोड़ा परेशान करने वाली बात है कि, ऐसी टिप्पणी, किसी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा की गई है।"
उस समय, न्यायमूर्ति कौल ने टिप्पणी की, "कल लोग कहेंगे कि बुनियादी ढांचा भी संविधान का हिस्सा नहीं है।"

शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित कानून की अवमानना ​​​​करने के लिए केंद्र सरकार को परमादेश या अवमानना ​​​​नोटिस जारी करने के लिए बेंच से अनुरोध करते हुए, श्री सिंह ने प्रस्तुत किया था, "जैसा कि निर्धारित किया गया है, सभी नुक्कड़ शो के साथ कानून का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।"
विकास सिंह, भारत के उपराष्ट्रपति, जगदीप धनखड़ द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बारे में, हाल ही में की गई आलोचनात्मक टिप्पणियों का जिक्र कर रहे थे, जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को लाने के लिए पारित संविधान संशोधन को रद्द कर दिया था।

हाल ही में, राज्यसभा के सभापति के रूप में अपने पहले संबोधन में, भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने उक्त निर्णय के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी की है। लगभग एक सप्ताह पहले, ओपी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित आठवें एलएम सिंघवी मेमोरियल लेक्चर में, मुख्य अतिथि के रूप में अपना भाषण देते हुए, उपराष्ट्रपति सरकार के एक अंग के, दूसरों के विशेष संरक्षण में घुसपैठ के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी कर रहे थे।  NJAC के मुद्दे पर, उपराष्ट्रपति ने विशेष रूप से पूछा था कि, "लोगों के अध्यादेश को, एक वैध तंत्र के माध्यम से, एक संवैधानिक प्रावधान में परिवर्तित किया गया, अर्थात् विधायिका, और सबसे पवित्र तरीके से, यानी इस मुद्दे पर बहस के बाद, दोनों सदनों द्वारा पारित, क्या किसी कानून को, न्यायपालिका द्वारा रद्द किया जा सकता है?"  

उन्होंने स्पष्ट किया था, "रिकॉर्ड के रूप में, पूरी लोकसभा ने संवैधानिक संशोधन के लिए सर्वसम्मति से मतदान किया। कोई अनुपस्थिति नहीं थी, कोई असंतोष नहीं था। राज्यसभा में, एक दल की अनुपस्थिति थी, लेकिन कोई विरोध नहीं था। इसलिए, लोगों के अध्यादेश को, संसद ने कानून में, परिवर्तित कर दिया था। यह एक संवैधानिक प्रावधान है। लोगों की शक्ति सबसे प्रमाणित तंत्र में परिलक्षित हुई। तो फिर क्या इसे न्यायपालिका द्वारा रद्द किया जा सकता है?"
उपराष्ट्रपति इस बात से परेशान थे कि, "संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से NJAC लाने के संसद के निर्णय के द्वारा, प्रकट की गई, लोगों की इच्छा को, न्यायपालिका ने पलट दिया था।  उनका विचार था कि यह अभूतपूर्व था कि, संसद द्वारा पास किया गया, एक संवैधानिक संशोधन अधिनियम न्यायपालिका द्वारा खत्म कर दिया गया। दुनिया ऐसे किसी, अन्य उदाहरण के बारे में नहीं जानती।"

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा, "कॉलेजियम सिस्टम देश का कानून है, इसका पालन होना चाहिए।" 
कानूनी स्थिति के बारे में सरकार को अवगत कराने के लिए, एजी से अदालत ने कहा, "कॉलेजियम के खिलाफ की गई टिप्पणी को, अदालत ने, अच्छी तरह से नहीं ली है।" 
सुप्रीम कोर्ट ने एजी से सरकार को इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने की सलाह देने को कहा। सरकार ने, एमओपी (मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर) में सुधार के लिए सुझाव दे सकती है। 
अभी सुनवाई चल रही है। 

(विजय शंकर सिंह)


"कॉलेजियम प्रणाली 'देश का कानून' (Law of the land) है।" ~ सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने, आज, 08/12/22,  गुरुवार को केंद्र सरकार से कहा कि, "कॉलेजियम प्रणाली "देश का कानून" (Law of the land) है जिसका हर दशा में पालन किया जाना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि समाज के कुछ वर्ग हैं, जो कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ विचार रखते हैं, इससे, यह कानून रद्द नहीं हो जाता।"
"हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली तैयार करने वाली संविधान पीठ के फैसलों का पालन किया जाना चाहिए।" संविधान पीठ ने, यह बात, अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल से बिना किसी, भूमिका के कही। आगे पीठ ने कहा, 

"समाज में ऐसे वर्ग हैं, जो संसद द्वारा बनाए गए कानूनों से सहमत नहीं हैं। क्या अदालत को उस आधार पर ऐसे कानूनों को लागू करना बंद कर देना चाहिए?" न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अगुवाई वाली पीठ ने भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से पूछा।
जस्टिस कौल ने चेतावनी देते हुए कहा, 
"अगर हर एक समाज यह तय करने लगे कि, किस कानून का पालन करना है और किस कानून का पालन नहीं करना है, तो, हर कानून यह टूट जाएगा।"

अटार्नी जनरल ने कहा कि, "केंद्र द्वारा वापस भेजे गए, दोहराए गए नामों को सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा वापस लेने के दो उदाहरण हैं और इसने एक धारणा को जन्म दिया कि पुनरावृत्ति निर्णायक नहीं हो सकती है।"
इस पर पीठ ने यह कहकर पलटवार किया कि, "इस तरह के अलग-अलग उदाहरण संविधान पीठ के फैसले को नजरअंदाज करने के लिए, हम "सरकार को कोई अनुमति नहीं देंगे, जो स्पष्ट रूप से कहता है कि कॉलेजियम की पुनरावृत्ति बाध्यकारी है। जब कोई निर्णय होता है, तो किसी अन्य धारणा के लिए कोई जगह नहीं होती है।" 
सुनवाई के बाद लिखे गए आदेश में पीठ ने कहा कि "उसे इस बात की जानकारी नहीं है कि, किन परिस्थितियों में कॉलेजियम ने पूर्व में दोहराए गए दो नामों को हटा दिया था।"

जस्टिस संजय किशन कौल, अभय एस ओका और विक्रम नाथ की खंडपीठ न्यायिक नियुक्तियों के लिए समय सीमा का उल्लंघन करने वाले केंद्र के खिलाफ बैंगलोर के एडवोकेट्स एसोसिएशन द्वारा दायर एक अवमानना ​​​​याचिका की सुनवाई कर रही है। इसी मुद्दे को लेकर एनजीओ सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन द्वारा 2018 में दायर एक जनहित याचिका भी आज सूचीबद्ध है।
एजी ने कहा कि "पिछले अवसर पर पीठ द्वारा उठाई गई चिंताओं के बाद उन्होंने मंत्रालय के साथ चर्चा की और मुद्दों को "ठीक करने" के लिए कुछ और समय मांगा।"

"अटॉर्नी आपको थोड़ा बेहतर करना होगा ... हमें एक रास्ता खोजने की जरूरत है। आपको क्यों लगता है कि हमने अवमानना ​​​​नोटिस के बजाय केवल एक नोटिस जारी किया? हम एक समाधान चाहते हैं। हम इन मुद्दों को कैसे सुलझाते ?"
न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि दिन की सुनवाई समाप्त हो गई।
पीठ ने आज यह भी नोट किया कि केंद्र ने हाल ही में 19 नामों को वापस भेजा है, जिनमें 10 नाम कॉलेजियम द्वारा दोहराए गए हैं।  पीठ ने कहा कि इस मुद्दे को हल करना कॉलेजियम का काम होगा।

"हम उम्मीद करते हैं कि अटॉर्नी जनरल कानूनी स्थिति की सरकार को सलाह देने और कानूनी स्थिति का पालन सुनिश्चित करने में वरिष्ठतम कानून अधिकारी की भूमिका निभाएंगे। संविधान की योजना के लिए इस न्यायालय को कानून का अंतिम मध्यस्थ होना आवश्यक है।  कानून बनाने की शक्ति संसद के पास है, लेकिन यह इस न्यायालय द्वारा जांच और समीक्षा के अधीन है। यह महत्वपूर्ण है कि इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून का पालन किया जाए अन्यथा लोग उस कानून का पालन करेंगे जो उन्हें लगता है कि सही है।"  यह बात अदालत ने अपने आदेश में कहा है। 
अटॉर्नी जनरल ने पीठ को आश्वासन दिया कि वह सरकार के साथ, इस विंदु पर, विचार-विमर्श के बाद अदालत को बताएंगे। मामले की अगले सप्ताह फिर सुनवाई होगी।

पीठ ने अपनी चिंता दोहराई कि, "नियुक्तियों में देरी से, मेधावी लोगों को न्यायपालिका में शामिल होने से बाधा पहुंच रही है और यह एक परेशानी वाली स्थिति है। कई मामलों में कॉलेजियम ने कुछ प्रस्तावों को छोड़ दिया है .... सरकार के दृष्टिकोण को, ध्यान में रखा गया है। सरकार के विचार और कॉलेजियम के विचारों को प्रस्तावित करने के बाद, सरकार नाम वापस भेजती है, लेकिन जब उन्हें दोहराया जाता है, तो आपको नियुक्त करना होता है।  कोई अन्य रास्ता नहीं है", 
न्यायमूर्ति कौल ने एजी को बताया, "ऐसा नहीं है कि प्रत्येक मामले में समय-सीमा का पालन नहीं किया जाता है।  लेकिन, जो बात हमें परेशान करती है, वह यह है कि कई मामले, महीनों और सालों से लंबित थे और कुछ मामले दोहराए गए थे।" 

जस्टिस कौल ने यह भी कहा कि "कभी-कभी नाम तेजी से स्वीकृत हो जाते हैं" और कुछ अन्य को महीनों तक लंबित रखा जाता है। यह पिंग पोंग लड़ाई कैसे चलेगी?" 
न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि "नामों के लिए दी गई चयनात्मक स्वीकृति वरिष्ठता को, बाधित कर देती है। जब कॉलेजियम नाम को मंजूरी देता है तो, उनके दिमाग में कई कारक होते हैं ... आप एक पदानुक्रम बनाए रखते हैं कि, इसे कैसे नियुक्त किया जाना चाहिए। लेकिन अगर पदानुक्रम बाधित होता है तो ?"

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और, वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने हाल ही में कॉलेजियम प्रणाली के बारे में कानून मंत्री और उपराष्ट्रपति द्वारा दिए गए बयानों का हवाला देते हुए कहा, "संवैधानिक पद पर बैठे लोग कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को, न्यायिक समीक्षा करने की शक्तियां नहीं हैं, जबकि, न्यायिक समीक्षा की शक्ति, संविधान के, बुनियादी ढांचे का अंग है। न्याय मंत्री और, उपराष्ट्रपति का यह बयान, थोड़ा परेशान करने वाला है।"
इस पर जस्टिस कौल ने कहा, "कल लोग कहेंगे कि बुनियादी ढांचा भी संविधान का हिस्सा नहीं है!"
पीठ के ही एक सदस्य, जस्टिस विक्रम नाथ ने, एटर्नी जनरल से, कहा, "श्री सिंह, (एडवोकेट विकास सिंह) भाषणों का जिक्र कर रहे हैं ... यह बात, बहुत अच्छी नहीं है ... सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम सिस्टम पर, इन टिप्पणियों को, बहुत अच्छी तरह से नहीं लिया गया है। आपको उन्हें नियंत्रित करने की सलाह देनी होगी ..।"

सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की ओर से पेश अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि, "उनकी याचिका चार साल पहले दायर की गई थी, जिसमें सरकार द्वारा चुनिंदा नामों को लंबित रखने के मुद्दे को उजागर किया गया था।  उन्होंने 2018 में सरकार द्वारा न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की पदोन्नति में देरी का उदाहरण दिया। "एक समय था जब जे. जोसेफ की नियुक्ति भी नहीं की जा रही थी।"
भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भूषण की याचिका पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि, "इस मुद्दे को सार्वजनिक बहस में नहीं बदलना चाहिए जहां कोई भी न्यायाधीशों का नाम ले सकता है। बार एक हितधारक है, अदालत एक हितधारक है, कॉलेजियम एक हितधारक है। क्या यह जनहित का मामला बनने के लायक है? वह न्यायाधीशों के नाम ले रहे हैं, इसे रोकने की जरूरत है। इसे रोकना होगा।" SG ने जोर देकर कहा।

"बहुत सारी चीजों को रोकने की जरूरत है। संविधान पीठ के एक फैसले का पालन करना होगा", न्यायमूर्ति कौल ने तब एसजी से कहा। 
पीठ ने एजी द्वारा दायर स्टेटस रिपोर्ट में केंद्र द्वारा व्यक्त किए गए विचार को अस्वीकार कर दिया कि, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। केंद्र सरकार ने न्यायमूर्ति सीएस कर्णन के खिलाफ, स्वप्रेरणा से अवमानना ​​मामले में, अपने फैसलों में, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर द्वारा की गई कुछ टिप्पणियों का उल्लेख किया था कि, एमओपी को फिर से देखने की जरूरत है। पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि एमओपी को अंतिम रूप दे दिया गया है, हालांकि इसमें सुधार की गुंजाइश है।  हालाँकि, सरकार, इस तरह का कार्य नहीं कर सकती है। पर यह कोई अंतिम एमओपी नहीं है।

न्यायमूर्ति कौल ने अटार्नी जनरल से कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया ज्ञापन संबंधी मुद्दा खत्म हो गया है और सरकार इस आधार पर कार्रवाई नहीं कर सकती कि, मामला लंबित है।
"एक बार कॉलेजियम, अपने संज्ञान में, या जैसा कि आप इसके अभाव में सोचेंगे, ने एमओपी पर काम किया था, इसमें कोई कमी नहीं है। एमओपी मुद्दा खत्म हो गया है। अब आप बाद के फैसले में कहते हैं, दो न्यायाधीशों ने कुछ टिप्पणियां कीं। अब जब संविधान पीठ का फैसला है तो क्या दो न्यायाधीशों के टिप्पणी के आधार पर उसे, को रोकना तर्कसंगत है?"
"कोई एमओपी मुद्दा अब नहीं है। एमओपी का मुद्दा खत्म हो गया है।" न्यायमूर्ति कौल ने एजी को बताया।

"केंद्र ने बदलाव के लिए बाद में पत्र भेजा है। लेकिन उन पत्रों से, एमओपी, प्रभावित नहीं होगा, यह मैं स्वीकार करता हूं। लेकिन अब यह मुद्दा, लंबित नहीं है", न्यायमूर्ति कौल ने स्पष्ट किया।
न्यायमूर्ति कौल ने कहा, "मौजूदा एमओपी है। आप कहते हैं कि कुछ बदलाव वांछनीय हैं। यह तथ्य कि आप कुछ बदलाव चाहते हैं, पर इससे, एमओपी का अस्तित्व खत्म नहीं करे   होगा।"
"आप कहते हैं कि जस्टिस रंजन गोगोई और चेलमेश्वर ने कहा कि एमओपी को एक पुनर्विचार की जरूरत है। लेकिन फिर क्या हुआ.. भले ही दो जजों ने कुछ कहा हो .. यह कॉलेजियम के फैसले को कैसे बदल सकता है? सिस्टम आज तक मौजूद है। दो जजों की राय से, सात न्यायाधीशों के विचार का फैसला, नहीं बदलता है। आपने न्यायाधीशों के कुछ विचारों को आसानी से उठाया है और उन्हें शामिल कर लिया है। यह कैसे किया जा सकता है? आप कुछ बदलाव चाहते हैं, लेकिन इस बीच मौजूदा एमओपी के साथ कॉलेजियम को काम करना है। अब यह सिर्फ एक दोषारोपण का खेल लग रहा है।"
न्यायमूर्ति कौल ने एजी से कहा। 
SCBA अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट से कड़ी कार्रवाई करने का आग्रह किया, "कुछ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। या तो परमादेश जारी किया जाय, या अवमानना ​​​​की नोटिस दी जाय। यह केवल दो विकल्प हैं।" 

मुकदमे की पृष्ठभूमि इस प्रकार है ~  

पिछली सुनवाई की तारीख 28 नवंबर को कोर्ट ने कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ कानून मंत्रियों की टिप्पणियों पर नाराजगी जताई थी। कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल से न्यायिक नियुक्तियों के संबंध में कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून का पालन करने के लिए केंद्र को सलाह देने का भी आग्रह किया था। न्यायालय ने याद दिलाया कि कॉलेजियम द्वारा, दुबारा भेजे गए नाम केंद्र के लिए बाध्यकारी हैं और नियुक्ति प्रक्रिया को पूरा करने के लिए निर्धारित समयसीमा का कार्यपालिका द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। एक गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए कि "नियुक्तियों में देरी "पूरी प्रणाली को बाधित कर देती है।" पीठ ने केंद्र के "कॉलेजियम प्रस्तावों को विभाजित करने" के मुद्दे पर भी सवाल उठाए, क्योंकि यह सिफारिश में भेजे गए नामो की वरिष्ठता को बाधित भी करता है।

जस्टिस एएस ओका की बेंच भी सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा दोहराए गए 11 नामों को मंजूरी नहीं देने के खिलाफ 2021 में एडवोकेट्स एसोसिएशन बेंगलुरु द्वारा दायर एक अवमानना ​​​​याचिका पर विचार कर रही थी।  एसोसिएशन ने तर्क दिया कि केंद्र का आचरण पीएलआर प्रोजेक्ट्स लिमिटेड बनाम महानदी कोलफील्ड्स प्राइवेट लिमिटेड के निर्देशों का घोर उल्लंघन है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि कॉलेजियम द्वारा दोहराए गए नामों को केंद्र द्वारा 3 से 4 सप्ताह के भीतर मंजूरी दी जानी चाहिए।

11 नवंबर को नियुक्तियों में देरी के लिए केंद्र की आलोचना करते हुए कोर्ट ने सचिव (न्याय) को नोटिस जारी किया था।
"नामों को लंबित रखना स्वीकार्य नहीं है। हम पाते हैं कि नामों को होल्ड पर रखने का तरीका चाहे विधिवत अनुशंसित हो या दोहराया गया हो, इन व्यक्तियों को अपना नाम वापस लेने के लिए मजबूर करने का एक तरीका बन रहा है, जैसा कि हुआ है।" पीठ ने आदेश में कहा।  .

पीठ ने पाया कि, "11 नामों के मामलों में जिन्हें कॉलेजियम द्वारा दोहराया गया है, केंद्र ने फाइलों को लंबित रखा है, उन्हे मंजूरी दिए बिना और आपत्ति का कारण बताए बिना, उन्हें वापस कर दिया है, और अनुमोदन रोकने की ऐसी प्रथा "अस्वीकार्य" है।"
"अगर हम विचार के लिए लंबित मामलों की स्थिति को देखते हैं, तो सरकार के पास 11 मामले लंबित हैं, जिन्हें कॉलेजियम ने मंजूरी दे दी थी और, वे अभी तक नियुक्तियों का इंतजार कर रहे हैं। उनमें से सबसे पुराने 04.09.2021 को, भेजे जाने की तारीख के रूप में हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सरकार न तो व्यक्तियों की नियुक्ति करती है और न ही नामों पर अपनी आपत्ति, यदि कोई हो तो, के बारे में सूचित करती है।" पीठ ने आदेश में कहा।
याचिका में उद्धृत उदाहरणों में से एक वरिष्ठ अधिवक्ता आदित्य सोंधी का है, जिनकी कर्नाटक उच्च न्यायालय में पदोन्नति सितंबर 2021 में दोबारा भेजी गई थी। फरवरी 2022 में, सोंधी ने न्यायपालिका के लिए अपनी सहमति वापस ले ली क्योंकि उनकी नियुक्ति के संबंध में कोई अनुमोदन नहीं था। लेख लाइव लॉ की रिपोर्टिंग पर आधारित है। 

(विजय शंकर सिंह)

Tuesday 6 December 2022

आरबीआई ने नोटबंदी पर केंद्र सरकार के फैसले के आगे घुटने टेक दिए ~ पी चिंदबरम / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट में, नोटबंदी पर दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ता का पक्ष रखते हुए,  सुप्रीम के वरिष्ठ एडवोकेट और पूर्व केंद्रीय मंत्री, पी चिदंबरम ने, शीर्ष अदालत में कहा कि "भारतीय रिजर्व बैंक, RBI ने 2016 के विमुद्रीकरण अभियान से, अपनी सहमति देकर, केंद्र सरकार के सामने, अपनी स्वायत्तता तथा संवैधानिक हैसियत का, 'विनम्रता से आत्मसमर्पण' कर दिया।"
लीगल वेबसाइट, बार एंड बेंच और लाइव लॉ की अदालती रिपोर्ट के अनुसार, पी चिदंबरम ने, कहा कि "केंद्र सरकार को उन दस्तावेजों का खुलासा करना चाहिए जिनसे, पता चले कि, 2016 में नोटबंदी को कैसे, सरकार ने मंजूरी दी थी, ताकि शीर्ष अदालत इस कदम की कानूनी वैधता तय कर सके।"
चिदंबरम का यह तर्क, विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ और अन्य, की याचिका पर दिया गया है। पांच सदस्यीय संविधान पीठ के जज, जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमण्यम और बीवी नागरत्ना, इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे हैं। 

यदि, केवल, आरबीआई का केंद्रीय बोर्ड,  विमुद्रीकरण का प्रस्ताव, सरकार से सीधे करता है तो, केंद्र सरकार उस पर, विचारोपरांत कार्रवाई कर सकती थी। लेकिन, इस मामले में, "यहाँ, आरबीआई ने केवल एक घंटे के विचार-विमर्श के बाद नम्रतापूर्वक आत्मसमर्पण कर दिया।" 
यहां यह सवाल उठता है कि, क्या आरबीआई ने सीधे, सरकार के, नोटबंदी के प्रस्ताव पर, बिना अपने मस्तिष्क का प्रयोग किए ही, नोटबंदी के निर्णय पर, जिसे करने का, सरकार पहले ही मन चुकी थी, हामी भर दी? आरबीआई, एक स्वायत्त संस्था है। देश की कुल मुद्रा का 86% मुद्रा चलन से बाहर किए जाने के प्रस्ताव पर, मात्र एक घंटे में, अपनी सहमति दे देना, न केवल आरबीआई की स्वायत्तता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर के प्रोफेशनल योग्यता पर भी एक प्रश्नचिह्न है। 

बहस जारी रखते हुए, पी चिदंबरम ने कहा कि, "केंद्र सरकार ने खुद नोटबंदी पर आगे बढ़ने से पहले इसकी गंभीरता पर विचार नहीं किया था।" 
सरकार में कोई भी विचार विमर्श हवा में या जुबानी नहीं होता है। रूल ऑफ बिजनेस में, हर विचार विमर्श में जो भी भाग लेता है, उसके विचार, प्रस्ताव और दृष्टिकोण के मिनट्स बनते हैं। इस पर सभी, जो उस विचार विमर्श में भाग लेते हैं, के नाम, और इस बात का संक्षिप्त विवरण रहता है कि, उन्होंने क्या क्या कहा है। अदालत में इन ब्यौरे को भी तलब किया गया है, पर वह ब्योरा अदालत में रखा नहीं गया। 
उसका उल्लेख करते हुए, पी चिदंबरम आगे कहते हैं, "वे (सरकार) मिनट्स (विचार विमर्श का ब्योरा) वापस क्यों रोक रहे हैं? इस मुद्दे को तय करने के लिए ये दस्तावेज (मीटिंग के मिनट्स) नितांत आवश्यक हैं। हमें पता होना चाहिए कि, उनके पास क्या सामग्री (नोटबंदी करने का आधार) थी, और उन्होंने उस पर, क्या विचार किया। हम, नोटबंदी के फैसले पर कोई विचार नहीं कर रहे हैं, लेकिन निर्णय लेने की प्रक्रिया (प्रोसीजर) पर विचार कर रहे हैं। उन्हें यह (मिनिट्स) दिखाने की जरूरत है कि क्या उन्होंने अपने फैसले की व्यापकता और आनुपातिकता पर विचार किया था या नहीं ? इसके (मीटिंग की मिनिट्स के) बिना यह,(सरकार का निर्णय), अंधा होकर अंधे का नेतृत्व करना है।"

यहां व्यापकता का आशय, इस फैसले का जनता पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव और आनुपातिकता का आशय, तार्किकता से है। बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष अदालत में, विशेष रूप से, इस कदम के कानूनी पक्ष पर, अनेक सवाल उठाए गए हैं। याचिकाकर्ताओं ने निम्नलिखित व्यापक आधार उठाए:
० भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) अधिनियम की धारा 26(2) जो सरकार को किसी विशेष मूल्यवर्ग की सभी श्रृंखलाओं को कानूनी निविदा नहीं घोषित करने की अनुमति देती है, बहुत व्यापक है।
० निर्णय लेने की प्रक्रिया में गहरी खामी थी।
० सिफारिश (आरबीआई की संस्तुति, जिसके बारे में सरकार कहती है कि, उसने आरबीआई की सिफारिश पर यह फैसला किया है) ने प्रासंगिक कारकों पर विचार नहीं किया। 
० विमुद्रीकरण के घोषित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया गया। यहां वही तीन महत्वपूर्ण उद्देश्य, कालाधन की बरामदगी, आतंकी फंडिंग को बाधित करना और नकली मुद्रा के संजाल को तोड़ना है। 
० यह कदम आनुपातिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। 
सुप्रीम कोर्ट के अधिकार और शक्तियों पर टिप्पणी करते हुए पी चिदम्बरम ने कहा, "न्यायालय के पास इस फैसले के दौरान किए गए आदेशों निर्देशों और अन्य, राहत प्रदान करने की शक्तियां हैं।"

आज की सुनवाई में, आरबीआई की ओर से पेश, वरिष्ठ अधिवक्ता जयदीप गुप्ता ने कहा कि "याचिकाकर्ताओं की यह दलील कि, यह कदम जल्दबाजी में उठाया गया था, केवल विमुद्रीकरण को लागू करने के अंतिम निर्णय पर लागू होगा, न कि इसके पीछे की प्रक्रिया पर।"
सरकार के वकील, जयदीप गुप्ता ने जोर देकर कहा कि "आर्थिक नीति के निर्णय के लिए आनुपातिकता का सिद्धांत 'पूर्ण विकसित' तरीके से लागू नहीं होगा।" उन्होंने इस कदम पर किए गए उच्च व्यय के विवाद को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि "यह कानून पर एक तर्क नहीं है।"
आनुपातिकता के तर्क का आशय है, सरकार को इस कदम से आर्थिक हानि, संभावित, लाभ, जो उद्देश्य के रूप में गिनाए गए थे, अधिक हुई। एडवोकेट, जयदीप गुप्त, इसी लाभ हानि की आनुपातिकता पर अपनी बात कर रहे थे। 

एक सवाल, उठा था कि,  पुराने नोटों को नए नोटों से बदलने में देरी की गई थी। इस विंदु पर जयदीप गुप्ता ने कहा,
"फिर से मुद्रीकरण की योजना नहीं बनाई जा सकती है, जब तक कि विमुद्रीकरण बहुत पहले बड़े पैमाने पर न हो। अगले दिन सभी नोटों का आदान-प्रदान नहीं किया जा सकता। क्या यह कहा जा सकता है कि 86% नकदी का सफाया करने पर विचार किया जाना चाहिए? मैं सम्मानपूर्वक प्रस्तुत करता हूं कि ये प्रश्न होने चाहिए  में नहीं जाना चाहिए।"
सरकार के पास इस बात का जवाब है ही नहीं कि क्या उसने इस बात का आकलन किया था कि, जब 86% मुद्रा केवल चार घंटे, (8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे, प्रधानमंत्री का संदेश, 'आज रात बारह बजे से ₹1000 और ₹500 के नोट, लीगल टेंडर नहीं रहेंगे' याद कीजिए) की नोटिस पर, चलन से बाहर हो जायेंगे और, उन नोटों को बदलने के लिए उचित मात्रा में वैकल्पिक मुद्रा नहीं रहेगी तो, जो अफरातफरी मचेगी, उसका समाधान, सरकार के पास क्या होगा। अफरातफरी मची भी और इस अफरातफरी में लगभग 150 लोग मर गए, और अन्य आर्थिक नुकसान जो हुआ, वह तो अलग है ही। सरकार के एडवोकेट, इसी सवाल से बचने की कोशिश करते नजर आए। 

अदालत में, केंद्र सरकार की ओर से अटार्नी जनरल, आर वेंकटरमणी ने कहा कि "जिस तरह देश नियंत्रित अर्थव्यवस्था से बाजार संचालित अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हुआ, उसी तरह नोटबंदी एक ढांचे से दूसरे ढांचे में जाने के लिए की गई थी।"
यहां अटॉर्नी जनरल यह बात नजरंदाज कर गए कि, नियंत्रित अर्थव्यवस्था से बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में संक्रमण चार घंटे में नहीं हुआ था। यह संक्रमण 1991 के बाद जब पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री और डॉ मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री थे तो हर साल, बजट दर बजट हुआ और उसका लाभ भी देश को मिला। जबकि नोटबंदी से ऐसा नहीं हुआ। 
एजी ने आगे कहा कि, "इसके नोटबंदी के निर्णय के) पीछे की मंशा पर सवाल उठाने से नीति का सार कमजोर हो जाएगा।"

सुनवाई के दौरान जस्टिस, नागरत्न ने याचिकाकर्ताओं के वकील से पूछा,
"विद्वान एजी ने प्रस्तुत किया कि, केंद्र सरकार इसे एक मायोपिक (निकट दृष्टि) तरीके से नहीं देख सकती है। चूंकि केंद्र को राष्ट्रीय सुरक्षा को देखना है, काले धन की अर्थव्यवस्था से छुटकारा पाना है, तो क्या वे विमुद्रीकरण प्रक्रिया शुरू नहीं कर सकते?"
राष्ट्रीय सुरक्षा का विंदु सर्वोपरि है। साथ ही कालाधन भी एक बड़ी समस्या है। पर आज तक सरकार, इस विंदु पर कोई आंकड़ा नहीं दे पाई कि, कितना कालाधन, पकड़ा गया, काला धन, उपजे ही नहीं, इसके लिए क्या किया गया। अदालती बहस से अलग हट कर देखे तो, 2016 के बाद होने वाली राजनैतिक गतिविधियों जैसे ऑपरेशन लोटस आदि में जो अकूत धन, राजनीतिक दल द्वारा बहाया जा रहा है, वह सब काला या बिना हिसाब किताब का ही तो धन है।

इस पर पी चिदंबरम ने जवाब दिया कि, "आरबीआई गवर्नरों ने पहले ही, यह बात स्पष्ट कर दी थी कि, विमुद्रीकरण से उन दो उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।"
आगे चिदंबरम कहते हैं, 
"उन्हें (कालाधन आदि को) कानून की पूरी ताकत से, ऐसा करना होगा। हम एक सफेद कमरे में एक काली बिल्ली की तलाश कर रहे हैं, और क्या वह बिल्ली मौजूद है, यह भी, हम नहीं जानते हैं। माई लॉर्डशिप देख सकते हैं, कि, (सरकार के) निर्णय लेने का आधार मनमाना था या नहीं और रहा सवाल, इस विंदु, काले धन और नकली नोट का तो, वे तो हमेशा बने रहेंगे। विमुद्रीकरण को कभी भी, मौद्रिक नीति का हिस्सा नहीं माना जाता है।"

चिदंबरम ने इस दलील का भी खंडन किया कि "विमुद्रीकरण को संसद द्वारा पारित एक कानून द्वारा मान्य किया गया था।"
उन्होंने कहा कि "केवल आरबीआई अधिनियम के प्रावधानों के अनुपालन में एक कानून पारित किया गया था।"
इस मामले में फैसला कल सुरक्षित रखे जाने की संभावना है। अभी सुनवाई जारी है। 

(विजय शंकर सिंह)

Sunday 4 December 2022

कॉलेजियम सिस्टम और सरकार / विजय शंकर सिंह

सरकार को पता है संविधान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट को असीमित शक्तियां प्राप्त हैं, और यह ताकत ही उन्हे सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आशंकित किए रहती है, शेष सभी संवैधानिक संस्थाओं पर नियन्त्रण, जब तक कब्जे में, सुप्रीम कोर्ट/हाइकोर्ट न आ जाए, का, कोई विशेष अर्थ नहीं है। लगभग सभी महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता को चोट पहुंचाने के बाद, सरकार की नजरे इनायत, न्यायपालिका यानी सुप्रीम कोर्ट की ओर हुई है। 

अब सुप्रीम कोर्ट के वे विशेष अधिकार और शक्तियां, जो उसे संविधान से प्राप्त हैं, तो कम की नहीं जा सकतीं तो, क्योंकि संविधान का मूल ढांचा ही बदलना होगा, जो संभव नहीं है, लेकिन, थोड़ा बहुत नियंत्रण मनमाफिक जजों को नियुक्त कर के, लाया जा सकता है। अतः, अब सरकार जजों की नियुक्ति में अपना पूरा दखल चाहती है, पर वर्तमान सिस्टम उसमे बाधा बना हुआ है। इसीलिए कॉलेजियम की सिफारिश और सरकार के बीच एक रस्साकसी है। 

यह टकराव इसलिए भी है कि, वर्तमान सीजेआई चंद्रचूड़ का कार्यकाल लम्बा है, और जैसी उनकी छवि है, उसे देखते हुए सरकार आशंकित है कि, वह जजों की नियुक्ति में बेजा दबाव नहीं दे पाएगी। इसलिए न्यायपालिका की आजादी के नाम पर, कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ कानून मंत्री कुछ ज्यादा ही मुखर है। कानून मंत्री के बयानों पर, सरकार का अधिकतर मामलों में, पक्ष रखने वाले सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और यहां तक कह दिया कि, कानून मंत्री ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर दिया है। 

लेकिन, क्या न्यायपालिका से आजादी की अपेक्षा रखने वाली सरकार ने, अन्य संवैधानिक संस्थाओं, यहां तक कि संसद तक की गरिमा और स्थिति को, ठेस नहीं पहुंचाई है? जिस तरह से राज्यसभा से किसान बिल पास कराया गया, क्या वह संसदीय प्रणाली के अनुरूप था? यह अलग बात है कि, एक लम्बे और संगठित जन प्रतिरोध के बाद, यह बिल बाद में सरकार द्वारा ही वापस ले लिया गया। अरुण जेटली के वित्तमंत्री काल में तो, एक वित्तीय बिल भी बिना पर्याप्त विचार विमर्श के पारित करा दिया। 

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुख को लगातार मिलता सेवा विस्तार, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन, (सीबीआई) निदेशक, का राफेल मामले पर, रातोरात हुआ तबादला, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, (आरबीआई) की मर्जी के बिना की गई नोटबंदी, निर्वाचन आयुक्त अरूण गोयल की, उनकी ऐच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद की गई, त्वरित नियुक्ति, स्टैंडिंग कमेटी में बिना विचार विमर्श के कुछ महत्वपूर्ण कानूनों को, पारित करा देना, सरकार की  नीयत को स्पष्ट कर देते हैं।

साफ जाहिर होता है कि, सरकार संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता का कोई आदर नहीं करती है और हर हालत में उन्हे सरकार के एक विभाग के रूप के नियंत्रित करना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसी शक्तियां हैं जिससे वह, संवैधानिक संस्थाओं पर, सरकार के अतिक्रमण को विफल कर सकती है।

सरकार इसे जानती है कि, उसके हर कदम की सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और की भी गई है। ऐसी स्थिति में उसे मनमाफिक 'न्याय' चाहिए। इसी कॉलेजियम सिस्टम में जब सरकार को मनमाफिक निर्णय मिलने लगते हैं तो वह फिर जजों की नियुक्ति पर थोड़ा खामोश हो जाती है। और जैसे ही असहज करने वाले फैसले और टिप्पणियां आने लगते है तो वह बजाय, उन फैसलों पर न्यायिक टिप्पणी करने के, कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाने लगती है। 

यह बात बिलकुल सही है कि, कॉलेजियम सिस्टम एक त्रुटिविहीन तंत्र नहीं है। एक बेहतर तंत्र लाया जाना चाहिए। लेकिन, सरकार की यह कवायद और आलोचना बेहतर तंत्र विकसित करने की नीयत से नहीं बल्कि, न्यायपालिका को भी नियंत्रित करने की नीयत से है जो, कानून बदल कर किया जाना संभव नहीं है तो, मनमाफिक आदमी ही बिठा कर, नियंत्रित करने की एक कोशिश है। सरकार की नियंत्रणवादी मनोवृत्ति को देखते हुए, फिलहाल तो, कॉलेजियम ही एक बेहतर तंत्र लगता है।

अब यह जिम्मेदारी, CJI और कॉलेजियम के अन्य जजों की है जो, वे इस व्यवस्था को कैसे तार्किक, पारदर्शी और त्रुटिहीन रखते हैं। फिलहाल तो सरकार का कॉलेजियम सिस्टम के प्रति दृष्टिकोण और विरोध, किसी सदाशय के कारण नहीं, बल्कि, न्यायपालिका पर परोक्ष रूप से नियंत्रण के उद्देश्य से है।

संविधान का अनुच्छेद 142 इस संदर्भ में पढ़ा जाना समीचीन होगा, 

० जब तक किसी अन्य कानून को लागू नहीं किया जाता तब तक सर्वोच्च न्यायालय का आदेश सर्वोपरि होगा।

० अपने न्यायिक निर्णय देते समय न्यायालय ऐसे निर्णय दे सकता है जो इसके समक्ष लंबित पड़े किसी भी मामले को पूर्ण करने के लिये आवश्यक हों और इसके द्वारा दिये गए आदेश संपूर्ण भारत संघ में तब तक लागू होंगे जब तक इससे संबंधित किसी अन्य प्रावधान को लागू नहीं कर दिया जाता है। 

० संसद द्वारा बनाए गए कानून के प्रावधानों के तहत सर्वोच्च न्यायालय को संपूर्ण भारत के लिये ऐसे निर्णय लेने की शक्ति है जो किसी भी व्यक्ति की मौजूदगी, किसी दस्तावेज़ अथवा स्वयं की अवमानना की जाँच और दंड को सुरक्षित करते हैं। 

(विजय शंकर सिंह)

Saturday 3 December 2022

IFFI के ज्यूरी प्रमुख, नादव लैपिड ने, 'द कश्मीर फाइल्स' पर की गई टिप्पणियों को न तो वापस लिया और न ही इस फिल्म को, 'शानदार' बताया है / विजय शंकर सिंह

आल्ट न्यूज के एक लेख के अनुसार, 28 नवंबर को गोवा में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया (IFFI) के समापन समारोह के दौरान, एक इजरायली फिल्म निर्माता, ज्यूरी हेड नादव लैपिड ने फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को एक अश्लील, प्रचार फिल्म के रूप में वर्णित किया था, जिसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई थी। लैपिड की टिप्पणियों ने मीडिया का बहुत ध्यान आकर्षित किया। भारत में इस्राइल के राजदूत नौर गिलोन ने लैपिड को एक खुला पत्र लिखकर कहा कि उन्हें अपनी टिप्पणियों पर शर्म आनी चाहिए। फिल्म के निर्माता विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अगले दिन खुद एक बयान जारी कर कहा कि अगर कोई 'बुद्धिजीवी' यह साबित करने में कामयाब रहा कि फिल्म का कोई दृश्य या संवाद सच नहीं है, तो वह फिल्में बनाना बंद कर देंगे।

जैसा कि अपेक्षित था, विवाद के बाद लैपिड का साक्षात्कार करने के लिए विभिन्न मीडिया हाउस पहुंचे।  उन्होंने इंडिया टुडे, सीएनएन-न्यूज18 और द वायर सहित मीडिया हाउस से बात की।  इन इंटरव्यू के संदर्भ में सोशल मीडिया पर खबरें तैरने लगीं कि लैपिड ने फिल्म के बारे में अपनी टिप्पणी के लिए माफी मांगी है।  एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नादव लैपिड, अपनी टिप्पणियों से पीछे हट गए हैं और उन्होंने 'द कश्मीर फाइल्स' को एक 'शानदार फिल्म' कहा है।

फिल्म में अभिनय करने वाले अनुपम खेर ने लैपिड के कथित उद्धरण की विशेषता वाला एक ग्राफिक ट्वीट किया।  खेर ने लिखा, "आखिरकार सच की हमेशा जीत होती है!"  ग्राफिक हिंदुस्तान टाइम्स की एक समाचार रिपोर्ट पर आधारित है जिसमें दावा किया गया है कि एक साक्षात्कार के दौरान लैपिड ने फिल्म को 'शानदार फिल्म' कहा था। जिन अन्य लोगों ने इसकी रिपोर्ट की है उनमें एडिटरजी, एचटी एंटरटेनमेंट, टाइम्स और आरवीसीजे मीडिया शामिल हैं। फिल्म के निर्माता विवेक रंजन अग्निहोत्री ने एक टैब्लॉइड रिपोर्ट को कोट-ट्वीट किया और लिखा, "दुनिया का सबसे ईमानदार आदमी।"  रिपोर्ट के कैप्शन में कहा गया है कि लैपिड ने अपनी टिप्पणी के लिए माफी मांगी थी।

इसके अतिरिक्त, NDTV ने लगभग इन्ही पंक्तियों के साथ एक ट्वीट किया है, जिसमें लिखा था, "'द कश्मीर फाइल्स' टिप्पणियों पर इजरायली फिल्म निर्माता"... एएनआई डिजीटल ने लिखा, "इजरायली फिल्म निर्माता नदव लापिड ने 'द कश्मीर फाइल्स' पर टिप्पणी के लिए माफी मांगी है।"

ऑल्ट न्यूज ने तथ्यों की जांच की। उनके फैक्ट चेक के अनुसार, 

"जब हमने NDTV और ZoomTv की रिपोर्ट पढ़ी, तो यह स्पष्ट हो गया कि नादव ने फिल्म पर अपनी टिप्पणी के लिए माफी नहीं मांगी है।  उन्होंने कहा कि अगर उनकी टिप्पणी पीड़ितों के परिजनों के लिए अपमानजनक है, तो इसके लिए वह माफी मांगते हैं।  उनके सटीक शब्द थे: "मैं किसी का अपमान नहीं करना चाहता था, और मेरा उद्देश्य कभी भी लोगों या उनके रिश्तेदारों का अपमान करना नहीं था, जो पीड़ित हैं।  मैं पूरी तरह से पूरी तरह से माफी मांगता हूं अगर उनकी व्याख्या इस तरह से की गई हो।"

CNN-News18 के इंटरव्यू पर आधारित News18 द्वारा प्रकाशित एक लेख में भी यही पढ़ा गया।

1 दिसंबर को प्रकाशित लैपिड द्वारा द वायर को दिया गया एक साक्षात्कार इन समाचार रिपोर्टों पर आधारित था।  10:30 मिनट पर इंटरव्यू लेने वाले करण थापर CNN-News18 का इंटरव्यू लेकर आते हैं।  जिस पर नादव ने जवाब दिया, "जैसा कि मैंने कहा था कि अगर उन्हें [रिश्तेदारों और पीड़ितों] को यह सोचने के लिए हेरफेर किया गया था कि मैं उनके प्रियजनों की स्मृति का अनादर करता हूं, या जो भयानक चीजें हुईं, मुझे वास्तव में खेद है।  बाद में, मैंने फिल्म के बारे में जो भी कहा, मैं उसका एक भी शब्द वापस नहीं ले रहा हूं।"

आगे कहा,
"मैंने कहीं पढ़ा है कि मैंने दावा किया है कि फिल्म शानदार है।  मेरा मतलब है कि ऐसा कहने के लिए मुझे पूरी तरह पागल और सिज़ोफ्रेनिक होना चाहिए।  मेरा मतलब है कि मैं पूरी तरह से विश्वास करता हूं और मैं अपने बयान के साथ पूरी तरह से खड़ा हूं।"

ऑल्ट न्यूज़ ने नादव लैपिड का इंडिया टुडे का साक्षात्कार भी देखा, जिसके आधार पर हिंदुस्तान टाइम्स ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें दावा किया गया कि लैपिड ने, 'द कश्मीर फाइल्स' को एक 'शानदार फिल्म' कहा है।  इस साक्षात्कार में किसी भी बिंदु पर लैपिड ने अपना रुख नहीं बदला।  उन्होंने इस इंटरव्यू के दौरान फिल्म को कभी भी 'शानदार फिल्म' नहीं कहा।

वह कहते हैं, ''...मैं इस बात का पूरी तरह से सम्मान और स्वीकार करता हूं कि ऐसे कई लोग हैं जो इस फिल्म को पसंद करते हैं, जो सोचते हैं कि यह एक शानदार फिल्म है।  साथ ही मैं इस तथ्य का सम्मान करता हूं कि ऐसे लोग हैं जो मेरी फिल्मों के बारे में भयानक बातें सोचते हैं।  लेकिन एक फिल्म निर्माता के रूप में मेरी उपलब्धियों के कारण मुझे इस वर्ष ज्यूरी के अध्यक्ष के रूप में गोवा में आमंत्रित किया गया था।  फिल्मों के बारे में मेरी राय, मेरे विचार और ज्यूरी के विचार व्यक्त करने के लिए।  तो, ठीक उतना ही जितना लोगों को फिल्म पसंद है।"

संक्षेप में, भ्रामक समाचार रिपोर्टों और भ्रामक कैप्शन ने यह आभास दिया कि फिल्म निर्माता नदव लापिड ने फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' की अपनी आलोचना के संबंध में अपना रुख बदल लिया है।

ज्यूरी प्रमुख नादव लैपिड के इस बयान एक, ज्यूरी के एक भारतीय के अतिरिक्त, जूरी सदस्यों ने एक बयान जारी कर लैपिड की टिप्पणियों का समर्थन किया है। 3 दिसंबर को, ज्यूरी के साथी सदस्य जिन्को गोटोह ने कश्मीर फाइलों पर लैपिड के रुख के लिए ज्यूरी के सभी विदेशी सदस्यों के समर्थन को व्यक्त करते हुए एक बयान ट्वीट किया है। द वायर के अनुसार, लैपिड ने द वायर से पुष्टि की कि, ट्विटर अकाउंट द्वारा दिया गया बयान प्रामाणिक है और ज्यूरी सदस्यों ने उन्हें उस बयान की एक प्रति ईमेल भी की है। बयान में कहा गया है: “उत्सव के समापन समारोह में, नादव लैपिड  , ज्यूरी अध्यक्ष ने, ज्यूरी सदस्यों की ओर से एक बयान दिया, जिसमें कहा गया था: "हम सभी 15 वीं फिल्म, द कश्मीर फाइल्स से परेशान और हैरान थे, जो हमें एक अश्लील प्रचार फिल्म की तरह महसूस हुई, जो एक कलात्मक प्रतिस्पर्धी के लिए अनुपयुक्त थी।  हम उनके बयान पर कायम हैं।  हम एक कलात्मक निर्णय दे रहे थे, और यह देखकर हमें बहुत दुख होता है कि, फिल्म महोत्सव के मंच को राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और बाद में नादव पर व्यक्तिगत हमले किये जा रहे हैं। 

फ्रांसीसी समाचार पत्र लिबरेशन के दिल्ली संवाददाता सेबस्टियन फ़ार्सिस के अनुसार, फ्रांसीसी फिल्म संपादक पास्कल चावांस ने नादव लैपिड को अपना पूरा समर्थन दिया। उनके अनुसार, "यह इतना स्पष्ट है कि यह एक प्रोपैगेंडा फिल्म है," उन्होंने उसके हवाले से कहा।  "मुस्लिमों को बिना किसी भेदभाव के राक्षसों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।"  स्पेनिश निर्देशक जेवियर एंगुलो बार्टुरन ने भी अपनी सहमति व्यक्त की है और कहा है कि, "मैं पूरी तरह से सहमत हूं कि नादव लैपिड ने अपने भाषण में जी कहा, क्योंकि वह ज्यूरी के भीतर बहुमत की राय थी," 

लिबरेशन ने उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया, "15 वीं फिल्म से हम सभी परेशान और हैरान थे  द कश्मीर फाइल्स.  यह एक प्रोपेगैंडा और वल्गर फिल्म की तरह लगी, जो इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के कलात्मक प्रतिस्पर्धी वर्ग के लिए अनुपयुक्त है।  इस मंच पर आपके साथ इन भावनाओं को खुले तौर पर साझा करने में मुझे पूरी तरह से सहज महसूस हो रहा है।" 
लैपिड ने गोवा में आईएफएफआई के समापन समारोह में कहा था, "इस उत्सव की भावना में, निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण चर्चा को भी स्वीकार किया जा सकता है, जो कला और जीवन के लिए आवश्यक है।" 
लैपिड ने आश्चर्य व्यक्त किया कि "फिल्म को स्क्रीनिंग के लिए चुना गया था।" 
इज़राइली अखबार हारेट्ज़ को दिए एक साक्षात्कार में, उन्होंने कहा कि "उनका मानना ​​है कि फिल्म को "राजनीतिक दबाव" के कारण फिल्म फेस्टिवल की आधिकारिक प्रतियोगिता में भेजा गया,  था।" 

लैपिड को दक्षिणपंथी टिप्पणीकारों, कुछ मुख्यधारा के भारतीय मीडिया आउटलेट और इज़राइल से आलोचना भी मिली है। भारतीय फिल्म निर्माता सुदीप्तो सेन, जो पांच सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म जूरी में एकमात्र भारतीय हैं, जिन्होंने,  लैपिड के बयान से खुद को और अन्य सदस्यों को दूर करने की मांग की, यह कहते हुए कि यह लैपिड का निजी बयान था।"  
सुदीप्तो सेन ने ट्विटर पर लिखा, "53वें आईएफएफआई के समापन समारोह के मंच से आईएफएफआई 2022 जूरी के अध्यक्ष श्री नादव लैपिड द्वारा फिल्म कश्मीर फाइल्स के बारे में जो कुछ भी कहा गया है, वह पूरी तरह से उनकी निजी राय थी।"  
लेकिन, ज्यूरी के अन्य सदस्यों द्वारा अब, सुदीप्तो सेन के इस बयान का खंडन कर दिया गया है। पेरिस से द वायर के लिए करण थापर के साथ 32 मिनट के एक साक्षात्कार में, लैपिड ने कहा था कि "बोलना उनका "कर्तव्य" और "दायित्व" है। "मुझे स्पष्टवादी होने के लिए आमंत्रित किया गया था, घमंड के बारे में बोलने के लिए नहीं,"
यह लेख, आल्ट न्यूज़ और द वायर मे इसी विषय पर छपे दो लेखों मे दिये गए तथ्यों पर आधारित है। 

(विजय शंकर सिंह)

Friday 2 December 2022

उधार के प्रवक्ता / विजय शंकर सिंह

प्रवक्ता के लिए पढ़े लिखे होने के साथ साथ, असली डिग्री भी होनी चाहिए। पहले समाजवादी गौरव भाटिया मिले अब कांग्रेसी शेरगिल। 8 साल में कोई फासिस्ट सोच का प्रवक्ता ही ढूंढ लिए होते तो उधार का प्रवक्ता तो नहीं बटोरना पड़ता। पर फासिज्म, को तो, शिक्षा और बौद्धिक विमर्श से ही घृणा है।

किसी भी फासिस्ट मानसिकता की पार्टी, को तथ्यों के प्रस्तुतिकरण और गंभीर विमर्श के लिए प्रवक्ता नहीं चाहिए। उन्हे चाहिए ट्रोल और गालीबाज जो गालियों में ही पोषक तत्व ढूंढ ले। उन्हे न तो तथ्यों का अनुसंधान करना है और न ही अपनी नीतियों की व्याख्या करनी है। क्योंकि नीतियां हैं ही नहीं और अनीतियों की व्याख्या की नहीं जा सकती है। उन्हे, बस ट्रोल करना है।

यह प्रवक्ता भी आपको गोदी मीडिया पर ही नज़र आयेंगे। ये वैसे किसी यूट्यूब चैनल पर कम ही दिखेंगे। गोदी मीडिया के एंकर वैसे हैं तो पढ़े लिखे, उनकी डिग्री भी फर्जी नहीं है, पर वे करें भी क्या, उनका मालिक बोला लाइट कैमरा एक्शन, वे स्क्रिप्टानुसार बोलने लगे।

फिर चाहे, नोट में चिप हो या न हो, एम्बुलेंस में मरीज हो या न हो, प्रवक्ता/एंकर की जुगुलबंदी दिखती है। कभी कभी टीवी चैनल मैं इसलिए भी देखता हूं कि, गिरावट का फर्श तो दिखे कि ये कहां जाकर टिकते हैं। 
एक शेर याद आ गया, 
तनज्जुल की हद देखना चाहता हूं,
कि शायद वहीं हो तरक्की का जीना।

इसीलिए गौरव भाटिया जैसे, पढ़े लिखे, असली डिग्री वाले प्रवक्ता भी बीजेपी में आकर संबित मॉडल पर चलने लगते है। मुझे हैरानी होती है कि, समाजवाद से फासीवाद की ओर जाने के बाद क्या ये प्रवक्ता अपना दिमाग फैक्ट्री सेटिंग पर कर देते हैं या, तब भी झूठ बोलते थे और अब भी झूठ बोल रहे है।

अब शेरगिल को ही लीजिए। कहां तो गांधीवादी विचारधारा की कांग्रेस का पक्ष रख रहे थे अब वे गांधी विरोधी विचारधारा को जस्टिफाई करेंगे। कल तक मोदी सरकार को तानाशाह बता रहे थे, अब उन्हे लोकतंत्र का प्रहरी साबित करेंगे। वैचारिकी पर आधारित राजनीतिक दल न हुए मार्केटिंग कंपनिया हो गई !

वैचारिक प्रतिबद्धता तो राजनीतिक दल के नेता/प्रवक्ता के लिए अनिवार्य शर्त है। कैसे रातोरात किसी की विचारधारा बदल जाती है? 
धूमिल की कविता मोचीराम की याद आ गई,

जिंदगी जीने के पीछे, 
अगर, सही तर्क नहीं है तो, 
रामनामी दुपट्टा बेच कर, 
या रंडियों की दलाली करके,
जीने में कोई फर्क नहीं है। 

(विजय शंकर सिंह)

ईडी निदेशक, के तीसरे सेवा विस्तार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका / विजय शंकर सिंह

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के वर्तमान निदेशक संजय कुमार मिश्रा को दिए गए कार्यकाल के तीसरे विस्तार को चुनौती देते हुए 1/12/22 को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक नई याचिका दायर की गई है। जया ठाकुर द्वारा दायर इस याचिका में कहा गया है कि मिश्रा को दिया गया तीसरा सेवा विस्तार, शीर्ष अदालत के आदेशों का उल्लंघन है और "हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नष्ट कर रहा है।"

सुप्रीम कोर्ट, पहले से ही संजय कुमार मिश्र को, दिए गए एक्सटेंशन की वैधता को चुनौती देने वाली दलीलों के याचिकाएं सुन रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने सितंबर 2021 के फैसले में मिश्रा को और विस्तार देने के खिलाफ फैसला सुनाया था।

सेवा विस्तार का किस्सा, इस प्रकार है। संजय कुमार मिश्र को पहली बार, नवंबर 2018 में दो साल के कार्यकाल के लिए ईडी निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। दो साल का कार्यकाल नवंबर 2020 में समाप्त हो गया था। मई 2020 में, वह 60 वर्ष की सेवानिवृत्ति की आयु तक पहुंच गए थे।

हालाँकि, 13 नवंबर, 2020 को केंद्र सरकार ने एक कार्यालय आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि, राष्ट्रपति ने 2018 के आदेश को इस आशय से संशोधित किया था कि 'दो साल' की अवधि को 'तीन साल' की अवधि में बदल दिया गया था। इस मामले को, एक एनजीओ कॉमन कॉज ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने संशोधन को मंजूरी देते हुए आगे के विस्तार न करने के निर्देश के साथ सेवा विस्तार के खिलाफ अपना फैसला सुनाया था।

पिछले साल, 2021 में, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, केंद्र सरकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) अधिनियम में संशोधन करते हुए एक अध्यादेश जारी किया, जिसमें खुद को ईडी निदेशक के कार्यकाल को पांच साल तक बढ़ाने का अधिकार दिया गया था। इस अध्यादेश को, सुप्रीम कोर्ट में, चुनौती दी गई और वे याचिकाएं अभी लंबित हैं और उनकी सुनवाई चल रही है। 

इस तरह की और भी याचिकायें हैं, जिनकी सुनवाई के दौरान, केंद्र सरकार ने एक, हलफनामा पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि, (सेवा विस्तार की) याचिकाएं राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं, क्योंकि याचिकाकर्ता उन राजनीतिक दलों से संबंधित हैं जिनके नेता वर्तमान में ईडी के दायरे में हैं। इस प्रकार, सरकार ने सेवा विस्तार के आदेश का बचाव किया, यह कहा कि, "सेवा विस्तार इस लिए किया गया है कि, एक प्रमुख जांच और प्रवर्तन (इंफोर्समेंट) एजेंसी द्वारा जांच किए जाने वाले विशेष जांच कार्य एक सतत प्रक्रिया होते है, और संगठन का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति का कार्यकाल दो से पांच साल का होना चाहिए।"

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल द्वारा पिछले महीने याचिकाओं की सुनवाई से खुद को अलग कर लेने के बाद से यह मामला लंबित है। इसी बीच, इस साल 17 नवंबर को संजय कुमार मिश्रा को एक और साल का और सेवा विस्तार दिया गया था, जिसे जया ठाकुर ने अपनी इस याचिका के माध्यम से चुनौती दी है। जया की दलील में कहा गया है कि, "केंद्र सरकार इस तरह के कदम के जरिए देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने को खत्म कर रही है। भारत संघ इस दलील की शरण नहीं ले सकता है कि महत्वपूर्ण विस्तार लंबित हैं।"
याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि पद के लिए सक्षम अधिकारी जब उपलब्ध हैं, जो इस तरह के सेवा विस्तार के का कोई कारण नहीं है। 

सेवा विस्तार का प्राविधान विशेषकर तकनीकी मामलों और ऐसे कार्यों में लगे हुए अधिकारियों के लिए किया गया है जहां, विकल्प का अभाव हो, और कार्य की प्रकृति ऐसी हो कि, उसे बीच में छोड़ा नहीं जा सकता हो। पर ईडी प्रमुख का पद न तो विकल्पहीन है और न ही उनके द्वारा संपन्न किए जा रहे कार्यों की प्रकृति ऐसी है कि, संजय मिश्र के उक्त पद पर न रहने के कारण, वह कार्य बाधित हो जाएगा। ईडी प्रमुख भारतीय राजस्व सेवा आईआरएस कैडर से आता है और इस पर आईपीएस अधिकारी भी नियुक्त हो सकते हैं। आईआरएस और आईपीएस, दोनों ही एक नियमित कैडर हैं, एक पैनल द्वारा उन कैडर्स से, कोई भी वरिष्ठ अफसर, ईडी प्रमुख के रूप में चुना जा सकता है। आखिर संजय कुमार मिश्र जी भी तो आईआरएस कैडर से ही तो अपनी योग्यता के आधार पर चुने गए हैं। तो क्या यह मान लिया जाय कि, उनके बाद अब पूरा आईआरएस या आईपीएस कैडर ही बंजर हो गया है !

ईडी के राजनीतिक दुरुपयोग की एक आम शिकायत है और अब तो हालत यह हो गई है कि, जैसे ही ईडी किसी विपक्षी नेता के घर छापे मारने जाती है वैसे ही यह धारणा बनने लग जाती है कि, यह छापा राजनीतिक उद्देश्य से अधिक प्रेरित है न कि किसी आर्थिक उद्देश्य से। इसका कारण है, पिछले आठ सालों में पड़ने वाले छापों में 94% छापे विपक्षी दलों के नेताओं पर पड़े हैं। चुनी हुई सरकार गिराने की नीति के रूप में बीजेपी का ऑपरेशन लोटस, के साथ ईडी की सक्रिय सहभागिता के आरोप अक्सर लगते रहते हैं। ऐसे आरोपों से, न केवल किसी भी जांच एजेंसी की साख प्रभावित होती है बल्कि, इससे आर्थिक अपराधी भी अपने बचाव के लिए राजनीतिक गोलबंदी में शामिल होने लगते हैं। 

इस तरह का अप्रत्याशित और जिद भरा सेवा विस्तार, जो ईडी प्रमुख की अपरिहार्यता के नाम पर बार बार दिया जा रहा है, वह उनकी प्रोफेशनल अपरिहार्यता कम, बल्कि उनकी राजनीतिक दलगत निकटता अधिक प्रदर्शित करता है। सरकार का यह कहना कि, जांच प्रक्रिया में, उनके न रहने से बाधा पड़ेगी, यह तर्क गले नहीं उतरता है। या तो ईडी प्रमुख खुद ही किसी ऐसे मिशन पर हों, जिनके न रहने पर उस मिशन को नुकसान पहुंच सकता है, तब तो बात अलग है, अन्यथा उनके पद पर न रहने पर भी ईडी की कार्यप्रणाली पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है।

ईडी का अपना कोई कैडर नहीं है और वहां नियुक्त सभी वरिष्ठ अधिकारी, अन्य सेवाओं के कैडर से लिए जाते हैं। संजय कुमार मिश्र भी जब ईडी में आए होंगे, अपनी योग्यता के ही आधार पर आए होंगे तो क्या अब आईआरएस कैडर में ईडी निदेशक के पद के लिए कोई अन्य योग्य अफसर ही नहीं बचा है, जो इस महत्वपूर्ण पर विवादित हो रही जांच एजेंसी के प्रमुख का पद संभाल सके? एक बात और, इस तरह के जिद भरे सेवा विस्तार का असर, उसी कैडर के वरिष्ठ अफसरों के मनोबल पर भी पड़ता है। 

(विजय शंकर सिंह)

Thursday 1 December 2022

एनडीटीवी का अधिग्रहण और पत्रकारिता का जनपक्ष / विजय शंकर सिंह

एक नज़र, एनडीटीवी के अधिग्रहण पर।
० आरआरपीआर (राधिका रॉय प्रणय रॉय) होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड, जो  एनडीटीवी की प्रमोटर फर्म थी, अपनी इक्विटी पूंजी का 99.5% अदानी समूह को स्थानांतरित करती है।

० इसके बाद, प्रणय रॉय और राधिका रॉय ने, जिसके पास न्यूज चैनल में 29.18% हिस्सेदारी है, आरआरपीआर के निदेशक पद से इस्तीफा दे देते हैं।

० अदानी समूह, 22 नवंबर 2022 से 5 दिसंबर 2022 के बीच, NDTV में 26% हिस्सेदारी के लिए एक खुला ऑफर देता है। बहुसंख्यक शेयर हासिल करने के लिए कॉर्पोरेट को इसमें से सिर्फ 21.82% शेयरों की आवश्यकता है।  

० सोमवार, 29 नवंबर 2022 को, शेयर बाजार बंद होने तक, अडानी ने, 168 लाख शेयरों में से, 53 लाख, यानी 31.78% शेयर की बोलियां, ओपन ऑफर में लगाईं।
यहां एक विरोधाभास है कि, जब, खुदरा शेयरधारकों के लिए ₹294 की खुली पेशकश कीमत आज के बंद बाजार मूल्य ₹446.30 की तुलना में लगभग 34% कम थी, तब ऐसा लगता है कि एनडीटीवी के, शेयरों, खुदरा और कॉर्पोरेट दोनों - का अडानी समूह की ओर, एक नियमित प्रवाह था। 

० इस बीच, रॉय परिवार, जिसके पास एनडीटीवी, में, 32.26% हिस्सेदारी है, उसने, एनडीटीवी के बोर्ड से इस्तीफा नहीं दिया। हालांकि, गौतम अडानी ने, यह बात ऑन रिकार्ड कही थी कि, उन्होंने प्रणय रॉय को, एनडीटीवी प्रमुख के रूप में बने रहने के लिए खुद ही कह दिया है। 
लेकिन, यह सिर्फ यह बताने के लिए कि, एनडीटीवी, NDTV गंभीर वित्तीय संकट में नहीं है। वित्तीय वर्ष, 2022 में, एनडीटीवी ने ₹421 करोड़ का राजस्व दर्ज किया और साथ ही, ₹123 करोड़ का EBITDA, और ₹85 करोड़ का शुद्ध लाभ - नगण्य ऋण के साथ भी कम्पनी को हुआ। 

कॉर्पोरेट के क्षेत्र में, इस प्रकार के अधिग्रहण को, शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण (Hostile takeover) कहा जाता है। एनडीटीवी ने कर्ज लिया था और कर्ज के एवज में, उसने शेयर देने का वादा भी किया था, और एक ईमानदार कर्जदार के नाते प्रणव रॉय को, कर्ज समय पर चुकाना भी चाहिए था। आखिर यह कोई सरकारी बैंक द्वारा लिया गया कर्ज तो था नहीं, जिसे एक मेहरबान सरकार, एनपीए की आड़ में माफ कर देती !अतीत में लिए, इस एक कर्ज के परिणामस्वरूप, एनडीटीवी को, इस अधिग्रहण का, यह अवर्णनीय विस्फोट झेलना पड़ा। यह सब पूंजीवाद की अनिवार्य विसंगतियां है जिसे प्रोफेशनल हेजार्ड यानी पेशेवराना खतरे कहा जा सकता है। एनडीटीवी को दिए गए, एक ऋण के एवज में, जिसे अडानी ने चुपके से, उन शेयर के साथ, जो निवेशक ने, ऋण चुकाने के बदले में रखे थे, को अधिग्रहित कर लिया। यहां पर रॉय परिवार को, हम अपना किला बचाने के अंतिम जद्दोजहद करते हुए देख सकते हैं। 

अडानी समूह ने जिस सफाई और व्यापारिक चालाकी से ऑपरेशन एनडीटीवी को अंजाम दिया, उसकी प्रशंसा भी लोग करेंगे। एक क्रोनी कैपिटलिस्ट, जो खुद, एक विनाशकारी कर्जे में डूबा हुआ है, वह अपने कर्ज की वसूली के लिए, एक कंपनी का शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण, सिर्फ इसलिए कर लेता है, ताकि, कुछ हद तक, एक विरोधी दृष्टिकोण वाले मीडिया हाउस को मैनेज किया जा सके ! लेकिन यह सब किसके इशारे पर हो रहा है और, सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी पत्रकारिता से, असहज कौन हो रहा है, यह बात, छिपी ढंकी नहीं है, बल्कि अयां है। अडानी समूह को कर्ज देने वाले सरकारी बैंक, यदि आज इसी पैटर्न और मॉडल पर अपनी कर्ज वापसी के लिए सक्रिय हो जाएं तो, यह समूह भी पुनर्मूशिको भव हो जायेगा। लेकिन, फिलहाल ऐसा होगा नहीं। 

एनडीटीवी का अधिग्रहण एक सामान्य कॉर्पोरेट अधिग्रहण नहीं है और न ही यह अडानी समूह का मीडिया में प्रवेश करने का कोई इरादा या मिशन। बड़े कॉर्पोरेट संस्थान, अखबारों और टीवी चैनलों में रुचि रखते रहे हैं पर, उसका कारण उस अखबार या चैनल से, उनका लक्ष्य, मुनाफा कमाना उतना नहीं रहा है, जितना कि एक दबाव ग्रुप और पीआर हब का निर्माण करना रहा है। दबाव ग्रुप का लाभ, अन्य व्यावसायिक सौदों में लेना कॉर्पोरेट संस्थानों की एक सामान्य फितरत है। यह फितरत, कॉर्पोरेट की कार्यशैली का एक स्थापित अंग है। एनडीटीवी का अधिग्रहण एक ऐसे कॉर्पोरेट द्वारा किया गया है, जो पत्रकारिता और मीडिया हाउस के बिजनेस में, लगभग अनुभवहीन है। आगे, चाहे जो हो, पर,  एनडीटीवी का यह अधिग्रण, एक उदार समझे जाने वाले, टीवी चैनल के अवसान के रूप में भी, देखा जा सकता है। 

आज, ₹2000 में चिप, स्वर्ग की सीढ़ी, प्रधानमंत्री का अनवरत दुंदुभिवादन,, जनता के जीवन से जुड़े असल मुद्दों पर शर्मनाक चुप्पी, सरकार को कठघरे में खड़ा करने के बजाय, उसके चौखट पर ही साष्टांग लेट जाने वाली 'छद्म' पत्रकारिता के इस स्याह काल में, एनडीटीवी का स्टैंड, तमाम व्यवसायगत मजबूरियों के बावजूद, एक उदार और प्रतिरोधी पत्रकारिता का रहा है। व्यवसाय के अनेक अनिवार्य और मजबूरी भरे समझौतों के बीच भी, इस चैनल ने, जनता की आवाज को समय समय पर उठाया है और सरकार को, जब अन्य टीवी चैनल 'धन्य धन्य साधु साधु' के प्रशस्ति गायन से, मोह तंद्रा में, आनंदित कर रहे थे, तो, कुछ तो खलल, उनके ख्वाबगाह में, पहुंचाया ही है। सरकार को इस चैनल और विशेषकर एनडीटीवी के, प्राइम टाइम जैसे कुछ अन्य, कार्यक्रमों ने, अकसर असहज किया है और, ऐसी चर्चा है कि, उसी आंख की किरकिरी को, दूर करने के लिए, एक चहेते कॉर्पोरेट को, आगे किया गया और यह शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण का जाल बुना गया। 

मीडिया के इतिहास में, बहुत से नए टीवी चैनल शुरू हुए होंगे और बहुतों, का अधिग्रहण भी हुआ होगा। पत्रकार भी बहुत से चैनल छोड़ कर अलग हुए होंगे और यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। पर एनडीटीवी के अधिग्रहण और रवीश कुमार के इस्तीफे पर, स्वतंत्र और जनोन्मुख पत्रकारिता के पक्ष में, जिस प्रकार की स्वयंस्फूर्त प्रतिक्रिया सामने आई है या, आ रही है, वह इस बात का सुखद संकेत है कि, उदारता और जनवादी संस्कृति को नष्ट कर देने के, इस फासीवादी उद्यम के बावजूद, अभी बहुत कुछ शेष बचा है। सबसे बड़ी बात एक जिजीविषा बची है। ख्वाब देखने और बुनने की आदत बची है। कवि, नीरज की एक पंक्ति याद आ रही है, "कुछ सपनो के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।"

मीडिया या पत्रकारिता में, जनता अपना स्वर ढूंढती है। वह चाहती है कि, उसकी मुसीबतों, समस्याओं, और उसकी बात सुनी और सुनाई जाय, पढ़ी और पढ़ाई जाय। सरकार तक उसकी गुहार पहुंचाई जाय। पर जब मीडिया अपने इस दायित्व से विमुख होने लगती है और पत्रकारिता, जनता के बजाय सरकार की बात, कहने सुनने लग जाती है तो, उस तिमिर में भी यदि, जनता को कहीं से, रोशनी की एक किरण फूटती हुई नजर आती है तो, वह उसे आश्वस्त करती है, साहस देती है, और हिम्मत बंधाती है। तमाम टीवी चैनलों के बीच एनडीटीवी की आवाज अकसर, ऐसी ही आश्वस्त करने वाली रही है। 

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि, देश में जनपक्षधर पत्रकारों की कमी है। छोटे छोटे अखबारों से लेकर, स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए यूट्यूबर तक, अनेक प्रख्यात, ज्ञात, अज्ञात और अल्पज्ञात पत्रकार, जनता की बात सामने रख रहे हैं। सरकार इनसे भी असहज हो रही है और अब भी वह कोई न कोई ऐसा दांव सोच रही है, जिससे यह जुबाबंदी की जा सके। पर यह फिलहाल न तो संभव है और न ही, मुझे, उम्मीद है कि, भविष्य में ऐसा होगा। अंत में फैज अहमद फैज की अमर नज़्म की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं।

"बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले
बोल कि लब आजाद हैं मेरे !!" 

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday 30 November 2022

किशन पटनायक / प्रोफेसर से तमाशगीर

प्रणय रॉय पर किशन पटनायक ने यह लेख 1994 में लिखा था। प्रणय रॉय के नियंत्रण से एनडीटीवी के बाहर होने के बाद, किशन जी के इस लेख को पढ़ना रोचक होगा। इस लेख की पृष्ठभूमि उस दौर की है, जब प्रणय रॉय देश के नए मीडिया के प्रारंभिक सूत्रधार के रूप में उभर रहे थे।
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प्रोफेसर से तमाशगीर
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काश के अंग्रेजी न जानने वाले लोग प्रणय राय को नहीं जानते होंगे। लेकिन प्रणय राय को जानना जरूरी है क्योंकि वह एक नयी सामाजिक घटना का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रणय राय की प्रसिद्धि शुक्रवार को दूरदर्शन पर चलने वाले साप्ताहिक विश्वदर्शन कार्यक्रम से बनी है। जिस अंदाज से कोई जादूगर तमाशा (शो) दिखाता है, उसी अंदाज से टीवी दर्शकों का ध्यान केंद्रित करके दूरदर्शन द्वारा चुने हुए समाचारों या वक्तव्यों के प्रति श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करके रखना दूरदर्शन की एक खास विधा बन गयी है। प्रीतीश नंदी का शो, प्रणय राय का साप्ताहिक विश्वदर्शन (द वर्ल्ड दिस वीक) आदि इस विधा के श्रेष्ठ प्रदर्शन हैं।

देश के बुद्धिजीवियों में ऐसे लोग शायद बिरले ही होंगे, जो अत्यंत बुद्धिशाली होने के साथ-साथ बीच बाजार में तमाशा भी कर सकें। ऐसे बिरले प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों की तलाश टेलीविजन व्यवसायियों को रहती है। उनके माध्यम से टेलीविजन के प्रदर्शन-व्यवसाय को कुछ बौद्धिक प्रतिष्ठा मिल जाती है, जिससे बहुत-से भद्दे और अश्लील कार्यक्रमों को चलाना सम्मानजनक भी हो जाता है।

जब शुक्रवार के विश्वदर्शन कार्यक्रम के चलते प्रणय राय टीवी के दर्शकों के प्रिय हो गये, तब उनको सरकार की आर्थिक नीतियों के बारे में सूचना देने का कार्यक्रम दिया गया। पिछले साल के बजट से नयी अर्थनीति का यह दूरदर्शन-प्रयोग शुरू हुआ, और इस साल उसकी अवधि और उस पर पैसा काफी बढ़ा दिया गया है (संभवतः एक विदेशी कंपनी इसके लिए पैसा दे रही है)। फरवरी, 1994 की 28 तारीख की शाम को वित्तमंत्री ने जो बजट भाषण संसद में दिया, उसका सीधा प्रसारण किया गया। भाषा की जटिलता के कारण बहुत कम लोग बजट की बातों को समझ पाते हैं, ज्यादातर लोग इंतजार करते हैं कि कोई उस बजट की व्याख्या करके उन्हें सुनाये। जो लोग अंग्रेजी जानते हैं और बजट को समझकर दूसरों को भी समझाना चाहते हैं, ऐसे मत-निर्माता समूह (ओपीनियन मेकर्स) – व्यापारी, प्राध्यापक, लेखक, पत्रकार, राजनैतिक नेता आदि बजट की व्याख्या तत्काल सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं। ये लोग लगभग दो लाख होंगे जो करीब 50 लाख या शायद एक करोड़ पढ़े-लिखे लोगों तक अपनी बात पहुंचाते हैं। ये सारे लोग 28 फरवरी की शाम सात बजे से रात दस बजे तक अपने-अपने घरों में टेलीविजन देख रहे थे। इस बार की बजट व्याख्या दो किस्तों में करीब डेढ़ घंटे चली और एक घंटा तो खुद वित्तमंत्री मनमोहन सिंह प्रणय राय के पास बैठे रहे और सवालों के जवाब देते रहे। सवाल सचित्र आ रहे थे – लंदन, हांगकांग और न्यूयॉर्क से; मुंबई, कलकत्ता और बेंगलूर से। अनुमान है कि प्रणय राय को इस ‘शो’ के लिए करीब दस लाख रुपये मिले होंगे।

प्रणय राय दूरदर्शन की सेवा शुरू करने से पहले दिल्ली में अर्थशास्त्र की एक प्रसिद्ध अध्ययन और अनुसंधानशाला में प्रोफेसर थे (दिल्ली में प्रोफेसरों को बहुत अच्छी तनख्वाह मिलती है)। वे न सिर्फ एक अच्छे विद्वान थे, बल्कि प्रगतिशील धारा से भी उनका घनिष्ठ संबंध था तथा उनके निबंधों में प्रगतिशीलता का रुझान स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता था। अध्ययन, अनुशीलन और अनुसंधान के कार्यक्षेत्र को छोड़कर प्रणय राय दूरदर्शन के कार्यक्रम के निर्माता बन गये। एक सामाजिक घटना के तौर पर इसका महत्व इस बात में है कि तीक्ष्ण बुद्धि के एक प्रगतिशील बुद्धिजीवी को अपना मध्यवर्गीय जीवन-स्तर काफी ऊंचा होते हुए भी अध्ययन और अनुसंधान के कार्यकलाप को छोड़ देने में कोई झिझक नहीं हुई और काफी नाम तथा धन कमाने के लिए (यानी एक प्रचलित जायज उद्देश्य के लिए) वह खुशी-खुशी दूरदर्शन का एक तमाशगीर (यह एक मराठी शब्द है, जिसे ‘शो मैन’ के लिए हम व्यवहार कर रहे हैं) बन गया।

28 फरवरी को यह बजट-दर्शन बहुत ही कुशलतापूर्वक दिखाया गया। एक मशहूर व्यापार-पत्रिका के संपादक को पास बैठाकर उसे बजट पर बातचीत के द्वारा प्रणय राय ने बजट की मुख्य बातें बता दीं। जाहिर था कि इस शुरुआती बातचीत का उद्देश्य बजट संबंधी चर्चा के मुख्य बिंदुओं को तय करना था और ये बिंदु उदारीकरण के मानदंड से चिन्हित किये गये थे। जिन चार-पांच मुख्य बातों को प्रणय राय ने रेखांकित किया, बाद के पूरे बजट-कार्यक्रम में सिर्फ उनकी पुष्टि की जा रही थी। बजट में अत्यधिक घाटे, सीमा-शुल्क में भारी रियायत, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की समय से पहले अदायगी आदि इसकी मुख्य बातें थीं। सारी बातचीत इन्हीं तीन-चार मुद्दों पर केंद्रित रही। जब देश के महानगरीय व्यवसायियों की बारी आयी तो उन्होंने भी इन्हीं बातों को कुछ नम्रता पूर्वक रखा। मुंबई के शेयर बाजार से खबर आयी कि भाव गिर रहा है। मगर क्यों? इसलिए कि व्यापारियों ने ‘इससे भी बढ़िया’ बजट की उम्मीद कर रखी थी। लेकिन कोई खास परेशानी की बात नहीं। कुल मिलाकर बजट ‘सही दिशा’ में चल रहा है। शेयर बाजार कुछ दिनों में फिर अपनी रफ्तार में आ जाएगा। वित्तमंत्री ने एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा भी कि ‘रातोंरात सब कुछ’ नहीं हो जाएगा।

जब बजट-कार्यक्रम का सारा समय अंतर्राष्ट्रीय और महानगरीय व्यापारियों से बातचीत में चला गया, तब प्रणय राय को (या दूरदर्शन को) याद आया कि कुछ साधारण आदमियों से यानी किसान, महिला, युवा और उपभोक्ता नागरिक से भी बजट संबंधी बातचीत दिखायी जाए, नहीं तो बजट-कार्यक्रम शायद अधूरा रह जाएगा।

शुरू में देश के महानगरों के व्यवसायी-संगठनों आदि की प्रतिक्रिया बतायी गयी। लेकिन बाद में जब वित्तमंत्री आ गये, तो उनसे बातचीत करने और सवाल पूछने के लिए हमारे दूरदर्शन का द्वार विश्व के लिए खुल गया और बजट का ग्लोबीकरण हो गया। लंदन, वाशिंगटन और हांगकांग में बैठे हुए विदेशी व्यापारियों ने सीमा-शुल्क घटाने के वायदे को पूरा करने के लिए धन्यवाद देते हुए मनमोहन सिंह के मुंह पर यह पूछा कि इतना घाटा क्यों रखा गया है? बरकरार राजकीय अनुदानों को खत्म क्यों नहीं किया गया? घाटे के परिणामस्वरूप मूल्य आदि की अस्थिरता के कारण क्या विदेशी व्यापारियों का उत्साह कम नहीं हो जाएगा? सारी दुनिया के सामने उन विदेशी व्यापारियों द्वारा भारत सरकार के बजट पर भारत सरकार के वित्तमंत्री से इस तरह के सवाल पूछने का इसके सिवा क्या अर्थ क्या है कि हमारे बजट को धनी देशों के व्यापारियों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह होना चाहिए। यह उदारीकरण के मानदंड से बजट की समीक्षा थी। एक किसान को दिखाया गया, जो बुजुर्ग था और विलायती ढंग से सूत पहने हुए था। उसके अंग्रेजी बोलने में व्याकरण की कोई गलती नहीं थी और उसका अंग्रेजी उच्चारण भी बढ़िया था। यह दूरदर्शन पर नयी आर्थिक नीति के किसान की छवि थी। उसने सिर्फ एक सवाल पूछा और मनमोहन सिंह के जवाब के बाद वह शांत हो गया।

जब कार्यक्रम समाप्त होने में बस एक-दो मिनट बाकी रह गया था, तब जल्दी में बेंगलूर महानगर के किसी दफ्तर में कुछ लोगों को दिखाया गया (कुछ साधारण आदमियों और उपभोक्ताओं को दिखाना था)। एक बेरोजगार युवक की हैसियत से जिससे बेरोजगारी के संबंध में सवाल पूछना था, उसने बेरोजगारी का नाम तो लिया मगर सवाल यह पूछा कि घाटे के बजट को देखकर पूंजी-निवेश करने वाले हतोत्साहित होंगे तो रोजगार कैसे बढ़ेगा। बिलकुल अंत में एक-दो सेकंडों में एक महिला ने उपभोक्ताओं से संबंधित एक सवाल रखा और वित्तमंत्री का जवाब पाकर संतुष्ट हो गयी। उसे महिला और उपभोक्ता दोनों की भूमिकाओं में दिखाकर प्रणय राय ने सोचा होगा कि पूरे समाज को उन्होंने बजट से जोड़ दिया और देश के सभी वर्गों की प्रतिक्रिया भी आ गयी।

जिस तरह इंडिया टुडे का संपादक कुछ महानगरों के विद्यार्थियों से बातचीत का हवाला देकर देश की युवा पीढ़ी के बारे में एक खास तरह का निष्कर्ष और एक खास तरह की छवि प्रचारित करने की कोशिश करता है, ठीक उसी तरह की कोशिश दूरदर्शन पर प्रणय राय कर रहे हैं। सर्वप्रथम हांगकांग और अमरीका के व्यापारी, दूसरे क्रम में मुंबई और कलकत्ता के व्यापारिक संघ और शेयर बाजार, तीसरे क्रम में सूट-बूट पहने हुए भूस्वामी और चौथे क्रम में कुछ हद तक महानगरीय खाते-पीते मध्यम वर्ग के लोग। बाकी सभी लोग और समूह बजट के लिए बिलकुल अप्रासंगिक क्यों हो गये हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें मिल सकता है, यदि हम प्रणय राय को एक नये किस्म के बुद्धिजीवी वर्ग के उभार के प्रतिनिधि के रूप में देखें, जिसका जनता से लगाव खत्म हो चुका है।

यहां हम प्रणय राय को एक व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक घटना के रूप में देखने की कोशिश करें, क्योंकि प्रणय राय की वर्तमान भूमिका कोई अकेली दुर्घटना नहीं है। इसकी व्याप्ति काफी बढ़ गयी है। एक मध्यवर्गीय प्रतिभा-संपन्न बुद्धिजीवी, जिसका अपनी युवावस्था में प्रगतिशीलता की तरफ झुकाव हो जाता है, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित शिक्षा-केंद्र में प्राध्यापक था। उसे तनख्वाह के रूप में अच्छी रकम मिलती थी, जिससे वह आर्थिक रूप से सुरक्षित था। अपने प्रगतिशील रुझान के कारण वह जनसाधारण से जुड़ाव महसूस करता था। चार-पांच साल पहले टेलीविजन के माध्यम से एक नयी विज्ञापनी संस्कृति का अनुप्रवेश होता है। देश की अर्थनीति में ऐसे परिवर्तन तेजी से होने लगते हैं कि वह मध्यवर्गीय उच्च-शिक्षित, मेधावी, प्रगतिशील रुझान वाला युवा बुद्धिजीवी अब मध्यवर्गीय न रहकर साल में पच्चीस-तीस लाख की कमाई कर सकता है। टेलीविजन और नयी अर्थनीति का संयोग उसके लिए अपने को विज्ञापित करने और साथ ही प्रचुर धन हासिल करने का आकर्षण पैदा कर देता है। वह इसकी गिरफ्त में आ जाता है और उस पर धन की हविस तथा आधुनिक मीडिया की चकाचौंध हावी हो जाती है। उसका सामाजिक लगाव छूट जाता है। भारत के करोड़ों साधारण जन उसके लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां उसको काफी धन देकर उसकी मेधा का इस्तेमाल करने के लिए होड़ लगाती हैं। इस बात की होशियारी बरती जाती है कि उसे पता न चले कि वह एक बिकाऊ माल है। इसलिए उसे ऐसे ही काम में लगाया जाता है, जिसमें उसे यही आभास हो कि चमत्कारी ढंग से एक बौद्धिक कार्य में लगा हुआ है। वह स्वयं को खुशी-खुशी बेच सके, इसके लिए यह जरूरी है कि उसके काम की एक बौद्धिक छवि हो तथा वह स्वयं के बारे में यह धारणा बना सके कि देश आगे बढ़ रहा है। प्रणय राय के इस तरीके देश को आगे बढाने के लिए यह जरूरी है कि करोड़ों साधारण जनों को अप्रासंगिक मानकर देश के बारे में सोचा जाए।

नयी आर्थिक नीति तथा आधुनिक संचार माध्यमों के संयोग से एक नये बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हो रहा है। इस वर्ग के पहले उभार में वे महानगरीय बुद्धिजीवी हैं, जो अपने को विज्ञापन का हिस्सा बनाने के लिए और करोड़ों साधारण जनों को अप्रासंगिक मानने के लिए तैयार हो गये हैं।

(किशन पटनायक)

किशन पटनायक, प्रखर समाजवादी चिन्तक, लेखक एवं राजनेता थे। उन्होंने समाजवादी जन-परिषद की नींव रखी और सामयिक वार्ता नाम की एक पत्रिका शुरू की। उनकी तीन किताबें छपी हैं : किसान आंदोलन–दशा और दिशा, भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि और विकल्पहीन नहीं है दुनिया। इन तीनों किताबों का कॉपीराइट फ्री है और गूगल लाइब्रेरी में ये उपलब्‍ध हैं।

(विजय शंकर सिंह)