Sunday 29 July 2018

मोदी जी का कथन कि गांधी जी के भी बिरला से सम्बंध थे - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

गांधी भी अजीब हैं। जो उनसे नफरत करते हैं वे भी उन जैसा बनना चाहते हैं। वे न उगलते बनते हैं न निगलते। न उन्हें खारिज किये बनता है, न उन्हें अपनाए। खारिज़ करें तो दुनिया सवाल करने लगती है, अपनाएं तो आत्मा की शुचिता और दौर्बल्य आड़े आता है।  दुनिया के इतिहास में किसी देश के स्वातंत्र्य संग्राम में शायद ही किसी व्यक्ति ने इतनी गहरी पकड़ और समाज के भीतर तक अपनी पैठ नहीं बनाए रखी होगी, जितनी गांधी ने भारत के इतिहास के 1920 से 1947 तक के काल खंड में बनाये रखी थी। लोग उनसे असहमत भी थे, नाराज़ भी, उनके आदर्शों से कोसो दूर भी थे, पर 1920 से 1947 तक जो गांधी ने कह दिया वही स्वाधीनता संग्राम की लाइन बनी। मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी, यह जुमला न जाने किस घड़ी में किस विद्वान ने कभी गढ़ा होगा, पर जिसने भी गढ़ा होगा सच ही कहा है। वह मज़बूरी बन गए थे, चर्चिल की जो उनको सनक की हद तक नापसंद करता था, पर बात भी उनसे ही करता था । वे मज़बूरी बन गए थे कांग्रेस की जिसे उनकी बात माननी ही थी। वे मज़बूरी बन गए थे सावरकर और उनके अनुयायियों कि जिनकी सारी रणनीति गांधी के अस्थिशेष शरीर और पोपले मुंह के सामने धरी की धरी रह गयी। भारत के आम जन मानस को धर्म के क्षेत्र में बुद्ध ने, साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने जितना प्रभावित किया उतना किसी ने भी नहीं किया होगा।

प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा गांधी भी बिरला के साथ रहते थे, तो वे भी पूंजीपतियों के साथ रहते हैं। अमर सिंह जी से हुंकारी भरवाते हुये उन्होंने कहा कि कांग्रेसी भी पूंजीपतियों के साथ छुप छुप कर मिलते हैं। बात उनकी भी सही है। कांग्रेस के भी इन्ही पूंजीपतियों से सम्बंध हैं जो आज सरकार के हम प्याला हम निवाला बने हुये हैं। यह भी सही है कि,  बिरला परिवार गांधी जी का फाइनेंसर था। बिरला परिवार ही नहीं, जमनालाल बजाज, बनारस के बाबू शिवप्रसाद गुप्त आदि अनेक लक्ष्मीपुत्र उनके धन के स्रोत थे। पर गांधी ने कभी इन चंदा दाताओं को अपने आगे नहीं चलने नहीं दिया। उनके व्यापारिक हितों के लिये अपने संपर्कों का इस्तेमाल नहीं किया। कभी अपनी पीठ पर उनका हाँथ तो दूर अपने पास फटकने भी नहीं दिया। दो जोड़ी धोती, एक मजबूत लाठी, चमड़े की एक चप्पल, पतली कमानी का गोल शीशे वाला चश्मा और कमर से लटकती हुयी एक गोल घड़ी इसके अलावा कभी कुछ पहना भी नहीं। गांधी के इशारे पर ये कुछ भी निजी तौर पर उन्हें दे सकते थे। पर एक चीनांशुक का कुर्ता तक भी गांधी ने ग्रहण नहीं किया। उनके आश्रम का एक एक पैसे तक का हिसाब रखा जाता था। बिल्कुल बनियों की तरह हिसाबी,किताबी और कृपण थे गांधी।

प्रधानमंत्री जी ने अपने और पूंजीपतियों के रिश्ते को समझाने के लिये गांधी और बिरला परिवार का रूपक लिया है। पर वह यह भूल गए कि पीएम आज ऐसी स्थिति में हैं कि वे बिना एक ईंट के भी हवा में ही अपने किसी भी प्रिय उद्योगपति को सर्वश्रेष्ठ का दर्जा दे सकते हैं। जो पूंजीपति उनके पीठ पर हाँथ रख दे, जिसके विमान में सार्वजनिक रूप से सफर करें, जो उनके आवास में आत्मीयता से अपना नाम सुने, उसके किसी भी कदाचरण के खिलाफ किस नौकरशाह में यह साहस होगा कि वह उनकी छानबीन करे ? बिरला, बजाज आदि इस निमित्त नहीं गांधी जी से जुड़े थे कि वे उनसे लाभान्वित हों। ऐसा भी नहीं है कि गांधी सदैव बिरला के घर मे ही रुकते थे। वे कहां कहां रुकते थे, किससे किससे मिलते थे यह कोई रहस्य नहीं है। उनके जनता पर व्यापक प्रभाव और स्वीकार्यता का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा जब वो नोआखाली के दंगा पीड़ित इलाक़ों में शांति के लिये गांव गांव घूम रहे थे, और तब उन्हें माउंट बेटन ने वन मैन आर्मी कहा था।

संसार का कोई भी राजनीतिक दल या आंदोलन बिना धन के नही चल सकता है। वह धन आये कहां से यह दल और आंदोलन के नेताओं को सोचना है। गांधी ने जब दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के विरुद्ध अनायास एक आंदोलन शुरू किया तो वह आंदोलन दादा अब्दुल्ला जो अपनी वकालत के लिये उनको दक्षिण अफ्रीका ले गए थे के ही पैसे से नहीँ संचालित हुआ था, बल्कि गांधी जी ने फंडिंग के लिये सार्वजनिक रूप से चंदा लेने का क्रम शुरू किया। चंदे का हिसाब रखने और उसे सार्वजनिक करने की परम्परा भी उन्होंने शुरू की। धन के ट्रस्टीशिप का सिद्धांत शायद यहीं से गांधी के मन मे आया। भारत आने पर भी यही परम्परा बनी रही।

पर आज के राजनीतिक दलों से कहिये कि वे अपने चंदे की रकम को सार्वजनिक करें। एक भी दल शायद सार्वजनिक नहीं करना चाहेगा। प्रधानमंत्री जी अगर नेता पूंजीपति रिश्तों में गांधी का अनुकरण करना चाहते हैं तो यह देश के लिये एक सुखद खबर है। उन्हें तत्काल राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन को सार्वजनिक करने के लिये कानून बनाना चाहिये और इसे आरटीआई के दायरे में लाना चाहिये। अभी जो एक कानून बना है कि विदेशों से प्राप्त चंदे का स्रोत नहीं पूछा जा सकता है तत्काल निरस्त कर दिया जाना चाहिये। चुनाव सुधार की सिफारिशें जो सरकार के पास लंबित हैं उन पर तत्काल कार्यवाही होनी चाहिये। लेकिन वे नहीं करेंगे। वे ही नहीं शायद कोई भी राजनीतिक नेता, चाहे वह किसी भी दल का हो, यह नहीं करना चाहेगा। जिस दिन राजनीति में शुचिता के इतने बंधन आ जाएंगे तब शायद कमाने धमाने के उद्देश्य से आने वाले लोग राजनीति से किनारा ही कर लें। लेकिन ऐसी स्थित होगी, यह तो फिलहाल यूटोपिया, एक काल्पनिक आदर्शवाद ही प्रतीत होता है।

अंत मे मेरे घनिष्ठ मित्र श्रीप्रकाश राय की यह प्रतिक्रिया भी पढ़ लें।
" पूँजीपतियों से कांग्रेस का छुप छुप कर मिलना और मोदी का खुलकर पूँजीपतियों से गलबहियाँ करना ही देश की अर्थव्यवस्था की वास्तविक दिशा है।अभी देश में मूल संकट इसी कारपोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों का संकट है।मोदी सरकार का "विकास" जो डायनासोर की तरह मुँह बाये हुए हुए शहरों को स्मार्ट बनाने के लिये दौड़ रहा है वो इन्ही कारपोरेट घरानों की लालच है जिसकी पूर्ति के लिये देश के सार्वजनिक बैंकों की पूँजी लुटायी जा रही है।इन्ही लालची बनियों के लिये जंगलो पर क़ब्ज़ा कर आदिवासियों को नक्सलाईंट बताकर मारपीट कर भगाया जा रहा है।जिसके लिये सरकार अपने लाखों अर्धसैनिक बलों के साथ इन आदिवासियों से अघोषित युद्ध लड़ रही है।इन्ही लुटेरे औद्योगिक घरानों की लालच से सरकार किसानो की ज़मीन छीन रही है।इसी कारपोरेटपरस्ती के चलते देश की कृषिव्यवस्था चौपट हुई है और लाखों किसान आत्महत्या किये हैं।यही लुटेरे देश में बेरोज़गारी का संकट खड़ा कर करोड़ों बेरोज़गार नौजवानों का रोज़ीरोटी छीन लिये हैं। मोदी आज इन्ही कारपोरेट घरानों की दलाली कर रहा है।इस दलाल का असली चेहरा छुपा रहे इसलिये वो गांधी और बिडला के संबंधो की छतरी में अपने को छिपाना चाहता है।जनता इन लुटेरे कारपोरेट घरानों और इसके दलाल के ख़िलाफ़ सीधे संघर्ष में न आ जाय इसके लिये देश में गाय,गोबर,धर्म,जाति का ज़हर यह सरकार उगल रही है और जनता को ग़ैरज़रूरी वाहियात मुद्दों में भटकाए रखना चाहती है।ताकि कारपोरेट की लूट भी चलती रहे और दलाली भी चलती रहे।लेकिन बकरे की माँ कबतक ख़ैर मनायेगी?"

© विजय शंकर सिंह

Friday 27 July 2018

इमरान खान की जीत के बाद, भारत पाक सम्बंध - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

1947 में जब मुहम्मद अली जिन्ना ने एक स्टेनोग्राफर और एक टाइपराइटर के बल पर पाकिस्तान प्राप्त कर लिया तो, दुनिया मे एक ऐसे देश का जन्म हुआ जिसका आधार केवल और केवल मजहब था। जिन्ना मूलतः मजहबी व्यक्ति नहीं थे, पर यह भी एक विडंबना थी कि गांधी जो पूर्णतः एक धर्म परायण व्यक्ति थे ने धर्म निरपेक्ष राज्य की बात की और उसे चुना जब कि,  जिन्ना जो स्वाभाविक रूप से सेकुलर और घोषित रूप से गैर मजहबी थे, ने एक मजहबी मुल्क के लिये तमाम कवायद की। लेकिन 1947 से जनरल जिया उल हक के शासन तक, पाकिस्तान एक मजहबी मुल्क तो था, पर इस्लामी कट्टरता के लिये पाकिस्तान में कोई जुनून नहीं था। पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल बनने के बाद जिन्ना ने मुल्क को संबोधित करते हुये अपने प्रथम भाषण में साफ साफ कहा था कि पाकिस्तान भले ही एक इस्लामी मुल्क के रूप में बना हो पर यह देश उन सबका है जो इसमे रहते हैं। जिन्ना का आशय हिन्दू, सिख, ईसाई , जिसमे बाद में अहमदिया भी जुड़ गए थे आदि अल्पसंख्यकों से था। 1947 से जिया के राष्ट्रपति बनने तक ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के लिये सुविधाजनक देश रहा हो पर पाकिस्तान का इस्लामीकरण उतनी तेज़ी से नहीं हुआ था, जितनी तेजी से जनरल जिया के शासनकाल में हुआ। पाकिस्तान में लोकतंत्र बहुत दिनों तक उतनी स्वतंत्रता और स्वाभाविकता के साथ नही  पनप सका, जितना भारत मे वह मज़बूत हुआ। प्रधानमंत्री लियाकत अली की हत्या के बाद सेना ने देश के शासन पर कब्ज़ा जमा लिया। जनरल अयूब खान, जनरल याहिया खान, जनरल जिया उल हक, जनरल मुशर्रफ इन चार सेनाध्यक्षों ने देश पर फौजी हुक़ूमत की।

पाकिस्तान की विदेशनीति मूलतः अमेरिकी खेमे की रही है। पाकिस्तान में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है कि पाकिस्तान के तीन निगेहबान हैं, अल्लाह, आर्मी और अमेरिका। सेना ने न केवल वहां शासन किया बल्कि उसने वहां की सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं में हस्तक्षेप कर के पाकिस्तान को एक सैनिक तानाशाही में तब्दील कर दिया। भारत को पाकिस्तान अपना चिर शत्रु मानता है। 1948, 1965, 1971 और कारगिल के युद्धों में लगातार हारने और 1971 में बांग्लादेश के बनने से पाकिस्तान की सेना की पेशेवराना क्षवि को बहुत आघात पहुंचा है। वह इन पराजयों का बदला लेने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहती है। लेकिन पाकिस्तान की सेना यह अच्छी तरह समझ गयी है कि किसी भी प्रत्यक्ष युद्ध मे वह भारत से जीत नहीं सकती है, अतः उसने भारत को तोड़ने और परेशान करने के लिये प्रच्छन्न युद्ध का सहारा लिया। उधर अफगानिस्तान में भी सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी दखलंदाजी बढ़ गयी थी। वहां की रूस समर्थक सरकार को अस्थिर करने के लिये अमेरिका ने तालिबान को प्रश्रय दिया जिसका केंद्र अमेरिका ने पाकिस्तान को बनाया।  जिसके परिणाम स्वरूप पाकिस्तान में आतंकियों की एक नयी जमात पैदा हुई। कुछ तो उनके दबाव में और कुछ उनको पनपने देने के लिये अवसर हेतु पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता बढ़ती गयी और देश मे एक नया दबाव ग्रुप बना जो इन आतंकी गुटों का था। आतंकियों को लक्ष्य दिया गया भारत को अस्थिर करने का और यह कमान पर्दे के पीछे से संभाली आईएसआई ने जो सेना का ही एक अंग और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी थी। यह क्रम पहले खालिस्तान आंदोलन की शक्ल में पंजाब में खेला गया अब 1990 से यह कश्मीर में खेला जा रहा है।

कश्मीर , पाकिस्तानी हुकमरानों का पसंदीदा मुद्दा है। दिल्ली आए परवेज़ मुशर्रफ जिनके माता पिता दिल्ली से ही 1947 में पाकिस्तान गये थे, से जब दिल्ली में एक पत्रकार ने यह पूछा कि पाकिस्तान, कश्मीर का मुद्दा क्यों नहीं छोड़ देता, तो मुशर्रफ ने कहा कि, कश्मीर का मुद्दा मैं अगर छोड़ दूंगा तो मुझे यहीं दिल्ली में ही आकर रहना होगा। यह उत्तर था तो परिहास में पर यह सभी पाकिस्तानी हुक्मरानों की मानसिकता को बयां करता है। तभी जुल्फिकार अली भुट्टो भारत से हज़ार साल तक जंग की बात करते करते सज़ा ए मौत पा फांसी के फंदे पर जिया उल हक द्वारा लटका दिये गये, कश्मीर की आज़ादी की बात करते करते उनकी पुत्री बेनज़ीर एक बमकांड में मारी गयी, मासूम से दिखने वाले उनके पुत्र बिलाल ने कुछ साल पहले भी कश्मीर हम लेंगे कह कर दुनिया भर में अपना मज़ाक़ उड़वाया था।  इसी प्रकार जब आज क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने इमरान खान जब पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म बनने जा रहे हैं तो उन्होंने भी सबसे पहले राग कश्मीर का ही आलाप लिया।

इमरान खान की विजय के बाद उनके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने की पूरी आशा की जा रही है। उनके सत्ता संभालने के बाद पाकिस्तान के अंदरूनी हालात जो भी हों पर भारत के साथ उनके समीकरण क्या होंगे इस पर विदेशनीति के विशेषज्ञ चर्चा कर रहे हैं। कुछ उन्हें तालिबान खान कह कर सम्बोधित कर रहे हैं क्योंकि इमरान ने हिंसक अलगाववादी गुटों से बात करने की वकालत कभी की थी तो कुछ उन्हें इस पद के ही अयोग्य बता रहे हैं। कुछ यह भी आशंका जता रहे हैं कि वे सेना के चंगुल में रहेंगे क्यों कि सेना नहीं चाहती थी कि नवाज़ की पार्टी पीएमएल की जीत हो। क्यों कि नवाज़ के साथ सेना का तालमेल अच्छा नहीं था। सेना से निकटता, आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति और उग्रवादी समर्थक इमरान खान के बयानों के कारण यह आशंका घर कर रही है कि हो सकता है भारत और पाकिस्तानी के सम्बंध और खराब हों, क्योंकि सेना और आतंकियों का भारत विरोध और कश्मीर के प्रति दृष्टिकोण जगजाहिर है । भारत को तोड़ना ही उनका अभीष्ट है। चीन के साथ पाकिस्तान का सम्बंध आप को दो देशों का आपसी कूटनीतिक रिश्ता भले ही दिखे, पर बेहिसाब चीनी निवेश के कारण पाकिस्तान धीरे धीरे चीन का एक व्यापारिक उपनिवेश बने लगा है। उधर चीन और भारत के रिश्ते भी सामान्य नहीं है बल्कि हिन्द महासागर और हिमालय में चीन की अनावश्यक दखलंदाजी भारत के लिये एक प्रकार का अशनि संकेत है। ऐसे अंतराष्ट्रीय ऊहापोह के माहौल में इमरान खान का यह बयान कि भारत, पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ के साथ षडयंत्र कर के पाक सेना को कमज़ोर करना चाहता है इमरान खान का इरादा तो स्पष्ट करता ही हैं साथ ही यह भी साफ है कि यह बयान सेना द्वारा स्क्रिप्टेड और सिखाया पढ़ाया है। यह राजनैतिक बयान है भी नहीं।

पाकिस्तान के सभी चुनावों में कश्मीर एक स्थायी मुद्दा रहा है। चाहे फौजी हुक़ूमत हो या लोकतंत्र, कश्मीर पर सभी के सुर सदैव से एक रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी ने अपने घोषणपत्र में कश्मीर का उल्लेख करते हुये यह वादा किया है कि वह कश्मीर का हल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निर्देशों के अनुसार कार्यवाही करेगा। इससे यह उम्मीद जगती है कि इमरान खान का रूख कश्मीर के मुद्दे और भारत के साथ सम्बंधो पर अपने पूर्वाधिकारियों के ही नक़्शेकदम पर रहेगा। लेकिन फाइनेंशियल एक्सप्रेस के एक लेख के अनुसार इमरान खान की विदेश नीतियों पर सेना का वर्चस्व साफ रहेगा। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इमरान कोई राजनैतिक व्यक्ति नहीं है, और उनकी जीत को सेना का पूरा समर्थन है। इमरान खान का इस्लामी कट्टरपंथी आतंकी संगठनों के प्रति जो सहानुभूति है वह उनकी आधुनिक और स्पोर्ट्समैनशिप पृष्टभूमि को देखते हुये अचंभित करती है। उनके पूर्व के कुछ बयानों को देखा जाय तो उन्होंने तालिबान के प्रति अमेरिकी सैन्य कार्यवाही की आलोचना की है। अफगानिस्तान में सत्रह साल से चल रहे अमेरिकी तालिबान सैन्य टकराव को बेमतलब मानते हुए वे ट्रम्प प्रशासन की हालिया ड्रोन हमलों की आलोचना करते हैं जब कि अमेरिका, पाकिस्तान के लिये कितना महत्वपूर्ण है यह सभी जानते हैं। इन बयानों के आलोक में यह भी कहा जा रहा है कि पाक अमेरिकी रिश्तों पर भी असर पड़ सकता है। पाकिस्तान द्वारा चीन के इतना निकट आने की एक वजह यह भी है, कि दोनों की ही विदेशनीति का मूल और स्थायी भाव भारत विरोध है। कश्मीर में पाकिस्तान की रुचि है तो हिमालयी देशों नेपाल, सिक्किम भूटान और हमारे अरुणांचल प्रदेश में चीन अपना हित देखता है। 

इमरान खान द्वारा अमेरिका की अफगानिस्तान सम्बन्धी नीतियों की आलोचना 2008 से की जा रही है और उन्होंने पाकिस्तान से सभी अमेरिकी खुफिया अफसरों और अतिरिक्त कूटनीतिक अधिकारियों को हटाने की मांग भी एक बार की थी। इमरान खान द्वारा अमेरिका का यह विरोध तब अधिक मुखर हुआ जब अमेरिका ने पाकिस्तान के कतिपय आतंकी संगठनों पर नकेल कसनी शुरू कर दी थी। लश्करे तैयबा, जैश ए मोहम्मद आदि आतंकी संगठन जो भारत के लिये सिरदर्द बने हुए हैं, को पाकिस्तान ने भी अवांछित करार दे दिया है। पाकिस्तान सरकार को अमेरिका ने कई बार इन संगठनों पर कार्यवाही करने के लिये भी कहा, पर पाकिस्तान ने सेना के दबाव में कोई उल्लेखनीय कार्यवाही इन संगठनों के सरगनाओं पर नहीं किया, अगर किया भी तो वह एक दिखावा था। क्योंकि ये संगठन कश्मीर में पाकिस्तान का ही प्रच्छन्न युद्ध का एजेंडा जारी रखे हुये थे। पाकिस्तानी सेना न केवल इन आतंकियों के साथ है बल्कि वह हर तरह का सैन्य और संसाधनीय सुविधा भी इनको उपलब्ध कराती है। सेना से निकटता और उसकी कृपा पर इमरान खान के सत्ता में आने के कारण ही यह आशंका जताई जा रही है कि भारत के प्रति इमरान खान की विदेशनीति आक्रामक रहेगी। वैसे तो इमरान ने चीन द्वारा किये जा रहे भारी निवेश, चीन पाक आर्थिक कॉरिडोर सीपीईसी आदि पर भी सवाल उठाए हैं। पर कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान के लिये एक भावुक मुद्दा है, जिसे वह मजहब और जिहाद के चश्मे से देखता है न कि वैदेशिक पेशेवराना कूटनीतिक सम्बंधो के नजरिये से ।

पाकिस्तान में नियुक्त रहे भारतीय हाई कमिश्नर टीसीए राघवन का यह कहना है कि इमरान खान की सरकार एक मिलीजुली सरकार होगी अतः यह कहना कि इमरान अपनी विदेशनीति अपनी मर्ज़ी से संचालित कर सकेंगे, अभी जल्दबाजी होगी। सेना का असर तो रहेगा और यह असर तो कश्मीर के मामले में आज भी है। राघवन ने न्यूज़ 18 से बात करते हुये एक मजेदार बात कही है कि, " पाकिस्तान के सभी नेता भारत विरोधी प्रलाप करते हैं और इमरान खान भी अपवाद नहीं है। लेकिन जब वे सत्ता पर काबिज होते हैं तो यह प्रलाप व्यवहारिकता में उतना नहीं बदल पाता जितना चुनाव प्रचार के दौरान कहा गया होता है। " मेरा भी यही दृष्टिकोण है कि भारत के प्रति इमरान खान के कार्यकाल में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आने वाला है। सेना पर्दे के पीछे से तब भी कूटनीतिक फैसलों पर असर डालती थी, अब भी डालेगी। कूटनीतिक वार्तायें, शिखर वार्तालाप की बात भी की जाएगी, यह ईमानदारी भी दिखाई जाएगी कि वे कश्मीर समस्या हल करना चाहते हैं, पर अंदरखाने आतंकी मदद पाक सेना करती रहेगी। जब तक पाक सेना का असर पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार पर बरकरार रहेगा, वहां का राजनैतिक नेतृत्व सेना से दिशा निर्देश लेता रहेगा, तब तक कश्मीर समस्या का शान्तिपूर्ण समाधान संभव नहीं है। 

© विजय शंकर सिंह

केदारनाथ सिंह की कविता - बनारस / विजय शंकर सिंह

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़

इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है

आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्‍थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ
आग के स्‍थंभ
और पानी के स्‍थंभ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर !!
O

केदारनाथ सिंह ( 7 जुलाई 1934 – 19 मार्च 2018 ), हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार थे। वे अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के कवि रहे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष 2013 का 49 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। वे यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के 10 वें लेखक थे।

© विजय शंकर सिंह

पत्रकारिता अब मिशन नहीं व्यापार हो गया है - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

जहां तक मैं जानता हूँ, टीवी एंकर, मूलतः उस चैनल का नौकर होता है। वह न तो चैनल की नीतियां तय करता है न ही उसकी उस चैनल की राजनीतिक संबद्धता और प्रतिबद्धता में कोई भूमिका होती है। टीवी एंकर एक वेतनभोगी पत्रकार होता है। वह अपने मालिक और उसकी संपादकीय नीति का पालन करने के लिये बाध्य होता । अक्सर इन चैनलों के मालिक कोई न कोई उद्योगपति होता है जो अपनी व्यावसायिक हितबद्धता के कारण सत्ता और सत्तारूढ़ दल से कोई टकराव नहीं चाहता है। यह सत्तोन्मुखी चरित्र किसी वैचारिक प्रतिबद्धता का परिणाम नहीं होती है बल्कि यह उनकी व्यावसायिकता होती है।

पत्रकारिता रही होगी मिशन कभी, पर अब वह इस बाजारीकरण के युग मे व्यवसाय हो गयी है। व्यवसाय है तो लाभ हानि, प्रचार प्रसार का फंडा जुड़ ही जाता है।  इन सबके अतिरिक्त, एंकर विशेष का राजनीतिक झुकाव भी होता है। हर व्यक्ति जो कुछ भी बुद्धि या विवेक से सोचता है वह किसी न किसी व्यक्ति या विचार या दर्शन से प्रभावित होता है। लेकिन जब वह एंकर पीठ पर बैठ कर एक बहस को संचालित करता है तो,  उसका दायित्व है कि वह बहस को संचालित करते समय कम से कम अपने राजनीतिक और वैचारिक दृष्टिकोण को उस समय के लिये न केवल ताख पर रख दे, बल्कि  एक निष्पक्ष एंकर के रूप में दिखे और ऐसा आचरण भी करे। अमीश देवगन के कार्यक्रम आर पार में जो अशोभनीय दृश्य और संवाद हुआ है वह अशोभनीय था और एंकर तथा प्रतिभागियों दोनों को इससे बचना चाहिये था।

कुछ टीवी चैनलों पर देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं को नजरअंदाज कर के हिन्दू मुस्लिम की बहस एक तयशुदा एजेंडे के अंतर्गत करायी जा रही है। वैसे ही संसद में  अविश्वास प्रस्ताव पर हुयी बहस जिसे टीडीपी के सांसद नायडू, सीपीएम के सांसद मु सलीम और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के आरोपो के बारे में होनी चाहिये थी लेकिन कुछ चैनलों पर यह सारी बहस, आंखों, आलिंगन, देहभाषा और भावुकता भरे जुमलों पर सिमट कर रह गयी। वे मुद्दे जो जनता के हित से जुड़े हैं, और सरकार को असहज कर सकते हैं, कुछ चैनल उठाना ही नहीं चाहते। जब मुद्दे ही अनावश्यक और छिछोरे और भावुकता भरे होंगे तो कोई कितना भी संयम रखे वह असंयमित होगा ही।

प्रवक्ता राजीव त्यागी ने चैनल के डिबेट में एंकर अमिश देवगन से कहा कि,
" पिछले चार वर्षों में कितनी बार तुमने किसान आत्महत्या , दलित हत्या , बेरोजगारी , मंहगाई, बैंक लूट पर कितनी बार बहस करवाया है "
निश्चित रूप से ऐसे मुद्दों पर सरकार का बचाव करना , चाहे कोई भी सरकार हो, कठिन हो जाता है, चाहे कोई भी सरकार हो। निश्चित रूप से एजेंडा तय करना चैनल के संपादक का काम है। पर जब जनहित से जुड़े मुद्दे लगातार चैनल के डिबेट से गायब होते रहते हैं, और डिबेट में वे ही विषय उठाये जाते हैं जो सत्तारूढ़ दल के मूल एजेंडे का अंश होता है तो चैनल की निष्पक्षता पर संदेह स्वाभाविक रूप से उठता है।

राजीव त्यागी एक गम्भीर प्रवक्ता हैं। प्रवक्ता तो अपने दल की बात का औचित्य साबित करेगा ही। उसका काम ही यह है। पर एंकर का काम है जनता के सामने दोनों पक्ष की बात सामने लाने के लिये एक ऐसा वातावरण तैयार करे जिससे दर्शकों को न केवल बहस की उपयोगिता समझ मे आये बल्कि वह दोनों ही पक्षों की बात समझ कर अपना दृष्टिकोण बना सके।

© विजय शंकर सिंह