Saturday 30 November 2019

अपराधी का महिमामंडन अपराध की मनोवृत्ति को बढ़ाता है / विजय शंकर सिंह

जब तक संसद और विधान सभाओं से बड़े और गम्भीर आपराधिक मुकदमों में लिप्त, आरोपी नेताओं को पहुंचने से, चुनाव सुधार कानून बना कर, उसे सख्ती से लागू कर, नहीं रोका जाएगा, तब तक अपराध करने की मनोवृत्ति पर अंकुश नहीं लगेगा। ज़रूरत तो ग्राम पंचायत स्तर से शुरुआत करने की है, पर कम से कम हम संसद और विधानसभा स्तर से इसे शुरू तो करें।  अपराध करके स्वयं ही आत्मगौरव का भान करने वाला समाज भी हम धीरे धीरे बनते जा रहे हैं। यह इसी महिमामंडन का परिणाम है। 

क्या कारण है कि अच्छे भले लोग दरकिनार हो रहे हैं, और हरिशंकर तिवारी, मुख्तार अंसारी, मदन भैया, डीपी यादव, वीरेंद्र शाही आदि आदि जैसे लोग, जिनके खिलाफ आइपीसी की गंभीर धाराओं में मुक़दमे दर्ज हैं, अदालतों में उनकी पेशी हो रही है, और वे अपने अपने जाति, धर्म और समाज के रोल मॉडल के तौर पर युवाओं में देखे जाते हैं ? 

ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओ के लिये एक शब्द है रंगबाज़। यह शब्द बहुत लुभाता है युवा वर्ग को। थोड़ी हेकड़ी, थोड़ी गोलबंदी, कुछ मारपीट, फिर लोगों और कमज़ोर पर अत्याचार, थोड़े छोटे छोटे अपराध, फिर किसी छुटभैये दबंग नेता या व्यक्ति का संरक्षण, फिर बिरादरी या धर्म से जुड़े किसी आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति का आशीर्वाद, थाना पुलिस से थोड़ी रब्त ज़ब्त, दबंग क्षवि के नाम पर छोटे मोटे ठेके और फिर इस कॉकटेल से जो वर्ग निकलता है वही कल कानून, अपराध नियंत्रण और देशप्रेम और बड़ी बड़ी बातें करता है। 

मीडिया में बलात्कार की खबरों को देखकर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर, राज्यों के हाईकोर्ट में दर्ज बलात्कार के मामलों के आंकड़े मंगाए थे। उनके अनुसार, 1 जनवरी 2019 से लेकर 30 जून 2019 तक 24, 212 बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे। ये सभी मामले केवल नाबालिग बच्चों और बच्चियों से संबंधित थे।  इसी रिकार्ड को देखें तो 12,231 केस में पुलिस आरोप पत्र दायर कर चुकी थी और 11,981 केस में जांच कर रही थी। 

दिल्ली की निर्भया न तो पहला मामला था, और हैदराबाद की रेड्डी न तो अंतिम मामला है। कल से लोग विक्षुब्ध हैं। दुःखी हैं। अपनी अपनी समझ से लड़कियों को सलाह दे रहे हैं। कुछ अपना धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडा भी साध रहे हैं। महिलाएं अधिक उद्वेलित हैं क्योंकि वे भुक्तभोगी होती है। पुलिस की अक्षमता, समाज की निर्दयता आदि को लोग रेखंकित कर रहे हैं। पर मेरा मानना है कि जब तक अपराध और अपराधी का महिमामंडन नहीं रुकेगा तब तक अपराध का रोका जाना संभव नहीं है। 

मैं उन अपराधों के बारे में नहीं कह रहा हूँ जो लोग अपने अधिकार के लिये लड़ते हुए आइपीसी की दफाओं में दर्ज हो जाते हैं, बल्कि उन अपराधों के लिये कह रहा हूँ जो गम्भीर और समाज के लिये घातक है । ऐसा ही एक अपराध है बलात्कार। यह अपराध अपनी गम्भीरता में हत्या से भी जघन्य अपराध है। यह पूरे समाज, स्त्री जाति और हम ज़बको अंदर से हिला देता है। हत्या का कारण रंजिश होती है पर बलात्कार का कारण रंजिश नहीं होती है। बलात्कार का कारण, कुछ और होता है। इसका कारण महिलाओं के प्रति हमारी सोच और समझ होती है। उन्हें देखने का नज़रिया होता है। यौन कुंठा होती है। 

हैदराबाद के बलात्कार कांड में मुल्ज़िम पकड़े गए हैं। वे जेल भी जाएंगे। उन्हें सजा भी होगी। पर क्या निर्भया और रेड्डी की त्रासद पुनरावृत्ति नहीं होगी ? छेड़छाड़ से बलात्कार तक एक ही कुंठा अभिप्रेरित करती है। बस अपराधी मन और अवसर की तलाश होती है। यह बात बहुत ज़रूरी है कि लड़कियों को सुरक्षित जीने के लिये बेहतर सुरक्षा टिप दिए जांय। उन्हें परिवार में अलग थलग और डरा दबा कर न रखा जाय। उन्हें पूरे पुरूष जाति से डराना भी ठीक नहीं है पर उन्हें उन जानवरों की आंखे, ज़ुबान और देहभाषा पढ़ना ज़रूर सिखाया जाय जिनके लिये स्त्री एक कमोडिटी है माल है।

 कल से यह सलाह दी जा रही है कि बेटियों को जुडो कराटे आत्मरक्षा के उपाय सिखाये जांय। यह सलाह उचित है। लेकिन बेटियों को जिनसे बचना है उन्हें क्या सिखाया जाय ? समाज मे महिलाएं हो या पुरूष अलग थलग नहीं रह सकते हैं। वे मिलेंगे ही। अपने काम काज की जगहों पर, रेल बस और हाट बाजार और अन्य सार्वजनिक जगहों पर। दोनों को ही एक दूसरे के बारे में क्या सोच रखनी है, मित्रता की क्या सीमा रेखा हो, उस सीमारेखा के उल्लंघन का क्या परिणाम हो सकता है, यह न केवल लड़कियों को ही समझाना होगा बल्कि लड़को को यह सीख देनी होगी। 

हर स्त्री पुरूष मित्रता बलात्कार तक नहीं जाती है। बल्कि बहुत ही कम। बेहद कम। मर्जी से यौन संबंधों की मैं बात नहीं कर रहा हूँ। मैं बलात और हिंसक बनाये गए यौन सम्बंध की बात कर रहा हूँ। इन सब के बारे में हमें अपने घरों में जहां युवा लड़के लड़कियां हैं इन सब के बारे में, इनके संभावित खतरे के बारे में खुल कर बात करनी होगी। अगर यह आप सोच रहे हैं कि लैंगिक आधार पर दोनों को अलग अलग खानों में बंद कर दिया जाय तो ऐसे अपराध रुक जाएंगे तो यह सोच इस अपराध को बढ़ावा ही देगी। अधिकतर मुक्त समाजो में बलात्कार कम होते हैं क्योंकि वहाँ लैंगिक कुंठा भी कम हॉती है। सोशल मीडिया और सूचना क्रांति के इस दौर में दुनियाभर में जो भी अच्छा बुरा हो रहा है उससे न हम बच सकते हैं और न ही अपने घर परिवार समाज को ही बचा सकते हैं । बलात्कार एक जघन्य अपराध है पर बलात्कार का अपराध जिस मस्तिष्क में जन्म लेता है वह घृणित मनोवृत्ति है। अपराध से तो पुलिस निपटेगी ही, पर इस मनोवृति से तो हमे आप और हमारे समाज को निपटना होगा। 

समाज मे जब तक यह धारणा नहीं बनेगी कि अपराध और अपराधी समाज के लिये घातक हैं तब तक अपराध कम नहीं होंगे और न अपराधी खत्म होंगे। आज हम जिस समाज मे जी रहे हैं वह कुछ हद तक अपराध और अपराधी को महिमामंडित करता है। यह महिमामंडन उन युवाओँ को उसी अपराध पथ पर जाने को प्रेरित भी करता है। एक ऐसा समाज जो विधिपालक व्यक्ति को तो मूर्ख और डरपोक तथा कानून का उल्लंघन करके जीने वाले चंद लोगों को अपना नायक और कभी कभी तो रोल मॉडल चुनता है तो वह समाज अपराध के खिलाफ मुश्किल से ही खड़ा होगा। 

अक्सर ऐसी बीभत्स घटनाओं के बाद कड़ी से कड़ी सजा यानी फांसी देने की मांग उठती है। सज़ा तो तब दी जाएगी जब मुक़दमे का अंजाम सज़ा तक पहुंचेगा। अंजाम तक मुक़दमा तब पहुंचेगा जब गवाही आदि मिलेगी। गवाही तब मिलेगी जब समाज मानसिक रूप से यह तय कर लेगा कि चाहे जो भी पारिवारिक दबाव अभियुक्त का उन पर पड़े वे टूटेंगे नहीं और जो देखा सुना है वही गवाही देंगे। एक स्वाभाविक सी बात है कि मुल्ज़िम के घर वाले मुल्ज़िम को बचाने की कोशिश करेंगे। यह असामान्य भी नही है। पर अन्य गवाहों को जो उसी पास पड़ोस के होंगे को पुलिस की तरफ डट कर गवाही के लिए खड़े रहना होगा। अदालत केवल सुबूतों पर ही सज़ा और रिहा करती है, यह एक कटु यथार्थ है। 

अगर आप यह समझते हैं कि पांच लाख की आबादी पर नियुक्त पांच दरोगा, पचास सिपाही आप को अपराधमुक्त रख देंगे तो आप भ्रम में हैं। बलात्कार जैसी घटनाएं केवल और केवल पुलिस के दम पर ही, नहीं रोकी जा सकती है। हाँ बलात्कार के बाद मुल्ज़िम तो पकड़े जा सकते हैं, उन्हें फांसी भी दिलाई जा सकती है, पर आगे ऐसी कोई घटना न हो यह जिम्मा कोई पुलिस अफसर भले ही आप से यह कह कर ले ले, कि, वह अब ऐसा नहीं होने देगा तो इसे केवल सदाशयता भरा  एक औपचारिक आश्वासन ही मानियेगा। यह संभव नही है। हमे खुद ही ऐसी अनर्थकारी घटनाओं की पुनरावृत्ति से सतर्क रहना होगा औऱ उपाय करने होंगे। 

© विजय शंकर सिंह 

Friday 29 November 2019

कानून - क्या सीबीआई जज लोया की मृत्यु संदिग्ध है ? - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

जब से महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की नयी सरकार आयी है, तब से सीबीआई के स्पेशल जज बृजमोहन लोया के सदिग्ध मृत्यु या हत्या की जांच की मांग शुरू हो गयी है। अब उद्धव ठाकरे की सरकार, इस मामले की जांच कराती है या नहीं यह तो बाद की बात है पर पिछली देवेंद्र फडणवीस की सरकार ने हर तरह से यह कोशिश की इस केस की जांच न हो। महाराष्ट्र सरकार ने इस संबंध में दाखिल जनहित याचिकाओं के ख़िलाफ़ देश के सबसे महंगे और काबिल वकील, मामले की जांच के आदेश अदालत से न दिए जांय, इस हेतु, नियुक्त किये । और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के वकीलों के दलीलों को माना और जांच का आदेश न देते हुए जज लोया की मृत्यु से जुड़ी, सभी पीआईएल खारिज कर दिया। 

सीबीआई जज लोया के संदिग्ध मृत्यु पर कारवां मैगजीन ( Caravan ) ने बहुत विस्तार से लिखा है और उन सब कारणों और परिस्थितियों पर चर्चा की है जिससे जज लोया की हत्या या उनकी मृत्यु की संदिग्धता के संकेत मिलते हैं। संभवतः यह देश का पहला ऐसा मामला है जिसकी जांच न हो सके इसलिए सुप्रीम कोर्ट तक राज्य सरकार अड़ी रही, और सुप्रीम कोर्ट ने भी, बिना किसी पुलिस जांच के ही, यह कह दिया कि मृत्यु का कारण संदिग्ध नहीं है। न एफआईआर, न तफतीश, न पुलिस द्वारा मौका मुआयना, न फोरेंसिक जांच, न पूछताछ, न चार्जशीट और न फाइनल रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया। अदालत का, जांच और विवेचना के कानूनी मार्ग से अलग हट कर  सीधे इस ' कोई अपराध नहीं हुआ ' के निष्कर्ष पर पहुंचना हैरान करता है।

महाराष्ट्र सरकार ने हर संभव कोशिश की कि जज लोया के मृत्यु की जांच न हो। सरकार का किसी अपराध के मामले में जांच न होने देने के प्रयास से ही सरकार की उस मामले में रुचि का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मरने वाला भी जज है, वह अचानक एक गेस्ट हाउस में बीमार पड़ता है और उसे तुरंत अस्पताल ले जाया जाता है जहां उसकी मृत्यु हो जाती है। वह गेस्ट हाऊस में अकेले भी नहीं है। उसके साथ चार अन्य जज भी है। यह एक सामान्य और दुर्भाग्यपूर्ण हृदयाघात का मामला भी हो सकता है और कुछ इसे संदिग्ध भी कह सकते हैं। जब तक यह जांच न हो जाय कि यह एक सामान्य हृदयाघात था या मृत्यु किसी अपराध का परिणाम है , तब तक बिना जांच के कोई भी अदालत इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच सकती है कि कोई अपराध ही नहीं हुआ है और मृत्यु स्वभाविक है ।

देश के आपराधिक न्याय तँत्र में केवल न्यायपालिका ही नहीं आती है, बल्कि पुलिस भी इसका एक महत्वपूर्ण अंग है। कानून में किसी भी संज्ञेय अपराध की जांच करने के लिये सीआरपीसी के अंतर्गत पुलिस को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं। उसे किसी से भी पूछने की ज़रूरत नहीं है। तलाशी, जब्ती, और गिरफ्तारी, ( सर्च सीजर, और ऐरेस्ट ) किसी भी आपराधिक मुक़दमे में जांच या तफतीश करने के लिये पुलिस की कानूनी शक्तियां  है। यह शक्तियां इसलिए पुलिस को दी  गयी हैं ताकि पुलिस अपराध की तह तक जाकर अपराध का रहस्य खोल सके और मुल्ज़िम को पकड़ सके, और उसे विश्वसनीय सुबूतों के साथ अदालत में प्रस्तुत कर सके । पुलिस की विवेचना में अदालतें दखल नहीं देती हैं। वे मुल्ज़िम की गिरफ्तारी पर जमानत आदि के मामले में भी सुनवायी करते समय, केस के मेरिट पर नहीं जाती हैं। उनका काम तभी शुरू होता है जब पुलिस आरोप पत्र या अंतिम आख्या अदालत में दाखिल कर दे।

अब थोड़ा जज लोया की मृत्यु और फिर उस बारे में अदालती कार्यवाही पर नज़र डालते हैं। दिसंबर, 2014 में जज ब्रजमोहन लोया की मृत्यु, नागपुर में हुई थी। तब उस मृत्यु को  संदिग्ध माना गया था। जज लोया  गुजरात के सोहराबुद्दीन शेख के मामले की सुनवाई कर रहे थे। 2005 में सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर की मौत, एक मुठभेड़ के दौरान हो गयी थी। इस मुठभेड़ के फर्जी होने का आरोप था।

इसी मामले में, एक गवाह तुलसीराम की भी मौत हो गई थी। इस हाई प्रोफाइल मामले से जुड़े ट्रायल को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में ट्रांसफर कर दिया था। आरोप था कि गुजरात मे हो सकता है इस मामले में जज पर कोई दबाव हो। इस मामले की सुनवाई, पहले जज उत्पल कर रहे थे, बाद में उनका तबादला हो गया और जज लोया के पास इस मामले की सुनवाई आई थी। दिसंबर, 2014 में जस्टिस लोया की नागपुर में मृत्यु हो गई । तब भी जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध कहा गया था। जज लोया की मौत के बाद जिन जज साहब को इस मामले की सुनवाई मिली उन्होंने अमित शाह को लगाए गए आरोपों से बरी कर दिया था ।

जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध बताते हुए कुछ लोगों ने, घटना की निष्पक्ष जांच कराने की मांग सरकार से की और सरकार द्वारा कोई कार्यवाही न किये जाने पर अदालतों की भी शरण ली। सुप्रीम कोर्ट में भी इस संदर्भ में, पीआईएल दायर की गयीं। इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में, जांच का कोई आधार न पाते हुये, किसी भी जांच का आदेश नहीं दिया और याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि " इस मामले के जरिए न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। '

हाल ही में कुछ समय पहले एक मैग्जीन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि जस्टिस लोया की मौत साधारण नहीं थी बल्कि संदिग्ध थी। जिसके बाद से ही यह मामला दोबारा चर्चा में आया। लगातार इस मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी भी जारी रही। हालांकि, जज लोया के बेटे अनुज लोया ने प्रेस कांफ्रेंस कर इस मुद्दे को उठाने पर नाराजगी जताई थी। अनुज ने कहा था " कि उनके पिता की मौत प्राकृतिक थी, वह इस मसले को बढ़ना देने नहीं चाहते हैं। "

सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायमूर्तियों ने मुख्य न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के संबंध में जब देश के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, तब इन न्यायमूर्तियों ने खुले तौर पर जज लोया के केस की सुनवाई को लेकर अपनी आपत्ति उठाई थी। इन न्यायमूर्तियों की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में, यह भी एक शिकायत थी  कि " मुख्य न्यायाधीश सभी अहम मुकदमें खुद ही सुन लेते हैं यानी मास्टर ऑफ रोस्टर होने का फायदा उठाते हैं। "

सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के मामले में स्वतंत्र जांज की जाए या नहीं, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दायर याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी की जांच वाली मांग की याचिका को ठुकरा दिया. साथ ही याचिकाकर्ता को फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एसआईटी जांच की मांग वाली याचिका में कोई दम नहीं है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड की बेंच ने यह मामला सुना था। इस याचिका में, कोर्ट को तय करना था कि लोया की मौत की जांच एसआइटी से कराई जाए या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "जजों के बयान पर हम संदेह नहीं कर सकते।" अदालत ने इस मामले को राजनीतिक लड़ाई का मैदान बनाने पर भी आपत्ति की। कोर्ट ने माना है कि "जज लोया की मौत प्राकृतिक है।" कोर्ट ने यह भी कहा कि "जनहित याचिका का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।"

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में जो कहा उसे संक्षेप में आप यहां पढ़ सकते हैं, 
● जज लोया की मौत प्राकृतिक थी.
● सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग की आलोचना की। 
● सुप्रीम कोर्ट ने कहा, पीआईएल का दुरुपयोग चिंता का विषय है। 
● याचिकाकर्ता का उद्देश्य जजों को बदनाम करना है। 
● यह न्यायपालिका पर सीधा हमला है। 
● राजनैतिक प्रतिद्वंद्विताओं को लोकतंत्र के सदन में ही सुलझाना होगा। 
● पीआईएल, शरारतपूर्ण उद्देश्य से दाखिल की गई, यह आपराधिक अवमानना है। 
● हम उन न्यायिक अधिकारियों के बयानों पर संदेह नहीं कर सकते, जो जज लोया के साथ थे। 
● ये याचिका आपराधिक अवमानना के समान है और  याचिका सैंकेंडलस है, लेकिन हम कोई कार्रवाई नहीं कर रहे। 
● याचिकाकर्ताओं ने याचिका के जरिए जजों की छवि खराब करने का प्रयास किया। 
● यह सीधे सीधे न्यायपालिका पर हमला.
● जनहित याचिकाएं जरूरी लेकिन इसका दुरुपयोग चिंताजनक है। 
● कोर्ट कानून के शासन के सरंक्षण के लिए है। 
● जनहित याचिकाओं का इस्तेमाल एजेंडा वाले लोग कर रहे हैं। 
● याचिका के पीछे असली चेहरा कौन है पता नहीं चलता। 
● तुच्छ और मोटिवेटिड जनहित याचिकाओं से कोर्ट का वक्त खराब होता है।
● हमारे पास लोगों की निजी स्वतंत्रता से जुड़े बहुत केस लंबित हैं.

जबकि इसी मामले की शुरुआती सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 
" यह मामला गंभीर है और एक जज की मौत हुई है। हम मामले को गंभीरता से देख रहे हैं और तथ्यों को समझ रहे हैं। अगर इस दौरान अगर कोई संदिग्ध तथ्य आया तो कोर्ट इस मामले की जांच के आदेश देगा। सुप्रीम कोर्ट के लिए यह बाध्यकारी है। हम इस मामले में लोकस पर नहीं जा रहे हैं। चीफ जस्टिस ने दोहराया कि पहले ही कह चुके हैं कि मामले को गंभीरता से ले रहे हैं।"

सीबीआई जज बीएच लोया की मौत की स्वतंत्र जांच को लेकर दाखिल याचिका पर महाराष्ट्र सरकार मे जांच का पुरजोर विरोध किया था। महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि
" इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को जजों को सरंक्षण देना चाहिए। ये कोई आम पर्यावरण का मामला नहीं है जिसकी जांच के आदेश या नोटिस जारी किया गया हो. ये हत्या का मामला है और क्या इस मामले में चार जजों से संदिग्ध की तरह पूछताछ की जाएगी। ऐसे में वो लोग क्या सोचेंगे जिनके मामलों का फैसला इन जजों ने किया है. सुप्रीम कोर्ट को निचली अदालतों के जजों को सरंक्षण देना चाहिए।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश मुकुल रोहतगी ने कहा कि 
" ये याचिका न्यायपालिका को स्कैंडलाइज करने के लिए की गई है।  ये राजनीतिक फायदा उठाने की एक कोशिश है। सिर्फ इसलिए कि इस मामले में सत्तारूढ पार्टी के एक बड़े नेता का नाम आ रहे हैं, यह सब आरोप लगाए जा रहे हैं, प्रेस कांफ्रेस की जा रही है। अमित शाह के आपराधिक मामले में आरोपमुक्त करने को इस मौत से लिंक किया जा रहा है। उनकी मौत के पीछे कोई रहस्य नहीं है.  इसकी आगे जांच की कोई जरूरत नहीं है। लोया की मौत 30 नवंबर 2014 की रात को हुई थी और तीन साल तक किसी ने इस पर सवाल नहीं उठाया.। यह सारे सवाल कारवां की नवंबर 2017 की खबर के बाद उठाए गए । जबकि याचिकाकर्ताओं ने इसके तथ्यों की सत्यता की जांच नहीं की।  29 नवंबर से ही लोया के साथ मौजूद चार जजों ने अपने बयान दिए हैं और वो उनकी मौत के वक्त भी साथ थे. उन्होंने शव को एंबुलेंस के जरिए लातूर भेजा था।  पुलिस रिपोर्ट में जिन चार जजों के नाम हैं उनके बयान पर भरोसा नहीं करने की कोई वजह नहीं है। इनके बयान पर भरोसा करना होगा।अगर कोर्ट इनके बयान पर विश्वास नहीं करती और जांच का आदेश देती है तो इन चारों जजों को  सह साजिशकर्ता बनाना पड़ेगा. जज की मौत दिल के दौरे से हुई और 4 जजों के बयानों पर भरोसा ना करने की कोई वजह नहीं है। याचिका को भारी जुर्माने के साथ खारिज किया जाए। " 

सुप्रीम कोर्ट में दो बड़े वकील हरीश साल्वे और मुकुल रोहतगी की ऊपर दी गयी दो दलीलें पढिये। उनका जोर इस विंदु पर अधिक था कि, 
● जो चार जज अंतिम समय मे जज लोया के साथ थे, उन्होंने लोया की मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं देखी। अतः उनका कथन माना जाना चाहिये। 
● अगर जांच या विवेचना के दौरान, उन जजों से पूछताछ होगी तो इससे जनता में उनके प्रति अविश्वास होगा विशेषकर उन लोगों में जिनके मुक़दमे उन जजों ने निपटाए है। 
● इससे न्यायपालिका पर अविश्वास होगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने भी इन चार साथी जजों के कथन पर पूरी तरह से भरोसा किया और यह मान लिया कि मृत्यु के संदिग्ध माने जाने का कोई कारण नही है और जांच करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। 

सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि याचिका राजनैतिक कारणो से दायर की गयी है। यह बाद निराधार नहीं है। वह याचिका राजनैतिक कारणों से भी चूंकि उसमे सत्तारूढ़ दल के सबसे बड़े नेता पर संदेह की सुई जा रही थी इसलिए दायर की गयी है, यह मान भी लिया जाय तो जिस तरह से महाराष्ट्र सरकार येन केन प्रकारेण जज लोया के प्रकरण की जांच नहीं होने देना चाहती थी, क्या राजनीति से प्रेरित नहीं है ? 

सुप्रीम कोर्ट का, केवल जजों के बयान पर भरोसा करके यह मान बैठना कि, चूंकि जब उन साथी जजों ने मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं बतायी है अतः जांच का कोई आधार नहीं है, एक खतरनाक परंपरा को जन्म दे सकता है। क्या यह फैसला एक नज़ीर के तौर पर नहीं देखा जाएगा कि जिस मामले में कोई जज गवाह हों तो उन मामलो की तफतीश करने की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि गवाह जज ने जो कहा है उसे कैसे नकार दिया जाय ! 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1861 में शायद ऐसा कोई प्राविधान नही है जिसमे गवाह की हैसियत से उपस्थित जज साहब की बात को विवेचना में सुबूत के रूप में, माना जाना अनिवार्य है। एक सम्मानजनक पद और कानून के जानकार होने के नाते, एक जज अगर किसी मामले में गवाह है तो उसके बयान की सत्यता का अंश ज़रूर अधिक होगा पर मात्र उसी के बयान पर, एक मृत्यु जिसकी संदिग्धता के संबंध में बार बार सवाल उठाया जा रहा हो, के केस का निपटारा नहीं किया जा सकता है। इस केस में गवाह अगर साथी जज थे तो मृतक भी एक जज थे और जिस मुक़दमे की वह सुनवाई कर रहे थे वह मुक़दमा भी अत्यंत महत्वपूर्ण था। 

अपराध का नियंत्रण, अन्वेषण और अभियोजन यह राज्य का कार्य है। इसीलिए सारे मुक़दमे बनाम राज्य ही अदालतों में जाते हैं। सरकारी वकीलों की लंबी चौड़ी फौज जो मजिस्ट्रेट की अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक नियुक्त रहती है उसका काम ही है कि वह आपराधिक मामले में मुल्जिमों को सज़ा दिलाएं। और यह क्रम सुप्रीम कोर्ट तक अपील दर अपील बना रहे।  लेकिन जज लोया के मामले में राज्य की भूमिका अपराध अन्वेषण की ओर कम अपने राजनैतिक स्वार्थ की ओर अधिक थी। इस स्वार्थ का कारण भी छिपा नहीं है।  इस मामले में होना तो यह चाहिये था कि राज्य सरकार अपराध शाखा या किसी भी अन्य एजेंसी से स्वयं जांच करा लेती और जो भी निष्कर्ष निकलता उसे सक्षम न्यायालय में जैसे अन्य आपराधिक मामले जाते हैं, प्रस्तुत कर देती, और जो भी न्यायिक प्रक्रिया होती वह नियमानुसार पूरी की जाती। पर इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि, यह मामला दफन हो जाय। यह कोशिश ही यह सन्देह मज़बूत करती है कि जज लोया की मृत्यु में कुछ न कुछ, कहीं न कहीं असंदिग्धता है। 

© विजय शंकर सिंह 

Thursday 28 November 2019

पटेल ने तो गोडसे समर्थकों को 1948 में ही पागलों का झुंड और कायर कहा था / विजय शंकर सिंह

संसद में 27 नवंबर को भोपाल से भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर द्वारा गोडसे के महिमामंडन पर देश मे व्यापक निदात्मक प्रतिक्रिया हुयी और कल ही सरकार ने इन सारी प्रतिक्रियाओं से असहज होते हुये, आज 28 नवम्बर को बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर को रक्षा मंत्रालय की समिति से हटा दिया गया है। सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा नाथूराम गोडसे को 'देशभक्त' बताने के संदर्भ में बीजेपी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि संसद में कल उनका बयान निंदनीय है.बीजेपी कभी भी इस तरह के बयान या विचारधारा का समर्थन नहीं करती है। उन्होंने कहा कि हमने तय किया है कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर को रक्षा की सलाहकार समिति से हटा दिया जाएगा और इस सत्र में उन्हें संसदीय पार्टी की बैठकों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

इस संबंध में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जी ने जो कहा है वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा,
" नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहे जाने की बात तो दूर हम उन्हें देशभक्त मानने  की सोच को ही कंडेम ( निंदा ) करते हैं। महात्मा गांधी हम लोगों के आदर्श हैं । वे पहले भी हमारे मार्गदर्शक थे और भविष्य में भी मार्गदर्शक रहेंगे।"

जब 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी, तो उस समय पूरा देश ही नहीं पुरी दुनिया स्तब्ध हो गयी थी। जैसे ही गांधी के हत्या की खबर लॉर्ड माउंटबेटन को मिली, उन्होंने तुरन्त हत्यारे का धर्म पूछा। जब उन्हें बताया गया कि हत्यारा नाथूराम गोडसे है और एक हिन्दू तो माउंटबेटन ने ऊपर देखा और कहा, हे ईश्वर तुमने देश को बचा लिया। भारत उस समय अपने इतिहास के साम्प्रदायिक उन्माद के  सबसे बुरे दौर में चल रहा था। माउंटबेटन को लगा कि अगर कही हत्यारा मुस्लिम होता तो देश मे भयंकर खूनखराबा हो जाता। वैसे भी उस समय देश विभाजन के बाद के दंगे भारत और पाकिस्तान दोनों ही नवस्वतंत्र देशों में चल ही रहे थे। देश कानून व्यवस्था के साथ साथ लाखो शरणार्थियों के निरापद पुनर्वास की समस्या से जूझ रहा था।

सरदार पटेल उस समय देश के गृहमंत्री थे। गृहमंत्री होने के नाते वे खुद को गांधी जी के प्रति, इस सुरक्षा चूक के लिये जब कि इस घटना के पहले भी गांधी हत्या के कुछ विफल प्रयास हो चुके थे, दोषी मान रहे थे। पर उस समय तक वीआईपी सुरक्षा का उतना तामझाम होता नहीं था और गांधी तो ऐसे सुरक्षा इंतजाम चाहते भी नहीं थे। हत्या के बाद 2 फरवरी को गांधी जी की स्मृति में,  दिल्ली में एक शोकसभा हुयी। उसमे नेहरू, पटेल, सहित कांग्रेस के सभी बड़े नेता उपस्थित थे। नेहरू के भाषण के बाद पटेल ने जो कहा वह हत्यारे और हत्यारे के गिरोह की मानसिकता को उजागर कर देता है।

गाँधी जी को मारने की पांच विफल कोशिशों के बाद , छठा हमला सफल हुआ।  उन्हें मारने की पहली कोशिश 1934 में हुई थी।  तो कौन था जिसे गांधीजी से इतने गिले शिक़वे थे ? किसकी संकीर्ण, खूनी विचारधारा में गांधीजी जैसे महानुभाव की कोई जगह नहीं थी।  और वो कौन है जो अब इतिहास को बदल कर अपने किये को हमेशा के लिए मिटाना चाहते है ?

गांधी की हत्या के बाद आयोजित उस शोकसभा में सरदार पटेल के दिए गए भाषण को प्रज्ञा ठाकुर द्वारा संसद में हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडन के बाद याद करना महत्वपूर्ण  है। सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू के बाद उस शोकसभा में, जब अपनी बात कहने खड़े हुए तो उनकी आंखों में आंसू थे। उनकी आवाज़ लरज रही थी। वह बोलने की हालत में नहीं थे। लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ढाढस बढ़ाया और उन्हें कुछ कहने के लिये कहा। वे उस समय, नेहरू के बाद, देश के दूसरे सबसे बड़े नेता थे। उनका बोलना ज़रूरी भी था और उनकी मजबूरी भी।

उन्होंने कहा था,
" जब दिल दर्द से भरा होता है, तब जबान खुलती नहीं है और कुछ कहने का दिल नहीं होता है. इस मौके पर जो कुछ कहने को था, जवाहरलाल  ने कह दिया, मैं क्या कहूं ? "

आगे सरदार पटेल ने कहा,
" हां, हम यह कह सकते हैं कि यह काम एक पागल आदमी ने किया. लेकिन मैं यह काम किसी अकेले पागल आदमी का नहीं मानता. इसके पीछे कितने पागल हैं? और उनको पागल कहा जाए कि शैतान कहा जाए, यह कहना भी मुश्किल है. जब तक आप लोग अपने दिल साफ कर हिम्मत से इसका मुकाबला नहीं करेंगे, तब तक काम नहीं चलेगा. अगर हमारे घर में ऐसे छोटे बच्चे हों, घर में ऐसे नौजवान हों, जो उस रास्ते पर जाना पसंद करते हों तो उनको कहना चाहिए कि यह बुरा रास्ता है और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते.।"
(भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 158)

उन्होंने कहा था,
" जब मैंने सार्वजनिक जीवन शुरू किया, तब से मैं उनके साथ रहा हूं. अगर वे हिंदुस्तान न आए होते तो मैं कहां जाता और क्या करता, उसका जब मैं ख़्याल करता हूं तो एक हैरानी सी होती है. तीन दिन से मैं सोच रहा हूं कि गांधी जी ने मेरे जीवन में कितना परिवर्तन किया? इसी तरह से लाखों आदमियों के जीवन में उन्होंने किस तरह से बदला? सारे भारतवर्ष के जीवन में उन्होंने कितना बदला. यदि वह हिंदुस्तान में न आए होते तो राष्ट्र कहां जाता? हिंदुस्तान कहां होता? सदियों हम गिरे हुए थे. वह हमें उठाकर कहां तक ले आए? उन्होंने हमें आजाद बनाया। "
(भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 157)

सरदार पटेल ने गोडसे और उसके समर्थकों को सबसे बड़ा कायर करार दिया था. पटेल ने कहा था,
" उसने एक बूढ़े बदन पर गोली नहीं चलाई, यह गोली तो हिंदुस्तान के मर्म स्थान पर चलाई गई है. और इससे हिंदुस्तान को जो भारी जख्म लगा है, उसके भरने में बहुत समय लगेगा. बहुत बुरा काम किया. लेकिन इतनी शरम की बात होते हुए भी हमारे बदकिस्मत मुल्क में कई लोग ऐसे हैं तो उसमें भी कोई बहादुरी समझते हैं.। "

महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर 4 फरवरी 1948 को प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस प्रतिबंध के छह महीने बाद सरदार पटेल ने संघ के संस्थापक गोलवलकर को एक पत्र लिखा था। यह पत्र पढ़ कर, यह जाना जा सकता है कि, पटेल की संघ और देश की एकता के बारे में क्या विचार थे। पत्र इस प्रकार है।

नई दिल्ली, 11 सितंबर, 1948
औरंगजेब रोड
भाई श्री गोलवलकर,
आपका खत मिला जो आपने 11 अगस्त को भेजा था. जवाहरलाल ने भी मुझे उसी दिन आपका खत भेजा था. आप राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर विचार भली-भांति जानते हैं. मैने अपने विचार जयपुर और लखनऊ की सभाओं में भी व्यक्त किए हैं. लोगों ने भी मेरे विचारों का स्वागत किया है. मुझे उम्मीद थी कि आपके लोग भी उनका स्वागत करेंगे, लेकिन ऐसा लगता है मानो उन्हें कोई फर्क ही न पड़ा हो और वो अपने कार्यों में भी किसी तरह का परिवर्तन नहीं कर रहें. इस बात में कोई शक नहीं है कि संघ ने हिंदू समाज की बहुत सेवा की है. जिन क्षेत्रों में मदद की आवश्यक्ता थी उन जगहों पर आपके लोग पहुंचे और श्रेष्ठ काम किया है. मुझे लगता है इस सच को स्वीकारने में किसी को भी आपत्ति नहीं होगी. लेकिन सारी समस्या तब शुरू होती है जब ये ही लोग मुसलमानों से प्रतिशोध लेने के लिए कदम उठाते हैं. उन पर हमले करते हैं. हिंदुओं की मदद करना एक बात है लेकिन गरीब, असहाय लोगों, महिलाओं और बच्चों पर हमले करना बिल्कुल असहनीय है.

इसके अलावा देश की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस पर आपलोग जिस तरह के हमले करते हैं उसमें आपके लोग सारी मर्यादाएं, सम्मान को ताक पर रख देते हैं. देश में एक अस्थिरता का माहौल पैदा करने की कोशिश की जा रही है. संघ के लोगों के भाषण में सांप्रदायिकता का जहर भरा होता है. हिंदुओं की रक्षा करने के लिए नफरत फैलाने की भला क्या आवश्यक्ता है? इसी नफरत की लहर के कारण देश ने अपना पिता खो दिया. महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई. सरकार या देश की जनता में संघ के लिए सहानुभूति तक नहीं बची है. इन परिस्थितियों में सरकार के लिए संघ के खिलाफ निर्णय लेना अपरिहार्य हो गया था.

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रतिबंध को छह महीने से ज्यादा हो चुके हैं. हमें ये उम्मीद थी कि इस दौरान संघ के लोग सही दिशा में आ जाएंगे. लेकिन जिस तरह की खबरें हमारे पास आ रही हैं उससे तो यही लगता है जैसे संघ अपनी नफरत की राजनीति से पीछे हटना ही नहीं चाहता. मैं एक बार पुन: आपसे आग्रह करूंगा कि आप मेरे जयपुर और लखनऊ में कही गई बात पर ध्यान दें. मुझे पूरी उम्मीद है कि देश को आगे बढ़ाने में आपका संगठन योगदान दे सकता है बशर्ते वह सही रास्ते पर चले .आप भी ये अवश्य समझते होंगे कि देश एक मुश्किल दौर से गुजर रहा है. इस समय देश भर के लोगों का चाहे वो किसी भी पद, जाति, स्थान या संगठन में हो उसका कर्तव्‍य बनता है कि वह देशहित में काम करे. इस कठिन समय में पुराने झगड़ों या दलगत राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं है. मैं इस बात पर आश्वस्त हूं कि संघ के लोग देशहित में काम कांग्रेस के साथ मिलकर ही कर पाएंगे न कि हमसे लड़कर. मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि आपको रिहा कर दिया गया है. मुझे उम्मीद है कि आप सही फैसला लेंगे. आप पर लगे प्रतिबंधों की वजह से  मैं संयुक्त प्रांत सरकार के जरिए आपसे संवाद कर रहा हूं. पत्र मिलते ही उत्तर देने की कोशिश करूंगा।
आपका
वल्लभ भाई पटेल

आज पटेल की एक एक बात सच साबित हो रही है। गांधी की आलोचना पर कोई आपत्ति नहीं है। गांधी जी की विफलताओं पर भी चर्चा होती है और होनी भी चाहिये। पर उनकी या किसी की भी हत्या को औचित्यपूर्ण केवल बीमार मानसिकता का व्यक्ति ही ठहरा सकता है। गांधी का जैसा व्यापक जनप्रभाव देश मे था वैसा दुनियाभर में कम ही नेताओ का अपनी जनता पर होता है। आज दुनियाभर में भारत के वे प्रतीक बन चुके हैं। गांधी की विचारधारा, स्वाधीनता संग्राम और समाजोत्थान के लिये किये गए उनके कार्यो  से  कोई सहमत हो, या न हो, उनकी निंदा करे, आलोचना करे, पर आज की स्थिति में गांधी इन सबसे परे जा चुके हैं। कायर और बीमार लोगों का गिरोह ही किसी हत्यारे का महिमामंडन कर सकता है। पटेल ने सच ही कहा था।

© विजय शंकर सिंह 

Wednesday 27 November 2019

हरियाणा के आईएएस अफसर अशोक खेमका का तबादला / विजय शंकर सिंह

हरियाणा सरकार और कुछ करे या न करे पर एक काम बड़ी लगन से करती है और वह काम है हरियाणा के आईएएस और सचिव अशोक खेमका का तबादला। हर पांच छह महीने बाद उन्हें बदल देती है।  उनकी नौकरी मे यह उनका 53 वां तबादला है। अब वे इस म्यूजियम सचिव के पद पर कितने दिन रहते हैं यह तो सरकार को भी पता नहीं है। मुझे लगता है अशोक खेमका का तबादला गिनीज बुक में कहीं कभी न कभी दर्ज न हो जाय।

सरकार ने अशोक खेमका को इस बार अभिलेख, पुरातत्व एवं संग्रहालय विभागों का प्रधान सचिव बनाया है. इससे पहले इसी साल मार्च में खेमका  का ट्रांसफर करते हुए उन्हें विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग का प्रधान सचिव नियुक्त किया गया था। करीब 27 साल के करियर में 53 वीं बार तबादले पर अशोक खेमका का दर्द देखें।  उन्होंने ट्वीट कर कहा,
''फिर तबादला. लौट कर फिर वहीं. कल संविधान दिवस मनाया गया. आज सर्वोच्च न्यायालय के आदेश एवं नियमों को एक बार और तोड़ा गया. कुछ प्रसन्न होंगे. अंतिम ठिकाने जो लगा, ईमानदारी का ईनाम जलालत.''

अशोक खेमका 1991 बैच के हरियाणा कैडर के आईएएस अधिकारी हैं। वह गुरुग्राम में सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की जमीन सौदे से जुड़ी जांच के कारण सुर्खियों में रहे हैं। कहा जाता है कि अशोक खेमका जिस भी विभाग में जाते हैं, वहीं घपले-घोटाले उजागर करते हैं, जिसके चलते अक्सर उन्हें ट्रांसफर का दंश झेलना पड़ता है। वह भूपिंदर सिंह हुड्डा के शासनकाल में भी कई घोटालों का खुलासा कर चुके हैं।

अशोक खेमका पश्चिम बंगाल के कोलकाता में पैदा हुए. फिर आईआईटी खड़गपुर से 1988 में बीटेक किए और बाद में कंप्यूटर साइंस में पीएचडी किए। उन्होंने एमबीए भी कर रखी है। नवंबर 2014 में तत्‍कालीन हुड्डा सरकार ने रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के लैंड डील से जुड़े खुलासे के बाद खेमका का तबादला परिवहन विभाग में कर दिया था, जिसको लेकर काफी हो-हल्ला मचा था और सरकार के इस फैसले पर सवाल उठे थे।

तबादला दंड नहीं है। निलंबन दंड नहीं है। यह बातें हमने भी सुनी हैं। निलंबन तो नहीं पर तबादला ज़रूर झेला है पर इतना नहीं जितना अशोक जी झेल रहे हैं। तबादला अगर अनावश्यक और रीढ़ की हड्डी टटोल कर बार बार किया जाय तो वह एक प्रकार का उत्पीड़न है और यह दंश पूरा परिवार भुगतता है। सरकार कुछ पद ऐसे ही अफसरों को अपनी असहजता से बचने के लिये बनाकर रखे रहती है, जिसका पता जनता को तब लगता है जब उस पर कोई अशोक खेमका जैसा अफसर नियुक्त होता है।

अशोक खेमका जैसे अफसर नौकरशाही में कम हैं। वे एक नियम कानून के पाबंद और सजग अफसर हैं, पर सरकार को ऐसे अफसर अमूमन रास नहीं आते हैं। यही अशोक खेमका मीडिया और भाजपा के प्रिय थे जब इन्होंने रॉबर्ट वाड्रा के भूमि से सम्बंधित अनियमितता और घोटालों के दस्तावेज पकड़े थे। भाजपा ने उनका राजनीतिक लाभ तो लिया पर वाड्रा का क्या हुआ, और उन घोटालों की जांच का क्या परिणाम रहा, यह आजतक पता नहीं है।

सरकार को सत्यनिष्ठा और नियम कानून पर चलने वाला अफसर रास नहीं आता है, उसे सत्तारूढ़ राजनीतिक जमात के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा रखने वाला अफसर पसंद है। वह देर सबेर सरकार को असहज ही करता है। क्योंकि उससे सरकार का राजनीतिक समीकरण बिगड़ जाता है। राजनीतिक आकाओं को धन कमवाने वाला, राजनीतिक जोड़ तोड़ करा कर हित साधन करने वाले अफसर अधिक पसंद आते हैं। अशोक खेमका जैसे नहीं।

© विजय शंकर सिंह 

प्रज्ञा ठाकुर ने अपने गिरोह का सच ही तो कहा है ! / विजय शंकर सिंह

प्रज्ञा ठाकुर ने अपने मन का ही सच नहीं बल्कि अपने गिरोह और गिरोह के सरदार सहित सभी लोगों के मन की बात देश की सर्वोच्च पंचायत में कह दी। प्रज्ञा ठाकुर ही नहीं पूरा संघ और उसके समर्थक गोंड़से को देशभक्त ही मानते हैं। उनके देशभक्ति की क्या परिभाषा है यह तो वही बता पाएंगे। एक हत्यारे को वह भी एक ऐसे महान व्यक्ति जो दुनियाभर मे हमारे प्रतीक के रूप में मान्य हो, के हत्यारे को केवल संघी मानसिकता में पले बढ़े लोग ही देशभक्त कह सकते हैं। क्यों कहते हैं, यह उन्हें स्पष्ट करना चाहिये। जब सरकार और संसद में फर्जी डिग्री वाले, फर्जी हलफनामा देने वाले, हत्या की साज़िश रचने वाले, बम ब्लास्ट के आतंकी मुल्ज़िम पाए जाएंगे तो गोंडसे को ही ऐसे तत्व देशभक्त कहेंगे,  गांधी को नहीं।

दरअसल, यह गिरोह शुरू से ही बार बार ऐसे शिगूफे छोड़ कर यह टेस्ट करता रहता  है कि गांधी के प्रति जनता में कितनी जनभावना अभी शेष है। जब उसे लगता है कि अभी भी गांधी का प्रभाव जस का तस है तो वह तुरन्त पीछे कदम हटा लेता है। माफी मांग लेता है। या हमारा यह आशय नहीं बल्कि यह था, आदि आदि, किंतु परंतु से अपनी बात रखने की जुगत में लग जाता है। 

यह बयान भी उसी रणनीति का हिस्सा है।इस तरह की बयानबाजी का एक उद्देश्य यह भी है कि हम सबका ध्यान इन ठगों और हत्यारो की इन्ही सब बातों पर लगा रहे और वे गिरोही पूंजीपतियों को लाभ और जनता को नुकसान पहुंचाते रहें। गांधी अकेले ऐसे शख्स थे जिन्होंने संघ, हिन्दू महासभा और सावरकर का गेम प्लान असफल कर दिया था । और गांधी की इस उपलब्धि के पीछे उनको प्राप्त अपार जनसमर्थन था। धर्म के क्षेत्र में बुद्ध ने, साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने भारतीय जनमानस को जितना गहराई से प्रभावित किया है वह दुर्लभ है। गांधी की इस अपार लोकप्रियता का कोई तोड़ संघ के पास न तब था और न अब है। आरएसएस की गांधी से चिढ़ जगजाहिर है। पर ये करें क्या ? देश के बाहर तो वह यह कह नहीं कह सकते हैं कि वे गोडसे के देश से आते हैं। इन पर केवल तरस खाइए, और इनसे कहिये बसे रहिये।

प्रज्ञा ठाकुर एक आतंकी घटना की मुल्ज़िम है । मुंबई, 26 / 11 के अमर शहीद हेमंत करकरे उनकी नज़र में देशद्रोही हैं और एक अपराधी।  उन्हें प्रधानमंत्री जी ने दिल से माफ तो नहीं किया पर दिल मे बसा ज़रूर लिया। क्या यह संभव है कि प्रधानमंत्री जी जो सदन के नेता हैं की मर्ज़ी के बगैर प्रज्ञा ठाकुर रक्षा मंत्रालय की स्थायी समिति की सदस्य मनोनीत हो जांय ? मनोनीत होते समय भले ही न उन्हें पता चल पाया हो क्योंकि यह नियुक्ति लोकसभा के अध्यक्ष करते हैं, पर मनोनयन के बाद तो प्रधानमंत्री जी उन्हें उस स्टैंडिंग कमेटी से हटाने के लिये तो कह ही सकते थे। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ ? गांधी के 150 वी जयंती पर प्रज्ञा ने एक बात सच कही कि वह गोडसे को देशभक्त मानती है और वही नही वह पूरा गिरोह गोंडसे को देशभक्त ही मानता है और उसके जघन्यतम अपराध का बचाव करता रहता है।

प्रज्ञा ठाकुर की क्या निंदा की जाय ! टिकट भले ही उन्हें भाजपा ने दिया हो, उनके मस्तिष्क में ज़हर भले ही देश का सबसे बड़ा गिरोही और अपंजीकृत संगठन आरएसएस ने भरा हो पर उन्हें संसद में तो भेजा भोपाल की जनता ने ही न ! लोकतंत्र की यह भी एक खूबी है कि हम देश के सबसे महानतम प्रतीक के हत्यारे का महिमामंडन करने वाली और बम ब्लास्ट के आतंकी घटना के मुल्ज़िम को चुन कर संसद में भेज देते हैं और वह उस पवित्र सदन में जो कहता है वह नेशनल ऑनर एक्ट के अंतर्गत अपराध हो तो भी, उसके खिलाफ कोई वैधानिक कार्यवाही इसलिए नहीं हो सकती है कि सदन में कही गयी किसी बात पर कोई कानूनी कार्यवाही, संसदीय नियमों के अनुसार, हो ही नहीं सकती है।  उस कथन को बस सदन की कार्यवाही से निकाला जा सकता है, जो बाद में लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से, सदन की कार्यवाही से निकाल भी दिया गया। लोकतंत्र का एक पक्ष यह भी है।

जब संसद का अधिवेशन चल रहा हो तो, सरकार को ऐसे शिगूफे लगभग, हर रोज़ चाहिये, विशेषकर तब, जब एक एक कर के सारी नवरत्न सरकारी कंपनियां सरकार द्वारा बेची जा रही हो, अनुमानित कर संग्रह का आधा ही राजकोष में आया हो, वित्त मंत्री को यह तो पता है कि विकास थम गया है पर यह कहने और स्वीकार करने का उन्हें साहस न हो, कि देश आर्थिक मंदी के चपेट में है, कश्मीर में मरीज का ऑपरेशन कर के पेट तो खोल दिया गया है पर अब आगे क्या करना है, यह पता न हो तो, ऐसे ही शिगूफे सरकार की जान बचा सकते हैं और  तात्कालिक राहत दे सकते हैं।

प्रज्ञा ठाकुर या आरएसएस की विचारधारा में पले बढ़े, किसी भी व्यक्ति के मुंह से अगर यह सुनने की आप की प्रत्याशा है कि गोंडसे हत्यारा और आतंकी था तो आप यह भूल कर रहे हैं। विनम्र से विनम्र और विधिपालक मानसिकता का संघी भी गोडसे की चर्चा होने पर, सुभाषितों से सम्पुटित अपनी वाणी में, गोडसे के पक्ष में ही खड़ा नज़र आएगा, और गोडसे की किताब 'गांधी वध क्यों' के कुछ उद्धरण ज़रूर सुना जाएगा। यह उनकी प्रिय पुस्तक है। आपने नितिन गडकरी को नहीं सुना ? वे गांधी हत्या नहीं गांधी वध कहते हैं। बचपन से जो उन्होंने सुना है वही तो कहेंगे वे। हत्या और वध समानार्थी हैं पर शब्द का प्रयोग करने वाले की मानसिकता को वे उधेड़ कर अनावृत कर देते हैं। जान तो दोनों में ही जाती है, पर वध हत्या का औचित्य कुछ हद तक सिद्ध करता प्रतीत होता है, और अपराध को एक सम्मानजनक कवर दे देता है, इसलिए वे अपनी सर्किल में यही कहते हैं। ठगों और अपराधियों की भाषा बोली थोड़ी अलग होती है जो मुझे भी कुछ कुछ समझ में आती है।

भाजपा के लोग चाहे जो दिखावा करें, लेकिन प्रज्ञा ठाकुर भारत के लिए शर्मिंदगी का सबब हैं। वे संसद और इसकी सलाहकार समिति के लिए शर्मिंदगी की वजह हैं। और निश्चित तौर पर वे  अपने राजनीतिक आकाओं के लिए भी शर्मिंदगी का कारण हैं। लेकिन शायद उन्हें इस शब्द का मतलब नहीं पता। गोडसे का लॉकेट यह पूरा गिरोह गले मे धारण कर ले या जितना मन करे, उस आतंकी हत्यारे का महिमामंडन कर ले, पर गांधी विश्व पटल और देश के जनमानस में जहां प्रतिष्ठित हैं वहीं रहेंगे। यह यथार्थ, इनको भी पता है और हम सबको भी। इसे थोड़ा दरकिनार कीजिये और जो ज्वलंत मुद्दे इस समय देश और समाज के समक्ष है, विशेषकर आर्थिकी, एलेक्टोरेल बांड , राजनीतिक चंदे, कश्मीर में बिगड़ते हालात, दुनियाभर में बिगड़ती अंतरराष्ट्रीय क्षवि, देश के अंदर घटता इनका जनाधार, छात्र, किसान, मजदूरो के असंतोष के, उनपर डटे रहिये, यह सब शिगूफा है। एक गेम है। ठग विद्या है।

© विजय शंकर सिंह 

संविधान दिवस - आरएसएस और भारतीय संविधान / विजय शंकर सिंह

आरएसएस देश की मुख्य धारा से अपने जन्म के समय से ही अलग रहा है। 1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही, संघ का चाल चरित्र चेहरा, भारत के अंदर विद्यमान लोकप्रिय और प्रमुख धारा से अलग ही अपनी बात कहता रहा है। संघ अपनी विचारधारा को राष्ट्रवादी विचारधारा कह कर प्रचारित करता है और उसी का राजनीतिक संस्करण भारतीय जनता पार्टी भी खुद को राष्ट्रवादी ही कहती है पर इस जिज्ञासा का समाधान कोई भी संघी मित्र नहीं करता है कि जब आज़ादी का एक राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था तो संघ का राष्ट्रवाद कहाँ था ? संघ जिस राष्ट्रवाद की बात करता है उनके उस राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है ? हमारा स्वाधीनता संग्राम जिस राष्ट्रवाद पर आधारित था, वह तिलक, गोखले, गांधी, टैगोर, अरविंदो, नेहरू, पटेल, आज़ाद आदि की सोच और भारतीय अस्मिता जो बहुलता में एकता की बात सदा से करती आयी है से विकसित हुआ राष्ट्रवाद था। जबकि संघ जिस राष्ट्रवाद की बात करता है वह यूरोपीय एकल समाज के राष्ट्रवाद से प्रभावित है जिसे हम जर्मन राष्ट्रवाद कह सकते हैं। यह राष्ट्रवाद एक संकीर्ण विचारधारा का राष्ट्रवाद है जो किसी जाति, या धर्म के श्रेष्ठतावाद पर आधारित है और हमारी दीर्घ परंपरा में बसे हुये वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत से अलग और विपरीत है।

वर्ष 1925 में अपनी स्थापना से लेकर, वर्ष  1947, भारत के आज़ाद होने तक, संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार, और एमएस गोलवलकर संघी विचारधारा के मुख्य प्रणेता रहे हैं। डॉ हेडगेवार तो संघ के संस्थापक ही थे और गोलवलकर जिन्हें गुरु जी के नाम से संघ जगत में जाना जाता है, वह संघ की विचारधारा के प्रमुख प्रस्तोता रहे हैं। एमएस गोलवलकर ने संघ की विचारधारा पर अपनी पुस्तक द बंच ऑफ थॉट जिसका हिंदी अनुवाद विचार नवनीत है, में भारतीय संविधान के बारे में अपने जिन विचारों को व्यक्त किया है से संघ का भारत के संविधान के संबंध में क्या दृष्टिकोण रहा है, स्पष्ट होता है, को पढ़ना और देखना रोचक होगा। मैं इस लेख में संविधान के बारे में गोलवलकर के के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण जो उनके भाषणों और उनकी पुस्तक बंच ऑफ थॉट से लिये गये हैं प्रस्तुत करूँगा, जिससे भारतीय संविधान के बारे में उनके विचारों का पता चलता है।

अगर भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास की बात करें तो, संघ या हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग भारत के स्वाधीनता संग्राम की मूल धारणा, अंग्रेजों भारत छोड़ो के विपरीत थे । न सिर्फ इस महान आंदोलन के, बल्कि भारत की आज़ादी के लिये चलाये जा रहे किसी भी आंदोलन या क्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी रुचि नहीं थी। भारत आज़ाद हो, यह उनका उद्देश्य कभी रहा ही नहीं है। मुस्लिम लीग भी मुसलमानों के लिये एक आज़ाद और अलग संप्रभु देश ज़रूर चाहते थी  और उसी के लालच में वे अंग्रेजों से अंत तक चिपके भी रहे। जब कांग्रेस का भारत छोड़ो आंदोलन और नेताजी सुभाष बाबू का आज़ाद हिंद फौज का अभियान चल रहा था तब हिन्दू महासभा, संघ और मुस्लिम लीग अंग्रेजों की सरपरस्ती में साझी सरकार चला रहे थे।

वर्ष 1940 तक आते आते जिस पवित्र राष्ट्रवाद के आधार पर एक आज़ाद भारत के लिये एक स्वाधीनता संग्राम चल रहा था वह धर्म पर आधारित देश के लिये अलग अलग खानों में बंट गया और दुर्भाग्य से देश के साझे दुश्मन ब्रिटिश न हो कर, हिन्दू और मुस्लिम हो गए। 1937 में हिन्दू एक राष्ट्र है और 1940 में मुस्लिम एक राष्ट्र है, की अवधारणा ने जन्म ले लिया और भारत एक राष्ट्र है की अवधारणा पीछे हो गयी। धर्म पर आधारित द्विराष्ट्रवाद का जन्म हुआ और भारत दो भागों में बंट गया। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान तो पा लिया, पर हिन्दू महासभा और सावरकर जो हिन्दू राष्ट्र के स्वयंभू प्रणेता थे को उनका इच्छित नहीं मिल सका । क्योंकि शेष भारत तो उन्ही मूल्यों के साथ मजबूती से खड़ा रहा जो मूल्य हज़ारों साल से भारत की अस्मिता और भारत की पहचान बने हुए हैं। वह मूल्य थे सर्वधर्म समभाव के और बहुलतावाद के। संघ की मानसिकता ही बहुलतावाद के विपरीत रही है।

1947 में मिली आज़ादी के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण अलग था। उन्होंने इसे आज़ादी के रूप में नहीं देखा। वे यह तो चाहते थे कि देश धर्म के आधार पर न बंटे, अखंड बना रहे, और अगर बंटे भी तो भारत एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में आज़ाद हो जैसा कि पाकिस्तान एक इस्लामी मुल्क के रूप में अलग हो गया था।  आज भी संघ की विचारधारा से प्रशिक्षित मित्र यह मासूम सवाल करते हैं कि जब मुस्लिमों के लिये धर्म के आधार पर एक अलग देश, पाकिस्तान बना है तो भारत केवल हिंदुओ के लिये ही क्यों नहीं बनाया गया। संकीर्णता के साथ अगर यह तर्क सुनियेगा तो लगेगा यह एक वाजिब सवाल है। पर जब भारतीय, इतिहास, वांग्मय, दर्शन, परंपरा और सांस्कृतिक प्रवाह में पैठियेगा तो यही तर्क एक खोखला और आधारहीन लगने लगेगा। यह सवाल उठाने वाले मित्र यह भूल जाते हैं कि भारत की आज़ादी के संघर्ष में सम्मिलित सभी दल, चाहे वह कांग्रेस हो, या समाजवादी, या कम्युनिस्ट या क्रांतिकारी आदोलन के जाबांज युवक, ये सभी धर्म आधारित राष्ट्र के लिये नहीं बल्कि ब्रिटिश ग़ुलामी के विरुद्ध लड़ रहे थे। भगत सिंह और उनके साथियों का तो उद्देश्य ही अलग था। वे उपनिवेशवाद के खिलाफ थे और एक समाजवादी शोषण विहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। इन तमाम संघर्षों के बीच, आरएसएस, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग जब 1940 के बाद स्वाधीनता के लिये निर्णायक संघर्ष शुरू हुआ तो आज़ादी के आंदोलन से न केवल बाहर और खिलाफ थे, बल्कि अंग्रेजों के साथ थे और कुछ तो उनके मुखबिर भी थे। ऐसा भी नहीं कि वे केवल महात्मा गांधी औऱ नेहरू के ही खिलाफ थे, बल्कि वे सुभाष बाबू के भी खिलाफ थे, पटेल के भी और भगत सिंह की विचारधारा के खिलाफ तो थे ही।

1947 में आज़ादी के बाद संविधान बना। 1935 के अधिनियम के अनुसार गठित असेंबली ही संविधान सभा मे बदल गयी। पहले सच्चिदानंद सिन्हा, इस संविधान सभा के अध्यक्ष बने । बाद में इस पद पर डॉ राजेंद्र प्रसाद आसीन हुये। संविधान ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉ बीआर अंबेडकर बने और इस प्रकार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे विशाल संविधान जो लगभग 400 अनुच्छेदों का है, बना। संविधान सभा मे ऐसा भी नही था कि, सभी सदस्य कांग्रेस के ही थे, बल्कि विभिन्न विचारधारा से आये हुए लोग थे। डॉ आंबेडकर तो स्वाधीनता संग्राम से भी जुड़े नहीं थे, बल्कि वे तो ब्रिटिश राज के ही एक अंग थे। पर जब उन्हें यह दायित्व देने की बात आयी तो, उनकी प्रतिभा और मेधा को देखा गया न कि उनकी पृष्ठभूमि को। सभी सदस्य तमाम मतभेदों के बावजूद इस बात पर एकमत थे कि देश का संविधान, पंथ निरपेक्ष और उदार संसदीय लोकतंत्र के प्रति समर्पित होगा। हालांकि, संविधान के 42 वें संशोधन में, दो शब्द, समाजवादी और पंथ निरपेक्ष ( सेकुलर ) बाद में जोड़े गए हैं, जो मूल प्रस्तावना में नहीं हैं, लेकिन इसके बावजूद मूल संविधान की आत्मा पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत पर ही आधारित है।

संघ लंबे समय संविधान के स्वरूप का विरोध करता रहा है। संविधान ही नहीं राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक का भी विरोध करता रहा है। एनएस गोलवलकर का यह उद्धरण पढें, जो उन्होंने वर्ष 1949 में आरएसएस प्रमुख के रूप में, अपने एक भाषण में कहा था। वे कहते हैं,
“संविधान बनाते समय अपने ‘स्वत्व’ को, अपने हिंदूपन को विस्मृत कर दिया गया। उस कारण एक सूत्रता की वृत्तीर्ण रहने से देश में विच्छेद उत्पन्न करने वाला संविधान बनाया गया। हम में एकता का निर्माण करने वाली भावना कौन सी है, इसकी जानकारी नहीं होने से ही यह संविधान एक तत्व का पोषक नहीं बन सका। एक देश, एक राष्ट्र तथा एक ही राज्य की एकात्मक शासन रचना स्वीकार करनी होगी। एक ही संसद हो, एक ही मंत्रिमण्डल हो, जो देश की शासन सुविधा के अनुकूल विभागों में व्यवस्था कर सके।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-2, पृष्ठ 144)

यहां गोलवलकर संविधान को कोसते हैं। वे संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है। वे एक एकीकृत भारत चाहते हैं। पर वे यह ऐतिहासिक तथ्य भूल जाते हैं कि भारत मे एक ही सम्राट या राज्य कभी रहा ही नही है। एक ही धर्म सनातन धर्म रहते हुए भी इस धर्म की असंख्य शाखा प्रशाखा हैं और, और इस बहुजातीय, बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक भारत मे एक ही समाज की बात करना, देश की परंपरा और दीर्घ विरासत को नकार देना है। उनको वह संविधान पसंद है जो ‘मनुस्मृति’ में है। उन्हें इस बात से आपत्ति है कि भारत में अलग-अलग राज्य क्यों हैं ? गोलवलकर ने 1940 में चेन्नई में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए जो कहा था, अब उसे पढें,
“एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने कोने में प्रज्वलित कर रहा है।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-1, पृष्ठ 11)

गोलवलकर के सिद्धांत जनवाद विरोधी और हिटलरी तानाशाही को मानने वाले थे। राष्ट्रवाद का यह यूरोपीय संस्करण था जो मुसोलिनी और हिटलर की श्रेष्ठतावाद से प्रभावित ही नहीं कहीं कहीं उसकी अनुकृति भी लगता है। यह राष्ट्रवाद भारतीय स्वाधीनता संग्राम के राष्ट्रवाद से बिलकुल उलट है। यही कारण है कि केवल संघ, और हिन्दू महासभा के कुछ लोगो को छोड़कर राष्ट्रवाद की इस नेशन स्टेट वाली अवधारणा को किसी ने भी न तो स्वीकार किया और न ही इस बारे मे सावरकर के साथ खड़े दिखे।

भारत के संविधान में संघीय राज्य की कल्पना की गयी है । भारत एक संघ है। एक राज्य नहीं बल्कि राज्यों का एक समूह है। सभी राज्य अपने आंतरिक राज व्यवस्था और प्रशासन के लिये स्वशासित हैं और अपनी अपनी विधायिकाओं द्वारा जनता के प्रति उत्तरदायी हैं। कुछ अधिकार राज्यों के दायरे में हैं और कुछ अधिकार केंद्र सरकार के दायरे में है। इस संकल्पना के पीछे बहु संस्कृति, भाषा और मान्यताओं के सम्मान और अधिकार की धारणा का सिद्धांत है मगर आरएसएस को  विविधता की यह अवधारणा ही नापसंद है।

एमएस गोलवलकर की पुस्तक ‘विचार नवनीत’ में एक शासक अनुवर्त्तिता को लागू करने के लिए कहा गया है। अब इसे पढें,
“इस लक्ष्य की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के विधान से संघीय ढाँचे (फेडरल) की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें, एक राज्य के अर्थात भारत के अंतर्गत अनेक स्वायत्त अथवा अर्ध स्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधान मण्डल, एक कार्य पालिका घोषित करें। उसमें खंडात्मक, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के चिह्न को भी नहीं होना चाहिए। इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य को विध्वंस करने का अवकाश नहीं मिलना चाहिए।”
(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ -227)

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-3, पृष्ठ 128)

भाषा, क्षेत्र और संस्कृति की अनेकताओं को समाप्त कर संघ हर क्षेत्र में जिस “शुद्धता” की बात करता है वह एक ऐसी “शुद्धता” है जिसमें देश की बहु संस्कृति को फासीवादी, ब्राह्मणवादी, वर्चस्वकारी तानाशाही शुद्धता में बदलना है। इसके सिवा और क्या कारण हो सकता है कि वह तमाम सांस्कृतिक विविधता को मिटा देना चाहता है ? वह चाहता है कि जैसे संघ सोचता है वैसे ही लोग सोचें और बोलें। संघ लोगों के मस्तिष्क से उनके खुद के विवेक को हटाकर उन्हें मानसिक रूप से अपना गुलाम बनाना चाहता है।

किसी भी देश का ध्वज इतिहास और परंपराओं  से निर्धारित होता है। भारत का ध्वज भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज, तिरंगे का भी एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। कांग्रेस के बेजवाड़ा अधिवेशन ( जो अब विजयवाड़ा है ) में,  आंध्र प्रदेश के एक युवक पिंगली वैंकैया ने एक झंडा बनाया और उसे गांधी जी को दिया। यह ध्वज दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्वं करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिये। वर्ष 1931, तिरंगे के इतिहास में एक स्मरणीय वर्ष है। तिरंगे ध्वज को भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया और इसे राष्ट्र-ध्वज के रूप में मान्यता मिली। यह ध्वज जो वर्तमान स्वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया था कि इसका कोई साम्प्रदायिक महत्त्व नहीं था। 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने वर्तमान ध्वज को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के चौबीस तीलियों वाले धर्म चक्र को स्थान दिया गया। इस प्रकार तिरंगा, स्वतंत्र भारत का ध्वज बना।

ध्वज एक प्रतीक के रूप में जनता
के बलिदानों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी मुल्क में ध्वज उस मुल्क की जनता का प्रतीक तभी बनता है जब उसके साथ जनता का संघर्ष और उसकी आकांक्षाएं शामिल हो। तिरंगे को साथ लिये लिये सीने पर गोलियां और सिर पर लाठी खाने के अनेक उदाहरण स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इस प्रकार संघर्षरत जनता अपने ध्वज को बदलती है और पुराने ध्वज जो शासक वर्गों के प्रतीक में बदल गए होते हैं उन्हें हटाती है। संघर्षरत जनता का अपना ध्वज चुनना एक बात है और प्रतीकों की राजनीति करना और इनके आधार पर लोगों को बाँटना दूसरी बात। यह सच है कि आज़ादी के दौरान तिरंगा स्वीकार किया गया । लेकिन ध्वज के मुद्दे पर, आरएसएस अलग ही राग अलापता है। दूसरों से बात-बात पर देश-प्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण मांगने वाले संघ ने खुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया ? जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया तब आरएसएस प्रमुख डॉ. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी कर तमाम शाखाओं पर भगवा झंडा फहराने का निर्देश दिया।

आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी पत्र ऑर्गनाइज़र में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखा,
“वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा ना इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा और ना ही अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हो वह बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह होगा।”
गोलवलकर ने अपने लेख में आगे कहा है,
“कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?”
(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)

दरअसल आरएसएस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण शासक पेशवाओं के भगवा झंडे को भारत का राष्ट्रध्वज बनाना चाहता है। गोलवलकर ने इस बारे में कहा,
“हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसलिए इसी परम वंदनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा।”
(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’,भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड-1, पृष्ठ 98)

संघ संविधान से अपनी असहमतियां तार्किक आधार पर नहीं रखता है क्योंकि तर्क से तो संघ का छत्तीस का आँकड़ा है। अतार्किकता के बल पर ही उसने नफरत का धंधा खड़ा किया है। संघ के संविधान विरोध का आधार उसका झूठा प्राचीनता का बहाना है जिसके अनुसार प्राचीन काल में ‘स्वर्ण युग’ था जबकि ऐतिहासिक सत्यता इस बात को कहीं भी प्रमाणित नहीं करते हैं। जब से संविधान लागू हुआ तब से आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने उसका विरोध ही किया है। एक तरफ संघ अतार्किक रूप से संविधान को अप्रश्नेय और पवित्र-पूज्य बनाने की मनोवृत्ति का प्रचार करता है। दूसरी तरफ उसके नेताओं के मन में एक तानाशाही पूर्ण व्यवस्था का सपना है जहां जनवाद, आधुनिक मूल्यों और समानता जैसे विचार हैं ही नहीं।

हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जाता है। हम संविधान को, उसने जो अधिकार हमे दिये हैं, उन्हें, एक अच्छे नागरिक के रूप में संविधान जो हम नागरिकों से अपेक्षा करता है उस उम्मीद को हर साल याद करते हैं। संविधान भले ही 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया हो, पड़ वह लागू 26 जनवरी 1950 से हुआ। संसार मे कुछ भी पूर्ण नही है और न ही कोई विकल्पहीन है। संविधान भी अपवाद नहीं है। वह भी अंतिम नहीं है। समय के अनुसार उसमे  भी संशोधन हुये हैं और आगे भी होते रहेंगे। संविधान में सत्तर सालों में सौ से अधिक संशोधन किये गए हैं। पहले संविधान, संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता था, अब यह अधिकार नहीं रहा। समय और सरकार की विचारधारा के साथ साथ संविधान बदलता रहता है। पर संविधान का मूल ढांचा यानी, संसदीय प्रणाली, लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता, मौलिक अधिकार, संघीय स्वरूप आदि में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है और यह अधिकार संसद जिसकी सर्वोच्चता निर्विवाद है, के पास भी नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

कानून - रिटायर कर्मचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार मामले में जांच हेतु सरकार की अनुमति सरूरी नहीं / विजय शंकर सिंह

रिटायर हो जाने के बाद एन्टी करप्शन एक्ट 1988 के अनुसार किसी सरकारी या लोकसेवक कर्मचारी के खिलाफ, मुक़दमा चलाने के लिये सरकार के अनुमोदन या अनुमति की ज़रूरत नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि भ्रष्टाचार निवारण या निरोधक अधिनियम, 1988 के तहत एक लोक सेवक या सरकारी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति के बाद उसके खिलाफ केस चलाने के लिए किसी भी अनुमोदन या स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है।

न्यायमूर्ति दिनेश कुमार सिंह ने याचिकाकर्ता, एक सरकारी इंटर कॉलेज के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, श्याम बिहारी तिवारी द्वारा उठाए उन तर्कों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि वह लोक सेवक की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं, इसलिए अभियोजन के लिए स्वीकृति आवश्यक थी।

कोर्ट ने माना कि,
''भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध का संज्ञान लेने के लिए धारा 19 के प्रावधानों के अनुसार, लोक सेवक के लिए सेवा में बने रहना आवश्यक है और वर्तमान मामले में संज्ञान लेने की तारीख वाले दिन याचिकाकर्ता सेवा में नहीं था, क्योंकि वह रिटायर हो गया था, इसलिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के तहत याचिकाकर्ता के लिए अभियोजन स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं थी।''

याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया था कि सीआरपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी की आवश्यकता थी, क्योंकि उसके खिलाफ आईपीसी के प्रावधानों के तहत चार्जशीट दायर की गई थी।

इस दलील से इनकार करते हुए अदालत ने कहा
''अभियोजन स्वीकृति लेने के लिए अधिनियम और आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन के बीच एक उचित संबंध होना चाहिए। अधिनियम के साथ कर्तव्य का इस तरह का संबंध होना चाहिए कि अभियुक्त उचित तरह से यह दावा कर सकता है, लेकिन एक ढोंग या काल्पनिक दावा नहीं, कि उसने यह अपने कर्तव्य के प्रदर्शन या निर्वहन के दौरान किया है।"

प्रोफेसर एन.के. गांगुली बनाम सीबीआई, नई दिल्ली, (2016) 1 जेआईसी 253 (एससी), मामले पर विश्वास जताया गया, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि यदि सार्वजनिक कार्यालय का दुरुपयोग किया गया है तो यह नहीं माना जाएगा कि अभियुक्त ने अपने आधिकारिक कर्तव्य के दौरान अपने कार्य का निर्वहन किया है। इस तरह के मामलों में, अभियोजन स्वीकृति लेने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।

इसी तरह अमीर सिंह बनाम पेप्सू राज्य, एआईआर 1955 एससी 309 में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि,
''सीआरपीसी की धारा 197 के तहत एक लोक सेवक द्वारा किए गए हर अपराध के लिए अभियोजन की मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं है, और न ही उसके द्वारा किए गए हर उस कार्य के लिए, जबकि वह वास्तव में अपने आधिकारिक कर्तव्यों के पालन में लगा हुआ था, लेकिन अगर शिकायत की गई कार्रवाई का सीधे उसके आधिकारिक कर्तव्यों से संबंधित है, और यदि पूछताछ की जाती है, तो यह दावा किया जा सकता है कि उक्त कार्रवाई कार्यालय के आधार पर की गई है, ऐसे मामले में मंजूरी आवश्यक होगी।''

याचिकाकर्ता पर आरोप लगाया गया था कि उसने फर्जी स्कूल और बैंक खाता खोलने के लिए दस्तावेजों में हेर-फेर या फर्जीवाड़ा किया था। ताकि उस धनराशि का दुरुपयोग किया जा सके, जो कि योग्य छात्रों को छात्रवृत्ति के माध्यम से वितरित की जानी थी। अपनी गैरकानूनी गतिविधियों के दौरान, याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर कुछ लोगों के साथ मिलीभगत की, जिसमें एक बैंकर भी शामिल था, और उसने 3,48,000 रुपये का गबन कर लिया।

इस प्रकार, याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 409,201 व 120बी और भ्रष्टाचार निवारण या निरोधक अधिनियम, 1988 की धारा 13 (1) और 13 (2) के तहत केस बनाया गया था। उल्लेखनीय रूप से, याचिकाकर्ता वाराणसी के एक इंटर कॉलेज के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य थे। इसी आधार पर उसने मांग की थी कि उसके खिलाफ केस चलाने के लिए अभियोजन की स्वीकृति ली जानी चाहिए थी।

याचिकाकर्ता की याचिका को उपरोक्त आधार पर ही ट्रायल कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया था। इसलिए उसने उस आदेश पर हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की थी।

याचिकाकर्ता के पुनर्विचार आवेदन को खारिज करते हुए अदालत ने कहा,
''उक्त काम या कार्य याचिकाकर्ता के आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किए गए कार्यो की श्रेणी में नहीं आएगा। इसलिए, सीआरपीसी की धारा 197 के तहत अभियोजन की स्वीकृति न लेने के कारण, अदालत को नहीं लगता है कि आईपीसी की धारा 409,201,120 बी के तहत उपरोक्त अपराध के लिए अभियुक्त के खिलाफ केस में कोई कमज़ोरी है।''

© विजय शंकर सिंह 

Tuesday 26 November 2019

गठबंधन की सरकारें और विचारधारा का सवाल / विजय शंकर सिंह

महाराष्ट्र में अब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बनेगी। यह एक अजूबे की तरह से भी देखा जा रहा है औऱ अचानक भारतीय संसदीय राजनीति में विचारधारा के अस्तित्व और प्रासंगिकता पर एक बहस छिड़ गयी है। लोग कह रहे हैं यह केर बेर के संग जैसी दोस्ती होगी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस में तो कोई वैचारिक भिन्नता और अंतर्विरोध नही है, लेकिन शिवसेना से इन दोनों कांग्रेस पार्टियों का विरोध है।

एनसीपी का गठन, शरद पवार और नॉर्थ ईस्ट के कद्दावर नेता, पीए संगमा ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से ही निकल कर किया था। हालांकि यह मुद्दा उछला तो बहुत पर इससे जनता में बहुत प्रतिक्रिया नहीं हुयी। फिर जब 2004 में कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुने जाने के बावजूद सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री की शपथ न लेकर डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर कांग्रेस के नेता के रूप में आगे कर दिया तो यह मुद्दा स्वतः हल्का हो गया। पहले एनसीपी का अस्तित्व नॉर्थ ईस्ट में भी था पर पीए संगमा के न रहने पर अब यह दल नॉर्थ ईस्ट में भी बहुत सक्रिय  नहीं रहा बल्कि वहां इस दल का अधिकांश भाग कांग्रेस में ही समा गया। केवल महाराष्ट्र में यह दल मजबूती से अब भी है, और इसका कारण शरद पवार का निजी प्रभाव और उनका व्यापक जनाधार है। एनसीपी की राजनीतिक सोच मौलिक रूप से कांग्रेस की विचारधारा के समरूप ही है। अतः एनसीपी और कांग्रेस दोनों को एक साथ मिलने और सरकार बनाने में कोई समस्या नहीं आएगी। शरद पवार न केवल एनसीपी के सर्वेसर्वा और इस समय महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर नेता के रूप में स्थापित हैं बल्कि वे कांग्रेस के भी एक मान्य नेता के तौर पर उभर कर आ गए हैं।

शिवसेना का समीकरण और राजनीतिक सोच, ज़रूर एनसीपी और कांग्रेस से अलग है। शिवसेना उस तरह की राजनीतिक पार्टी नहीं है जैसी की अन्य वैचारिक आधार पर गठित होने वाली राजनीतिक पार्टियां होती हैं। मूलतः यह एक दबाव ग्रुप है, जो बाद में एक राजनीतिक दल के रूप में विकसित हुआ और इसका कैडर जिसे शिवसैनिक कहा जाता है वह किसी खास विचारधारा के प्रति कम बल्कि अपने सुप्रीमो बाल ठाकरे और अब बाला साहब के न रहने पर उनके बेटे उद्धव ठाकरे के प्रति निजी तौर पर, समर्पित और वफादार है । बाला साहेब ठाकरे ने महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों के अधिकारों के संघर्ष के लिए 19 जून 1966 को शिवसेना की नींव रखी थी। ठाकरे मूल रूप से एक पत्रकार और कार्टूनिस्ट थे और राजनीतिक विषयों पर तीखे कटाक्ष करते थे। वे स्वभाव से भी आक्रामक थे और यही आक्रामकता उनकी और उनके पार्टी की  यूएसपी बन गयी। वैसे तो शिवसेना का अस्तित्व कई अन्य राज्यों में  भी है, लेकिन महाराष्ट्र में, इसका राजनीतिक प्रभाव सबसे अधिक है।

शिवसेना के गठन के समय बाला साहेब ठाकरे ने नारा दिया था, 'अंशी टके समाजकरण, वीस टके राजकरण' (80 प्रतिशत समाज और 20 फीसदी राजनीति)। लेकिन भूमिपुत्र का मुद्दा लंबे समय तक नहीं चल सका। इसपर समर्थन कम होने के कारण शिवसेना ने हिन्दुत्व के मुद्दे को अपना लिया, जिसपर वह अब तक कायम है । एक दृष्टिकोण यह भी है कि बंबई में कम्युनिस्ट प्रभाव को कम करने के लिये कांग्रेस की शह पर बाल ठाकरे को आगे कर के शिवसेना की नींव रखी गयी थी। जो पहले मराठी मानुस के नाम पर तमिल समाज या दक्षिण भारतीयों के खिलाफ मुखर हुयी बाद में यही रवैया उसका उत्तर भारतीयों विशेषकर, उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रति हो गया। 1970 के शुरुआती दिनों में पार्टी को काफी लोकप्रियता मिली। इस दौरान दूसरे राज्यों विशेष रूप से दक्षिण भारतीय लोगों पर महाराष्ट्र में काफी हमले हुए। 1970 के बाद शिवसेना का भूमिपुत्र का दांव कमजोर होने लगा। इसपर पार्टी ने हिंदुत्व के मुद्दे पर आगे बढ़ना शुरू किया।

शिवसेना ने पहली बार 1971 में लोकसभा चुनाव में लड़ा था लेकिन पार्टी एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार शिवसेना का सांसद चुना गया। शिवसेना ने पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 1990 में लड़ा जिसमें उसके 52 विधायकों ने जीत हासिल की। शिवसेना ने भाजपा के साथ 1989 में गठबंधन किया था जो 2014 तक चला। शिवसेना के दो नेता मनोहर जोशी और नारायण राणे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) पर भी लंबे समय से शिवसेना का कब्जा है।

सरकार बनाने के लिये वैचारिक समानता की बात संसदीय लोकतंत्र में उसी दिन से महत्वपूर्ण नहीं रही जिस दिन से 1967 में डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी और जनसंघ ने एक दूसरे से वैचारिक ध्रुवों पर रहने के बावजूद गैर कांग्रेसवाद के मुद्दे पर एक साथ सरकार बनाई और चलाई थी। यह अलग बात है कि आपसी कशमकश और आये दिन के टकराव से वह सरकार चल नहीं पाई। जल्दी ही मध्यावधि चुनाव हुए। यह सरकारें संयुक्त विधायक दल संविद सरकार के नाम से जानी जाती हैं। इन सरकारों के बनने और गिरने की तीव्रता के कारण कांग्रेस ने स्थायी और टिकाऊ सरकार का नारा दिया जो, पहले 1971 और फिर 1980 में उसकी सत्ता में वापसी  का मुख्य कारण बना। 1967 में सभी विरोधी दलों के समक्ष मुख्य मुद्दा था कांग्रेस को हराना। डॉ लोहिया और जनसंघ की विचारधारा में कहीं से कोई मेल ही नहीं था। गैरकांग्रेसवाद के सिद्धांत ने दोनों को एक साथ ला दिया।

1971 में भी इंदिरा गांधी की नयी नयी प्रगतिशील कांग्रेस, जो बैंको के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स हटाने के प्रगतिशील निर्णयों के कारण लोकप्रिय हो चली थी, को हराने के लिये समाजवादी गुटों, जनसंघ, कांग्रेस का ही एक रूप संघटन कांग्रेस और राजाओं के दल स्वतंत्र पार्टी ने महागठबंधन या ग्रैंड एलायंस बना कर एक साथ चुनाव लड़ा पर यह महागठबंधन बुरी तरह पराजित हुआ। इंदिरा गांधी की वह धमाकेदार जीत थी। यह सरकार 1977 तक चली। और जब 1977 में इंदिरा गांधी हारी तो उसका कारण आपातकाल का तानाशाही फैसला था।

केवल कम्युनिस्ट पार्टियां ही ऐसी हैं जो विचारधारा से समझौता कर के किसी ऐसे गठबंधन में शामिल नहीं हुयी जो केवल सरकार बनाने के लिये ही किया गया हो । 1971 से 1977 तक सीपीआई ज़रूर कांग्रेस के साथ थी पर सीपीएम कांग्रेस के विरोध में थी। सीपीआई केंद्रीय सरकार में नहीं थी पर उसके दिग्गज नेता श्रीपाद अमृत डांगे और मोहित सेन इंदिरा गांधी के साथ थे और उनका तर्क था कि वे कांग्रेस के जनहितकारी नीतियों, प्रिवीपर्स का खात्मा और बैंको के राष्ट्रीयकरण के काऱण साथ हैं। पर जब इमरजेंसी लगी तो इंदिरा विरोध की आंच सीपीआई तक भी पहुंची और सीपीआई को इसका नुकसान उठाना पड़ा। स्थिति यह भी बाद में आयी कि भारत मे कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक रहे एसए डांगे को कम्युनिस्ट पार्टी ने ही विचारधारा के आधार पर समझौता करने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया। सीपीएम अपनी जगह मजबूती से खड़ी रही। बंगाल और केरल में बनने वाला वाम मोर्चा और एलडीएफ, लेफ्ट एंड डेमोक्रेटिक फ्रंट लगभग समान विचारधारा वाले दलों का गठबंधन है जो सीपीएम के नेतृत्व में चुनाव लड़ता हैं और चुनाव जीतने पर मिल कर सरकार बनाते हैं, जो स्थायी होती है ।

1977 में जनता पार्टी का प्रयोग भी वैचारिक विभिन्नता के बावजूद एक साथ सरकार बनाने का था। पर यह भी कांग्रेस के आपातकाल जन्य अधिनायकवाद के विरुद्ध बनी हुयी एकजुटता थी जो जब अधिनायकवाद का खतरा कम हो गया तो अपने आप उसे जोड़े रखने वाली कड़ी कमज़ोर पड़ गयी और फिर वैचारिक प्रतिबद्धता के रूप में दोहरी सदस्यता का मामला समाजवादी खेमे से उठा और भाजपा का जन्म हुआ, क्योंकि भाजपा के लोग आरएसएस की सदस्यता छोड़ ही नहीं सकते थे क्योंकि वही तो उनका स्थायी भाव है।

फिर जब एनडीए और यूपीए के रूप में अलग अलग राजनीतिक दलों के गुट एकजुट हुये तो वैचारिक द्वंद्व से समझौता करना पड़ा। यह दोनों ही बहुदलीय गुट लंबे समय तक सरकार में रहे और यह सरकारें लंबे समय तक चली । 1996 से 2014 तक के दौर में एक ही राजनैतिक दल को लोकसभा में बहुमत नहीं मिल सका और विभिन्न दलों ने अपने को मिलाजुला कर दो एलायंस बनाये। यह गठबंधन भी वैचारिक रुप से एक नहीं था। यहां भी जार्ज फर्नांडिस, शरद यादव, नीतीश कुमार जो समाजवादी खेमे के थे और हैं, अब भी अपने से विपरीत विचारधारा के दल भाजपा के साथ सहजता से लंबे समय से सरकार में रहे हैं, और अब भी है ।

जम्मूकश्मीर में भाजपा और पीडीपी की साझा सरकार, वैचारिक रूप से ध्रुवीय दलों के एक साथ सरकार बनाने और तीन साल तक उसे चलाने का एक हालिया और उत्कृष्ट  उदाहरण है। भाजपा और पीडीपी की विचारधारा का तो कोई मेल ही नहीं है। पर राजनीति में कभी भी, कही भी, कुछ भी हो सकता है। बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू और भाजपा की दोस्ती आज भी वैचारिक मतभेदों के बावजूद कायम है। उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा की बिल्कुल अलग अलग और विपरीत विचारधारा के बावजूद ढाई ढाई साल की सरकार बनी और पहले ढाई साल तक मायावती यूपी की मुख्यमंत्री रहीं और फिर जब भाजपा का क्रम आया तो कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। यह अलग बात है कि, मायावती ने कल्याण सिंह की सरकार को चलने नहीं दिया, गिरा दिया।

अपने अपने स्वार्थ, साझा, निकट और त्वरित उद्देश्य, राजनीतिक दलों को बदली हुयी परिस्थितियों में एक साथ होने और सरकार बनाने पर विवश करते रहे है। जब वैचारिक आधार वाले दल का कोई व्यक्ति अपना दल छोड़ कर विपरीत या भिन्न वैचारिक आधार के दल में जाता है तो न तो उसकी विचारधारा रातोरात बदलती है और न ही उसे स्वीकार करने वाला दल उसकी विचारधारा से, जिसे वह छोड़ कर आया है से रातोरात तालमेल बिठा पाता है। दल को संख्या चाहिये और आने वाला व्यक्ति  भले ही विपरीत विचारधारा का हो वह सत्ता में लाने लायक संख्या तो बना ही रहा है। इसी आधार पर, वह व्यक्ति, विपरीत विचारधारा के बाद भी, उस दल में बना रहता है। मंत्री भी बनता है, और तमाम विसंगतियों के बाद भी वही उसी दल के चुनाव चिह्न पर चुनाव भी लड़ता है। यहां, कोई विचारधारा नहीं बल्कि, दोनों को एक दूसरे की राजनीतिक ज़रूरत, स्वार्थ आदि अन्य कारक तत्व नज़दीक लाते हैं और एक दूसरे से बांधे रखते हैं ।

© विजय शंकर सिंह 

महाराष्ट्र में सरकार का संकट और राज्यपाल / विजय शंकर सिंह

महाराष्ट्र का अड़तालीस घन्टो की राजनीतिक गतिविधियां अब शांत हो गयीं है और 23 नवंबर की सुबह से जो घटनाक्रम मुंबई में घट रहा था, वह आज शाम, पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के त्यागपत्र देने के बाद ही दूसरी दिशा में मुड़ गया। कल महाराष्ट्र संकट के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने, केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भाजपा के वकीलों की पूरी बात सुनने और संबंधित दस्तावेज देखने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसे आज सुबह साढ़े दस बजे जब अदालत बैठी तो उसे सुनाया गया। मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में निम्न बातें थीं। 
● कल दिनांक 27 नवंबर को पहले प्रोटेम स्पीकर नियुक्त होगा और सभी सदस्यों को शपथ दिलाई जाएगी। 
● फिर शक्ति परीक्षण होगा। 
● सभी कार्यवाहियों का जीवंत प्रसारण होगा ऑड वीडियो रिकॉर्डिंग होगी। 
● यह कार्य शाम 5 बजे के पहले हो जाएगा। 

लेकिन अदालत के इन निर्देशों का कोई मतलब ही नहीं रहा, जब आज एक नाटकीय घटनाक्रम में सुबह नवनियुक्त उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने इस्तीफा दे दिया और फिर अपराह्न एक प्रेस वार्ता के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफे की घोषणा कर दी। अब यह घटनाक्रम इस प्रकार है।

● अजित पवार ने इसलिए इस्तीफा दिया कि उनके पास एनसीपी के विधायक जितने बहुमत के लिये होने चाहिये थे, उतने नहीं थे। 
● देवेंद्र फड़नवीस ने इस्तीफा इसलिये दिया कि उन्हें लगा कि वह कल 27 नवंबर को सदन में बहुमत नहीं सिद्ध कर पाएंगे। 

● अब राज्यपाल को इस्तीफा इसलिये दे देना चाहिये कि उन्होंने बिना प्रारंभिक छानबीन किये और स्वतः संतुष्ट हुये बिना ही आनन फानन में राष्ट्रपति शासन समाप्त करने के लिये भारत सरकार से अनुरोध कर दिया। 
● औऱ इसलिए भी कि, उन्होंने ( राज्यपाल ने ), सरकार के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के रूप में, क्रमशः  देवेन्द्र फडणवीस और अजित पवार को बिना बहुमत की संतुष्टि किये ही शपथ दिला दी। 
● राज्यपाल के इस अपरिपक्व और जल्दीबाजी में बिना विवेक का इस्तेमाल किये गए निर्णय से न केवल केंद्र सरकार की किरकिरी हुयी है बल्कि राष्ट्रपति के पद को भी अनावश्यक विवाद में पड़ कर असहज होना पड़ा है। 

अब यह मुझे नहीं पता कि यह निर्णय राज्यपाल का स्वतः निर्णय था या किसी के इशारे पर लिया गया था। अगर यह निर्णय राज्यपाल का स्वतः लिया गया निर्णय था तो निश्चय ही उनसे चूक हुयी है। न तो संविधान की स्थापित मान्यताओं का ही ख्याल रखा गया और न ही परंपराओ का। राज्य में जब त्रिशंकु विधानसभा होती है तो उसमें किसे और कब कब सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया जाय, यह देश मे पहले भी कई राज्यो में इस प्रकार की समस्याओं से निपटा जा चुका है। ऐसे समय मे राज्यपाल सबके निशाने पर होते हैं। सभी राजनैतिक दल और विधायक, मीडिया और जनता ऐसे मौके पर राजभवन की एक एक गतिविधि को बारीकी से केवल देखते ही नही  है बल्कि उसको संविधान की परंपराओ और मान्यताओं की अपनी अपनी जानकारी के अनुसार बहस भी करते हैं। ऐसे अवसर एक भी चूक पूरे फैसले को विवादित कर देती है। 

हालांकि भगत सिंह कोश्यारी इस तरह की भूल या राजनीतिक समीकरण को अपने संवैधानिक विवेक के ऊपर रख कर निर्णय लेने वाले पहले और अकेले राज्यपाल नहीं है, बल्कि उनसे पहले इस तरह के विवादित निर्णय, कभी एनटी रामाराव के समय रामलाल ने, कल्याण सिंह और जगदंबिका पाल के विवाद के समय उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी ने, 2005 में बिहार में बूटा सिंह ने, और अभी हाल ही में कर्नाटक में येदुरप्पा को कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के बाद तुरन्त शपथ दिला कर वहां के राज्यपाल ने लेकर राज्यपाल जैसे संवैधानिक और सक्रिय राजनीति से दूर रहने वाले पद को अनावश्यक रूप से विवादित बनाया है। 

सुप्रीम कोर्ट में अब ऐसे मामले खुल कर जाने लगे हैं। 1994 के एसआर बोम्मई के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों के लिये एक सुव्यवस्थित दिशा निर्देश भी तय कर दिए हैं। इस मामले में भी उसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देश दिए हालांकि अब जब मुख्यमंत्री ने खुद ही इस्तीफा दे दिया तो कल सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार फ्लोर टेस्ट या सदन में बहुमत परीक्षण का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। अब यह खबर आ रही है कि 1 दिसंबर को शिवाजी पार्क में महाराष्ट्र का नया मंत्रिमंडल, जो शिवसेना के उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में होगा शपथग्रहण करेगा, जिसमे शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस तीनों दल सहभागी हैं। 

© विजय शंकर सिंह 

Monday 25 November 2019

भगवान सिंह का लेख - रामकथा की परंपरा ( 1 ) / विजय शंकर सिंह

रामकथा की परंपरा पर यह विद्वतापूर्ण लेख माला भगवान सिंह Bhagwan Singh जी की टाइमलाइन से साझा कर रहा हूँ। 
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रामकथा की परंपरा (1)

फादर कामिल बुल्के को ऋग्वेद में राम कथा नहीं मिली। यदि  राम के नाना अवतार थे तो उन अवतारों में इनके नाना  नाम भी रहे होंगे।  इसलिए ऋग्वेद में रामकथा  इंद्रकथा और  रावणवध वृत्रवध के रूप में चित्रित है। 

 यदि  रामायण का  नाम  सीतायन रहा होता तो इतनी असुविधा न होती।   यदि पीछे जाएं तो संभव है यह पूषा  की कथा रही हो।  वह पोषण  के देवता हैं। कहा तो यह जाता है कि पोषण का संबंध पशुओं से है, परंतु यह व्याख्या या तो खींचतान कर  उस समय की गई व्याख्या है जब कृषि के देवता इंद्र बन चुके थे।  या यह सोचने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका इंद्र का उदय होने से पहले इस भूमिका का निर्वाह पूषा करते थे । बकरे की सवारी करने वाले की विशेष भूमिका पहले क्या थी और एक बार इन्हें बैलों से अन्न उपजाते - गोभिः यवं न चर्कृषत्- दिखाया गया है। यह स्मरण रहे कि देवयुग जिसमें  गोपालन आरंभ नहीं हुआ था, अज प्रधान पालतू पशु था। 

जो भी हो यह सोचना तो और भी दुष्कर था कि उससे पहले वर्षा के देवता  कृषि के देवता  नहीं, रुद्र हुआ करते थे।

 इसी चरण पर इस प्राचीन अविश्वास के अनुसार कि दक्षिण में एक बहुत विशाल वृक्ष है जो आकाश तक चला गया है उस वृक्ष पर एक बंदर रहता है।  जब वह उसकी डालियों को हिलाता है तो उससे वर्षा होती है।
ऋग्वेद में यह वृषाकपि  इंद्र का पुत्र होता है ।

परंतु वर्षा के इन दोनों देवों का संबंध कृषि से नहीं लगता। कृषि के प्राचीनतम देवता विष्णु ही है जो अपने वामन रूप में आग की चिंगारी हैं और अग्नि की तरह सर्वत्र व्याप्त हैं,  और विस्तृत रूप में सूर्य वन जाते हैं। 

विष्णु   ब्रह्म, पूषा, इंद्र  सभी सूर्य के पर्याय  या अलग-अलग रूप हैं।  मनु विवस्वान  या सूर्य के पुत्र हैं। राम का जन्म भी सूर्यवंश में होता है।  राम विष्णु के अवतार हैं।   नामभेद  के रहते हुए भी  इस तारतम्य में एक अंतःसंगति है। 

कई बार यह कह दिया जाता है वाल्मीकि के रामायण में राम का मानवीय पक्ष स्पष्ट है और तुलसी ने  अवतारवाद को प्रधान बना दिया।   हमारी अपनी  अपनी समझ से यह उलझन इस कथापरंपरा से अवगत न होने के कारण है। अवतारवाद  का  समावेश इस कथा में आदिम आचरण पर ही हो गया था।   

रोचक एंक दूसरा पक्ष भी है,  जैसे अग्नि  का  उत्पादक प्रयोग करने के कारण,  उस  समुदाय   के लोग भी अपने  को  देव/ ब्रह्म अर्थात् अग्नि कहने लगे थे,  उसी तरह उसके कई हजार साल बाद धातु  युग का आरंभ होने पर, धातु विद्या मैं दक्ष  जन   अपने  को   आगरिया =  अग्नि पुत्र  कहने लगे,  क्योंकि धातुविद्या में  अग्नि की भूमिका और भी प्रधान थी।  

अंगिरा का अर्थ ही होता है आग  (यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तव इत् तत् सत्यं अंगिरः ।। 1.1.6),।  भृगु (भग/भर्ग/भर्ज >  कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वं हि इत तं आनशुः ) भी अपना  संबंध अग्नि से जोड़ते हैं, यद्यपि इनकी दक्षता  बढ़ईगिरी तक  सीमित दिखाई देती है।  

अक्सर  परंपराओं में  भेद करने वाले आसुरी विज्ञान को  पूर्ववर्ती और  कृषि की परंपरा  से अलग या तो विरोधी या प्रतिस्पर्धी रूप में चित्रित करते हैं।  ऐसा करते हुए कुछ पहलुओं की ओर  ध्यान नहीं दिया जाता।  यह सच है कि असुरों  के लिए  धरती,  जल धाराएं और वनस्पतियां माता के समान थीं और इनको  काटना, जलाना, खोदना या दूषित करना वर्जित था।  इसे याद रखना होगा  कि वर्जना और मर्यादा दो ऐसी चीजें हैं कि  इनकी रक्षा के लिए  जान दी और दूसरे की जान ली भी जा सकती है।

भारतीय परंपरा में धरतीमाता, मां गंगे, तुलसी माता जैसी अवधारणाएं इन्हीं असुरों से आई हैं। इसी कारण आरंभिक अवस्था में  असुरों ने  कृषि की ओर अग्रसर होने वाले समाज का हिंसक विरोध किया।  ब्राह्मण का अर्थ कृषि कर्मी और यज्ञ का अर्थ उत्पादन या अपने समय का ही नहीं, आज तक का श्रेष्ठतम कर्म अर्थात दुनिया का पेट भरने वाला कर्म, कृषि कर्म था।  इस यज्ञ का विरोध सहते हुए  किसानी  करने वालों को जिस यातना  से गुजरना पड़ा और फिर भी वह अपने निश्चय से विरत नहीं हुए, उन्नत कृषि तथा स्थाई निवास की ओर  अग्रसर हुए।   

सीता कृषि के  आरंभिक  चरण  की देवी नहीं  है। वह  उस चरण पर जन्म लेती हैं जब  भूमि को जोतने के यंत्र विकसित हो चुके हैं और  पहले की तुलना में देवों की धाक जम चुकी है,  इसलिए  प्रतीक रूप में  जुताई के समय  ब्राह्मणों के रक्त से भरे हुए और जमीन में दबे हुए घड़े से उनकी उत्पत्ति होती है- कृषिदेवी के रूप में। 

देवों का वर्चस्व स्थापित हो जाने के बाद, वन्य भूमि के कृषि भूमि में परिणत हो जाने के बाद,  उन वनों के असुरों के  निराश्रय हो जाने के बाद, वे बहुत धीरे-धीरे कृषि कर्मियों को अपनी सेवाएं प्रदान करने लगे। वर्जना  के निर्वाह और कृषि कर्मियों से  आहार जुटाने के  द्वंद्व में   सक्रियता  के नए तरीके आविष्कार किए गए:
जिन जानवरों का वे शिकार करते थे अब उन्हें  पकड़ कर, पालकर,  देवों की सेवा में पेश करना;
1. पशुपालन और पशु आधारित उपक्रमों का विकास ;
2. ऐसे कौशलों  और  निपुणताओं का विकास  जिनमें वर्जना की रक्षा संभव हो और जो कृषि कर्मियों के लिए किसी रूप में उपयोगी हो।
3. ऐसी कलाओं - नृत्य, संगीत, अभिनय, कलाबाजी और मायाचार  या रूपपरिवर्तन को देवों की रुचि के अनुसार परिष्कृत करना। इसने आगे चलकर नाट्यकला को आगे आगे बढ़ाया।

हम इनका उल्लेख करते हुए  केवल  इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि देवों और असुरों का हिंसक विरोध और प्रतिरोध चल तो रहा था परंतु जिस चरण पर धातु विद्या, पाषाणी  और काष्ठ कला को अपनी जीविका का साधन बना लेने वालों का वर्ग उत्पन्न होता है वह चरण विरोध का नहीं है, परिस्थितियों में बदलाव के कारण, सहयोग का है, और सहयोग का भी इसलिए है कि अपनी वर्जनाओं के कारण यह उस उत्पादन पद्धति को नहीं अपना सके, जिसमें वे भूस्वामी बन सकते थे। कदम कदम पर  वर्जनाएंँ थी।  अधबिसरे रूप में आर्थिक अभाव में भी उसी पुराने गर्व ने  उनके गरूर को बनाए रखा रखा । 

 हम  भले सामंतवादी वर्ण व्यवस्था के कारण कई तरह के ऊंच-नीच के शिकार हैं,  विविध रूपों में हम सभी को उनकी सेवा करनी पड़ती है जिनका अर्थव्यवस्था पर अधिकार है। यह सेवा अपने निजी गरूर के साथ करने की जिद ही होती है जो हमें उनकी संपत्ति को भी तुच्छ  मानने का  आत्मबल  प्रदान करती है । विविध योग्यताओं से संपन्न हम सभी अपनी अर्थव्यवस्था के  दास हैं। दास की जगह  पहले  शूद्र का प्रयोग होता था।  पता लगाइए, टीका चंदन लगाने वालों,  और अपनी श्रेष्ठता का तामझाम करने वालों में कौन है जो  शूद्र नहीं है,  वैज्ञानिकों से लेकर  ज्ञानियों  और   अल्पज्ञों तक कौन है जो अपनी  अर्थव्यवस्था का गुलाम नहीं है। 

हमने  अपने तंत्र को दूसरों के मंत्र से समझने  का प्रयत्न किया है।  हमारे समाज में एक विचित्र और अदृश्य प्रतिस्पर्धा चलती रही है,  ब्राह्मण शूद्र को नीच समझता रहा,   शूद्रों में  अपनी कला  दक्षता पर गर्व करने वाले  ब्राह्मण को भिखारी समझते रहे।  इस  बात को किसी और ने नहीं भारतीय समाज के एक अध्येता, अरविंद शर्मा ने रेखांकित किया था, जिसमें उन्होंने एक मोची को अपने बेटे को झिड़कते सुना था  कि काम धंधा नहीं सीखेगा तो क्या ब्राह्मणों की तरह भीख मांगेगा। 

बात तो बनी नहीं। कल देखेंगे।
( भगवान सिंह )
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महाराष्ट्र - लोकतंत्र और नैतिकता का एक त्रासद प्रहसन / विजय शंकर सिंह

25 नवंबर की सवसे बड़ी खबर यह है कि, अजित पवार के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही उनके खिलाफ चल रही सिंचाई घोटाले की सारी जांचें बंद हो गयी हैं। अजीत पवार अब पवित्र बन चुके हैं। भाजपा के दावे, भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस से भाजपा की असलियत, भ्रष्टाचार के खिलाफ निल जांच तक के इस सफर पर जिसे हैरानी हो तो हो मुझे नहीं है। यही तो सौदेबाजी का मूल विंदु है। कथनी और करनी, नैतिकता और पाखंड, की स्प्लिट पर्सनालिटी से युक्त भाजपा का यह वास्तविक, चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन है।  2014 से लगातार देवेंद्र फडणवीस यह कह रहे हैं कि हजारों करोड़ के सिंचाई घोटाले में अजित पवार लिप्त हैं और वे जेल भेजे जाएंगे। चक्की पीसिंग पीसिंग एंड पीसिंग, वाला उनका एक पुराना वीडियो अब भी सोशल मीडिया पर खूब देखा और साझा किया जा रहा है। 25 नवंबर को मुख्यमंत्री फडणवीस ने मंत्रालय में पहुंच कर, शायद सबसे पहले इसी फाइल पर दस्तखत किया जो अजित पवार के सिंचाई घोटाले से सम्बंधित है। इसे सरकार की पहली उपलब्धि माना जाना चाहिये। आइए अब इस नैतिक गठबंधन की सरकार के पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र संकट पर कल 25 नवंबर को दोनों पक्षो को सुनने के बाद अपना फैसला, आज 26 नवम्बर को सुबह 10.30 पर सुनाएगा। महाराष्ट्र विधानसभा में किसी को पूर्ण बहुमत न मिलने के कारण 12 नवम्बर को राष्ट्रपति शासन लगा था, और फिर 23 नवंबर को अचानक सुबह राष्ट्रपति शासन समाप्त हुआ और भाजपा और एनसीपी के देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार ने क्रमशः मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। फिर बहुमत, राज्यपाल के सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने के निर्णय, राष्ट्रपति शासन के समाप्ति आदि आदि पर विवाद हुआ और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में एनसीपी, शिवसेना द्वारा ले जाया गया जहां आज सुप्रीम कोर्ट ने सुनवायी पूरी कर ली है और निर्णय सुरक्षित रख लिया है। आज का विमर्श इसी विंदु पर है। 
12 नवंबर को महाराष्ट्र में राज्यपाल की अनुशंसा पर केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रपति से राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की और राष्ट्रपति ने सलाह मांग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया और अचानक संविधान के अनुच्छेद 356 पर पुनः बहस शुरू हो गयी। अनु 356 के साथ यह पहला विवाद नहीं जुड़ा है, और न अंतिम है,  बल्कि यह केरल की पहली निर्वाचित वामपंथी सरकार के बर्खास्तगी से शुरू हो कर अब महाराष्ट्र तक का यह सफर है और जैसे अभी वक़्त का सफर जारी है, यह विवाद भी उसी के हमकदम आगे भी रहेगा। राजनीति संभावनाओं का खेल है। 

महाराष्ट्र विधानसभा 2019 का आम चुनाव भाजपा और शिवसेना ने एक साथ मिलकर लड़ा था, और जब दोनों को मिला कर बहुमत का आंकड़ा पार हो गया तो, यह उम्मीद सभी को थी कि यह देवेंद्र फडणवीस सरकार का दूसरा कार्यकाल होगा। पर शिवसेना ने खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया और यह कहा कि उनके और भाजपा के बीच ढाई ढाई साल तक के मुख्यमंत्री बनने का एक गोपनीय समझौता हुआ था जिसके अनुसार उन्हें पहले ढाई साल के लिये यह पद मिलने का फार्मूला दोनों मित्र दलों की बैठक में तय हुआ था । भाजपा ने इस मांग को ठुकरा दिया और यह भी कहा कि ढाई ढाई साल के मुख्यमंत्री होने का कोई वादा उभय दलों के बीच हुआ ही नहीं था। यह उल्लेखनीय है कि भाजपा और शिवसेना दोनो ही एक दूसरे के साथ लगभग न केवल 25 सालों से हैं बल्कि दोनो के बीच वैचारिक समानता भी है। 

भाजपा और शिवसेना दोनों ही आपस मे मिलकर जब सरकार नहीं बना सके तो, राज्यपाल ने पहले भाजपा को और फिर शिवसेना को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया। भाजपा को इस कार्य हेतु अड़तालीस घँटे और शिवसेना को चौबीस घँटे का समय दिया गया । शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस ने आपस मे मिल कर सरकार बनाने की बात सोची तब तक राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी और 12 नवंबर को राष्ट्रपति शासन राज्य में लगा दिया गया। यह राष्ट्रपति शासन 23 नवंबर तक लगा रहा और फिर एक नाटकीय घटनाक्रम में अचानक सुबह इसे समाप्त करके भाजपा और एनसीपी की सरकार को राज्यपाल ने शपथ दिला दी। यही मामला, सुप्रीम कोर्ट में है जहां 26 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना है। 

महाराष्ट्र संकट से कुछ अहम संवैधानिक मुद्दे भी उठ खड़े हुये हैं। यह मुद्दे अनुच्छेद 356 के प्रयोग और कैबिनेट तथा प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार जो उसे बिजनेस रूल्स 1961 के नियम 12 के अंतर्गत प्राप्त हैं, से सम्बंधित है। महाराष्ट्र विधानसभा में किसे बहुमत है, किसे बहुमत नहीं है, कौन किसे खरीद बेच रहा है यह सब पहली बार देश के संसदीय लोकतंत्र में नहीं हो रहा है बल्कि यह पहले भी हो चुका है और आगे भी होता रहेगा। सत्ता राजनीति का मुख्य कारक भाव है। लेकिन 23 नवंबर की सुबह जिस प्रकार आनन फानन में राज्य से राष्ट्रपति शासन के समाप्ति की सिफारिश, प्रधानमंत्री ने बिना कैबिनेट की बैठक के राष्ट्रपति को भेजी है वह एक अप्रत्याशित कदम था। उसकी वैधानिकता की चर्चा और पड़ताल ज़रूरी है। 

भारत सरकार ने, 23 नवम्बर 2019 को महाराष्ट्र में लगे राष्ट्रपति शासन को समाप्त करने के लिये, बिना कैबिनेट, यानी मंत्री परिषद की राय लिये राष्ट्रपति से जो अनुशंसा की वह प्रधानमंत्री को कार्य आवंटन नियमावली 1961के नियम 12 के अंतर्गत किया गया था। संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति को असीम शक्तियां हैं पर वह अपनी मनमर्जी से इन अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकते है। वह भारत के कैबिनेट की सलाह पर ही अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर सकते है। 

महाराष्ट्र में कैबिनेट की अनुशंसा पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। और कैबिनेट की अनुशंसा, महाराष्ट्र के राज्यपाल की रिपोर्ट पर आधारित थी। संविधान के अनुच्छेद 356 में केंद्र सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार है। यह अधिकार राज्य में जब किसी भी दल की सरकार नहीं बन पा रही हो और राज्यपाल को यह समाधान हो गया हो कि अब राज्य में लोकप्रिय सरकार का गठन संभव नहीं है तो राज्यपाल अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेजते हैं और फिर उस रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय कैबिनेट राष्ट्रपति से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करती है। तब राज्य की सारी प्रशासनिक मशीनरी राज्यपाल के सीधे अधीन हो जाती है और राज्य से सम्बंधित वित्तीय और विधायी कार्य संसद द्वारा निपटाए जाते हैं। 

पर यह स्थिति एक असामान्य परिस्थितियों के लिये प्राविधितित की गयी है। इसीलिए इस पर अनेक नियंत्रण या चेक और बैलेंस  भी रखे गए हैं। छह महीने से अधिक समय के लिये राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति संसद से लेना आवश्यक है। राष्ट्रपति शासन कभी भी तीन साल से अधिक समय तक के लिये नहीं लगाया जा सकता है। इसका कारण यह है कि संविधान निर्माता इस विंदु पर सजग थे कि संसदीय लोकतंत्र जो हमारे संविधान का मूल आधार है वह हर दशा में बरकरार रहे। संविधान के किसी प्राविधान की आड़ लेकर किसी भी प्रकार की अधिनायकवादी शासन व्यवस्था को थोपा न जा सके। 

संसदीय लोकतंत्र में जनता की सारी शक्तियां संसद और शासन के तीन अंगों में से एक कार्यपालिका के रूप में मंत्रिमंडल में निहित होती हैं। मंत्रिमंडल में जो कैबिनेट मंत्री होते हैं वे ही मिलकर कैबिनेट या मंत्री परिषद का गठन करते हैं। यही मंत्रिपरिषद सबसे बडी एक्जीक्यूटिव होती है और कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ उसी में निहित होती हैं। प्रधानमंत्री की स्थिति संविधान के अनुसार फर्स्ट अमंग इक्वल्स यानी सभी समान किन्तु प्रथम की होती है। राष्ट्रपति को सलाह देने का काम और अधिकार इसी कैबिनेट का है। 

कैबिनेट या कार्यपालिका को अपना दायित्व निपटाने के लिये बिजनेस नियमावलियां बनी हैं जिनके अंतर्गत सबको अपना अपना काम करने के लिये विभिन्न अधिकार दिए हैं। ऐसा ही एक अधिकार बिजनेस रूल्स 1961 के अंतर्गत नियम 12 में है। सामान्य नियमों के अनुसार, राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने और उसे समाप्त करने के लिये राज्यपाल की रिपोर्ट कैबिनेट के समक्ष प्रस्तुत होती है और कैबिनेट उस पर विचार कर के राष्ट्रपति को तदनुसार अपनी सलाह देती है। 

लेकिन महाराष्ट्र में संविधान के प्राविधानों और बिजनेस रूल्स का जमकर दुरुपयोग किया गया और कानूनी प्राविधानों की आड़ में जबर्दस्ती की गयी। 12 नवंबर 2019 को प्रधानमंत्री ने ब्रिक्स सम्मेलन में ब्राजील जाने के पहले कैबिनेट की मीटिंग बुला कर महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी। राष्ट्रपति ने कैबिनेट की सलाह पर राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा कर दी। यह कृत्य ऊपर से देखने पर ज़रा भी असंवैधानिक नहीं लगता है क्योंकि जब राज्यपाल की रिपोर्ट ही यह कह रही है कि राज्य में लोकप्रिय सरकार की संभावना नहीं है तो अनुच्छेद 356 के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं बचता है। लेकिन, लोकप्रिय सरकार के अनुसंधान में राज्यपाल द्वारा पर्याप्त समय न दिये जाने और जल्दबाजी में राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा पर सवाल उठाये जा सकते हैं और सवाल उठे भी।

लेकिन 23 नवंबर को सुबह सुबह जब राष्ट्रपति को राष्ट्रपति शासन समाप्त कर के लोकप्रिय सरकार के गठन हेतु मार्ग प्रशस्त करने की सलाह दी गयी तो यह सलाह केंद्रीय मंत्रिपरिषद या कैबिनेट ने नहीं, बल्कि यह सलाह दी थी प्रधानमंत्री ने। क्योंकि उतनी सुबह, कैबिनेट की मीटिंग बुलाई तो जा सकती थी, पर बुलाई नहीं गयी। हाथी के पांव में सबका पांव और कैबिनेट मतलब बस प्रधानमंत्री, समझते हुए खुद को, प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्रपति को राज्य में राष्ट्रपति शासन खत्म करने की सलाह दे दी। और यह सलाह मान भी ली गयी, तथा राष्ट्रपति शासन समाप्त भी कर दिया गया। 

अगर नियमो और प्राविधानों की बात करें तो, प्रधानमंत्री की राष्ट्रपति को दी गयी यह सलाह भी नियमानुकूल ही है। यह सलाह बिजनेस रूल्स के नियम 12 के अंतर्गत दी गयी है। नियम 12 के अनुसार, 
" किसी मामले में अति गंभीर स्थिति, या अप्रत्याशित आकस्मिकता की स्थिति में, भारत सरकार ( कार्य आवंटन बिजनेस रूल्स ) नियम 12 के अंतर्गत, प्रधानमंत्री को समस्त कार्य नियमों से अलग हट कर, निर्णय लेने की छूट उस हद तक देता है, जिस हद तक कि छूट ज़रूरी हो। " 
लेकिन यह नियम भी सरकार को कोई अपार शक्ति या अनियंत्रित छूट नहीं देता है बल्कि जो अत्यंत आकस्मिक मामले हैं, जिन्हें देशहित में टाला जाना संभव नहीं है और जिनपर कैबिनेट की बैठक बुलाना समयाभाव या किसी अन्य कारण से तत्काल संभव नहीं है, उन मामलो में अपवादस्वरूप नियम 12 का प्रयोग किया जाता है। लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण मामलो को भी कैबिनेट सचिव द्वारा परीक्षण करने के बाद ही प्रधानमंत्री के समक्ष प्रस्तुत किये जाने का प्राविधान है। 

अपवाद तो अपवाद होते हैं। वे नियम नहीं बन सकते हैं। नियम 12 का प्रयोग कैसे और किन परिस्थितियों में किया जाएगा, इसका भी उल्लेख उसी नियम में है। नियम 12 के अंतर्गत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करने के लिये निम्न दिशानिर्देश दिए गये हैं। 
● उपयुक्त प्रस्ताव, संबंधित प्रशासनिक मंत्रालय या विभाग द्वारा, पेश किया जाना चाहिए, जिससे उस विषय का संबंध है। 
● मंत्रालय या विभाग द्वारा नियम 12 के अंतर्गत निर्णय लेने के लिये जो प्रस्ताव प्रधानमंत्री के पास भेजा जाना चाहिए, उसमे उस आपात स्थिति का भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि क्यों और किन परिस्थितियों में कैबिनेट की सहमति के बिना प्रधानमंत्री द्वारा नियम 12 में निर्णय लिया जाना जरूरी है। 
यह भी उल्लेख किया जाएगा कि सामान्य नियमो का अनुपालन क्यों नहीं किया जा पा रहा है। 
● संबंधित विभाग या मंत्रालय के सचिव यह सुनिश्चित करेंगे कि अंतर मंत्रालयी परामर्श सहित सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली गयीं हैं। 
● विभाग या मंत्रालय के प्रस्ताव को सम्बंधित मंत्री से अनुमोदन लेकर ही इसे कैबिनेट सचिव के पास भेजा जाना चाहिए। 
अगर प्रकरण वित्त से संबंधित है तो वित्त विभाग का अनुमोदन आवश्यक है, या किसी अन्य विभाग से संबंधित हो तो उस विभाग से भी राय ली जानी चाहिए। 
● यदि वह मंत्रालय या विभाग प्रधानमंत्री के ही पास है तो उस मंत्रालय के सचिव द्वारा परीक्षण किये जाने के बाद ही कैबिनेट सचिव के पास प्रकरण भेजा जाना चाहिए। 

1961 में बने इस प्राविधान का मूल उद्देश्य था कि अगर कोई ऐसी आकस्मिकता आ पड़ी और कैबिनेट की बैठक बुलाया जाना किन्ही कारणों से संभव नहीं है तो प्रधानमंत्री उक्त नियम 12 के अंतर्गत निर्णय ले सकते हैं। लेकिन क्या महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन को समाप्त करना इतना महत्वपूर्ण और अपवादस्वरूप आकस्मिक प्रकरण था कि प्रधानमंत्री को इस असाधारण प्राविधान का प्रयोग करना पड़ा ? महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बने यह भाजपा के लिये तो राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण विषय हो सकता है पर मेरी समझ से यह प्रकरण देश के लिये इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि बिजनेस रूल्स 1961 के नियम 12 का उपयोग किया जाय। आज के संचार सुलभ युग मे जब संसद की कार्यवाही चल रही है तो सभी कैबिनेट मंत्री दिल्ली में ही होंगे और उन्हें दो घँटे के अंतराल पर बुलाया जा सकता था। पर ऐसा नहीं कर के न केवल बिजनेस रूल्स के प्राविधान का दुरुपयोग किया गया बल्कि राष्ट्रपति को भी ऐसे प्रकरण के विवाद का एक अंग बना दिया गया, जिनका इस मामले में प्रत्यक्षतः कुछ लेना देना नहीं था।

महाराष्ट्र में चले इस राजनैतिक तमााशे में राज्यपाल की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे। यह सवाल शिवसेना को सरकार बनाने के लिये पर्याप्त समय न देने और जब 22 नवंबर जो शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने मिल कर सरकार बनाने की बात तय कर लिया था तो अचानक 23 नवंबर को सुबह सुबह, राष्ट्रपति शासन की समाप्ति और आनन फानन में भाजपा के देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला देने के संबंध में, पूछा जा रहा है । यह भी सवाल उठ रहे हैं कि आखिर राज्यपाल ने एनसीपी के किन विधायकों की समर्थन की चिट्ठी प्राप्त की और अगर उनके पास देवेंद्र फडणवीस सरकार बनाने के लिए आए भी तो उन्होंने सुबह तक का इंतज़ार क्यों नहीं किया ? विरोधी दल, राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी पर भाजपा के हित के लिए काम करने का आरोप लगा रहे है। इन परिस्थितियों को देखते हुये, यह सारे सवाल स्वाभाविक रूप से उठते हैं। ऐसा भी नहीं है कि राज्यपालों की भूमिका पर पहले कभी सवाल नहीं उठे हैं। पहले भी उनके निर्णयों पर सवाल उठते रहे हैं और उनके निर्णयों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी जाती रही है। अतः यह कोई पहली बार का मामला नहीं है। 

हमे यह नहीं भूलना चाहिये कि राज्यपाल भले ही संवैधानिक पद हो और हम उस पद पर आसीन व्यक्ति से भले ही यह अपेक्षा करते हों कि वह संविधान का अक्षरशः पालन करेगा, लेकिन मूलरूप से राज्यपाल सत्तारूढ़ दल का ही व्यक्ति होता है और मानसिक और दलगत रूप से सरकार जिसने उसे नियुक्त किया है के प्रति भी निष्ठावान रहता है। वह संविधान की खुली अवहेलना भले ही न करे पर कहीं न कहीं उसका नरम रुख अपने भूतपूर्व दल की ओर रहता ही है। राज्यपाल अपने पद की शपथ में, लोगों के हित में फ़ैसले लेने की बात करते हैं लेकिन हक़ीक़त ऐसी नहीं रहती है। असल में व्यवहारतः राज्यपाल का पद प्रधानमंत्री या केंद्रीय सरकार की इच्छा पर ही निर्भर रहता है। सरकारें ही राज्यपालों की नियुक्तियां देखती हैं, इसलिए उनका भी स्वाभाविक झुकाव सरकारों के पक्ष में रहता  हैं। यह परंपरा इंदिरा गांधी के समय से शुरू हुयी और अब नरेंद्र मोदी तक चल रही है.। 

महाराष्ट्र में जिस तरह से राजनीतिक हालात लगातार बदल रहे हैं. उसमें एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने एक बार फिर दावा किया कि उनके अधिकतर विधायक उन्हीं के साथ बने हुए हैं। ऐसे में बीजेपी की सरकार ने जो बहुमत साबित करने की बात कही है उस पर सवाल उठने लगे हैं। यह बातें निश्चित तौर पर राज्यपाल के निर्णय पर सवाल उठाने का आधार देती है। राज्यपाल को देवेंद्र फणनवीस से यह कहना चाहिए था कि सरकार बनाने के लिए जो विधायक उनके साथ हैं उनके सिर्फ हस्ताक्षर ही नहीं चाहिए वो खुद भी राजभवन में मौजूद होने चाहिए। 

अब यह सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट, क्या महाराष्ट्र में भी शीघ्रता से सदन में बहुमत साबित करने का कोई आदेश 26 नवंबर को देगा, या कोई और फैसला सुनाएगा ? अगर इस प्रश्न का उत्तर, हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसी प्रकार के कुछ पुराने मामलों में दिए गए फैसलों में ढूंढ़ें तो ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सदैव ही, शीघ्रता से बहुमत सदन में ही  साबित करने का आदेश दिया है। यह शीघ्रता इसलिए भी रही है कि, विधायकों की खरीद फरोख्त न हो सके। एक अत्यंत प्रसिद्ध मामले में, जिसे एसआर बोम्मई केस कहा जाता है और जो ऐसे मामलों में एक महत्वपूर्ण नजीर के रूप में उद्धृत किया जाता है में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1994 में फ्लोर टेस्ट की अवधारणा पेश की थी। अदालत का कहना है कि सदन ही वह उपयुक्त और अंतिम स्थल है जहां किसी भी सरकार के बहुमत में होने या न होने का निर्णय किया जा सकता है। पीठ ने कहा था कि फ्लोर टेस्ट से ही सदन में संख्याओं के निर्णायक प्रमाण का संज्ञान होता  है। एसआर बोम्मई के मामले में,  संविधान पीठ ने अनुच्छेद 164 (2) का उल्लेख किया था जिसमें कहा गया है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से राज्य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होगी। इसीलिए पीठ ने व्याख्या की कि बहुमत का अंतिम परीक्षण राजभवन में नहीं बल्कि सदन के पटल पर होता है। 

ऐसा ही एक मामला कल्याण  सिंह और जगदंबिका पाल का था। जिसमे जगदंबिका पाल को फरवरी 1998 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने शपथ दिला दी। भाजपा राज्यपाल के इस निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट चली गयी। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई और,  24 फरवरी, 1998 को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में 48 घंटे के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश दिया था। जगदंबिका पाल बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए। वह बस दो या तीन दिन मुख्यमंत्री रहे, पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मुख्यमंत्री माना ही नहीं और आज भी वे स्वयं को भूतपूर्व मुख्यमंत्री नहीं लिख सकते हैं। 

इसी प्रकार का एक अन्य मामला झारखंड का है। 9 मार्च, 2005 को, सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड विधानसभा को 11 मार्च, 2005 को बहुमत साबित करने के लिए आदेश दिया था. ताकि ये साबित हो कि सदन में किस राजनीतिक गठबंधन के बीच सदन में बहुमत है और कौन मुख्यमंत्री के लिए दावा कर सकता है। 

ऐसी ही स्थिति बिहार में भी आयी थी 2005 में जब राज्यपाल बूटा सिंह थे। तब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि विधानसभा ऐसी स्थिति में बिना एक भी बैठक के भांग की जा सकती है।

कर्नाटक के बीएस येदियुरप्पा के मामले में भी, 18 मई, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अगले ही दिन शाम 4 बजे यानी मुश्किल से 24 घंटे के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश दिया था. इससे पहले बीजेपी  नेता बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली थी। कोर्ट ने कहा था कि आखिरकार यह एक नंबर-गेम है और बहुमत का प्रमाण फ्लोर टेस्ट में ही संभव है। अब यह देखना है कि सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में भी फैसला उसके पुराने फैसलों के अनुसार ही रहता है या कानून की कोई नयी व्याख्या निकल कर सामने आती है। 

© विजय शंकर सिंह 

महाराष्ट्र के सिंचाई घोटाले का पैसा टैक्स देने वालों का नहीं था क्या ? / विजय शंकर सिंह

आज की सवसे बड़ी खबर यह है कि, अजित पवार के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही उनके खिलाफ चल रही सिंचाई घोटाले की सारी जांचे बंद हो गयी हैं। अब वे पवित्र बन चुके हैं। भाजपा के दावे, भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस से भाजपा की असलियत, भ्रष्टाचार के खिलाफ निल जांच तक का यह सफर निंदनीय है। कथनी और करनी, नैतिकता और पाखंड, की स्प्लिट पर्सनालिटी से युक्त भाजपा का यह वास्तविक, चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन है।

2014 से लगातार देवेंद्र फडणवीस यह कह रहे थे कि हजारों करोड़ के सिंचाई घोटाले में अजित पवार लिप्त हैं और वे जेल भेजे जाएंगे। चक्की पीसिंग पीसिंग एंड पीसिंग, वाला उनका एक पुराना वीडियो अब भी सोशल मीडिया पर खूब देखा और साझा किया जा रहा है। 25 नवंबर को मुख्यमंत्री फडणवीस ने शायद सबसे पहले इसी फाइल पर दस्तखत किया जो अजित पवार के सिंचाई घोटाले से सम्बंधित है। इसे सरकार की पहली उपलब्धि माना जाना चाहिये।

इससे पहले महाराष्ट्र में हुए करीब 70 हजार करोड़ के कथित सिंचाई घोटाले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने नवंंबर 2018 में पूर्व उप मुख्यमंत्री और एनसीपी नेता अजित पवार को जिम्मेदार ठहराया था।. महाराष्ट्र भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने बंबई उच्च न्यायालय को बताया था कि करोड़ों रुपये के कथित सिंचाई घोटाला मामले में उसकी जांच में राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री अजित पवार तथा अन्य सरकारी अधिकारियों की ओर से भारी चूक की बात सामने आई है।. यह घोटाला करीब 70,000 करोड़ रुपए का है, जो कांग्रेस- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शासन के दौरान अनेक सिंचाई परियोजनाओं को मंजूरी देने और उन्हें शुरू करने में कथित भ्रष्टाचार तथा अनियमितताओं से जुड़ा हुआ है। अब एसीबी ने अपनी ही जांच और निष्कर्षों से पलटी मार ली है। 

एसीबी के डीजी ने अब यह कहा है कि सिंचाई घोटाले के 9 केसों में अजित पवार की कोई भूमिका नहीं थी। जबकि कुछ महीनों पहले एसीबी ने अजित पवार की लिप्तता को हाईकोर्ट में स्वीकार किया था। अब वे कह रहे है कि,  इस केस को बंद करने के लिए तीन महीने पहले ही अनुशंसा कर दी गयी थी। अगर ऐसा था तो उस पर निर्णय लेने का क्या यह उपयुक्त समय था जब सरकार का गठन, राज्यपाल की भूमिका और प्रधानमंत्री की राष्ट्रपति शासन खत्म करने की बिजनेस रूल्स 1961 के नियम 12 के अंतर्गत की गयी सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। एसीबी के डीजी ने कहा है कि सिंचाई घोटाले से जुड़े मामले में लगभग 3000 अनियमितताओं की जांच की जा रही है जिनमें से 9 मामलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। 

लगता है, बड़ी जांच एजेंसियों में अब उतनी भी रीढ़ की हड्डी नहीं बची है जितनी की हमारे कुछ थानेदारों में अब भी है। आज के महाराष्ट्र सरकार के इस निर्णय से एसीबी की जांच और उसकी सत्यनिष्ठा खुद ही सवालों के घेरे में आ गयी है। 

© विजय शंकर सिंह 

Friday 22 November 2019

एलेक्टोरेल बांड एक सुनियोजित घोटाला है / विजय शंकर सिंह

किसी भी राजनीतिक दल को मिलने वाले चंदे इलेक्टोरल बॉन्ड कहा जाता है. ये एक तरह का नोट ही है जो एक हज़ार, 10 हज़ार, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ तक आता है. कोई भी भारतीय नागरिक इसे स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से खरीद सकता है और राजनीतिक पार्टी को चंदा दे सकता है। पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए थे जिनके ज़रिए उद्योग और कारोबारी और आम लोग अपनी पहचान बताए बिना चंदा दे सकते हैं। 

इलेक्टोरल बॉन्ड्स में पारदर्शिता की कमी को लेकर चुनाव आयोग लगातार सवाल उठाता आया है। इसी साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में इलेक्टोरल बॉन्ड पर तत्काल रोक लगाए बगैर सभी पार्टियों से अपने चुनावी फ़ंड की पूरी जानकारी देने को कहा था। 

● इलेक्टोरल बॉन्ड 15 दिनों के लिए वैध रहते हैं केवल उस अवधि के दौरान ही अपनी पार्टी के अधिकृत बैंक ख़ाते में ट्रांसफर किया जा सकता है. इसके बाद पार्टी उस बॉन्ड को कैश करा सकती है.

● दान देने वालों की पहचान गुप्त रखी जाती है और उसे आयकर रिटर्न भरते वक़्त भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं देनी होती.

● पिछले एक साल में इलेक्टोरल बॉन्डस के जरिए सबसे ज़्यादा चंदा बीजेपी को मिला है। 

● एक आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार पार्टियों को मिले चंदे में 91% से भी ज़्यादा इलेक्टोरल बॉन्ड एक करोड़ रुपये के थे. इन बॉन्ड्स की क़ीमत 5,896 करोड़ रुपये थी.

● आरटीआई एक्टिविस्ट लोकेश बत्रा को मिली जानकारी के मुताबिक़, 1 मार्च 2018 से लेकर 24 जुलाई 2019 के बीच राजनीतिक पार्टियों को जो चंदा मिला उसमें, एक करोड़ और 10 लाख के इलेक्टोरल बॉन्ड्स का लगभग 99.7 हिस्सा था.

● इस दौरान दिए गए सभी इलेक्टोरल बॉन्ड्स की क़ीमत 6,128.72 करोड़ रुपये थी.

● इसके उलट एक हज़ार, 10 हज़ार और एक लाख के बॉन्ड्स से पार्टियों को सिर्फ़ 15.06 करोड़ के बराबर चंदा मिला.

● इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के जरिए मिले चंदे का 83% हिस्सा सिर्फ़ चार शहरों से आया. ये चार शहर हैं: मुंबई, कोलकाता, नई दिल्ली और हैदराबाद. इन चारों शहरों से मिलने वाले बॉन्ड की क़ीमत 5,085 करोड़ रुपये थी.

● इन बॉन्ड्स का लगभग 80 फ़ीसदी हिस्सा दिल्ली में कैश कराया गया। 

#एलेक्टोरेलबांड #राजनीतिकचंदा 
● 30 अगस्त से 27 सिंतबर 2017 के बीच RBI गवर्नर उर्जित पटेल ने 3 बार चिठ्ठी लिखी थी वित्तमंत्री अरुण जेटली को कि, इलेक्टोरल बांड मत जारी करो..ये भ्र्ष्टाचार है..नही माना वित्तमंत्री जेटली ने। 

● बोला गया कि भारत की गरीब जनता चंदा देगी..तो जानिए कितने गरीबो ने चंदा दिया..मार्च'18 - अक्टूबर '19 तक..

बांड की कीमत   कितने बिके    अमाउंट
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1000₹               47             47,000
10,000₹            60             6 लाख
1 लाख ₹         1695     16.95 करोड़
10 लाख ₹       4877     487.70 करोड़
1 करोड़ ₹        5624     5624 करोड़

● ये टोटल 6,128.71 करोड़ है..
इसका 91.76% हिस्सा 1 करोड़ कीमत के बांड से आया है..और 1 करोड़ का चंदा देने वाला गरीब है?

● इन बांड को केवल लोकसभा चुनावों के लिये रखा गया था..पर विधानसभा चुनावों में भी इस्तेमाल हुवा..इनका सबसे बड़ा हिस्सा बीजेपी को मिला। 
(सोर्स : 21 नवंबर और 22 नवंबर 2019 का द टेलीग्राफ )

© विजय शंकर सिंह