Thursday 27 February 2020

दिल्ली हिंसा पर पुलिस की निर्णय अकर्मण्यता / विजय शंकर सिंह

आज़ादी के बाद 1984 के दंगों को छोड़ दें तो दिल्ली में दंगों का इतिहास नहीं रहा है। उस दंगे में भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठा था, और आज जब दिल्ली हिंसा पर बात हो रही है तो कठघरे में पुलिस ही है। इस दंगे में पुलिस अपना प्रोफेशनल दायित्व निभाने में असफल रही औऱ कई ऐसे अवसर पर जब उसे मज़बूती से कानून को लागू करना चाहिए था तो वह निर्णय विकलांगता की स्थिति में दिखी। दिल्ली में जब 23 फरवरी छिटपुट हिंसा होंने लगी तो जो स्वाभाविक प्रतिक्रिया किसी भी पुलिस बल की होती है वह भी करने में दिल्ली पुलिस असफल रही। आज सबसे अधिक सवाल दिल्ली पुलिस की भूमिका पर ही उठ रहे हैं। 

पुलिस के गैरपेशेवरना रवैये पर टिप्पणी करते हुये धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित, नेशनल पुलिस कमीशन ने भी 1979 में कहा है कि, 
" पुलिस की वर्तमान स्थिति उसी विरासत की देन है, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से पुलिस को मिली है। वह राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने का एक औज़ार बन कर रह गई है। " 
चालीस साल पहले की गयी, पुलिस कमीशन की यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इसी को देखते हुए पुलिस कमीशन ने पुलिस सुधार के लिये कई सिफारिशें की हैं जो अभी तक लंबित हैं या कुछ राज्यों द्वारा आधी अधूरे तरह से लागू की गई हैं। 

दिल्ली हिंसा आकस्मिक नही है और न ही इसका तात्कालिक कारण धर्म से जुड़ी कोई इमारत मंदिर या मस्ज़िद है। न तो यह मुहर्रम या दशहरे से जुड़े किसी उन्मादी जुलूस के बीच आपसी टकराव का नतीजा है और न ही होली, बकरीद से जुड़ी किसी घटना से। नए नागरिकता कानून के विरोध स्वरूप देश भर में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं दिल्ली में भी ऐसे ही एक धरना और सड़क जाम के दौरान भाजपा नेता कपिल मिश्र वहां पहुंचते हैं और कहते हैं कि ट्रम्प के जाने तक वे चुप रहेंगे फिर निपटेंगे। यह नेता पहले भी दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान भी आपत्तिजनक साम्प्रदायिक भाषण दे चुके हैं। फिर उसके बाद हिंसा भड़क उठी। आज तक यह उन्माद थमा नहीं है। 

दिल्ली पुलिस देश की सबसे साधन संपन्न पुलिस मानी जाती है। लेकिन इस दंगे में यह कई जगह किंकर्तव्यविमूढ़ सी दिखी। जब कुछ नेताओं द्वारा अनर्गल बयानबाजी की जा रही थी, और उससे शहर का माहौल बिगड़ रहा था, जब हिंसा हो रही थी, तब भी जितनी तेज और स्वाभाविक पुलिस का रिस्पॉन्स होना चाहिए था, जब कर्फ्यू लगा कर शांति स्थापित करने की सबसे अधिक, ज़रूरत थी तब पुलिस का रवैया बिल्कुल अनप्रोफेशनल था। साफ जाहिर हो रहा है कि पुलिस किसी ऊपरी आदेश की प्रतीक्षा में है, और वह यह निर्णय ले ही नहीं पा रही है कि कब क्या किया जाय। दिल्ली पुलिस की यह बदहवासी बढ़ती हिंसक घटनाओं के बावजूद नहीं दिखी। साथ ही, पिछले तीन चार महीने में जो पुलिस का रिस्पॉन्स जेएनयू, जामिया यूनिवर्सिटी, शाहीनबाग आदि के बारे में दिखा निराश करता है। 

पुलिस की ऐसी अनप्रोफेशनल स्थिति हुयी कैसी इसका सबसे बड़ा कारण है, पुलिस के दिनप्रतिदिन के कार्यो में राजनीतिक हस्तक्षेप। इस दखलंदाजी से मुक्त करने के लिए बीएसएफ और यूपी के पूर्व डीजीपी,  प्रकाश सिंह ने पुलिस सुधार पर राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिये सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष  2006 में पुलिस सुधार पर जनहित में कार्यवाही करने के लिये राज्य सरकारों को कुछ दिशानिर्देश ज़ारी किये। अदालत और आयोग की मुख्य चिंता पुलिस को बाहरी दबाओं से दूर रखने की थी। उन्हें यह पता है कि न तो कानून अक्षम है और न ही अधिकारी निकम्मे हैं, लेकिन 1861 से चली आ रही औपनिवेशिक मानसिकता कि कानून से अधिक सरकार चलाने वाला महत्वपूर्ण है, पुलिस का प्राइम मूवर बना हुआ है। इसीलिए, अदालत ने  बाहरी दबावों से पुलिस को बचाने के लिए, एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश के रूप में राज्य सुरक्षा आयोग के गठन का निर्देश दिया। कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अंतर्गत उसके  अनुपालन में कानून बनाए हैं, लेकिन वे कानून और गठित राज्य सुरक्षा आयोग सुप्रीम कोर्ट के उन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करते हैं, जिनके बारे में सोच कर सुप्रीम कोर्ट ने दिशा निर्देश जारी किये थे। मतलब स्पष्ट था कि सरकार कोई भी हो वह अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुसार, पुलिस पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहती है। 

सभी दंगो की समीक्षा होती है। चाहे वह न्यायिक जांच के रूप में हो या प्रशासनिक जांच या कोई और अन्य जांच एजेंसी इसकी जांच करे। हर जांच में सबसे अधिक निशाने पर पुलिस की भूमिका ही होती है। दंगा भड़काने और फैलाने वालों की जो भी भूमिका और षडयंत्र हो, उनके खिलाफ कार्यवाही करने, उन्हें नियंत्रित करने और शांति स्थापित कर कानून व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस बल की ही है। 1984 के सिक्ख विरोधी दंगे में पुलिस की भूमिका पर अपनी टिप्पणी करते हुये जस्टिस ढींगरा कमेटी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि, " हत्या, दंगा, लूटपाट, आगजनी के बड़ी संख्या में दर्ज अपराधों के लिए जो कारण बताए गये हैं वे एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं तथा असंबद्ध हैं। इन दर्ज मामलों की जांच और निपटारा, कानून के अनुसार करने या दोषियों को दंडित करने के इरादे से उठाये गए कदम, तार्किक नहीं हैं। "

दंगे किसी सामूहिक अपराध की तरह नहीं होते और आईपीसी के अंतर्गत दर्ज अपराधों के अनुसार वे गंभीर हों, यह भी ज़रूरी नहीं। जैसे मारपीट, आगजनी, संपत्ति का नुकसान आदि धारायें हत्या या हत्या के प्रयास आदि गम्भीर धाराओं की तुलना में हल्के अपराध हैं। लेकिन जब एक समूह के रूप में उन्मादित भीड़ योजनाबद्ध तरीके से यह सब अपराध करते चली जाती है तो, यही सारे अपराध जो असर भुक्तभोगियों और समाज पर डालते हैं, वे लंबे समय तक उनके मनोमस्तिष्क पर बने रहते हैं जिनका परिणाम बहुत घातक होता है।  यह दुखद है कि 1984 के दंगो से जो सबक सीखे जाने चाहिए थी, वह इस दंगे के समय भी नहीं सीखे जा सकते। 1984 का दंगा भी पुलिस की किंकर्तव्यविमूढ़ता का एक दस्तावेज था और यह भी उसका एक लघुरूप ही लगता है। तभी हाईकोर्ट के जज जस्टिस मुरलीधर ने कहा कि वे दिल्ली को 1984 नहीं बनने देंगे। जब वे यह कह रहे थे तो उनका आशय राजनेता, पुलिस दुरभिसंधि जन्य पुलिस कार्यवाही ही थी। कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली ही नहीं, अन्य राज्यों में भी इधर हाल के आंदोलनों में पुलिस की जो भूमिका रही, वह औपनिवेशिक काल के समान रही है, न कि एक लोककल्याणकारी राज्य की पुलिस सेवा की तरह। 

चाहे दंगे हों या सामान्य अपराध या आंदोलनों से निपटने के अवसर, हर परिस्थितियों और आकस्मिकताओं के लिये कानून बने हैं। पुलिस को उन कानूनों को लागू करने के लिये उन्ही कानूनों में अधिकार और शक्तियां भी दी गयीं है। बस ज़रूरी यह है कि कानून को कानूनी तरीके से ही लागू किया जाय और पुलिस बल एक अनुशासित, प्रशिक्षित और दक्ष कानून लागू करने वाली एजेंसी की तरह काम करे न कि राजनैतिक आक़ाओं की एजेंडा पूर्ति करने वाले एक गिरोह में बदल जाय। 

© विजय शंकर सिंह

Tuesday 25 February 2020

क्या गृहमंत्री को अपने पद से नहीं हट जाना चाहिए ? / विजय शंकर सिंह

अमित शाह को देश के गृहमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। लेकिन एनडीए में इस्तीफे होते नहीं हैं तो प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह उनका विभाग बदल दें। वे बहुत योग्य और चाणक्य - सम हैं तो उन्हें वित्त मंत्रालय दे दें। वित्त एक ऐसा विभाग है जिसे इस समय सरकार का सर्वाधिक ध्यानाकर्षण अपेक्षित है। हो सकता है वे वहां कुछ अच्छा कर जांय। जब से वे गृहमंत्री के पद पर आसीन हैं, कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं न कहीं बवाल बना हुआ है। दिल्ली पुलिस तो सीधे उन्हीं के अधीन है। अब तो कश्मीर भी केंद्र शासित होने के कारण उनके आधीन है। नार्थ ईस्ट में एनसीआर पर उबाल है ही। चुनाव प्रचार के दौरान उनके भाषण भी असन्तुलित और उन्माद फैलाने वाले हुये हैं। हालांकि उन्होंने खुद यह स्वीकार किया है कि घृणास्पद बयानों से उनकी पार्टी को नुक़सान पहुंचा है। गृह मंत्रालय एक सुलझे और पुलिस के दिनप्रतिदिन के कार्यो में अधिक दखल न देने वाले स्वभाव के व्यक्ति के पास रहना चाहिए।

एक भ्रम लोगों में है कि पुलिस सरकार के आधीन होती है। लेकिन यह सत्य नहीं है। पुलिस सरकार के आधीन होते हुये भी सरकार के आधीन नहीं है। वह उन नियम कायदे और कानूनों के अधीन होती है, जिसे लागू करने के लिये पुलिस की व्यवस्था की गयी है। यह मुग़ालता राजनीतिक दलों के छुटभैये नेताओं में अधिक होता है और वे इसी मुगालते के शिकार हो, थाने को अपना चारागाह समझ बैठते हैं। जब कोई नियम कायदे का पाबन्द अधिकारी मिल जाता है तो उन्हें अपनी औकात का पता भी चल जाता है। अनावश्यक दखल और बेवजह  की ज़िद से सबसे अधिक नुकसान सरकार का ही होता है। आज गृह मंत्रालय का जो रवैया है उससे नहीं लगता कि यह द्वेष आग और बवाल जल्दी थमेगा। अगर यह लम्बे समय तक चला तो इसका सबसे पहला आघात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की क्षवि पर होगा, फिर देश की आर्थिक स्थिति पर, जो पहले से ही डांवाडोल है। क्या यह मूर्खतापूर्ण निर्णय नहीं है कि देश की अर्थिक स्थिति को सुधारने की सोचने के बजाय सरकार ऐसे कदम उठा रही है जिससे देश मे साम्प्रदायिक उन्माद फैले और देशभर में अफरातफरी मच जाय।

अमित शाह गुजरात के भी गृहमंत्री रह चुके हैं। उसी समय जब नरेंद्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे। गुजरात मॉडल की बात जब 2014 के चुनाव में की जा रही थी तो वह बात गुजरात के आर्थिक विकास के मॉडल की थी या गुजरात के कानून व्यवस्था के मॉडल की थी, तब यह पता नही था। लोगों ने आर्थिक मॉडल समझा था। पर जिन लोगों को इन जुगुल जोड़ी की असलियत पता थी, वे इस मॉडल का सच समझ चुके थे। वे 2002 के गुजरात दंगे में पुलिस, प्रशासन और सरकार की शातिर खामोशी पढ़ चुके थे। यह वही गुजरात मॉडल है जहां एक वरिष्ठ मंत्री हरेन पंड्या की हत्या हो जाती है और मुल्ज़िम का आज तक पता नहीं चलता है। एक लड़की की जासूसी के आरोप सरकार में बैठे ऊपर तक लगते हैं। सोहराबुद्दीन हत्या के मामले में अमित शाह को अदालत तड़ीपार कर देती है। फैसले के कुछ ही दिन पहले जज की संदिग्ध परिस्थिति में मृत्यु हो जाती है। फिर नए जज द्वारा फैसला दिया जाता है, तो अमित शाह बरी हो जाते हैं। हत्या के हर मामले में उच्च न्यायालय में अपील करने वाला अभियोजन और सीबीआई अचानक यह निर्णय लेती है कि अपील की कोई ज़रूरत नहीं। केवल इसलिए कि बरी हुआ अभियुक्त अब महत्वपूर्ण राजनैतिक पद पर है। यह विवरण एक क्राइम थिलर जैसा लग रहा है न । यह बिलकुल एक क्राइम थिलर की तरह है और यही शायद गुजरात मॉडल है।

अमित शाह की क्षवि एक जोड़तोड़ और तमाम नैतिक अनैतिक रास्तो से येनकेन प्रकारेण सत्ता पाने की रही है। इसमे कोई शक नहीं कि सत्ता पाने, हथियाने और चुनाव जीतने की कला उनमे है, पर सत्ता पाने से अधिक शासन करने की कला आनी चाहिए। दिल्ली पुलिस चूंकि सीधे गृहमंत्री के अधीन है तो यह एक मॉडल पुलिस होनी चाहिए पर अब यह एक ऐसी पुलिस बनती जा रही है जिसकी साख संकट में है। दिल्ली अलीगढ़ या मुरादाबाद जैसा साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील शहर नहीं है जहां इस प्रकार की घटनाओं को लोग एक रूटीन समझ कर ले लें। यह राजधानी है। और राजधानी की पुलिस के सामने एक भाजपा नेता, यह कहते हुए कि हम ट्रम्प के जाने तक इंतेज़ार करेंगे फिर देखेंगे, आराम से यह कह कर वे चले भी जांय औऱ उसके दूसरे ही दिन दंगे हो जांय तो क्या यह पुलिस की मिलीभगत नहीं मानी जानी चाहिए ? जिस अधिकारी के सामने यह धमकी दी जा रही है उसने कोई कार्यवाही क्यों नहीं की ? उसे तुरन्त कपिल मिश्र को लताड़ना चाहिए था औऱ इस भड़काऊ बयान पर मुकदमा दर्ज कर लेना चाहिए था, लेकिन वे चुप्पी साध गए। उन्होंने भी यही सोचा होगा कि जब गोली मारो, घर मे घुस कर रेप, शाहीनबाग तक करेंट और हिंदुस्तान पाकिस्तान के मैच के बयानों पर कुछ नहीं हुआ तो हमीं अंडमान जाने का खतरा क्यों उठाये।

दो दिन की हिंसा, एक डीसीपी के बुरी तरह घायल, एक हेड कॉन्स्टेबल के मारे जाने और कुल 20 लोगों की हत्या, आगजनी और निजी तथा सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बाद कल रात से खबर आयी है कि कर्फ्यू लगाया गया है, और देखते ही गोली मारने का आदेश दिया गया। साम्प्रदायिक दंगों में सबसे पहले दंगा भड़कते ही कर्फ्यू लगाया जाता है। शहर तब एक उन्मादित रोगी की तरह हो जाता है। उसे पागलपन का दौरा पड़ा रहता है। कर्फ्यू से न केवल अराजक तत्वो पर नियंत्रण करने में आसानी होती है बल्कि अधिकतर सामान्य नागरिकों में आत्मविश्वास भी आ जाता है। ऐसे समय मे बल का प्रयोग सुरक्षा बलों द्वारा अधिक किया जाता है पर त्वरित नियंत्रण के लिये यह ज़रूरी भी होता है। दिल्ली में यह नही हुआ। अमूमन जब साम्प्रदायिक दंगे भड़क जाते हैं तो उस समय सरकार और प्रशासन की सबसे पहली चिंता स्थिति सामान्य करने की होती है। तब राजनीतिक दखलंदाजी भी कम हो जाती है और डीएम एसपी किसी दबाव में आते भी नहीं है। यह मैं यूपी के संदर्भ में कह रहा हूँ। पर दिल्ली में ऐसा बिलकुल नहीं हुआ।

जब दिल्ली पुलिस और वकीलों के विवाद और झगड़े में जब पुलिसकर्मियों ने दिल्ली पुलिस मुख्यालय के घेरा तो दिल्ली के कमिश्नर अपने ही जवानों और उनके परिवार के लोगो से मिलने तत्काल नहीं गए, डीसीपी मोनिका से बदसलूकी के आरोप में एक भी मुक़दमा न तो दर्ज हुआ और न कार्यवाही की गयी, जेएनयू, जामिया यूनिवर्सिटी में जो लापरवाही हुयी यह तो सबको पता ही है, दिल्ली की स्पेशल ब्रांच की खुफिया रिपोर्ट ने दिल्ली में हिंसा होने की अग्रिम सूचना दी, उसे भी नजरअंदाज कर दिया गया, तीन दिन से हिंसा चल रही है और जो वीडियो आ रहे हैं, उनसे स्थिति अब भी भयानक लग रही है, दुनियाभर के अखबार दिल्ली हिंसा से रंगे पड़े हैं पर न नींद गृह मंत्रालय की खुल रही है और न ही, दिल्ली के पुलिस प्रमुख की। क्या ऐसी स्थिति में गृहमंत्री को अपने पद से हट नहीं जाना चाहिए और अगर नैतिक मापदंड शून्य हो तो क्या पुलिस कमिश्नर को हटा नहीं देना चाहिए ?

कल अमेरिकी राष्ट्रपति डोलैण्ड ट्रम्प दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे और उसी समय दिल्ली हिंसा के बारे में न्यूयॉर्क टाइम्स वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबार, दिल्ली के दंगों से भरे पड़े थे। दिल्ली मे भड़की हिंसा की एक अमेरिकी सांसद ने तीखी आलोचना की है।पिछले कुछ दिनों में कम से कम 18 लोगों की मौत का दावा करने वाली दिल्ली हिंसा पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए, अमेरिकी कांग्रेस अध्यक्ष प्रमिला जयपाल ने कहा कि "भारत में धार्मिक असहिष्णुता का घातक उछाल भयानक है। "
" लोकतंत्र में विभाजन और भेदभाव को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए और न ही धार्मिक स्वतंत्रता को कमजोर करने वाले कानूनों को बढ़ावा देना चाहिए,"
उन्होंने एक ट्वीट में कहा, "दुनिया देख रही है"।प्रमिला जयपाल ने पिछले साल जम्मू-कश्मीर में संचार पर प्रतिबंधों को समाप्त करने और सभी निवासियों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता को संरक्षित करने के लिए भारत से आग्रह करने वाला एक प्रस्ताव अमेरिकन कांग्रेस में पेश किया था। अमेरिकी कांग्रेस के एक अन्य सदस्य, एलन लोवेन्टल ने भी दिल्ली हिंसा को सरकार के "नैतिक नेतृत्व की दुखद विफलता" करार दिया। उन्होंने कहा, 'हमें भारत में मानवाधिकारों के लिए खतरों के सामने बोलना चाहिए।'

क्या इस विश्व व्यापी बदनामी से बचा नही  जा सकता था ? दिल्ली पुलिस की सुस्ती, अकर्मण्यता और इस घोर प्रोफेशनल लापरवाही के लिये कोई न्यायिक जांच नहीं बैठायी जानी चाहिए ? शाहीनबाग का धरना खत्म कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट को पहल करनी पड़े, और चार थाने में साम्प्रदायिक हिंसा पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को डीसीपी के दफ्तर में आकर मीटिंग करनी पड़े, यह तो स्थानीय पुलिस की विफलता ही है। जब जब पुलिस, किसी भी दल के राजनैतिक एजेंडा को लागू करने का माध्यम बनती है तो न केवल पुलिस के पेशेवराना स्वरूप पर आघात पहुंचता है बल्कि कानून व्यवस्था पर भी विपरीत असर पड़ता है। पुलिस को कानून को कानूनी तरीक़े से ही लागू करने की अनुमति दी जानी चाहिए। पर अफसोस ऐसा दिल्ली में नहीं हो सका। क्या इस विफलता की जिम्मेदारी गृह मंत्रालय को नहीं लेना चाहिए ?

© विजय शंकर सिंह 

ट्रम्प का भारत दौरा भारत अमेरिकी सम्बन्धो का इतिहास / विजय शंकर सिंह

अमेरिका के  राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत की यात्रा पर हैं। वे 2016 में अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे। अमेरिकी संविधान के अनुसार, वहां के राष्ट्रपति का कार्यकाल चार साल का होता है, और यह अवधि इस साल समाप्त हो रही है। नए राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया अमेरिका में चल रही है। वहां  अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली है, और राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया भी अलग तथा जटिल है। मूलतः वहां द्विदलीय व्यवस्था है। एक डेमोक्रेटिक पार्टी है दूसरी रिपब्लिकन। ट्रम्प रिपब्लिकन दल से हैं। उनसे पहले बराक ओबामा डेमोक्रेटिक पार्टी से थे। आर्थिक नीतियों के सवाल पर दोनों ही दलों की सोच एक ही जैसी है। फिर भी डेमोकेट्रिक पार्टी को रिपब्लिकन दल से अपेक्षाकृत उदार माना जाता है। ट्रम्प अपने देश मे भी अपने स्वभाव, अक्खड़पन, ज़िद्दी और बड़बोलेपन के कारण काफी विवादित रहे हैं।

यह संभवतः पहले राष्ट्रपति हैं, जिनके निर्वाचन के बाद अमेरिकी नागरिकों ने नॉट माय प्रेसिडेंट के नाम से उनके विरूद्ध एक अभियान चलाया था। कभी सीएनएन और अन्य मीडिया संस्थानों के साथ अपने तल्ख स्वभाव के लिये तो कभी अपनी रंगभेदी और साम्प्रदायिक टिप्पणियों के कारण भी यह सुर्खियों में रहते हैं। ट्रंप ख़ुद को भले 'बाहुबली' बताते हों, पर अमेरिकी सीनेटर बर्नी सांडर्स उनको आदतन झूठा, नस्लभेदी, स्त्री-विरोधी, होमोफ़ोब, कट्टर धर्मांध और अमेरिकी इतिहास का सबसे ख़तरनाक राष्ट्रपति कह रहे हैं। ऐसा नहीं कि यह अमेरिका में चुनावी काल है तो यह सब बातें कही जा रही हैं। कुछ और लोगो की राय पढ़े,  प्रोफ़ेसर कॉर्नेल वेस्ट ने ट्रंप को नियो-फ़ासिस्ट गैगस्टर कहा है। एचबी ग्लूशाकोव ने 2016 में एक किताब लिखी थी, ''माफ़िया' डॉन: डोनाल्ड ट्रंप्स 40 इयर्स ऑफ़ मॉब टाइज़'। इसमें उनके आपराधिक संबंधो का पूरा रिकॉर्ड बताया गया है। राष्ट्रपति बुश द्वितीय, के भाषण लेखक रहे डेविड फ़्रम ने दिसंबर में 'द अटलांटिक' में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था, 'ए गैंगस्टर इन द व्हाइट हाउस'. उन्होंने 2018 में एक किताब भी लिखी थी- 'ट्रंपोक्रेसी: द करप्शन ऑफ़ द अमेरिकन रिपब्लिक'। यह सब उद्धरण, ट्रंप को एक विवादास्पद राष्ट्रपति साबित करते हैं। 

खुद ट्रंप ने हमारे प्रधानमंत्री के ऊपर भी कुछ अनावश्यक टिप्पणियां की हैं, जैसे अफ़ग़ानिस्तान में लाइब्रेरी बनाने की बात का और अंग्रेजी न जानने के संबंध में, अपनी चिरपरिचित शैली में उनका मज़ाक़ उड़ाया है। हो सकता है यह खिल्ली उड़ाना, उनके स्वभाव का एक अंग हो, पर एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में जब उनकी हर एक बात पर चर्चा होगी और मीनमेख निकाले जाएंगे तो, ऐसी बातों पर लोग चटखारे लेकर बात करते हैं औऱ तो बातों का बतंगड़ बनेगा ही।

तो वही महाबली अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प 24 फरवरी से भारत मे है और उनका दौरा चल रहा है। उनके दौरे के कार्यक्रम में सबसे बड़ा आयोजन अहमदाबाद के मोंटेरा क्रिकेट स्टेडियम का उद्घाटन और वहां एक जनसमूह को संबाधित करना है। फिर वे आगरा में ताजमहल देखेंगे और फिर दिल्ली में दिल्ली सरकार के एक स्कूल का भ्रमण उनकी पत्नी मेलोनिया ट्रम्प करेंगी। उल्लेखनीय है कि अहमदाबाद, अगरा और दिल्ली के मुख्यमंत्री ट्रम्प के कार्यक्रमों में शामिल नहीं होंगे। ऐसा प्रतिबंध अमेरिकी सुरक्षा एजेंसी का है। यह थोड़ा अटपटा भी लग रहा है और स्थापित प्रोटोकॉल के विपरीत भी है कि जिस राज्य में कार्यक्रम हो, वहां उस कार्यक्रम में उस राज्य के मुख्यमंत्री ही उपस्थित न रहें। इसके अलावा और कुछ भी राजकीय कार्यक्रम होंगे। 

1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध के अनेक परिणामो में एक परिणाम यह हुआ कि यूरोप की परंपरागत औपनिवेशिक शक्तियां, ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल, डच कमज़ोर हो गयीं और इन्ही के यहां से भेजे गए इनके नागरिकों द्वारा बसायी गयी नयी दुनिया, अमेरिका, एक शक्तिशाली राष्ट्र बनकर उभरा। उधर सोवियत क्रांति के बाद कम्युनिस्ट ब्लॉक, जिसमे चीन भी शामिल था एक तरफ था, तो दूसरी तरफ अमरीका के नेतृत्व में ब्रिटेन, फ्रांस आदि देश एकजुट हो गए। आज़ादी के बाद भारत को अपने खेमे में लाने की पूरी कोशिश अमेरिका ने की थी। यह कोई भारत के प्रति अनुराग के कारण नहीं था बल्कि सोवियत रूस और चीन के रूप में जो कम्युनिस्ट ब्लॉक उभर गया था उसके खिलाफ दक्षिण एशिया में एक मजबूत ठीहा उसे चाहिए था। भारत की आबादी, विशाल आकार, खनिज और कृषि की ताकत, ब्रिटेन का सबसे महत्वपूर्ण और धन देने वाला उपनिवेश बने रहना, प्रथम और द्वितीय विषयुद्धों में भारतीय सैनिकों की शौर्यगाथा जैसे कारक तत्व भारत की तरफ अमेरिका को आकर्षित कर रहे थे। 

भारत का तत्कालीन नेतृत्व जो जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस का था, कि अर्थिक विचारधारा पूंजीवाद विरोधी और समाजवाद की तरफ उन्मुख थी। जो अमेरिकी सोच के विपरीत थी। भारत ने उस दो ध्रुवीय विश्व के बीच एक नया रास्ता चुना जो दोनों से ही अलग था और निर्गुट आंदोलन का नेता बना। लेकिन अमेरिका से भारत के संबंध शुरू से ही अच्छे रहे और 1970 तक यह संबंध ठीक तरह से चले भी। 1971 में भारत सोवियत बीस साला रक्षा संधि से इन संबंधों में खटास आयी और जब 1971 में भारत पाक युद्ध और बांग्ला मुक्ति संग्राम हुआ तो, उस समय यह सम्बंध बहुत अधिक बिगड़ गए थे। आधुनिक भारत और अमेरिका के बीच अंतरराष्ट्रीय संबंधों की शुरूआत अमेरिकी राष्ट्रपति हेनरी ट्रूमैन के समय 1949 में ही हो गई थी। लेकिन जैसा कि यह स्पष्ट है उस समय नेहरू की विचारधारा समाजवादी थी और अमेरिका पूंजीवादी विचारधारा को लेकर चल रहा था। परिणाम स्वरुप भारत अमेरिका सम्बन्ध मात्र एक औपचारिकता ही थे।

अमेरिका को जब लगा कि भारत से उसे उतनी निकटता प्राप्त नहीं हो सकती जो वह भारत का उपयोग, सोवियत रूस और चीन के विरुद्ध अपने सैन्य और कूटनीतिक उद्देश्यों के लिये करना चाहता था तो वह पाकिस्तान की ओर मुड़ा। पाकिस्तान के रूप में उसे दक्षिण एशिया में एक ठीहा मिला और पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध एक मजबूत साथ। तब 1954 में अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ मिलकर ‘सेंटो’ नामक एक संगठन की स्थापना की, जो भारत के विरुद्ध तो नहीं था पर उसकी सकारात्मक प्रतिक्रिया भारत में नहीं हुयी,  इसी के कारण भारत जो सोवियत रूस की तरफ पहले ही झुका था अब और उधर सरक गया। सोवियत रूस से रिश्ते और मजबूत होते गए। 

द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका और सोवियत रूस दोनो फासिस्ट धुरी राज्यों के विरुद्ध एक साथ थे। पर यह साथ वैचारिक आधार पर नहीं था। यह फासिस्ट और लोकतंत्र विरोधी ताकतों के खिलाफ था। जब ये फासिस्ट ताक़तें पराजित हो गयीं और उनके नेता मुसोलिनी को जनता ने चौराहे पर फांसी दे दी और हिटलर ने आत्महत्या कर ली तो फिर इस आपसी संबंध का उद्देश्य ही समाप्त हो गया। फिर दोनों के बीच जो हुआ वह युद्ध नहीं था बल्कि एक दूसरे की जासूसी, षडयंत्र और शीत युद्ध था। यह दौर सीआईए और केजीबी जैसी शक्ति साधन संपन्न खुफिया एजेंसियों का था। शीत युद्ध के कारण लंबे समय तक पूरी दुनिया दो गुटों में बटी रही। शीत युद्ध में एक गुट अमेरिका का था और दूसरा सोवियत संघ का। विश्व की प्रत्येक समस्या को गुटीय स्वार्थ के दृष्टिकोण से देखा जाने लगा। शीत युद्ध के परिणाम स्वरुप नाटो, सीटो, सेंटो, वारसा पैक्ट जैसे कई सैन्य गुट बनकर तैयार हुए। दोनों गुट अधिक से अधिक देशों को अपने ग्रुप में शामिल करने की होड़ में जुट गए ताकि विश्व के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व बढ़ाया जा सके। भारत इनसे अलग बना रहा।

भारत समाजवादी विचारधारा का समर्थक था इसलिए उसका झुकाव कहीं ना कहीं अप्रत्यक्ष रुप से सोवियत संघ की तरफ था। अमेरिका को यह बात रास नहीं आ रही थी क्योंकि भारत एशिया का एक महत्वपूर्ण और बड़ा देश था। हालांकि भारत ने किसी भी गुट में शामिल ना होते हुए अलग गुट का निर्माण किया जिसे गुटनिरपेक्ष कहा गया। दुनिया के कई देशों ने मिलकर गुटनिरपेक्ष रहने का निर्णय लिया।
1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के दौरान अमेरिका ने चीन के साथ मिलकर पाकिस्तान का पूरा सहयोग किया, जो कि भारत के लिए बेहद चिन्ता का विषय था। भारत ने भी 20 साल के लिए रूस से जो समझौता  और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किया, वह अमेरिका और चीन दोनों को रास नहीं आया था।अमेरिका पाकिस्तान का लगातार सहयोग कर रहा था। परिणामस्वरुप भारत की मजबूरी बन गई थी कि भारत को गुटनिरपेक्ष रहते हुए भी रूस के साथ बना रहे।

इस शीत युद्ध से अपने आप को भारत ने बिल्कुल अलग रखा। लेकिन 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका पाकिस्तान के साथ था और वह कालखंड अमेरिकी रिश्तों के ठंडेपन का समय था। जब उस युद्ध में भारत की जीत हुई, तब अमेरिका नें दक्षिणी एशिया में भारत को एक बड़ी शक्ति माना और भारत के साथ सम्बन्ध मजबूत करने की कोशिश की। लेकिन यह ठंडापन कमोबेश बरकरार रहा। इसके बाद जब 1991 में सोवियत रूस का विघटन हुआ तो दुनिया एक ध्रुवीय हो गयी और फिर धीरे धीरे गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी कमजोर पड़ गया। भारत की आर्थिक नीति में भी प्रत्यक्ष परिवर्तन हुआ और पूंजीवादी आर्थिक स्थिति का तेजी से उभार हुआ। जिसके बाद भारत और अमेरिका के संबंध मजबूत होते गए।

1974 में भारत ने परमाणु परीक्षण कर पूरी दुनिया को चौंका दिया, क्योंकि भारत से पहले इस तरह का न्युक्लियर परमाणु परीक्षण संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थाई सदस्यों को छोडकर किसी ने नहीं किया था। भारत परमाणु परीक्षण के बाद दुनिया के उन ताकतवर देशों की सूची में शामिल हो गया जिसके पास परमाणु हथियार थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस परमाणु परीक्षण 'बुद्ध मुस्कुराये' को शांतिपूर्ण परीक्षण कहा। भारत के परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत को परमाणु सामग्री और ईंधन आपूर्ति पर रोक लगा दी, साथ ही भारत पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये। लेकिन इस विषम परिस्थिति में रूस ने भारत का साथ देकर भारत और रूस के साथ संबंधों को और मजबूत किया। पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद भारत के पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान दोनों में खलबली मच गई। भारत पर कई तरह के प्रतिबंध लगाने का दबाव भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनाया जाने लगा। भारत और अमेरिका के बीच अंतरराष्ट्रीय संबंध सामान्य तरीके से ही चलते रहे लेकिन इसमें कोई सुधार नहीं आया।

तब से आज तक भारत और अमेरिका की रिश्तों में कई उतार-चढ़ाव आये हैं। 90 के दशक में जब भारत एक उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो रहा था, तब भी अमेरिका को यह अच्छा नहीं लगा था। वह भारत को साथ मे रखना तो चाहता है पर स्वावलंबी भारत उसे पसंद नहीं है। वह पाकिस्तान जैसा साथी चाहता है जो हर मुद्दे पर चाहे वह आर्थिक सहायता की बात हो या सैन्य संबंधों की, झुक कर साथ रहे। पर भारत ऐसा बन नहीं सकता है। इसी के चलते भारत ने जब 1998 में परमाणु परिक्षण किया था, तब अमेरिका ने इसका खुलकर विरोध किया था। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत से सभी रिश्तों को ख़त्म करने की धमकी दी थी। 1998 के परीक्षण के बाद अमेरिका सहित कई देशों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिये। अमेरिका ने भारत से अपने राजदूत को भी वापस बुला लिया था। इसके बाद कुछ समय तक दोनों देशों के बीच काफी तनातनी रही।

लेकिन फिलहाल के वर्षो में दोनों देश एक दूसरे से बहुत नजदीक आये है। अमेरिका को एशिया में अपना प्रभुत्व जमाये रखने के लिए भारत की सख्त जरूरत है। उसी प्रकार भारत को व्यापार और रक्षा कारणों से अमेरिका की जरूरत है। वर्ष 2002 में अटल जी ने अमेरिका ने संयुक्त सत्र को संबोधित कर भारत और अमेरिका के बीच नए संबंधो की नींव रखी थी। 2008 में डॉ मनमोहन सिंह के समय भारत और अमेरिका के बीच सिविल न्यूक्लियर डील ने भारत और अमेरिका के बीच संबंधों को और भी मजबूत किया। 

बराक ओबामा के कार्यकाल में भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों में और निकटता आई और दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग सुधार और व्यापार में वृद्धि हुई। वर्ष 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत यात्रा की। ओबामा ने भारतीय कारोबारियों को संबोधित किया, साथ ही भारत में निवेश करने और तकनीकी हस्तांतरण जैसे तमाम मुद्दों पर समझौता भी किया। वर्ष 2015 में बराक ओबामा की दूसरी भारत यात्रा ने भारत और अमेरिका के रिश्ते को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया क्योंकि भारत और अमेरिका ने साथ मिलकर आतंकवाद को खत्म करने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के निर्माण के लिए कई समझौते किये। साथ ही जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, गरीबी, कुपोषण, मानवाधिकार जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दो पर साथ रहकर काम करने की इच्छा जतायी। इससे दोनों देश कई मुद्दों पर एक दूसरे के करीब आये।

ट्रम्प के कार्यकाल के दौरान भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों को और मजबूती मिली। डोनाल्ड ट्रम्प का भारत के खिलाफ शुरू से रवैया काफी ख़ास रहा है। ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के समय कहा था कि यदि वे राष्ट्रपति बनते हैं, तो अमेरिका में रह रहे भारतीयो लिए व्हाइट हाउस में एक सच्चा दोस्त होगा। ट्रम्प ने मुस्लिम आतंकवाद को खत्म करने के लिए भारत से ख़ास मदद मांगी। अफगानिस्तान में भारत को सहयोग देने को कहा, हालांकि इसमें अमेरिकी हित अधिक है। उधर चीन की बढ़ती आर्थिक ताक़त भी अमेरिका के लिये चिंता का एक कारण है। चीन के प्रभाव को कम करने के लिए भारत और अमेरिका की नेवी ने एशिया और प्रशांत महासागर में एक साथ युद्धाभ्यास किया। स्पष्ट है कि आज अमेरिका को अगर चीन को तगड़ा जवाब देने और उसके प्रभाव को कम करने के लिए भारत की सख्त जरूरत है। 

राष्ट्रों के आपसी संबंध भले ही आत्मीय दिखते हों पर वे आत्मीय होते नहीं है। यह काल, परिस्थितियों, परस्पर कूटनीतिक ज़रूरतें, अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों और समीकरणों पर आधारित होते है। ट्रम्प और हमारे पीएम कितनी भी गर्मजोशी से परस्पर आलिंगनबद्ध दिखे पर दोनों ही अपने अपने देश के आर्थिक और राजनैतिक ज़रूरतों को ध्यान में रखते हैं। 
इस ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम की तैयारी महीनों से चल रही है. इसके लिए अहमदाबाद एयरपोर्ट से लेकर मोटेरा स्टेडियम के बीच 22 किलोमीटर की सड़क को सजाया जा रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने दिल्ली में गुरुवार को एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि ट्रंप का अभिवादन एक नागरिक अभिनंदन समिति कर रही है। जबकि द हिन्दू अखबार के मुताबिक गुजरात में किसी को ऐसी किसी भी समिति की कोई जानकारी नहीं है। 

सुरक्षा और आवभगत के बढ़िया प्रबंधन को छोड़ दें तो सबसे अहम प्रश्न यह उपस्थित है कि  ट्रम्प की इस यात्रा से हमे क्या लाभ होगा।वे कहते हैं भारत ने उनके साथ उचित व्यवहार नही किया पर वे मोदी को बहुत निकट मानते हैं। यह उनकी निजी यात्रा तो नहीं है ? अगर यह राजनयिक शिखर यात्रा है तो फिर भारत को उनकी यात्रा से क्या हासिल हो रहा है ? अभी तक तो ऐसा कुछ भी नहीं प्रकाश में आया है कि उनकी भारत यात्रा से हमे किसी प्रकार के लाभ होने की उम्मीद हो। ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत को क्या उपलब्धि मिली यह तो नही मालूम, पर जो नुकसान और विपरीत बात हुयी, वह कुछ इस प्रकार है, 
● भारत को आयात निर्यात में जो विशेष दर्जा मिलता था, वह खत्म हो गया है। इसका असर भारतीय उद्योगों पर बुरी तरह पड़ेगा। 
● वीसा नीति में बदलाव होने से हमारे 
नागरिको को अमेरिका में दिक्कत हुयी। 
● कोई बड़ा समझौता  उनके आगमन के अवसर पर होने वाला भी नहीं है और आगे भी यह कहा जा रहा है कि चुनाव के पहले हो या बाद में यह अभी तय नहीं। 
● अगर ट्रम्प चुनाव हार जाते हैं तो यह सब नीतियां क्या करवट लेंगी, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। 

ट्रम्प के कार्यकाल मे भारत अमेरिका सम्बंध अधिकतर सनक भरे ही रहे। खुद ट्रम्प एक अहंकारी और सनकी व्यक्ति लगते हैं। अमेरिकी मीडिया को नियमित पढ़ने और देखने वाले लोग वहां की मीडिया में उनके बारे में प्रकाशित और प्रसारित होने वाली रोचक तथा दिलचस्प खबरों को पढ़ कर उनके बारे में अपनी राय बना सकते हैं। सीएनएन ने एक ट्वीट में साल 2019 में ट्रम्प द्वारा बोले जाने वाले झूठ पर एक दिलचस्प टिप्पणी लिखी है। सीएनएन के अनुसार, ट्रम्प ने साल 2019 में प्रतिदिन सात झूठ  की दर से झूठ बोला है। अमेरिकी मीडिया हमारी मीडिया की तरह से समर्पित मीडिया नहीं है और सीएनएन तो अपनी साफगोई के लिये दुनियाभर में जाना जाता है। भारत यात्रा के बारे में भी सीएनएन का कहना है कि यहां भी ट्रम्प 25 झूठ प्रतिदिन की दर से बोल सकते हैं। आज जब भारत मे सरकार से सवाल करने वाला मीडिया बहुत कम बचा है तो अमेरिकी मीडिया का यह साहस प्रशंसनीय है। 

फिर भी एक अतिविशिष्ट अतिथि हमारे घर आये हैं। यात्रा के समापन के बाद अगर कोई साझी प्रेसवार्ता, दोनो नेताओं की होती है तभी इस यात्रा की उपयोगिता और अनुपयोगिता का मूल्यांकन किया जा सकता है। ट्रम्प की यात्रा के संबंध में सुब्रमण्यम स्वामी का एक बेबाक दृष्टिकोण उल्लेखनीय है। उनका कहना है कि
" ट्रम्प इस लिये आये हैं कि  उनकी आर्थिकी को और गति मिले, न कि हमारी अर्थव्यवस्था को। हो सकता है कुछ रक्षा सौदे हों और उससे उन्हीं के देश की आर्थिकी को मजबूती मिलेगी।" 
डॉ स्वामी अपनी ही सरकार के आर्थिक नीतियों के आलोचक हैं। किसानों के लिये डेयरी उद्योग, पॉल्ट्री उद्योग में जो आयात खोलने की बात कही गयी है, उसे लेकर भी आशंकाएं हैं। लेकिन हमने नमस्ते ट्रम्प से क्या पाया और क्या खोया का मूल्यांकन तभी किया जा सकता है जब दोनों देशों के समझौते, जो भी उभय देशों के बीच होते हों, सामने आ जांय, तभी संभव है। फिलहाल ट्रम्प की यात्रा चल रही है। यह यात्रा हमारे कूटनीतिक, राजनैतिक और आर्थिक हित में ही हो, यही शुभकामनाएं हैं। 

© विजय शंकर सिंह

दिल्ली हिंसा क्या दिल्ली पुलिस की प्रोफेशनल अक्षमता नही है ? / विजय शंकर सिंह

हेड कॉन्स्टेबल रतनलााल के इस भरे पूरे परिवार को देखिये। यह रतनलाल का परिवार है जो दंगाइयों की गोली से मारे जाने के पहले के चित्र में दिख रहा है। अब रतनलाल नहीं रहे। इनकी अर्थी जब उठेगी तब एक लास्ट पोस्ट बजेगी, शोक परेड होगी, शस्त्र झुकेंगे और साथियों की गर्दने भी, अधिकारी कंधे देंगे, दिल्ली सरकार एक करोड़ का मुआवजा देगी, और नौकरी के कई लाभ इनके परिवार को मिलेंगे। पर बस कॉन्स्टेबल रतनलाल नहीं रहेगा। उसका परिवार और उसके कुछ करीबी दोस्त, दुनियाभर की तमाम सच्ची, और औपचारिक शोकांजलियों, मोटी रकमों के मुआवजों और तमाम आश्वासनों के बाद भी रतनलाल को जीवनभर भी भुला नहीं पाएंगे।

पर पुलिस और सेना की नौकरी में यह खतरे तो होते ही हैं। यह एक प्रोफेशनल हेज़ार्ड है। पर अफसोस, पिछले लंबे समय से दिल्ली में जो कुछ भी हो रहा है वह दिल्ली पुलिस की पेशेवराना क्षवि पर बदनुमा दाग है। दंगो से राजनीतिक जमात का कुछ नहीं बिगड़ता है। वे तो साम्प्रदायिक  एजेंडे पर चलते ही रहते हैं। वे ऐसे एजेंडों के वे पक्ष में रहें या विपक्ष में दोनों ही स्थितियों का लाभ उठाना उन्हें बखूबी आता है। पर दंगा चाहे, 1984 का हो, या 2002 के गुजरात दंगे हों, या 1980 का अलीगढ़ हो या 1987 का मलियाना या 1992 के  देशव्यापी दंगे हों सबकी जांच पड़ताल में एक चीज बड़ी शिद्दत से उभर कर आती है कि उन दंगो में पुलिस की क्या भूमिका रही है। जैसे सभी दंगो की जांच होती है, इन दंगों की भी होगी। न्यायिक जांच हो या कोई गैर सरकारी संगठन, इन दंगों की तह में जाने की कोशिश करे,  पर सच तो उभर कर आएगा ही। आज के संचार समृद्ध युग मे हर खबर हमारी मुट्ठी में है । पर थोड़ी मेहनत कीजिए और सच जान लीजिए।

पर एक बात साफ है कि दिल्ली में माहौल बिगाड़ने का एक योजनाबद्ध प्रयास किया गया और यह काफी समय से किया जा रहा है। अफसोस,इसकी भी कमान गृहमंत्री ने संभाली है। उनपर  इस प्रयास को विफल करने की भी जिम्मेदारी है। पर इस जिम्मेदारी का निर्वाह वे नहीं कर पाए।  चुनाव के दौरान उनके भाषण पर न केवल चुनाव आयोग को रोक लगानी चाहिए थी बल्कि उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कराना चाहिए था। पर जब सैकड़ो करोड़ के घोटाले में लिप्त अफसर जब चुनाव की कमान संभालेंगे तो,  उनसे यह उम्मीद करना ईश्वर को साक्षात देखना ही हुआ। फिर अनुराग ठाकुर का बयान। गद्दारो को गोली मारने का आह्वान । यह एक मंत्री और सरकार की क्लीवता का प्रमाण है कि वह गद्दारों के विरुद्ध तो कानूनन कुछ कर नहीं पा रहे  है, और जनता को भड़का कर गोली मारने की बात उनके द्वारा कही जा रही है। आईएसआई के पे रोल पर पाकिस्तान के लिये जासूसी करने वाले भाजपा आईटी सेल के गद्दारों के खिलाफ   कोई उल्लेखनीय कार्यवाही सरकार ने नही की । डीएसपी देवेंदर सिंह जो दो आतंकियों के साथ खुले आम पकड़ा गया, उसके बारे में सबने सांस खींच ली हैं। अब न मीडिया खबर बताता है और न सरकार कुछ कह रही है। पुलवामा हमले में प्रयुक्त आरडीएक्स कहाँ से आया,यह आज तक नहीं पता नहीं लगा। उल्टे इन सबके बारे में सवाल उठाना देशद्रोह का नया इंग्रेडिएंट है।

दरअसल अब सरकार और उसके समर्थकों ने देशद्रोह की परिभाषा बदल दी है। देश सिमट कर सरकार और सरकार सिमट कर एक आदमी के रूप में आ गयी है। इसी गणितीय सूत्र के आधार पर  एक व्यक्ति की निंदा और आलोचना, सरकार की निंदा और आलोचना और सरकार के प्रति द्रोह, देश के प्रति द्रोह हो गया है। इसीलिए किसी कानून का विरोध करना, शांतिपूर्ण जनसभाएं करना, कविताएं और लोगों को रचनात्मक क्रियाकलापों से जागरूक करना जिसमे सरकार की आलोचना होती हो वह देशद्रोह हो गया है। कानून पर सवाल उठाना देशद्रोह है। फ़र्ज़ी डिग्री और फर्जी हलफनामें दिए हुए हुक्मरानों की सत्यनिष्ठा पर चर्चा करना देशद्रोह है। रोज़ी रोटी शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करना देशद्रोह है। सरकारी कंपनियों की अनाप शनाप बिक्री पर सवाल उठाना देशद्रोह है। सेडिशन, धारा 124 A आईपीसी की नयी व्याख्या है यह। अब नए परिभाषा का युग है यह।

कॉन्स्टेबल रतनलाल के मौत की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस के कमिश्नर को लेनी पड़ेगी। नैतिक नहीं प्रोफेशनल अक्षमता की जिम्मेदारी। जब से सीएए कानून बना है तभी से यानी 19 दिसंबर 2019 से ही दिल्ली में इस कानून  प्रतिरोध शुरू हुआ है। असम और नॉर्थ ईस्ट से उठी प्रतिरोध की लहर तत्काल देशव्यापी हो गयी। कानून संवैधानिक है या असंवैधानिक, इस पर बहस बाद में होगी, पर केवल दिल्ली पुलिस के प्रोफेशनल दक्षता का मूल्यांकन करें तो उसकी भूमिका बेहद निराशाजनक रही है। शाहीनबाग में सड़क जाम है पर कोई हिंसा नहीं हुयी। दिल्ली चुनाव में शाहीनबाग को दिल्ली के विकास के मुकाबले खड़ा किया गया। गृहमंत्री से लेकर विधायक प्रत्याशी कपिल मिश्र तक के भड़काने वाले बयान आये। पर उस पर कोई कार्यवाही दिल्ली पुलिस नहीं करती है। वारिस पठान का बयान आया उसपर भी कोई कार्यवाही नहीं की गयी। शाहीनबाग में एक व्यक्ति गोपाल रामभक्त पुलिस दस्ते के सामने गोली चला रहा है, उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की गयी। कपिल मिश्र एक अल्टीमेटम दे रहे हैं कि ट्रम्प के जाने तक वह चुप हैं और उसके बाद वे क्या करेंगे यह पूछने की हिम्मत उनसे दिल्ली पुलिस की नहीं पड़ रही है। उनके खिलाफ कोई कार्यवाही अब तक नही होती है। उस बड़बोले अल्टीमेटम के चौबीस घँटे में ही दिल्ली में हिंसा भड़क उठती है। सात लोग हेड कॉन्स्टेबल रतनलाल सहित उस हिंसा में मारे जाते हैं। अब तक उनके विरुद्ध उस भड़काने वाले बयान पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी। जानबूझकर भड़काने वाले बयानों पर कोई कार्यवाही नहीं करना क्या यह दिल्ली पुलिस की अक्षमता नहीं है ?

चाहे तीसहजारी कोर्ट में वकीलों द्वारा डीसीपी मोनिका से की गयी बदसलूकी हो, या साकेत कोर्ट के बाहर बाइक सवार पुलिस कर्मी से कैमरे के सामने वकीलों द्वारा की गयी अभद्रता हो, या जेएनयू में नकाबपोश गुंडो द्वारा भड़काई गयी हिंसा पर दिल्ली पुलिस की शर्मनाक खामोशी हो, या जामिया यूनिवर्सिटी में लाइब्रेरी में घुसकर छात्रों पर किया गया अनावश्यक बल प्रयोग हो, या अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्र के भड़काऊ भाषण के बाद  पुलिस की शातिराना चुप्प हो, इस सब मे दिल्ली पुलिस की भूमिका बेहद निराशाजनक और निंदनीय रही है। लेकिन ऐसा क्यों है, यह आत्ममंथन और अन्तरावलोकन दिल्ली पुलिस के बड़े अफसरों को करना है न कि कनिष्ठ अफसरों को। यह अक्षमता जानबूझकर कर ओढ़ी गयी है। जब कानून व्यवस्था को राजनीतिक एजेंडे के अनुसार निर्देशित होने दिया जाएगा तो यही अधोगति होती है।

आज जब एक अतिविशिष्ट अतिथि दिल्ली में हैं, और सुबह के अखबार दंगो, हिंसा, भड़काऊ भाषण, और उन्माद की खबरों से भरे पड़े हों, सोशल मीडिया इन खबरों को विविध कोणों से इसे लाइव दिखा रहे हों तो दिल्ली शहर की कानून व्यवस्था के बारे में क्या क्षवि दुनियाभर में बन रही होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। जब यह हाल दिल्ली शहर का है तो किसी अन्य दूर दराज के इलाक़ो में पुलिसिंग का क्या स्तर होगा इसका भी अनुमान लगाना कठिन नहीं है। अब भाजपा के सांसद, मनोज तिवारी और गौतम गंभीर के बयान आये हैं कि कपिल मिश्र के खिलाफ कार्यवाही की जाय। उन्हें भी ज़मीनी हालात का अंदाज़ा लग रहा होगा। पर यह चुप्पी हैरान करती है। इस चुप्पी और दंगे का असर सीधे प्रधानमंत्री की क्षवि पर पड़ रहा है, जिन्होंने अपनी क्षवि बनाने के लिये पूरी दुनिया नाप रखी है, पर जब दुनियाभर में दिल्ली की खबरों को लोग उत्कंठा और प्राथमिकता से पढ़ रहे हैं तो देश की राजधानी के प्रति, हमारी शासन क्षमता के प्रति, हमारी प्राथमिकताओं के प्रति और हम भारतीयों के प्रति वे क्या धारणा बना रहे होंगे, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

© विजय शंकर सिंह 

Sunday 23 February 2020

पत्थर बरसाती भीड़ द्वारा जय श्रीराम कहना, रामद्रोह है / विजय शंकर सिंह

अंततः जय श्रीराम पत्थर बरसाने, गाली गलौज करने, दंगे भड़काने और आग लगाने का एक मान्यताप्राप्त उद्घोष बन ही गया। बिल्कुल उसी तरह जैसे तालिबान आदि आतंकियों का नारा अल्लाह हू  अकबर बन चुका है । पर एक बात साफ है, इन गुंडो, लफंगों, और आतंकियों को न तो राम से कोई मतलब है और न ही अल्लाह से उनका कोई सरोकार। उन्हें मतलब बस देश मे उन्माद फैलाने, दंगा भड़काने और देश को अस्तव्यस्त कर के, देश को तोड़ने से है । मै यह जोर देकर कहता हूं और मुझे यह लगता है कि हो सकता है हम ऐसी शक्तियों के कुचक्र में फंस गए हैं कि जिससे न केवल हमारी आर्थिक स्थिति बिगड़े बल्कि देश का सामाजिक तानाबाना भी मसक जाय। 

आज दिल्ली में जफराबाद में जो हुआ वह बेहद निंदनीय है। वहां पुलिस ने बल प्रयोग नहीं किया। वहां जय श्रीराम का नारा लगा कर पथराव खुद को सीएए समर्थक भीड़ ने किया। वहां भी सड़क जाम है, मेट्रो स्टेशन बंद है। पुलिस को ऐसे मामलों में कार्यवाही करने के कानूनी अधिकार और शक्तियां स्पष्ट हैं। पर सीएए समर्थकों ने जो पथराव किया, उसका उद्देश्य साफ है, कि उधर से भी प्रतिक्रियास्वरूप अल्लाह हु अकबर कहा जाय और फिर संविधान बचाने के नाम पर किया जा रहा यह पूरा आंदोलन साम्प्रदायिक रंग ले ले। सीएए तो लागू हो ही गया है। सरकार भी एक इंच पीछे हटने को तैयार नहीं है। जिन्हें इस कानून पर शक है, और इस कानून को असंवैधानिक मानते हैं वे अपने अपने तरीके से विरोध कर ही रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अक्षम मानते हुए खुद ही पुलिस का काम संभाल लिया और बातचीत के लिये शाहीनबाग में एक दल भेजा। दल ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को दे भी दी। कल इसकी सुनवाई है। फिर जफराबाद में समर्थन के नाम पर उसी जगह जहां सड़क जाम कर के महिलाएं बैठीं हैं वहाँ जय श्रीराम के नारे लगाते हुए पथराव करना कहाँ तक उचित है ? 

अब सवाल उठता है कि इस विरोध और समर्थन में राम कहां से आ गए ? यह तो रामद्रोह हुआ। सरकार इस प्रकार के जगह जगह हो रहे जाम को हटाने के लिए बातचीत या बलप्रयोग जो भी जैसी भी परिस्थिति हो, निपटने के लिये सक्षम है। यह उसके अधिकार और शक्तियों पर निर्भर है। पर कम से कम राम को तो इन सब लफंगई से दूर ही रखिये। इस सरकार और सत्तारूढ़ दल को अगर कोई चीज सबसे अधिक असहज करती है तो वह साम्प्रदायिक एकता और सद्भाव। जिस दिन देश मे लोग यह समझ जाएंगे कि साम्प्रदायिक एका, रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से जुड़े मामले हमारे लिये सबसे ऊपर हैं उसी दिन से इनकी दुकान बंद हो जाएगी। जनता को इन असल मुद्दों पर राहत देने के लिये सरकार और सरकारी पार्टी के पास न तो कोई दृष्टि है, न कोई कार्ययोजना है, न कोई नीयत है और न ही कोई नीति है। 

© विजय शंकर सिंह 

नमस्ते ट्रम्प से क्या हमारे कूटनीतिक हित सधेंगे ? / विजय शंकर सिंह

ट्रम्प कहते हैं उन्हें भारत से नही, मोदी से प्यार है। वे कहते हैं भारत ने उनके साथ उचित व्यवहार नही किया पर वे मोदी को बहुत निकट मानते हैं। यह उनकी निजी यात्रा तो नहीं है ? अगर यह राजनयिक शिखर यात्रा है तो फिर भारत को उनकी यात्रा से क्या हासिल हो रहा है ? अभी तक तो ऐसा कुछ भी नहीं प्रकाश में आया है कि उनकी भारत यात्रा से हमे किसी प्रकार के लाभ होने की उम्मीद हो। फिर डोनाल्ड ट्रम्प की यह  भारत यात्रा, जिसपर 120 करोड़ रुपये तो केवल गुजरात सरकार के ही खर्च हो रहे हैं। अभी उत्तर प्रदेश और भारत सरकार द्वारा किया जाने वाला व्यय इसमे शामिल नहीं है। सत्तर लाख लोगों को ट्रम्प दर्शन के लिये अहमदाबाद में उस जगह खड़े किए जाने की योजना है, जहां से महामहिम गुजरेंगे। इतना तामझाम, इतना व्यय क्यों ? और इन सब की उपलब्धि क्या होगी यह अभी स्पष्ट नहीं है।

ट्रम्प के कार्यकाल मे भारत अमेरिका सम्बंध अधिकतर सनक भरे ही रहे। खुद ट्रम्प एक अहंकारी और सनकी व्यक्ति लगते हैं। अमेरिकी मीडिया को नियमित पढ़ने और देखने वाले लोग वहां की मीडिया में उनके बारे में प्रकाशित और प्रसारित होने वाली रोचक तथा दिलचस्प खबरों को पढ़ कर उनके बारे में अपनी राय बना सकते हैं। सीएनएन ने एक ट्वीट में साल 2019 में ट्रम्प द्वारा बोले जाने वाले झूठ पर एक दिलचस्प टिप्पणी लिखी है। सीएनएन के अनुसार, ट्रम्प ने साल 2019 में प्रतिदिन सात झूठ  की दर से झठ बोला है। अमेरिकी मीडिया हमारी मीडिया की तरह से समर्पित मीडिया नहीं है और सीएनएन तो अपनी साफगोई के लिये जाना जाता है। भारत यात्रा के बारे में भी सीएनएन का कहना है कि यहां भी ट्रम्प 25 झूठ प्रतिदिन की दर से बोल सकते हैं। यह हमारे विशिष्ट अतिथि कि जिनके लिये हमने पलक पाँवड़े बिछा रखे हैं, यह धारणा है। 

ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत को क्या उपलब्धि मिली यह तो नही मालूम, पर जो नुकसान और विपरीत बात हुयी, वह कुछ इस प्रकार है, 
● भारत को आयात निर्यात में जो विशेष दर्जा मिलता था, वह खत्म हो गया है। इसका असर भारतीय उद्योगों पर बुरी तरह पड़ेगा। 
● वीसा नीति में बदलाव होने से हमारे 
● नागरिको को अमेरिका में दिक्कत हुयी। 
● कोई बड़ा समझौता  उनके आगमन के अवसर पर होने वाला भी नहीं है और आगे भी यह कहा जा रहा है कि चुनाव के पहले हो या बाद में यह अभी तय नहीं। 
● अगर ट्रम्प चुनाव हार जाते हैं तो यह सब नीतियां क्या करवट लेंगी, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। 

ट्रम्प का भारत भ्रमण हो या मोदी जी का हाउडी मोदी, दोनों का उद्देश्य है अमेरिका में रह रहे भारतीयों का समर्थन चुनाव में प्राप्त करना। उनके वोट लेना। मोदी जी ने अपनी बार ट्रम्प सरकार का नारा लगा कर इस चुनाव प्रचार की शुरुआत कर ही दी थी। फिर यह यात्रा क्या हाउडी मोदी का ही एक  भारतीय संस्करण नहीं है ? यह पूरी कवायद आगामी चुनाव में ट्रम्प को चुनावी लाभ पहुंचाने के लिये है, और उस चुनाव प्रचार में हमारे टैक्स का धन भी शामिल है। क्या यह भी एक अजीब मूर्खता नहीं है कि हाउडी मोदी तमाशे का भी खर्च हमीं उठाएं, और ट्रम्प के भारत मे आने जाने पर भी हमीं व्यय करें। और अमेरिका से हमे कुछ भी लाभ न मिले, न व्यावसायिक न कूटनीतिक। ऊपर से उनके हथियार और खरीदें। यह तो अद्भुत विदेशनीति हुयी !

एक और जिज्ञासा उठती है मन मे। क्या इतने ही तामझाम के साथ अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री जी का स्वागत होता है या उन्हें यूं ही आया कोई आम हेड ऑफ द नेशन समझ लिया जाता है ? शायद नहीं। अमेरिका खुद को दुनिया समझ लेता है और दुनियाभर को ठेंगे पर रख कर सोचता है। वह हमारी कोई परवाह नहीं करता है, और यह बात वह खुलकर कह भी रहा है और हमे जता भी रहा है, पर हम यह सारी दम्भोक्ति सुनते पढ़ते और समझते हुए उसके लिये लाल कालीन के थान दर थान बिछाते चले जा रहे हैं। यह भी नहीं पूछते कि ट्रम्प की यात्रा से हमें मिलेगा क्या या हम उनसे चाहते क्या हैं। हम अमेरिका की तुलना में आर्थिक रूप से कमज़ोर ज़रूर हैं पर हम उसके उपनिवेश नहीं हैं और न ही उसके आधीन कि वह हमारे यहां मुआयना करने आ रहा है। 

दो राष्ट्राध्यक्षो की शिखर वार्ता या देश भ्रमण यूं ही हाउडी हाउडी करने और ताजमहल देखने या सत्तर लाख नागरिको को सड़क पर राजतंत्र के सम्राट के झरोखा दर्शन के लिये नहीं आयोजित किया जाता है। इसका उद्देश्य, परस्पर व्यावसायिक, कूटनीतिक औऱ वैश्विक उपलब्धियां होती हैं। पर इस यात्रा का क्या उद्देश्य है यह अभी तक तय नहीं है। 

© विजय शंकर सिंह 

वजाहत हबीबुल्‍लाह ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया हलफनामा / विजय शंकर सिंह

दो महीने से ज्‍यादा समय से देश की राजधानी दिल्‍ली के शाहीन बाग इलाके में चल रहे धरना-प्रदर्शन के मामले में पूर्व मुख्‍य सूचना आयुक्‍त वजाहत हबीबुल्‍लाह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया है. उन्‍होंने धरनास्‍थल पर पैदा हुई अफरा-तफरी के हालात के लिए दिल्‍ली पुलिस को जिम्‍मेदार ठहराया है। पूर्व सीआईसी ने सरकार को भी कठघरे में खड़ा किया है। शाहीनबाग प्रोटेस्ट के मामले में 24 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है.

हलफनामे में कहा गया है कि सरकार की ओर से प्रदर्शनकारियों से बातचीत को लेकर कोई पहल नहीं की गई। वजाहत हबीबुल्‍लाह ने सड़क को बंद करने को लेकर हलफनामा दाखिल किया है। सुप्रीम कोर्ट ने बीते 17 फरवरी को वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े, साधना रामचंद्रन और पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला को वार्ताकार नियुक्त किया था और प्रदर्शनकारियों से बात कर विरोध प्रदर्शन के लिए वैकल्पिक रास्ता तलाशने को कहा था.

न्यूज एजेंसी एएनआई की खबर के मुताबिक वजाहत हबीबुल्ला ने अपने हलफनामे में कहा है कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग में चल रहा प्रदर्शन शांतिपूर्ण है. भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त तीन वार्ताकारों में से एक हबीबुल्ला ने ये भी कहा है कि शाहीन बाद में पुलिस ने पांच तरफ से रास्ते को बंद कर रखा है।

वार्ताकारों ने 19 फरवरी से लेकर अब तक में शाहीन बाग में पदर्शनकारियों से चार बार बातचीत की है. बीते शनिवार को प्रदर्शनकारियों ने वार्ताकारों ने सामने अपनी नई मांग रखी और कहा कि अगर रोड 13 ए के एक तरफ की सड़क खोली जाती है तो सर्वोच्च न्यायालय उनके सुरक्षा की गारंटी दे।

वजाहत हबीबुल्‍लाह ने अपने हलफनामे में पुलिस पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्‍होंने कहा कि पुलिस ने कई गैरजरूरी जगहों को भी ब्‍लॉक कर दिया है। इससे अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया। प्रदर्शनकारियों का समर्थन करते हुए उन्‍होंने कहा कि शाहीन बाग में लोकतांत्रिक तरीके से शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया जा रहा है। बता दें कि शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ महिलाएं दो महीने से भी ज्‍यादा समय से धरने पर बैठी हैं। प्रदर्शनकारियों के हाइवे पर बैठने से दिल्‍ली को नोएडा से जोड़ने वाले मार्ग पर आवागमन ठप पड़ा हुआ है. इस रूट को खुलवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है।

पूर्व मुख्‍य सूचना आयुक्‍त ने शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को धरनास्‍थल से जबरने हटाने को लेकर भी आगाह किया है्. उन्‍होंने अपने हलफनामे में कहा कि प्रदर्शनकारियों को वहां से जबरन हटाने के प्रयास से उनकी सुरक्षा को खतरा उत्‍पन्‍न हो सकता है। वजाहत हबीबुल्‍लाह ने अपने हलफनामे में प्रदर्शनकारियों के लिए वैकल्पिक स्‍थान मुहैया कराने के मुद्दे पर कुछ नहीं कहा है. हालांकि, इसमें इस बात का उल्‍लेख जरूर किया गया है कि पुलिस की ओर से जांच-पड़ताल के बाद स्‍कूल वाहन और एंबुलेंस को इस रूट से जाने दिया जा रहा है।
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Saturday 22 February 2020

जन आंदोलनों में सड़क पर शांतिपूर्ण तरीके से बैठ जाना आतंकवाद नहीं है सर. / विजय शंकर सिंह

आरिफ मोहम्मद खान गवर्नर साहब बहादुर के अनुसार अगर सड़कों पर आकर उसे घेर कर शांतिपूर्ण तरीके से बैठ कर, अपनी बात कहना  आतंकवाद है तो भारतीय जन आंदोलनों  की सारी परंपरा जो आज से सौ साल से भी पहले महात्मा गांधी के आदर्शों, सत्य, अहिंसा, असहयोग, जिसे डॉ लोहिया सिविल नाफरमानी कहा करते थे और संसद को आवारा और बर्बाद होने से बचाने के लिये सड़कों को सक्रिय और आबाद करने की बात किया करते थे, ये सब की सब एक झटके में आतंकी मानी जाने लगेगीं।   

आरिफ साहब का इस बयान पर कोई दोष नहीं है। वे सुलझे और पढ़े लिखे व्यक्ति हैं। कानपुर से वे जुड़े हैं तो हल्की फुल्की मेरी भी मुलाकात है। पर क्या करें वे। एक तो सोहबत का असर पड़ता ही है दूसरे सोहबत का असर दिखाना भी पड़ता है। 

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह से लेकर 1975 के जेपी आंदोलन तक, यह सारे आंदोलन सड़कों पर ही हुए हैं। घरों की कैद से मुक्ति तभी होगी जब सड़के आबाद रहेंगी। भारत ही नही, दुनियाभर के जनआंदोलन सड़कों पर ही होते हैं। जब सरकार यह अधिकृत  रूप से सोच ले कि उसे एक इंच भी पीछे नहीं हटना है तो अपनी बात कहने के लिये जनता को सड़कों पर ही आना होता है। लेकिन उन्ही आदर्शों के साथ जो महात्मा गांधी ने 100 साल पहले एक अद्भुत प्रयोग के रूप में शुरू किया था। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के प्रयोग पर एक पुस्तक भी लिखी थी, उसके एक एक अध्याय को शीघ्र ही आप सबसे साझा करूँगा।

© विजय शंकर सिंह 

Friday 21 February 2020

पहले भय की राजनीति और षडयंत्र से मुक्त होइये / विजय शंकर सिंह

एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की एक सभा मे जो सीएए और एनआरसी के विरोध में हो रही थी में अमूल्या नाम की एक 19 वर्षीय लड़की ने पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा दिया। यह नारा अप्रत्याशित था। क्योंकि यह सभा एक भारतीय कानून की संवैधानिकता के मुद्दे पर हो रही थी। तुरंत उस लड़की के हांथ से माइक ले लिया गया और बाद में पुलिस ने उसे वहां से हटा लिया और धारा 124A आईपीसी के अंतर्गत एक मुक़दमा दर्ज कर के उसे न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया यह खबर कल से लगातार सुर्खियों में बनी हुयी है और इस घटना पर अच्छा खासा बवाल मचा हुआ है। 

पाकिस्तान इस समय देश के अंदर एक सबसे संवेदनशील मुद्दा बना हुआ है। अब इस घटना  के संदर्भ में कुछ उन तथ्यों को देखें, जो पहले घट चुके हैं। 
● एक मजबूत और खुशहाल पाकिस्तान में ही भारत का भला है।
( अटल बिहारी वाजपेयी ,1998 के लाहौर भाषण का अंश।पाकिस्तान )
● हमारा भाई है, सरकार को सम्बन्धो में और सुधार करना चाहिए। 
(15 सितंबर,मोहन भागवत आरएसएस चीफ) 
● जब यमुना के किनारे श्रीश्री रविशंकर ने आर्ट ऑफ लिविंग का एक आयोजन किया था तो, उस आयोजन में भी पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाया गया था और उस आयोजन में सरकार के कई मंत्री भी उस समय उपस्थित थे। तब भी यही सरकार थी और रविशंकर जी सरकार के तब भी निकट थे और अब भी निकट हैं। 

पाकिस्तान आज भी लिखा पढ़ी में भारत का मोस्ट फेवर्ड नेशन है। हमारे कई उद्योगपतियों के वहां आज भी बिजनेस इंटरेस्ट हैं और यह उद्योगपति सरकार के निकट हैं। पाकिस्तान से हमारे चार युद्ध हो चुके हैं। हमने सबमे विजय पायी है। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध मे हमने उस आधार को ही भग्न कर दिया है जिस आधार पर पाकिस्तान बना था। वह घटना विश्व के सैन्य इतिहास में एक स्थान रखती है। आज वही द्विराष्ट्रवाद यानी धर्म ही राष्ट्र है का आधार पुनः 2014 से तैयार किया जा रहा है। पाकिस्तान का विरोध आप करें या न करें, उसका मुर्दाबाद आप कहें या न कहें यह आप की मर्ज़ी है। लेकिन पाकिस्तान जिंदाबाद कहने से अगर समाज मे मतभेद उपजता है, भाईचारा खतरे में पड़ता है तो ज़रूर इस अनावश्यक और जानबूझकर कर भड़काने वाली बात और नारे पर क़ानूनी कार्यवाही होनी चाहिए और सरकार ने समय समय पर ऐसी घटनाओं पर कार्यवाहियां की भी है, और सरकार ने समय समय पर ऐसी घटनाओं पर कार्यवाहियां की भी है। लेकिन यह भी सरकार और उन लोगों को समझाना होगा कि इस प्रकार की नारेबाजी से देशद्रोह का मामला क्यों और कैसे बनता है। केवल घृणावाद से उपजा भय ही है या यह सचमुच में देश के विरुद्ध है। इतना भय क्यों है, इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिये। वैसे इस मामले में अभी तक पुलिस ने  कार्यवाही की है, और अब, कानून आगे क्या करता है यह अलग विषय है। 

लेकिन, पाकिस्तान की अवधारणा, ( Idea of Pakistan ) जो सचमुच में घातक है, और इतनी घातक है कि वह कोरोना वायरस की तरह पूरे देश को छिन्नभिन्न कर देने की क्षमता रखती है का मुर्दाबाद ज़रूर करें। और न सिर्फ मुर्दाबाद कहें बल्कि उसे पनपने भी न दें। यह विचार है द्विराष्ट्रवाद का। टू नेशन थियरी का। यह विचार अब आप को अधिक अपने आसपास दिख रहा होगा। द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत है, धर्म ही राष्ट्र है और यह सिद्धांत, 1937 में उपजा और 1947 में इस महान भूभाग को बांट गया और एक ऐसा ज़ख्म दे गया जो आज तक भरा नहीं जा सका।आइडिया ऑफ पाकिस्तान पाकिस्तान के विचार को मुर्दाबाद कहिये और आइडिया ऑफ इंडिया, भारत के विचार को जिंदाबाद कहिये और उसे अक्षुण रखिये। 

जिस दिन पाकिस्तान और हिंदू मुसलमान के मुद्दे पर कोई हेट स्पीच नहीं आती है तो सबसे अधिक गोदी मीडिया, सांप्रदायिक एजेंडा फैलाने और हिंदुओं को डरा कर रखने वाले लोग असहज हो जाते हैं। आखिर वे बहस किस मुद्दे पर करें। ट्वीट और स्टेटस क्या अपडेट करें। कैसे खुद को सही साबित करें। ऐसा नहीं है कि मुद्दों का अकाल है। मुद्दे तो बहुत हैं। आर्थिक खबरों तो रोज ही आ रही हैं। सरकार की इन खबरों पर किंकर्तव्यविमूढ़ता भी साफ दिख रही है। पर दिक्कत यह है कि, जब भी आर्थिक खबरों की बात होगी तो सरकार बहस के केंद्र में होगी। सरकार की उपलब्धियां और खामियां विवाद के विषय बनेंगे। सवाल इन्हीं पर पूछे जाएंगे और तब, पिछले छह साल से हिंदू मुसलमान, पाकिस्तान, सर्जिकल स्ट्राइक, की बात करते करते प्रोग्राम्ड हॉ चुके भाजपा और सरकार के प्रवक्ता असहज होने लगेगे। अब भला गोदी मीडिया सरकार और सरकारी दल के प्रवक्ताओं को असहज होते कैसे देख सकता है !

यह भयोत्पादन और भयादोहन का सिलसिला 2014 से और ज़ोरों से चल रहा है। जहां वैदिक काल से अब तक सभी महान ऋषियों, मुनियों और संतो ने  इस महान धर्म के लोगों को निडर होकर अपनी बात कहने की पूरी त्वरा से अपेक्षा की,  वहां यह मूढ़मति सोच के लोग हमें और आप को डरा कर रखना चाहते हैं। आप का यही डर इनकी पूंजी है। इस डर की राजनीति केवल कट्टर हिंदुत्व के ही लोग नही करते है, बल्कि 'इस्लाम खतरे में है' कह कर उन कट्टर और जाहिल मुस्लिमों में भी ऐसे लोग कम नहीं है जो अपने समाज को बहुसंख्यकवाद से डरा कर सदैव रखना चाहते हैं। यह डर कट्टर धर्मावलंबियों को और धर्म के ठेकेदारों को अपने अपने धर्मों पर शिकंजा कसने के लिये आधार देता है। धर्म का जो बाहरी और दिखावे वाला स्वरूप है वह मूलतः भय के कारण ही है। 
1937 में जब द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के नाम पर वीडी सावरकर ने हिंदू महासभा में धर्म और राष्ट्र का एक पर्यायवाची स्वरूप प्रस्तुत किया तो उसे मुस्लिम लीग ने तुरन्त लपक लिया। एमए जिन्ना मुस्लिम ध्रुवीय राजनीति के लिये बेक़रार थे ही। लेकिन एक क़रार भी चाहिए, बेक़रार होने के लिये। वह करार हिंदू महासभा ने उपलब्ध करा दिया। उस समय भी यही डर मुस्लिम लीग के नेताओ ने अपनी जनता के मन मे बिठाया कि संख्या में कम होने के कारण आज़ाद भारत मे वे नज़रअंदाज़ किये जाते रहेंगे और उनकी स्थिति दोयम दर्जे की रहेगी। लेकिन यह भय सब मुस्लिमों में नहीं बैठा। मौलाना आज़ाद, हसरत मोहानी, बादशाह खान बहुत से ऐसे नेता थे तो इस थियरी के खिलाफ थे। यही भय आगे चलकर पाकिस्तान की अवधारणा का आधार बनता है।  इस भय को आरएसएस और हिंदू महासभा के नेताओ ने हवा भी दी। जिन्ना और सावरकर तो हमसफ़र बने रहे पर हिंदू और मुस्लिम के बीच अविश्वास की खाई बढ़ती रही। यह अविश्वास उस तथ्य को भी नजरअंदाज कर गया कि भारत मे बहुसंख्यक मुस्लिम समाज के लोग धर्मान्तरित है और उनके स्थानीय रीतिरिवाज लगभग एक जैसे ही हैं। 

आज फिर उसी मोड़ पर इतिहास को ले जाया जा रहा है। वह मोड़ है 1937 के आसपास का। कहते हैं कि उस समय साम्प्रदायिक उन्माद, अविश्वास और मतभेद इतने गहरे थे रेलवे स्टेशन पर पानी का भी धर्म था। हिंदू पानी और मुस्लिम पानी के घड़े और पानी पिलाने वाले अलग अलग थे। यह सब धर्म के नष्ट हो जाने का भय, जाति से बहिष्कृत हो जाने का भय और समाज मे अलगथलग पड़ जाने का भय था। भयभीत होकर संसार मे किस समाज ने उन्नति की है ? शायद किसी ने भी नहीं। आज फिर यही  भय हेट स्पीच के द्वारा फैलाया जा रहा है। इसी भय से हिंदू भी ग्रसित हो रहे हैं और मुस्लिम भी। 

याद कीजिए भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा का बयान ' घर मे घुस कर बलात्कार करेंगे तुम्हारे। ' और इसे कुछ मूर्ख सच भी मान ले रहे हैं। घर मे घुस कर बलात्कार करेंगे और कोई इतना क्लीव है कि वह इसका सबल प्रतिरोध भी नहीं करेगा। यह तो दुनिया की सबसे प्रबुद्ध और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध पूरी की पूरी एक संस्कृति को ही डरा कर क्लीव बना देना है। यह तो अपनी ही सरकार के निकम्मेपन को भी दर्शाना है कि जब सब  घर में घुसकर बलात्कार करेंगे, तो यह  सरकार भी कुछ नहीं कर पायेगी।  क्या सरकार तब खामोश बनी रहेगी ? क्या इस बयान में सरकार की अक्षमता नहीं प्रदर्शित हो रही है ? 

सबसे पहले इस भय से मुक्त होइये। यह भय आप की सारी भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति को रोक देगा। यह भय दोनों ही कट्टरपंथियों द्वारा एक प्रायोजित षडयंत्र हैं जिसका एक ही उद्देश्य है अलग अलग बाड़े में भेड़ों को बांधे रखना। इन स्वयंभू गड़ेरियों से बचें और इस भेड़तन्त्र के विरुद्ध खड़े हों। यह सारा तमाशा, अपनी अक्षमता और शासन न करने की कला को छुपाने के लिये और जनता को निरंतर भय के एक काल्पनिक चक्र में फंसा कर रखने के लिये हैं। और अंत मे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखे गए अद्भुत उपन्यास, बाणभट्ट की आत्मकथा का यह कालजयी वाक्य पढ़े,
" सत्‍य के लिए किसी से भी नहीं डरना, गुरू से भी नहीं, लोक से भी नहीं .. मंत्र से भी नहीं। "

© विजय शंकर सिंह 

Thursday 20 February 2020

वारिस पठान का निंदनीय बयान अप्रत्याशित नहीं है / विजय शंकर सिंह

वारिस पठान का बयान आपत्तिजनक है और वह भी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से दिया गया है। वारिस पठान का पूरा बयान पढा जाना चाहिए और उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए। वारिस पठान जैसे साम्प्रदायिक बयान संविधान के लिए चल रहे सीएए एनआरसी एनपीआर विरोधी आंदोलनों को ही क्षति और सरकार तथा भाजपा को लाभ पहुंचाएंगे। ऐसे बयानों की निंदा की जानी चाहिए और कानूनी कार्यवाही भी। धर्मनिरपेक्षता की बात कभी भी साम्प्रदायिक उन्माद के कलेवर में नहीं कही जा सकती है। वह क्षद्म है औऱ उसका उद्देश्य ही अलग है। 

हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के राष्‍ट्रीय प्रवक्‍ता वारिस पठान ने एक विवादित बयान दिया है। कर्नाटक के गुलबर्गा में एक जनसभा को संबोधित करते हुए वारिस पठान ने बिना नाम लिए कहा कि '100 करोड़ (हिंदुओं) पर 15 करोड़ (मुस्लिम) भारी पड़ेंगे।' उन्‍होंने कहा कि अगर आजादी दी नहीं जाती तो छीनना पड़ेगा। वारिस पठान के इस बयान के बाद राजनीति गरम हो गई है। ऐसे बयान  धार्मिक दूरियां बढ़ाते हैं और साम्प्रदायिक तनाव का वातावरण बनाते हैं। भाजपा को ज़रूरत पड़ने पर एआईएमआईएम ने मदद ही की है। 2014 में महाराष्ट्र में ओवैसी की पार्टी ने  भाजपा को विश्वास मत प्राप्त करने में सहायता की थी. 

ओवेसी साहब की पार्टी एआईएमआईएम, के विधयकों ने 2014 में सदन से बहिर्गमन कर के भाजपा के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की सरकार को गिरने से बचा लिया था। यह समीकरण अप्रत्याशित था। लेकिन सच भी है। राजनीति बड़ी अजीब होती है। नेता कभी नहीं लड़ते हैं। वे सभी वक़्त ज़रूरत पर अपने अपने स्वार्थानुसार एक दूसरे की मदद करते रहते हैं। बस हमें भटकाते, उलझाते और लड़ाते रहते हैं। 2014 में भी यह अचंभा हो चुका है। एआईएमआईएम भाजपा की बी टीम नहीं बल्कि भाजपा के लिये खेत तैयार करती हैं और जानबूझकर कर साम्प्रदायिक बातें करते हैं। उसी की उर्वरता पर खुद को राष्ट्रवादी पर मोहन भागवत जी के शब्दों में नाजीवादी विभाजनकारी फसल बोते हैं। वे ओवैसी साहब के दल के जहरीले बयानों से हिन्दुओ को डराते हैं। 

वारिस पठान के बयान पर गोदी मीडिया की बहसें और भाजपा के मित्रों के ट्वीट और बयान देख लें । सीएए की संवैधानिकता, एनआरसी की व्यवहारिकता, आंदोलनकारियों पर पुलिस की बर्बरता, जेएनयू, जामिया, एएमयू, बीएचयू आदि नामी गिरामी शिक्षा संस्थानों में सरकारी असम्वेदनशीलता पर कभी यह गोदी मीडिया कभी बहस नहीं करेगा। ओवैसी साहब एक बैरिस्टर हैं और वे तार्किक बातें करते हैं, अच्छी तक़रीर करते हैं, लेकिन उनके छोटे भाई और वारिस पठान जैसे प्रवक्ता आग लगाने का काम करते हैं। आज जब देशभर में कहीं भी साम्प्रदायिक तनाव नहीं है, और ध्रुवीकरण की सारी कोशिशें बेकार हो जा रही हैं तो वारिस पठान का यह बयान आया है। वारिस पठान चैनल रिपब्लिक के स्थायी पैनलिस्ट हैं। बिहार में चुनाव है। इसलिए बयानों में तनाव है ! 

शाहीनबाग सहित देशभर में हो रहे संविधान के पक्ष में धरने प्रदर्शन ने धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों को असहज करना शुरु कर दिया है। महिलाओं का विशेषकर मुस्लिम महिलाओं का जिनके बारे में यह आम धारणा थी कि वे घरों के बाहर कम ही निकलती हैं, शाहीनबाग में उनके उत्साह, बहस के अंदाज़ और शांतिपूर्ण प्रदर्शन के हुनर ने उन स्वयंभू धार्मिक नेताओं को असहज करना शुरू कर दिया है। बात अब धर्म और परंपराओ से हट कर अधिकार, आज़ादी और कानून की होने लगी है तो उन्हें लगता है यह बात दूर तलक जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकार वरिष्ठ एडवोकेट संजय हेगड़े, साधना रामचंद्रन और वजाहत हबीबुल्ला की टीम जब उनसे बात करने गयी तो पूरी बातचीत में जितनी गंभीरता, स्पष्टता और साफ शब्दों में वहां की महिलाओं ने धरने के महत्व को बताया वह प्रशंसनीय है।

संजय हेगड़े को कहना पड़ा कि वे धरने के खिलाफ नहीं हैं और न ही प्रतिरोध के अधिकार के खिलाफ हैं, बल्कि वे सड़क जाम से उत्पन्न नागरिक समस्याओं के समाधान के लिये उनके पास आये हैं।  बात अभी चल रही है। सरकार और सत्तारूढ़ दल की यह पूरी कोशिश है कि वह सीएए एनआरसी और एनपीआर के विरोध आंदोलनों को केवल मुस्लिम आंदोलन के रूप में प्रचारित करे पर गोदी मीडिया की तमाम कोशिश के बाद भी यह हो नहीं पा रहा है। वारिस पठान जैसे लोग जो कट्टरता और धर्मांधता की बात करते हैं वे जानबूझकर कर भाजपा को ही लाभ पहुंचाते हैं। 

© विजय शंकर सिंह 

Wednesday 19 February 2020

आखिर नागरिकता का आधार क्या है ? / विजय शंकर सिंह

असम की एनआरसी से एक बड़ा कानूनी सवाल उठ खड़ा हुआ है कि किसी व्यक्ति को कैसे देश का वैध नागरिक माना जाय। वे कौन से दस्तावेज हैं जो किसी व्यक्ति की नागरिकता प्रमाणित करते हैं ? यह सवाल और भी अनेक तरह के भ्रम उत्पन्न कर रहा है जिससे लोगों मे असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। 

असम में विदेशी घुसपैठियों की समस्या से निपटने के लिये सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एक नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न एनआरसी बनाने की बात की गई। 1600 करोड़ रुपये के भारी भरकम बजट से केवल एक राज्य में एनआरसी की कवायद शुरू हुयी। असम विदेशी घुसपैठ की समस्या से सबसे पीड़ित राज्य है और अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान को लेकर संवेदनशील भी है। यह संवेदनशीलता न केवल असम मे है बल्कि यह पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में है। इसका कारण उनका कबीलाई संस्कृति और आटविक क्षेत्रो का होना भी है। 

एक लंबे आंदोलन के बाद 1985 मे जब राजीव गांधी और असम आंदोलन के नेताओ के बीच समझौता हुआ तो निम्न मुख्य बातें तय हुयी।  15 अगस्त 1985 को केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है।
असम समझौते के अनुसार, 
● 25 मार्च, 1971 के बाद असम में आए सभी बांग्लादेशी नागरिकों को यहाँ से जाना होगा, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान।
● 1951 से 1961 के बीच असम आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और मतदान का अधिकार देने का फैसला लिया गया। 
● 1961 से 1971 के बीच असम आने वाले लोगों को नागरिकता तथा अन्य अधिकार दिये गए, लेकिन उन्हें मतदान का अधिकार नहीं दिया गया।
● इस समझौते का पैरा 5.8 कहता है कि 25 मार्च, 1971 या उसके बाद असम में आने वाले विदेशियों को कानून के अनुसार निष्कासित किया जाएगा। ऐसे विदेशियों को बाहर निकालने के लिये तात्कालिक एवं व्यावहारिक कदम उठाए जाएंगे।
● इस समझौते में असम के आर्थिक विकास के लिये पैकेज भी दिया गया तथा असमिया भाषी लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषायी पहचान सुरक्षित रखने के लिये विशेष कानूनी और प्रशासनिक उपाय किये गए।
● असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में भी संशोधन किया गया। 

इस सब के बाद असम में एनआरसी की प्रक्रिया पूरी हुयी, और जब अंतिम सूची प्रकाशित हुयी तो 19 लाख लोगों के नाम उस सूची में नहीं आ पाए। अब ये 19 लाख लोग प्रथम दृष्टया देश के नागरिक नहीं माने गए। अब इनका क्या किया जाय, यह एक जटिल सवाल सभी के सामने आ खड़ा हुआ। अगर ये देश के नागरिक नहीं हैं और अवैध घुसपैठ करके देश मे आये हैं तो इनको उनके देश वापस भेजा जाय, या जब तक वापस नहीं भेजे जाते, इन्हें डिटेंशन सेंटर में रखा जाय, यही दो मुख्य विकल्प हैं। अभी सरकार ने इनको इनके देश मे भेजने के बारे में कोई फैसला नहीं किया है। असम में कुछ डिटेंशन सेंटर बने हैं, जिसमे कुछ ऐसे लोग ज़रूर रखे गए हैं। उधर अवैध घुसपैठ के लगातार लगते आरोप को बांग्लादेश ने गंभीरता से लिया और अपनी आपत्ति दर्ज करायी और कहा कि, उसे बताया जाय कि कितने अवैध घुसपैठिये बांग्लादेश से है, उनकी सूची दी जाय, वह अपने नागरिकों को वापस लेने को तैयार है। इस पर भारत सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आयी है। 

एनआरसी में भी कई गंभीर अनियमितताएं सामने आ रही हैं। ऐसे नागरिकों के भी नाम उक्त रजिस्टर में नहीं आ पाए हैं जो जीवन भर सेना, सुरक्षा बल या सरकारी नौकरी में रहे हैं। एक ही परिवार के कुछ सदस्यों के नाम हैं तो कुछ के नाम नहीं है। यह तो एक सामान्य सोच की बात है कि आखिर एक ही परिवार में एक व्यक्ति नागरिक हो और दूसरा घुसपैठ करके आया हो। ऐसी अनियमितताओं से निपटने के लिये विदेशी नागरिक ट्रिब्यूनल और उसके बाद, हाईकोर्ट तथा अंत मे सुप्रीम कोर्ट तक अपील करके अपनी नागरिकता सिद्ध करने का विकल्प सरकार ने दिया है। लोग इस न्यायिक विकल्प का मार्ग भी चुन रहे है। 

अभी हाल ही में अपने एक निर्णय में गुआहाटी हाईकोर्ट ने यह बताया है कि आधार कार्ड, बैंक दस्तावेज, भूमि राजस्व की रसीद से किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं हो सकती है। पैन कार्ड और बैंक दस्तावेजों पर याचिकाकर्ता की निर्भरता को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया और कहा,
"भारत में यह मामला बाबुल इस्लाम बनाम भारत संघ [WP(C)/3547/2016] में पहले ही आयोजित किया जा चुका है कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज़ नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं।"
गुवाहाटी हाईकोर्ट ने कहा है कि 
" भूमि राजस्व (Land Revenue) के भुगतान की रसीद के आधार पर किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती है। साथ ही, पैन  कार्ड और बैंक दस्तावेज़ भी नागरिकता साबित नहीं करते हैं। " 
न्यायमूर्ति मनोजीत भुयान और न्यायमूर्ति पार्थिवज्योति सैकिया की पीठ ने विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा के आदेश के खिलाफ ज़ुबैदा बेगम द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं। इस आदेश में ज़ुबैदा बेगम को 1971 के घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विदेशी घोषित किया गया था।

पुलिस अधीक्षक (बी) के एक संदर्भ के आधार पर विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा, तामुलपुर, असम ने याचिकाकर्ता को नोटिस जारी कर उसे भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कहा था।ट्रिब्यूनल से पहले, उसने कहा कि उसके माता-पिता के नाम 1966 की वोटर लिस्ट में थे। उसने दावा किया कि उसके दादा-दादी के नाम भी 1966 की वोटर लिस्ट में दिखाई दिए थे। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि सन 1970 और सन 1997 की मतदाता सूची भी में भी उसके पिता का नाम था। 
ट्रिब्यूनल ने पाया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता के साथ संबंध दिखाने वाला कोई भी दस्तावेज पेश नहीं कर सकी। हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल के इन निष्कर्षों से सहमति व्यक्त की।
इस फैसले में कहा गया था कि समर्थित साक्ष्य के अभाव में केवल एक मतदान फोटो पहचान पत्र प्रस्तुत करना नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा।
यह भी पाया गया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित भाई के साथ संबंध दिखाते हुए दस्तावेज पेश नहीं कर सकी, जिसका नाम 2015 की मतदाता सूची में दिखाई दिया था। कोर्ट ने कहा कि गांव बूरा द्वारा जारी प्रमाण पत्र किसी व्यक्ति की नागरिकता का प्रमाण नहीं हो सकता।

इन निष्कर्षों पर हाईकोर्ट ने रिट याचिका को खारिज कर दिया और कहा,
"हम पाते हैं कि ट्रिब्यूनल ने इससे पहले रखे गए साक्ष्यों की सही ढंग से सराहना की है और हम ट्रिब्यूनल के निर्णय में व्यापकता देख सकते हैं। यही स्थिति होने के नाते, हम इस बात को दोहराएंगे कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता और उसके अनुमानित भाई के साथ संबंध को साबित करने में विफल रही, इसलिए, हम पाते हैं कि यह रिट याचिका योग्यता रहित है और उसी के अनुसार, हम इसे खारिज करते हैं।"

अब एनआरसी के नागरिक पहचानो अभियान के एक क्लासिक उदाहरण को देखें। यह उदाहरण है असम के बक्सा जिले के तमुलपुर गांव की जावीदा का। दरअसल असम के बक्सा जिले के तमुलपुर के गुवाहारी गांव की रहने वाली जाबीदा बेगम उर्फ जाबीदा खातून का नाम एनआरसी लिस्ट से बाहर हो गया था। मई 2019 में फॉरेन ट्रिब्यूनल द्वारा उन्हें विदेशी घोषित कर दिया गया था। जाबीदा ने खुद को भारतीय साबित करने के लिए निम्न दस्तावेज गुवाहाटी हाईकोर्ट के समक्ष पेश किए थे। 
● पैन कार्ड
● वोटर आईडी कार्ड
● भू राजस्व, लगान की रसीद, 
● वर्ष 1966 की मतदाता सूची जिसमे उनके दादा दादी का नाम था। 
● वर्ष 1970 की मतदाता सूची, जिसमें उनके माता पिता का नाम था। 
● ग्राम प्रधान द्वारा दिया गया निवास प्रमाण पत्र।
● राशन कार्ड।
● बैंक की पासबुक।
अब उनसे इन सब दस्तावेज़ों के बाद यह कहा गया कि अपने माता पिता की जन्मतिथि प्रमाणपत्र प्रस्तुत करें। पर यह दस्तावेज वह पेश नहीं कर पायी और उनकी नागरिकता की अपील खारिज हो गयी। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार, वह “अपने कथित माता-पिता और भाई-बहन के साथ संबंध साबित करने में विफल रही।” असम में भारतीय नागरिक माने जाने के लिए, उन्हें यह साबित करना होगा कि वह या उनके पूर्वज 1971 से पहले असम में रह रहे हैं।

इसी संदर्भ में एक और अदालती फैसले की चर्चा करते हैं। यह मामला महाराष्ट्र के मुंबई का है। अवैध बांग्लादेश से आने के आरोप पर वर्ष 2017 में मुम्बई पुलिस ने अब्बास शेख और राबिया शेख के खिलाफ मुंबई के मैजिस्ट्रेट कोर्ट में एक मुक़दमा दायर किया। अपनी नागरिकता के सुबूत के रूप में अब्बास ने अपने राशनकार्ड की मूल प्रति दाखिल की। अदालत ने सुनवाई के बाद कहा कि, 
" एक जन्म प्रमाणपत्र, डोमिसाइल या अधिवासी प्रमाणपत्र और एक पासपोर्ट को किसी की नागरिकता प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त दस्तावेज हैं। यहां तक कि एक वोटर आईडी कार्ड भी नागरिकता का सुबूत हो सकता है। क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति वोटर आईडी कार्ड के लिये आवेदन करता है तो वह, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत घोषणापत्र देता है।

लेकिन मुम्बई के मैजिस्ट्रेट कोर्ट के फैसले और असम हाईकोर्ट के फैसले में जो विरोधाभास है उसका निराकरण सरकार एनआरसी के बारे में एक युक्तियुक्त नियमावली बना कर कर सकती है या फिर यह मामले सुप्रीम कोर्ट में जाएँ तो सुप्रीम कोर्ट का क्या दृष्टिकोण होता है, उसे देखना होगा। अभी एनआरसी का जो मॉडल देश के सामने है वह असम के अनुभवों के आधार पर है और असम के अनुभव न केवल इस 

यही यह सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर वे कौन से दस्तावेज हैं जिनसे किसी की नागरिकता प्रमाणित होती है ? गृहमंत्री अपने एक बयान में कहते हैं कि आधार कार्ड और वोटर आईडी कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं है। अदालत उपरोक्त दस्तावेजों को भी प्रमाण नहीं मानता है। अपने माता पिता के जन्म प्रमाणपत्र तो संभवतः बहुतों के पास न हों। खुद मेरे पास भी नहीं है। अभी असम के एनआरसी का यह हाल है कि वहां इसे लेकर चारो ओर भ्रम, आक्रोश और अफरातफरी फैली है। जब यही कवायद पूरे देश मे होगी तो क्या होगा, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। 

© विजय शंकर सिंह 

Monday 17 February 2020

लोककल्याणकारी राज्य और हमारा संविधान / विजय शंकर सिंह

हाल ही में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन से जुड़ी एक खबर अखबारों में दिखी, जिसमे वे यह कह रहे हैं कि झारखंड के स्कूल दिल्ली के स्कूलों से बेहतर होंगे। अरविंद केजरीवाल ने इस खबर पर हेमन्त सोरेन को ट्वीट कर के शुभकामनाएं दीं और इस स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिये बधाई भी।
पंजाब के मुख्यमंत्री का एक बयान आया कि उनकी सरकार अब शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देगी। 
महाराष्ट्र सरकार ने दिल्ली सरकार से यह जानने के लिये एक अफसर को भेजा है कि कैसे दिल्ली सरकार ने अपने नागरिकों को 200 यूनिट बिजली मुफ्त देने की योजना को लागू किया है। 
यह सारी खबरें इसी हफ्ते की हैं। यह दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद जिस उत्साह से जनता ने पुनः केजरीवाल को चुना है उसी का प्रभाव है। 

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में एक शब्द बड़ा उछला है फ्रीबी। यानी मुफ्तखोर। और यह बात उस जनता के लिये कही गयी है जो विपन्नता की सीमा के आसपास है। जो 200 यूनिट मुफ्त बिजली, एक सीमा तक मुफ्त पानी और मुफ्त बस की यात्रा से ही अपने कठिन बजट को कुछ हल्का कर के खुश हो लेती है। यह सारी सुविधाएं कम नहीं बल्कि और बढ़नी चाहिए। विपन्नता रेखा से नीचे और उसके आसपास के लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना चाहिए। यह एक कल्याणकारी राज्य का दायित्व है।  अगर दिल्ली चुनाव, लोककल्याणकारी राज्य के मुद्दों को पुनः चुनावों के केंद्र में लाने में सफल होता है तो यह एक उपलब्धि ही होगी। 

लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा कोई पाश्चात्य अवधारणा नहीं है। यह सोच भारतीय सोच है और हमारे प्राचीन वांग्मय और असीमित रूप से फैली लोक गाथाओं में यह हर जगह एक उद्देश्य के रूप में विद्यमान है। ऋग्वेद से लेकर स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों तक मे मानव कल्याण या लोक कल्याण की बात कही  गयी है। हमारा राजतंत्र भी यूरोपीय राजतंत्र की अवधारणा के विपरीत लोककल्याणकारी राज्य की बात करता है। जनता को जनार्दन कहा गया है। प्रजा रंजक शासक को ही श्रेष्ठ शासक माना गया है। जनता केवल कर देने वाली भीड़ ही नहीं समझी गयी है बल्कि उसे राज्य से अपनी सुख सुविधा पाने का अधिकार भी प्राप्त रहा है। जिसके राज्य में प्रजा दुखी होती है उस राजा को नर्क में ही जगह मिलती है। तुलसीदास के रामचरित मानस की यह प्रसिद्ध चौपाई पढिये, " जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।" जहां इतनी उदार और उदात्त सोच से शासन तंत्र चलाने की अपेक्षा सरकार से की जाती रही हो, वहां आज जनता को सुविधा प्रदान करने की बात सोचना भी जब कुछ लोगों को मुफ्तखोरी लग रही है तो यह एक विडंबना ही है। 

भरतीय संविधान भले ही गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 पर आधारित हो पर जब इसकी ड्राफ्टिंग का काम शुरू किया गया तो हमारे संविधान निर्माताओं ने जिनमे डॉ भीमराव आंबेडकर प्रमुख थे ने दुनियाभर के संविधानों का अध्ययन किया और भारत की सनातन बहुलतावादी परंपरा और सोच के अनुसार संविधान की ड्राफ्टिंग की। यह भी एक झूठ बार बार फैलाया जाता है कि देश का विभाजन, धर्म के आधार पर हुआ। यह अर्द्धसत्य है।अर्द्धसत्य कभी कभी झूठ से भी घातक होता है। देश का बंटवारा धर्म के ही आधार पर हुआ यह सत्य है और इसी के साथ यह भी सत्य है कि भारत ने अपनी आजादी, अपनी शासन व्यवस्था धर्म के आधार पर नहीं चुनी। वह उसी भारतीय बहुलतावाद के सोच पर चुनी जिसमे ऋग्वेद में ही संगच्छवदम ' सबको साथ लेकर चलें ' की बात कही गयी है। ऋग्वैदिक काल से ही बहुलतावाद हमारी संस्कृति का मूल रहा है। तब भी धर्म और दर्शन की अनेक धारायें, उपधारायें विद्यमान थी। उनमे विवाद भी था। हो सकता है कुछ विवाद हिंसक भी हुए हों पर किसी भी विपरीत धारा को शत्रु समझ कर नहीं देखा गया। वैचारिक वाद विवाद में जो वाद सर्वकालिक,  बहुस्वीकृत और तार्किक रूप से सजग रहे वे शेष रहे, शेष विलीन हो गए। 

संविधान निर्माताओं ने संविधान में ही दो महत्वपूर्ण भाग जोड़े हैं जो संविधान को मूलतः लोककल्याणकारी राज्य के स्वरूप की ओर ले जाते हैं। ये हैं, मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व। मौलिक अधिकार जहां नागरिकों को राज्य के प्रति कुछ विशिष्ट अधिकार प्रदान करते हैं, वहीं राज्य का भी दायित्व है कि वह मौलिक अधिकारों के प्रयोग हेतु ऐसा वातावरण बनाएं जिससे नागरिकों को मिले ये अधिकार बाधित न हो सकें। राज्य एक शक्तिशाली संस्था है। अपार और असीमित शक्ति किसी को भी मदमस्त और पथ से विचलित कर सकती है। राज्य या सरकार चलाने वाले लोग भी अनियंत्रित होकर बहक सकते हैं। तब तक दुनिया ने लोकतांत्रिक आवरण में छुपे फासिस्ट भेड़िये का असली रूप देख भी लिया था। हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने इसीलिए,  इन मौलिक अधिकारों के संरक्षण का दायित्व और अधिकार संविधान में ही सुप्रीम कोर्ट को सौंपा है। यह एक प्रकार का शक्ति पृथक्करण है, जो एक नियंत्रण और संतुलन बनाये रखता है। अब एक नज़र मौलिक अधिकारों पर डालते हैं। 

मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन के लिये मौलिक होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिनमें राज्य द्वारा हस्तक्षेप नही किया जा सकता। ये ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये आवश्यक हैं और जिनके बिना मनुष्य अपना पूर्ण विकास नही कर सकता। ये अधिकार कई करणों से मौलिक हैं:-
● इन अधिकारों को मौलिक इसलिये कहा जाता है क्योंकि इन्हे देश के संविधान में स्थान दिया गया है तथा संविधान में संशोधन की प्रक्रिया के अतिरिक्त उनमें किसी प्रकार का संशोधन नही किया जा सकता।
● ये अधिकार व्यक्ति के प्रत्येक पक्ष के विकास हेतु मूल रूप में आवश्यक हैं, इनके अभाव में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्द हो जायेगा।
● इन अधिकारों का उल्लंघन नही किया जा सकता।
● मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से प्राप्त होते है।

कानून और भी अनेक अधिकार देता है लेकिन वे मौलिक अधिकार नहीं कहे जाते। वे सामान्य कानूनी अधिकार होते हैं। सामान्य कानूनी अधिकारों व मौलिक अधिकारों में मुख्य अंतर यह है कि, सामान्य कानूनी अधिकारों को राज्य द्वारा लागू किया जाता है तथा उनकी रक्षा की जाती है जबकि मौलिक अधिकारों को देश के संविधान द्वारा लागू किया जाता है तथा संविधान द्वारा ही उनका संरक्षण किया जाता है। कानूनी अधिकारों में विधानमंडल द्वारा परिवर्तन किये जा सकते हैं परंतु मौलिक अधिकारों में परिवर्तन करने के लिये संविधान में संशोधन आवश्यक है। लेकिन संविधान में भी कोई भी ऐसा संशोधन नहीं हो सकता है जिससे संविधान का मूल ढांचा प्रभावित हो सके। यह भी सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती के मामले में तय कर दिया है। 

भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक किया गया है। इन अधिकारों में अनुच्छेद 12, 13, 33, 34 तथा 35 क संबंध अधिकारों के सामान्य रूप से है। 44 वें संशोधन के पास होने के पूर्व संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा जाता था परंतु इस संशोधन के अनुसार संपति के अधिकार को सामान्य कानूनी अधिकार बना दिया गया। भारतीय नागरिकों को छ्ह मौलिक अधिकार प्राप्त है :-
● समानता का अधिकार : अनुच्छेद 14 से 18 तक।
● स्वतंत्रता का अधिकार : अनुच्छेद 19 से 22 तक।
● शोषण के विरुध अधिकार : अनुच्छेद 23 से 24 तक।
● धार्मिक स्वतंत्रता क अधिकार : अनुच्छेद 25 से 28 तक।
● सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बंधित अधिकार : अनुच्छेद 29 से 30 तक।
● संवैधानिक उपचारों का अधिकार : अनुच्छेद 32

यह मौलिक अधिकार यह भी बताते हैं कि राज्य महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण वह नागरिक है जो राज्य में रह रहा है। नागरिक को नागरिकता की परिभाषा से अलग कर के न देखें। आज़ादी के बाद हमने जो शासन व्यवस्था अंगीकृत की वह उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था की थी। जब संविधान बन रहा था तो दुनिया मे दो तरह की वैचारिक धारायें थी। वह काल उपनिवेशवाद के अवसान का काल था । सैकड़ों सालों से परतंत्र देश आजाद हो रहे थे। इनमे से सर्वाधिक संख्या एशिया और अफ्रीका के औपनिवेशिक परतंत्र देशों की थी। लेकिन उपनिवेशवाद से मुक्त होने वालों में सबसे महत्वपूर्ण देश भारत ही था। सभी आज़ाद होने वाले देशों ने लोकतंत्र को ही अपना निज़ाम चुना। जनता और जनता से जुड़े मुद्दे सतह पर आ गए थे। दो वैचारिक धाराओं में एक धारा मार्क्सवादी समाजवाद से प्रभावित थी तो दूसरी धारा पूंजीवादियों की थी। पूंजीवाद और समाजवाद की धारायें आर्थिक दृष्टिकोण पर आधारित थी। भारत ने बीच का रास्ता चुना और आर्थिक दृष्टिकोण में मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव डाली। मिश्रित अर्थव्यवस्था के मूल में भी कल्याणकारी राज्य की ही अवधारणा थी। 

आज़ादी के आंदोलन की मुख्य धारा के रूप में कांग्रेस में जब यह आभास होने लगा था कि अब आज़ादी अधिक दूर नहीं है तो आज़ाद भारत की आर्थिक नीति क्या होगी इस पर मंथन शुरू हो गया था। अपने व्यापक प्रभाव और देशव्यापी स्वीकार्यता के कारण, कांग्रेस भविष्य के शासक के रूप में खुद को मानसिक और वैचारिक रूप से तैयार भी कर रही थी। 1935 के अधिनियम के अंतर्गत 1936 के आम चुनावों में कांग्रेस को आशातीत सफलता भी मिली। पर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध  में बिना भारतीय निर्वाचित सरकारों की राय लिये भारत को युद्ध मे शामिल कर लेने के विरोध में, सभी कांग्रेस सरकारों ने त्याग पत्र दे दिया था। 1938 में सुभाष बाबू जब कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो उन्होंने योजना आयोग के गठन के विचार पर एक पेपर प्रस्तुत किया। सुभाष बाबू कलकत्ता नगरनिगम में अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय दे चुके थे। कांग्रेस उस समय सोवियत रूस के मॉडल से प्रभावित तो थी पर उस मॉडल की कई बातें उसे आपत्तिजनक भी लगीं थीं। लेकिन फिर भी समाजवादी समाज की अवधारणा की बात कांग्रेस ने की। इसी अवधारणा पर आगे चल कर जमींदारी उन्मूलन जैसा एक क्रांतिकारी कदम उठाया गया। आज भी पाकिस्तान में 1947 पूर्व की तरह ज़मीदारी प्रथा लागू है। ज़मीदारी प्रथा के उन्मूलन और जनहित के समाजवादी कदमों के संकेत कांग्रेस के हर अधिवेशन में प्रस्तुत आर्थिक प्रस्तावों में मिलेंगे। इन प्रस्तावों के कारण भी बहुत से मुस्लिम ज़मीदार मुस्लिम लीग में चले गए क्योंकि कांग्रेस के सत्ता में आने पर उन्हें कांग्रेस के प्रगतिशील कदमों के कारण अपनी पूंजी और ज़मीदारी से हांथ धोना पड़ सकता था। मुस्लिम लीग और इसकी सहयोगी हिन्दू महासभा ने कभी आर्थिक मुद्दों पर कोई विचार ही नहीं रखे। वे धर्म आधारित द्विराष्ट्रवाद पर ही अपनी ऊर्जा लगाते रहे। जनहित से जुड़े सारे आर्थिक सवाल उनके लिये गौण था। 

इसी लिये संविधान में, नीति निर्देशक तत्वों का समावेश किया गया ताकि, लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को भविष्य में आने वाली सरकारें भी सुनिश्चित करें। यह एक प्रकार की गाइडलाइन है कि राज्य को किस दिशा में जाना चाहिए। अब एक नज़र इन गाइडलाइंस पर भी डालते हैं। 

संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के संचालन के लिये जो गाइडलाइंस दी गयी है उन्हें ही संविधान में नीति निर्देशक तत्व कहा गया है, जो संक्षेप में निम्न प्रकार से है। 

● 36.  नीति निर्देशक तत्व बाध्यकारी नहीं हैं अर्थात यदि राज्य इन्हें लागू करने में असफल रहता है तो कोई भी इसके विरुद्ध न्यायालय नहीं जा सकता है| नीति निर्देशक तत्वों की स्वीकृति राजनीतिक जो ठोस संवैधानिक और नैतिक दायित्वों पर आधारित है|
● 37. विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा| संविधान के अनुच्छेद 355 और 365 का प्रयोग इन नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए किया जा सकता है| 
● 38. राज्‍य लोक कल्‍याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्‍यवस्‍था बनाएगा।
● 39.  राज्‍य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्‍व।
● 39 क. समान न्‍याय और नि:शुल्‍क विधिक सहायता।
● 40. ग्राम पंचायतों का संगठन।
● 41. कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार।
● 42. काम की न्‍यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध।
● 43. कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि।
43क. उद्योगों के प्रबंध में कार्मकारों का भाग लेना।
● 44. नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता।
● 45. बालकों के लिए नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध।
● 46. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्‍य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि।
● 47. पोषाहार स्‍तर और जीवन स्‍तर को ऊंचा करने तथा लोक स्‍वास्‍थ्‍य को सुधार करने का राज्‍य का कर्तव्‍य।
● 48.कृषि और पशुपालन का संगठन।
● 48क. पर्यावरण का संरक्षण और संवर्धन और वन तथा वन्‍य जीवों की रक्षा।
● 49. राष्‍ट्रीय महत्‍व के संस्‍मारकों, स्‍थानों और वस्‍तुओं का संरक्षण देना।
● 50. कार्यपालिका से न्‍यायपालिका का पृथक्‍करण।
● 51. अंतरराष्‍ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि।

इन नीति निर्देशक तत्वों को देखें तो यह साफ है कि राज्य अपने उन नागरिकों को जो वंचित और आर्थिक रूप से अक्षम हैं, को अनेक जनहितकारी लाभदायक योजनाओं को चला कर उनका जीवन स्तर उठाने का निर्देश सरकार को देता है। जीवन स्तर उठाने, मूलभूत आर्थिक सुविधाओं को देने और राज्य द्वारा अपने नागरिकों को विभिन्न प्रकार की सहूलियत देना जनता की मुफ्तखोरी नहीं है और न ही जनता को निठल्ला और काहिल बनाना है। यह राज्य का दायित्व है। नीति निर्देशक तत्वों को बाध्यकारी इसलिए नही बनाया गया है कि यह सारे निर्देश राज्य की योजनाओं के क्रियान्वयन से ही फलीभूत हो सकते हैं। राज्य को इन योजनाओं को चलाने के लिये धन चाहिए और धन जनता से प्राप्त करों से ही प्राप्त किया जा सकता है। राज्य का यह दायित्व है कि वह कराधान और करव्य्य ऐसा बनाये जिससे इन नीति निर्देशक तत्वों के लक्ष्य पूर्ति हो सके और सामान्य जनता पर अधिक बोझ भी न पड़े। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजस्व और लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के बारे में भी बहुत कुछ कहा है। उन्होंने राजस्व यानी राज्य का भाग छठा हिस्सा रखा था। 

2014 के बाद जैसे कई चीजें बदली है, उसी प्रकार एक अजीब परिवर्तन सरकार और जनता की सोच में आया है। सरकार की सोच में यह परिवर्तन आया है कि सभी सरकारी स्कूल, अस्पताल, फैक्ट्रियां, संस्थान बेकार हैं और उन्हें बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं है। और जनता की सोच में यह परिवर्तन आया है कि सरकार जो सोच समझ और कर रही है वही जनहित है। पर यह जनहित कैसे हैं यह न सरकार समझा पा रही है और न जनता सरकार से इसपर सवाल उठा रही है। आज सरकार लगभग सभी सरकारी कंपनियों को निजी क्षेत्र में दे दे रही है। हालांकि यह शुरुआत आज की नहीं है, बल्कि इस्की शुरुआत 1998 से जब एनडीए की सरकार बनी थी तभी हो गयी थी। पहले पूंजीवाद से प्रभावित प्रचार तंत्र ने जनता के मन मे यह विचार बिठाना शुरू किया कि सरकारी क्षेत्र का मतलब मुफ्तखोरी, आरामतलबी और लूट खसोट होता है । यह सारे रोग कुछ हद तक सरकारी तंत्र में थे और आज है भी तो उसका निदान, प्रबंधन या प्रशासन सुधार कर के करने के बजाय उसे औने पौने दाम पर बेच कर पूंजीपतियों को उपकृत करने का एक नया मार्ग तो कतई नहीं है। सरकार अगर कुप्रबंधन के कारण सरकारी कंपनियों को बेच दे तो यह भी तो सरकार की अकर्मण्यता ही हुयी। लेकिन इसे ही मास्टरस्ट्रोक कहा जा रहा है। इस प्रकार देश मे राजनेता, पूंजीपति और सरकारी अफसरों का जो अपवित्र गठबंधन विकसित हुआ उसने लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को ही नेपथ्य में धकेल दिया। 

लोकतंत्र में जनता महत्वपूर्ण है। यह अब्राहम लिंकन की उस परिभाषा कि जनता के लिये जनता द्वारा और जनता का शासन होता है, के बहुत पहले से ही है। संविधान के मौलिक अधिकारों का उद्देश्य ही यह है कि जनता भयमुक्त रहे। भाजपा का पुराना नारा अगर आप को याद हो तो याद कीजिए एक उद्देश्य भयमुक्त समाज का भी रहा है। अब वह ध्येय नहीं रहा। अब समाज मे धर्म को भय का आधार बनाया जा रहा है। इस्लाम खतरे में है यह तो बहुत पुरानी बात हुयी अब तो उसी के नक़्शे कदम पर हिंदुत्व भी खतरे में आ गया। संगठित होना बुरा नही पर भय की प्रेरणा से संगठित होना हिंसक और आक्रामक बनाता है। यही हिंसक और आक्रामकता धर्म आधारित राज्य ( थियोक्रेसी ) का आधार औऱ स्थायी भाव बनती है।

संविधान निर्माताओं को इन खतरों का आभास था। उन्होंने विश्व का सबसे दुःखद पलायन और धार्मिक दंगो  का हिंसक रूप देखा था। यह सब देखते हुए भी वे कुछ कर नहीं पाए थे। अब वे एक ऐसा प्रगतिशील और पंथनिरपेक्ष भारत चाहते थे जो सर्वांगीण उन्नति करे। जनता निर्द्वंद और निडर होकर अपनी बात अपनी सरकार से कह सके इसीलिए इन मौलिक अधिकारों के रूप में उसे एक ऐसी शक्ति दी गयी है कि राज्य अगर निरंकुश होने की कोशिश भी करे तो जनता पूरी उर्जा से राज्य या सरकार के विरुद्ध खड़ी हो सके । दूसरी तरफ राज्य को क्या करना है इसकी भी एक गाइडलाइन के रूप में नीति निर्देशक तत्व दे दिए गए हैं कि जनता राज्य को बेपटरी न होने दे। 

सस्ती शिक्षा, सुगम स्वास्थ्य, विपन्नता की सीमा से नीचे रहने वाले नागरिकों को राज्य की सहायता जिसे सब्सिडी कहते हैं, रोजगार के नए नए अवसरों की खोज, लोगों का जीवनस्तर बढ़े, इस हेतु किये जाने वाले सारे सरकारी उपाय राज्य के दायित्व हैं। यह मुफ्तखोरी नहीं है। बल्कि जनता के करों का जनता के हित मे व्यय न करके चंद पूंजीपति घरानों को दे देना सरकार की मुफ्तखोरी और जनता को उसके अधिकारों से वंचित करना है। अमीरों और गरीबो के बीच बढ़ती हुई खाई और उस खाई को मूर्खता की दीवाल से ढंक देना मुफ्तखोरी है। जनता के हित के बजाय एक ऐसी आर्थिकी का निर्माण करना जिसमे सब कुछ सिमट कर चंद पूंजीपतियों की मुट्ठी में सिमट जाय जिसे गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटैलिज़्म कहते हैं मुफ्तखोरी औऱ जनविरोधी अश्लीलता है। हमारी परंपराएं, इतिहास तथा संस्कृति में लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा राज्य की अवधारणा के ही समय से विकसित हुयी हैं। जनहित की योजनायें बनाना, उनका त्रुटिरहित क्रियान्वयन करना, जनता का जीवनस्तर सुधारना, यह राज्य का मूल दायित्व और कर्तव्य है। जो भी सरकार जनविरोधी हो उसे पलट देना ही चाहिए। इसीलिए संविधान में चुनाव के विकल्प भी दिए गए हैं। यह जनता की अपेक्षा है न कि मुफ्तखोरी।

© विजय शंकर सिंह 

ट्रेन में महादेव / विजय शंकर सिंह

खबर है कि वाराणसी से इंदौर जाने वाली महाकाल एक्सप्रेस में, एक साइड अपर बर्थ भगवान शिव के लिये स्थायी रूप से आरक्षित है। उस पर एक चित्र के रूप मे शिव माला फूलों से सजे विराजमान हैं। महाकाल को रेल से ही भेजना था तो एक सैलून लगा देते। शास्त्रीय विधि से प्राण प्रतिष्ठित विग्रह रखते। साइड अपर सीट पर, वैसे भी जिसे मिलती है, वह बदलवाने के जुगाड़ में लग जाता है, पर शिव को अलॉट कर के भेजना तो शिव का अपमान ही हुआ ! जब धर्म का उपयोग केवल नफरत फैलाने के लिये किया जाता है तो, धर्म की अधोगति प्रारम्भ हो जाती है। वैसे भी जो सर्वव्यापी है उसे किसी एक भवन, कक्ष या साइड अपर बर्थ पर एडजस्ट करना उसके सर्वव्यापकता की शाश्वत अवधारणा पर ही सवाल उठाना है। फिर भी अगर उन्हें कहीं स्थापित ही करना है तो जो शास्त्रीय विधि विधान से ही किया जाय अन्यथा न किया जाय। यह कौन सी आस्था है कि साइड अपर सीट पर शिव विराजमान हों और सामने केबिन और नीचे की बर्थ पर लोग जूते पहने बैठे या लेटे रहें या पड़े पड़े खर्राटे मारें। न मंदिर की शुचिता का ख्याल न पूजा की मर्यादा का कोई विचार। 

बनारस के एक कवि थे चकाचक बनारसी। बनारस के मेरे मित्रगण ज़रूर उन्हें जानते होंगे । वह अब दिवंगत हो गए। मेरी सीधे उनसे कोई जान पहचान नहीं थी, पर बनारस के कवि सम्मेलनों में कभी कभार बतौर श्रोता हम भी चले जाते थे तो उनको सुनते थे। उस समय यूपी कॉलेज में अक्टूबर नवम्बर के महीने में संस्थापक सप्ताह समारोह होता था। उसमें कवि सम्मेलन का भी एक आयोजन होता था। उसी में हमने पहली बार नीरज, दान बहादुर सिंह सूंड, बेधड़क बनारसी, और चकाचक बनारसी को भी सुना था। चकाचक की कविताएं काशिका बोली में थी। यह बोली बनारस के पक्के महाल में बोली जाती है। भोजपुरी से थोड़ी सी भिन्न है। हमलोग जो बोलते हैं वह चन्दौली के तरफ की बोली है। काशिका, जो असली बनारसी लोग हैं वे बोलते हैं। चकाचक उसी में आपनी कविताएं सुनाते थे।

1983 में काशी विश्वनाथ मंदिर में चोरी हो गयी थी। बाबा के अर्घा के तल के सोने के पत्तर को चोरों ने काट लिया था।  रात चोरी हुयी और सुबह जब यह घटना सबको पता लगी तो बनारस के लिये यह अनर्थकारी घटना बन गयी।  तब केंद में इंदिरा गांधी की सरकार थीं और उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे। कमलापति त्रिपाठी जी तब जीवित थे। त्रिनाथ मिश्र सर वहां के एसएसपी थे। विरोध, क्षोभ और आक्रोश मे बनारस बंद रहा। केंद सरकार ने अतिरिक्त सोने की तुरन्त व्यवस्था की और पुनः सब पहले की तरह स्वर्ण से ही अर्घा बना और पूजा शुरू हो गई। स्थिति सामान्य हो गई। बाद में चोर पकड़े गए वे बिहार के थे। 

जब चोरी की यह घटना हुयी थी तो मैं मथुरा में नियुक्त था। तब मोबाईल नहीं था और जो लैंड लाइन का फोन था वह भी कम ही लोगों के पास था। जो सूचना मिलती थी वह अखबारों के ही माध्यम से मिलती थी। बाद में विश्वनाथ मंदिर की सुरक्षा बढ़ा  दी गयी और वहां के महंत के हांथो से मंदिर प्रबंधन का काम लेकर सरकार ने अपने हांथ में ले लिया। इसी पर चकाचक बनारसी ने एक कविता लिखी थी, जो बहुत लोकप्रिय हुयी। उस लम्बी और हास्य कविता की प्रथम दो पंक्तियां मुझे याद हैं, जो इस प्रकार हैं ,
का हो राजा विश्वनाथ जी,
हो गईला तोहूँ सरकारी !
उनकी यह कविता बहुत लोकप्रिय हुयी।गांडीव दैनिक में भी यह कविता छपी थी। शिव के बारे में भी हास्य बोध से परिपूर्ण रोचक अंश थे। 

जब 1984 में मेरा स्थानांतरण मथुरा से मिर्ज़ापुर हुआ तो मुझे चुनार सर्किल में पोस्टिंग मिली। तब मेरा वाराणसी बहुत आना जाना होने लगा। इसी क्रम में जब एक बार विश्वनाथ मंदिर गया तो वहां के पुराने महंत जी जो मंदिर के सरकारीकरण से काफी दुखी थे, से भी मिलने गया। मैंने जिज्ञासावश उनसे पूछा कि " गुरु चोरी कैसे हो गई। "
उन्होंने भोजपुरी मे बड़ा रोचक उत्तर दिया, " ई चोरी थोड़े भईल। ई त बाबा कहलन चोरवन से, ले जो सारे तोहनी के जेतना सोना चाही त काट ले जो। हम का करब सोना क। हम्मे त केहू दे देही ! "
फिर आगे कहा कि, " तोहीं बतावा, बे बाबा के मर्जी के ऊ कुल सोना काट सकत रहलन हां ? '
फिर जब मैंने कहा कि " गार्द भी थी। वे सब भी नहीं देख पाए। '
इसपर खिलखिला कर बनारसी उन्मुक्त हंसी मे महंत जी ने कहा कि, " ओनहन क त अँखिये बाबा मूंद देहलें रहलन। बाबा क माया उहे जाने। "

बनारस में शिव की अलग स्थिति है। कहते हैं कि आर्यों के कबीलों के आने के पहले ही शिव यहां आ चुके थे। हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ शिवप्रसाद सिंह ने काशी त्रयी के रूप में काशी के इतिहास के तीन अलग अलग कालखंडों पर तीन बड़े उपन्यास लिखे हैं। ये हैं वैश्वानर, नीला चांद और गली आगे मुड़ती है। वैश्वानर का कालखण्ड राजा दिवोदास की काशी है। नीला चांद, राजपूत युगीन भारतीय मध्यकाल पर है और गली आगे मुड़ती है, आज़ादी के बाद सत्तर के दशक की काशी पर है। वैश्वानर कोई काल्पनिक गल्प नही है बल्कि शिवप्रसाद जी ने ऋग्वैदिक ऋचाओ के उद्धरण के साथ उसे बड़ी प्रमाणिकता से लिखा है। वैश्वानर की हिंदी क्लिष्ट और संस्कृतनिष्ठ है, पर उपन्यास में प्रवाह है। रोचकता है। रुचि हो तो उसे पढिये। आनंद आएगा। 

वैश्वानर उपन्यास के अनुसार, काशी में शिव के तीन मुख्य स्थान थे। उनमे से एक विश्वेश्वर था, जो मध्यकाल में नाथ सम्प्रदाय के प्रभाव से विश्वनाथ हो गया।  तब काशी गंगा और वरुणा के संगम पर जो अब राजघाट कहलाता है वहां थी। वहां के रेलवे स्टेशन का भी नाम काशी ही है। तब बनारस में किरातों की बस्ती थी और यह एक जनजाति है जो मध्य हिमालय में निवास करती है। वहां से यह कब काशी आयी इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। लेकिन इतना तय है कि आर्यों के काशी पहुंचने के पूर्व ही यह जनजाति काशी आ चुकी थी। इनके इष्टदेव शिव थे जो इनके साथ ही आ चुके थे। मणिकर्णिका श्मशान भी तभी का है। नगर की सीमा मैदागिन जहां एक छोटी नदी जिसका नाम मन्दाकिनी था वह बहती थी। उसके बाद सब कुछ जंगल था। शिव के तीन प्रसिद्ध स्थान अविमुक्तेश्वर, मध्यमेश्वर और विश्वेश्वर स्थपित हो चुके थे। यह तीनों मिल कर एक त्रिकोण बनाते है। इस त्रिकोण का भी कुछ तांत्रिक महत्व है जो मुझे बहुत ज्ञात नहीं है। 

गंगा यमुना के संगम पर सबसे पहला राज्य प्रतिष्ठानपुर था, जो आधुनिक झूंसी है की स्थापना आर्यों ने किया था। कहते हैं कि सरस्वती उपकंठ से जब आर्यो के कबीले पूर्व की ओर आये तो वे प्रतिष्ठानपुर में ही जमे और यहीं राज्य की स्थापना की। मनु की पुत्री इला को वह राज्य मिला। इसी इला के नाम पर यह इलावास बना। आर्यो का विस्थापन औऱ विस्तार गंगा के किनारे किनारे होता हुआ चरणाद्रि ( चुनार ) पार करते हुऐ गंगा और वरुणा के संगम पर पहुंचा। इस काफिले मे धन्वंतरि औऱ उनका परिवार था। जब यह काफिला काशी पहुंचा तो वहां के किरातों में एक भयंकर महामारी फैली थी, जिसका नाम उपन्यास में तकमा लिखा गया है। इस रोग के जो लक्षण हैं उसके अनुसार यह रोग आधुनिक मलेरिया प्रतीत होता है।  वैद्यराज धन्वंतरि, उस रोग से ग्रस्त लोगों को देखकर द्रवित हो गए और उन्होंने रोगग्रस्त पीड़ित लोगो का इलाज करना शुरू कर दिया। कुछ दिन के इलाज के बाद यह महामारी नियंत्रित हुयी औऱ तब किरातों ने धन्वंतरि को धन्यवाद दिया और उन्हें अपना राजा स्वीकार करते हुए राजा बनने का आग्रह किया। लेकिन धन्वंतरि ने राजा बनना स्वीकार नहीं किया। तब काशी के राजा के रूप में धन्वंतरि के पुत्र दिवोदास काशी के पहले राजा हुये। 

कहते हैं दिवोदास के समय मे शासन व्यवस्था इतनी चुस्त दुरुस्त थी कि देवताओं की वहां कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई। केवल शिव ही अकेले वहां रहे। कहा जाता है कि तभी शिव को आर्यो ने अपने देव के रूप मे अंगीकार किया और  उन्हें देवाधिदेव की उपाधि दी। काशी तब से उन्ही महादेव की है जिन्हें ट्रेन में आज रेल विभाग ने एक अदद अपर बर्थ दी है। धर्म और आस्था जब केवल राजनीति के ही चश्मे से देखी जाने लगती है तो धर्म ईश्वर और आस्था तीनों का अवमूल्यन होने लगता है। यहां भी उद्देश्य महाकाल की पूजा और अर्चना नहीं है, बल्कि धर्म और ईश्वर के नाम पर आस्था का दोहन करना है।

© विजय शंकर सिंह 

Saturday 15 February 2020

चंद्रशेखर जी के पूर्व कार्यालय में तोड़ फोड़ निंदनीय है / विजय शंकर सिंह

पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी आज महत्वपूर्ण हो या न हो पर उनकी हैसियत आज के फर्जी डिग्री और हलफनामा देने वाले आधुनिक अवतारों से कहीं बहुत अधिक थी। वे भले ही मात्र चार महीने ही देश के प्रधानमंत्री रहे हों, पर उनकी व्यक्तिगत हैसियत देश के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में प्रमुख थी। 1977 में चन्द्रशेखर तत्कालीन सत्तारूढ़ दल जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। और बाद में जब यह पार्टी बिखर गयी तो उन्होंने एक नयी पार्टी बनायी समाजवादी जनता पार्टी। वे इसके अध्यक्ष रहे औऱ अकेले ही अपने दल से बलिया से सांसद चुने जाते रहे। उन्हें लोग अध्यक्ष जी के ही नाम से संबोधित भी करते थे। अपने गांव इब्राहिम पट्टी जिला बलिया से वे अपने जीवन के अंतिम समय तक जुड़े रहे। बाद में उनके सुपुत्र नीरज, बलिया से लड़े बाद में सपा से राज्यसभा में भी  पहुंचे पर अब वे भाजपा से राज्यसभा में एमपी हैं।

भारतीय समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेन्द्र देव् एक शिखर पुरुष थे। फैज़ाबाद के रहने वाले आचार्य जी 1937 मे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रूप में कांग्रेस के अंदर समाजवादियों का एक मजबूत धड़ा बनाने में अग्रणी थे। उनके साथ डॉ राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन आदि समाजवादी नेता थे। कम्युनिस्ट नेता ईएमएस नंबूदरीपाद भी तब थे पर वे बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए।

आज़ादी के बाद सबसे अधिक बिखराव अगर किसी राजनीतिक दल या आंदोलन में हुआ तो वह समाजवादी आंदोलन था। आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण एक तरफ थे और डॉ लोहिया दूसरी तरफ। केरल में पहली गैर कांग्रेस सरकार बनी थी। समाजवादी नेता थाणुपिल्लई  वहां के मुख्यमंत्री बने। छात्रों का एक आंदोलन हुआ और उस आंदोलन पर पुलिस ने गोली चला दी। पुलिस जब आज तक औपनिवेशिक हैंग ओवर से मुक्त नही हो पायी है, तब तो आज़ादी मिले अधिक साल भी नहीं हुये थे। नशा तारी था।

डॉ लोहिया का कहना था कि आंदोलन करना एक लोकतांत्रिक अधिकार है और पुलिस को शांतिपूर्ण प्रदर्शकारियों पर किसी भी दशा में गोली नहीं चलानी चाहिए थी। उन्होंने कहा सरकार जाती है तो जाय पर उन कदमों पर नहीं चलना है जिनपर अंग्रेजी हुकूमत चलती थी। समाजवादी पार्टी में मतभेद हो गया और लोहिया अलग हो गये। सुधरो या टूटो के मंत्र में टूटो का मार्ग लोहिया ने चुना। यहीं से जेपी एक तरफ और लोहिया दूसरी तरफ हो गए।

जेपी बाद में मुख्य राजनीति से किनारा कर लेते हैं और वे सर्वोदय की राजनीति में आ गए। लोहिया के अनुसार, जेपी मठी गांधीवादी बन गए। लोहिया खुद को कुजात गांधीवादी कहते थे। अचार्य जी भी इतने सक्रिय नहीं रहे। मूलतः वे अकादमिक व्यक्ति थे। बाद में बीएचयू के कुलपति भी कुछ समय के लिये रहे। लोकतांत्रिक समाजवाद उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। उस समय चन्द्र शेखर जी नरेंद्र देव और जेपी के दल प्रजा सोशलिस्ट पार्टी पीएसपी में शामिल हो गए। वे आजीवन जेपी के विश्वस्त शिष्य बने रहे। आचार्य नरेन्द्र देव के बारे में आप को व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में कुछ नहीं मिलेगा इसीलिए मैं यह सब आप को बता दे रहा हूँ। नरेंद्र देव की हैसियत और उनके अकादमिक ज्ञान का एक उदाहरण भी नीचे पढ़ लीजिए।

फैज़ाबाद में आमचुनाव था। नरेंद देव जी अपनी पार्टी  पीएसपी से चुनाव में खड़े थे। उनका चुनाव चिह्न झोपड़ी था। उनके खिलाफ कांग्रेस से एक अल्पज्ञात सज्जन चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस की तरफ से चुनाव प्रचार में जवाहरलाल नेहरू फैज़ाबाद पहुंचे थे। उन्होंने चुनावी सभा मे जाने के पहले पूछा कि कांग्रेस के खिलाफ कौन चुनाव लड़ रहा है। तो उत्तर मिला कि आचार्य नरेंद्र देव। उन्होंने, तुरन्त कहा कि, 'आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ कौन अहमक खड़ा हो गया।' वे सभा मे तो गए पर वोट डालने की अपील उन्होंने नरेंद्र देव के लिए की। उनका कहना था कि भले ही नरेंद्र देव विरोधी दल से हों पर वे सबसे बेहतर प्रत्याशी हैं। लेकिन वह कांग्रेस के एकक्षत्र राज का जमाना था, आचार्य जी चुनाव हार गए।

इन्ही आचार्य नरेन्द्र देव के नाम पर दिल्ली में चंद्रशेखर जी ने नरेंद्र निकेतन के नाम से एक भवन में अपनी पार्टी समाजवादी जनता दल का मुख्यालय बनाया था। नरेंद्र निकेतन को शुक्रवार की शाम को सरकार ने तोड़फोड़ कर जमींदोज कर दिया गया। शहरी विकास मंत्रालय की इस कार्रवाई से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से जुड़े सारे दस्तावेज तहस नहस हो गए। इसी दफ्तर में पिछले माह 30 जनवरी को गांधी शांति यात्रा के बाद पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिंन्हा, शरद यादव और पृथ्वीराज चव्हाण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। यशवंत सिन्हा, चन्द्रशेखर के ही कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी छोड़ कर राजनीति में आये थे। दफ्तर ढहाने के विरोध में समाजवादी विचारधारा से जुड़े लोगों ने धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया है। समाजवादी जनता पार्टी (चंद्रशेखर) के नेताओं का आरोप है कि इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से नाराज होकर 12 फरवरी को शहरी विकास मंत्रालय ने आफिस की जगह को रद्द किया और दो दिन बाद इस आफिस को गिरा दिया गया।

भाजपा के मित्रों को आज़ादी के आंदोलन, उसके नेताओं, आंदोलन की विचारधाराओं औऱ प्रतीको से स्वाभाविक चिढ़ है। इसका एक बड़ा कारण उस दौरान आज़ादी के आंदोलनों से अलग रहना भी है। यह एक प्रकार की हीनग्रंथिबोध है, जो आप गौर से देखेंगे तो तुरंत समझ लेंगे। यही कारण है कि लोकतांत्रिक धरना, प्रदर्शन, आंदोलन, विरोध, प्रतिरोध, असहमति जैसे शब्द और कार्य इन्हें असहज करते हैं। जब वे इन सबका राजनीतिक उत्तर नहीं ढूंढ पाते हैं तो सीधे धर्म और साम्प्रदायिकता पर कूद जाते हैं। यही आज भी हो रहा है।

© विजय शंकर सिंह