Monday 31 May 2021

जब सारंगढ़ के दशहरा में पहली बार रावण की एन्ट्री हुई.


छत्तीसगढ के बड़े हिस्से में रावण-दहन का चलन पुराना नहीं है। राजाओं का इलाका था। नवरात्र में देवी/शक्ति की उपासना के बाद दसवें दिन राजा अपने अपने तरीकों से विजयोत्सव मनाया करते थे। साल भर के सारे तीज-त्योहार तराजू में एक तरफ़ दिये जाएं तो भी राजा के लिए दशहरे वाला पलड़ा ही झुकेगा। 

सारंगढ़ अपवाद नहीं रहा। यहां विजयदशमी के सार्वजनिक कार्यक्रम में रावण का कोई स्थान नहीं था। 

हज़ारों वर्ष पूर्व जब वर्तमान राजपरिवार के पुरखे कछुओं की पीठ पर सवार हो कर, नदी पार कर, यहां पहुंचे तो पानी भरी ख॔दको से घिरे मिट्टी के छोटे गढ़ों (किलों) में छिपे विरोधियों से मुकाबला हुआ था। पुरखों के पास बांस से बनी तलवारें, भाले, तीर, कटार जैसे हथियार  थे। पुरखे जीत गये और तब से पानी भरी खंदक से घिरे मिट्टी के गढ़ पर चढ़ना और उस पर विजयपताका फहराना सारंगढ़ में विजयदशमी उत्सव मनाने का मान्य तरीका बन गया। बांस से बने हथियारों की पूजा अन्य शस्त्रों की पूजा से पहले होती है। 

सैकड़ों सालों से चली आ रही परम्पराओं में परिवर्तन आया अक्टूबर 1978 में। पहली बार रावण-दहन हुआ। शक्तिशाली राजाओं के द्वारा स्थापित और पोषित परम्पराओं में इस महत्वपूर्ण परिवर्तन का श्रेय जिस व्यक्ति को जाता है वह बचपन में बदन पर एक छोटी धोती लपेटे पास के घने वन में गाय चराया करता था। नाम था टेकचन्द गिरी। हम सब, छोटे बड़े, उन्हे प्रेम और सम्मानपूर्वक "बावाजी" संबोधित करते रहे। 

बावाजी की कहानी शुरू होती है 1909 में सारंगढ़ के काली मंदिर से। डेढ़ वर्ष की उम्र में राजा बना दिये गये तत्कालीन राजा जवाहिर सिंह ने राजकुमार काॅलेज में शिक्षा और प्रशासनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उसी वर्ष औपचारिक रूप से राजकाज संभाला था। इसी अवसर पर उन्होने अपने महल के पास काली मंदिर की स्थापना भी की थी। 

काली मंदिर की स्थापना आसान कार्य था किन्तु उसके लिए पुजारी की व्यवस्था करना दुष्कर साबित हुआ। सारंगढ राज्य में परम्परागत रूप से देवी देवताओं की पूजा आदि का कार्य मूलनिवासी (जिन्हे आगे चल कर आदिवासी कहा गया) करते रहे थे। उन्नीसवीं सदी का मध्य आते आते उत्तर दिशा से हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषी ब्राह्मणों का आना प्रारम्भ हो गया था। 1860 के दशक में सिर पर अपनी ईष्ट दक्षिण काली देवी को सम्मान पूर्वक ढोते पहला उत्कल ब्राह्मण परिवार भी आ गया। परिवार के मुखिया को राज-गुरू का ओहदा मिला और वंशज गुरू परिवार के रूप में जाने जाते हैं। 

कुछ ब्राह्मण राज्य की प्रशासनिक सेवाओं मे और बाकी कर्मकाण्ड आधारित पुरोहिती के कार्य में लग गये। मंदिरों की देखभाल और पूजा का जिम्मा आदिवासियों के पास बना रहा। 

लेकिन इन स्थापित आदिवासी पुजारियों में से काली मंदिर का पुजारी बनने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। काली की रेपुटेशन वैसे भी डराने वाली थी। फिर सुना हुआ था कि उन्होने अपना दाहिना पैर शिव के ऊपर रखा हुआ है। पूजा अर्चना में कुछ ऊंच-नीच हो जाने पर काली की प्रतिक्रिया कैसी होगी यह बताने वाला, आश्वस्त करने वाला, कोई अनुभवी भी उपलब्ध नहीं था। 

आखिरकार पुजारी की तलाश का दायरा बढ़ाया गया और सरायपाली के पास स्थित बस्तीपाली गांव से भोले गीर गोस्वामी नामक पुजारी को लाया गया। काली मंदिर को पुजारी मिला और सारंगढ को पहला गोस्वामी परिवार। परिवार बीते सौ सालों में अच्छा खासा कुनबा बन चुका है। इन्हे स्थानीय लोग बावाजी या महाराज के रूप में संबोधित करते रहे हैं। 

इसी परिवार में 1942 में हमारे बावाजी टेकचन्द गिरी का जन्म हुआ। उनके पिता तब तक एक नव-स्थापित मंदिर के पुजारी के रूप में पास के गांव कोतरी के निवासी हो गये थे। 

बावाजी की उम्र कोई दस वर्ष रही होगी जब घने वन के मुहाने पर बसे गांव मल्दा में एक और नया मंदिर बना और पिता शिवचैतन्य गिरी के साथ वे भी वहां पहुंच गये। पिता मंदिर में पूजा करते और बालक बावाजी गांव के मवेशियों को लेकर जंगल में चराने जाया करते। 

इस मवेशी चराई के दौरान कुछ ऐसा हुआ कि कहानी रावण दहन की ओर चल पड़ी। जंगल में बावाजी की शुरुआत गुलेल से चिड़ियों पर निशाना साधते हुई थी। कुछ ही समय में इस बालक ने अपनी गुलेल को 'अपग्रेड'  कर "बन्दूक" बना ली। बन्दूक अर्थात खिंची हुई रबर के प्रहार से बांस के खोखले हिस्से में भरी मिट्टी की गोली को लकड़ी की सींक की मदद से बाहर फेंकना (और भाग्य साथ हो तो चिड़िया मारना)। उसी दौरान जंगल में घूमते एक सयाने आदिवासी शिकारी से इनकी भेंट हुई जो शीध्र मित्रता में तब्दील हो गयी। शिकारी मित्र ने इन्हे इनकी "खिलौना" बन्दूक को कुछ अधिक असरकारी बनाने के गुर सिखाए। यह गुर था बारूद बना कर उसके इस्तेमाल का तरीका। 

गन पाऊडर को कहा जाता था गधा-बारूद। जितना भी पीटो, फटता नहीं था, जब तक दुम में चिंगारी न लगे। उन दिनों गोला बारूद जैसी चीज़ों पर आज जैसे प्रतिबंध नहीं थे। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि आसानी से प्राप्त हो जाता हो। "गन पाऊडर" के नाम से तो बिल्कुल भी नहीं मिलता था। 

सयाने आदिवासी शिकारी ने अपना पारम्परिक ज्ञान बांटा और सिखाया कि गंधक (सल्फर), शोरा (पोटेशियम नाइट्रेट) और लकड़ी के कोयले को सही अनुपात में मिलाया जाए तो विस्फोटक बनाया जा सकता है। 

लकड़ी का कोयला सुलभ था। बाकी दो चीज़ें हासिल करना भी समस्या नही थी। ये परचून की दुकानों में सहज उपलब्ध थीं। विस्फोटक में इनके इस्तेमाल की जानकारी आम नही थी। तालाब नगरवासियों के स्नान के लोकप्रिय स्थान थे और खुजली उन दिनों की आम परेशानी थी। नारियल तेल में गंधक मिला कर लेप करना राहत देता था। शोरा पेट दर्द की दवा बनाने के काम आता था। मिट्टी के साथ इसका लेप जली चमड़ी पर भी आराम देता था। 

बांस की बन्दूक में गन पाऊडर का इस्तेमाल शुरू हो गया और प्रयोगधर्मी बालक बावाजी के लिए रसायनों से खेलना और नित नये प्रयोग करना आदत बन गयी। 

इन्होने 1965 के आस-पास विस्फोटकों का व्यवसाय शुरू किया। खदान आदि के लिए उपयोग और मांग में बढ़ोतरी होने लगी। आतिशबाजी में भी हाथ सधने लगा। पटाखे भी बनने लगे। हरफ़नमौला बावाजी गांव के निर्विरोध सरपंच बन गये (और लगातार बनते गये)। सहकारी समितियों में चुनाव जीतने लगे। गांवों में होने वाले नौधा रामायणों के लोकप्रिय टीकाकार बन गये। उनके अंदर का शिल्पकार सक्रिय हुआ और वे गणेश चतुर्थी पर प्रतिमाएं बनाने लगे। गोस्वामी समाज की गतिविधियों में सक्रिय हो गये। इस बीच आतिशबाजी में नित नये प्रयोग जारी रहे। 

1978 में सारंगढ के राजा नरेशचन्द्र सिंह जी का स्वास्थ्य बिगड़ा। डाक्टरों का शक था कैन्सर का। उन्हे इलाज के लिए बम्बई (मुम्बई) ले जाया गया। उनके सभी चाहने वालों के लिए यह बेहद निराशा का समय था। विशेष रूप से राजा साहब के लिए। नवरात्र शुरू होने वाले थे, विजयदशमी का पर्व सामने था और उनके अनुपस्थित रहने की संभावना बन रही थी। उनके जीवन का यह पहला अवसर था जब विजयदशमी के अवसर पर वे अपनी ईष्ट देवी समलेश्वरी से दूर जा रहे थे। वापस आ सकेंगे यह अनिश्चित था।  

राजा साहब को अटूट विश्वास था कि देवी उनकी रक्षा और सहायता करेंगी। जांच पूरी हुई और 8 अक्टूबर के दिन डाक्टरों ने घोषित किया कि उन्हे कैन्सर नहीं है। दशहरा की तारीख थी 11 अक्टूबर।  

राजा साहब देवी के दर्शन के लिए व्याकुल हो गये। वे किसी भी तरह सारंगढ पहुंचना चाहते थे। शायद देवी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहते थे। 

पहुंचना आसान नहीं था। हवाईजहाज की सुविधा नहीं थी। बम्बई हावड़ा मेल में स्थान नहीं था। किन्तु ज़िद की हद तक इच्छा थी सो ट्रेनें बदलते बम्बई से भोपाल, वहां से बिलासपुर और फिर सड़क मार्ग से होते समय पर सारंगढ़ पहुंचने में सफल हो ही गये। 

सारंगढ़ में खुशी का माहौल था। सारे हितचिंतक अपने अपने ढंग से अपनी खुशी का इज़हार कर रहे थे।आत्मविभोर राजा साहब भी किसी को निराश नहीं कर रहे थे। 

बावाजी ने अपनी भावनाएं व्यक्त करने का वही तरीका चुना जो उनके दिल के सबसे करीब था। उन्होने महल के बगीचे से कुछ ऊंचे और मोटे बांस प्राप्त किये और दिन रात लग कर एक रावण बनाया और गढ़-विच्छेदन के दिन कार्यक्रम स्थल के पास खड़ा कर दिया। राजा साहब पहुंचे तो उनके हाथ में बावाजी ने तीर के साथ एक धनुष थमाया और हाथ जोड़ कर रावण पर चलाने का अनुरोध किया। कार्यक्रम में रावण के अप्रत्याशित एन्ट्री से विस्मित राजा साहब ने उनकी भावनाओं का सम्मान किया और बिना कोई प्रश्न किये मुस्कराते हुए तीर चलाया। रावण दहन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। आतिशबाजी ने आकाश रंगीन कर दिया। एक नयी परम्परा का बीजारोपण हुआ। 

मांग और लोकप्रियता में इज़ाफ़े के साथ ही बावाजी के लिए शौक से उपजे काम को औपचारिक रूप देना आवश्यक हो गया। 1982 में रायगढ़ ज़िले में पटाखा, आतिशबाजी और विस्फोटक बनाने और बेचने का लायसेंस प्राप्त करने वाले वे पहले व्यक्ति बने। 

27 अप्रेल 2012 के दिन, कुछ दिनों की अस्वस्थता के बाद, सत्तर वर्ष की अपेक्षाकृत कम उम्र में, बावाजी हम सब को छोड़कर चले गये। 
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डाॅ परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस 
सारंगढ़ (छत्तीसगढ)
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इस्मत चुगताई - संस्मरण : 01


संस्मरण ‘लिहाफ़ के इर्द गिर्द’, जिसे इस्मत चुगताई की किताब ‘गुनहगार’ से लिया गया है. 
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शाम के चार बजे होंगे या शायद साढ़े चार कि बड़े ज़ोर से घंटी बजी. नौकर ने दरवाजा खोला और आतंकित होकर पीछे हट गया.
“कौन है?”
“पुलिस!” शाहिद हड़बड़ाकर उठ बैठे.
“जी हाँ,” नौकर थर-थर काँप रहा था. “मगर साब मैंने कुछ नहीं किया, कसम से साब.”
“क्या किस्सा है?” शाहिद ने दरवाजे के पास जाकर पूछा,
“सम्मन है.”
“सम्मन? मगर…खैर लाइये”
“सॉरी…आपको नहीं दे सकते.”
“मगर…किसका सम्मन…और कैसा सम्मन?”
“इस्मत चुग़ताई के नाम! उन्हें बुलाइये.” नौकर की जान में जान आयी.
“मगर यह तो बताइये…”
“आप उन्हीं को बुलाइये, लाहौर से सम्मन आया है.”

मैं सीमा (अपनी दो महीने की बच्ची) के लिए दूध बनाकर बोतल ठंडा कर रही थी. “लाहौर से सम्मन?”, मैंने बोतल ठंडे पानी में हिलाते हुए पूछा.
“हाँ भई, लाहौर से आया है.” शाहिद झुंझला गये.
मैं हाथ में बोतल लिए नंगे पैर बाहर निकल आयी.
“अरे भई कैसा सम्मन है?” और सम्मन का शीर्षक पढ़कर मेरी हँसी छूट गयी, लिखा था…’इस्मत चुग़ताई’ vs ‘द क्राउन’.
“अरे यह बादशाह सलामत को मुझसे क्या शिकायत हो गयी, जो मुक़दमा ठोंक दिया.”
“मजाक़ न कीजिए”, इंस्पेक्टर साहब सख्ती से बोले. “बढ़कर दस्तख़त दीजिए.”

मैंने सम्मन आगे पढ़ा. बड़ी मुश्किल से समझ में आया. मेरी कहानी ‘लिहाफ’ पर अश्लीलता के आरोप में सरकार ने मुक़दमा चला दिया है और मुझे जनवरी में लाहौर हाईकोर्ट में हाज़िर होना है. दूसरी हालत यानी मेरी गैर हाज़िरी पर सख्त कार्रवाई की जायेगी.

“भई, मैं नहीं लेती सम्मन”, मैंने काग़ज़ वापस करते हुए कहा और दूध की बोतल हिलाने लगी. “मेहरबानी करके वापस ले जाइये.”
“आपको लेना पड़ेगा.”
“क्यों?” मैं आदतन बहस करने लगी. “अरे भई क्या किस्सा है?” मोहसिन अब्दुल्लाह ने जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पूछा. वह धूल में अंटे हुए न जाने कहाँ से खाक छानकर आ रहे थे. “देखो ये लोग मुझे जबरदस्ती सम्मन दे रहे हैं, मैं क्यों लूँ,” मोहसिन ने वकालत पढ़ी थी और अव्वल दर्जे से पास हुए थे.
“हूँ” उन्होंने सम्मन पढ़कर कहा. “कौन- सी कहानी है?”
“भई है एक कमबख्त कहानी, जान की मुसीबत हो गयी है.”
“सम्मन तुम्हें लेना पड़ेगा.”
“क्यों?”
“फिर वही जिद.” शाहिद भड़क उठे.
“मैं हरगिज़ नहीं लूँगी.”
“नहीं लोगी तो तुम्हें गिरफ़्तार कर लिया जायेगा.” मोहसिन गुर्राये.
“कर लेने दो गिरफ़्तार, मगर मैं सम्मन नहीं लूँगी.”
“जेल में बन्द कर दी जाओगी.”

“जेल में? अरे मुझे जेल देखने का बहुत शौक है. कितनी बार यूसुफ से कह चुकी हूँ, मुझे जेल ले चलो, मगर हँसता है कमबख्त और टाल जाता है.”
“इंस्पेक्टर साहब मुझे जेल ले चलिये, आप हथकड़ियाँ लाये हैं?” मैंने बड़े प्यार से पूछा. इंस्पेक्टर साहब का पारा चढ़ गया, गुस्सा दबाकर बोले, “मज़ाक़ मत कीजिए, दस्तख़त कर दीजिए.”

शाहिद और मोहसिन फट पड़े. मैं बिल्कुल मज़ाक़ के मूड में हँस-हँस कर बके जा रही थी. अब्बा मियाँ जब सूरत में जज थे तो कचहरी बिल्कुल घर के मर्दानखाने (पुरुषों की बैठक) में लगती थी. हम लोग खिड़की से चोर-डाकुओं को हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखा करते थे. एक बार बड़े खतरनाक डाकू पकड़े गये. उनके साथ एक बहुत खूबसूरत नौजवान औरत भी थी. बाकायदा बिरजिस और कोर्ट पहने शकरे जैसी आँखें, चीते जैसी कमर और लम्बे काले बाल, मेरे ऊपर इसका बड़ा रोब पड़ा.
शाहिद और मोहसिन ने बौखला दिया, मैंने बोतल इंस्पेक्टर साहब को पकड़ानी चाही ताकि दस्तख़त कर सकूँ. मगर वह ऐसे बिदके जैसे मैंने उनकी तरफ पिस्तौल की नाल बढ़ा दी हो. जल्दी से मोहसिन ने बोतल मुझसे छीन ली और मैंने दस्तख़त कर दिया.
“आप थाना चलकर जमानत दीजिए, पाँच सौ रुपये की जमानत.”
“मेरे पास तो इस वक़्त पाँच सौ नहीं हैं.”
“आपको नहीं, किसी और साहब को आपकी जमानत देनी पड़ेगी.”
“मैं किसी को फंसाना नहीं चाहती. अगर मैं नहीं गयी तो जमानत जब्त हो जायेगी.” मैंने अपनी जानकारी की धौंस जमाई.
“आप मुझे गिरफ्तार कर लीजिए.”

इस बार इंस्पेक्टर साहब को गुस्सा नहीं आया. उन्होंने मुस्कुरा कर शाहिद की तरफ देखा, जो सोफे पर सिर पकड़े बैठे थे और मुझसे बड़ी नरमी से कहा.
“चलिये भी, जरा-सी देर की बात है.”
“मगर जमानत?” मैंने नरम होकर कहा, अपने मूर्खतापूर्ण मज़ाक़ पर शर्मिन्दा हुई.
“मैं दूँगा.” मोहसिन बोले.
“मगर मेरी बच्ची भूखी है, उसकी आया बिल्कुल नयी है और एकदम छोटी है.”
“आप बच्ची को दूध पिला दीजिए.” इंस्पेक्टर साहब बोले.
“तो आप अन्दर बैठिये.” मोहसिन ने पुलिसवालों को बैठाया. इंस्पेक्टर साहब शाहिद के फैन निकले. और ऐसी मीठी-मीठी बातें कीं कि उनका भी मूड ठीक होने लगा.
(जारी)

© अनन्या सिंह
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पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 46.

ज़रदारी ने अपना आधे से अधिक विवाहित जीवन जेल में ही बिताया। अपने जीवन के दस साल और चार महीने वह जेल में रहे। बेनज़ीर के समय तो कुछ छूट भी थी, बेनज़ीर के हटने के बाद तो वहाँ वाकई जेल का ही माहौल था। उन्हें कुछ लोग बलि का बकरा भी कहते रहे, मगर वह क्या थे, यह अपने-आप में रहस्य है। वह इस परिवार में क्या सोच कर आए थे? क्या मंशा थी? यह रहस्य कुछ खोजी लोगों के लिए एक मकसद बन गया। 

हामिद मीर नामक एक पत्रकार बड़े मशहूर हुए थे, जब उन्होंने ओसामा बिन लादेन का साक्षात्कार लिया था। वह पाकिस्तान के ‘तहलका’ पत्रकार कहे जा सकते हैं, जो पहले स्टिंग और पोल-खोल के उस्ताद थे। यह और बात है कि बाद के वर्षों में उनकी ही पोल खुलने लगी।

बेनज़ीर के सरकार में वह छुप-छुप कर कुछ जाँच करने में लगे थे। उन्हें मालूम पड़ा कि पाकिस्तान की जल सेना कुछ पनडुब्बियाँ खरीद रही है। यह डील फ्रांस के साथ हो रही है, जिसमें इंग्लैंड ने भी अपनी बाज़ी लगा रखी है। उन्होंने भारतीय अख़बारों में बोफ़ोर्स डील के विषय में पढ़ रखा था, तो शक हुआ कि यहाँ भी कुछ ‘किक बैक’ दिए जा रहे होंगे। फ्रांस में उस वक्त विदेशी डील के लिए इस तरह की रिश्वत देना वैध भी था। वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष फ्रांको मित्राँ स्वयं इस लेन-देन की देख-रेख कर रहे थे। 

हामिद मीर ने अख़बार में लिखा कि तीस मिलियन यूरो पाकिस्तानी राजनयिक और सेना अधिकारियों को मिले हैं। उन्हें बेनज़ीर भुट्टो ने तलब किया तो उन्होंने कहा, “मुझे तफ्तीश करने दें। मेरे पास ज़रदारी साहब के ख़िलाफ़ सबूत हैं।”

बेनज़ीर ने कहा, “आप बेशक तफ़्तीश करें, लेकिन यह इल्जाम ग़लत है।”

धीरे-धीरे ये रहस्य खुलते गए, और ज़रदारी पर शिकंजा कसता गया। मुर्तज़ा भुट्टो भी इस बात को उछालने लगे, तो उनकी हत्या ही कर दी गयी। इस हत्या में ज़रदारी का नाम खुल कर उभरा क्योंकि यह हत्या तो पुलिस ने ही की थी। वह किसके आदेश पर ऐसा करती? 

अगले ही महीने राष्ट्रपति ने बेनज़ीर से इस्तीफ़ा माँग लिया। ज़रदारी के साथ-साथ बेनज़ीर पर भी कचहरी बैठ गयी। यहाँ भी बलि का बकरा ज़रदारी ही बने, और उनको अब लंबे कारावास में रख दिया गया। बेनज़ीर स्वयं कारावास के डर से लंदन भाग गयीं।

नवाज़ शरीफ़ बड़े आराम से बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने। उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही पहले एक झंझट का निपटारा किया। 

उस समय पाकिस्तान में राष्ट्रपति के पास यह ताक़त थी कि जब मर्ज़ी प्रधानमंत्री को हटा दें। इसके कारण बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ़ पहले भी हटा दिए गए थे। इस बार नवाज़ शरीफ़ ने संविधान ही बदल दिया और ताक़त चुने गए प्रधानमंत्री के पास आ गयी। यह हालाँकि लोकतंत्र के लिए अच्छा हुआ, लेकिन सरकारी भ्रष्टाचार को खुली आज़ादी मिल गयी।

पाकिस्तान भी अब इन भ्रष्ट नेताओं से ऊब रहा था, मगर विकल्प ही क्या था? आखिर ईमानदार था कौन? 

उन्हीं दिनों एक भूतपूर्व क्रिकेट कप्तान अपनी माँ के नाम पर कैंसर अस्पताल बना रहे थे, जिसमें कुछ नेताओं द्वारा रोड़ा अटकाया जा रहा था। 

उनके एक दोस्त ने कहा, “इमरान! इस मुल्क़ को अब पूरी तरह बदलने की ज़रूरत है। सियासत में ईमान लाने की ज़रूरत है। तुम तो कप्तान रहे हो। क्या तुम अपनी पार्टी नहीं बना सकते?”

इमरान ख़ान ने पाकिस्तान क्रिकेट को तो वाकई नयी ऊँचाई दिलायी थी, और युवाओं की फौज बना कर विश्व कप दिलाया था। लेकिन, यह खेल का मैदान नहीं था, यह राजनीति थी।
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 45
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/45.html
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Sunday 30 May 2021

सरकार की छवि की चिंता के बजाय जनहित की चिंता क्यो नही करता है आरएसएस ? / विजय शंकर सिंह

महामारी की आपदा में मरते हुए लोग, रेत में दफन शवों के अंबार, रसातल की ओर जाती हुयी आर्थिकी जैसी तमाम कठिन चुनौतियों के बीच, इनका समाधान सोचने के बजाय, कोई अपनी छवि सुधार के बारे में सोच भी कैसे सकता है ? पर सोचा जा रहा है, और यही काम उनके और उनके समर्थकों की प्राथमिकता में है।

आरएसएस खुद को एक देशभक्त संगठन  कहता है। उनकी देशभक्ति पर संदेह का फिलहाल कोई कारण नही है। पर आरएसएस जितनी गम्भीरता से प्रधानमंत्री की गिरती छवि से उद्वेलित हो जाता है और छवि सुधार की जिम्मेदारी संभाल  लेता है, क्या कभी उतनी ही गम्भीरता से इसने, सरकार की हाहाकारी  कोरोना कुप्रबंधन जिसमे इलाज के अभाव और हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर की दुरवस्था से, लाखो लोग मर गए हैं और मर रहे हैं, पर कभी सवाल उठाया है ?

हर चुनाव में संघ, भाजपा के लिये जम कर ज़मीनी प्रचार करता है। टिकट वितरण से लेकर संकल्पपत्र तक बिना आरएसएस के, बीजेपी में कुछ भी तय नहीं होता है। संगठन और सरकार का कोई भी पद बिना संघकृपा के मिल ही नही सकता है। पर सरकार के विफलता की बात आती है तो संघ कोई जिम्मेदारी नहीं लेता है। क्यों ? क्या यह एक गैर जिम्मेदार आचरण नहीं है ? 

आरएसएस ने अनुशासन के नाम पर अपने कैडर की ऐसी प्रोग्रामिंग कर दी है वे सरकार से जुड़े किसी निर्णय की आलोचना तो दूर उस पर सवाल तक नहीं उठा सकते है। कैडर का यह बौद्धिक बंध्याकरण है। यह फासिज़्म हैं। यह सनातन परंपरा के सतत जिज्ञासु भाव और आलोचना की मूल प्रकृति के विपरीत है। जिस परम्परा में ईश्वर के अस्तित्व पर भी सवाल उठाए गए हो, उसी परम्परा के वाहक के तौर खुद को प्रतिष्ठित करने वाला यह संगठन, आज गवर्नेंस के कुप्रबंधन चुप्पी साधे हैं। गवर्नेंस पर सवाल उठाना एक संवैधानिक कर्तव्य है और दायित्व भी।

अनुशासन दासत्व नहीं है। यह बौद्धिक वंध्याकरण है। जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से उठती है। वह सही गलत दोनो हो सकती है। नेतृत्व का यह दायित्व है कि वह उस जिज्ञासा का समाधान करे। यह बात गवर्नेंस के लिये भी लागू है। जब लोग गवर्नेंस की अक्षमता से मर रहे हों तो सवाल उठाना धर्म है।

( विजय शंकर सिंह )

सावरकर – अंग्रेजों को लिखे माफ़ीनामे से भारत विभाजन और गांधी जी की हत्या तक / विजय शंकर सिंह



वीडी सावरकर का 28 मई 1883 को भागुर, नासिक में जन्म हुआ था। उन्हें वीर सावरकर के नाम से पुकारा जाता है। हालांकि उन्हें वीर कब कहा गया और किसने कहा इस पर भी विवाद है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम जिसका प्रारम्भ 1857 से माना जाय तो, 1947 तक, इसके नब्बे साल के इतिहास में भारत के किसी भी स्वाधीनता संग्राम सेनानी को वीर नहीं कहा गया है। कहा जाता है कि चित्रगुप्त नामक कूटनाम से लिखी गयी सावरकर की जीवनी में, यह शब्द प्रयुक्त हुआ, और चल निकला। पर अब यह भी कहा जा रहा है यह कूटनाम सावरकर का ही था। जो भी हो, उनके चाहने वाले उन्हें वीर कहते है।

सावरकर का मूल्यांकन करने के पूर्व हमे उनकी जीवनयात्रा को दो भागों में बांट कर देखना चाहिए। एक जन्म से अंडमान तक, दूसरे अंडमान से इनकी मृत्यु तक। यह दोनो ही कालखंड गज़ब के विरोधाभासों से भरे पड़े हैं। एक समय वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुल कर खड़े होते हैं तो दूसरे कालखंड में मिमियाते हुए अंग्रेजी राज की पेंशन पर जीते हैं तथा फूट डालो औऱ राज करो, की विभाजनकारी ब्रिटिश नीति का औजार बन जाते हैं। 

सावरकर 1910 में इंडिया हाउस के क्रांतिकारी गतिविधियों के सम्बंध में गिरफ्तार और आजीवन कारावास के दंड से दंडित हो 1911 में अंडमान की जेल में सज़ा काटने के लिये भेजे जा चुके थे। अंडमान कोई साधारण कारागार नहीं था। वह नाज़ी जर्मनी के कंसन्ट्रेशन कैम्प और साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान के यातनापूर्ण शिविरों जैसा तो नहीं था, पर यातनाएं वहां भी खूब दी जाती हैं। कहा जाता है, सावरकर यातना सह नहीं पाए, वह टूट गए और उन्होंने 6 माफीनामें भेजे। उसी में से, एक माफीनामा जो प्रख्यात इतिहासकार डॉ आरसी मजूमदार द्वारा लिखी गयी इतिहास की पुस्तक से है मैं उसे उद्धृत कर रहा हूँ, आप उसे पढ़ें । आरसी मजूमदार, वामपंथी इतिहासकार नहीं है, यहां इसे भी समझ लेना चाहिए। 
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सेवा में,
गृह सदस्य,
भारत सरकार
मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु प्रस्तुत करने की याचना करता हूं

1911 के जून में जब मैं यहां आया, मुझे अपनी पार्टी के दूसरे दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के ऑफिस ले जाया गया. वहां मुझे ‘डी’ यानी डेंजरस (ख़तरनाक) श्रेणी के क़ैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया; बाक़ी दोषियों को ‘डी’ श्रेणी में नहीं रखा गया. उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत कारावास में रखा गया. दूसरे क़ैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया. उस दौरान मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया, जबकि मेरे हाथों से ख़ून बह रहा था. उसके बाद मुझे तेल पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया जाने वाला सबसे कठिन काम है. हालांकि, इस दौरान मेरा आचरण असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद मुझे जेल से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को रिहा कर दिया गया. उस समय से अब तक मैंने अपना व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए रखने की कोशिश की है।

जब मैंने तरक्की के लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का क़ैदी हूं और इसलिए मुझे तरक्की नहीं दी जा सकती. जब हम में से किसी ने अच्छे भोजन या विशेष व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम सिर्फ़ साधारण क़ैदी हो, इसलिए तुम्हें वही भोजन खाना होगा, जो दूसरे क़ैदी खाते हैं.’ इस तरह श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें विशेष कष्ट देने के लिए हमें विशेष श्रेणी के क़ैदी की श्रेणी में रखा गया है.

जब मेरे मुक़दमे के अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया, तब मैंने भी रिहाई की दरख़्वास्त की. हालांकि, मुझ पर अधिक से अधिक तो या तीन बार मुक़दमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज़्यादा बार मुक़दमा चला है. मुझे उनके साथ इसलिए नहीं रिहा गया क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था. लेकिन जब आख़िरकार मेरी रिहाई का आदेश आया, तब संयोग से कुछ राजनीतिक क़ैदियों को जेल में लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया, क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था.

अगर मैं भारतीय जेल में रहता, तो इस समय तक मुझे काफ़ी राहत मिल गई होती. मैं अपने घर ज़्यादा पत्र भेज पाता; लोग मुझसे मिलने आते. अगर मैं साधारण और सरल क़ैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता. लेकिन, वर्तमान समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ पर पर लागू हो रहे हैं. जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है.

इसलिए हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे दूसरे क़ैदियों की तरह साधारण क़ैदी घोषित करके, इस विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की कृपा करेंगे? मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूं, जबकि मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक बंदी होने के नाते मैं किसी भी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था. मैं तो बस ऐसी रियायतों और इनायतों की मांग कर रहा हूं, जिसके हक़दार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं. मुझे स्थायी तौर पर जेल में बंद रखने की वर्तमान योजना को देखते हुए मैं जीवन और आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद होता जा रहा हूं. मियादी क़ैदियों की स्थिति अलग है. लेकिन श्रीमान मेरी आंखों के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं. मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहां से जमा करूं, जबकि मैं उन रियायतों से भी वंचित हूं, जिसकी उम्मीद सबसे हिंसक क़ैदी भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कर सकता है?

या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए, क्योंकि मैं वहां (ए) सज़ा में छूट हासिल कर सकता हूं; (बी) वहां मैं हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा. जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों और नज़दीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा सुख है! (सी) सबसे बढ़कर मेरे पास भले क़ानूनी नहीं, मगर 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा. या अगर मुझे भारत नहीं भेजा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य क़ैदी की तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की इजाज़त दी जाए, 5 वर्ष के बाद मुलाक़ातों की इजाज़त दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं.

अगर मुझे ये रियायतें दी जाती हैं, तब मुझे सिर्फ़ एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ़ मेरी ग़लती का दोषी मान जाए, न कि दूसरों की ग़लती का. यह एक दयनीय स्थिति है कि मुझे इन सारी चीज़ों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इनसान का मौलिक अधिकार है! ऐसे समय में जब एक तरफ यहां क़रीब 20 राजनीतिक बंदी हैं, जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-क़ानून हैं, जो विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को न्यूनतम संभव स्तर तक महदूर करने वाले हैं; यह अवश्यंवभावी है कि इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी क़ानून को तोड़ता हुआ पाया जाए. अगर ऐसे सारे कृत्यों के लिए सारे दोषियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए, तो बाहर निकलने की कोई भी उम्मीद मुझे नज़र नहीं आती.

अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें.

भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.

इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है.

जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.

इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है.

जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.

वीडी सावरकर
(स्रोत: आरसी मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)
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यह याचिका 1913 में सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार को भेजी गयी थी। सावरकर इन्ही माफीनामे पर 1921 में जेल से रिहा किये गए थे।

सावरकर, टूटे क्यों ? ब्रिटिश राज की निर्दयतापूर्वक की जा रही यातनाओं से पीड़ित हो कर? या कोई राजनीतिक लाभ की उम्मीद से? जो भी कारण हो, पर सावरकर के दिल मे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति विरोध का जो भाव अंडमान के पहले था वह अब बदल गया था। राज विद्रोही से वे राज भक्त बन चुके थे। उन्हें अंग्रेज 60 रुपया मासिक पेंशन भी देते थे। 

वर्ष 1921 में जेल से छूटने के बाद वे आज़ादी के संघर्ष से अलग हट गए और लंबे समय तक शांत रहने के बाद वे 1937 ई में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बनते हैं। 1935 से 1939 तक का काल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में, बेहद तेज़ घटनाओं से भरा रहा है। कांग्रेस की सरकारों ने 1939 के विश्वयुद्ध के बाद विरोध स्वरूप त्यागपत्र दे दिया था। अंग्रेज़ों को भारतीय जनता का साथ चाहिए था, तो कांग्रेस के हट जाने से जो शून्य बना, उसे जिन्ना के मुस्लिम लीग और सावरकर की हिन्दू महासभा ने भर दिया। ये दोनों ही हमखयाल नेता अब साथ साथ थे। यहां भी एक विरोधाभास देखिये। दोनो अपने अपने धर्मो की कट्टरता के साथ थे, धर्म पर आधारित राज्य चाहते थे, साथ साथ बंटवारे की भूमिका भी वे दोनों जाने अनजाने, चाहे अनचाहे, तैयार भी कर रहे थे, एक दूसरे के धुर विरोधी भी दिख सकते हैं, पर दोनो अंग्रेजों के खासमखास और बगलगीर भी बने रहे ! अंग्रेज़ो के साथ आ गए थे। सावरकर, 1937 से 1943 तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे और इसी कालखंड में एमए जिन्ना, मुस्लिम लीग के सर्वेसर्वा थे ही। 

1937 में हिंदू महासभा का अध्यक्ष बनते ही सावरकर ने यह विचार उछाल दिया कि हिन्दू एक राष्ट्र है और हिन्दू महासभा हिन्दू राष्ट्र के लिये प्रतिबद्ध है। उधर पाकिस्तान की मांग भी उठी। धर्म ही राष्ट्र है के एक नए सिद्धांत का जन्म हुआ जिसके प्रतिपादक सावरकर भी बने। जिन्ना से सावरकर का कोई विरोध नहीं था। जिन्ना के बारे में जो विचार सावरकर का था, वह 1937 के ऐसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व के प्रस्ताव में मिलता है।

ऐसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व 1937 के हिन्दू महासभा के सम्मेलन, जिसमे सावरकर अध्यक्ष बने थे में द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया था। इसके तीन साल बाद 1940 में, मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एमए जिन्ना ने धर्म के नाम पर मुसलमानों के लिये एक नए राष्ट्र की मांग कर के बंटवारे का संकेत दे दिया। यह भारतीय इतिहास का पहला अधिकृत धार्मिक ध्रुवीकरण था। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, सावरकर की थी, और पाकिस्तान की, जिन्ना की और विडंबना यह देखिये ब्रिटिश सरकार के दोनों ही नेता विश्वासपात्र थे और आज़ादी की लड़ाई से तब न जिन्ना का सरोकार था, न सावरकर का। 

जिन्ना के बारे में सावरकर क्या कहते हैं, अब इसे पढिये, 
” I have no quarrel with Mr Jinna’s two nation theory. We Hindus are a nation by ourselves and it is a historical fact that Hindus and Muslims are two nation’s. ” 
( मेरा मिस्टर जिन्ना से कोई झगड़ा नहीं है। हम हिन्दू अपने आप मे ही स्वतः एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही दो राष्ट्र हैं)

जिन्ना की जिन कारणों से निंदा और आलोचना की जाती है, उन्ही कारणों के होते हुये, सावरकर कैसे एक माहनायक और वीर कहे जा सकते हैं? यह सवाल मन मे उठे तो उत्तर खुद ही ढूंढियेगा। पर एक इतिहास के विद्यार्थी के रूप में।

1944 – 45 के बाद जब कांग्रेस के बड़े नेता जेलों से छोड़ दिये गये, तो अंग्रेज़ों ने आज़ादी के बारे में सारी औपचारिक बातचीत कांग्रेस से करनी शुरू कर दी, और तब यह त्रिपक्षीय वार्ता का क्रम बना। अंग्रेज़, कांग्रेस और मुस्लिम लीग। सावरकर यह चाहते थे कि बात अंग्रेज़ों, मुस्लिम लीग और, कांग्रेस के बजाय हिन्दू महासभा से हो। पर गांधी और कांग्रेस का भारतीय जनता पर जो जादुई प्रभाव था, उसकी तुलना में सावरकर कहीं ठहरते ही नहीं थे। गांधी, से सावरकर की नाराजगी का यही कारण था, जो बाद में उनकी हत्या का भी कारण बना। जिन्ना तो 'कटा फटा कीड़ों खाया' पाकिस्तान पा गये पर सावरकर अपने लक्ष्य को पाने में विफल रहे।

गांधी और कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष भारत चाहा था, और वह मिला भी, पर इसके कारण गांधी की हत्या हो जाती है। सावरकर का नाम भी उस हत्या की साज़िश में आता है, पर अदालत से उन्हें सन्देह का लाभ मिलता है और वह बरी हो जाते हैं। 1937 से 47 तक का भारतीय इतिहास, विडंबनाओं, आश्चर्यजनक विरोधाभासों, और महानतम भारतीय नेताओ की कुछ विफलताओं से भरा पड़ा है। यह भी एक विडंबना है कि पूर्णतः आस्थावान और धार्मिक गांधी धर्म निरपेक्ष भारत चाहते थे और जिन्ना जो किसी भी दृष्टिकोण से अपने मजहब के पाबंद नहीं थे, वे एक धर्म आधारित थियोक्रेटिक राज्य के पक्षधर थे। ऐसे ही अनसुलझे और विचित्र संयोगों को नियति कहा जा सकता है।

30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की। गोडसे पहले आरएसएस में था, फिर हिन्दू महासभा में गया। गांधी जी की हत्या पर, लगभग सभी महत्वपूर्ण दस्तावेजों को समेटते हुए एक वृहदाकार पुस्तक लिखी है, तुषार गांधी ने। उसका नाम है,  Let Us Kill Gandhi, लेट अस किल गांधी है। 1000 पृष्टों की यह महाकाय पुस्तक ह्त्या के षडयंत्रो, हत्या, मुक़दमे की विवेचना और इसके ट्रायल के बारे में दस्तावेजों सहित सभी बिन्दुओं पर विचार करती है। हाल ही में इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय की बहुचर्चित किताब, 'उसने गांधी को क्यो मारा' आयी है। यह अब तक की इस विषय पर सबसे अच्छी पुस्तक मुझे लगी। यह किताब सबको पढ़नी चाहिए। सावरकर गांधी हत्याकांड के षडयंत्र में फंसे थे। पर अदालत से वह बरी हो गये। उनके हिन्दू राष्ट्र की मांग को, कभी भी  व्यापक समर्थन, न तो आज़ादी के पहले मिला और न बाद में। सावरकर धीरे धीरे नेपथ्य में चलते गये और 26 फरवरी, 1966 में अन्न जल त्याग कर उन्होंने संथारा कर प्राण त्याग दिया।

लेकिन, सावरकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1857 के विप्लव को एक अलग दृष्टिकोण से देखा। अंग्रेज़ उस विप्लव को sepoy mutiny, सिपाही विद्रोह कहते थे, पर सावरकर ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम कह कर देश के स्वाधीन होने की दबी हुई इच्छा को स्वर दे दिया। 1911 में गिरफ्तार जेल जाने के पूर्व आज़ादी के लिये वह पूर्णतः समर्पित थे। पर 1911 से 21 तक के बदलाव ने उनकी दिशा और दशा दोनों ही बदल दी। सावरकर, स्वतंत्रता सेनानी भी थे। जेल गए, जुल्म सहा, माफी मांगी, पेंशन पाए, जिन्ना के हमखयाल बने, गांधी हत्या में नाम आया, और गुमनामी में मर गए। प्रतीक की तलाश में संघ ने उन्हें धो पोंछ के निकाला और फिर आगा पीछा सब खंगाला जाने लगा। इतिहास की बातें जब उभरती हैं तो दूर तलक जाती हैं।

सावरकर के जीवन पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण के साथ साथ उनके विचार परिवर्तन का मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी किया जाना चाहिए। कैसे एक नास्तिक, जिसे धर्म और ईश्वर पर कभी यकीन नहीं रहता है, अचानक एक ऐसे हिंदुत्व के लिये ज़िद पकड़ लेता है जो, सनातन परंपरा के प्रतिकूल होता है ? सावरकर और जिन्ना का राष्ट्रवाद, धर्म आधारित द्विराष्ट्रवाद था जो बंटवारे, धार्मिक उन्माद, लाखो की हत्या और जलावतनी का कारण बना तथा उसका अंत भी त्रासद हुआ। उनका राष्ट्रवाद सनातन परंपरा, राष्ट्रीय आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों के विपरीत घृणा और श्रेष्ठतावाद पर आधारित था। इतिहास, निर्मम होता है। वह सब कुछ दिखाता औऱ सीख भी देता है, बशर्ते हम उसे देखना और उससे सीखना चाहें तो। 

( विजय शंकर सिंह )

किताब - कागज़ी है पैरहन - इस्मत चुगताई

'नक्श फरियादी है, किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का  
कागज़ी है पैरहन , हर पैकर-ए-तस्वीर का..'

इस्मत आपा से हिन्दी और उर्दू  दोनों बराबरी से मोहब्बत करते हैं।उनकी कहानियां बख्तरबंद रूढ़ियों पर गहरी चोट पहुँचाती हैं।अपनी पैनी नज़र से परिवेश को टटोल उसे हूबहु पेश करने में उन्हें महारत हासिल थी। दिक्कत तलब बात बस इतनी थी कि सच्चाई का रुख हम सख्त नापसन्द करते हैं। ख़ुद के गिरेबां में देखने के बजाय हम दूसरों पर तोहमत लगाते हैं। इस्मत चुगताई पर भी तमाम तोहमतें लगीं। लिहाफ़ कहानी के लिए उन पर बकायदा मुकदमा हुआ , जिसका किस्सा जग जाहिर है। उनकी बेबाकी की तमाम नजीरें हमारे पास हैं। उनमें से एक 'इस्मत आपा' में दर्ज है :

"हम इतने सारे बच्चे थे कि हमारी मां को हमारी सूरत से कै आती थी । एक के बाद एक हम उनकी कोख़ को रौंदते-कुचलते चले आये थे । उलटियां और दर्द सह-सहकर वह हमें एक सज़ा से ज़्यादा अहमियत नहीं देती थीं।कमउम्री में ही फैलकर चबूतरा हो गयी थीं। पैंतीस बरस की उम्र में वह नानी भी बन गयीं और सज़ा-दर-सज़ा झेलने लगीं। हम बच्चे नौकरों के रहमो-करम पर पलते थे और उनके हिले-मिले हुए थे।" 
 
उनका ये बयान जड़ जमाई रूढ़ियों से पर्दा उठाता है। सच को  बेरहमी के साथ  चुटीले अंदाज में कहना उनकी खासियत थी। इस अंदाज से बात कहने में उन्होंने खुद को भी कभी बख्शा नहीं।

उनकी आत्मकथा  'काग़ज़ी है पैरहन' उनके परिवेश और समाज पर गहरी नज़र रखती है। एक पूरे समय और समाज को जिन्दा और बेबाक तरीके से बयान करना इसे ख़ास बनाता है। इसके जरिये उनकी  शख्सियत को जानना बेहद दिलचस्प है। इसे पढ़ते हुए आप सकून की आगोश में रौशन ख़्याली से तर-बतर होते रहते हैं। बेलौस लिखी गई ये आत्मकथा खुदमुख्तारी का परचम है।

© अनन्या सिंह
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पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 45.


      ( फ़ातिमा भुट्टो के ‘फादर्स डे’ ट्वीट से )

“जज साहब! आपने जब मेरी सजा का ऐलान किया था, आठ लोगों ने आग में जल कर अपनी जान दे दी। यूँ किसी के लिए कोई अपनी उंगली तक न जलाता। मुझे अपनी मौत की फ़िक्र नहीं, मुझे तो यह फ़िक्र है कि मेरी मौत के बाद इस मुल्क का मंजर क्या होगा!”
- ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो अपील कोर्ट में 

मुर्तज़ा और बेनज़ीर में लड़ाई अब यह थी कि असली वारिस कौन। एक ने राजनैतिक लड़ाई लड़ कर उनकी जगह पायी थी, तो दूसरे ने उन्हीं की आज्ञानुसार सिंधियों की तरह खून का बदला खून से लिया था। एक दशक से ऊपर पाकिस्तान से बाहर रह कर जब मुर्तज़ा ने अपने पिता की क़ब्र पर लौटना चाहा, तो उन्हें जेल से छोड़ा नहीं गया। उनके समर्थक उनके पैतृक लरकाना आवास पर जमा हो गए, और उनकी माँ नुसरत भुट्टो ने वहाँ से मार्च कर कब्र पर जाना तय किया।

लेकिन, बेनज़ीर भुट्टो अपने दल-बल के साथ पहले ही कब्र पर पहुँच गयी, जहाँ एक मुशायरे का आयोजन था। उनकी पुलिस ने मुर्तज़ा समर्थकों और नुसरत भुट्टो को कब्र तक पहुँचने ही नहीं दिया। झड़प हो गयी और पुलिस फ़ायरिंग की एक गोली नुसरत भुट्टो के साथ खड़े व्यक्ति को लगी। अब इस परिवार की लड़ाई वाकई खूनी हो चुकी थी।

पाकिस्तान पुलिस का आरोप था कि मुर्तज़ा भारतीय जासूस हैं और रॉ के एजेंट हैं। यह बात ठीक थी कि उन्होंने रॉ से सहयोग लिया था, और दिल्ली में रहे थे। लेकिन एजेंट वाली बात संभवत: ठीक नहीं थी।

मुर्तज़ा के मन में अपनी बहन के लिए नफ़रत नहीं थी। वह उनके पति से नफ़रत करते थे। यह ज़रदारी और भुट्टो परिवार की कुछ हद तक ख़ानदानी रंजिश भी थी। आसिफ़ के पिता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के धुर-विरोधी रहे थे। जेल से छूटने के बाद मुर्तज़ा ने अपने कराची आवास के शौचालय में आसिफ़ की तस्वीर लगवायी, और मेहमानों से कहते कि एक बार शौचालय ज़रूर जाएँ।

आसिफ़ तक भी यह खबर थी। मुर्तज़ा का पोस्टर लिए उनके तीन समर्थकों को दिन-दहाड़े गोली मार दी गयी। 1996 के मई में पहली बार वर्षों बाद बेनज़ीर और मुर्तज़ा मिले। यह एक भाई-बहन की नहीं, बल्कि दो दलों के नेताओं की मीटिंग थी। जो भी हो, यह मीटिंग सफल नहीं रही। मुर्तज़ा बेनज़ीर के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने और उन्हें हराने पर आमादा थे। 

उसी वर्ष सितंबर के महीने में मुर्तज़ा इस्लामाबाद से कराची जा रहे थे। इत्तफ़ाक़न उसी विमान पर आसिफ़ अली ज़रदारी भी सफर कर रहे थे। मुर्तज़ा के समर्थक उन्हें पूरे रास्ते घूरते रहे। ज़रदारी घबरा गए। वह कराची उतरते ही अपनी सरकारी गाड़ी में भागे, तो उनके पीछे मुर्तज़ा के गुर्गों ने गाड़ी दौड़ा दी और बंदूक उनकी गाड़ी के ऊपर तान दी। ज़रदारी जैसे-तैसे बाल-बाल बचे।

पुलिस ने उसी दिन हमलावर अली मोहम्मद सोनारा को ढूँढ निकाला, और संभवतः गोली मार दी। मुर्तज़ा अपने चेलों के साथ राइफ़ल हाथ में लिए कराची पुलिस थाने पहुँच गए, और पूरे थाने की तलाशी ली। यह भी हद ही था कि एक नेता पुलिस थाने की तलाशी ले रहा है। वह धमकी देकर गए कि अगर उनका आदमी जिंदा नहीं मिला, तो सबको उड़ा देंगे।

अगले ही दिन कराची में तीन स्थानों पर ब्लास्ट हुए, जिसकी ज़िम्मेदारी मुर्तज़ा पर थोपी गयी। आखिर बेनज़ीर ने उनके आवास की तलाशी के ऑर्डर दिए। मुर्तज़ा ने अपने घर पर पत्रकारों को बुला लिया, और कहा कि वह सीधे जनता को तलाशी लेने का आमंत्रण देते हैं, इस दुश्मन पुलिस को अंदर घुसने नहीं देंगे। यह उनका आख़िरी प्रेस कॉन्फ़्रेंस था। 

बीस सितम्बर, 1996 को जब वह अपने घर लौट रहे थे तो उनके आवास के कुछ सौ गज पहले पुलिस ने बैरिकेड लगा रखे थे। उनकी गाड़ी रोकी गयी, और दनादन गोलियाँ दाग दी गयी। गोलियों की आवाज़ सुन कर माँ नुसरत और बेटी फ़ातिमा बाहर की ओर भागी, तो उन्हें रोक दिया गया कि कुछ पुलिस कारवाई चल रही है। 

उन्हें यह नहीं बताया गया कि यह कारवाई मुर्तज़ा भुट्टो पर ही हो रही है। अगले दिन बेनज़ीर भुट्टो ने अश्रुपूरित नयनों से अपने भाई को विदाई दी। वर्षों बाद पूरा भुट्टो परिवार एक साथ शोक मना रहा था। वहाँ तीन कब्र एक साथ लगे थे- ज़ुल्फ़िकार और उनके दो बेटों के।

मुर्तज़ा की चौदह वर्ष की बेटी फ़ातिमा की आँखें आसिफ़ अली ज़रदारी पर थी। उन्हें यक़ीन था कि इसी व्यक्ति ने उनके पिता की जान ली, और यही औरों की भी लेगा। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 44.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/44.html
#vss 

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 44


“आसिफ़ (ज़रदारी) शायद हमारे परिवार में इसलिए आया ताकि वह भुट्टो परिवार को हमेशा के लिए खत्म कर सके”
- फ़ातिमा भुट्टो, लेखिका और मुर्तज़ा भुट्टो की बेटी

एक मुसलमान देश में महिला शासक उतनी ही अजूबी बात है, जितनी एक ईसाई देश में। पहली चुनी गयी महिला राष्ट्राध्यक्ष किसी पश्चिमी देश में नहीं हुई, बल्कि श्रीलंका में सीरीमावो भंडारनायके हुई। अमरीका में आज तक एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं हुई, जबकि इंग्लैंड में बेनज़ीर से पहले सिर्फ़ एक मार्ग्रेट थैचर हुई। पूरी दुनिया को समानतावाद का पाठ पढ़ाने वाले सोवियत में एक भी नहीं। उनसे कहीं अधिक तो भारतीय उपमहाद्वीप में महिलाओं ने शासन किया, जिनमें दो मुसलमान बहुल देश हैं।

मगर बेनज़ीर भुट्टो जैसों के लिए यह आसान नहीं था। मसलन उनके अपने भाई मुर्तज़ा भुट्टो भी तो गद्दी पर बैठ सकते थे। उनके पति बैठ सकते थे। पूरे संसद में और पुरुष सेना अफ़सरों के बीच एक अकेली युवती के लिए बैठ कर आदेश देना कितना कठिन होगा! उन पर हत्याओं के प्रयास भी होते रहे। मगर वह डटी रही। बेनज़ीर के साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार कहते हैं कि उनसे बात करते वक्त लगता कि किसी मृदुभाषी तानाशाह से बात हो रही है। वह हर बात यूँ कहती जैसे कि यही अंतिम सत्य है, इसमें कोई बदलाव संभव नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की चाल-ढाल बाक़ायदा आईने में देख कर नकल उतारी। मैंने खुद विडियो मिला कर देखे। यूँ लगता है कि बेनज़ीर की भाषा, चाल-ढाल, और सार्वजनिक व्यवहार इंदिरा गांधी का एक अपडेटेड वर्जन है।

मुर्तज़ा उस वक्त सीरिया में थे, जब बेनज़ीर पहली बार सत्ता में आयी। 1993 के चुनाव से पहले उन्होंने घोषणा की वह चुनाव लड़ेंगे। बेनज़ीर के ख़िलाफ़ लड़ेंगे। अटकलें थी कि उन्होंने नवाज़ शरीफ़ से साँठ-गाँठ कर ली है। बेनज़ीर की माँ नुसरत भुट्टो अपने बेटे मुर्तज़ा की समर्थक थी। उन्होंने खुद घूम-घूम कर प्रचार किया, जबकि मुर्तज़ा सीरिया में ही रहे। चुनाव में बेनज़ीर की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को फिर से पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका, बल्कि पहले से कम सीटें मिली। नवाज़ शरीफ़ ने कुछ बेहतर सीटें जीती, लेकिन फिर भी सबसे बड़ी पार्टी बेनज़ीर की ही थी। 

इस भाई-बहन के झगड़े में फ़ायदा नवाज़ शरीफ़ को हो गया। हालाँकि मुर्तज़ा सिर्फ अपनी पैतृक सीट लरकाना से ही चुनाव जीत सके, वह पाकिस्तान लौट कर आए। नयी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो ने उनको हवाई अड्डे से ही गिरफ़्तार कराया, और सदियों से घिसा-पिटा वाक्य दोहराया, “क़ानून की नज़र में सब बराबर हैं”। 

मुर्तज़ा पाकिस्तानी कानून के हिसाब से उग्रवादी ही थे, तो यह फ़ैसला ग़लत नहीं था। बेनज़ीर उनसे कभी जेल में मिलने भी नहीं गयी। अब वह प्रधानमंत्री थी, और मुर्तज़ा एक आम अपराधी। कैसे मिलती? लेकिन, जेल की सजा काट रहे उनके पति आसिफ़ अली ज़रदारी तो मिलते थे। फिर भाई मुर्तज़ा क्यों नहीं?

ज़रदारी के पास कहीं अधिक ताक़त थी। वह नाम मात्र ही कारावास में थे। पूरा सिस्टम उनकी गिरफ़्त में था। एक अपनी पुलिस टीम थी, जो उनके इशारों पर चलती। बेनज़ीर ने ज़रदारी की मदद से अपने भाई के सहयोगियों को रास्ते से हटाना शुरू कर दिया। वे भी अधिकतर गुंडे-मवाली थे, तो सजा देना नैतिक भी हो सकता है। लेकिन, क्या अपने भाई को गोलियों से बींधने का जिम्मा भी बेनज़ीर को ही लेना था?
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 43. 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/43.html
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Saturday 29 May 2021

कोहिनूर - समृद्धि नहीं, शासकों के नाश का कारण बना / विजय शंकर सिंह


पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ का एक ट्वीट चर्चा में है जिंसमे वे नरेंद्र मोदी के लिये कह रहे हैं कि,
" यह कोहिनूर हीरा भारत को 500 वर्षों बाद मिला है खोने मत देना।"
यह ट्वीट 26 मई 21 को 11.01 बजे का है और इसे पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया है। यह राष्ट्रवादी दीपक रस्तोगी के ट्विटर अकाउंट पर है। मैंने वही से इसे रीट्वीट भी किया है।

पर हिंदुत्व की बात करने वाले, यह महानुभाव यह भूल गए कि, इन्ही 500 वर्षों के काल खंड में से पिछले 200 वर्षों में ही, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानन्द,   स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंदो, प्रभुपाद, जैसे महान लोग भी जन्मे और जिन्होंने सनातन परंपरा को अपने अध्ययन, दर्शन और विचारों से समृद्ध किया। पर हिंदुत्व ने प्रतीक खोजो अभियान में या तो सावरकर को चुना गया या आज इन महानुभाव को। प्रतीकों का ऐसा दारिद्र्य, न भूतो न भविष्यति ! जिस परंपरा में झूठ बोलने के कारण ब्रह्मा तक को अपूज्य घोषित कर दिया गया हो, वहां यही दुर्गुण मान्यता पा रहा है।

अब बात कोहिनूर की। कहते हैं यह एक  अशुभ रत्न है। जिस के भी पास रहा, उसका नाश प्रारंभ हो गया। बाबरनामा, तुर्की में लिखी गयी बाबर की प्रसिद्ध आत्मकथा है और उसका मूल नाम, तुजुक ए बाबरी है, में यह विवरण मिलता है कि "हुमायूँ ने जब एक लकड़ी की छोटी पेटी मे मखमल से ढंके  हुए एक दुर्लभ और बेशकीमती पत्थर को बाबर के सामने पेश किया तो अचानक प्रकाश छा गया । प्रकाश बिखेरते हुए उस अद्भुत रत्न को देखते ही बाबर के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा माशा अल्लाह , कोह ए नूर !" कोह का अर्थ पहाड़ और नूर का अर्थ प्रकाश । इस प्रकार दुनिया के सबसे मूल्यवान हीरे का नामकरण हुआ । यह घटना 1529 की है । कहते हैं, यह हीरा आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के गोलकुंडा के प्रसिद्ध खान से कभी निकाला गया था। गोलकुंडा की खाने रत्नगर्भा है। दुनिया में हीरों के लिए गोलकुंडा की खाने प्रसिद्ध हैं ।

आज यही हीरा सम्राटों के ख़ज़ाने का दौरा करते करते, अनेक सम्राटों को अतीत में दफ़न करते हुए इंग्लैंड की महारानी या यूँ कह लीजिये कि ब्रिटेन की संपत्ति है । भारत और पाकिस्तान दोनों ने ही, इसके स्वामित्व पर एक बार अपना अपना दावा भी किया है । भारत का कहना है कि वह हीरा पंजाब के राजा से अंग्रेजों ने लिया था अतः उसका हक़ बनता है और पाकिस्तान का कहना है पंजाब की राजधानी लाहौर थी, और लाहौर अब पाकिस्तान में है अतः उसका हक़ बनता है । दिल्ली और लाहौर दोनों स्थानों की अदालतों में मुक़दमा चल रहा है । अंग्रेज़ अभी चुप हैं । एक बार ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने, जो पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, बिटिश प्रधान मंत्री से, कोहिनूर वापस लौटाने के लिए कहा था । पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने यह अनुरोध विनम्रता से अस्वीकार कर दिया और यह कहा कि वह रानी की संपत्ति है। आगे क्या होता है , यह देखना दिलचस्प होगा ।

नाम इस का भले ही कोह ए नूर , प्रसिद्ध हुआ हो, पर इस हीरे का इतिहास बहुत प्राचीन है । एक मान्यता के अनुसार यह हीरा , समुद्र से निकली हुयी कौस्तुभ मणि है । एक अन्य मान्यता के अनुसार यह महाभारत कालीन स्यमन्तक मणि है, जिस से कृष्ण को झूठा ही लांछित होना पड़ा। स्यमन्तक मणि के कारण कृष्ण से बलराम रूठ गए थे और वे द्वारिका छोड़ कर काशी चले गए। कृष्ण ने जाम्बवन्त नामक रीछ से यह मणि ली और जाम्बवंत की पुत्री जाम्बवन्ती कृष्ण की पत्नी बनी । पर यह हीरा वही स्यमन्तक मणि है या नहीं इस पर प्रमाणिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है ।

ऐसी मान्यता है कि यह हीरा अभिशप्त है और यह मान्यता अब से नहीं 13 वीं शताब्दी से है। बाबरनामा के अनुसार 1294 के आस-पास यह हीरा ग्वालियर के किसी राजा के पास था हालांकि तब इसका नाम कोहिनूर नहीं था। पर इस हीरे को पहचान 1306 में मिली जब इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा की जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा वो इस संसार पर राज करेगा पर इस के बाद  उसका दुर्भाग्य भी शुरू हो जाएगा। हालांकि तब इस बात को तब एक वहम कह कर खारिज कर दिया गया था पर यदि हम तब से लेकर अब तक का इतिहास देखे तो कह सकते है कि यह बात काफी हद तक सही है।

कई साम्राज्यों ने इस हीरे को अपने पास रखा लेकिन जिसने भी रखा वह कभी भी खुशहाल नहीं रह पाया।  14 वी शताब्दी की शुरुआत में यह हीरा काकतीय वंश के पास आया और इसी के साथ 1083 ई. से शासन कर रहे काकतीय वंश के बुरे दिन शुरू हो गए । फिर तुग़लक़ के पास आया और वह भी समाप्त हुए । बाबर ने हुमायूँ को ही यह उपहार लौटा दिया । 1529 ई में उसे यह हीरा मिला और 1530 ई में हुमायूँ पहले बीमार पड़ा, फिर बाबर ने, कहा जाता है उसकी बीमारी ली और वह बीमार पड़ा अंत मे मर ही गया । हुमायूँ , नाम से ज़रूरी भाग्यशाली था पर भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया । अफगानों से संघर्ष में वह शेरशाह सूरी से पराजित हुआ ।

अकबर ने छिन्न भिन्न हुए मुग़ल साम्राज्य को संगठित किया और अपने उदारवादी सोच तथा सुदृढ़ सैन्य बल की सहायता से मुग़ल साम्राज्य को बढ़ाया और स्थिर किया। साम्राज्य का विस्तार भी हुआ, सम्पन्नता भी लौटने लगीं और स्थायित्व भी आया। पर उसने कोहिनूर को नहीं छुआ । ऐसा उसने अभिषप्तता के कारण किया या कोई और बात थी, इस पर प्रमाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । जहांगीर भी कोहिनूर से दूर ही रहा । शाहजहाँ ने उसे अपने सिंहासन में जड़वाया और उसके बाद ही उसकी दुर्गति शुरू हो गयी । उसके बेटों में आपस में युद्ध हुआ और अंतिम समय उसे बंदी जीवन बिताना पड़ा । औरंगज़ेब जिसे विरासत में इतना बड़ा साम्राज्य मिला था, वह भी , जीवन भर , अपनी सनक और धर्मान्धता के कारण कभी राजपूतों से तो कभी जाटों से, कभी सिखों से, और तो कभी मराठों से लड़ता रहा । जब वह मरा तो मुग़ल साम्राज्य दरकने लगा था ।

1739 में ईरान का शाह, नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। इस तरह मुगल सल्तनत का पतन शुरू हो गया और उसने दिल्ली की ज़बरदस्त लूट की। साथ ही, दिल्ली में उसकी सेना ने ज़बरदस्त नरसंहार किया और, वह अपने साथ तख्ते ताउस और कोहिनूर सहित अनेक बेशकीमती रत्नो को ईरान  ले गया । आठ साल बाद ही, 1747 ई. में नादिरशाह की हत्या हो गयी और कोहिनूर हीरा अफ़गानिस्तान के शाह, अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया। कोहिनूर  उसकी मौत के बाद उनके वंशज शाह शुजा दुर्रानी के स्वामित्व में आया। पर कुछ समय बाद ही उसी के भाई,  मो.शाह ने शाह शुजा को गद्दी से बेदखल कर दिया । 1813  ई.  में, अफ़गानिस्तान के अपदस्त शांहशाह शाह शुजा कोहीनूर हीरे के साथ भाग कर लाहौर पहुंचा। उसने  कोहिनूर को पंजाब के राजा रंजीत सिंह को उपहार में दिया एवं इसके एवज में राजा रंजीत सिंह ने, शाह शुजा को अफ़गानिस्तान का राज-सिंहासन वापस दिलवाया। इस प्रकार कोहिनूर हीरा वापस भारत आ गया।

लेकिन कहानी यही खत्म नहीं होती है । कोहिनूर हीरा आने के  कुछ सालो बाद महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाती है और अंग्रेज सिख साम्राज्य को अपने अधीन कर लेते है। इसी के साथ यह हीरा ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा हो जाता है। कोहिनूर हीरे को ब्रिटेन ले जाकर महारानी विक्टोरिया को सौप दिया जाता है तथा उसके शापित होने की बात बताई जाती है। महारानी की समझ में यह बात आती तो है पर वह, इसे नजरअंदाज करती हैं और हीरे को अपने राजमुकुट में जड़वा के 1852 में स्वयं धारण कर लेती है और यह वसीयत भी करती है की इस ताज को सदैव महिला ही पहनेगी। यदि कोई पुरुष ब्रिटेन का राजा बनता है तो यह ताज उसकी जगह उसकी पत्नी पहनेगी।

लेकिन इतिहास की धारा देखें तो 1911 के दिल्ली दरबार में सम्राट जॉर्ज पंचम जब आये थे तो महारानी द्वारा यह ताज धारण किया गया था । उसी के बाद दो दो विश्वयुद्ध होते हैं, और ब्रिटिश राज जिसका सूरज कभी डूबता नहीं था, अब उनकी दहलीज पर ही डूबने लगा । ज्योतिषियों का कहना है कि, महारानी यानी एक महिला द्वारा धारण करने के बावजूद भी इसका असर ख़त्म नहीं हुआ और ब्रिटेन के साम्राज्य के अंत के लिए भी यही अशुभ रत्न ज़िम्मेदार है। ब्रिटेन 1850 तक आधे विश्व पर राज कर रहा था पर इसके बाद उसके अधीनस्थ देश एक एक करके स्वतंत्र होने लगे थे। साम्राज्य बिखरने लगा था।

कहा जाता है की खदान से निकला हीरा 793 कैरेट का था।  अलबत्ता 1852 से पहले तक यह 186 कैरेट का था। पर जब यह ब्रिटेन पहुंचा तो महारानी को यह पसंद नहीं आया इसलिए इसकी दुबारा कटिंग करवाई गई जिसके बाद यह 105.6 कैरेट का रह गया। कोहिनूर हीरा अपने पूरे इतिहास में अब तक एक बार भी नहीं बिका। यह या तो एक राजा द्वारा दूसरे राजा से जीता गया या फिर इनाम में दिया गया। इसलिए इसकी कीमत कभी नहीं लग पाई।  पर इसकी कीमत क्या हो सकती है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है की आज से 60 साल पूर्व हांगकांग में एक ग्राफ पिंक हीरा 46 मिलियन डॉलर में  बिका था जो की मात्र 24.78 कैरेट का था।  इस हिसाब से कोहिनूर की वर्तमान कीमत कई बिलियन डॉलर होगी।

सरकार का यह कथन कि यह पंजाब के राजा द्वारा अंग्रेजों को उपहार स्वरुप दिया गया था, सही नहीं है । अँगरेज़ ताक़तवर ने और पंजाब केसरी रणजीत सिंह के बाद सिख साम्राज्य को कब्ज़ा कर लिया और उनके वारिस दलीप सिंह को वहाँ की गद्दी सौंप दी । दलीप सिंह, को इंग्लैंड ले जाया गया और उनकी परवरिश ब्रिटिश रीति रिवाज़ से हुयी । जब सिख राज्य अधीनस्थ हो ही गया तो , यह उपहार भी एक प्रकार से हथियाया हुआ हुआ, न कि बराबरी के आधार पर सदाशयता से दिया हुआ । यह भी एक प्रकार की लूट ही है । वैसे भी कोहिनूर लाना इतना आसान नहीं है । पहले तो भारत पाक में ही तय नहीं हो पायेगा, यह किसका है । फिर अंतरराष्ट्रीय क़ानून और परम्पराओं की बंदिशें भी सामने आएँगी। फिर भी उस नायाब हीरे के स्वामित्व का लाभ कौन छोड़ना  चाहेगा ।


( विजय शंकर सिंह )
 

Friday 28 May 2021

अहो रूपम अहो ध्वनि / विजय शंकर सिंह


इन्ही 500 सालों में से पिछले 200 साल में ही, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानन्द,   स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंदो, प्रभुपाद, जैसे महान लोग भी जन्मे और जिन्होंने सनातन परंपरा को अपने अध्ययन, दर्शन और विचारों से समृद्ध किया। 

पर हिंदुत्व ने प्रतीक खोजो अभियान में या तो सावरकर को चुना या आज इन महानुभाव को। प्रतीकों का ऐसा दारिद्र्य, न भूतो न भविष्यति ! जिस परंपरा में झूठ बोलने के कारण ब्रह्मा तक को अपूज्य घोषित कर दिया गया हो, वहां यही दुर्गुण मान्यता पा रहा है। 

अब बात कोहिनूर की। कहते हैं यह एक  अशुभ रत्न है। जिस के भी पास रहा, उसका नाश प्रारंभ हो गया। 

अब क्रोनोलॉजी पढिये, 
● बाबर ने हुमायूं को दिया, बेचारा हुमांयू, नाम का ही भाग्यवान था पर अभागा निकला। दौड़ते भागते ही रहा। 
● शाहजहां ने, मुग़ल साम्राज्य के ऐश्वर्य के शिखर काल मे, बड़ी शान से कोहिनूर को धारण किया। उसे गद्दी छोड़नी पड़ी और जेल में ही वह मरा। 
● औरंगजेब के अंतिम समय मे ही मुग़ल साम्राज्य के बिखरने के संकेत मिलने लगे थे। 
● दिल्ली पर हमला और तीन दिनों के भयानक नरसंहार के बाद, नादिरशाह इसे लूट कर ईरान ले गया। वह भी उसके बाद पतनोन्मुख हो गया। 
● महाराजा रणजीत सिंह ईरान को हरा कर कोहिनूर वापस ले आये। उनके बाद सिख साम्राज्य का भी पराभव शुरू हो गया। 
● अंग्रेजों के पास यह कोहिनूर सिख साम्राज्य के बाद आया, कुछ सालों में उनका भी साम्राज्य बिखरने लगा। 

अब यह हीरा टावर ऑफ लंदन में रखा हुआ है। हीरा नायाब है, पर कहते हैं अशुभ है। 

( विजय शंकर सिंह )

येरुशलम - अल-अक़्सा भाग 5.


सन 624 में, मदीना में पैग़म्बर मुहम्मद ने किबला, यानि प्रार्थना का डायरेक्शन, जेरुसलम से मक्का की ओर किया.. और इसके ठीक आठ (8) साल बाद, 632 में मुहम्मद की मृत्यु हो गयी

तब तक मुहम्मद को मानने वालों की भीड़ बहुत बड़ी हो चुकी थी.. और काबा को किबला मानने के बाद इस्लाम की रीतियों और मान्यताओं में आये बदलाव को एक बड़ी भीड़ तो बताने और समझाने का मुहम्मद को बहुत कम वक़्त मिला.. किबला बदलने के साथ ही मुहम्मद के जीवन के आख़िरी कुछ साल युद्ध और सुलह में ही बीते.. अपने जीवन के अंत समय से सिर्फ़ दो (2) साल पहले, यानि सन 630 में, मुहम्मद और उनके अनुयायी मक्का पर कब्ज़ा कर पाए.. तब जा कर काबा के भीतर और उसके आसपास से सारे देवी देवताओं की मूर्तियां हटाई गयीं

तो 624 से लेकर 630, यानि पूरे छः (6) साल तक मुहम्मद और उनके अनुयायी मक्का के जिस काबा की तरफ़ मुहं कर के प्रार्थना कर रहे यह वो 360 मूर्तियों वाला मूर्तिपूजकों का एक मंदिर था.. और ये बात मदीना में उनके साथ रह रहे उनके अनुयायी जानते और समझते थे.. इसलिए आस्था की दरार उसी वक़्त से लोगों के भीतर घर करने लगी थी.. चूंकि मुहम्मद जब तक जिंदा थे तब तक अपने मानने वालों के लिए वो ही सब कुछ थे, इसलिए आस्था की ये खिचड़ी उनके जीते जी बहुत ठीक से उजागर नहीं हो पाई.. लोग विरोध में होते थे मगर मुहम्मद के सम्मान की वजह से कुछ कहते नहीं थे

मगर जैसे ही मुहम्मद इन दुनिया से गये, उनके मानने वालों के बीच जंग छिड़ गई.. ऐसा दुनिया में किसी अन्य धर्म प्रवर्तक के साथ नहीं हुआ है कि उसके जाने के तुरंत बाद उसके ही अनुयायी आस्था को लेकर आपस मे इस हद तक लड़ पड़ें.. इधर मुहम्मद का मृत शरीर उनके कमरे में रखा था और उधर उनके अनुयायी गुटों में बंट रहे थे.. कुछ थे जो उमर, अबु बक़र और उस्मान जैसों के साथ थे तो कुछ अली के पाले में थे.. कुछ सबको छोड़कर क़ुरआन पर टिके रहने का दावा कर रहे थे तो कुछ इस्लाम छोड़ के वापस अपने पुराने धर्म मे लौट रहे थे.. और ये सब तुरंत हुआ था.. कुछ ही घंटों के भीतर। 

लोग इसे राजनीति कहते हैं मगर ये राजनीति से कहीं ज़्यादा आस्था के बिखराव की कहानी थी.. और इस आस्था का बिखराव शुरू हुआ था मुहम्मद के किबला बदलने के साथ.. जेरुसलम को छोड़कर मक्का को आस्था का केंद्र बनाने के बाद। 

मैं मुहम्मद के बाद की पीढ़ियों की बात नहीं कर रहा.. मैं उनकी बात कर रहा हूँ जो मुहम्मद के साथ थे.. इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा और मुहम्मद के दोस्त उमर अपनी शिक्षा और आस्था को सर्वोपरि मानते थे.. इस्लाम के चौथे ख़लीफ़ा, मुहम्मद के चचेरे भाई और दामाद अली की शिक्षाओं और आस्था को उनके समर्थक सर्वोपरि मानते थे.. ऐसे ही अन्य लोग भी थे.. मुसलमानों की आस्था और प्रतीकों की मान्यताओं में इतना बड़ा अंतर था कि विरोधी विचारा वाले लोग एक दूसरे को उसी वक़्त से काफ़िर और मुशरिक कहके संबोधित करने लगे थे.. ये बिखराव बहुत पहले ही हो चुका था.. मगर अब चूंकि मुहम्मद नहीं थे इसलिए अब लोग खुलकर सामने आ गए थे। 

मुहम्मद ने अपने जीते जी अपने हिसाब से किबला बदल कर अपने अनुयायियों की आस्था को दूसरी तरफ़ मोड़ दिया था.. मगर जैसे कि मैंने पहले बताया, इस नई आस्था को लोगों में पोषित करने के लिए मुहम्मद को ज़्यादा वक़्त नहीं मिला.. किबला बदलने के बाद उनका ज़्यादातर समय युद्ध मे बीता और फिर मक्का पर कब्ज़ा हुवा और फिर उसके दो सालों बाद मुहम्मद इस दुनिया से चले गए। 

उनके जाने के बाद हज़रत अबू बक़र ने उनका उत्तराधिकारी बनकर ख़लीफ़ा की गद्दी संभाली.. और उसके बाद दूसरे ख़लीफ़ा उमर बने.. उमर, अबु बक़र, उस्मान जैसे लोग इस्लाम के उस पुराने रूप के कट्टर समर्थक थे जिसका प्रचार मुहम्मद मक्का प्रवास के दौरान करते थे.. जिसमें मूर्तिपूजा, मूर्तिपूजकों के कर्मकांड और उनकी मान्यताओं का घोर विरोध था.. जिसमें जेरुसलम को पहला किबला मानने की आस्था भी शामिल थी.. ये लोग यहूदी धर्म की मान्यताओं से ज़्यादा जुड़े हुवे लोग थे.. ज़्यादा कट्टर थे और तौरेत की सारी बातें हदीस के तौर पर इस्लाम मे ले आये थे। 

जबकि दूसरी तरफ़ अली को मानने वाले लोग थे.. अली जो कि स्वयं मुहम्मद के चचेरे भाई थे, और क़ुरैश क़बीले के वारिस.. ये मुहम्मद का क़बीला था जिसके हाथ में काबा का रख रखाव और उसके आसपास  के व्यापार का मालिकाना हक़ था.. अली , जिनके बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म काबा के भीतर हुआ था, वो काबा और अपने क़ुरैश क़बीले की परंपराओं के ज़्यादा क़रीब थे.. यहूदी मान्यताओं और यहूदी कट्टरता अली के स्वभाव में नहीं थी.. इसलिए किबला बदलने के बाद अली बाक़ी लोगों से कहीं ज़्यादा सहज थे आस्था के इस बदलाव को लेकर

आप इस फ़र्क़ को एकदम साफ़ अब देख सकते हैं.. दुनिया के सुन्नी और वहाबी इस्लाम को मानने वाले, जो कि उमर, अबूबकर और उस्मान ख़लीफ़ाओं को मानने वाले लोग हैं, उनकी रूढ़िवादी कट्टरता आप देखिए और वहीं अपने आसपास रह रहे अली को मानने वाले शिया, बोहरा और ऐसे लोगों को रूढ़िवादी कट्टरता देखिये..आपको ज़मीन आसमान का फ़र्क मिलेगा.. ये बात भी सच है कि वक़्त के साथ शिया बाहुल्य ईरान जैसे देशों के लोग भी सुन्नियों के प्रभाव से कट्टर होते चले गए और अब वो भी बहुत कट्टर होते हैं.. मगर शुरुवात में ऐसा नहीं था.. उनकी आस्था ज़्यादा नर्म और लचीली थी.. जैसी मक्का के मूर्तिपूजकों की थी.. और उमर, अबूबकर और उस्मान को मानने वालों की आस्थाएं ज़्यादा कट्टर थीं, जैसे यहूदियों की थीं। 
(क्रमशः)

© सिद्धार्थ ताबिश
#vss

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 43.


        ( दर्रा आदम खेल के बंदूक विक्रेता)

हर दिन पाकिस्तान में सात सौ लोग नशाखोरी जनित बीमारी से मर जाते हैं। हीरोइन नशे के व्यापार का केंद्र पाकिस्तान ही है, जहाँ से पूरी दुनिया में नशा पहुँचता है। पाकिस्तान में यह नशा अफ़ग़ानिस्तान से आता है, जहाँ दुनिया के पचहत्तर प्रतिशत अफ़ीम और हीरोइन का उत्पादन होता है। भारत में भी इसी रूट से अधिकांश नशा आता रहा है, जिसमें कृत्रिम रासायनिक नशा भी शामिल है। 

दर्रा आदम खेल और साखाकोट जैसी जगहों पर दुनिया के सबसे बड़े खुले हथियार बाज़ार हैं, जहाँ सड़क किनारे ए के 47 और कलास्निकोव राइफ़ल से लेकर एंटी-एयरक्राफ़्ट गन तक मिलते हैं। किसी लाइसेंस की ज़रूरत नहीं। बंदूक कंधे पर लीजिए और घर लाइए। पंजाब और सिंध में शादियों में उसी तरह फ़ायरिंग होती है, जैसे भारत के कुछ ख़ानदानी सामंत परिवारों में। खैबर-पख़्तूनवा और बलूच में तो यह संस्कृति का हिस्सा रहा है, और बच्चा-बच्चा बंदूक-गोलियों की समझ रखता है। मेरी मुलाक़ात ऐसे पाकिस्तानी व्यक्ति से हुई, जो नियमित हथियारों पर एक अंग्रेज़ी पत्रिका मंगाते हैं। हालांकि यह प्रवृत्ति स्कैंडिनैविया में भी कई घरों में है, कि हथियारों और शराब पर पत्रिकाएँ मंगायी जाती है।

विभाजन के वक्त ऐसा नहीं था। अफ़गानी इलाकों में हथियारबाजी थी, लेकिन नशाखोरी पाकिस्तान में देर से शुरू हुई। सोवियत के अफ़ग़ानिस्तान में आने के बाद ही यह सब सुलभ हुआ। एक बार जनरल जिया-उल-हक़ ने सोवियत राजदूत को बुला कर तलब भी की और कहा कि यह आपूर्ति बंद करायी जाए। 

उन्होंने टका सा जवाब दिया, “जनरल! आधी दुनिया सोवियत के राइफ़ल चलाती है। हम किसी को मुफ़्त में नहीं भेजते। आपके लोगों ने खरीदी होगी या चुराई होगी।”

अमरीका की मदद से आइएसआइ ने भी मनमर्ज़ी हथियारों का ज़ख़ीरा खड़ा किया। ऊपर से सोवियत के हथियार तो थे ही। लोगों के पास दो वक्त की रोटी हो न हो, लाखों रुपए के हथियार घर में ज़रूर आ गए। वे बिकते भी मामूली दाम पर हैं। एक खिताब गुल नामक बंदूक-निर्माता हैं जो महज सात हज़ार रुपए में MP5 राइफ़ल की नकल बेचते हैं। वही अगर किसी अन्य बाज़ार में खरीदें तो चार-पाँच लाख़ तक आएगी, टैक्स अलग। मोबाइल फ़ोन से सस्ती तो बंदूक हैं, और वह भी टॉप क्लास।

इस कारण हत्यायें और अपराध पाकिस्तान में बढ़ते ही गए। इसका मुक़ाबला करने के लिए पाकिस्तान पुलिस कांस्टेबल के पास होता बस एक डंडा। वह मामूली रिश्वत लेकर अनदेखा करते या मारे जाते। पाकिस्तानी सेना ज़रूर आधुनिक हथियारों से लैस होती, लेकिन अमरीका ने जब से हाथ खींचे, वहाँ भी हालत बुरी हो गयी। अस्सी के दशक से ही पाकिस्तान परमाणु बम की धौंस दे रहा था, मगर वह बम न किसी ने देखा था, न ही उसका परीक्षण हुआ था। फ़ायदा तो कुछ हुआ नहीं, उसके उलट अमरीका ने नकेल कस दी। 

1991 में जब इराक़ द्वारा कुवैत अतिक्रमण पर खाड़ी युद्ध हुआ, तो एक बार फिर से अमरीका ने पाकिस्तान को अपना छोटा बेस बनाया। लेकिन, वहाँ पाकिस्तान का मामूली रोल था। नवाज़ शरीफ़ अमरीका के प्रिय कभी रहे नहीं, और उनकी सरकार भी भ्रष्ट ही थी। दूसरी बात यह भी थी कि नवाज़ शरीफ़ की सहयोगी जमात-ए-इस्लामी सद्दाम हुसैन के साथ थी। 

इसी बीच आइएसआइ के एक निदेशक हुए, जिन्हें आतंकवाद का ‘गॉडफ़ादर’ कहा जाता है। हाफ़िज़ सईद के साथ उग्रवादी संगठन लश्कर-ए-ताएबा बनाने में उन्हीं का दिमाग था। उनका नाम था हामिद गुल, जिन्हें बेनज़ीर ने ही बर्खास्त कर दिया था। वह सेना से निकल कर अब कुछ और खिचड़ी पका रहे थे।

वह कुछ ख़ास लोगों से मिल रहे थे, जैसे एक मिस्र के चिकित्सक थे- अल जवाहिरी। एक अफ़ग़ानिस्तान के नए प्रधानमंत्री थे गुलबुद्दीन हिकमतयार। कराची के एक मस्जिद में हामिद गुल की मुलाक़ात मुल्ला उमर नामक एक मुजाहिद्दीन से हुई। उन्होंने कहा कि सूडान में रह रहे एक अमीर आप से मिलना चाहते हैं, जो अल क़ायदा नामक एक संगठन चलाते हैं।

26 फरवरी 1993 को न्यूयॉर्क के WTC नॉर्थ टावर के नीचे पार्किंग में एक भयानक विस्फोट हुआ। इसे अंजाम देने वाले पाकिस्तानी युवक रमज़ी युसुफ़ की योजना थी कि यह टावर गिर कर साउथ टावर को भी गिरा देगा। लेकिन, उस टावर की नींव मज़बूत थी। दूर बैठे उसके आकाओं को उस वक्त लगा कि ये टावर नीचे से गिराना कठिन है, शायद ऊपर से ही किसी माध्यम से दोनों टावरों को अलग-अलग गिराना होगा। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 42.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/42.html
#vss 

Thursday 27 May 2021

जवाहर लाल नेहरू और उनका इतिहास बोध / विजय शंकर सिंह

 
जवाहर लाल नेहरू, न केवल आज़ादी के लिए किये गए संघर्ष के शीर्षस्थ नेताओं में से एक रहे हैं , बल्कि वे देश के प्रथम प्रधान मंत्री भी रहे हैं. राजनीति में उनका एक अलग व्यक्तित्व रहा है. आधुनिक भारत के निर्माताओं में उनका स्थान प्रथम पंक्ति में है. पर आज इस लेख में जिस क्षेत्र में उनके योगदान की चर्चा की जा रही है, वह राजनीति से बिलकुल अलग अकादमिक क्षेत्र है. यह क्षेत्र है, इतिहास लेखन का. नेहरू के इतिहास बोध का. अहमदनगर जेल में लिखी गयी उनकी कालजयी इतिहास पुस्तक, ” द ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री,” जिसका अनुवाद, विश्व इतिहास की एक झलक ” मोटे तौर पर विश्व इतिहास की घटनाओं का एक सिलसिलेवार विवरण देती है. उसे इतिहास की टेक्स्ट बुक या अकादमिक इतिहास पुस्तक तो नहीं कहा जा सकता, पर वह दुनिया भर में घटने वाली ऐतिहासिक घटनाओं का रोचक विवरण अवश्य प्रस्तुत करती है. यह पुस्तक पत्र लेखन शैली में है. पिता नेहरू ने पुत्री इंदिरा को विश्व इतिहास की एक झलक दिखायी है. पत्र लेखन के माध्यम से इतिहास लिखने का यह एक अनुपम प्रयोग था. इसके अतिरिक्त उनकी एक और प्रसिद्ध पुस्तक है, ‘ द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, ( भारत एक खोज ) . प्राचीन भारत के वेदों से ले कर अब तक भारत की यह काल यात्रा है. यह पुस्तक देश के अतीत के साथ साथ, प्राचीन वांग्मय और भारतीय मनीषा के साथ, नेहरू के जुड़ाव को दिखाती है. यह दोनों पुस्तकें यह प्रमाणित करने में सफल रहीं है कि, वह एक स्वाधीनता संग्राम के संघर्षशील नायक और द्रष्टा प्रधानमंत्री ही नहीं थे, बल्कि एक सिद्धहस्त लेखक भी थे.

वकालत, नेहरू के परिवार का पुश्तैनी पेशा था. नेहरू बचपन में ही पढ़ने के लिये इंग्लैंड भेज दिए गए . प्रारंभिक शिक्षा, हैरो स्कूल , और उच्च शिक्षा कैंब्रिज में हुयी. वहीं से इन्होंने बार ऐट लॉ की डिग्री ली. फिर स्वदेश आगमन और इलाहाबाद में रह कर वक़ालत का कार्य प्रारम्भ किया। इन्होने आठ साल वकालत की. पिता मोती लाल नेहरू का रुझान तब तक देश सेवा की ओर हो चुका था. वह सर सी आर दास, जैसे बड़े वकीलों के साथ मिल कर स्वराज पार्टी बना चुके थे. गांधी का देश में आगमन हो चुका था. उनका असहयोग आंदोलन शुरू तो हुआ पर चौरी चौरा की हिंसक घटना के कारण आंदोलन की अकाल मृत्य हो गयी. गांधी को सजा हो गयी थी. वे जेल में थे. राजनीतिक परिवेश में ठंडापन था. जवाहर लाल नेहरू जो 1919 में हुए जलियांवाला बाग़ नर संहार के बाद से ही राजनीति में क़दम रख चुके थे, अब और सक्रिय हो गए. 1930 के ऐतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन , जो लाहौर में रावी नदी के तट पर हुआ, में वे राष्ट्रपति चुने गए. कांग्रेस अध्यक्ष को उन दिनों राष्ट्रपति कहा जाता था. यह अधिवेशन ऐतिहासिक कहा जाता है क्यों कि इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने भारत के पूर्ण स्वराज की मांग का प्रस्ताव पास कर अपना लक्ष्य और संघर्ष स्पष्ट कर दिया था.

स्वाधीनता संग्राम में नेहरू ने कुल 9 साल कारागार में बिताये. वह लाहौर, अहमदनगर, लखनऊ और नैनी जेलों में रहे. वहीं इनका अध्ययन और लेखन परिपक्व हुआ. कारागार के समय का इन्होंने सकारात्मक सदुपयोग किया. वह सुबह 9 बजे से लिखना पढ़ना शुरू करते थे, और देर रात तक उनका यह क्रम चलता रहता था. जेल के एकांत और अवकाश ने उन्हें देश के इतिहास, सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं के अध्ययन और पुनर्मूल्यांकन का अवसर दिया. उनका लेखन आत्म मुग्धता के लिए नहीं बल्कि देश की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए था, जिस से देश का स्वाभिमान जागृत किया जा सके. उन्होंने कुल चार पुस्तकें लिखीं. 1929 में पहली पुस्तक लिखी गयी, ‘ लेटर्स फ्रॉम ए फादर टू ए डॉटर ‘, जिसमें उन्होंने प्रागैतिहासिक काल का विवरण दिया है. 1934,-1935 में उनकी क्लासिक कही जाने वाली पुस्तक, ‘ The glimpses of world history ‘,( विश्व इतिहास की एक झलक ), आयी. 1936 में उनकी आत्म कथा, ‘ माय ऑटोबायोग्राफी,’( मेरी कहानी ) और 1946 में दर्शन, इतिहास और संस्कृति को ले कर लिखी गयी पुस्तक ” The Discovery of india” ( भारत एक खोज ) प्रकाशित हुयी.

उनके इतिहास बोध को समझने के पूर्व उनकी पुस्तकों के बारे में जानना आवश्यक है. पिता के पत्र पुत्री के नाम, जो 1929 में प्रकाशित पुस्तक थी, में इनके वे पत्र संकलित हैं, जो इन्होंने इलाहाबाद प्रवास के दौरान लिखा था इंदिरा उस समय मसूरी में पढ़ रहीं थीं. इतिहास के साथ, वन्य जीव जंतुओं और अन्य विषयों पर इन्होंने अपनी पुत्री की बाल सुलभ जिज्ञासाओं के समाधान की कोशिश की है. यह प्रयास यह भी बताता है कि सार्वजनिक जीवन की तमाम व्यस्तताओं के बीच ,उनमे एक आदर्श पिता जीवित रहा जिस ने संतान को संवारने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी. अंग्रेज़ी में लिखे इन पत्रों पुस्तक के रूप में अनुवाद महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने किया था. उनका एक पत्र जिसका उल्लेख यहां करना उचित होगा , जो वन्य जीव के विकास पर आधारित है. डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत तब तक अस्तित्व में आ चुका था. उन्होंने लन्दन स्थित केनिग्स्टन म्युजियम में रखे जानवरों के चित्रों पर इस पत्र को केंद्रित किया. उन्होंने यह लिखा कि ठन्डे और शीत ग्रस्त क्षेत्रों के जंतु अपने वातावरण के अनुसार ही शुभ्र होते हैं जब कि गर्म क्षेत्रों के जंतु और वनस्पतियाँ विभिन्न रंगों की होती हैं. उनकी इस धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक शोध हो या न हो लेकिन, बाल सुलभ जिज्ञासा को शांत करने की उनकी यह शैली अद्भुत थी. दूसरा पत्र, मनुष्य की उत्पत्ति पर है. मनुष्य के विकास का विवरण देता यह पत्र नृतत्वशास्त्र में उनकी रूचि को भी बताता है. मूलतः यह पुस्तक बच्चों के लिए है. इसमें उनका कोई गंभीर इतिहास बोध नहीं झलकता है.

इतिहास की उनकी अवधारणा, तिथिक्रम का विवरण और घटनाओं का वर्णन ही नहीं है. विश्व इतिहास की एक झलक, जो 1934-35 में प्रकाशित हुयी, में उन्होंने एशिया के साम्राज्यों के उत्थान और पतन पर विहंगम दृष्टि डाली है. अर्नाल्ड टॉयनाबी के इतिहास एक अध्ययन के तर्ज़ पर उन्होंने सभ्यताओं के उत्थान और पतन को समझने और समझाने का प्रयास किया है. जिस से उनके अध्येता होने का प्रमाण मिलता है. कोई भी व्यक्ति जो विश्व इतिहास की रूपरेखा समझना और जानना चाहता है और संदर्भों की शुष्क वीथिका से बचना चाहता है वह इसका अध्ययन कर सकता है.

1934 में ही उनकी आत्म कथा, मेरी कहानी प्रकाशित हुयी. आत्मकथा लेखन एक आधुनिक साहित्य विधा है. पहले खुद के बारे में कुछ कहना और उसे प्रचारित करना आत्म मुग्धता समझा जाता था. इसी लिए पूर्ववर्ती अनेक महान साहित्यकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं होता . जो मिलता है वह या तो किंवदंती के रूप में या समकालीनों द्वारा दिए विवरण के रूप में है. स्वयं को पारदर्शिता के साथ देखना बहुत कठिन होता है वह भी तब, जब कि मनुष्य सार्वजनिक जीवन में हो. पर अपनी आत्म कथा में उन्होंने जो भी लिखा है वह उनकी खुद की ईमानदार विवेचना है. आप यूँ भी कह सकते हैं कि उनकी आत्मकथा का काल 1932 में ही ख़त्म हो जाता है . जब कि उनके जीवन के अनेक विवाद इस काल के बाद हुए. सुभाष बाबू के साथ विवाद, भारत विभाजन और प्रधान मंत्री काल के अनेक निर्णय, जिनको ले कर उनकी आलोचना होती है, के समय की कोई आत्म कथा लिखी ही नहीं गयी. संकट काल और आलोचना से घिरे होने पर , स्वयं को कैसे बिना लाग लपेट के प्रस्तुत किया जाय इस में आत्मकथा लेखक की कुशलता और ईमानदारी दोनों ही निहित होती है. लन्दन टाइम्स ने उनकी पुस्तक मेरी कहानी को उस समय की पठनीय पुस्तकों के वर्ग में रखा था. इस पुस्तक में उनके परिवार, उनकी पढ़ाई और 1933 तक के आज़ादी के लिए किये गए संघर्षों का विवरण मिलता है. उस काल के शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक एक सन्दर्भ और स्रोत का भी काम करती है.

उनकी सबसे परिपक्व कृति , भारत एक खोज. है. 1944 में यह पुस्तक प्रकाशित हुयी. भारतीय मनीषा, सभ्यता और संस्कृति का अद्भुत सर्वेक्षण इस पुस्तक में है. पूर्णतः अंग्रेज़ी परिवेश में पले और पढ़े लिखे नेहरू द्वारा वेदों से लेकर पुराणों का अध्ययन उनके अंदर छिपे प्राच्य दर्शन को दिखाता है. इस पुस्तक में भारत की एक यात्रा है. इतिहास है, परम्पराएँ हैं और संस्कृति की जीवंतता है. नेहरू के जीवनीकार एम जे अकबर इस पुस्तक की लेखन शैली की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं. वह बताते हैं कि उनकी दोनों पुस्तकें विश्व इतिहास की एक झलक और भारत एक खोज उन की लेखकीय प्रतिभा को ही नहीं बल्कि उनके पांडित्य को भी प्रदर्शित करती है. इतिहासकार विपिन चंद्र ने उनकी आत्मकथा को आंशिक इतिहास और इतिहास को आंशिक आत्म कथा माना है. उन्होंने भूत की त्रुटियों को वर्तमान के सन्दर्भ से जोड़ते हुए वर्तमान को आगाह किया है. तो, वर्तमान में ही भूत ढूँढने की कोशिश की गयी है. उन्होंने इतिहास को एक जीवंत अंतहीन यात्रा की तरह प्रस्तुत किया है, . नेहरू इतिहास के विद्यार्थी नहीं थे और न ही वह कोई इतिहासकार थे. अतीत को उन्होंने अपनी नज़र से देखा और उसे प्रस्तुत कर दिया. वह स्वयं अपनी पुस्तक में कहते हैं ..

“The past is always with us and all that we are and what we have comes from the past. We are its products and we live immersed in it. Not to understand it and feel it as something living within us is not to understand the present. To combat it with the present and to extend to the future, to break from it when it cannot be united, to make of all these the pulsating and vibrating material for thought and action-that is life.”

वह लिखते है, अतीत मुझे अपनी गर्माहट से स्पर्श करता है और जब वह अपनी धारणा से वर्तमान को प्रभावित करता है तो मुझे हैरान भी कर देता है. इतिहासकार ई एच कार ठीक ही कहते हैं, सच में इतिहास वही लिख सकते हैं जिन्होंने इसकी दिशा को बदलते हुए महसूस किया हो. नेहरू खुद इतिहास के दिशा प्रवर्तक रहे है. इतिहास में अतीत से हम कहाँ से आये हैं. कि तलाश करते हुए यह जिज्ञासा भी उठती है कि हम जाएंगे कहाँ. इतिहास लिखना अतीत के दाय का निर्वहन भी है. उन देशों का इतिहास लेखन कठिन होता है जहां संस्कृति और सभ्यता की एक विशाल और अनवरत परंपरा रही हो. एशिया के दो महान देशों चीन और भारत के साथ यह समस्या अक्सर इनके इतिहास लेखन के समय हो जाती है. ऐसा इस लिए कि न केवल स्रोत और सामग्री की प्रचुरता है बल्कि अनवरतता भी है. अपने इतिहास लेखन को नेहरू अतीत के प्रति अपना कर्तव्य भी मानते हैं. हम कहाँ से आये हैं. और हम कौन है कि आदिम दार्शनिक जिज्ञासा ही नेहरू के इतिहास लेखन का प्रेरणा स्रोत रहा है और इसी का प्रतिफल है ‘ द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ‘, या ‘भारत एक खोज’. अपनी इतिहास की अवधारणा को वह इन शब्दों में व्यक्त करते है…

“A study of history should teach us how the world has slowly but surely progressed….. man’s growth from barbarism to civilisation is supposed to be the theme of history. ”

नेहरू एक लोकतांत्रिक समाजवादी विचारधारा में विश्वास करते थे. उनके समाजवाद की अवधारणा मार्क्सवादी समाजवाद से अलग थी, हालांकि मार्क्स ने उन्हें प्रभावित भी किया था और रूस की सोवियत क्रान्ति के महानायक वी आई लेनिन के वे प्रशंसक थे. पर इस पाश्चात्य राजनीतिक अवधारणा के बावज़ूद प्राचीन वांग्मय के प्रति उनका रुझान उनकी पुस्तकों विशेषकर भारत एक खोज में खूब दिखा है. वह सभ्यताओं का उद्भव एक सजग अनुसंधित्सु की तरह खोजते है फिर उसे आधुनिक काल से जोड़ते हैं. वह किसी वाद विशेष के कठघरे में नहीं रुकते हैं पर भारतीय दर्शन के मूल समष्टिवाद को ले कर बढ़ते रहते हैं. भारतीय संस्कृति के वह परम प्रशंसक ही नहीं बल्कि वे इसे दुनिया की सबसे जीवंत संस्कृति के रूप में इस पर गर्व भी करते हैं. यह उनकी विशाल हृदयता, और दृष्टि का परिचायक है. भारत एक खोज में वे लिखते हैं पांच हज़ार साल से प्रवाहित हो रही अविच्छिन्न संस्कृति के काल में डेढ़ सौ साल का ब्रिटिश काल एक दुखद काल खंड है. पर उस से संस्कृति की ऊर्जस्विता और ओजस्विता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. ( सुगता बोस और आयशा जलाल, की पुस्तक, मॉडर्न साउथ एशिया पृ. 8.)

इतिहास में घटनाओं से अधिक व्यक्तित्वों ने उन्हें प्रभावित किया है. घटनाएं व्यक्तित्व गढतीं हैं या व्यक्तित्व घटनाओं की उपज है, इस पर भी बौद्धिक विमर्श हो सकता है पर दोनों ही एक दुसरे से जुड़े है. उन्नीसवी सदी के इतिहास लेखन में वे व्यक्तित्व की प्रतिभाओं से चमत्कृत होते है. वह मुस्तफा कमाल पाशा से बहुत प्रभावित दिखते हैं उन्होंने इतिहास को वैश्विक समग्रता से देखा है. इस लिए वह एक वैश्विक गाँव का इतिहास प्रस्तुत करते है. एक देश की घटनाएं दुसरे को अप्रभावित किये बिना नहीं रह सकती है. पूरी दुनिया के एक गांव में बदल जाने की प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी से ही शुरू हो गयी थी. वह लिखते हैं…

” In history, we read of great periods in the life of nations, of great men and women and great deeds performed and sometimes in our dreams and reveries we imagine ourselves back in those times and doing brave deeds like the heroes and heroines of old.” ( The glimpses of world history..pg.2 )

नेहरू का एक इतिहास के विद्यार्थी या इतिहासकार के रूप में मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है. उन्होंने इतिहास के छात्रों और शोधार्थियों के लिए इतिहास नहीं लिखा है. ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम ‘ उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री इंदिरा को देश विदेश का ज्ञान कराने के लिए लिखा था. यह एक व्यक्तिगत पत्रों का संकलन है. पर लेखक ने उसे सबके लिए उपयोगी बना दिया. ‘ विश्व इतिहास की एक झलक ‘ , विश्व इतिहास की कोई टेक्स्ट बुक नहीं है. पर यह विश्व के महान संस्कृतियों के प्रवाह को दिखाते हुए, विभिन्न संस्कृतियों के आदान प्रदान को रेखांकित करते हुए, नेहरू के द्रष्टा और उनके सार्वभौमवाद को भी दिखाती है. ‘ मेरी कहानी ‘ उनकी आत्म कथा तो है, पर वह आज़ादी के संघर्ष के एक काल खंड का इतिहास भी समेटे है. ‘ भारत एक खोज ‘ भारत की एक दार्शनिक यात्रा है. हज़ारों साल से अस्मिता पर जो हमला हुआ था , धर्म और समाज में जो विकृतियां आ गयीं थीं, उन सब के बावज़ूद भी, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की अकलुषित आत्मा की खोज है यह पुस्तक. इसमें, धर्म है, दर्शन है, और इतिहास है. नेहरू के सारी कृतियों में यह सबसे गंभीर और परिपक्व पुस्तक है. मूलतः विज्ञान और फिर विधि के विद्यार्थी रहते हुये भी उनकी इन सभी पुस्तकों में इतिहास के प्रति रुचि और इतिहास की समझ साफ़ दिखती है.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक सेमीनार हो रहा था. विषय था, इतिहास लेखन. उस सेमिनार में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक और उर्दू के महान शायर, रघुपति सहाय फ़िराक भी शामिल थे. फ़िराक, नेहरू के मित्र भी थे. उसी गोष्ठी में नेहरू के इतिहास लेखन पर भी चर्चा हुयी. एक विद्वान वक्ता ने नेहरू के इतिहास लेखन को इतिहास लेखन के दृष्टिकोण से गंभीर और अकादमिक नहीं माना. प्रख्यात इतिहासकार, डॉ ईश्वरी प्रसाद उस गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे. उन्होंने कहा नेहरू इतिहास के विद्यार्थी नहीं रहे हैं पर अतीत में झाँकने और उसका मूल्यांकन करने का सभी को अधिकार है. उनकी रचनाओं के मूल्यांकन के पूर्व उनकी पृष्ठिभूमि पर भी विचार कर लिया जाय. ईस्वरी प्रसाद भारत एक खोज के प्रशंसक थे. बहस गंभीर हुयी. तभी फ़िराक उठे और उन्होंने बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ” तुम इतिहास लिखते हो, उस ने इतिहास बनाया है ” फ़िराक कभी कभी बदज़ुबां भी हो जाते थे.नेहरू का इतिहास बोध, भारतीय संस्कृति की तरह विराट और विशाल तो था ही, गंगा की तरह अविरल प्रवाह्युक्त और सार्वभौम रहा है।

( विजय शंकर सिंह )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 42.


“हम इस जगमोहन को भागमोहन बना देंगे। इस का हम जग-जग मो-मो हन-हन कर देंगे।”
- बेनज़ीर भुट्टो पी ओ के में (एक हाथ से दूसरे हाथ पर काटने का इशारा करती हुई)

कश्मीर विभाजन के समय से ही एक जलती हुई आग थी। यह बुझी न तब थी, न अब है। बल्कि अगर हम कश्मीर के हज़ारों वर्षों के इतिहास को टटोलें, तो वहाँ के युद्धों पर कल्हण की राजतरंगिणी की एक पंक्ति ब्रह्मवाक्य की तरह है, 

“कश्मीर पर विजय पुण्य की शक्ति से ही की जा सकती है, शस्त्र से नहीं।”

अब इस वाक्य की सभी अपनी सहूलियत से व्याख्या कर सकते हैं। मसलन यह भी कह सकते हैं कि कल्हण ने यह लिखा ही नहीं, या यह कह सकते हैं कि कल्हण के समय में इस्लाम या पाकिस्तान जैसी चीजें नहीं थी। यूँ भी भारत ने यथासंभव कश्मीर को स्वायत्तता दे रखी थी। पाकिस्तान ने नाम ही ‘आज़ाद कश्मीर’ रख दिया था। मगर कश्मीर किसी भी दृष्टि से आज़ाद देश तो नहीं ही था। वह तो दो देशों में बंटा हुआ राज्य था, और दोनों ही देश इसे अपना अखंड अंश समझते थे।

1984 भारत के आधुनिक इतिहास का सबसे अधिक हलचलों वाला समय रहा। स्वर्ण मंदिर में सेना घुसी, इंदिरा गांधी की हत्या हुई, भोपाल में गैस कांड हुआ, और कश्मीर में? कश्मीर में अलगाववाद की सुगलती आग के मध्य जगमोहन राज्यपाल बन कर आए।

जगमोहन इमरजेंसी के समय संजय गांधी के चहेते रहे थे, और मुसलमान बस्तियों पर बुलडोज़र चलवाने में अग्रणी रहे थे। उनका मुसलमानों के प्रति रवैया इसी कथन से स्पष्ट होता है कि जब उनसे बस्ती तोड़ने पर अलग बस्ती बनाने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा, “मैं एक पाकिस्तान तोड़ कर दूसरा पाकिस्तान तो नहीं बनने दूँगा।”

ज़ाहिर है, इस कारण वह न सिर्फ़ संजय गांधी, बल्कि हिन्दूवादी संगठनों के भी प्रिय थे। उनका जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनना एक साधारण प्रशासनिक घटना नहीं कही जा सकती। वह वहाँ के उग्रवाद को दबाने के लिहाज़ से ही गए थे। उस समय फारुक अबदुल्ला जैसे अपरिपक्व मुख्यमंत्री का होना, एक दूसरे अपरिपक्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का केंद्र में आना, और सीमा की दूसरी तरफ़ बेनज़ीर भुट्टो की बयानबाज़ी ने कश्मीर की आग में घी का कनस्तर ही डाल दिया।

1984 में ही कश्मीरी उग्रवादी मकबूल बट्ट को तिहाड़ जेल में फाँसी दी गयी। इस फाँसी ने कश्मीर को एक शहीद भी दे दिया, जो आज तक शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।

अगले कुछ वर्षों में कश्मीर से कई युवा सीमा पार कर पाकिस्तानी कैंपों में प्रशिक्षण लेते रहे, और लगभग हर महीने कुछ न कुछ उपद्रव करते रहे। जवाब में जगमोहन के समर्थन से भारतीय सेना भी अपनी कारवाई कर रही थी, जो वाज़िब भी था। लेकिन, इस कारण पाकिस्तान को आग भड़काने के खूब मौके मिलते रहते। 1989 में तो कश्मीर घाटी में 14 अगस्त को पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस भी मनाया गया, और 15 अगस्त को काले झंडे दिखाए गए। उसके बाद भारतीय गृह मंत्री की बेटी का अपहरण कर लिया गया, और उसके एवज में उग्रवादियों को छोड़ा गया।

अब यह सिलसिला चलता ही रहा। अपहरण और उग्रवादियों का छूटना। यही वह वक्त था जब कश्मीरी पंडितों से हिंसा भी शुरू हुई, और वे पलायित होने लगे। हर रोज हत्याएँ हो रही थी और सेना की जवाबी कारवाई चल रही थी। 1990 तक कश्मीरी पंडितों का सामूहिक पलायन अपने चरम पर था।

इस विषय में एक पर ज़िम्मेदारी तय करना, या मसलन फारुख़ अब्दुल्ला या जगमोहन को ही दोष देना पूरी तरह सही नहीं है। मुझे नहीं लगता कि इस प्रकरण को चंद शब्दों में व्यक्त भी किया जा सकता है। सच तो यह है कि इससे न कश्मीरियों को, न पाकिस्तान को, न फारुख़ अबदुल्ला को, और न केंद्र सरकार को कुछ हासिल हुआ। 

शायद एक सूक्ष्म स्तर पर देखें तो इस बर्बादी के बाद बेनज़ीर भुट्टो का सत्ता में वापस आना तय होने लगा। उनके नए अवतार में आइएसआइ भी उनके साथ थी, और अमरीका भी। उन्हीं दिनों उनकी हत्या करने की पहली कोशिश हुई। जिसने यह कोशिश की, उसी ने कुछ ही महीनों बाद अमरीका के WTC टावर में पहला विस्फोट किया। 

एक नयी आग सुलग रही थी। जल्द ही पाकिस्तान एक वैश्विक जिहाद का केंद्र बनने वाला था।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 41. 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/41.html
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Wednesday 26 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 41.


  ( आसिफ अली जरदारी और सोनिया गांधी )

“राजीव! अगर हम दोनों शादी कर लेते तो दोनों मुल्कों का झंझट ही खत्म हो जाता”

सार्क सम्मेलन 1988 में डिनर टेबल पर हुई यह बातचीत उन दिनों का चुटकुला था। उस समय भोजन पर राजीव, सोनिया, राहुल, प्रियंका के अतिरिक्त बेनज़ीर, उनके पति आसिफ़ और माँ नुसरत भुट्टो थी। इस चुटकुले की तस्दीक़ के लिए वर्षों बाद करन थापर बेनज़ीर से लंदन में मिले।

उन्होंने हँस कर कहा, “ऐसी कुछ बात हुई थी, और हम खूब हँसे। राजीव बहुत ही हैंडसम थे, मगर उतने ही सख़्त इंसान। हम दोनों परिवारों के बीच कुछ रिश्ता मुझे हमेशा लगता रहा। ख़ास कर जब राजीव के भाई संजय की मृत्यु के बाद मेरे भाई शाहनवाज़ की मृत्यु हुई।”

उसके बाद उन्होंने एक रॉबर्ट का प्लान की किताब खरीद कर करन थापर को दी और कहा, “यह लाल कृष्ण आडवाणी जी को मेरी तरफ़ से तोहफ़ा दीजिएगा।”

उस समय तक राजीव मर चुके थे, कश्मीरी पंडित पलायित हो चुके थे, बाबरी मस्जिद गिर चुका था, और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बन चुकी थी। बेनज़ीर प्रवासित होकर लंदन में थी, और आडवाणी परिवार से अच्छे संबंध थे।

बेनज़ीर ने अपनी दूसरी आत्मकथा में लिखा कि राजीव गांधी के साथ कश्मीर मसला सुलझने की संभावना थी। जो वादा उनके पिता ने शिमला में मौखिक में किया था, वह लिख कर एक पक्का दस्तावेज बन जाता। मगर आइएसआइ यह नहीं चाहती थी।

जहाँ बेनज़ीर अपनी राजनैतिक पकड़ बना रही थी, उनके पति आसिफ़ का ध्येय भिन्न था। वह ख़ानदानी व्यवसायी थे। कराची में सिनेमा हॉल का धंधा था। तमाम गुंडे-मवालियों से पाला पड़ता ही रहता। उनके लिए भ्रष्टाचार, कमीशन जैसी चीजें जीवन का हिस्सा थी। जब पत्नी प्रधानमंत्री बनी, उन्होंने कमीशन लेने शुरू किए, यह कोई अजूबी बात नहीं। नवाज़ शरीफ़ की पार्टी ने उनका नामकरण ही ‘मिस्टर टेन परसेंट’ कर दिया।

ऐसे भ्रष्टाचारों के आरोपों के तहत 1990 में राष्ट्रपति गुलाम इशाक ख़ान ने बेनज़ीर सरकार को बर्खास्त कर दिया और नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री बना दिया।

कमीशनख़ोरी तक तो फिर भी ठीक था। मामला तब उलझा जब बेनज़ीर सरकार के दौरान एक अपहरण की बात लीक हुई। आरोप कुछ यूँ थे।

इंग्लैंड के एक बड़े व्यवसायी मुर्तज़ा हुसैन बुख़ारी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में एक बड़ा अस्पताल बनवाना चाहते थे। उन्होंने इसी क्रम में आसिफ़ अली ज़रदारी और उनके सहयोगी गुलाम हुसैन उनर से मुलाक़ात की। एक औपचारिक बातचीत के बाद गुलाम हुसैन उनसे अकेले में मिले। कमीशन की बात की, तो बुखारी नाराज़ हो गए।

तभी गुलाम हुसैन ने बुखारी के पैर में टाइम-बम बाँध दिया और आठ लाख डॉलर रकम मांग ली। बुख़ारी जैसे-तैसे वहाँ से छूट कर पुलिस के पास गए, और ज़रदारी पर यह संगीन आरोप लगाया।

ऐसे आरोप के लिए पाकिस्तान में दस साल की कैद की सज़ा थी। बेनज़ीर के बर्ख़ास्तगी के साथ ही ज़रदारी जेल की हवा खाने गए, हालांकि सांसद होने के नाते वह जेल से संसद में आते रहते। वहीं बेनज़ीर से बतियाते, जो उस समय विपक्ष की नेता थी।

बेनज़ीर को किसी भी तरह वापसी करनी थी। वह एक मुद्दा तलाश रही थी। जैसे जिया-उल-हक़ को अफ़ग़ानिस्तान का मुद्दा मिला था, कुछ ऐसा ही। उन्होंने देखा कि मुद्दा तो अपने घर में ही है। वह मुद्दा जो किसी कारणवश दब गया था। अगर वह जोर-शोर से उछल जाए तो पूरा पाकिस्तान फिर से जिहाद पर उतर जाए। उन्होंने याद किया कि कैसे उनके पिता ने हज़ार वर्षों तक भारत से लड़ने की बात कही थी, और जनता ‘जीए भुट्टो!’ चिल्लाने लगी थी।

बेनज़ीर ने पाकिस्तान में रैलियाँ करनी शुरू की। इस बार उनका नारा था, “हम ले के रहेंगे कश्मीर!”

यही नारा आने वाले कई पाकिस्तान चुनावों में तुरुप का पत्ता सिद्ध हुआ, और कश्मीर के लिए विध्वंसक। कभी कश्मीर मसले के हल की बात करने वाली बेनज़ीर ने कश्मीर को बर्बाद कर दिया। इस बर्बादी में कहीं न कहीं राजीव और उनके युवा मित्र फारुख़ अब्दुल्ला भी शामिल थे।

कश्मीर जलना तो पहले ही शुरु हो चुका था। दिसंबर, 1989 में बड़ी खबर यह थी कि जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के कुछ उग्रवादियों ने भारत के गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया का अपहरण कर लिया!
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 40.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/40.html
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Tuesday 25 May 2021

गंगा में ग्रीन फ़ंगस यानी काई


( यह काशी के बालाजी घाट के सामने की गंगा की तस्वीर है. देखिए... काई लगने से गंगाजल का रंग हरा हो गया है।)

गंगा में दशाश्वमेध से लेकर पंचगंगा घाट तक पसरी काई, जिसे आप ग्रीन फ़ंगस भी कह सकते हैं, नमामि गंगे प्रोजेक्ट की सफलता का प्रमाण है..! गंगा की धारा में काई के कारण पानी का रंग अब हरा हो गया है. गंगाजल रंग बदल रहा है.

फिलहाल लोग कोरोना वाॅयरस से परेशान हैं और अब कोरोना के साथ ब्लैक, ह्वाइट और येलो फंगस के प्रकोप की खबरें भी आ रही हैं. दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि कोरोना की तीसरी लहर भी आने वाली है, जिसकी चपेट में बच्चों के आने की आशंका व्यक्त की जा रही है. प्रशासन अभी से तीसरी लहर का मुकाबला करने की तैयारी में जुट गया है. दूसरी कब खत्म होगी ? पता नहीं..! इस बीच बिगत दस दिनों से गंगा की धारा में पसरी हरे रंग की काई, जिसे आप "ग्रीन फ़ंगस" भी कह सकते हैं, भविष्य में आने वाले खतरे का संकेत है.

गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की कवायद का प्रतीक है, काई..! नदी में काई, वह भी गंगा की धारा में शायद ही कभी किसी ने देखा हो. गंगा किनारे घाट पर रहने वाले सरदार रामसजीवन जिनकी उम्र लगभग 75 साल है का कहना है कि अपने जीवन में उन्होंने कभी काई नहीं देखी थी. काई उस स्थान पर स्वत: पैदा हो जाती है, जहां पानी में ठहराव हो. जैसे गड़ही और तालाब..! लेकिन नदियां तो बहती रहती हैं. उसमें काई का अभिप्राय है कि गंगा की धारा का बहाव रुक गया है.

आश्चर्य की बात है कि असि नदी, जो अब नाले में तब्दील हो गई है, में काई नहीं है. जानते हैं क्यों ? हम बताते हैं. घरों का सीवर जो सीधे असि नदी में गिरने के कारण यह नाला बन तो गया लेकिन इसमें गति है. और गति के कारण ही इस नाले में काई नहीं है. यह नदी पहले अस्सीघाट पर गंगा में मिलती थी, लेकिन नाले की धारा को मोड़ कर उसकी धारा ही बदल दी गई. अब अस्सी नाला गंगा में जहां मिलता है, वहां उसके बगल में ही संत रविदास घाट बन गया है. यहीं रविदास पार्क भी है. काशी में संत रविदास को नाले के पास जगह मिली. उल्लेखनीय है कि 2020 में देवदीपावली देखने जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बनारस आए थे तो संत रविदास पार्क में भी दर्शन-पूजन करने गए थे.

असि नाले की धारा को बदलने का परिणाम यह हुआ कि अस्सीघाट की सीढ़ियों को छोड़कर गंगा लगभग दो सौ मीटर आगे खिसक गई हैं. रीवां और तुलसीघाट का किनारा भी छोड़कर गंगा आगे खिसक गई हैं. इसी घाट पर काशी की प्रसिद्ध नागनथैय्या लीला होती है. इसे लखी मेला भी कहते हैं.

यहां यह बताना जरूरी है कि 2014 में बनारस से चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री जब काशी आए तो अस्सीघाट पर ही फावड़ा से घाट के किनारे जमी मिट्टी खोदे थे. ऐसा उन्होंने इसलिए किया था कि गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की कवायद को गति दी जा सके. नमामि गंगे प्रोजेक्ट को सात साल में हम कहां से कहां पहुंचा दिए, उसका परिणाम है दशाश्वमेध से पंचगंगा घाट तक दो किलोमीटर के दायरे में गंगा के ऊपर पसरी काई (ग्रीन फंगस) ! जिससे गंगाजल का रंग हरा हो गया है. 

इसके लिए काफी मेहनत करनी पड़ी है. मीरघाट, ललिताघाट, जलासेन और मणिकर्णिका श्मशान के सामने गंगा की धारा को बालू और मुक्तिधाम के मलबे से पाटना पड़ा है. यह कवायद जनवरी, 2020 में ही शुरू हो गई थी. डेढ़ साल तक गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के अथक परिश्रम के बाद आज काशीवासी गंगा में काई का दर्शन कर रहे हैं. तब किसी ने आवाज नहीं उठाई कि क्यों गंगा की धारा में बालू और मसबा डाला जा रहा है ? चुप्पी पसरी थी. यह मौम अब भी बरकरार है. नमामि गंगे..!

© सुरेश प्रताप सिंह 
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